window.location = "http://www.yoururl.com"; Dhamm of Ashoka | अशोक का धम्म

Dhamm of Ashoka | अशोक का धम्म

विषय-प्रवेश (Introduction)

सम्राट अशोक विश्व इतिहास के उन महानतम सम्राटों में से एक है जिन्होने इतिहास के पन्नों पर अपने व्यक्तित्व की छाप लगा दी तथा भावी पीढीयॉ जिसका नाम अत्यन्त श्रद्धा व कृतज्ञता के साथ स्मरण करती है। निःसन्देह उसका शासनकाल भारतीय इतिहास के उज्जवलतम पृष्ठ का प्रतिनिधित्व करता है। मौर्य सम्राट बिन्दुसार की मृत्यु के बाद उसका सुयोग्य पुत्र अशोक ‘प्रियदर्शनी‘ विशाल मौर्य साम्राज्य की गद्दी पर बैठा। राज्याभिषेक के पश्चात अशोक ने अपने पिता और पितामह की दिग्विजय की नीति कोजारी रखा। इसी क्रम में उसने कलिंग पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से कलिंग युद्ध किया लेकिन कलिंग युद्ध की हृदय विदारक हिंसा और नरसंहार की घटनाओं ने अशोक के हृदय स्थल को काफी प्रभावित किया।

उसका हृदय मानवता के प्रति दया और करूणा से उद्वेलित हो गया तथा उसने युद्ध क्रियाओं को सदा के लिए बन्द कर देने की प्रतिज्ञा की। कलिंग युद्ध के पश्चात यद्यपि व्यक्तिगत रूप से अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया तथा इस बात के प्रति पूर्णरूपेण आश्वस्त हो गया कि जो कुछ भी महात्मा बुद्ध ने कहा है, शब्दशः सत्य है तथापि अपने विशाल साम्राज्य में उसने कहीं भी किसी अन्य धर्म अथवा सम्प्रदाय के प्रति असहिष्णुता का प्रदर्शन नही किया। उसके अभिलेख इस बात के साक्षी है कि अपने राज्य के विभिन्न मतों और सम्प्रदायों के प्रति वह सदैव उदार व सहिष्णु बना रहा। विभिन्न शिलालेखों में कही गई उसकी बातों से भी यह स्पष्ट होता है कि एक सच्चे अन्वेषक के रूप में उसने यह पता लगा लिया था कि विभिन्न मतों और सम्प्रदायों की संकीर्ण बुद्धि ही आपसी कलह और विवाद का कारण बनती है। यही कारण है कि वह सबको उदार दृष्टिकोण अपनाने का उपदेश देता है।

अशोक का धम्म –

अपने प्रजा के नैतिक उत्थान के लिए अशोक ने जो आचार संहिता प्रस्तुत की उसे उसके अभिलेखों में ‘‘धम्म‘‘ कहा गया है। ‘धम्म‘ शब्द संस्कृत भाषा के ‘धर्म‘ शब्द का ही प्राकृत रूपान्तर है लेकिन सम्राट अशोक के लिए इस शब्द का विशेष महत्व है और वस्तुतः यदि देखा जाय तो यही धम्म और उसका प्रचार-प्रसार उसके विश्व इतिहास में प्रसिद्ध होने का सर्वप्रमुख कारण है। अशोक महान का मानना है कि – धम्म का पूर्ण परिपालन तभी संभव है जब मनुष्य स्वयं को गुणों के साथ ही विकारों से भी मुक्त रखे और उसके लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य सदैव अपना आत्मनिरीक्षण करता रहे ताकि उसको अधःपतन के मार्ग में अग्रसर करने वाली बुराईयों का ज्ञान हो सके।

धम्म-विजय –

अपने 13वे शिलालेख में धम्म-विजय की चर्चा करते हुए अशोक लिखता है कि – देवताओं का प्रिय धम्म विजय ही सर्वप्रमुख विजय है ………. जहॉ देवताओं के प्रिय के दूत नही जाते वहॉ भी लोग धर्मोपदेश तथा धर्मविधान सुनकर धर्माचरण करते है और करते रहेंगे। अतः इस प्रकार से प्राप्त विजय सर्वत्र प्रेम से सुरभित होती है। यह धर्मलेख इसलिए लिखवाया गया है ताकि मेरे पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र आदि किसी नये देश अथवा प्रदेश को जीतने की इच्छा त्याग दे और धम्म-विजय को ही वास्तविक विजय समझे।
निःसन्देह अशोक की धम्म-विजय सम्बन्धी उपर्युक्त अवधारणा ब्राह्मण तथा बौद्ध ग्रन्थों के एतद् विषयक सम्बन्धी अवधारणाओं से काफी भिन्न है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र, वेदव्यास के महाभारत तथा कालिदास के रघुवंश आदि में धम्म-विजय का जो विवरण मिलता है उससे यह स्पष्ट होता है कि यह एक निश्चित साम्राज्यवादी नीति थी लेकिन अशोक की धम्म-विजय शुद्ध रूप से धर्मप्रचार का एक अभियान था। इसका
स्वरूप राजनीतिक कदापि नही था।
वस्तुतः अशोक न केवल भारतीय इतिहास वरन् विश्व इतिहास में पहला ऐसा शासक था जिसने राजनीतिक जीवन में हिंसा के त्याग का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। यद्यपि अशोक से पूर्व अनेक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होने हिंसा के परित्याग का सिद्धान्त प्रतिपादित अथवा प्रचारित किया था लेकिन यह केवल व्यक्तिगत जीवन से सम्बद्ध था। अतः यह सिद्धान्त की- राजनीतिक हिंसा धर्मविरूद्ध है, अशोक के मस्तिष्क की ही उपज प्रतीत होती है। इस प्रकार अशोक ने व्यक्तिगत आचारशास्त्र को शासकीय आचारशास्त्र में परिणत कर दिया।

