Introduction (विषय-प्रवेश) :
मराठों का उदय भारत के इतिहास की एक अत्यधिक महत्वपूर्ण घटना है क्योंकि उसके बढते हुए प्रभुत्व ने मुगल साम्राज्य को जहॉं विनाश के गर्त में ढकेला वहॉं एक लम्बें अर्से तक अपने प्रभुत्व का डंका भी बजाया। इतिहासकार ए0 आर0 शर्मा के इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि – ‘‘भारत में मुगलों की राजनीतिक सत्ता के उत्तराधिकारी वास्तव में अंग्रेज नही बल्कि मराठे ही थे।‘‘
जी0 एस0 सरदेसाई का मानना है कि प्राचीन समय में भारत के एक निश्चित भू-भाग पर रट्ठा जातियॉं निवास करती थी। इस जाति में कुछ शक्तिशाली रट्ठा होते थे जिसे महारट्ठा कहा जाता था। ‘मराठा‘ शब्द इसी महारट्ठा का अपभ्रंश रूप है। शिवाजी के उत्कर्ष के पूर्व मराठे महाराष्ट्र (दक्षिणी पठार की पश्चिमी सीमा) के आदिवासी थे और परमाणुओं की तरह बिखरे हुए थे। वे निर्धन और पददलित थे और खेती-बाड़ी से अपनी जीविका चलाते थे। इनमें से उच्चपरिवारों के कुछ लोग दक्षिण के मुसलमान राज्यों में नौकर थे। इन्हें जागीरें मिली हुई थी और इन्हें इन राजदरबारों में द्वितीय अथवा तृतीय श्रेणी के सामन्तों की प्रतिष्ठा प्राप्त थी किन्तु मराठों का अपने ढंग का एक निजी समाज था। इस समाज के लोगों की विशेषता यह थी कि इनमें आर्थिक और सामाजिक समानता थी और एक धर्म और संस्कृति के साथ-साथ इनके जीवन का दृष्टिकोण भी एक ही था। इनकी भाषा मराठी थी और इनका धर्म हिन्दू था। ये परिश्रमी और स्वावलम्बी, उत्साही, वीर और स्वाभिमानी थे। तीन सौ वर्ष के मुसलमानी शासन ने इन्हें वीर बनाने के साथ-साथ चालाक अधिक बना दिया था। 16वीं और 17वीं शताब्दियों में महाराष्ट्र में एक धार्मिक आन्दोलन चला जिसके फलस्वरूप अनेक धर्मोपदेशक पैदा हो गये जो भक्ति का उपदेश देते थे और ऊंचनीच, धनी-निर्धन सभी के लिए धर्म के मूल सिद्धान्तों की आवश्यकता पर जोर देकर उनमें हिन्दू एकता की भावना भरते थे। तुकाराम, रामदास, वामन पण्डित और एकनाथ के नाम सारे महाराष्ट्र में आज भी घर-घर में गूंज रहे हैं। इनमें से कुछ उपदेशकों के उपदेश लिखे भी गये थे। इन्होंने मराठी भाषा के विकास के साथ-साथ लोगों को जातीयता का नवीन जीवन प्रदान कर उनमें प्रजातन्त्र की वह ठोस भावना भर दी जो भारत के किसी प्रदेश में नहीं थी। इसमें राष्ट्रीयता लाने के लिए राजनीतिक चेतना और स्वतन्त्रता की भावना की कमी थी। इस अमाव को शिवाजी ने सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में पूरा कर दिया।
मराठों के उत्कर्ष के कारण-
अधिकांश इतिहासकारों ने मराठा शक्ति के उत्कर्ष तथा विकास का प्रमुख श्रेय शिवाजी को दिया है परन्तु यदि तथ्यों का सही अवलोकन किया जाय तो हमें ज्ञात होगा कि भारतीय इतिहास के रंगमंच पर जिस समय शिवाजी का प्रादुर्भाव हुआ उसकी भूमिका बहुत पहले तैयार हो चुकी थी। ऐसे अनेक तत्व थे जो अतीत काल में मराठा जाति को नवजागरण के लिए प्रेरित कर रहे थे। दक्षिण अथवा महाराष्ट्र की विचित्र भौगोलिक स्थिती तथा महाराष्ट्र धर्म तथा शिवाजी के योग्य नेतृत्व ने वहॉं के निवासियों को एकसूत्र में बॉंध दिया तथा नयी भावनाओं तथा उमंगों को पुनर्जिवित किया। संक्षेप में, मराठों के उत्कर्ष में निम्न तत्वों की महत्वपूर्ण भूमिका रही –
