window.location = "http://www.yoururl.com"; Homerule Movement 1916 | होमरूल आंदोलन

Homerule Movement 1916 | होमरूल आंदोलन

 


होम-रूल आन्दोलन, 1916 :

प्रथम विश्वयुद्ध के विस्फोट और 1914 में तिलक की कारावास की सजा पूरी होने पर उनकी रिहाई के बाद तिलक एवं श्रीमती एनी बेसेन्ट ने एक-दूसरे के पारस्परिक सहयोग से होम-रूल आन्दोलन प्रारम्भ करने का निर्णय लिया। बाल गंगाधर तिलक 6 साल की लम्बी सजा काटने के बाद 16 जून 1914 ई0 को एक.मांडले जेल से छूटे। उस दौरान उग्र राष्ट्रवादी नेता अरविन्द घोष सन्यास की राह पकड कर पांडीचेरी चले गये थे और लाला लाजपत राय अमेरिका में थे। नरमपंथी राष्ट्रवादी आन्दोलन में अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे थे। तिलक ने महसूस किया कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुये बगैर कोई भी राजनीतिक आन्दोलन सफल नही होेेेेेेे सकता। दूसरी तरफ नरमपंथी खेमे के तमाम नेता अब यह महसूस करने लगे थे कि 1907 ई0 में सूरत में जो कुछ भी हुआ, वह गलत था। नरमपंथियों पर अभी हाल ही में कांग्रेस में शामिल हुई एनी बेसेण्ट जैसी नेता का लगातार दबाव पड़ रहा था कि देश में राष्ट्रवादी राजनीतिक आन्दोलन को फिर से शुरू किया जाय।

एनी बेसेण्ट ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत इंग्लैण्ड से प्रारंभ किया था। 1893 ई0 में वह थियोसॉफीकल सोसायटी के लिए कार्य करने के उद्देश्य से भारत आई। यह सोसायटी भारत के नवजागरण के लिए कार्य कर रही थी। श्रीमती एनी बेसेण्ट भारत की दार्शनिक विचारधारा से बहुत प्रभावित थी और वे भारत को ही अपनी मातृभूमि मानने लगी थी। थियोसॉफी के प्रचार के क्रम में उन्होने शीध्र ही समर्थकों की एक बडी संख्या तैयार कर ली। अतः एनी बेसेण्ट ने अपनी गतिविधियों का दायरा बढाने का निर्णय किया और आयरलैण्ड  के नेता रेडमाण्ड द्वारा स्थापित होमरूल लीग की तर्ज पर भारत में भी स्वशासन की मॉंग को लेकर आन्दोलन चलाने की योजना बनाई। 

