window.location = "http://www.yoururl.com"; Deccan Policy of Aurangzeb | औरंगज़ेब की दक्षिण नीति

Deccan Policy of Aurangzeb | औरंगज़ेब की दक्षिण नीति

Indroduction (विषय प्रवेश):

  • साम्राज्यवादी और महत्वाकांक्षी औरंगजेब अपने विशाल साम्राज्य से सन्तुष्ट नही हुआ और इसके विस्तार की योजनाएॅ बनाने लगा। अपने साम्राज्य विस्तार के लिए उसने दक्षिण में विस्तार की नीति अपनाई जिसका एक खास राजनीतिक उद्देश्य था। औरंगजेब की दक्षिण नीति के निम्नलिखित उद्देश्य बताए जा सकते है –
  • औरंगजेब कट्टर सुन्नी मुसलमान था, अतः वह दक्षिण भारत में शिया राज्यों को सहन न कर सका और उसे समाप्त करने के लिए उसने दक्षिण अभियान चलाया।
  • शिवाजी और शम्भाजी जैसे मराठों से भी औरंगजेब को हिन्दू होने के कारण घृणा थी और उन्हे समाप्त कर वह मराठा शक्ति को नष्ट करना चाहता था।
  • शहजादा अकबर को विद्रोह करने में दक्षिणी राज्यों से ही मदद मिली थी अतः इन राज्यों को वह सबक सिखाना चाहता था।
  • औरंगजेब गोलकुण्डा और बीजापुर की खराब आन्तरिक दशा का भी लाभ उठाना चाहता था।
  • सबसे बढकर औरंगजेब एक साम्राज्यवादी और महत्वाकांक्षी शासक था अतः वह दक्षिण भारत को जीतकर अपना साम्राज्य विस्तार करना चाहता था।

मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा दक्षिण भारत में साम्राज्यवादी नीति अपनाना कोई नई बात नहीं थी क्योंकि उत्तर भारत के शासकों द्वारा दक्षिण भारत पर अधिकार करने की लालसा प्राचीन काल से ही दिखाई देती है। मध्यकालीन भारत के इतिहास में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा दक्षिण के प्रति अपनाई गई नीति इसी उद्देश्य का एक अंग था। परन्तु मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा अपनाई गई दक्षिण नीति उसके पूर्ववर्ती सुल्तानों द्वारा अपनाई गई दक्षिण नीति से विल्कुल भिन्न था। अकबर ने दक्षिण राज्यों के प्रति जो नीति अपनाई उसमें उसे काफी हद तक सफलता मिली परन्तु औरंगजेब की दक्षिण नीति पूर्णतः असफल साबित हुई। यहॉ तक कि अपने शासन के दूसरे हिस्से में उसने पूरा समय, पूरी शक्ति और पूरा धन दक्षिण भारत को जीतने में लगा दिया फिर भी वह असफल सिद्ध हुआ। उसकी असफलता ने केवल उसके लिए घातक सिद्ध हुई बल्कि मुगल वंश के पतन का एक बहुत बडा कारण बनी। बी0ए0 स्मिथ ने लिखा है कि – ‘‘ औरंगजेब की दक्षिण नीति न केवल औरंगजेब की कब्र बनी, वरन मुगल साम्राज्य की भी कब्र बनी।‘‘
औरंगजेब के समय दक्षिण भारत के प्रमुख राज्यों में जिनके साथ उसका सम्पर्क हुआ, बीजापुर गोलकुण्डा और मराठों का नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय है-

