window.location = "http://www.yoururl.com"; Lord Wellesley (1798-1805) | लार्ड वेलेजली

Lord Wellesley (1798-1805) | लार्ड वेलेजली


विषय-प्रवेश (Introduction)-

लार्ड़ कार्नवालिस के 1793 ई0 में वापस जाने के बाद सर जान शोर को गर्वनर जनरल के पद पर नियुक्त किया गया जो कम्पनी का वरिष्ठ अधिकारी और गवर्नर जनरल की परिषद का सदस्य रह चुका था। उसे राजस्व और व्यापार के क्षेत्र में भी कार्य करने का अनुभव था। कार्नवालिस के स्थायी बन्दोवस्त व्यवस्था को निर्धारित करने में भी उसने प्रमुख भूमिका निभाई थी। सर जान शोर ने हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई थी। उसने भारतीय राजाओं को अपना प्रशासन बिना किसी हस्तक्षेप के संचालित करने की पूरी स्वतंत्रता दी। उसने मराठों के विरूद्ध निजाम की सहायता करने से इनकार कर दिया, किन्तु अवध के मामले में हस्तक्षेप किया। 1797 ई0 में अवध के नवाब आस्फुद्दौला की मृत्यु के बाद उसने उसके पुत्र को उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया था किन्तु जब उसे पता चला कि वह अयोग्य है, तो उसे नवाब के पद से हटाकर आस्फुद्दौला के भाई को नवाब बना दिया।

सर जान शोर के पश्चात लार्ड वैलेजली 1798 ई0 में मात्र 37 वर्ष की युवास्था में भारत का गवर्नर नियुक्त किया गया। आधुनिक भारत के इतिहास में लार्ड वैलेजली का नाम विषेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उसका नाम सहायक संधि के जन्मदाता के रूप में लिया जाता हैं। गवर्नर जनरल नियुक्त होने से पूर्व वह इंग्लैण्ड़ के कोष का लार्ड़ और बोर्ड़ आफ कन्ट्रोल का आयुक्त रहा था। वैलेजली ऐसे समय में भारत आया जब अंग्रेज पूरी दुनिया में फ्रान्स के साथ संघर्ष कर रहे थे। इस समय तक अंग्रेजों की नीति थी कि अपने साधनों को सुदृढ़ बनाया जाय और नये इलाके तभी जीते जाएॅ जब बड़े शासकों को दुश्मन बनाए बिना सुरक्षापूर्वक ऐसा कर सकना संभव हो। वैलेजली का मानना था कि हस्तक्षेप न करने की नीति से अंग्रेजों के शत्रुओं को लाभ मिला है, इसे त्यागकर सक्रिय हस्तक्षेप और साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाना कम्पनी के लिए लाभदायक होगा। इस नीति के द्वारा ही भारत में फ्रांसिसी संकट का सामना किया जा सकता था। उसने फैसला किया कि सक्रिय हस्तक्षेप की नीति अपनाकर जितने अधिक भारतीय राज्य संभव हो, ब्रिटिश नियंत्रण में ले लिए जाय। उसकी इस साम्राज्यवादी नीति को ब्रिटिश सरकार और कम्पनी के ड़ायरेक्टरों के साथ साथ उद्योगपतियों का भी समर्थन प्राप्त था क्योंकि आद्यौगिक क्रान्ति के कारण इंग्लैण्ड़ के उद्योगपति कच्चा माल प्राप्त करने तथा तैयार माल के लिए बाजार चाहते थे। 