होमरूल आन्दोलन के उद्देश्य -

गृह-शासन अथवा होमरूल आन्दोलन एक वैधानिक और शान्तिपूर्ण आन्दोलन था जिसका उद्देश्य भारत में स्वशासन की स्थापना करना था। यह आन्दोलन एक अधिकारपूर्ण माँग की अभिव्यक्ति था अर्थात् स्वशासन की माँग कोई ’याचना’ नहीं थी कि भारत का स्वशासन ब्रिटिश सरकार की कृपा पर निर्भर हो, भारतीयों को स्वशासन दिलाने के मुख्य उद्देश्य के अतिरिक्त होमरूल आन्दोलन के कुछ और भी तात्कालिक उद्देश्य थे । इसका पहला उद्देश्य था कि स्थानीय संस्थाओं और विधानसभाओं में जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों का स्वशासन स्थापित किया जाए। श्रीमती एनीबेसेन्ट ने कहा था- राजनीतिक सुधारों से हमारा अभिप्रायः ग्राम पंचायतों से लेकर जिला नगरपालिका और प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं तक राष्ट्रीय संसद के रूप में स्वशासन की स्थापना है। इस राष्ट्रीय संसद के अधिकार स्वशासित उपनिवेशों की व्यवस्थापिकाओं के समान होंगे। उन्हें नाम चाहे जो भी दिया जाए, किन्तु जब ब्रिटिश साम्राज्ञी की संसद में स्वशासित राज्यों के प्रतिनिधि लिए जाएँ तो भारत का प्रतिनिधि भी इस संसद में होगा। दूसरा उद्देश्य यह था कि जब भारतीय तन-मन-धन से युद्ध में अंग्रेजों की सहायता कर रहे हैं तो उन्हें स्वशासन देकर सन्तुष्ट किया जाना चाहिए। एनीबेसेन्ट का कहना था कि यह ब्रिटिश साम्राज्य के हित में होगा कि वह भारत को गृह-शासन प्रदान करे। तीसरा उद्देश्य, भारतीय राजनीति को उग्रधारा की ओर जाने से रोकना था। श्रीमती एनीबेसेन्ट ने तत्कालीन आतंकवादी क्रान्तिकारी आन्दोलन की नब्ज पहचानी और यह निष्कर्ष निकाला कि यदि भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को संयुक्त नेतृत्व प्रदान नहीं किया तो उस पर आतंकवादियों, क्रान्तिकारियों का आधिपत्य हो जाएगा। अतः उन्होंने शांतिपूर्ण तथा वैधानिक आन्दोलन चलाकर भारतीयों के जोश को दूसरी ओर मोड़ देने की चेष्टा की। श्रीमती एनीबेसेन्ट का प्रयास बहुत कुछ सफल हुआ और उन्होंने उग्रवादियों को आतंकवादियों के प्रयोग से सदैव के लिए मुक्त कर दिया। चौथा उद्देश्य यह था कि भारतीय राजनीति के शान्त जीवन में नए प्राण फूँकना आवश्यक था। श्रीमती एनीबेसेन्ट ने समय की माँग को पहचाना और होमरूल आन्दोलन चलाकर भारतीय जनता को झकझोर दिया । उन्होंने कहा, “मैं भारत में वैतालिक का कार्य कर रही हूँ और सब सोने वालों को जगा रही हूँ ताकि वो उठ बैठें तथा अपनी मातृभूमि के लिए कार्य करें।” 

होमरूल आन्दोलन की प्रगति -

श्रीमती बेसेन्ट ने यह अनुभव किया कि स्वशासन प्राप्त किए बिना कोई वास्तविक प्रगति नहीं हो सकती है, अतः वे इस राजनीतिक संघर्ष में कूद पड़ीं। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि उस समय उदारवादियों के नियंत्रणाधीन कांग्रेस इतनी शक्तिहीन है कि वह स्वशासन की दिशा में कोई भी कार्य नहीं कर सकती है। इस हेतु वह स्वयं कांग्रेस में शामिल हो गयी और बिखरे कांग्रेस को एकीकृत करने का प्रयास तेज कर दिया। एनी बेसेण्ट ने भारतीय राजनीतिक प्रवृति का विश्लेषण करते हुये पाया कि यदि भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को संयत नेतृत्व नही दिया गया तो इसपर क्रान्तिकारियों का आधिपत्य स्थापित हो जायेगा। इसके अतिरिक्त युद्धकाल में भारतीय राजनीतिक आन्दोलन  भी शिथिल पड़ गया था और सक्रिय और प्रभावकारी नेता के अभाव में राष्ट्रीय आन्दोलन की प्रगति अवरूद्ध हो गयी थी। अतः भारतीय जनमानस को सुषुप्तावस्था से जागृत करना आवश्यक था। इस प्रकार उन्होने समय की मॉग को पहचाना और होम रूल आन्दोलन चलाकर भारतीय जनता को झकझोर देने का प्रयास किया।

