विषय -प्रवेश :
भारत को स्वतंत्रता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले महात्मा गॉंधी एक महान राजनीतिज्ञ व स्वतंत्रता सेनानी ही नही अपितु वह एक सामाजिक व धार्मिक चिन्तक भी थे। भारतीय राजनीति में महात्मा गॉंधी के आगमन से राष्ट्रीय आन्दोलन को एक नई दिशा मिली। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारतीय राजनीति में एक नये युग का आरम्भ हुआ जिसे ‘‘गॉंधी युग‘‘ कहते है। 1917 से 1947 तक भारतीय राजनीति की बागडोर महात्मा गॉंधी के हाथ में रही और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का उन्होने पथ-प्रदर्शन किया। राष्ट्रीय आन्दोलन को उन्होने नये हथियारों से लैस किया और उसे एक नवीन दार्शनिक आधार प्रदान किया। वस्तुतः गॉंधीजी ने भारत की आत्मा को पहचाना, वह आत्मा जो गॉंवों में निवास करती है। वस्तुतः उनका दृष्टिकोण था कि जब तक गॉंवों में स्वतंत्रता की ज्योति नही फैलायी जाएगी तब तक राष्ट्र की बहुमुखी शक्ति एक बिन्दु पर नही मिल सकती। ऐसा नही करने पर विदेशी शासन को चुनौती देना सहज नही है। इसी से उन्होने किसानों, मजदूरों, अस्पृश्य जातियों के कन्धों को सबल बनाते और मिलाते हुये देश के धनी और शिक्षित वर्ग को लेकर हिन्दी-भारती के स्वर में स्वतंत्रता का शंखनाद किया।
आधुनिक भारतीय चिन्तकों में महात्मा गॉंधी समाज-दर्शन के एक ऐसे पैगम्बर माने जाते है, जिन्होने अहिंसा, सत्य और नैतिकता पर आश्रित सही समाज की नींव मजबूत की। देवत्व को मनुष्यत्व के धरातल से मिला देनेवाले महामानव गॉंधी का जीवनवृत्त बहुत ही अदुभूत है। महात्मा की संज्ञा प्राप्त करने में आखिर गॉंधी में क्या विशेषताएॅं थी, यह प्रश्न उनके व्यक्तित्व से स्वयंसिद्ध हो जाता है। इस राष्ट्रपिता के जीवन का आत्मपक्ष उतना ही पवित्र है, जितना उनका लोकपक्ष। लोक कल्याण की भावना से अभिभूत गॉंधी मानव की यथार्थ समस्याओं को सही रूप में ऑकने और उसका निदान ढॅूंढने में सफल रहे और उस निदान को विश्व के हर मानव ने अपनी आत्म रूप में स्वीकार भी किया। महात्मा गॉंधी भारत के ही नही बल्कि विश्व के हर मानवीय चेतना का सही मानवतावाद के रूप में प्रतिनिधित्व करते है।
प्रारंभिक जीवन -
महात्मा गॉंधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 ई0 में काठियावाड के पोरबन्दर में हुआ। पोरबंदर, गुजरात कठियावड़ की तीन सौ में से एक रियासत थी। इनके पिता का नाम करमचंद गॉंधी स्थानीय रियासत के दीवान थे। ऐश्वर्यपूर्ण परिवार में गॉंधी के शैशव की शान बहुत निराली रही। उनका जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था, जो कि जाति से वैश्य था। उनके दादा उत्तमचंद गांधी पोरबंदर के दीवान थे। आगे चलकर 1847 में उनके पिता करमचंद गांधी को पोरबंदर का दीवान घोषित किया गया। एक-एक करके तीन पत्नी की मृत्यु हो जाने पर करमचंद ने चौथा विवाह पुतलीबाई से किया, जिनकी कोख से गांधीजी ने जन्म लिया। मोहनदास की माँ का स्वभाव संतों के जैसा था। गांधीजी अपनी माँ के विचारों से खूब प्रभावित थे।
