बंगाल का नवाब नियुक्त किये जाने पर मीर जाफर ने अंग्रेजों को चौबीस परगना की जमींदारी प्रदान करके बंगाल की सभी फ्रांसीसी बस्तियों को अंग्रेजों को सौंप दिया था। इसके अतिरिक्त उसने क्लाइव को 20 लाख रुपये की व्यक्तिगत भेंट भी प्रदान की थी। इस प्रकार मीर जाफर अपनी रक्षा तथा पद हेतु ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी पर निर्भर था। इस प्रकार प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल में कंपनी एक राजनैतिक शक्ति के रूप में उभरी तथा बंगाल में वह सर्वोच्च शक्ति के रूप में स्थापित हो गई। प्लासी के युद्ध में विजय के पश्चात भारत में कंपनी अब “नृप निर्माता” (King Maker) की भूमिका में अपना वर्चस्व स्थापित कर चुकी थी।
बंगाल का नवाब बनाये जाने से खुश होकर मीर जाफर ने अंग्रेजों को बहुत अधिक मात्रा में धन संपत्ति तथा अनेक व्यापारिक तथा राजनैतिक अधिकार करने की छूट प्रदान की थी किन्तु कालांतर में अंग्रेजों का लालच बढ़ता गया। अंग्रेज अब बंगाल से अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करना चाहते थे। जबतक वह कम्पनी की मॉग और लालच को पूरा करता रहा तबतक वह पद पर बना रहा। क्लाइव और कंपनी की बढती मांगों के कारण नवाब की आर्थिक स्थिति कमजोर होती जा रही थी। कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण प्रशासन संभालना मुश्किल हो गया और लगान वसूली में गिरावट आई। जमींदारों के बगावतों से स्थिति और भी विगड़ती गई। नवाब मीर जाफर कंपनी की असीमित मॉंगों को पूरा करने में असफल रहा, परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने 14 अक्टूबर, 1760 ई० की रात्री में मीर जाफर को राजधानी में घेर लिया और उसे बंगाल के नवाब के पद से हटाकर उसके दामाद मीर कासिम को बंगाल का नया नवाब नियुक्त किया। मीर जाफर को 15 हजार रूप्ये मासिक पेन्शन दिया जाने लगा और वह मुर्शिदाबाद छोड़कर कलकता चला गया।
मीर कासिम -
मीर कासिम 1760 ई० से लेकर 1763 ई० तक बंगाल का नवाब रहा। सभी इतिहासकार इस बात को स्वीकार करते है कि अलीवर्दी खां के परवर्ती नवाबों में से मीर कासिम सर्वाधिक योग्य व्यक्ति था। फौजदार के पद पर रहते हुये वह अपने प्रशासकीय गुण का परिचय दे चुका था। वह एक ऐसा व्यक्ति था जो अपने व्यक्तित्व के कारण लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर सकता था। अपनी कार्यकुशलता की बदौलत उसने कम्पनी का ऋण चुका दिया तथा अपनी फौजों का शेष वेतन आदि भी चुकता कर दिया। उसने अपने दरबार के खर्चे बहुत घटा दिये और जमींदारों के अधिकारों में कटौती की। स्पष्ट है कि मीर कासिम ने अपने शासन का आरम्भ अत्यन्त कुशलता से किया। अपने शासनकाल में अंग्रेजों के हस्तक्षेप और दरबार के षड्यंत्रों से बचने के लिए मीर कासिम ने चार महत्वपूर्ण कदम उठाये -
1. मीर कासिम ने अपने प्रशासनिक कार्यों में अंग्रेजों के हस्तक्षेप को कम करने के लिए अपनी राजधानी को मुर्शिदाबाद से मुंगेर स्थापित किया।
2. सैनिकों को आधुनिक ढंग से प्रशिक्षित किया।
3. तोपों एवं बंदूकों का निर्माण करने के लिये कारखाने की स्थापना करवाई।
4. अंग्रेजों द्वारा दस्तक के दुरूपयोग को कम करने के लिये मीर कासिम ने आतंरिक व्यापार के सभी शुल्कों की समाप्ति कर दी।
मीर कासिम द्वारा समाप्त की गई व्यापारिक कर का लाभ अब सभी भारतीयों को भी मिलने लगा था। इससे पहले यह लाभ 1717 ई० के फरमान द्वारा केवल अंग्रेजों को ही प्राप्त होता था। अंग्रेजों ने नवाब के इस निर्णय को अपने विशेषाधिकार के हनन के रूप में लिया और वास्तव में यही बक्सर के युद्ध का प्रमुख कारण बना।