लार्ड वैलेजली के समय भारत की राजनीतिक दशा-

भारत में ब्रिटिश शासन का दूसरा बड़ा प्रसार लॉर्ड वेलेजली (1798-1805 ई0) के काल में ही हुआ। तत्कालीन भारत की राजनैतिक स्थिति भी वैलेजली के अनुकूल थी क्योंकि भारतीय राज्यों में पारस्परिक वैमनस्य था और विषम परिस्थिति में भी वे अंग्रेजों के विरुद्ध एकता स्थापित नहीं कर सके थे। दिल्ली के मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय की सत्ता नाममात्र की थी। मुगलों की शक्ति तथा वैभव पूर्णरूप से समाप्त हो चुका था। वह मुख्य रूप से मराठों के संरक्षण पर आश्रित था। हैदराबाद का निजाम अंग्रेजों से असंतुष्ट था क्योंकि 1795 ई0 में मराठा आक्रमण के समय सर जान शोर ने उसकी सहायता नहीं की थी। अब वह फ्रांसीसियों की सहायता से अपनी 14,000 की सेना का पुनर्गठन कर रहा था। मैसूर का शासक टीपू सुल्तान अंग्रेजों का प्रमुख शत्रु था। यद्यपि तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के बाद उसकी शक्ति क्षीण हो चुकी थी, फिर भी वह अंग्रेजों से प्रतिशोध लेने के लिए फ्रांसीसियों की सहायता से अपनी सेना का पुनर्गठन कर रहा था। इसके अलावा, उसने सहायता के लिए मारीशस, काबुल और अरब आदि देशों में अपने दूत भेजे थे। अवध का नवाब सआदत अली अंग्रेजों की पूर्ण अधीनता में था। राज्य की आमदनी का एक बड़ा भाग अंग्रेजी सेना के व्यय में चला जाता था। अंग्रेजों के निरंतर हस्तक्षेप तथा नवाब की अयोग्यता के कारण राज्य का प्रशासन अस्त-व्यस्त था। इस समय भारत की प्रमुख शक्ति मराठे थे और उनका संघ-राज्य उत्तर में दिल्ली से दक्षिण में मैसूर तक विस्तृत था। उन्होंने 1795 में खर्दा के युद्ध में निजाम को पराजित किया था। अवध पर उनके आक्रमण का भय बना रहता था। राजस्थान के राजपूत राजा उनकी आधीनता में थे और उन्हें चौथ देते थे, किंतु नये पेशवा की नियुक्ति के प्रश्न पर वे आपस में विवाद कर रहे थे और दौलतराव सिंधिया के कारण नाना फड़नवीस की स्थिति दुर्बल हो गई थी। पंजाब में महाराजा रणजीतसिंह ने लाहौर पर आधिपत्य करके सिख राज्य की स्थापना की और सिख मिसलों को संगठित करने में लगे थे। 

फ्रांस में नेपोलियन के उत्थान से अंग्रेजों के लिए गंभीर संकट उत्पन्न हो गया था। भारत पर आक्रमण करने के उद्देश्य से नेपोलियन मिस्र तक पहुॅंच गया था। उसने टीपू सुल्तान को पत्र लिखकर सहायता का वचन दिया था। अनेक फ्रांसीसी अधिकारी पूना, हैदराबाद और मैसूर के दरबारों में थे और भारतीय सेनाओं को प्रशिक्षित कर रहे थे। भारतीय शासकों के साथ मिलकर वे अंग्रेजों के विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे थे।

लार्ड वैलेजली का उद्देश्य और उसकी नीति- 

वैलेजली केवल युद्धनीति में विश्वास करता था। उसका मुख्य उद्देश्य भारत में कंपनी को सबसे बड़ी शक्ति बनाना और सभी भारतीय राज्यों को कंपनी पर निर्भर होने की स्थिति में लाना था। इसके लिए उसने सक्रिय हस्तक्षेप की नीति अपनाकर जितने अधिक भारतीय राज्य संभव हों, ब्रिटिश नियंत्रण में लाने का निर्णय किया। उसने अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए तीन उपायों का सहारा लिया- खुला युद्ध, पहले से अधीन बनाये जा चुके शासकों का इलाका हड़पना और सहायक संधि प्रणाली।

सहायक सन्धि प्रणाली (Subsidiary Treaty System)

जिस समय लार्ड़ वैलेजली भारत का गवर्नर जनरल बनकर भारत आया, उस समय भारत में ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी की स्थिति अत्यन्त सोचनीय थी। भूतपूर्व गवर्नर जनरलों की तटस्थता की नीति के कारण देशी राज्यों का पारस्परिक संघर्ष बढ़ता जा रहा था। दूसरी तरफ उस समय फ्रांसीसी क्रान्ति का महान नेता नेपोलियन बोनापार्ट ख्याति प्राप्त कर भारत विजय का स्वप्न देख रहा था। इस विषम परिस्थिति में भारतीय राज्यों को ब्रिटिश राजनीतिक परिधि में लाने तथा भारत में बढ़ रहे फ्रांसीसी प्रभुत्व को समाप्त करने के उद्देश्य से लार्ड़ वैलेजली ने सहायक सन्धि नीति का अनुसरण किया।

सहायक सन्धि का विकास-

सहायक सन्धि का अभिप्राय भारत में तात्कालीन ब्रिटिश इस्ट इण्ड़िया कम्पनी की उस नीति से है जिसके तहत् इस्ट इण्ड़िया कम्पनी भारतीय नरेशों से सन्धि करके संकट के समय उसे सैनिक सहायता का आश्वासन देती थी। इस कार्य के लिए कम्पनी एक अलग सेना रखती थी जिसका पूरा व्यय इस्ट इण्ड़िया कम्पनी सम्बद्ध राजा से लेती थी। इस्ट इण्ड़िया कम्पनी खर्च के लिए राजा से धन तथा काफी बड़ा भू-भाग भी लेती थी।

