प्रमुख स्रोत -
भारतीय इतिहास के राजनैतिक पक्ष पर ग्रंथों का अभाव नहीं है परन्तु सामाजिक और आर्थिक इतिहास पर अब भी अच्छी और प्रामाणिक पुस्तकों का अभाव खटकता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चाहिए कि इन विषयों से सम्बन्धित पुस्तक है ही नहीं। पाश्चात्य इतिहासकारों में डब्लू0 एच0 मोरलैण्ड (W. H. Moreland) ने क्रमशः तीन पुस्तकें - ‘इण्डिया ऐट दि डेथ ऑफ अकबर‘ (1920), ‘फ्राम अकबर टू औरंगजेब‘ (1923) तथा 1929 ई० में ‘अग्रेरियन सिस्टम आफ मुस्लिम इण्डिया” लिखीं। इन पुस्तकों में पहली बार मध्ययुगीन भारत की आर्थिक, ग्रामीण एवं कृषि व्यवस्था का विस्तार से उल्लेख किया गया है। निश्चय ही मोरलैण्ड (W. H. Moreland) को मध्ययुगीन भारत के आर्थिक इतिहास लेखन का जन्मदाता कहा जा सकता है।
तब से भारतीय विद्वानों का ध्यान मध्ययुगीन भारत के इस महत्वपूर्ण विषय की ओर आकृष्ट होने लगा। इतिहासकारों की इस कड़ी में डॉ० के० एम० अशरफ का नाम विशेष उल्लेखनीय है, जिन्होंने मोरलैण्ड द्वारा स्थापित परम्परा को और आगे बढ़ाते हुए अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘दि लाइफ एंड कंडीशन्स आफ दि प्यूपिल आफ हिन्दुस्तान‘ (1200-1550) की रचना की। यह पुस्तक पहली बार सन् 1935 ई० में जरनल आफ एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल, खण्ड-15 में प्रकाशित हुई । इस पुस्तक में डा० अशरफ भारत के मध्ययुगीन समाज और उनके आर्थिक जीवन तथा उद्योग धन्धों का पहली बार बड़ा ही सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है। डा० अशरफ के अतिरिक्त डा० आर० के० मुखर्जी की ‘इकनामिक हिस्ट्री आफ इण्डिया (1600-1800 ई०) तथा डा० नोमान अहमद सिद्दीकी का ‘लैण्ड रेवेन्यू एडमिनिस्ट्रेशन अण्डर दि मुगल्स‘‘ आदि भी प्रमुख ग्रंथ हैं। इसी क्रम में अनेक ग्रंथों की रचना की गई।
शासन प्रबन्ध के दृष्टिकोण से लिखी गई कुछ पुस्तकें भी भारत के मध्ययुगीन आर्थिक इतिहास पर अच्छी रोशनी डालती हैं। सबसे पहले सर जदुनाथ सरकार ने 1921 में ‘मुगल एडमिनिस्ट्रेशन‘ और फिर डा० राम प्रसाद त्रिपाठी ने 1936 ई० में ‘सम आस्पेक्ट्स आफ मुस्लिम एडमिनिस्ट्रेशन‘ नामक ग्रंथ की रचना की और डा० त्रिपाठी के छः वर्ष बाद डा० इस्तियाक हुसैन कुरैशी ने ‘एडमिनिस्ट्रेशन आफ दि सल्तनत आफ देहली‘ की रचना की। इस कम में अन्य और भी बहुत सी पुस्तकें लिखी गईं, जिनका यहाँ उल्लेख आवश्यक नहीं है।
इसी प्रकार मध्यकालीन समाज और संस्कृति पर भी अनेक अच्छे ग्रंथों की रचना की जा चुकी है। डा० के० एन० अशरफ के अतिरिक्त डा० एन० एन० ला की ‘प्रोमोशन आफ लर्निंग इन इण्डिया ड्यूरिंग मुहम्मडन रूल‘ (1916) तथा एस० एस० जाफर की ‘एजुकेशन इन मुस्लिम इण्डिया‘ (1936) और प्रो० मुहम्मद हबीब की ‘इण्डियन कल्चर एण्ड सोशन लाइफ एट दि टाइम आफ टरकिश इनवेजन्स‘ तथा युसूफ हुसेन खाँ की ‘ग्लिम्प्सेस आफ मेडियवल इण्डियन कल्चर‘ (1957) आदि कुछ प्रमुख ग्रंथ हैं। परन्तु इस संदर्भ में डा० ताराचन्द की लिखी पुस्तक ‘इन्फ्लुएन्स आफ इस्लाम आन इण्डियन कल्चर‘ विशेष उल्लेखनीय हैं। सांस्कृतिक दृष्टिकोण से लिखे गये इस ग्रंथ में मध्ययुगीन धार्मिक आन्दोलन तथा सूफियों और सन्तों पर अच्छा विवरण प्रस्तुत किया गया है। परन्तु इस पुस्तक की सबसे बड़ी खामी यह है कि डा० ताराचन्द ने केवल भारतीय संस्कृति पर इस्लामी प्रभाव को ही अपने इस ग्रन्थ में दर्शाया है, जिससे यह पुस्तक एक पक्षीय हो गई है। इसी श्रृंखला में डा० पी० एन० चोपड़ा की पुस्तक ‘सम आसपेक्ट्स आफ सोसायटी एण्ड कल्वर ड्यूरिंग दि मुगल एज‘ (1955) भी उल्लेखनीय हैं।