महाराष्ट्र की भौगोलिक स्थिती –
महाराष्ट्र की भौगोलिक स्थितीयों ने मराठों के उत्कर्ष में विषेष योगदान दिया और उनमें ‘स्वराज्य‘ स्थापित करने का उत्साह जगाया। महाराष्ट्र प्रदेश विन्ध्य एवं सतपुड़ा पर्वतमाला से घिरा हुआ एक दुर्गम प्रदेश था। पहाड़ी प्रदेश होने के कारण यहॉं दुर्जेय गढों का निर्माण सुगम हुआ जो मराठों की सुदृढ़ रक्षा पॅंक्ति का कार्य करते थे। ग्राण्ड ड़फ ने अपनी पुस्तक ‘‘मराठों का इतिहास‘‘ में लिखा है कि – महाराष्ट्र की घाटियॉ सिचाई के साधनों से युक्त है किन्तु खेतीबाडी, मिट्टी, तथा उपज में यह भारत के अन्य भागों की समानता नही कर सकता है। सैनिक दृष्टि से यह प्रदेश अद्धितीय है।‘‘ महाराष्ट्र की इस प्राकृतिक स्थिती से यहॉं के निवासियों में विशेष मानव गुणों का प्रादुर्भाव हुआ तथा वे दुर्जेय योद्धाओं के रूप में उजागर हुये। जी0 एस0 सरदेसाई ने अपनी पुस्तक ‘छमू भ्पेजवतल वि जीम डंतंजींष् में लिखा है कि – ‘‘पश्चिमी घाटों के इस दुर्जेय पर्वतमाला ने ही मराठों को इस योग्य बनाया कि वे मुसलमान विजेताओं के विरूद्ध विद्रोह कर सके, मुगलों की सुसंगठित शक्ति के सामने अपनी राष्ट्रीयता को पुनः प्रदशित कर सके।‘‘
कुछ चारित्रिक विशेषताएँ –
मराठों की अपनी कुछ चारित्रिक विशेषताएॅं थी जो उनके उत्कर्ष में काफी सहायक सिद्ध हुई। मराठों को आत्मनिर्भर जीवन में विश्वास था। उनकी अर्थव्यवस्था अविकसित थी क्योंकि वे कृषि पर निर्भर थे और कृषि कार्य के लिए अनुकूल भूमि वहॉ नही थी। अतः उनका झुकाव सैनिक कार्यो की तरफ भी था। उनकी सबसे बडी सम्पत्ति उनकी अपनी भूमि थी जिसको वे वतन कहा करते थे। मराठा जाति में कोई भी परजीवी वर्ग नही था। मराठा समाज में बहुत कम सामाजिक मतभेद थे और 17वीं शताब्दी में उनमें राष्ट्रीयता की भावना प्रबल रूप से थी। उपरोक्त कुछ ऐसे तथ्य थे जिसके कारण मराठा साम्राज्य को सुदृढता प्राप्त हुई और एक सशक्त राजनीतिक शक्ति के रूप में उत्कर्ष हुआ।
कूटनीति तथा यथार्थवादिता को महत्व देना –
मराठों में स्वाभिमान के लिए मर मिटने का गुण था परन्तु साथ ही साथ उनमें शत्रु की कुटिलता तथा कुटनीति से परास्त करने की चातुरी भी थी। दक्षिण के मुस्लिम सुल्तानों के सम्पर्क से उन्हे कूटनीति तथा राजनीतिक दॉवपेंचों का अनुभव हो गया था। वे राजपूतों की तरह ‘‘प्राण जाये पर वचन न जाय‘‘ के सिद्धान्त का पालन नही करते थे। उनका मानना था कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यदि हमें धूर्तता, कूटनीति, धोखाधड़ी आदि का सहारा लेना पडे तो हम ऐसा करेगें। स्पष्ट है कि मराठे वीरता के साथ साथ कूटनीति का समावेश करना भी उचित समझते थे।
दक्कन की आर्थिक, धार्मिक तथा राजनैतिक परिस्थिती –