अंग्रेजों ने 1763 ई० में मीर कासिम को बंगाल के नवाब के पद से हटाने के लिए बहाना ढ़ूॅढ़ना प्रारंभ कर दिया। इसी क्रम में 1763 में एक घटना घटित होती है जिसे “पटना कांड” के नाम से संबोधित किया जाता है। 25 मार्च 1763 ई0 को कम्पनी की तरफ से ऐमायट नामक अधिकारी मुॅंगेर पहुॅचा और उसने नवाब के सामने कम्पनी के 11 सूत्रीय मॉग प्रस्तुत किया जिसे नवाब ने मानने से इनकार कर दिया। इसी बीच पटना के अंग्रेज पुलिस अफसर एलिस को कलकत्ता काउन्सिल ने पटना नगर पर आक्रमण करने का आदेश दिया जिसके परिणामस्वरुप एलिस ने आसानी से पटना पर अधिकार कर लिया। यह घटना 24 जून 1763 ई0 की है। मीर कासिम को जब इस बात की जानकारी हुई तो उसने अपने सैनिकों के साथ पटना पर आक्रमण किया और उस पर पुनः अधिकार कर लिया। इस दौरान अनेक अंग्रेज अधिकारी मारे गये। इसके बाद मेजर एड़म्स के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने अनेक स्थानों पर नवाब की सेना को पराजित किया। बुरी तरह पराजित होने के कारण वह मुंगेर होता हुआ पटना पहुॅचा और पराजय की क्रोध में उसने पटना में गिरफ्तार करीब 148 अंग्रेज कैदियों, जिसमें एलिस भी था, की हत्या करवा दी। यही घटना ‘पटना हत्याकाण्ड़‘ के नाम से विख्यात है। इस आक्रमण में पराजय के बाद अंग्रेज तुरंत ही मीर कासिम को उसके इस अंग्रेजों के खिलाफ होने के कारण बंगाल के नवाब के पद से हटा देते है और अंग्रेजी कंपनी दुबारा से मीर ज़ाफर को ही 1763 में बंगाल का नवाब बना देती है। पटना कांड के बाद मीर कासिम को नवाब के पद से हटा के दुबारा मीर ज़ाफर को बंगाल का नवाब बना दिया जाता है, और अंग्रेज लगातार मीर कासिम का पीछा करते है। ऐसी स्थिति में मीर कासिम दुबारा बंगाल की सत्ता को पाने और अंग्रेजों से बदला लेने के लिए योजना बनाता है। दूसरी तरफ मीरकासिम के अधिकारियों की दगाबाजी से मुंगेर और पटना उसके हाथ से निकल जाता है और उसे अपना राज्य छोड़कर अवध की ओर भागना पड़ता है। पटना से भागकर मीर कासिम अवध के नवाब शुजाउद्दौला के पास पहुॅचा। उस समय मुगल सम्राट शाहआलम भी वही था। मीर कासिम ने इन दोनों से सहायता की अपील की। इसके परिणामस्वरूप मीर कासिम ने अंग्रेजों के खिलाफ एक सैन्य गठबंधन तैयार किया। इस सैन्य गठबंधन में तीन सेनाओं ने संयुक्त रूप से भाग लिया था- मीर कासिम, अवध का नवाब शुजाउद्दौला, मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय।
युद्ध की घटनाएँ -
अब तीनों की संयुक्त सेनाएँ बिहार की ओर बढी और 22-23 अक्टूबर 1764 ई० को बक्सर के पास गंगा नदी के तट पर दोनों के मध्य युद्ध लड़ा गया जो इतिहास में बक्सर के युद्ध के नाम से विख्यात है। इस युद्ध में एक तरफ अंग्रेजी सेना का नेतृत्व हेक्टर मुनरो कर रहा था जबकि दूसरी तरफ मीर कासिम, मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय और अवध के नवाब शुजाउद्दौला की संयुक्त सेना थी। मीर कासिम की सेना का नेतृत्व गुर्गिन खां के द्वारा किया गया था। बक्सर के युद्ध में शुजाउद्दौला, मीर कासिम और शाहआलम द्वितीय के नेतृत्व वाली संयुक्त सेना की पराजय हुई। मीर कासिम युद्ध क्षेत्र से भाग खडा हुआ और निर्वासित जीवन व्यतीत करते हुये अन्ततः दिल्ली के निकट 1777 ई0 में उसकी मृत्यु हो गई। मुगल सम्राट ने अन्ततः अंग्रेजों से समझौता कर लिया। नवाब शुजाउद्दौली ही कुछ दिनों तक अंग्रेजों का विरोध करता रहा लेकिन वह भी अन्ततः मई 1765 ई0 के कारा के युद्ध में पराजित होने के पश्चात अंग्रेजों के समक्ष घुटने टेक दिये। इस प्रकार बक्सर का युद्ध सैन्य दृष्टिकोण से अंग्रजों की बहुत बड़ी सफलता थी।
इलाहाबाद की सन्धि, 1765
राबर्ट क्लाइव का प्रथम कार्य पराजित शक्तियों के साथ संबंधों को निश्चित करना था। क्लाइव ने 1765 ई0 में मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय को अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया और उससे इलाहाबाद एक संधि की, जिसके अनुसार कंपनी ने सम्राट शाहआलम को इलाहाबाद तथा कड़ा के जिले अवध के नवाब से लेकर दे दिया।
शाहआलम ने अपने 12 अगस्त 1765 ई0 के फरमान द्वारा कंपनी को बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी स्थायी रूप से दे दी जिसके बदले कंपनी ने सम्राट को प्रति वर्ष 26 लाख रुपये वार्षिक पेंशन तथा निजामत के व्यय के लिए 53 लाख रुपया देना स्वीकार किया। इसे इलाहाबाद की पहली संधि के नाम से जाना जाता है।