वेलेजली भारत में जिस सहायक संधि प्रणाली के कारण प्रसिद्ध रहा है, उसका अस्तित्व पहले से ही था और वह धीरे-धीरे विकसित हुई थी। एम0जी0 रानाडे का मानना है कि सहायक संधि प्रणाली की स्थापना सर्वप्रथम शिवाजी ने की थी। चौथ और सरदेशमुखी प्राप्त करके वह उस राज्य को संरक्षण प्रदान करते थे। मुगल साम्राज्य के पास इतनी शक्ति नहीं रही थी कि वह देशी राज्यों की एक दूसरे से रक्षा कर सके। ऐसी स्थिति में मराठे चौथ तथा सरदेशमुखी वसूल करने लगे और कहीं-कहीं जागीरें भी लेने लगे थे। इस प्रकार शिवाजी के बाद मराठों ने इस नीति का विस्तार किया। स्पष्ट है कि मूलतः मराठे सहायक सन्धि के जनक थे। 1728 ई0 में सबसे पहले पेशवा बाजीराव ने छत्रसाल के साथ इस तरह की सन्धि की थी। कुछ विद्वानों के अनुसार संभवतः डूप्ले पहला यूरोपीय था जिसने धन और भूमि प्राप्त करके अपनी सेना भारतीय राजाओं को किराये पर दिया था। फ्रांसीसी गवर्नर ड़ुप्ले ने निजाम सलावतजंग के साथ कुछ इसी प्रकार की सन्धि की थी जिसमें उसे निजाम की उŸारी सरकार का इलाका मिला था। 1765 ई0 में इलाहाबाद में शाहआलम द्वितीय के साथ अंग्रेजों ने शायद पहली स्पष्ट सहायक सन्धि की। सच तो यह है कि क्लाइव से लेकर वेलेजली तक सभी गवर्नर जनरलों ने इस प्रणाली का प्रयोग किया था। जैसे-जैसे अंग्रेजों की शक्ति बढ़ती गई वैसे-वैसे सहायक सन्धि की शर्ते और कड़ी होती गई। लार्ड़ वैलेजली ने सहायक सन्धि को पूर्णता प्रदान की। लार्ड वैलेजली की सहायक सन्धि के अनुसार भारतीय राजाओं द्वारा अंग्रेजी सेना के रखरखाव के लिए कुछ भू-भाग देना अनिवार्य कर दिया गया तथा साथ ही उसे कम्पनी की अधीनता स्वीकार करने पर बाध्य किया जाने लगा।

अल्फ्रेड लॉयल के अनुसार कंपनी के भारतीय युद्धों में भाग लेने की चार स्थितियाँ थीं। पहली अवस्था में कंपनी ने भारतीय मित्र राजाओं को उनके युद्धों में सहायता के लिए अपनी सेना किराये पर दी। इस तरह की पहली सहायक संधि 1765 ई. में अवध से की गई थी जब कंपनी ने निश्चित धन के बदले उसकी सीमाओं की रक्षा करने का वचन दिया था। इसके अलावा, अवध ने एक अंग्रेज रेजीडेंट को भी लखनऊ में रखना स्वीकार किया था। दूसरी अवस्था में कंपनी ने स्वयं अपने मित्रों की सहायता से युद्धों में भाग लिया। तीसरी अवस्था में भारतीय मित्रों ने सैनिकों के स्थान पर धन दिया, जिसकी सहायता से कंपनी ने अंग्रेजी अधिकारियों की देख-रेख में सेना भरती कर उन्हें प्रशिक्षण और साज-सज्जा देकर तैयार किया, जैसे 1798 ई. में हैदराबाद की संधि। धन के स्थान पर क्षेत्र की माँग इसका अंतिम और प्राकृतिक चरण था जिसमें कंपनी ने अपने मित्रों की सीमाओं की रक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया और इसके लिए अपनी एक सहायक सेना उस राज्य में रख दी। चूंकि भारतीय राजा समय से धन नहीं दे पाते थे और बकाया बढ़ जाता था, इसलिए कंपनी ने इन सेनाओं के भरण-पोषण के लिए पूर्णप्रभुसत्ता युक्त प्रदेश की माँग की।

सहायक सन्धि की शर्ते -

संक्षेप में, सहायक सन्धि की अधिरोपित शर्त निम्न बताए जा सकते है -

1. सहायक सन्धि करने वाले भारतीय राज्यों के विदेशी सम्बन्ध कम्पनी के अधीन होंगे। वे कोई युद्ध नही करेंगे और अन्य राज्यों से बातचीत इस्ट इण्ड़िया कम्पनी द्वारा ही होगी।

2. सहायक सन्धि करने वाले बड़े राज्यों को अपने यहॉ एक ऐसी सेना रखनी होती थी जिसकी कमान ब्रिटिश इस्ट इण्ड़िया कम्पनी के हाथों में होगी और जिसका उद्देश्य सार्वजनिक शान्ति बनाए रखना था। इसके लिए उन्हे ‘पूर्ण प्रभुसत्ता युक्त प्रदेश‘ कम्पनी को देना होगा। छोटे राज्यों को नकद धन देना होता था।

