Introduction (विषय-प्रवेश):
मुगल साम्राज्य का वास्तविक विनाश 18वीं शताब्दी में प्रारंभ हुआ किन्तु उसके पतन के कारण बहुत पहले से मौजूद पाये जाते थे। औरंगजेब का निरन्तर संघर्षपूर्ण लम्बा शासनकाल, राज्य की आय का न केवल बडा निकासी छिद्र था अपितु उससे प्रशासन की घोर उपेक्षा हुई। फिर भी औरंगजेब के जीवनकाल तक साम्राज्य का विघटन रुका रहा लेकिन उसके कमजोर उत्तराधिकारी सरदारों-मनसबदारों के हाथों की कठपुतली बन गये। बादशाहों की कमजोरी का फायदा उठाकर दूरवर्ती प्रान्तों के सूबेदारों तथा अन्य असंतुष्ट तत्वों ने कई राज्यों में अपने आप को शासक घोषित कर दिया। मुगल साम्राज्य के टूटने का एक अन्य प्रमुख कारण आर्थिक परेशानियॉ भी थी। जमींदार असन्तुष्ट थे और किसानों के समर्थन से शहंशाह की सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर देते थे। फिर सेना तथा प्रशासन की कार्यकुशलता कायम नही रही। दरबारी ऐशपरस्ती से घिरे रहे और अंग्रेजों और अन्य युरोपियनों से हिन्दुस्तान को जो खतरा पैदा हो गया था, उधर उनका ध्यान ही नही रहा।
मुगल साम्राज्य के पतन में औरंगजेब की भूमिका-
औरंगजेब का जीवन एक लम्बी त्रासदी है। यह अदृश्य किन्तु अनिवार्य नियति से विफल संघर्ष करते हुए आदमी की कहानी है। यह बताती है कि जमाने की ताकतों के आगे मजबूत से मजबूत आदमी की ताकतें तथा कोशिशें दिग्भ्रमित हो जाती है। असाधारण रुप से कठोर, परिश्रमी, सक्रिय, नैतिक और कर्तव्यभावना से प्रेरित होने और इसके लिए अपने ऐशो-आराम को कुर्बान कर देने के वावजूद उसकी कट्टरपंथी नीति ने साम्राज्य का सत्यानाश कर दिया। वास्तव में उसकी विफलता का कारण उसका स्वभाव और भूतकाल के कृत्य थे।
उसका मजहबी जुनून इस कोढ में खाज पैदा करनेवाला था और वह शुद्धतावादी अहम का शिकार था। ज्वलन्त उत्साह, वैरागी जैसे संयम और आत्मपीडन के साथ उसमें उद्देश्य के प्रति समझौताहीन लगाव और जीवन मौजूद था। वह एक आदर्श मुस्लिम शासक था लेकिन वह जमाने के अनुकूल नही था। अन्य किसी भी मुगल सम्राट की अपेक्षा खून से वह ज्यादा हिन्दू था लेकिन उसकी इस्लामी धर्मभावना ने उसके द्वारा हिन्दुस्तान में स्थापित सभी परम्पराओं से विद्रोह कर दिया। अपने भीषण पथ के खतरों से वह वाकिफ भी था फिर भी वह उसपर दृढता से चलता रहा। इस्लाम के धर्मआज्ञाओं के खिलाफ की जाने वाली सभी गतिविधियॉ, वेशभूषा और आचरण कानून निषिद्ध कर दिये गये। हिन्दूओं पर जजिया कर थोपा गया तथा अन्य अतिरिक्त कर भी लगाये गये। उन्हे उच्च पदों से हटाकर न केवल शर्मिन्दा किया गया बल्कि अच्छे घोडों की सवारी, अच्छी वेशभूषा आदि से भी वंचित किया गया। पवित्र पूजा स्थलों का विध्वंस आम बात हो गया। वास्तव में यह एक न्यायधर्मी राजनीतिज्ञ का आचरण नहीं था। इससे उसकी स्थिती कमजोर हुई और साम्राज्य का पतन सन्निकट आ गया।