गांधीजी की आरंभिक शिक्षा पोरबंदर में हुई जहाँ गणित विषय में उन्होंने अपने आपको काफी कमजोर पाया। कई वर्षों के बाद उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि वे झेंपू, शर्मीले और कम बुद्धि वाले छात्र हुआ करते थे। सात वर्ष की उम्र में उनका परिवार काठियावाड की अन्य रियासत राजकोट में आकर बस गया। यहाँ भी उनके पिता को दीवान बना दिया गया। यहाँ पर उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण की। बाद में हाईस्कूल में प्रवेश लिया। अब वे मध्यम श्रेणी के शांत, शर्मीले और झेंपू किस्म के छात्र बन चुके थे। एकांत उन्हें बहुत प्रिय था। विद्यालय की गतिविधियाँ या परीक्षाओं के परिणाम से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला कि जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि वे भविष्य में महान बनेंगे। लेकिन विद्यालय में घटी एक घटना ने यह छिपा संदेश अवश्य दे डाला कि एक दिन यह छात्र आगे अवश्य जायेगा। हुआ यूं कि उस दिन स्कूल निरीक्षक विद्यालय में निरीक्षण के लिए आये हुए थे। कक्षा में उन्होंने छात्रों की ’स्पेलिंग टेस्ट लेनी शुरू की। मोहनदास शब्द की स्पेलिंग गलत लिख रहे थे, इसे कक्षाध्यापक ने संकेत से मोहनदास को कहा कि वह अपने पड़ोसी छात्र की स्लेट से नकल कर सही शब्द लिखें। उन्होंने नकल करने से इंकार कर दिया। बाद में उन्हें उनकी इस ’मूर्खता पर दंडित भी किया गया।
वैसे तो मोहनदास आज्ञाकारी थे, पर उनकी दृष्टि में जो अनुचित था, उसे वे उचित नहीं मानते थे। उनका परिवार वैष्णव धर्म का अनुयायी था। इस संप्रदाय में मांस भक्षण और धूम्रपान घोर पाप माने जाते थे। उन दिनों शेख महताब नाम का उनका एक सहपाठी था। महताब ने गांधीजी को यह विश्वास दिलाया कि अंग्रेज भारत पर इसलिए राज कर रहे हैं, क्योंकि वे मांस खाते हैं। उस छात्र के मुताबिक मांस ही अंग्रेजो की शक्ति का राज है। दोस्त के इस कुतर्कों ने मोहनदास को मांस खाने के लिए राजी कर लिया। देशभक्ति के कारण उन्होंने पहली बार मांस खाने के बाद वे पूरी रात सो नहीं सके। बार-बार उन्हें ऐसा लगता जैसे बकरा पेट में मिमिया रहा हो लेकिन थोड़े-थोड़े फासले पर वे मांस का सेवन करते रहे। कालान्तर में माता-पिता को आघात न पहुँचे इसलिए उन्होंने मांस खाना बंद कर दिया और वे शाकाहारी बन गये। इस उम्र में उन्होंने धूम्रपान और चोरी करने का भी अपराध किया। लेकिन बाद में रोकर पश्चाताप करते हुए उन्होंने सारी बुरी आदतों से किनारा कर लिया। करमचंद के परिवार में जैन, हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता था। विष्णुभक्त करमचंद की