3. सहायक सन्धि करने वाले राज्यों को अपनी राजधानी में एक ब्रिटिश रेजीड़ेन्ट रखना होता था।

4. सहायक सन्धि करने वाले राज्यों को ब्रिटिश ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी की अनुमति के बिना किसी युरोपिय व्यक्ति को सेवा में नही रखना होता था।

5. ब्रिटिश इस्ट इण्ड़िया कम्पनी सहायक सन्धि करने वाले राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नही करेगी।

6. अन्त में ब्रिटिश इस्ट इण्ड़िया कम्पनी सहायक सन्धि करने वाले राज्यों की प्रत्येक प्रकार की शत्रुओं से रक्षा करने का आश्वासन देती थी।

सहायक सन्धि का क्रियान्वयन -

लार्ड़ वैलेजली ने सहायक सन्धि को सभी राज्यों पर लागू किया। यद्यपि वह इसका अविष्कारक नही था लेकिन इसे पूर्णता देने, एक व्यापक प्रणाली तथा साम्राज्यवादी साधन के रुप में प्रयोग करने का श्रेय उसी का प्राप्त है। लार्ड़ वैलेजली की नीति के तहत पहली सहायक सन्धि 1800 ई0 में हैदराबाद के निजाम के साथ की गई। इसके बाद 1801 ई0 में अवध के साथ, 1802 ई0 में पूना के पेशवा के साथ तथा 1802-03 ई0 में अन्य मराठा शासकों के साथ सहायक सन्धि की गई।

हैदराबाद

वेलेजली ने सबसे पहले सहायक संधि हैदराबाद के निजाम के साथ की। यद्यपि निजाम अंग्रेजों से रुष्ट था, फिर भी उसे मराठों पर विश्वास नहीं था। इसलिए उसने सितंबर, 1798 को सहायक संधि पर हस्ताक्षर कर दिये। इस संधि के अनुसार निजाम ने अपने राज्य से समस्त फ्रांसीसी सैनिकों को हटाकर पुनः अंग्रेजी बटालियनों को स्थायी रूप से रखना स्वीकार कर लिया। उसने कंपनी को सेना के व्यय के लिए 24 लाख रुपया वार्षिक देना स्वीकार किया और वचन दिया कि मराठों के साथ विवादों को हल करने के लिए वह  मध्यस्थता स्वीकार करेगा। यदि मराठे विवादों को हल करने के लिए तत्पर नहीं होते, तो ऐसी स्थिति में अंग्रेज निजाम को सुरक्षा प्रदान करेंगे। निजाम ने हैदराबाद में अंग्रेज रेजीडेंट रखना स्वीकार किया।

1800 में वेलेजली ने इस संधि में संशोधन किया। सहायक सेनाओं के खर्च के नाम पर नगद पैसा देने के बजाय निज़ाम ने 1792 ई0 तथा 1799 ई0 में जो प्रदेश मैसूर से प्राप्त किये थे, कंपनी को दे दिया। इस प्रकार हैदराबाद अंग्रेजों का एक अधीन राज्य बन गया।

मैसूर

यद्यपि तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध से टीपू की शक्ति क्षीण हो गई थी और उसके कई प्रदेशों पर अंग्रेजों, मराठों तथा निजाम का अधिकार हो गया था। फिर भी, वेलेजली टीपू की फ्रांसीसियों से साँठ-गाँठ को बड़ा खतरा समझता था क्योंकि जिस दिन वैलेजली भारत पहुँचा था, उस दिन टीपू के दूत मॉरीशस से एक फ्रांसीसी पोत तथा कुछ सैनिकों एवं फ्रांसीसी सहायता का वचन लेकर मंगलौर पहुँचे थे। दूसरी ओर टीपू भी अंग्रेज़ों के साथ अपने अवश्यसंभावी युद्ध के लिए अपनी सेना को फ्रांसीसी अधिकारियों के सहयोग से लगातार मज़बूत बना रहा था। उसने फ्रांस के नेपोलियन से गठजोड़ की बात की और एक ब्रिटिश-विरोधी गठजोड़ बनाने के लिए अफगानिस्तान, अरब और तुर्की में भी अपने दूत भेजे।

चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध, 1799 ई0ः मैसूर का सुल्तान टीपू सुल्तान कार्नवालिस द्वारा किये गये अपमानजनक व्यवहार को भूला नही था और वह अपना बदला लेने के लिए कृत संकल्प था। इसके लिए उसने अपने दूतों को काबुल, कुस्तुनतुनिया, अरब और मारीशस भेजा। टीपू सुल्तान ने श्रीरंगपट्टम में स्वतंत्रता का बीज बोया। वह फ्रांस में जैकोबिन क्लब का सदस्य नियुक्त हुआ और नेपोलियन से सहयोग प्राप्त करने के लिए पत्र-व्यवहार कर रहा था। इन परिस्थितियों में टीपू के विरुद्ध कार्यवाही करने से पूर्व वैलेजली ने निजाम और मराठों को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। निजाम ने सितम्बर 1798 ई0 में कम्पनी के साथ सहायता समझौता कर लिया। तत्पश्चात लार्ड़ वैलेजली ने मैसूर के शासक टीपू सुल्तान के सामने सहायक संधि का प्रस्ताव प्रस्तुत किया, लेकिन टीपू सहायक संधि के लिए तैयार नहीं हुआ। फलतः वैलेजली ने निजाम और मराठों के सहयोग से फरवरी, 1799 ई0 में टीपू के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और एक संक्षिप्त मगर भयानक युद्ध के बाद फ्रांसीसी सहायता पहुँचने के पहले ही उसे हरा दिया। टीपू ने अंग्रेजों से अपमानजक संधि करने से इनकार कर दिया और अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टम की रक्षा करते हुए 4 मई 1799 को मारा गया। टीपू का लगभग आधा राज्य अंग्रेज़ों और उनके सहयोगी निजाम के बीच बँट गया और शेष भाग उन हिंदू राजाओं के वंशजों को वापस दे दिया गया जिनसे हैदरअली ने मैसूर राज्य छीना था। नये राजा को मजबूर करके एक विशेष सहायक संधि पर हस्ताक्षर कराये गये और इस प्रकार अंग्रेज़ों ने मैसूर को कंपनी पर पूरी तरह आश्रित बना दिया। वेलेजली के इस कार्य की इंग्लैंड में बड़ी प्रशंसा हुई।

अवध

अवध के साथ लार्ड़ वैलेजली का व्यवहार पूर्ण रुप से अत्याचारपूर्ण था। इलाहाबाद की संधि (1765 ई0) से ही अवध पर अंग्रेजी प्रभाव स्थापित हो गया था। हेस्टिंग्स, कॉर्नवालिस और शोर के समय में इस प्रभाव में पर्याप्त वृद्धि हो गई थी और नवाब पर कंपनी का वास्तविक नियंत्रण स्थापित हो गया था। यद्यपि अवध के नवाब ने अंग्रेजों के विरुद्ध कोई कार्य नही किया था, तथापि वैलेजली ने कुशासन तथा अफगानिस्तान के शासक जमानशाह के संभावित आक्रमण का बहाना बनाकर नवाब को 1801 ई0 में सहायक संधि करने के लिए बाध्य किया और नवाब के राज्य का लगभग आधा भाग, जिसमें रुहेलखण्ड तथा दोआब का दक्षिणी भाग सम्मिलित था, ले लिया।

मराठे

इस समय मराठा साम्राज्य पाँच बड़े सरदारों का एक महासंघ था जिसमें पूना का पेशवा, बड़ौदा का गायकवाड़, ग्वालियर का सिंधिया, इंदौर का होल्कर और नागपुर (बरार) का भोंसले शामिल थे और यह पूर्णतया स्वतंत्र था। पेशवा इस महासंघ का नाममात्र का प्रमुख था। लेकिन ये सभी सरदार विदेशियों के आसन्न खतरे से बेखबर होकर आपसी झगड़ों में कट-मर रहे थे।

लार्ड़ वैलेजली का उद्देश्य सहायक संधि के द्वारा मराठों को भी अंगेजी नियंत्रण में लाना था। अवध पर नियंत्रण स्थापित करने के बाद वैलेज़ली ने बार-बार पेशवा और सिंधिया के आगे सहायक संधि का प्रस्ताव रखा। किंतु दूरदर्शी नाना फड़नवीस ने इस जाल में फँसने से इनकार कर दिया था। किंतु 25 अक्टूबर 1802 ई0 को जब दीवाली के दिन इंदौर के होल्कर ने पेशवा और सिंधिया की मिली-जुली सेना को हरा दिया तो कायर पेशवा बाजीराव द्वितीय ने भागकर अंग्रेज़ों की शरण ली और वर्ष 1802 के अंतिम दिन बेसीन की संधि द्वारा सहायक संधि प्रणाली पर हस्ताक्षर कर दिया। इस संधि के द्वारा पूना में सहायक सेना तैनात कर दी गई और उसके व्यय के लिए पेशवा ने 26 लाख रुपया वार्षिक देना स्वीकार किया। संधि की अन्य शर्ते थीं- पूना में ब्रिटिश रेजीडेंट रहेगा, निजाम और गायकवाड़ के साथ विवादों में पेशवा अंग्रेजों की मध्यस्थता स्वीकार करेगा तथा वह अन्य राज्यों से संबंधों में अंग्रेजों का परामर्श स्वीकार करेगा।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्धः बेसीन की संधि (1802 ई0) के कारण द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ। किंतु संकट की इस घड़ी में भी मराठे साझे शत्रु के खिलाफ़ एकजुट नहीं हुए। सिंधिया और नागपुर (बरार) के भोंसले ने बेसीन की संधि का विरोध किया तथा अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध आरंभ कर दिया। लेकिन युद्ध में दोनों पराजित हुए। भोंसले ने 1803 ई0 में देवगाँव की संधि के द्वारा और दौलतराव सिंधिया ने 1803 ई0 में अर्जुनगाँव की संधि के द्वारा सहायक संधि की शर्ते स्वीकार कर लीं। अब वे दोनों कंपनी के अधीनस्थ सहयोगी बन गये। उन्होंने अंग्रेज़ों को अपने राज्यों के महत्त्वपूर्ण प्रदेश दिये, अपने दरबारों में अंग्रेज़ रेजीडेंट रखे और अंग्रेजों की सहमति के बिना यूरोपीयों को सेवा में न रखने का वचन दिया। अब उड़ीसा के समुद्रतट पर और गंगा-यमुना के दोआब पर अंग्रेज़ों का पूर्ण अधिकार हो गया। पेशवा उनके हाथों की एक कठपुतली बनकर रह गया।