अशोक के धम्म का स्वरूप अथवा प्रकृति

उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि अशोक की धम्म नीति के अन्तर्गत जिन सामाजिक और नैतिक नियमों का समावेश किया गया है वे वही है जिन्हे सभी सम्प्रदाय समान रूप से श्रद्धेय मानते है। जहॉ तक इसके स्वरूप का प्रश्न है – इस सन्दर्भ में सभी इतिहासकार एकमत नही है। थ्सममज के अनुसार – अशोक का धम्म एक प्रकार से राजधर्म है जिसका विधान अशोक ने अपने राज्यकर्मचारियों के पालनार्थ किया था। राधा कुमुद मुखर्जी, रामाशंकर  त्रिपाठी तथा विन्सेण्ट स्मिथ आदि ने इसे ‘‘सभी धर्मो की साझी सम्पत्ति‘‘ बताया है। प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर का मत है कि – ‘‘धम्म अशोक का अपना अविष्कार था। सार रूप में यह सम्राट अशोक द्वारा जीवन पद्धति को सुधारने का एक ऐसा प्रयास था जो व्यवहारिक तथा सुविधाजनक होने के साथ ही अत्यधिक नैतिक भी था। इसका उद्देश्य उन लोगों के बीच सुखद समन्वय स्थापित करना था जिसके पास दार्शनिक चिन्तन में उलझने का अवकाश ही नही था।‘‘ इन सभी मतों के विपरित डी0 आर0 भण्डारकर का मत है कि – अशोक का धम्म न तो सभी धर्मो का सार ही है और न ही इसमें बौद्ध धर्म का पूर्ण एवं सर्वाड़गीण चित्रण है। इनके विचार में अशोक के धम्म का मूल स्रोत बौद्ध धर्म ही है। अशोक के समय में बौद्ध धर्म के दो रूप थे – भिक्षु बौद्ध धर्म तथा उपासक बौद्ध धर्म। चूॅकि उपासक बौद्ध धर्म सिर्फ गृहस्थो के लिए था और चूॅकि अशोक एक गृहस्थ था अतः उसने उपासक बौद्ध धर्म को ही ग्रहण किया। वास्तव में भण्डारकर का कथन ही सर्वाधिक उपर्युक्त है क्योंकि इन्होने अपने कथन के पक्ष में अकाट्य तर्क अथवा प्रमाण प्रस्तुत किया है और दूसरी तरफ अशोक का प्रथम लघु शिलालेख से भी इस मत
की पुष्टि होती है।
कुछ अन्य इतिहासकार अशोक के धम्म को एक राजनीतिक चाल समझते है जिसका उद्देश्य कलिंग युद्ध में हुये भारी नरसंहार से उत्पन्न जनाक्रोश को शान्त करना था लकिन वास्तव में यह कथन स्वीकार करने योग्य नही है। वास्तव में अशोक सच्चे हृदय से अपनी प्रजा का भौतिक व नैतिक कल्याण करना चाहता था और इसलिए उसने अपनी धम्म नीति का विधान किया।