अकबर के समय से मुगलों ने भी दक्कन में हस्तक्षेप शुरू कर दिया और यह संघर्ष 1636 ई0 तक चलता रहा। मुगलों का उद्देश्य दक्कन के शिया सल्तनतों को समाप्त करना था। राजनैतिक घटनाओं के साथ साथ धार्मिक उत्पीडन की भावना भी इनके साथ जुडी हुई थी। इस काल में अनेक मन्दिर भिन्न-भिन्न कारणों से तोडे गये थे। तालीकोटा के युद्ध में विजयनगर साम्राज्य के शासक की पराजय के पश्चात हिन्दुओं की भावनाओं पर करारा प्रहार किया गया। धार्मिक तथा राजनैतिक उत्पीडन भी षिवाजी के नेतृत्व में मराठों के उत्कर्ष में काफी सहायक रहा।
मुस्लिम शासकों की हिन्दू विरोधी नीति –
तात्कालीन समय में दिल्ली की गद्दी पर बैठे लगभग सभी सुल्तानों ने हिन्दू विरोधी नीति को अपनाया। वे हिन्दू तथा हिन्दू धर्म को नष्ट करने पर तुल गये थे। उत्तर भारत में इन शासकों द्धारा तरह तरह के अत्याचार किये जा रहे थे और हिन्दू जनता उसे सहती जा रही थी। औरंगजेब द्धारा कट्टर हिन्दू विरोधी नीति अपनाये जाने के कारण मराठा आन्दोलन की आवश्यकता अनुभव की गई। मुस्लिम शासकों की इस नीति ने मराठों में प्रतिशोध की भावना जागृत कर दी। जी0 एस0 सरदेसाई ने श्छमू भ्पेजवतल वि जीम डंतंजींश् में लिखा है कि – ‘‘यदि बीजापुर के सुल्तान ने अपने पिता की सहिष्णुता की नीति का त्याग कर हिन्दू मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट करने तथा धन-अपहरण के पुराने तरीकों को न अपनाया होता तो संभव था कि शिवाजी स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना का कार्य अपने हाथ में न लेते।‘‘
भक्ति आन्देलन तथा धार्मिक पृष्ठभूमि –
मराठों के उत्कर्ष में महाराष्ट्र धर्म का भी विषेष योगदान रहा। 13वीं शताब्दी में संत ज्ञानेश्वर ने अप्रत्यक्ष रूप से जनमानस में उत्साह का संचार किया। इसके बाद ‘‘मानभाव‘‘ आन्दोलन के माध्यम से धर्म, राजनीति तथा समाज के क्षेत्र में क्रान्ति उत्पन्न कर दी। इसके द्धारा अन्धविश्वास , जातपात, ऊॅंच-नीच की भावना तथा अश्पृश्यता का खुल कर विरोध किया गया। 15वीं तथा 16वीं शताब्दी में सन्त तुकाराम, रामदास, वामन पण्डित, सिद्धेश्वरनाथ आदि ने अपने उपदेशों द्धारा महाराष्ट्र में प्राण फॅूक दिये। जैसा कि एम0 जी0 रानाडे का मत है कि – यह आन्दोलन युरोप के प्रोटेस्टेण्ट आन्दोलन के समान था जिसके द्धारा धार्मिक, सामाजिक, और साहित्यिक पुनर्जागरण हुआ। परिणामस्वरूप मराठों में राष्ट्रीय एकता का संचार हुआ तथा उनका राजनीतिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त हुआ।
मराठी भाषा तथा साहित्य –
मराठों के उत्कर्ष में मराठी भाषा तथा साहित्य का भी अमूल्य योगदान है। मराठी भाषा तथा साहित्य ने महाराष्ट्र के लोगों को एकता के सूत्र में बॉधा। तुकाराम, रामदास, वामन पण्डित आदि के भक्ति गीत प्रत्येक घर में गाये जाते थे। गोंधाली नामक गायक गॉंव-गॉंव में भ्रमण कर जनमानस को अपनी जाति के गौरव से उद्भूत करता था। इस प्रकार मराठी भाषा तथा साहित्य ने निकटता से जनमानस को प्रभावित किया। जदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक श्ैपअंरप ंदक ीपे जपउमेश् में लिखा है कि – ‘‘शिवाजी के आने से पूर्व महाराष्ट्र में 17वीं शताब्दी में भाषा, नस्ल और जीवन में एकता स्थापित हो गई थी जो कुछ थोडी बहुत कमी थी वह शिवाजी द्धारा पूरी कर दी गई।‘‘