बीजापुर पर अधिकार –

अपने शासनकाल के प्रारम्भिक 25 वर्षों में औरंगजेब उत्तर भारत की राजनीति में व्यस्त रहा। इसका मुख्य कारण यह था कि उसे उत्तराधिकार की समस्याओं को पूर्णतः हल करना था। इसके अतिरिक्त जगह-जगह हो रहे विद्रोहों का दमन भी करना आवश्यक था। इस अवधि में उसने दक्षिण राज्यों पर विजय प्राप्त करने का उत्तरदायित्व विभिन्न मुगल सरदारों को सौंपा। 1665-66 ई0 में मुगल सेना ने सर्वप्रथम बीजापुर राज्य पर अधिकार करने के लिए राजपूत राजा जयसिंह के नेतृत्व में प्रयास किया, किन्तु सफलता प्राप्त नहीं हो सकी।
1682 ई0 में औरंगजेब ने शहजादा शाहआलम को विशाल सेना के साथ बीजापुर के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा, परन्तु उसे भी सफलता नहीं मिली। अप्रैल, 1685 ई0 में औरंगजेब बीजापुर के सुल्तान सिकन्दर अलीशाह के विरुद्ध लड़ने के लिए स्वयं चल पड़ा और मुगलों ने शीध्र ही बीजापुर का घेरा डाल दिया। यद्यपि मराठों ने बीजापुर की सहायता की और वहाँ की सेना भी मुगलों के विरुद्ध बहुत वीरतापूर्वक लड़ी, परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। अन्त में सितम्बर, 1686 में बीजापुर ने आत्म-समर्पण कर दिया। औरंगजेब ने बीजापुर के शासक को गद्दी से हटाकर पेंशन देना स्वीकार किया। इसी वर्ष बीजापुर राज्य को मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