1915 ई0 के प्रारंभ में एनी बेसेण्ट ने दो अखबारों- ‘न्यू इण्डिया‘ और ‘कामनवील‘ के माध्यम से आन्दोलन छेड दिया।  उनकी मॉंग थी कि जिस तरह गोरे उपनिवेशों में वहॉ की जनता को अपनी सरकार बनाने का अधिकार दिया गया है, भारतीय जनता को भी स्वशासन का अधिकार मिले। अप्रैल 1915 के बाद एनी बेसेण्ट ने और भी कड़ा रूख अख्तियार किया। इन अखबारों ने ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के अन्तर्गत स्वशासन के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, धार्मिक स्वतंत्रता, राष्ट्रीय शिक्षा, सामाजिक और राजनीतिक सुधारों को अपना आधारभूत कार्यक्रम बनाया।

1915 में जब तिलक को कांग्रेस में शामिल करने की स्वीकृति मिल गयी तो अप्रैल 1916 में बेलगॉंव में हुये प्रान्तीय सम्मेलन में उन्होने ‘होम रूल लीग‘ के गठन की घोषणा कर दी। इसे देखकर एनी बेसेण्ट के समर्थक भी उतावले होने लगे और एनी बेसेण्ट से ‘होम रूल लीग‘ की स्थापना की अनुमति ले ली। इस प्रकार एनी बेसेण्ट ने सितम्बर 1916 में ‘होम रूल लीग‘ का गठन किया। शीध्र ही तिलक और एनी बेसेण्ट ने अपनी-अपनी लीग के लिए कार्यक्षेत्रों का बॅटवारा कर लिया। महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रान्त और बरार तिलक के हिस्से आया जबकि देश के शेष भाग एनी बेसेण्ट की लीग के हिस्से में आया।

दोनों नेताओं ने होम रूल के पक्ष में अपने-अपने समाचार पत्रों- श्रीमती एनी बेसेन्ट के ‘कॉमनवील‘ और ‘न्यू इण्डिया‘ तथा तिलक के ‘मराठा‘ एवं ‘केसरी‘ के माध्यम से प्रचार करना प्रारम्भ किया। दोनों ने जनता को होम रूल की विचारधारा से अवगत कराने के लिए देशव्यापी दौरे किए। तिलक ने मुख्य रूप से जनता को समझाया गया कि इसकी जरूरत क्यों है, इसका उद्देश्य क्या है ? तिलक ने क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा और भाषाई राज्यों की मॉग को स्वराज्य की मॉग से जोड दिया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि तिलक के उस समय दिये गये भाषणों में कहीं से भी धार्मिक अपील नही झलकती। होम रूल की मॉग पूरी तरह धर्मनिरपेक्षता पर आधारित थी। तिलक ने 6 मराठी और 2 अंग्रेजी परचे निकालकर अपने प्रचार कार्य को और तेज कर दिया। 

