विषय-प्रवेश (Introduction) :
आधुनिक भारत के इतिहास में हैदरअली के नेतृत्व में मैसूर में एक महत्त्वपूर्ण सत्ता का उदय हुआ था। 1565 ई0 में तालीकोटा युद्ध में विजयनगर साम्राज्य के छिन्न-भिन्न होने के समय से ही मैसूर राज्य ने अपनी कमजोर स्वाधीनता को बनाये रखा और नाममात्र के लिए यह मुगल साम्राज्य का अंग था। 1612 ई0 में विजयनगर के राजा वेंकेट द्वितीय ने एक राजा वाडियार को मैसूर के ’राजा’ की उपाधि दी थी। 17वीं शताब्दी में वाडियार वंश ने अपने राज्य का पर्याप्त विस्तार किया। 1732 ई0 में जब मैसूर की गद्दी पर एक अल्पवयस्क राजकुमार इम्मदी कृष्णराज बैठा, तो दुलवई (मुख्य सेनापति) देवराज तथा सर्वाधिकारी (राजस्व तथा वित्त अधीक्षक) नंजराज नामक दो मंत्रियों ने मैसूर राज्य की शक्ति अपने हाथ में केंद्रित कर ली। उन्होंने वहाँ के राजा चिक्का कृष्णराज को कठपुतली में बदल दिया था।
युद्ध और उसके साथ सैन्यीकरण की अहमियत मैसूर के इतिहास में और भी पहले से दिखायी देती है। इतिहासकार स्टाइन के अनुसार सैन्यीकरण की परंपरा ऐतिहासिक विजयनगर साम्राज्य में 16वीं शताब्दी से देखी जा सकती है। दक्षिण भारत में सबसे पहले विजयनगर ने ही स्थानीय राजाओं और दूसरी बाहरी ताकतों पर अपना कब्जा कायम करने की गरज से आग्नेयास्त्रों (बंदूक, पिस्तौल जैसे हथियारों) का इस्तेमाल किया था।
यह समझने के लिए कि मैसूर में बहुत पहले सैन्यीकरण क्यों जरूरी हो गया था, स्थानीय सरदारों की भूमिका को समझना अहमियत रखता है। स्थानीय सरदार, खास तौर पर, पालीगर, जंगलों के शिकारी संग्रहकर्ता समूहों के वंशज थे जिन्होंने सैनिक कौशल हासिल कर लिया था और विजयनगर साम्राज्य की सैनिक सेवा में स्थानीय महत्व की राजनीति भी सीख ली थी। 18वीं शताब्दी आते-आते उनमें से अधिकांश ने दो मुख्य माध्यमों से ताकत हासिल कर ली थी-(क) राजस्व का कब्जा और अपनी भूमियों पर खेती से मिलने वाला अंशदान, और (ख) उनके अपने संप्रदाय के मंदिरों के पुरोहितों का समर्थन। इसके अलावा इस तथ्य ने भी इस दिशा में काम किया कि मंदिर व्यापार के केंद्र भी थे और उन्होंने स्थानीय सरदारों को ताकत हथियाने में मदद की जिससे वे मैसूर के किसी भी केंद्रीकृत राज्य के विकास को प्रभावित कर सके। इसका यह भी अर्थ हुआ कि मैसूर और पोलीगरों के बीच ताकत और सैनिक बल का टकराव मैसूर में किसी राजतंत्र को स्थापित करने में निर्णायक कारक होता।
इस टकराव की शुरुआत 18 वीं शताब्दी में चिक्कदेव राजा वोडयार (1672-1704) ने की। उसके अधीन मैसूर अभूतपूर्व सैन्यीकरण की ओर बढ़ा। इस बढ़ी सैनिक क्षमता को बनाये रखने के लिए उसने राज्य के अधिकारियों के द्वारा इकट्ठे होने वाले आम राजस्व को बढ़ा दिया और उसके सैनिकों के पास जो भूमि थी उसे राजस्व करों से मुक्त कर दिया। हैदर अली जो धीरे-धीरे मैसूर प्रशासन की सीढ़ियाँ चढ़ता ऊपर तक जा पहुॅंचा था, उसने अपने आपको ठीक इसी तरीके से मजबूत किया। उसने भूमि के बड़े हिस्सों को महत्वाकांक्षी योद्धाओं के हाथों नीलाम कर दिया, जिन्होंने राजस्व का भार स्थानीय सरदारों पर लाद दिया। हैदर अली ने इन सरदारों की स्वाधीनता का कोई दावा नहीं माना और अगर किसी ने विरोध करने की कोशिश की तो उसे उसकी भूमि से ही खदेड़ दिया। इन सरदारों की गतिविधियों के क्षेत्र को सीमित करके हैदर ने फिर उनके स्थानीय प्रभुत्व को तोड़ा।