पत्नी पुतलीबाई स्वयं ‘प्रणामी संप्रदाय‘ से थीं, जिसमें हिंदू और मुस्लिम आस्थाओं का अभूतपूर्व संमिश्रण था। इनके मूर्तिरहित मंदिरों में वैष्णव-ग्रंथों के साथ कुरान को भी समान सम्मान और आस्था के साथ रखा जाता था। करमचंद का परिवार काठियावाड़ के बहुसंख्यक जैनों के संपर्क में भी था, जिनके धर्म का मुख्य आधार अहिंसा रहा है। किंतु गांधीजी शायद ही धार्मिक व्यक्ति के रूप में विकसित हुए थे, क्योंकि घर में माता के पास सदैव रहनेवाली ‘भगवद्गीता‘ भी उन्होंने पहली बार लंदन प्रवास के दौरान ही पढ़ी थी।
भारत में अपनी प्रारंभिक शिक्षा समाप्त कर मोहनदास बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैंड गये, जहाँ उनके सामान्य व्यक्तित्व में एक असाधारण मानव का बीज आरोपित हुआ। सबसे पहले वह थियोसोफिस्टों के संपर्क में आये, जिनके परामर्श पर उन्होंने सर एडविन आर्नल्ड द्वारा अनुवादित ‘भगवद्गीता‘ का अध्ययन किया। गीता के ‘कर्म सिद्धांत‘ ने उनके अंदर एक आधुनिक कर्मयोगी की नींव डाल दी। आर्नल्ड की कविता ‘‘दि लाइट ऑफ एशिया‘‘ को पड़कर वे पहली बार बुद्ध की शिक्षाओं से परिचित हुए। बुद्ध की अहिंसा, कृष्ण के कर्मयोग से मिलकर गांधी के राजनैतिक दर्शन में बदल गई। मात्र 13 वर्ष की आयु में गॉंधी का परिणय-प्रहार भी आ पहुॅंचा और कस्तूरबा बाई से उनका विवाह हो गया। ठीक इसके तीन वर्षों की अवधि बीतते-बीतते इनके पिता का देहान्त हो गया और उसके पश्चात उनकी माता ने धैर्य और साहस का पूर्ण परिचय देते हुये गॉंधी के शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध किया। कालान्तर में इंग्लैण्ड से बैरिस्टरी की उपाधि लेकर गॉंधीजी ने बम्बई उच्च न्यायालय में अपनी वकालत प्रारंभ की। वकालत की मंथर गति में ही उन्हे एक व्यापारिक संस्थान की ओर से अफ्रीका जाने के लिए निमंत्रण मिला और अफ्रीका की यह यात्रा उनके जीवन का अमूल्य अध्याय बना।
गॉधीजी के जीवन पर अनेक महान व्यक्तियों और ग्रन्थों का प्रभाव पडा। विशेषकर गॉंधीजी का व्यक्तित्व अपने माता-पिता के अनुकरण पर आधारित है। उनके माता-पिता वैष्णव थे अतः उनके घर का वातावरण धार्मिक बना रहा। उनपर महान दार्शनिक लियो टालस्टाय, रास्किन आदि का भी व्यापक प्रभाव पडा। टालस्टाय के प्रभाव से गॉंधीजी के मस्तिष्क में शारीरिक श्रम की अनिवार्यता और महत्व का विचार प्रतिष्ठित हुआ। गॉंधी ‘अपने श्रम की रोटी‘ के सिद्धान्त के लिए टालस्टाय के ऋणी है। इसके अतिरिक्त वे रास्किन की पुस्तक ‘‘अनटू दिस लास्ट‘‘ से भी बहुत प्रभावित थे और उन्होने ‘सर्वोदय‘ के नाम से इसका गुजराती में अनुवाद भी किया। रास्किन से प्रभावित होकर गॉंधीजी ने बुद्धि की अपेक्षा चरित्र पर अधिक बल दिया। लेकिन जिस ग्रन्थ ने गॉंधी को सबसे अधिक प्रभावित किया वह था- श्रीमद्भागवत गीता। वे अपनी समस्याओं का समाधान गीता में ढूॅंढते थे। गॉंधी ने अपनी आत्मकथा ‘‘माई एक्सपेरिमेंट विथ ट्रूथ‘‘ में लिखा है कि - ‘‘गीता के दूसरे अध्याय का मेरे उपर गहरा प्रभाव पडा और समय के साथ यह प्रभाव और भी गहरा होता गया और आज मैं इस पुस्तक को सत्य की खोज का सबसे उत्तम ज्ञान देने वाली पुस्तक मानता हूॅं।‘‘ इस प्रकार इन तीनों ने महात्मा गॉंधी के जीवन और दर्शन को बहुत गहराई से प्रभावित किया।