शिवाजी का योग्य नेतृत्व –
उपरोक्त कारणों तथा परिस्थितीयों के अतिरिक्त मराठों के उत्कर्ष में शिवाजी के योग्य नेतृत्व का भी अविस्मरणीय योगदान है। उनकी वंश तथा राजत्व की परम्परा ने मराठा शक्ति के उदय में गति एवं सुविधा प्रदान की। शिवाजी ने अपनी मॉं जीजाबाई के उच्च आदर्शो तथा कृत्यों को देखा था जिसके कारण वे स्वयं मातृप्रेम तथा स्वराज्य की भावना से ओत-प्रोत थे। शिवाजी ने बिखरे हुए मराठा जाति के लोगों को अपने साहसपूर्ण नेतृत्व से सुसंगठित किया। इस प्रकार शिवाजी एक आदर्श बन गये और सभी मराठी उनके नेतृत्व में संगठित होकर एक सशक्त राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे।
इस प्रकार सम्पूर्ण विवेचनों से यह स्पष्ट है कि मराठों के उत्कर्ष के लिए किसी एक निश्चित कारण को उत्तरदायी नही माना जा सकता है। मराठों के उत्कर्ष में अनेक परिस्थितीयों का सामूहिक योगदान था और सबसे बढकर उन्हे शिवाजी जैसे वीर योद्धा का नेतृत्व प्राप्त हुआ परिणामस्वरूप शिवाजी के नेतृत्व में मराठा शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ।
मराठों के उत्कर्ष से पूर्व दक्कन की राजनीतिक दशा–
1296 ई0 में मुसलमानों ने सर्वप्रथम दक्षिण भारत में प्रवेश किया था। सर्वप्रथम अलाउद्दीन खिलजी ने सुल्तान बनने से पूर्व देवगिरी पर आक्रमण किया था। सुल्तान बनने के पश्चात अलाउद्दीन खिलजी ने दक्षिण के चार हिन्दू राज्यों – देवगिरी, तेलांगना, द्वारसमुद्र और मदुरै पर क्रमशः आक्रमण करके उसे अपने अप्रत्यक्ष नियंत्रण में लिया। अलाउद्दीन ने दो शर्तो पर उनके राज्य वापस कर दिये थे – 1. एक निश्चित कर जजिया कर के रुप में सुल्तान को देना होगा और 2. ये हिन्दू शासक सुल्तान की अधीनता स्वीकार करेंगे।
अलाउद्दीन खिलजी के पश्चात मुहम्मद बिन तुगलक ने पुनः इन हिन्दू राज्यों के जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया लेकिन यह उसकी सबसे बडी राजनैतिक भूल साबित हुई क्योंकि इतनी दूर बैठकर इतने बडे साम्राज्य पर अधिकार नहीं किया जा सकता था। परिणामस्वरुप दक्षिण के इन राज्यों में विद्रोह होने लगे। इसी बीच 1336 ई0 में हरिहर और बुक्का नामक दो भाईयों ने दक्षिण में विजयनगर नामक एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना की और इसी के समानान्तर दक्षिण में ही बहमनी नामक मुस्लिम राज्य की स्थापना हुई। लेकिन 16वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशक तक आते-आते बहमनी राज्य पॉच स्वतंत्र मुस्लिम राज्यों – बरार, बीदर, बीजापुर, गोलकुण्डा और अहमदनगर – में विखण्डित हो गया।