धम्म-प्रचार के स्रोत –

बौद्ध धर्म ग्रहण करने के एक बर्ष बाद तक अशोक एक साधारण उपासक बना रहा लेकिन इसके पश्चात जब वह संघ की शरण में आया तो अपने अपने विशाल साम्राज्य के सभी साधनों का प्रयोग धम्म-प्रचार के लिए लगा दिया। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने सर्वप्रथम धर्मयात्राओं का सहारा लिया। इसी क्रम में अपने राज्याभिषेक के 10वें वर्ष वह बोधगया गया जो उसकी पहली धर्मयात्रा थी। अपने राज्याभिषेक के 20वें वर्ष वह लुम्बिनी गया जहॉ उसने कर की मात्रा घटाकर 1/8 कर दी। इसके अतिरिक्त अन्य धर्मयात्राओं के माध्यम से वह अपना धम्म-प्रचार करता रहा। अपने धम्म-प्रचार के लिए अशोक ने राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति भी की जिसे उसके अभिलेखों में ‘धम्म-महामात्त‘ कहा गया है। इसके अतिरिक्त उसने धर्मोपदेश आदि की भी व्यवस्था करवाई। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अशोक ने अनेक लोकोपकारी कार्य भी किये, धर्मलिपियों को खुदवाया तथा विदेशों में धर्म-प्रचारकों को भी भेजा। विशेष रूप से श्रीलंका में उसने अपने पुत्र महेन्द्र को भेजा था जिसने श्रीलंका नरेश तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। अशोक की पुत्री संघमित्रा ने भी अनेक देशों में धर्मप्रचार का काम किया। इन विविध उपायों द्धारा अशोक ने न केवल अपने देश वरन् विदेशों में बौद्ध धर्म का प्रचार किया जिसके फलस्वरूप बौद्ध धर्म भारत
की सीमाओं का अतिक्रमण कर एक अन्तर्राष्ट्रीय धर्म बन गया।

अशोक के धम्म-नीति की आलोचना –

यद्यपि इतिहासकार रोमिला थापर का मत है कि अशोक की धम्म नीति सफल नही हुई, सामाजिक तनाव ज्यों के त्यों बने रहे तथा साम्प्रदायिक संघर्ष बराबर चलते रहे। लेकिन इस विचार को स्वीकार नही किया जा सकता है क्योंकि अशोक के शासनकाल में किसी प्रकार के सामाजिक तनाव अथवा साम्प्रदायिक संघर्ष के स्पष्ट उदाहरण नही मिलते है। वास्तव में यह उसकी धार्मिक नीति का ही प्रतिफल था कि वह अपने विशाल साम्राज्य में एकता स्थापित करने में सफल रहा।
कुछ इतिहासकारों ने अशोक की धार्मिक व शान्तिवादी नीति की यह कह कर आलोचना की है कि – उसने मगध साम्राज्य की सैनिक शक्ति को कुण्ठित कर दिया जिससे अन्ततः मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया। लेकिन यदि हम मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि मौर्य साम्राज्य के पतन में अशोक की धार्मिक नीति का कोई योगदान नही था। वास्वविकता यही है कि अशोक की धार्मिक व शान्तिवादी नीति से मगध साम्राज्य की सैनिक शक्ति का किसी प्रकार से पतन नही हुआ। इसके अतिरिक्त उसने अपने सैनिको ंको धर्म-प्रचार के काम में लगा दिया हो, इसका भी कोई प्रमाण नही मिलता है। अशोक ने शान्तिवादी नीति का अनुसरण इसलिए किया कि उसके साम्राज्य में पूर्णरूपेण शान्ति तथा समरसता का वातावरण व्याप्त था तथा उसकी बाह्य सीमाएॅ भी पूर्णतया सुरक्षित थी। सीमान्त तथा जंगली  जातियों को वह जिस तरह कडे शब्दों में अपनी सैन्य शक्ति का स्मरण दिलाते हुए चेतावनी देता है उससे स्पष्टतः यह सिद्ध हो जाता है कि साम्राज्य की सैनिक शक्ति यथावत बनी हुई थी। केवल युद्ध तथा विजये ही किसी सम्राट की महानता का कारण नही बनती बल्कि वह शान्ति के कार्यो से भी समान रूप से महान
बन सकता है।

नीलकण्ठ शास्त्री ने ठीक ही लिखा है कि – अकबर से पूर्व अशोक पहला ऐसा शासक था जिसने भारतीय राष्ट्र की एकता की समस्या का सामना किया। एक नया धर्म बनाने अथवा अपने धर्म को बलात् सबसे स्वीकार कराने के स्थान पर उसने सुरक्षित धर्मव्यवस्था को स्वीकार किया और ऐसे मार्ग का अनुसरण किया जिससे स्वस्थ और सुव्यस्थित विकास की आशा थी। सहिष्णुता के मार्ग से वह कभी भी विचलित नही हुआ।

(Ashok was the first ruler before Akbar, who faced the problem of Indian national unity and instead of seeking to invest. A new common faith or compelling everybody to adopt his faith, he was accepted as his own. He took the established order for granted and struck the road along which there was the best chance of healty and orderly development. He never departed from his rule of tolrance.)


निष्कर्षतः राधा कुमुद मुखर्जी के शब्दों में कहा जा सकता है कि – ‘‘अशोक इतिहास में शान्ति तथा विश्वबधुत्व के अन्वेषकों में सर्वप्रमुख है। इस दृष्टि से वह न केवल अपने समय में अपितु आधुनिक समय से भी बहुत आगे था जो अब भी आदर्श को कार्यान्वित करने के लिए संघर्ष कर रहा है।‘‘

(King Ashoka stand out as a poineer of peace and universal brotherhood in History and was far ahead not merely of his own times but even of modern age still struggling to realize this Ideal.)

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