तिलक और एनी बेसेंट की ’लीग’ में से एनी बेसेण्ट का संगठन बहुत ढीला था। कोई भी तीन व्यक्ति मिलकर कहीं भी शाखा खोल सकते थे। जबकि तिलक की लीग का संगठन बहुत मज़बूत था और सभी छह शाखाओं के काम और कार्यक्षेत्र निर्धारित थे। एनी बेसेंट की लीग की दो सौ शाखाएँ थीं जिनमें से कुछ शाखाएँ क़स्बों और नगरों में थीं, बाक़ी गाँवों में। एक शाखा के तहत कुछेक गाँव ही आते थे। हालाँकि कार्यकारी परिषद् का चुनाव किया जाता था, लेकिन सारा काम एनी बेसेंट और उनके सहयोगी अरुंडेल, सी0पी0 रामास्वामी अय्यर तथा बी.0पी0 वाडिया देखते थे। सदस्यों को निर्देश देने का कोई संगठित तरीका नहीं अपनाया गया। या तो व्यक्तिगत रूप से सदस्यों को निर्देश दे दिए जाते या फिर ’न्यू इंडिया’ में अरूंडेल के लेखों को पढ़कर लोग जानते कि उन्हें क्या करना है। एनी बेसेंट की लीग तिलक की लीग की तुलना में सदस्य बनाने में भी पीछे रही। मार्च 1917 तक एनी बेसेण्ट की लीग के सदस्यों की संख्या केवल सात हज़ार थी। जवाहरलाल नेहरू, बी0 चक्रवर्ती और जे0 बनर्जी भी इसमें शामिल हो गए थे। फ़िलहाल शाखाओं की गिनती से लीग की ताक़त का अनुमान लगाना कठिन है, क्योंकि इनमें से कुछ तो काफ़ी सक्रिय थे और कुछ निष्क्रिय क्योंकि वे ज्यादातर ’थियोसॉफिकल सोसाइटी’ की गतिविधियों तक ही सीमित थे। बतौर उदाहरण, मद्रास नगर में शाखाओं की संख्या सबसे ज़्यादा थी, लेकिन बंबई, उत्तरप्रदेश के नगरों और गुजरात के ग्रामीण इलाकों की शाखाएँ काफी सक्रिय थीं, हालाँकि उनकी संख्या कम थी।

इन सारी गतिविधियों का एकमात्र लक्ष्य था ’होम रूल’ की माँग के लिए बड़े पैमाने पर आंदोलन छेड़ना। इसके लिए राजनीतिक शिक्षा देना और राजनीतिक बहस शुरू करना बहुत ज़रूरी था। अरुंडेल ने ’न्यू इंडिया’ के माध्यम से अपने समर्थकों को राजनीतिक बहस छेड़ने, राष्ट्रीय राजनीति के बारे में जानकारी देनेवाले पुस्तकालयों की स्थापना, छात्रों को राजनीतिक शिक्षा देने के लिए कक्षाओं का आयोजन, परचे बाँटने, चंदा इकट्ठा करने, सामाजिक कार्य करने, राजनीतिक सभाओं के आयोजन, दोस्तों के बीच ’होम रूल’ के समर्थन में तर्क देने तथा उन्हें आंदोलन में भागीदार बनाने के लिए कार्य करने को कहा। कई शाखाओं ने इन पर अमल किया। राजनीतिक बहस चलाने पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया।

होम रूल का प्रचार कितना तेज़ हुआ, इसका अंदाज़ इसी तथ्य से लगा सकते हैं कि सितंबर 1916 तक  ’प्रचार फंड’ से छापे जाने वाले तीन लाख परचे बाँटे जा चुके थे। यह ’प्रचार फंड’ कुछ महीने पहले ही स्थापित किया गया था। इन परचों में तत्कालीन सरकार का कच्चा चिट्ठा होता था और स्वराज के समर्थन में तर्क दिए जाते थे। एनी बेसेंट की लीग की स्थापना के बाद इन परचों को फिर छापा गया। कई क्षेत्रीय भाषाओं में भी इनका प्रकाशन हुआ। साथ-साथ जनसभाओं का आयोजन और भाषण का क्रम भी जारी रहा। जब भी किसी मुद्दे को लेकर देशव्यापी प्रतिरोध का आह्वान किया जाता, लीग की सारी शाखाएँ इसका समर्थन करतीं। नवंबर 1916 में, जब एनी बेसेंट पर बरार व मध्य प्रांत में जाने पर प्रतिबंध लगाया गया, तो अरुंडेल की अपील पर लीग की तमाम शाखाओं ने विरोध बैठकें आयोजित कीं और वाइसराय तथा गृह सचिव को विरोध प्रस्ताव भेजे। इसी तरह 1917 में जब तिलक पर पंजाब और दिल्ली जाने पर प्रतिबंध लगाया गया तो पूरे देश में विरोध-बैठकें हुईं। लीग की तमाम शाखाओं ने इसका डटकर विरोध किया।