इन पॉचों मुस्लिम राज्यों के सम्बन्ध आपस में अच्छे नही थे। इन पॉचों राज्यों के साथ अलग-अलग विजयनगर के साथ संधर्ष होता रहा। इसी समय पुर्तगाली भी अपना प्रभुत्व स्थापित करने की चेष्टा करने लगे। इस प्रकार एक तरफ एक अकेला हिन्दू राज्य विजयनगर और दूसरी तरफ पॉच स्वतंत्र मुस्लिम शिया सल्तनत तथा तीसरी तरफ युरोपियन – इन तीनों के बीच एक प्रकार से त्रिकोणीय संघर्ष प्रारंभ होता है। लगभग 200 वर्षो से भी अधिक समय तक विजयनगर साम्राज्य ने दक्षिण भारत में हिन्दू प्रभाव को सुरक्षित रखा था लेकिन 1565 ई0 के तालीकोटा के युद्ध में विजयनगर साम्राज्य की पराजय होती है। यद्यपि तालीकोटा के युद्ध से विजयनगर साम्राज्य का पतन नहीं होता है लेकिन शक्ति संतुलन अवश्य समाप्त हो जाता है और इस प्रकार हिन्दू अपने आप को अलग और असहाय महसूस करने लगते है। इसी क्रमें में जब शिवाजी का दक्षिण में प्रभाव में वृद्धि होती है तो सम्पूर्ण हिन्दू जनता का उन्हे समर्थन मिलता है। एक प्रकार से कहा जा सकता है कि तालीकोटा के युद्ध ने दक्षिण में शिवाजी के उत्कर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण घटना 1593 ई0 के बाद घटित होती है जब अकबर अपना दक्षिण अभियान प्रारंभ करता है। इसके बाद तो दक्कन के क्षेत्रों में अनेक मुगल शासकों ने सैनिक अभियान चलाकर दक्षिण के इन राज्यों को मुगल साम्राज्य में विलिन करने का भरसक प्रयास किया। निश्चित रुप से उत्तर भारत के इन मुस्लिम शासकों के हस्तक्षेप से दक्षिण के हिन्दू जनता के सम्मुख एक नई चुनौती उभर कर सामने आई और इससे निपटने के लिए हिन्दू जनता शिवाजी के नेतृत्व में संगठित होती गई।
शिवाजी का प्रारंभिक जीवन–
शिवाजी का जन्म शाहजी भोंसले की प्रथम पत्नी जीजाबाई की कोख से दिन सोमवार 20 अप्रैल, 1627 ई0 को पूना के उत्तर में स्थित जुन्नार नगर के पास शिवनेर के दुर्ग में हुआ था। यद्यवि उनकी जन्म-तिथि के सम्बन्ध में इतिहासकारों के बीच मतभेद है। शिवाजी का बचपन शेरशाह की तरह उपेक्षित रहा और वे सौतेली माँ के कारण बहुत दिनों तक पिता के संरक्षण से वंचित रहे। शाहजी भोंसले अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते पर अधिक आसक्त थे और जीजाबाई उपेक्षित और तिरस्कृत जीवन व्यतीत कर रही थीं। परन्तु जीजाबाई उच्च कुल में उत्पन्न असाधारण प्रतिभा-सम्पन्न महिला थीं। जीजाबाई के पिता एक शक्तिशाली सामंत थे। वह धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं और उन्होंने अपने पुत्र को हिंदू धर्म के आदर्श पुरुषों की गाथा सुनाकर बचपन से ही उसे महान् बनने की प्रेरणा दी। बचपन में माँ जीजाबाई ने अपने पुत्र का चरित्र-निर्माण करने में आधारशिला का काम किया था। शिवाजी को नियमित शिक्षा नहीं मिली थी और उनकी माँ पैतृक जागीरदारी में ही रहती थीं। शाहजी भोंसले ने अपने विश्वासी सेवक दादाजी कोणदेव को शिवाजी का संरक्षक नियुक्त किया था जो एक वयोवृद्ध अनुभवी विद्वान् थे। उन्होंने शिवाजी की प्रतिभा को देखते हुए उन्हें मौखिक रूप से रामायण, महाभारत और अन्य धार्मिक ग्रन्थों से अवगत करवा दिया था। मानसिक विकास के साथ-साथ दादाजी कोणदेव ने शिवाजी को युद्ध-कला की भी शिक्षा दी थी और उन्ही से शिवाजी को प्रशासन का ज्ञान भी प्राप्त हुआ था। अतः जीजाबाई के अतिरिक्त दादाजी कोणदेव का प्रभाव शिवाजी के जीवन और चरित्र-निर्माण पर सबसे अधिक पड़ा था।