मैसूर राज्य हैदराबाद के दक्षिण में था (देखिए मानचित्र)। 18वीं शताब्दी में,मैसूर के सभी शासकों को एक ओर तो मराठों के विस्तारवाद की चुनौती का सामना करना पड़ा तो दूसरी ओर हैदराबाद और कर्नाटक के विस्तारवाद की चुनौती से निपटना पडा और अंग्रेजो ने इस स्थिति का फायदा उठाया। 18वीं शताब्दी की जानी-मानी हस्तियाँ में से एक टीपू सुल्तान था जो अंग्रेजों की बढ़ती ताकत से टक्कर लेने वाला एक लोक नायक बन गया और अंग्रेज़ उसे सत्ता हथियाने की राह का कांटा मानते थे। मैसूर को विजय नगर साम्राज्य को वायसरायों से बदल कर वोडयार वंश ने उसे एक स्वायत्तशासी राज्य बना दिया। अब मैसूर को दक्षिण भारत में एक बड़ी ताकत के रूप में स्थापित करने का उŸरदायित्व हैदरअली और उसके बेटे टीपू सुल्तान पर था। हैदर मामूली खानदान से था और उसके समय के उसके विरोधी अंग्रेज़ उसे अक्सर उपहारी (या, हड़प लेने वाला) कहते थे। इस बात का असर बाद के इतिहासकारों में भी देखने को मिलता है। उसकी जीत का सबसे महान क्षण वह था जब उसने अंग्रेजी सेनाओं को मद्रास के अंदर पाँच मील तक खदेड़ कर 1769 ई0 में उन्हें संधि के लिए मजबूर कर दिया।
हैदरअली का उत्कर्ष-
दक्षिण के मैसूर राज्य में बुदीकोट नामक स्थान पर 1721 ई0 में हैदरअली का जन्म हुआ। उसके पूर्वज दिल्ली से गुलबर्गा आये थे और कृषि का कार्य करते थे। सर्वप्रथम हैदरअली के पिता फतह मुहम्मद ने सैनिक-सेवा स्वीकार की, अपनी योग्यता से मैसूर राज्य में एक फौजदार का पद प्राप्त किया तथा बुदीकोट की जागीर प्राप्त की। 1728 ई0 में फतह मुहम्मद को मृत्यु हो गयी जबकि हैदरअली केवल सात वर्ष का था। इससे हैदरअली के परिवार की स्थिति अत्यन्त खराब हो गयी और हैदरअली जवान होकर बडी कठिनाई से राज्य में सैनिक-सेवा प्राप्त करके अपने परिवार की स्थिति को संभाल सका। जिस समय हैदरअली ने अपने सैनिक जीवन की शुरूआत की उस समय मैसूर का राजा कृष्णराज था। परन्तु वह केवल नाममात्र का शासक था। राज्य में वास्तविक शक्ति सर्वाधिकारी नन्दराज के हाथों में थी।
निरक्षर होने के बावजूद हैदरअली की सैनिक एवं राजनीतिक योग्यता अद्वितीय थी। उसके फ्रांसीसियों से बहुत अच्छे संबंध थे। उसने 1755 ई0 में डिंडीगुल में फ्रांसीसियों की सहायता से एक आधुनिक शस्त्रागार स्थापित किया था और मैसूर की सेना को आधुनिक तौर-तरीकों से प्रशिक्षण दिलवाने का प्रबंध किया था। मैसूर के सेनापति और शासक के रूप में उसने अनुभव किया कि एक सुसंगठित सेना समय की माँग है। मराठों के आक्रमणों का सामना करने के लिए एक तीव्रगामी और शक्तिशाली घुड़सवार सेना चाहिए तथा निजाम की फ्रांसीसियों द्वारा प्रशिक्षित सेना से निपटने के लिए एक अच्छा तोपखाना चाहिए। पहली बार हैदर ने बंदूकों और संगीनों से लैस नियंत्रित सिपाहियों की एक टुकड़ी का गठन किया, जिसके पीछे ऐसे तोपखाने की शक्ति थी, जिसके तोपची यूरोपीय थे।