कांग्रेस की अर्कमण्यता से क्षुब्ध अनेक नरमपंथी कांग्रेसी भी ’होम रूल’ आंदोलन में शामिल हो गए। गोखले की ’सर्वेट-ऑफ़ इंडिया सोसाइटी’ के सदस्यों को लीग का सदस्य बनने की इजाज़त नहीं थी, लेकिन उन्होंने जनता के बीच भाषण देकर और परचे बाँटकर ’होम रूल’ आंदोलन का समर्थन किया। उत्तरप्रदेश में अनेक नरमपंथी राष्ट्रवादियों ने लखनऊ कांग्रेस सम्मेलन (1916) की तैयारी के सिलसिले में होम रूल लीग के कार्यकर्ताओं के साथ गाँवों-कस्बों का दौरा किया। इनकी ज्यादातर बैठकें पुस्तकालयों में होतीं थी जहाँ छात्र, व्यवसायी व अन्य पेशों से जुड़े हुए लोग इकट्ठा होते और अगर बैठक किसी बाज़ार के दिन होती तो इसमें गाँवों से आए किसान भी शरीक होते। इन बैठकों में हिदुस्तान की ग़रीबी और बदहाली का मुद्दा उठाया जाता। अतीत की समृद्धि की याद दिलाई जाती और यूरोप के स्वतंत्रता आंदोलनों पर प्रकाश डाला जाता, उससे प्रेरणा लेने की अपील की जाती। इन बैठकों में हिंदी भाषा का इस्तेमाल किया जाता था। नरमपंथियों का होम रूल लीग को समर्थन देना, कोई अचरज की बात नहीं थी, क्योंकि लीग, नरमपंथियों के राजनीतिक प्रचार व शैक्षणिक कार्यक्रमों को ही अमली जामा पहना रही थी।

सरकारी दमनचक्र -

होम रूल आन्दोलन जैसे जैसे लोकप्रिय होता गया, सरकार ने दमनात्मक कार्यवाहियॉं तेज कर दी। तिलक द्वारा होल रूल की सभाओं में दिए गए उनके कुछ भाषणों के आधार पर 23 जुलाई 1916 को उनके 60वें जन्मदिन पर एक ‘कारण बताओं नोटिस‘ दिया गया जिसमें लिखा था कि आपकी गतिविधियों के आधार पर आपके उपर क्यों न प्रतिबंध लगाया जाय। इस आरोप में उस पर मुकदमा चलाया गया और तिलक की ओर से मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में वकीलों की एक पूरी टीम ने मुकदमा लड़ा। मजिस्ट्रेट की अदालत में वे मुकदमा हार गये परन्तु नवम्बर 1916 में हाईकोर्ट ने उन्हे निर्दोष करार दिया। होम रूल आन्दोलन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुये मद्रास सरकार ने छात्रों के राजनीतिक बैठकों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया जिसका पूरे देश में विरोध हुआ। 1917 में श्रीमती एनी बेसेन्ट के साथ-साथ जार्ज अरूंडेल तथा वी0पी0 वाडिया को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके खिलाफ देशव्यापी प्रदर्शन हुए। सर एस0 सुब्रह्मण्यम अय्यर ने सरकारी उपाधि ‘नाइटहुड‘ अस्वीकार कर दी। मदनमोहन मालवीय, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और मुहम्मद अली जिन्ना जैसे तमाम नरमपंथी नेताओं ने एनी बेसेंट व अन्य नेताओं की गिरफ़्तारी के खि़लाफ़ आवाज़ उठाई। 28 जुलाई 1917 को कांग्रेस की एक बैठक में तिलक ने कहा कि यदि सरकार इन लोगों को तुरन्त रिहा नहीं करती है, तो शांतिपूर्ण असहयोग आंदोलन चलाया जाएगा। गाँधीजी के कहने पर शंकरलाल बैंकर और जमुनादास, द्वारकादास ने ऐसे एक हज़ार लोगों के हस्ताक्षर इकट्ठे किए जो सरकारी आदेशों की अवहेलना करके जुलूस की शक्ल में जाकर एनी बेसेंट से मिलना चाहते थे। इन लोगों ने ’स्वराज’ के समर्थन में किसानों और मज़दूरों से हस्ताक्षर कराना शुरू किया। गुजरात के क़स्बों और गाँवों का दौरा किया गया और वहाँ लीग की शाखाएँ स्थापित करने में मदद की गई। इससे होम रूल लीग के सदस्यों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई।