गॉंधी का दक्षिण अफ्रीकी प्रवास -
महात्मा गॉंधी की विचारधारा और दर्शन को आधार प्रदान करने में उनके दक्षिण अफ्रीका के प्रवास काल और उसके अनुभवों का विशेष योगदान था। मात्र 24 वर्ष की आयु में गुजरात के एक व्यापारी दादा अबदुल्ला का मुकदमा लडने के लिए महात्मा गॉंधी 1893 ई0 में दक्षिण अफ्रीका के एक शहर डरबन पहुॅचे। यहॉं उल्लेखनीय है कि दक्षिण अफ्रीका की धरती पर कदम रखनेवाले वह उच्च शिक्षा प्राप्त पहले भारतीय बैरिस्टर थे।
वस्तुतः दक्षिण अफ्रीका के अंग्रेज गन्ने की खेती करने के लिए इकरारनामें के तहत भारतीय मजदूरों को लेकर गये थे और इस प्रकार 1860 ई0 में दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों का पहला जत्था पहुॅंचा था। शीध्र ही मजदूर के साथ-साथ मुस्लिम व्यापारी भी गये और इस प्रकार वहॉं भारतीयों के बसने का सिलसिला प्रारंभ हो गया। दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों में अधिंकाशतः अशिक्षित थे और पैसे वाले व्यापारी भी उतनी ही अंग्रेजी समझ-बोल पाते थे जो व्यापार करने के लिए जरूरी था। दक्षिण अफ्रीका में एशियाई मजदूर नस्लीय उत्पीड़न तथा रंगभेद के शिकार थे। गांधीजी दो बार स्वयं नस्लीय भेदभाव के शिकार हुए। एक बार डरबन के न्यायालय में, जब यूरोपियन मजिस्ट्रेट ने उन्हें साफा उतारकर आने के लिए कहा और एक बार तब, जब उन्हें डरबन-प्रिटोरिया रेल यात्रा में आधी रात को एक यूरोपियन यात्री ने प्रथम श्रेणी के डिब्बे से निकाल दिया। गॉंधीजी के पास प्रथम श्रेणी का टिकट था, फिर भी उन्हे जबरन उतार दिया और मजबूरन उन्हे प्रतीक्षालय में ठिठुरते हुये जाड़े की रात बितानी पडी। यद्यपि इन दोनों अवसरों पर गांधीजी ने स्वामिभान के साथ अन्याय का विरोध किया, किंतु दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयें ने इसे अपनी नियति मान लिया था और इसके विरूद्ध आवाज उठाना और विरोध करना वे सपने में भी नहीं सोच सकते थे।
महात्मा गांधी ने प्रिटोरिया पहुँच कर भारतीयों की एक सभा आयोजित कर उनको अपनी आदतें सुधारने, अंग्रेजी सीखने और अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए अंग्रेजों के अत्याचार का विरोध करने की अपील की। उन्होंने प्रेस के माध्यम से भी अपना विरोध दर्ज कराया। ‘नटाल एडवरटाइजर‘ को एक चिट्ठी में उन्होंने लिखा- “क्या यही ईसाइयत है, यही मानवता है, यही न्याय है, इसी को सभ्यता कहते हैं‘‘? उन्होंने प्रिटोरिया में भारतीयों को रंगभेद की नीति के खिलाफ अपने अधिकारों के लिए संगठित होकर संघर्ष करने की प्रेरणा दी। गांधीजी के प्रोत्साहन से ही एक भारतीय द्वारा मुकदमा किये जाने के बाद ट्रेनों में पक्षपातपूर्ण व्यवहार करनेवाला कानून बंद किया जा सका।