कर्नाटक के युद्धों ने हैदरअली के उत्थान में बहुत सहायता की। नासिरजंग के कत्ल होने और मुजफ्फरजंग के हैदराबाद का निजाम बनने के समय हैदरअली के कर्मचारियों को नासिरजंग के खजाने का कुछ हिस्सा हाथ लग गया जिससे हैदरअली को पर्याप्त सहायता मिली। सैनिक दृष्टि से वह योग्य था ही, इस कारण निरन्तर उसके पद में वृद्धि होती गयी। उसने फ्रान्सीसियों के युद्ध के तरीकों को समझा और उसने अपने सैनिकों को उसी प्रकार शिक्षा देनी आरम्भ की। नन्दराज उसकी योग्यता से प्रभावित हआ और उसे साथ लेकर त्रिचनापल्ली पर आक्रमण करने के लिए गया। वहाँ पर हैदरअली ने युद्ध का अनुभव प्राप्त किया। सौभाग्य से उसके हाथों में अंग्रेजों की कुछ तोपें भी आ गयीं । 1755 ई0 में उसे डिण्डीगल का फौजदार नियुक्त किया गया। वहाँ रहकर हैदरअली ने अपनी सेना में वृद्धि की और आसपास की भूमि को लूटकर धन एकत्र किया। उस समय तक उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा में पर्याप्त वृद्धि हो गयी थी।
अगले पाँच वर्षों में हैदरअली ने राजदरबार में अपनी प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि कर ली और 1760 ई0 में राज्य की शासन-शक्ति को अपने अधिकार में कर लिया। उसने अपनी स्थिति को दृढ करने में एक वर्ष और लगाया तथा 1761 ई0 में मैसूर राज्य का सर्वेसर्वा बन गया। हिन्दू राजा को तो वर्ष में केवल एक बार उसकी प्रजा को नाममात्र के लिए दिखा दिया जाता था। हैदराबाद और कर्नाटक के उत्तराधिकार के युद्धों, पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की पराजय तथा दक्षिण में अंग्रेजों व फ्रान्सीसियों की कट्टर शत्रुता ने हैदरअली को अपनी शक्ति और राज्य का विस्तार करने की सुविधा प्रदान की। धीरे-धीरे उसने आसपास के क्षेत्रों जैसे बेदनूर, कनारा आदि पर अधिकार कर लिया और बल्लापुर, रायदुर्ग, चित्तलदुर्ग आदि के सरदारों को अपना आधिपत्य स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। इस प्रकार अपनी योग्यता और साहस से हैदरअली एक साधारण स्थिति से उठकर मैसूर राज्य में प्रधान के पद पर पहुॅंच गया। हैदरअली के इस उत्कर्ष के प्रति मराठे और हैदराबाद का निजाम उदासीन नही थे। 1764 ई0 में पेशवा माधवराव ने हैदरअली को एक युद्ध में परास्त किया और 1765 ई0 में हैदरअली को मराठों से सन्धि करके उन्हें अपना कुछ भू-क्षेत्र तथा 28 लाख रुपये प्रति वर्ष देने का वायदा करना पड़ा। 1765 ई0 में निजाम ने अंग्रेजों की सहायता लेकर हैदर अली पर आक्रमण किया। मराठे भी इस सन्धि में सम्मिलित हो गये और इस प्रकार एक त्रिगुट का निर्माण हुआ। साथ ही साथ 1766 ई0 से हैदरअली और अंग्रेजों का संघर्ष शुरू हो गया।