इस प्रकार सरकारी दमन ने आंदोलन को और बढ़ावा दिया, आंदोलनकारियों को और जुझारू बनाया। मान्टेग्यू ने अपनी डायरी में लिखा है - “शिव ने अपनी पत्नी को 52 टुकड़ों में काटा, भारत सरकार ने जब एनी बेसेंट को गिरफ्तार किया, तो उसके साथ ठीक ऐसा ही हुआ।’

इन घटनाओं के बाद इंग्लैंड की सरकार ने अपनी नीतियाँ बदलीं। अब उसका रुख समझौतावादी हो गया। नए गृह सचिव मान्टेग्यू ने हाउस ऑफ़ कामंस में ऐतिहासिक घोषणा करते हुये कहा- “ब्रिटिश शासन की नीति है कि भारत के प्रशासन में भारतीय जनता को भागीदार बनाया जाए और स्वशासन के लिए विभिन्न संस्थानों का क्रमिक विकास किया जाए जिससे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य से जुड़ी कोई उत्तरदायी सरकार स्थापित की जा सके।“ इस घोषणा का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि अब होम रूल या स्वराज की माँग को देशद्रोही नहीं कहा जा सकता था। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं था कि ब्रिटिश हुकूमत स्वराज की मॉग मानने ही जा रही थी। फ़िलहाल मान्टेग्यू की घोषणा के चलते सितंबर 1917 में एनी बेसेंट को रिहा कर दिया गया।

आन्दोलन की असफलता -

1917 में भारी सफलता मिलने के बावजूद 1918 तक आते-आते अनेक कारणों से होम रूल आंदोलन कमज़ोर पड़ गया और मृतप्राय हो गया। सबसे बड़ी बात यह थी कि एनी बेसेंट की गिरफ़्तारी से उत्तेजित होकर जो नरमपंथी इस आंदोलन में शामिल हुए थे, उनकी रिहाई के बाद निष्क्रिय हो गए। सरकार ने सुधारों का आश्वासन दिया था अतः इन नेताओं को लगा कि अब आंदोलन की ज़रूरत नहीं है। इसके अलावा कानून निषेध आंदोलन चलाने की चर्चा से भी वे नाराज़ थे। इसीलिए इन्होंने सितंबर 1918 के बाद से कांग्रेस की बैठकों में भाग लेना छोड़ दिया। 1918 में सुधार-योजनाओं की घोषणा से राष्ट्रवादी खेमे में एक और दरार पड़ गई। कुछ लोग इसे ज्यों-का-त्यों स्वीकार करने के पक्ष में थे तो कुछ लोग इसे पूरी तरह नामंजूर करना चाहते थे। कुछ लोगों का मानना था कि इसमें कई कमियाँ तो हैं पर इसे आजमाना चाहिए। इन सुधारों और शांतिपूर्ण असहयोग आंदोलन के मुद्दों पर खुद एनी बेसेंट दुविधा में थीं। कभी तो वह इसे ग़लत कहतीं और कभी अपने समर्थकों के दबाव के कारण ठीक कहतीं। शुरू में तिलक के साथ एनी बेसेंट ने भी कहा कि इन सुधार-योजनाओं को भारतीय जनता मंजूर न करे, यह उसका अपमान है, पर बाद में उन्होंने इसे मान लेने की अपील की। एक प्रकार से अगस्त 1917 के मॉण्टेग्यू घोषणा के उपरान्त श्रीमती एनी बेसेण्ट ने अपनी होम रूल लीग का काम बन्द कर दिया। तिलक काफ़ी समय तक अपने निर्णय पर अडिग रहे, लेकिन एनी बेसेंट की ढुलमुल नीतियों और नरमपंथियों के रुख में बदलाव के कारण वह अकेले अपने बूते पर इन सुधारों का विरोध करते हुए आंदोलन की गाड़ी को आगे खींचने में असमर्थ हो गए और साल के अंत में एक मुकदमें की पैरवी में इंग्लैंड चले गए। एनी बेसेंट एक सशक्त नेतृत्व देने में असमर्थ थीं और तिलक विदेश में थे। नतीजतन ’होम रूल आंदोलन’ नेतृत्वविहीन हो गया।