मुकदमा समाप्त होने पर गॉंधीजी भारत लौटने की तैयारी में थे, तभी उन्हें पता चला कि भारतीयों को मताधिकार से वंचित करनेवाला एक विधयेक नटाल विधानमंडल में पारित होनेवाला है। दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों की प्रार्थना पर विधेयक के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए गांधीजी महीने भर रुकने के तैयार हुये लेकिन नस्ल और रंगभेद के खिलाफ इस लडाई को लडने के लिए उन्हे वहॉं 20 वर्ष रूकना पडा। दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रवास के दौरान उन्हे कई अनुभव प्राप्त हुये। उन्होने यह महसूस कर लिया कि गोरे अंग्रेज हर हाल में अपनी जातीय सम्प्रभुता कायम रखना चाहते है इसलिए पश्चिमी सभ्यता में पलकर आने के वावजूद भी उनके साथ इस तरह का व्यवहार किया गया। यूॅं तो दक्षिण अफ्रीका में गॉंधीजी के संघर्ष का एक लम्बा इतिहास है लेकिन इन 20 वर्षो के काल में गॉंधीजी दक्षिण अफ्रीकी विधानमण्डलों तथा लंदन में उपनिवेशों का काम देखने वाले गृह सचिव और ब्रिटिश संसद को ज्ञापन और याचिकाएॅं भेजते रहे। वे विभिन्न भारतीय समुदायों को संगठित करने और उनकी मॉंगों का प्रचार करने का लगातार प्रयास करते रहे। इसके लिए उन्होने 1894 ई0 में ‘‘नटाल भारतीय कांग्रेस‘‘ का गठन किया और 1904 ई0 में ‘‘इण्डियन ओपीनियन‘‘ नामक एक समाचारपत्र निकालना शुरू किया। शायद गॉंधीजी समझते थे कि भारतीय भी ब्रिटिश साम्राज्य के ही वाशिन्दे है और जब ब्रिटिश सरकार को सच्चाई का पता चलेगा तो वह भारतीयों के हित में जरूर कुछ न कुछ करेगी। लेकिन 1906 तक आते-आते उन्हे यह विश्वास हो गया कि संघर्ष के इन तरीकों से कुछ प्राप्त होने वाला नही है। अतः गॉंधीजी ने अपने संघर्ष में एक नये शस्त्र का प्रयोग करने का निर्णय लिया।
सत्याग्रह आन्दोलन की शुरूआत -
1906 ई0 में गॉंधीजी ने ‘अवज्ञा आन्दोलन‘ शुरू किया जिसे सत्याग्रह का नाम दिया गया है। सत्याग्रह के इस अस्त्र का प्रयोग सबसे पहले 1906 के ट्रांसवाल अध्यादेश (Asiatic Registration Act) के विरूद्ध किया गया जिसके अनुसार प्रत्येक भारतीय को सरकारी दफ्तरों में अपने अगूॅंठे का निशान लगाकर पंजीयन करवाना आवश्यक था। 