इंदौर का होल्करः वैलेज़ली ने इंदौर के होल्कर पर भी अपना ध्यान केंद्रित किया। किंतु यशवंतराव होल्कर अंग्रेज़ों के लिए काफ़ी भारी साबित हुआ और अंत तक ब्रिटिश सेना से लड़ता रहा। दूसरी ओर ईस्ट इंडिया कंपनी के शेयर होल्डरों को पता चला कि युद्ध के ज़रिये प्रसार की नीति बहुत महंगी पड़ रही थी और इससे उनका मुनाफ़ा कम हो रहा था। कंपनी का कर्ज जो 1797 ई0 में 170 लाख पाउण्ड़ था, 1806 ई0 तक बढ़कर 310 लाख पाउण्ड़ हो चुका था।

इसके अलावा, ब्रिटेन के वित्तीय साधन ऐसे समय में खत्म हो रहे थे जब नेपोलियन यूरोप में एक बार फिर एक बड़ा खतरा बन रहा था। ब्रिटिश राजनेताओं और कंपनी के डायरेक्टरों को लगा कि अब आगे प्रसार रोक देने, फिजूलखर्च बंद करने और भारत में ब्रिटेन की उपलब्धियों को सुरक्षित करने और मजबूत बनाने का समय आ चुका है। इसलिए वैलेजली को भारत से मज़बूत वापस बुला लिया गया और कंपनी ने जनवरी 1806 में राजघाट की संधि के द्वारा होल्कर के साथ शांति स्थापित कर उसे उसके राज्य का एक बड़ा भाग लौटा दिया गया। 

अन्य राज्यों के प्रति वेलेजली की नीति 

कर्नाटक राज्यः कर्नाटक युद्धों में अंग्रेजों की सहायता से मुहम्मदअली अर्काट का नवाब बना था। मुहम्मदअली का पुत्र उमदतुल उमरा के काल में भी कर्नाटक पर अंग्रेजों का नियंत्रण बना रहा। किंतु इस समय साम्राज्यवादी वैलेजली कर्नाटक राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिलाना चाहता था। इसके लिए उसे एक बहाना भी मिल गया। टीपू की पराजय के बाद अंग्रेजों को श्रीरंगपट्टम से पत्र मिले जिनसे पता चला कि उमदतुल उमरा टीपू से मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध पड्यंत्र कर रहा था। 1801 ई0 में उमदतुल उमरा की मृत्यु के बाद वैलेजली ने उसके पुत्र को बाध्य किया कि वह पेंशन लेकर अपना राज्य कम्पनी को सौंप दे। अब मैसूर से मालाबार समेत जो क्षेत्र छीने गये थे, उनमें कर्नाटक को मिलाकर मद्रास प्रेसीडेंसी बनाई गई, जो 1947 तक चलती रही।

तंजौरः मैसूर के दक्षिण में तंजौर राज्य था जिसके मराठा शासकों के अंग्रेजों से मित्रतापूर्ण संबंध थे। किंतु 1799 ई0 में वैलेजली ने तंजौर के मराठा शासक सफोजी को एक नई संधि करने पर विवश किया। संधि के अनुसार सफोजी ने पेंशन के बदले राज्य का शासन कंपनी को सौंप दिया।

सूरतः सूरत के नवाब ने 1759 ई0 में अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार की थी और यहाँ पर द्वैध शासन लागू किया गया था। 1799 ई0 में नवाब की मृत्यु होने पर वेलेजली ने उत्तराधिकारी नवाब से धन की माँग की और अपनी सेना भंग करने को कहा। अंत में अगले वर्ष 1800 ई0 में वैलेजली ने नवाब को हटाकर पेंशन दे दी और सूरत को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया।