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1766-1769 ई0)
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध मद्रास सरकार द्वारा दक्षिण की राजनीति में भाग लेने के कारण आरम्भ हुआ। अंग्रेजों ने बंगाल में आशा से अधिक सफलता प्राप्त की थी और मद्रास सरकार दक्षिण में इसी प्रकार की सफलता प्राप्त करने के लिए उत्सुक थी। 1765 ई0 में हैदराबाद के निजाम ने हैदरअली के विरुद्ध अंग्रेजों से सहायता माँगी और उत्तरी-सरकार के क्षेत्र को प्राप्त करने के बदले में अंग्रेज निजाम को सहायता देने के लिए तत्पर हो गये। मराठे भी इस सन्धि में सम्मिलित हो गये और इस प्रकार 1766 ई0 में हैदरअली के विरुद्ध निजाम, अंग्रेज और मराठे, इन तीन शक्तियों का एक गुट बन गया।
1766 ई0 में सर्वप्रथम मराठों ने मैसूर पर आक्रमण किया। हैदरअली ने बहुत चालाकी से काम लिया। उसने इस गुट को तोड़ने और मराठों के आक्रमण से बचने के लिए कूटनीति का सहारा लिया। उसने आक्रमणकारी मराठों को 35 लाख रुपया देने का वायदा किया। आधा धन उसी समय दे दिया गया और शेष धन के बदले में कोलार के जिले को रहन के रूप में मराठों को सौंप दिया गया। मराठे इससे सन्तुष्ट हो गये और वापस लौट गये।
उधर निजाम ने जोसेफ स्मिथ के नेतृत्व में एक अंग्रेज सेना सहित मैसूर पर आक्रमण किया परन्तु यह आक्रमण बहुत सफल नहीं हुआ। इसी बीच कर्नाटक के नवाब मुहम्मदअली के भाई महफूजखाँ ने, जो मुहम्मदअली और अंग्रेजों का शत्रु था, निजाम को भड़का दिया और सितम्बर 1767 ई0 में निजाम ने अंग्रेजों से समझौता तोड़कर हैदरअली से समझौता कर लिया। अब निजाम और हैदरअली मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध हो गये। स्मिथ को इनकी सम्मिलित सेनाओं से युद्ध करना पड़ा और त्रिनोपाली वापस लौटना पड़ा जहाँ कर्नल वुड की सेना भी उसके साथ हो गयी। त्रिनोपाली के युद्ध में निजाम और हैदरअली की सेनाएँ असफल हुईं और दिसम्बर 1767 ई0 में हैदरअली की एक अन्य स्थान पर भी पराजय हुई।
इन असफलताओं को देखकर और यह जानकर कि अंग्रेज हैदराबाद पर भी हमले करने के लिए एक सेना भेज रहे हैं, निजाम का साहस टूट गया और मार्च 1768 ई0 में उसने हैदरअली का साथ छोडकर एक बार पुनः अंग्रेजों से सन्धि कर ली। निजाम के साथ मद्रास सरकार द्वारा की गयी यह सन्धि अंग्रेजों और मैसूर राज्य के बीच स्थायी शत्रुता का कारण बनी। वस्तुतः निजाम और अंग्रेजों के मध्य हुई इस सन्धि की शर्तो के अनुसार -
1. निजाम और अंग्रेजों ने पहली सन्धि की शर्तों को पुनः स्वीकार किया।
2. निजाम ने हैदरअली को विद्रोही माना और मैसूर राज्य पर उसके अधिकार को स्वीकार नहीं किया।
3. मैसूर राज्य की दीवानी अंग्रेज कम्पनी को दे दी गयी
4. निजाम ने अंग्रेजों और कर्नाटक के नवाब को हैदरअली को दण्ड देने में सहायता देने का वादा किया।