शिवाजी के चरित्र-विकास में गुरु रामदास की शिक्षा का भी प्रभाव था। रामदास शिवाजी के आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक थे। रामदास ने मराठों को संगठित करने और जननी एवं जन्मभूमि की रक्षा करने का सन्देश दिया था। माँ, संरक्षक और गुरु के आदर्शों से प्रेरणा पाकर शिवाजी धीरे-धीरे साहसी और निर्भीक योद्धा बन गए। वे धर्म, धरती और गाय की रक्षा के नाम पर एक राष्ट्र का निर्माण करने का स्वप्न देखने लगे और विदेशी सत्ता से मातृभूमि को मुक्त करने का वे संकल्प ले चुके थे। रौलिंसन ने लिखा है – “मात्र लूट-पाट की चाह के स्थान पर शिवाजी ने विदेशियों के अत्याचार से देश को स्वतंत्र करने के उद्देश्य से अपना जीवन जिया था।”
शिवाजी की धमनी में मराठा जाति का रक्त प्रवाहित हो रहा था और स्वाभाविक रूप से वंश-परम्परा के अनुकूल उनमें साहस, वीरता और स्वाभिमान की कमी नहीं थी। उन्होंने अपने संरक्षक दादाजी कोणदेव की सलाह के अनुसार बीजापुर के सुल्तान की सेवा करना अस्वीकार कर दिया था। उन्होंने स्वतंत्र और साहसिक जीवन व्यतीत करना अधिक श्रेयस्कर माना। उस समय बीजापुर का राज्य आपसी संघर्ष और विदेशी आक्रमण के संकटकाल से गुजर रहा था। अतः पतन के तरफ बढ़ रहे सुल्तान की सेवा करने के बदले वे मावल क्षेत्र में निवास करने वाले कोलि और मराठा जाति के लोगों को संगठित करने लगे। शीध्र ही मावल युवकों को अपने पक्ष में लाकर शिवाजी ने दुर्ग-निर्माण का कार्य प्रारम्भ कर दिया और वे उनके सहयोग के बल पर एक स्वतंत्र राष्ट्र स्थापित करने की परिकल्पना करने लगे।
शिवाजी का विवाह 1641 ई. में सईबाई निम्बलकर के साथ बंगलौर में हुआ। उनके संरक्षक दादा कोणदेव अनिश्चित जीवन व्यतीत करने के बदले परम्परागत ढंग की सेवा करने के पक्ष में थे परन्तु शिवाजी की स्वतंत्र प्रकृति को सेवावृत्ति नहीं भाई। उन्होंने 16 वर्ष की आयु से ही कोंकण के आस-पास लूट-पाट प्रारम्भ कर दिया था। इन घटनाओं की सूचना पाकर दादाजी कोणदेव बहुत व्यथित हुए और मार्च, 1647 ई. में उनकी मृत्यु हो गई। संरक्षक की मृत्यु के बाद शिवाजी ने स्वतंत्र रूप से अपनी मंजिल तय करने का निर्णय लिया। शिवाजी के व्यक्तित्व और चरित्र में कुछ ऐसे आकर्षक तत्त्व थे जिन्होंने उन्हें साधारण व्यक्तित्व से ऊपर उठाकर विरल व्यक्तित्व की श्रेणी में रख दिया। बाल्यकाल में माता के द्वारा जिन आदर्शों का पालन करने की शिक्षा उन्हें दी गई थी, उनका व्यावहारिक जीवन में अक्षरशः पालन कर उन्होंने माता के प्रति असीम भक्ति का परिचय दिया। एक सफल और योग्य सैनिक और सेनानायक के सभी गुण शिवाजी के व्यक्तित्व में विद्यमान थे।
Tags
मध्यकालीन भारत