दूसरी तरफ उसने अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ 16 अगस्त, 1765 को एक संधि की, जिसे इलाहाबाद की दूसरी संधि के रूप में जाना जाता है। संधि की शर्तों के अनुसार नवाब ने इलाहाबाद व कड़ा के जिले शाहआलम द्वितीय को देने का वादा किया और युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिए उसने कंपनी को 50 लाख रुपये भी देने का वचन दिया। क्लाइब ने अवध के नवाब से यह भी कहा कि वह बनारस के जागीरदार बलवंतसिंह को उसकी जागीर में प्रतिस्थापित कर दे।
इसके अतिरिक्त, उसने कंपनी से आक्रमण तथा रक्षात्मक संधि की जिसके अनुसार उसे कंपनी की आवश्यकतानुसार निःशुल्क सहायता करनी होगी तथा कंपनी नवाब की सीमाओं की रक्षा के लिए उसे सैनिक सहायता देगी जिसके लिए नवाब को धन देना होगा। इन दोनों संधियों के संपन्न हो जाने पर ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थिति अत्यन्त ही मजबूत हो गई।
वास्तव में क्लाइव ने दोनों संधियों के द्वारा अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया। यदि वह अवध को अपने अधिकार में लेता तो उसे अहमदशाह अब्दाली और मराठों जैसी शक्तियों से निपटना पड़ता। इस निर्णय से अवध का नवाब उसका मित्र हो गया और अवध एक मध्यवर्ती राज्य बन गया। इसी प्रकार शाहआलम से संधि करके क्लाइव ने उसे कंपनी का पेंशनर बना लिया और वह कंपनी की रबर की मुहर बन गया। सम्राट के फरमान से कंपनी को राजनैतिक लाभों को कानूनी रूप मिल गया।
बक्सर के युद्ध के परिणाम-
बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों की वास्तविक विजय हुई थी, क्योंकि बक्सर का युद्ध प्लासी के युद्ध के सामान कोई षड़यंत्रकारी युद्ध नहीं था बल्कि यह भारत में तीन महत्वपूर्ण सेनाओं पर अंग्रेजी सेना की विजय थी। प्लासी के युद्ध (1757ई०) ने बंगाल में अंग्रेजों की श्रेष्ठता स्थापित की थी, जबकि बक्सर के युद्ध (1764ई०)ने अंग्रेजों को अखिल भारतीय शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया।
बक्सर के युद्ध में मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय के पराजय से संपूर्ण भारत में यह संदेश प्रसारित हो गया कि अंग्रेज अजेय हैं, इन्हें पराजित करना संभव नहीं है। बक्सर के युद्ध में पराजित होने के बाद शाहआलम द्वितीय, अंग्रेजों की शरण में आ गया और अवध का नवाब शुजाउद्दौला ने भी। अवध के नवाब ने मई, 1765 ई० में अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। बक्सर के युद्ध के समय बंगाल का नवाब मीर जाफर था। 1765 ई० में मीर जाफर की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने उसके पुत्र नजमुद्दौला को अपने संरक्षण में रखकर उसे बंगाल का नवाब नियुक्त कर दिया।
बक्सर के युद्ध ने अंत में कंपनी के शासन की बेड़ियों को बंगाल पर जकड़ दिया। इसके महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए अल्फ्रेड लायल ने लिखा है-“बक्सर के युद्ध के दीर्घकालिक तथा गौण परिणाम बहुत महत्त्वपूर्ण थे। अँगरेजों की विजय के कारण मुगल सम्राट अँगरेजों से मिल गया, वजीर भयभीत हो गया तथा कंपनी की सेनाएँ गंगा पार बनारस तथा इलाहाबाद तक पहुँच गईं। इसके कारण बंगाल के उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों से जो उनका संबंध हुआ उससे पहली बार एक नवीन उन्नत तथा प्रभुत्वमय संबंध वे स्थापित कर सके।“ मैलिसन तो यहाँ तक कहते हैं कि “विजय से न केवल बंगाल ही मिला, न केवल इसने अँगरेजी। सीमाएँ इलाहाबाद तक पहुँचा दीं, अपितु इससे अवध के शासक विजयी शक्ति से कृतज्ञतापूर्ण निर्भरता, विश्वास के बंधनों से बँध गए जिसने आनेवाले 94 वर्ष तक उनको मित्रों का मित्र तथा शत्रुओं का शत्रु बनाए रखा।“ यह कंपनी की बहुत बड़ी उपलब्धि थी।
इतिहासकार ताराचंद के शब्दों में, प्लासी ने सत्ता का हस्तांतरण किया; परंतु 1764 ई. में बक्सर के युद्ध ने अधिकारों का सजन किया। कंपनी के इतिहास में वैधानिक आर्थिक व्यापार का युग समाप्त हो गया तथा राजनीतिक सत्ता के अंतर्गत राजकीय राजस्व के साथ व्यापार का युग आरंभ हुआ।
Tq guruji 🙏🙏🙏🙏🙏
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