इस प्रकार 1768 ई0 में हैदरअली पुनः अकेला रह गया। परन्तु उसने साहस नही छोड़ा और तत्परता से अंग्रेजों से युद्ध करता रहा। उसने बम्बई सरकार की एक सेना को परास्त करके मंगलौर पर अधिकार कर लिया और मार्च 1769 ई0 में मद्रास पर हमला किया तथा 4 अप्रैल 1769 ई0 को मद्रास सरकार को एक सन्धि करने के लिए बाध्य किया। इस सन्धि की शर्तो के अनुसार -
1. एक-दूसरे के जीते हुए भू-माग एक-दूसरे को वापस कर दिये गये।
2. हैदरअली ने कारुर का जिला कर्नाटक के नवाब को दे दिया जिस पर मैसूर राज्य ने बहुत पहले अधिकार किया था।
3. अंग्रेज तथा हैदरअली ने एक-दूसरे को किसी भी बाह्य आक्रमण के अवसर पर सहायता देने का वायदा किया।
इस प्रकार प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध समाप्त हआ। निःसन्देह इसमें हैदरअली को सफलता प्राप्त हुई थी और उसने ही सन्धि की शर्ते निश्चित की थी परन्तु यह सन्धि दो मित्रों के बीच न धी। अंग्रेज न तो हैदरअली को मित्र मानने को तैयार थे और न ही इस सन्धि की शर्तों के अनुसार उसे उसके शत्रुओं के विरुद्ध सहायता देने के लिए तत्पर थे। इसी कारण द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध का सूत्रपात हुआ। 1771 ई0 में जब मराठों ने हैदरअली पर आक्रमण किया तब अंग्रेजों ने उसे कोई सहायता नहीं दी। हैदरअली इस बात को नही भुला सका।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-1784 ई0)
वारेन हेस्टिंग्स के समय में मद्रास की अंग्रेज सरकार ने पुनः राजनीति में रुचि लेना प्रारंभ कर दिया। उसने 1768 ई0 में कर्नाटक के नवाब को तंजौर का राज्य प्राप्त करने में सहायता दी थी और बसालतजंग से, जो निजाम का एक सम्बन्धी था, गुन्टूर का जिला छीन लिया था। यही नहीं बल्कि उसने निजाम को 1768 ई0 में की गयी सन्धि के अनुसार उत्तरी-सरकार के जिलों के बदले में सात लाख रुपया प्रति वर्ष देने के वायदे को भी पूरा करने से इन्कार कर दिया था। इस कारण हैदराबाद का निजाम अंग्रेजों से असन्तुष्ट हो गया।
हैदरअली भी अंग्रेजों से असन्तुष्ट था। अंग्रेजों ने उसे 1769 ई0 की सन्धि के अनुसार 1771 ई0 में मराठा-आक्रमण के अवसर पर सहायता नहीं दी थी। गुन्टूर पर अंग्रेजों के आधिपत्य को उसने उचित नहीं माना और 1779 ई0 में जब अंग्रेजों ने माही पर भी अधिकार कर लिया तो उसने अंग्रेजों से बदला लेने का निश्चय किया। माही की फ्रान्सीसी फैक्टरी को हैदरअली ने अपने संरक्षण में ले रखा था और जब उसके विरोध के बाद भी अंग्रेजों ने उस पर अधिकार कर लिया तब उसके क्रोध की सीमा न रही।
इस प्रकार उस समय हैदराबाद का निजाम अंग्रेजों से असन्तुष्ट था, हैदरअली अंग्रेजों से बदला लेने की सोच रहा था और मराठों से अंग्रेजों का प्रथम युद्ध आरम्भ हो चुका था। इस कारण इन तीनों शक्तियों ने मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध एक गुट का निर्माण किया और एक निश्चित योजना के अनुसार निश्चय किया गया कि मराठे बरार और मध्य-भारत से होते हए अंग्रेजों पर उत्तर में आक्रमण करेंगे, निजाम उत्तरी-सरकार पर आक्रमण करेगा तथा हैदरअली मद्रास व उसके आसपास के अंग्रेजी -प्रदेश का विजय करेगा। इस प्रकार द्वितीय आंग्ल-मैसूर-युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हुई।