इसका फौरी परिणाम हिन्दूओं के राजनीतिक पुनरुत्थान के रुप में सामने आया। केन्द्रोत्सारी गतिविधियों ने गहरी जडे जमा ली तथा राजपूत, जाट, सिक्ख व मराठा शक्तियॉ मुगल साम्राज्य के खण्डहर पर अपनी राजनीतिक सम्प्रभुता स्थापित करने लगी लेकिन इनमें अखिल भारतीयता की कोई भावना नही थी। ये केवल उक्त शक्तियों के अलग-अलग प्रयास थे। औरंगजेब के लिए इन सबसे समान शक्ति से निपटना मुश्किल हो गया, खासकर उस समय जब उसने दक्षिण भारत में अपना ध्यान केन्द्रित किया। अबतक साम्राज्य का स्तम्भ साबित हो चुके राजपूतों को भी औरंगजेब ने कुचल देना चाहा। उसने जसवन्त सिंह को उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रदेश भेज दिया ताकि वह मर-खप जाय। उनके परिवार को दिल्ली में बन्दी बना लिया गया ताकि जोधपुर राज्य पर कब्जा किया जा सके। उसने राजपूती आन पर हमला किया लेकिन मेवाड और मारवाड दोनों उसके विरुद्ध हो गये। हालॉकि वह इस गठबंधन को तोडने में सफल रहा लेकिन राजपूती आन का सर्प सिर्फ घायल हुआ था, मरा नही था। पहले बादशाह का जो दाहिना हाथ बना हुआ था, अब वही उसका दुश्मन हो गया था। यही औरंगजेब की सबसे बडी नीतिगत गलती थी।
सरकारी खजाने का दिवाला –
औरंगजेब की दक्षिण नीति की असफलता के कई परिणाम हुये। राजनीतिक परिणाम यह हुआ कि बीजापुर और गोलकुण्डा की मुस्लिम रियासते खत्म हो गयी जो मराठों पर एक प्रकार से अंकुश लगाने का काम करती थी। इससे वे इतने शक्तिशाली हो गये कि उन्होने दिल्ली तक धावा बोल दिया। दक्षिणी अभियान के कारण सरकार का दिवाला पिट गया और अन्य सभी राजकीय गतिविधियॉ ठप्प सी पड गयी। उसने युद्ध के बीच अन्तरालों को कभी महत्व नही दिया ताकि लोग सॉस भी ले सके और फिर ताकत जुटाएॅ। फौज इतनी बढ गई थी कि जागीरों के लिए साम्राज्य की पूरी जमीन नाकाफी हो गयी थी। उसके शाही दिवान ने निराशा से कहा भी था – शहंशाह के सामने से रोज गुजरने वाले अफसरों को सरंजाम की हद नही है लेकिन उन्हे देने के लिए जागीरों की हद है। स्पष्ट है, एक सीमित संख्या को असीम के बराबर कैसे किया जा सकता था। आक्रमणों के कारण जंगल, चारागाह और खेत उजड गये थे। भूखमरी की शिकार तथा थकी हारी खेतीहर जनता ने राहजनी तथा लूटमार शुरु कर दी। शताब्दी के अन्तिम दो-तीन दशकों तक आते-आते दक्कन का व्यापार पूरी तरह से चौपट हो गया था।
इतिहासकार जदुनाथ सरकार के शब्दों में – ‘‘बिना सशक्त गारद के सौदागरों के काफिले गुजर नही पाते थे। इससे दूरवर्ती क्रय और कला कारीगर के नमूनों की ख्ररीद बन्द हो गयी थी। यह केवल किलेबन्दी वाले शहरों तक सीमित रह गयी थी जिससे कला कौशल तथा सभ्यता का स्तर गिर गया था।‘‘
दक्कन में चलने वाले निरन्तर युद्ध और उसपर होनेवाले भारी खर्च ने उत्तर भारत की स्थितियों पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाला। प्रशासन सुस्त हो गया क्योंकि सम्राट पच्चीस वर्षो तक दक्षिण की ही खाक छानता रहा।
उसकी अपनी चरित्रगत विशेषताओं और जीवन ने उसमें आत्मविश्वास के साथ दूसरों के प्रति अविश्वास की भावना को भी भर दिया था। हर चीज को वह अपने ढंग से करना चाहता था इसलिए प्रशासन हो या सेना वह हर गतिविधियों में दखंलदाजी तथा देखरेख करना चाहता था। इस अतिकेन्द्रीकरण से उच्च भावना वाले गुणी तथा उत्साही अफसर अपने आप को निरुत्साहित महसूस करते और निष्क्रिय हो जाते थे। उसके मन्त्रियों की स्थिती एक प्रकार से बाबुओं जैसी हो गयी थी जो मात्र उसके फर्मानों को लिखित रुप देते थे, जो किसी शासक के नही बल्कि किसी विभागाध्यक्ष के लक्षण थे।