11 सितम्बर 1906 को जोहांसबर्ग के एंपायर थियेटर में भारतीयों की एक विशाल सभा कर इस कानून के उल्लंघन का आन्दोलन शुरू किया। पंजीकरण की अंतिम तिथि तक आते-आते गोरी सरकार ने गॉंधीजी समेत 27 लोगों को बंदी बना लिया और उनपर मुकदमा चलाया गया। देखते ही देखते इस कानून का विरोध और तेज हो गया। लोगों के जहन से जेल का भय अब खत्म होने लगा और जेल को लोगों ने ‘किंग एडवर्ड‘ का होटल कहा। हालात गंभीर होते देख प्रधानमंत्री स्मट्स ने गॉंधीजी से बातचीत कर यह वादा किया कि यदि भारतीय स्वेच्छा से अपना पंजीकरण कराएॅ तो यह कानून वापस ले लिया जायेगा। गॉंधीजी ने इस मान लिया और सर्वप्रथम अपना पंजीकरण कराया। स्मट्स के इस मौखिक वादे पर जब गॉघीजी ने सत्याग्रह वापस लिया तो इस अप्रत्याशित वापसी से क्षुब्ध होकर एक पठान ने गॉंधीजी को पीटा भी था। लेकिन सरकार जब अपने वादे से मुकर गयी तो गॉंधीजी के नेतृत्व में भारतीयों ने पंजीकरण प्रपत्रों को एकत्रित कर सार्वजनिक रूप से उसकी होली जलाई।
इसी बीच ब्रिटिश सरकार ने प्रवासी भारतीयों के प्रवेश को रोकने के लिए एक कानून बनाया। अनेक भारतीय इस कानून का विरोध करने के लिए नटाल से ट्रांसवाल गये जिन्हे गिरफ्तार कर लिया गया। इससे ट्रांसवाल के अन्य अनेक भारतीय भी आन्दोलनकारियों के साथ हो गये। 1908 ई0 में गॉंधीजी समेत अनेक आन्दोलनकारी जेल में डाल दिये गये जहॉं उन्हे तरह-तरह से यातनाएॅं दी गई। इन विषम परिस्थितियों में गॉंधीजी ने सत्याग्रहियों के परिवारों के पुनर्वास और रोजी-रोटी के लिए अपने जर्मन शिल्पकार मित्र कालेनबाख की मदद से जोहांसबर्ग के निकट ‘‘टालस्टाय फार्म‘‘ स्थापित किया जो कालान्तर में ‘‘गॉंधी आश्रम‘‘ के नाम से जाना गया। इस फार्म के लिए भारत से भी अनेक लोगों और पार्टियों ने मदद की और रतन टाटा ने 25000 रूपये भेजे थे। 1913 ई0 में आव्रजन सम्बन्धी प्रतिबंध, नवागंतुकों के मामले निपटाते समय गैर-ईसाई भारतीयों के विवाह को अमान्य करने और भूतपूर्व अनुबंधित श्रमिकों पर तीन पौण्ड का कर लगाने के विरोध में एक बार फिर व्यापक पैमाने पर सत्याग्रह आन्दोलन शुरू हुआ। वस्तुतः भारतीय मजदूरों के लिए तीन पौण्ड का कर बहुत ज्यादा था। विवाह सम्बन्धी नये नियम से भारतीय महिलाएॅं भी आन्दोलन में शामिल हो गयी और यह एक जनआन्दोलन बन गया। 28 अक्टूबर 1913 को गॉंधीजी ने एक हड़ताल और देशव्यापी में 2000 मजदूरों, 122 महिलाओं और 50 बच्चों का नेतृत्व किया। इस दौरान व्यापक दमनचक्र का सहारा गोरी सरकार ने लिया जिससे समूचा भारतीय समुदाय तिलमिला उठा।
अन्ततः गॉंधीजी का संघर्ष सफल हुआ और दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने भारतीयों की मुख्य मॉगों को मान लिया। तीन पौण्ड का कर व पंजीकरण प्रमाणपत्र से सम्बद्ध कानून समाप्त कर दिये गये और भारतीयों को अपने रीति-रिवाज से विवाह करने की छूट मिल गई। 