जुलाई 1780 ई0 में लगभग 83,000 सैनिकों और 100 तोपों के साथ हैदरअली ने कर्नाटक के मैदान में प्रवेश किया। मद्रास सरकार ने एक सेना कर्नल बेली (Baillie) और दूसरी सेना बक्सर के युद्ध के विजेता सर हेक्टर मुनरो (Sir Hector Munro) के नेतृत्व में हैदरअली को आगे बढ़ने से रोकने के लिए भेजी। हैदरअली के पुत्र टीपू ने इन दोनों सेनाओ को मिलने से रोका। इस प्रकार कांजीवरम के निकट बेली से उसका मुकाबला हुआ जिसमें बेली को सेना सहित काट डाला गया। मुनरो, जो कांजीवरम में बेली के आने की प्रतीक्षा कर रहा था, इतना घबड़ा गया कि वह वहाँ से तुरन्त वापस लौट पड़ा और मद्राम में जाकर शरण ली। 1780 ई0 के नवम्बर और दिसम्बर माह तक हैदरअली ने अर्काट पर अधिकार कर लिया तथा अंग्रेजों की स्थिति बहुत दुर्बल हो गयी। अल्फ्रेड लायल ने उस समय की परिस्थिति के बारे में लिखा है - “भारत में अंग्रेजों का भाग्य सबसे नीचे गिर चुका था।“
सैनिक पराजय के अतिरिक्त यह अंग्रेजों की एक बड़ी नैतिक पराजय भी थी। मद्रास सरकार की सेनाएॅं असहाय हो चुकी थीं और समुद्र-तट को छोड़कर सम्पूर्ण कर्नाटक पर हैदरअली का अधिकार हो गया था। ऐसी स्थिति में वारेन हेस्टिंग्स ने बड़ी दृढ़ता से कार्य किया। उसने बंगाल से एक बड़ी सेना सर आयरकुट (Sir Eyrecoot) के नेतृत्व में मद्रास भेजी। उसने कूटनीति का सहारा लिया और हैदरअली को उसके मित्रों से पृथक करने का प्रयत्न किया और वह इस प्रयत्न में सफल हुआ। उसने भोेंसले और सिन्धिया से हैदरअली की सहायता न करने की स्वीकृति ले ली और निजाम को गुन्टूर का जिला देकर उससे हैदरअली से पृथक रहने की स्वीकृति ले ली। इस प्रकार हैदरअली अंग्रेजों से युद्ध करने के लिए अकेला रह गया।
1781 ई0 में आयरकूट ने हैदरअली को पोर्टोनोवा के युद्ध में परास्त किया। इससे अंग्रेजों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ और टीपू ने वाण्डिवाश का घेरा उठा लिया। उसी समय कर्नल पीयर्स के नेतृत्व में एक अन्य सेना बंगाल से वहॉ पहुॅंच गयी। इन दोनों सेनाओं ने मिलकर पोलीलूर के युद्ध में हैदरअली का मुकाबला किया परन्तु इस युद्ध में कोई निर्णय न हुआ। सितम्बर 1781 ई0 में आयरकूट ने हैदरअली को सोलिंगपुर के युद्ध में परास्त किया और नवम्बर में अंग्रेजों ने नागापट्टम पर अधिकार कर लिया। परन्तु इसके पश्चात् अंग्रेजों की पराजय होनी आरम्भ हो गयी और तंजौर का घेरा डालकर टीपू ने उसे अपने अधिकार में कर लिया।