उपरोक्त नीतियों की इन हानियों के अलावा प्राकृतिक विपदाओं ने साम्राज्य के पतन में योग दिया जिसके फलस्वरुप गरीबी और बढी। रिश्वतखोरी आम बात हो गयी और हर कोइ्र्र शोषण करने लगा। किसान और व्यापारी खास तौर पर इसके शिकार हुये। दरबारियों में अनैतिकता और अधःपतन और बढा। न तो उनमें अच्छी शिक्षा थी और न ही इन दौलतजादों को व्यवहारिक प्रशिक्षण मिलता था। कुल मिलाकर औरंगजेब पूर्णतया विफल रहा और उसकी विफलता मुगल साम्राज्य के पतन का प्रमुख कारण बन गई।
लेनपूल ने लिखा है कि – ‘‘लेकिन उसका पतन भी महान था। उसका गौरव अपने आप तक सीमित था जबकि उसका समर्पित उत्साह उसके महान साम्राज्य के लिए एक अमिट अभिशाप सिद्ध हुआ।‘‘
अन्ततः जदुनाथ सरकार के शब्दों में कहा जा सकता है कि -‘‘मुगल साम्राज्य के पतन के लिए अकेले औरंगजेब का स्वभाव ही जिम्मेदार नही है लेकिन इस पतन को रोकने के लिए उसने कुछ नही किया बल्कि उन विध्वंसक शक्तियों में तेजी लाने का कारण बना जो पहले ही मुल्क में सक्रिय थी।‘‘
औरंगजेब का व्यक्तित्व और चरित्र:
यह बिल्कुल सत्य है कि औरंगजेब का निजी जीवन एक आदर्श जीवन था। वह अत्यधिक परिश्रमी और संयमी था और अपने आचार-विचार पर कठोर नियंत्रण रखता था। वह न तो शराब पीता था और न ही किसी दूसरे व्यसन में फॅसा था। उसके शासनकाल में मुगल साम्राज्य में इक्कीस प्रान्त थे जिनमें से चौछह तो उत्तर भारत में ही थे। लेकिन उसके व्यक्तिगत जीवन का सबसे बडा दोष यह था कि वह महत्वाकांक्षी, जिद्दी और धार्मिक विचारों से संकीर्ण था। इन सभी कारणों से वह दूसरों को गलत और अपने आप को ठीक समझता था। इस्लाम को छोडकर वह अन्य सभी धर्मो को झूठा मानता था। उसमें दया की भावना नही थी। उसने अपने तीनों पुत्रों को जेल में डाल दिया था जिसमें से बडा पुत्र जेल में ही मर गया और दूसरा पुत्र लगभग आठ वर्ष जेल में सडने के बाद छोडा गया। इसी प्रकार उसकी एक पुत्री जैबुन्निसा भी जेल में डाल दी गयी थी जो जेल में ही सडकर मर गयी थी। इन दोषों से युक्त औरंगजेब भले ही कर्तव्यपरायण रहा हो परन्तु उसे एक सफल शासक नही कहा जा सकता क्योंकि उसमें शासक का उत्तम गुण नही था। वह अपनी प्रजा के लिए कभी भी उत्सुक नही रहा और कर्तव्य की उसकी परिभाषा भी बडी संकुचित थी। उसने कभी महसूस ही नही किया कि समृद्ध जनता के बिना कोई राजा बडा हो ही नही सकता। उसने भूल से यह कल्पना कर ली कि राजनीतिक, सैनिक और धार्मिक शासन प्रबन्ध से ही राज्य सफल हो जाता है और इसी कारण उसने आर्थिक और सांस्कृतिक उन्नति की ओर कभी विशेष ध्यान ही नही दिया था।
अभी हाल के कुछ वर्षों में औरंगजेब के व्यक्तित्व, चरित्र और सफलता के विषय में बड़ा वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ है। लेखकों के एक पक्ष ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि औरंगजेब में धार्मिक कट्टरता नहीं थी क्योंकि उसने कुछ हिन्दू मन्दिरों और मठाधीशों के नाम जागीरें लगा रखी थी और यदि उसने हिन्दू मन्दिरों को गिराने की आज्ञा दी भी थी तो युद्धकाल में ही दी थी तथा उसने उन्हीं मन्दिरों पर अधिकार किया था जिन्हें हिन्दुओं ने मस्जिदें बलपूर्वक छीनकर उसके स्थान पर बना दिया था। इतिहास के कुछ शिक्षक तो और भी आगे बढ़ जाते हैं और वे कक्षा के शान्त और सुरक्षित वातावरण में अपने छात्रों को पढ़ाते