महत्व और मूल्यांकन -

इन असफलताओं के बावजूद होम रूल आन्दोलन व्यर्थ नही गया और भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में इसका विशेष महत्व है क्योंकि इसने एक ऐसे समय में स्वतंत्रता की ज्योति को जलाए रखा जब कांग्रेस निस्पन्द और निष्प्राण नजर आती थी। इसने राष्ट्र के समक्ष स्वशासन की एक ठोस योजना प्रस्तुत की और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए देश के सभी वर्गो में ‘संयुक्त मोर्चे की भावना‘ का आह्वान किया। इसने भारतीयों को सुषुप्तावस्था से जगाया, राष्ट्रीय आन्दोलन को नयी गति प्रदान की और सरकार को नयी सुधार योजना लागू करने के लिए बाध्य किया। होम रूल आन्दोलन के दो दूरगामी राजनीतिक परिणाम हुए। एक तो, इससे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में एक नई शक्ति और चेतना का संचार हुआ। होम रूल आन्दोलन से राजनीतिक क्षेत्र से उदारवादियों के प्रभाव का लगभग सूर्यास्त हो गया। इस आन्दोलन ने यह जता दिया कि यदि कांग्रेस अपने राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति करना चाहती है तो कोई भीख मॉंगने से काम नही चलेगा। इसकी व्यापक सफलता के परिणामस्वरूप कांग्रेस में गरमपंथियों का पुनर्प्रवेश हुआ और 1917 में श्रीमती बिसेन्ट को कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने घोषणा की कि भारत अब अनुग्रहों के लिए अपने घुटनों पर नहीं, बल्कि अधिकारों के लिए अपने पैरों पर खड़ा है।” अध्यक्ष के रूप में उनके निर्वाचन से कांग्रेस के इतिहास में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। दूसरा, होम रूल आन्दोलन ने शीघ्र ही ब्रिटिश सरकार को एक नवीन नीति के निर्धारण के लिए बाध्य किया, जिसे मॉण्टेग्यू घोषणा या अगस्त घोषणा के द्वारा स्पष्ट किया गया। यदि होमरूल आन्दोलन नही होता तो 20 अगस्त, 1917 की मांटेग्यू घोषणा उस समय नही होती और 1919 का अधिनियम आगे लम्बे समय के तक के लिए टल जाता। होम रूल आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसने भावी राष्ट्रीय आंदोलन के लिए जुझारू योद्धा तैयार किए। महात्मा गाँधी के नेतृत्व में यही जुझारू आंदोलनकारी आज़ादी की मशाल लेकर आगे बढ़े। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ ही भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के लिए एक नई पीढ़ी तैयार हो गई थी जिसे होम रूल आंदोलनकारियों ने ही तैयार किया था। अन्ततः हम यह कह सकते है कि राष्ट्रीयता के आन्दोलन को जीवित रखने तथा भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक नई तकनीक जोड़ने में होम रूल आन्दोलन का अपना विशिष्ट स्थान है।


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