इन लेखकों के अतिरिक्त इतिहासकारों की एक लम्बी कड़ी है, जिन्होंने मध्ययुगीन भारतीय इतिहास के सामाजिक और आर्थिक इतिहास पर महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे हैं। इनमें डा० पुष्पा नियोगी, डा० वी० पी० मजुमदार, डा० इरफान हबीब आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन्होंने भारत के सामाजिक एवं आर्थिक पहलुओं पर अलग-अलग प्रकाश डाला है।
यहाँ मैं डा० इरफान हबीब की पुस्तक ‘दि एग्रेरियन सिस्टम आफ मुगल इण्डिया‘ का विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूँगा। यद्यपि मुगल काल के आर्थिक इतिहास पर लिखी गई यह एक उपयोगी पुस्तक है, परन्तु इसमें लेखक द्वारा व्यक्त किए गये विचार मौलिक नहीं हैं वरन् मार्क्सवादी इतिहासकार प्रो० आई० एम० रंजनर ने अपने ये विचार मुगलकालीन भारत के सन्दर्भ में दिये हैं। इस प्रकार इरफान हबीब की यह पुस्तक उपयोगी होने के बावजूद मुगल कालीन भारत के ग्रामीण एवं आर्थिक जीवन पर कोई नई रोशनी नहीं डालती।
इसी प्रकार आधुनिक भारत के इतिहास के सन्दर्भ में अंग्रेज इतिहासकार सर जान स्ट्रेंथी का नाम प्रमुख तौर पर लिया जा सकता है, जिन्होंने प्रथम बार 1888 ई० में ‘इण्डिया इट्स एडमिनिस्ट्रेशन एण्ड प्रोग्रेस‘‘ ग्रन्थ की रचना की। इस पुस्तक में उन्होंने 18वीं एवं 19वीं सदी में भारत के भू-राजस्व कर व्यवस्था, वित्तीय संगठन, शिक्षा समाज, कृषि तथा उद्योग एवं व्यापार पर विस्तार से प्रकाश डाला है। तब से लेकर यूरोपीय इतिहासकारों ने भारत के सामाजिक एवं आर्थिक पहलुओं पर कुछ महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे, परन्तु भारत के आधुनिक आर्थिक इतिहास लेखन में श्री रमेश चन्द्र दत्त को भारत के आर्थिक इतिहासकारों का जनक कहा जा सकता है। निश्चय ही वह प्रथम भारतीय इतिहासकार थे, जिन्होंने सन् 1902-04 में ‘इकोनामिक हिस्ट्री आफ इण्डिया‘ नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना कर भारत के आर्थिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया। एक भारतीय इतिहासकार के रूप में उन्होंने प्रथम बार बाधुनिक भारत के विभिन्न भूमि बन्दोवस्तों जैसे - स्थायी बन्दोवस्त (Parmanent Settlement)] रय्यतवाड़ी (Ryotwari) और महलवाड़ी (Mahalwari) के अतिरिक्त तत्कालीन राजस्व और व्यापार एवं कृषि आदि का विस्तार से उल्लेख किया है।
इस सन्दर्भ में हाल ही में प्रकाशित ग्रंथ ‘दि कैम्ब्रिज इकानामिक हिस्ट्री आफ इण्डिया‘ भी काफी उपयोगी है।
यद्यपि इन विद्वानों ने भारत के सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास पर गहनता पूर्वक प्रकाश डाला है, परन्तु इन विद्वानों का विषय क्षेत्र बहुत सीमित था। इनमें से कुछ ने सामाजिक तथा आर्थिक पहलू पर लिखा है। इसी प्रकार एक ने दिल्ली सल्तनत को अपना विषय क्षेत्र चुना तो दूसरे ने मुगल अथवा आधुनिक भारत को अपना विषय क्षेत्र बनाया है। सब मिलाकर यही निष्कर्ष निकलता है कि भारत के सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास (1200-1900) पर, पाठ्य सामग्रियों का पूर्ण अभाव है। इन्हीं समग्र कारणों से यह विषय इतिहास के विद्यार्थियों में अधिक लोकप्रिय न हो सका।
पहले सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास पर इने-गिने ही कार्य होते थे, परन्तु देश के स्वतन्त्र होने के बाद भारत के सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। फलतः भारतीय विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में सामाजिक एवं आर्थिक इतिहास को भी शामिल किया जाने लगा। नई शिक्षा नीति- 2020 के लागू होने के बाद तो भारत के सामाजिक व आर्थिक इतिहास का महत्व और भी बढ गया है।