हैं कि औरंगजेब महान देशभक्त भारतीय था और उसने सम्पूर्ण देश में राजनीतिक एकता स्थापित करने के लिए घोर परिश्रम किया था। किन्तु इन बे-सिर-पैर की बातों में न कोई तर्क है और न तथ्य। इन बातों में ऐसा सफेद झूठ है कि उसका खण्डन करना व्यर्थ है। यह तो हमको स्वतः स्वीकार कर लेना चाहिए कि औरंगजेब ने कुछ मठाधीशों और उनके मन्दिरों के नाम कुछ जागीरें लगायी थीं किन्तु वे जागीरें उनके पूर्वज सम्राटों ने दी थी और औरंगजेब ने केवल उनकी पुष्टि भर कर दी थी और यदि उसने जागीरें दी भी थीं तो केवल उन्हीं को दी थीं जो उसके काम में आये थे अथवा उसकी कूटनीतिक चाल में सहायक हुए थे। इसके अतिरिक्त एक बात यह भी है कि यदि औरंगजेब ने एक हिन्दू मठाधीश को जागीर दी भी थी तो हजारों मन्दिरों को गिरा भी दिया था और हजारों मठाधीशों की जीविका का अपहरण कर लिया था। यदि अंग्रेजों ने हमारे स्वातन्त्र्यसंग्राम-काल में कुछ भारतीयों का संरक्षण कर उन पर कुछ कृपा की तो क्या इसका अभिप्राय यह है कि वे सच्चाई के साथ देश का हित करने के इच्छुक थे? इसके विपरीत क्या इसका ठीक अभिप्राय यह नहीं होगा कि उन्होंने अपनी साम्राज्यवादी जड़ों को मजबूत करने के लिए ऐसा करके उन्हें अपना साधन बनाया था। यह सच है कि औरंगजेब ने उन देशों के भागों को जीतने का प्रयत्न किया था जो अब तक मुगल साम्राज्य में सम्मिलित नहीं थे; किन्तु उन सारे राजनीतिक प्रयत्नों का अभिप्राय देश को इस्लामी देश बनाना था। ऐसी कल्पना कि औरंगजेब भारत की एकता चाहता था, वे ही लोग कर सकते हैं जिनका दिमाग फिर गया है। औरंगजेब ने केवल युद्धकाल में ही मन्दिर गिराये थे यह भी एक कपोल-कल्पना ही है क्योंकि समकालीन लेखकों ने ऐसा कहीं भी नहीं लिखा है। कोई भी व्यक्ति यह आसानी से समझ सकता है कि आधुनिक मुसलमान लेखकों का अपने आदर्श वीरों के चरित्र को बढ़ा-चढ़ाकर लिखने का प्रयत्न रहा है। जिन लोगों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए बड़े-बड़े काम किये हैं, उनके सम्बन्ध में उन्होंने यह विश्वास दिलाने का उद्योग किया है कि इस्लाम धर्म शान्ति का धर्म है और बलपूर्वक मुसलमान बनाने की आज्ञा नहीं देता और इसके नाम पर बहुत कम अत्यातार हुए हैं। उन कुछ आधुनिक हिन्दू विद्वानों का प्रयत्न भी प्रशंसनीय है जिन्होंने अपने धर्म और संस्कृति पर हुए बड़े आघात को सहकर भारत में साम्प्रदायिक एकता और शान्ति बनाये रखने के लिए तथ्यों की ओर से आंखें मींच ली हैं। किन्तु प्रश्न यह होता है कि क्या वे इतिहास को झूठा बनाकर भी अपने प्रशंसनीय उद्देश्य में सफल हो सके हैं ? समकालीन लेख, जिनमें औरंगजेब के पत्र भी शामिल हैं, उपरोक्त लेखकों के विचारों की पुष्टि नहीं करते और उनके विचारों के विपरीत बात सिद्ध करते हैं ।
औरंगजेब के व्यक्तित्व और चरित्र का सच्चा चित्रण सर जदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक ’औरंगजेब का इतिहास’ की पांच जिल्दों में किया है जो एक प्रामाणिक ग्रन्थ है और जिसका खण्डन करना असम्भव है। यदि इस सम्बन्ध में कोई नयी सामग्री प्राप्त हो भी हो जाय तो भी इस मुगल शासक के सम्बन्ध में उनका कथन प्रामाणिक ही रहेगा।
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मध्यकालीन भारत