इन राज्यों के अलावा, वैलेजली ने फर्रुखाबाद के नवाब तथा राजस्थान के जोधपुर, जयपुर, मछेड़ी तथा भरतपुर के राजपूत राज्यों को भी अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया। यह भी सहायक संधि का ही एक परिवर्तित रूप था क्योंकि यद्यपि इन राज्यों को सुरक्षा प्रदान करने के बदले न तो इनसे धन की माँग की गई थी और न ही इनको सहायक सेना रखने के लिए कहा गया था।

सहायक सन्धि की समीक्षा -

जहॉ तक सहायक सन्धि के गुण-दोष अथवा लाभ-हानि का प्रश्न है, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि अंग्रेजों अथवा इस्ट इण्ड़िया कम्पनी के लिए यह विशेष फायदेमन्द सि़द्ध हुई और दूसरी तरफ देशी रियासतों को इससे भारतीय नुकसान हुआ। जैसा कि सहायक सन्धि व्यवस्था के अन्तर्गत सन्धि करने वाले भारतीय राज्य के शासकों को अपने राज्य में स्थायी तौर पर ब्रिटिश फौज रखने  तथा उसके रख-रखाव के लिए परिदान देने को मजबूर किया जाता था। कहने के लिए तो यह सबकुछ भारतीय नरेशों की सुरक्षा के लिए था मगर वस्तुतः यह उनसे कम्पनी के लि नजराना वसूल करने का एक तरीका था। कभी-कभी शासक वार्षिक परिदान का भुगतान करने के बदले अपना कुछ भू-भाग ब्रिटिश इस्ट इण्ड़िया कम्पनी को दे देते थे। इस प्रकार अब वे भारतीय राज्यों के खर्च से एक बड़ी फौज रख सकते थे और उन्ही के पैसों से अपने सैनिक क्षमता का विकास करने लगे। अंग्रेज भारतीय राज्यों के अन्दर एक शक्तिशाली फौज रखते थे इसलिए वे जब भी चाहते वहॉ के राजा को राजगद्दी से उतार सकते थे। उसे ‘अकुशल‘ घोषित कर उसके इलाके को कभी भी हस्तगत कर सकते थे। सहायक सन्धि नीति के तहत् कम्पनी को बहुत सा प्रदेश मिल गया परिणामस्वरुप उसके साम्राज्य में काफी वृद्धि हुई। सहायक सन्धि द्वारा अंग्रेज अपने विदेशी सम्बन्धों पर नियंत्रण रखने में कामयाब हुए और विशेष रुप से उनका फ्रांसीसी भय समाप्त हो गया क्योंकि कोई भी युरोपिय नागरिक कम्पनी की अनुमति के बिना किसी सम्बन्धित राज्य में सेवा नही कर सकता था। ओवेन के शब्दों में- ‘‘सहायक सन्धि प्रणाली ऐसी व्यवस्था थी जिसके जरिये अंग्रेज अपने दोस्तों को उसी तरह मोटा-तगड़ा बनाते थे जैसे बैलों को तबतक बनाते है जबतक वे निगल जाने के लायक न हो जाय।‘‘

वास्तव में कुछ परिस्थितियॉं ही ऐसी थी कि भारतीय देशी नरेश सहायक सन्धि पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश होते गये। सहायक सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाले प्रत्येक भारतीय नरेशों ने अपनी स्वतंत्रता को अंग्रेजों के पास गिरवी रख दिया। वस्तुतः बाहरी मामलों से सहायक सन्धि करने वाले भारतीय शासक सार्वभौमिकता के सभी अवशेषों को खो बैठे और उŸारोŸार ब्रिटिश रेजीड़ेण्ट के आज्ञाकारी बन गये। ब्रिटिश रेजीड़ेण्ट उस राज्य के दैनिक प्रशासन में हस्तक्षेप करने लगा। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों द्वारा निर्धारित की गई सहायक फौज का खर्च काफी ऊूंचा था और मनमाने ढं़ग से निर्धारित तथा कृत्रिम रूप से बढ़ा-चढ़ाकर रखी गई परिदान की रकम ने राज्य की अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया। चूॅकि अंग्रेज घरेलू  और बाहरी शत्रुओं से उनकी पूरी तरह रक्षा करने का आश्वासन देते थे इसलिए अच्छे तथा कुशल शासक बनने के लिए उन्हे कोई प्रेरणा नही मिली और सैनिक दृष्टि से वे बिल्कुल पंगु होते चले गये। सहायक सन्धि प्रथा के कारण सुरक्षा प्राप्त राज्य की सेनाएॅं भी भंग कर दी गई, जिससे लाखों सैनिक और अधिकारी अपनी पैतृक जीविका से वंचित हो गये और देश में बदहाली फेल गई। इसके अलावा सहायक सन्धि से सुरक्षा प्राप्त राज्यों के शासक अपनी जनता के हितों की अनदेखी करने के साथ ही साथ उनका दमन भी करने लगे क्योंकि अब उन्हे जनता का कोई भय नही रह गया।