1782 ई0 के प्रारम्भ में एडमिरल सफरिन के नेतृत्व में एक फ्रान्सीसी जल-बेड़ा हैदरअली की सहायता के लिए मद्रास पहुॅंचा और करीब 2,000 फ्रान्सीसी सैनिक भी उसने भारत में उतार दिये। इस अवसर पर अंग्रेजों को कुछ अन्य असफलताओं का भी मुकाबला करना पड़ा। वर्षा आरम्भ होने पर युद्ध कुछ ढीला हुआ। अंग्रेज मद्रास वापस चले गये, फ्रान्सीसी कुडालोर में जम गये और हैदरअली अर्काट के निकट रुका रहा। ऐसी स्थिति में 7 दिसम्बर 1782 ई0 को कैन्सर से हैदरअली की मृत्यु हो गयी। हैदरअली की मृत्यु से द्वितीय आंग्ल-मैसर युद्ध समाप्त नहीं हुआ। उसका पुत्र टीपू उससे भी अधिक महत्वाकांक्षी सिद्ध हुआ और अपने पिता द्वारा प्रारंभ किये गये युद्ध को जारी रखा। उसने बम्बई सरकार द्वारा भेजे गये ब्रिगेडियर मैथ्यूज को न केवल मंगलौर और वेदनूर पर आक्रमण करने से ही रोक दिया बल्कि उसे उसके बहुत से सैनिकों के साथ कैद भी कर लिया। परन्तु इसी समय इंग्लैएड़ और फ्रांस में वार्साय की सन्धि हो गयी तथा फ्रान्सीसी इस संघर्ष से पृथक हो गये। यह टीपू की एक अपूर्णीय क्षति थी। 1783 ई0 के आसपास अंग्रेजों को पुनः सफलता मिलनी प्रारंभ हो गयी तभी मद्रास सरकार ने सन्धि के लिए प्रयास प्रारंभ किये। उधर टीपू को भी कुछ समय के लिए शान्ति की आवश्यकता थी। इस प्रकार 7 मार्च 1784 ई0 को मंगलौर को सन्धि से यह युद्ध समाप्त हुआ। इस सन्धि की शर्तो के अनुसार दोनों पक्षों में एक-दूसरे को जीते हुए सभी प्रदेश वापस कर दिये।
यह सन्धि कोई स्थायी समझौता नहीं था। मद्रास सरकार और टीपू दोनों को कुछ समय के लिए शान्ति की आवश्यकता थी। यह स्पष्ट था कि थोडे विश्राम के बाद अंग्रेज कम्पनी और मैसूर राज्य एक बार फिर अपनी-अपनी शक्ति को एक-दूसरे के विरुद्ध आजमाएॅगे। स्वयं वारेन हेस्टिग्स इस सन्धि से सन्तुष्ट नहीं था परन्तु मद्रास सरकार के कारण उसे यह सन्धि स्वीकार करनी पड़ी थी।
हैदरअली का चरित्र और मूल्यांकन :
जहॉ तक हैदरअली के व्यक्तित्व के मूल्यांकन का प्रश्न है - अनेक अंग्रेज इतिहासकारों ने हैदरअली के चरित्र और कार्यों के बारे में न्याय नहीं किया है। उनमें से कुछ ने उसे लुटेरा और दूसरों के राज्य को हस्तगत करने वाला कहा है। परन्तु हैदरअली के विषय में यह कहना उचित नहीं है। उस युग की परिस्थितियों के अनुसार हैदरअली ने अपनी शक्ति और योग्यता से एक शक्तिशाली राज्य का निर्माण करने में सफलता प्राप्त की थी। यदि अंग्रेजों से उसकी शत्रुता हुई तो उसमें उसके चरित्र का दोष नहीं माना जा सकता।
हैदरअली एक जन्मजात सैनिक, योग्य घुड़सवार, कुशल सेनापति और अच्छा कूटनीतिज्ञ था। साधारण नायक की स्थिति से उठकर वह मैसूर का सेनापति और अन्त में वहाँ का सर्वेसर्वा बनने में सफल हुआ था। वह एक साहसी सैनिक था और युद्ध के अवसर पर अपने सैनिकों के साथ किसी भी खतरे को उठाने हेतु वह तत्पर रहता था। उसमें घुड़सवार सेना का नेतृत्व करने की अद्वितीय क्षमता थी। उसने यूरोपियन युद्धनीति की उपयोगिता को देखकर फ्रांसीसियों से सहायता लेने का निश्चय किया था और तोपखाने का प्रयोग भी अच्छी तरह से सीखा था। धार्मिक दृष्टि से वह अत्यन्त उदार था। हिन्दुओं को उसके राज्य में पूर्ण सुरक्षा थी और