1893 में अफ्रीका जाने और जनवरी 1915 में अंतिम रूप से भारत आने तक गॉंधीजी 1896 और 1901 में सिर्फ दो बार भारत आये थे लेकिन दोनो बार शीध्र ही उन्हे वापस अफ्रीका बुला लिया गया था। वहॉं उन्होने अनुशासित कार्यकर्ताओं को बडी सावधानी से प्रशिक्षण देकर विशिष्ट कानूनों के शान्तिपूर्ण प्रदर्शन करने, सामूहिक गिरफ्तारियॉं देने, हड़ताल करने और शानदार मार्च निकालने जैसे तरीकों को अपनाकर सफलता पाई थी। दक्षिण अफ्रीका में अपने संघर्ष के तरीकों से गॉंधीजी को विश्वास हो गया था कि विरोधियों या शत्रुओं से अपनी मॉंगे मनवाने का सबसे बडा अस्त्र ‘सत्याग्रह‘ है। भारत लौटकर गॉंधीजी ने अपनी इसी रणनीति को भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में प्रयोग किया।
गॉंधीजी की स्वदेश वापसी -
गॉंधीजी दक्षिण अफ्रीका के अपने अनुभवों के कारण भारत में अपने राजनीतिक जीवन के आरंभ से ही अन्य राजनीतिज्ञों की अपेक्षा अखिल भारतीय स्तर पर अधिक मान्य हुये। जनवरी 1915 में आसपास गॉंधीजी भारत लौटे और जनता ने बडी गर्मजोशी से उनका स्वागत किया। दक्षिण अफ्रीका में अपने संघर्षो और उनकी सफलताओं से अनपढ़ और देहाती भारतीय भी गॉंधीजी के प्रति आदर का भाव रखते थे। गोखले ने पहले ही यह प्रचारित कर दिया था कि गॉंधीजी में वह सारे गुण है जो वीरों और शहीदों में पाये जाते है। उनमें लोगों को सम्मोहित करने की अनोखी प्रतिभा है।
गॉंधीजी का भी मानना था कि किसी भी प्रकरण पर तबतक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जबतक हर स्थिति का अध्ययन न कर लिया जाय। इसलिए भारत आने के बाद लगभग एक वर्ष तक देश के विभिन्न हिस्सों का दौरा करते रहे और 1916 में अहमदाबाद में अपने साबरमति आश्रम को व्यवस्थित करने का प्रयास करते रहे। साबरमती आश्रम के प्रथम 25 वासियों में 13 तामिलनाडु के थे। यह एक ऐसी बात थी जो तब किसी भी अन्य नेता के सम्बन्ध में सोची भी नही जा सकती थी। दूसरे साल भी वे सक्रिय राजनीति से दूर ही रहे। उस समय होमरूल आन्दोलन समूचे भारत में जोरों पर था लेकिन गॉंधीजी इसमें शामिल नही हुये। तात्कालीन प्रचलित किसी भी राजनीतिक धारा से गॉंधीजी सहमत नही थे। इसके अतिरिक्त वह तात्कालीन संघर्ष के तरीकों से भी असहमत थे क्योंकि उनकी दृष्टि में केवल सत्याग्रह ही किसी संघर्ष का एकमात्र तरीका है।
किसानों के बीच गॉंधीजी की लोकप्रियता में उनकी राजनीतिक शैली पर्याप्त सहायक साबित हुयी। उदाहरणस्वरूप- तीसरे दर्जे में यात्रा करना, आसान हिन्दुस्तानी भाषा में बोलना, 1921 के बाद लंगोटी पहनकर रहना, रामचरितमानस के बिंब-विधान को प्रयुक्त करना। प्रबल धार्मिक स्वर लिये हुये गॉंधीजी जैसा नेतृत्व शायद उस काल की ऐतिहासिक आवश्यकता थी। गॉंधीजी केवल जनता को उभारना नही चाहते थे बल्कि वे एक नियंत्रित जन-आन्दोलन चाहते थे जो उनके निर्धारित किये हुये मार्ग पर कठोरता से चले। इस प्रकार अपने विशिष्ट छवि के कारण जल्दी ही वे जनता के साथ एकाकार हो गये। गॉंधीजी की व्याख्या जनता ने अपने ढ़ंग से की, अपने स्वयं के प्राप्त अनुभवों से अर्थ निकाले और उनको निर्बल के बल का प्रतीक बना दिया।