इस प्रकार निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सहायक सन्धि प्रणाली से केवल और केवल अंग्रेज अथवा ब्रिटिश इस्ट इण्ड़िया कम्पनी को फायदा हुआ। इसी कारणवश लगभग सभी युरोपीय इतिहासकारों ने लार्ड़ वैलेजली की सहायक सन्धि नीति की अत्यधिक प्रशंसा की है। इस सन्दर्भ में ड़ी0 हॉग ने लिखा है कि - ‘‘ यदि क्लाइव ने ब्रिटिश साम्राज्य का निर्माण किया और हेस्टिंग्स ने इसे असाधारण कठिनाइयों के दौर में बनाए रखा, तो वैलेजली इसके नैतिक और राजनीतिक महत्व को पहचानने वाला पहला व्यक्ति होने का दावा कर सकता हैं।‘‘ भारतीय नरेश तात्कालीन लाभ के चलते सहायक सन्धि पत्र पर हस्ताक्षर करते गये और अन्ततः उनके राज्यों का विलय ब्रिटिश राज्य अर्थात ब्रिटिश इस्ट इण्ड़िया कम्पनी के अधीन कर लिया गया।

मूल्यांकन -

लॉर्ड वैलेजली एक महान साम्राज्य निर्माता था और उसका मुख्य उदेश्य भारत को ब्रिटिश शासन के अंतर्गत लाना था। इसके लिए उसने कूटनीतिक तथा युद्ध, दोनों उपायों का सहारा लिया। कूटनीतिक क्षेत्र में सहायक संधि प्रणाली के द्वारा उसने निजाम, मराठे, कर्नाटक, तंजौर, फर्रुखाबाद आदि पर कंपनी का नियंत्रण स्थापित कर दिया। उसने युद्ध के द्वारा मैसूर के टीपू सुल्तान को नष्ट किया और पेशवा को अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया। सिंधिया और भोंसले के विरोध को उसने युद्ध द्वारा नष्ट कर दिया और उन्हें भी सहायक संधि स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। उसने होल्कर को कुचलने में लगभग सफलता प्राप्त कर ली थी, लेकिन तभी उसे त्यागपत्र देकर इंग्लैंड वापस जाना पड़ा।

सिडनी ओवेन के अनुसार वैलेजली ने भारत में एक राज्य को भारत का एक साम्राज्य बना दिया। वह ‘बंगाल का शेर’ उपनाम से प्रसिद्ध था क्योंकि उसने ईस्ट इंडिया कंपनी को व्यापारिक कंपनी के स्थान पर एक शक्तिशाली राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित किया। पहले कम्पनी भारतीय शक्तियों में से एक थी, किंतु अब कम्पनी समस्त भारत में सबसे शक्तिशाली एक मात्र शक्ति बन गई। इसके काल में ही 1801 ई0 में मद्रास प्रेसीडेंसी का सृजन हुआ और तीनों प्रेसीडेंसियों के मध्य स्थल मार्ग से संबंध स्थापित हुआ।

साम्राज्य निर्माण के अलावा लॉर्ड वेलेजली ने कुछ महत्वपूर्ण सुधार भी किये। उसने विजित प्रदेशों में भूमि-संबंधी सुधार किये और न्याय विभाग में भारतीयों को पहले की अपेक्षा अधिक कार्य करने का अवसर दिया। उसने कलकत्ता में नागरिक सेवा में भर्ती किये गये युवकों को प्रशिक्षित करने के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। वह अंग्रेजी साहित्य का विद्वान था तथा उसका दृष्टिकोण व्यापक था। इसके साथ ही उसने बाइबिल का सात भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराया। वह स्वतंत्र व्यापार का समर्थक था और अनेक करों को हटाना चाहता था, लेकिन डाइरेक्टरों के विरोध के कारण वह ऐसा नहीं कर सका।

फ्रांसीसी भय वास्तविक था या केवल वैलेजली का भारतीय राज्यों को हड़पने का बहाना, यह विवादग्रस्त है, किंतु वैलेजली ने अपनी उग्र तथा सुनियोजित हस्तक्षेप की नीति से न केवल भारत को बचाने में सफल रहा, वरन् अंग्रेजी साम्राज्य का विस्तार भी किया। ऐसे समय में जब सारे यूरोप में नेपोलियन की विजय पताका फहरा रही थी, उसने भारत में अंग्रेजी पताका को ऊँचा उठाये रखा। यूॅ तो लॉर्ड वैलेजली के चरित्र में अनेक गुण थे और वह साहसी और दूरदर्शी तो था, लेकिन उसमें कुछ चरित्रगत दोष भी थे। वह अत्यधिक अहंकारी था और अपनी नीतियों में अतिवादी था, किंतु भारत में अंग्रेजी सत्ता को सर्वोच्च बनाने का श्रेय उसे ही है। 


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