वह हिन्दू विद्वानों तथा मन्दिरों को दान देता था। वह एक अच्छा कूटनीतिज्ञ था और अनेक अवसरों पर उसने अपने शत्रुओं में फूट डालने में सफलता प्राप्त की थी। एक शासन-प्रबन्धक की दृष्टि से वह योग्य था। इसमें सन्देह नहीं कि निरन्तर युद्धों में लगे रहने और स्वयं शासन की ओर ध्यान देने का विशेष अवसर प्राप्त न होने के कारण उसे अपने अधिकारियों पर बहुत मात्रा में निर्भर करना पडता था परन्तु हैदरअली में व्यक्ति की योग्यता को परखने, अपराधियों को दण्ड देने और सेवारत वफादार कर्मचारियों को इनाम देने की क्षमता थी। अपनी इसी योग्यता के कारण वह दूसरों से कार्य ले सकता था और सम्पूर्ण शासन पर अपनी दृष्टि भी रख पाता था। उसके सार्वजनिक लाभ के कार्यों में ‘दरिया दौलत‘ नाम का भवन, ’लाल बाग’ और ’गंजम शहर’ का निर्माण उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार एक शासक, सैनिक और सेनापति की दृष्टि से हैदरअली पूर्णतः योग्य था। सरकार और दत्त ने लिखा है - “अपनी योग्यता से स्वयं को बनाने वाले हैदरअली ने मैसूर राज्य को दुर्बल और विभाजित पाया परन्तु उसने उसे 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत की एक सर्वश्रेष्ठ शक्ति बना दिया। हैदर न तो लुटेरों का सरदार था और न एक स्वार्थी अवसरवादी सैनिक। साहसपूर्ण सैनिक प्रतिभा के साथ-साथ उसमें एक कुशल राजनीतिज्ञ की योग्यता भी थी।’’
वास्तव में जिन परिस्थितियों में हैदरअली ने मैसूर राज्य का निर्माण किया वे पर्याप्त कठिन थीं। मराठा रारदार दक्षिण में एक नवीन और शक्तिशाली मुस्लिम-राज्य को सहन नहीं कर सकते थे, हैदराबाद का निजाम अपनी सीमाओं के निकट एक शक्तिशाली राज्य का निर्माण नहीं होने देना चाहता था और अंग्रेज इस वजह से उसके शत्रु बन गये थे कि उसने प्रारम्भ से ही फ्रान्सीसियों से सहायता ली थी। इसके अतिरिक्त अंग्रेज दक्षिण में एक नवीन शक्ति के उदय को अपनी सुरक्षा और विस्तार की दृष्टि से उचित नहीं मानते थे। इस कारण हैदरअली को प्रारम्भ से ही भारत की इन प्रबल शक्तियों से मुकाबला करना पडा और इन परिस्थितियों में भी जिस मैसूर राज्य का उसने निर्माण किया वह उसकी योग्यता का प्रमाण था। अंग्रेजों के विरुद्ध उसने दो युद्ध किये। प्रथम युद्ध में उसने पूर्ण सफलता पायी और द्वितीय युद्ध के चलते उसकी मृत्यु हो गयी। इस कारण यह भी नहीं जा सकता कि अंग्रेजों के विरुद्ध वह असफल रहा। परन्तु अपनी दुर्बलता को वह भली-भॅांति समझता था और वह थी नौ-सेना का कमी। अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी इस दुर्बलता को समझते हुए उसने एक बार कहा था - ‘‘मैं भूमि से उनके शक्ति साधनों को नष्ट कर सकता हूॅं परन्तु समुद्र को नही सुखा सकता।‘‘ सम्भवतः, इसी कारण उसने फ्रान्सीसियों से सहायता प्राप्त करने का निरन्तर प्रयत्न किया था। हैदरअली के जीवन पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि वह एक सफल व्यक्ति सिद्ध हुआ था।