गोलकुण्डा पर अधिकार –

गोलकुण्डा का शासक अबुल हसन औरंगजेब का विरोधी था और औरंगजेब भी उससे घृणा करता था। इसलिए उसने 1685 ई0 में गोलकुण्डा पर आक्रमण करने के लिए शहजादा शाहआलम को भेजा। अबुल हसन ने भयभीत होकर गोलकुण्डा के किले में शरण ली। शाहआलम और अबुल हसन के मध्य एक सन्धि हुई, किन्तु औरंगजेब ने इस सन्धि को स्वीकार नहीं किया और 1687 ई0 में उसने स्वयं गोलकुण्डा के किले का घेरा डाल दिया। इसी समय वहां अकाल पड़ गया। एक ओर निराश भूखे सैनिक थे और उन पर निरन्तर आक्रमण हो रहे थे परन्तु औरंगजेब ने घेरा समाप्त नहीं किया। अब औरंगजेब ने गेलकुण्डा के एक नौकर को भारी रिश्वत देकर किले के द्वार खुलवायें और जब गोलकुंडा का सुल्तान औरंगजेब से भेंट करने आया तो उसे बन्दी बना लिया। उसे 50,000 रुपये की पेंशन देकर अपदस्थ कर दिया और गोलकुंडा को मुगल राज्य में मिला लिया गया। अक्टूबर, 1687 ई0 में औरंगजेब चालाकी से गोलकुण्डा के किले को जीतने में सफल हो गया। इस प्रकार गोलकुण्डा को मुगल साम्राज्य में शामिल कर लिया गया।
शिवाजी से संघर्ष –
औरंगजेब के समय में दक्षिण भारत में मराठों की शक्ति का उदय हुआ था जिसके संस्थापक शिवाजी थे। औरंगजेब शिवाजी से काफी कारणों से नाराज था। पहला कारण तो यह था कि वह हिन्दू था और वह हिन्दूओं का स्वंतत्र राज्य स्थापित करना चाहता था। इसके अतिरिक्त उसने बीजापुर और गोलकुण्डा को मदद दी थी। जब औरंगजेब उत्तराधिकार युद्ध में लगा था तथा बीजापुर और खानदेश का दमन कर रहा था तो शिवाजी ने इस परिस्थिति का लाभ उठाकर अपने राज्य को स्थापित कर लिया और राज्य विस्तार कर लिया। शिवाजी ने 1646 ई0 में तोरण दुर्ग, 1648 ई0 में पुरन्दर दुर्ग, 1656 ई0 में जावली दुर्ग पर अधिकार कर लिया तथा जुन्नार को लूट लिया। इसके अतिरिक्त सन् 1657 ई0 में जंजीरा, कोंकण, कल्याण, भिवण्डी पर अधिकार कर लिया। औरंगजेब के सामने मराठों की शक्ति को कुचलने की कठिन समस्या थी। उसने शाइस्ता खान को शिवाजी पर आक्रमण करने के लिए भेजा परन्तु जब वह रात्रि में पूना के एक पुराने महल में नाच-गाने में व्यस्त था, तभी शिवाजी ने उस पर आक्रमण कर भगा दिया। इसके पश्चात् शिवाजी ने मुगलों के क्षेत्र सूरत पर आक्रमण किया। इसके बाद औरंगजेब ने राजपूत राजा जयसिंह को शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा। शिवाजी ने कूटनीति से काम लेते हुए जयसिंह के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया कि वह आगरा बादशाह से मिलने जाएॅगे और साथ ही अपने 23 दुर्ग मुगलों को देने के लिए भी राजी हो गये। 1666 ई0 में शिवाजी औरंगजेब से भेंट करने आए, तो उन्हें आगरा में बन्दी बना लिया गया किन्तु शिवाजी चालाकी से वहाँ से बचकर निकल भागे। इस प्रकार शिवाजी जीवनभर मुगलों की शक्ति को रोकने का प्रयास करते रहे। इसी बीच 1680 ई0 में शिवाजी की मृत्यु हो गई और उनका पुत्र शम्भाजी मराठा राज्य का शासक बना। मराठा शक्ति को नष्ट करने के उद्देश्य से औरंगजेब ने शम्भाजी के राज्य पर आक्रमण कर दिया। कड़े संघर्ष के पश्चात् 1689 ई0 में शम्भाजी पराजित हो गया और उसका वध कर दिया गया।
शम्भाजी के पुत्र शाहू के पकड़े जाने के पश्चात् मराठों ने राजाराम का राजतिलक किया। मराठे अब रणनीति में कुशल हो गए थे और उन्होने मुगलों की सेना को स्थान-स्थान पर पराजित किया। उन्होंने शाही कर्मचारियों को हटाकर अपने सूबेदार नियुक्त किए। मराठा सेनापति सन्ताजी का ऐसा आतंक था कि कोई भी अमीर उससे युद्ध करने के लिए तैयार न था। सन्ताजी का भय चारों ओर फैल गया परन्तु सन्ताजी घरेलू युद्ध में मारा गया। औरंगजेब ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति, मराठों के दुर्गों को अपने अधिकार में करने में लगा दी। इसी बीच राजाराम की मृत्यु हो गई और मराठों ने राजाराम की विधवा पत्नी ताराबाई के नेतृत्व में संघर्ष प्रारम्भ किया। यह युद्ध औरंगजेब की मृत्यु तक चलता रहा। इस प्रकार औरंगजेब सम्पूर्ण दक्षिण भारत पर अधिकार करने में सफल नहीं हो सका। मराठा स्वतन्त्रता संग्राम ने उसकी दक्षिण नीति की सफलता को नष्ट कर दिया और औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् मराठों ने महाराष्ट्र में अपना राज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।

दक्षिण नीति का विश्लेषण –

यहॉ यह उल्लेखनीय है कि औरंगजेब की धार्मिक नीति ने उसके सम्पूर्ण शासन नीति और कार्यो को प्रभावित किया। धार्मिक कट्टरतापूर्ण नीति अपनाने के कारण अधिकांश हिन्दू राज्य औरंगजेब के विरोधी हो गये थे। औरंगजेब ने उनके विरोध के महत्व का नही समझा परन्तु यह भी कम महत्वपूर्ण नही है कि दक्षिण भारत के बीजापुर और गोलकुण्डा राज्यों पर औरंगजेब ने जो आक्रमण किया उसके पीछे स्पष्ट रुप से राजनीतिक उद्देश्य था और साम्राज्यवादी विस्तार की भावना थी क्योंकि बीजापुर और गोलकुण्डा के शासक मुसलमान थे फिर भी औरंगजेब ने उनपर आक्रमण करके अधिकार करने की चेष्टा की। शिवाजी के प्रति औरंगजेब ने जो नीति अपनाई उसके परिणामस्वरुप दक्षिण भारत में मराठे एक राष्ट्र के रुप में संगठित हो गयें।
औरंगजेब की दक्षिण विजय में सबसे बडी बाधा और मुगल साम्राज्य के पतन के लिए शिवाजी ही जिम्मेदार साबित हुए। राजपूत नरेश राजा जयसिंह के प्रयास से शिवाजी औरंगजेब के दरबार में उपस्थित हुए थे परन्तु औरंगजेब ने उनका अपमान करके हमेशा के लिए मराठों से बैर मोल लिया। शिवाजी के नेतृत्व में मराठों ने न केवल स्वतंत्र रुप से मुगल सम्राट औरंगजे से टक्कर लिया बल्कि दक्षिण भारतीय राज्यों को मदद देकर मुगल सम्राट के आधिपत्य में जाने से बचाने का प्रयास भी किया।
औरंगजेब जब एक बार दक्षिण भारत में विजय के लिए निकल गया तो उसने जीवन के अन्तिम पच्चीस वर्ष संघर्ष करते हुए दक्षिणी राज्यों पर अधिकार करने की लालसा से बीता दिया। औरंगजेब ने दक्षिण के राज्यों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण करने की एक भारी भूल की। यदि वह दक्षिण भारत पर प्रत्यक्ष नियंत्रण करने का प्रयास नही करता तो वहॉ पर उसका अधिकार हो सकता था। दूसरी बात यदि औरंगजेब दक्षिण भारत में प्रारंभिक असफलताओं से सबक लेकर वापस उत्तर भारत लौट आया होता तो उत्तर भारत की शासन व्यवस्था जो उनकी अनुपस्थिती में छिन्न-भिन्न हो रही थी, वह भी सुधर जाती और उत्तर भारत के विद्रोहों पर भी काबू पा लिया गया होता। परन्तु स्वभावतः जिद्दी होने के कारण औरंगजेब दक्षिण भारत पूरी तरह से जीतने में लगा रहा जिसमें उसे बुरी तरह असफलता मिली। उसने 25 वर्ष तक दक्षिण में लडाई जारी रखी थी जिससे दक्षिण भारत की दशा बहुत बुरी हो गयी थी और उसकी इस नीति से मराठे और भी निर्भिक हो गये। इन कठिनाईयों और विपत्तियों में फॅसा हुआ औरंगजेब 3 मार्च 1707 ई0 को स्वर्ग सिधार गया। वह दौलताबाद से चार मील पश्चिम में शेख जैन-उल-हक के मजार के पास दफना दिया गया।
यह सत्य है कि औरंगजेब तथा मुगल साम्राज्य के पतन में दक्षिण के इस नासूर ने सबसे घातक भूमिका अदा की। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि औरंगजेब के पतन का कारण उसकी दक्षिण नीति ही थी। अधिकांश इतिहासकारों ने कुछ इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये है।
इतिहासकार वी0 ए0 स्मिथ के अनुसार – ‘‘स्पेनिश फोडे ने जिस प्रकार नेपोलियन बोनापार्ट का नाश किया, उसी प्रकार दक्षिणी फोडे ने औरंगजेब का नाश किया।‘‘
इतिहासकार जदुनाथ सरकार के शब्दों में -‘‘यह लगता था कि औरंगजेब ने सबकुछ प्राप्त कर लिया परन्तु वास्तव में उसके हाथ कुछ भी नही आया। वह उसके अन्त का आरंभ ही था।‘‘

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