जियाउद्दीन बरनी की जन्म तिथि के बारे में कोई तिथि स्पष्ट नही है अर्थात बरनी की जन्म तिथि के
बारे में कोई सूचना प्राप्त नही है लेकिन उसने अपनी पुस्तक ‘तारीख-ए-फिरोजशाही‘ में लिखा है
कि 1359 ई0 में जिस समय उसने अपनी पुस्तक पूरी की उस समय उसकी आयु 74 वर्ष थी।
इस आधार पर उसकी जन्मतिथि 1285 ई0 मानी जा सकती है। उसके पिता, चाचा तथा नाना सभी
राजकीय सेवा में थे। उसने स्वयं मुहम्मद बिन तुगलक के समय से राजकीय सेवा प्रारम्भ की।
उसकी द्धारा लिखी गई दो पुस्तके ऐतिहासिक दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण है -
- तारीख-ए-फिरोजशाही
- फतवा-ए-जहॉदारी
जियाउद्दीन बरनी का समकालीन महत्वपूर्ण इतिहासकारों और विषयों के बीच व्यक्तिगत सम्बन्ध था। जैसे उसने अपनी ‘तारीख-ए-फिरोजशाही‘ में लिखा है कि अमीर खुसरो और अमीर हसन रिजवी उनके व्यक्तिगत मित्र थे। जियाउद्दीन बरनी ने मिनहाज-उस-सिराज और हसन निजामी की बहुत प्रशंसा की है। परिवार के सदस्यों के साथ साथ स्वयं राजकीय सेवा में होने के कारण वह इस स्थिती में था कि उसे इतिहास लेखन के लिए सामाजिक सूचनाएॅ प्राप्त होती थी। 17 वर्ष 03 महीने वह सुल्तान मुहम्मद-बिन-तुगलक के दरबारी के रूप में कार्य करता रहा। जब 1351 ई0 में मुहम्मद-बिन-तुगलक की मृत्यु हुई तो उसको अपने पद से हटना पडा और फिरोज-शाह-तुगलक से उसकी पटी नही फलस्वरूप उसकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गई। मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु के बाद एक षडयंत्र रचा गया और दो पक्षों में सम्राट के लिए संघर्ष प्रारम्भ हुआ। यही से जियाउद्दीन बरनी के बुरे दिन शुरू हो जाते है। तारीख-ए-फिरोजशाही में उसने स्वयं लिखा है कि खाने के लिए खाना तक नही था। फिरोजशाही की प्रस्तावना में जियाउद्दीन बरनी द्धारा की गई टिप्पणीयॉ महत्वपूर्ण है कि ऐतिहासिक ज्ञान धार्मिक ज्ञान से महत्वपूर्ण होती है। इतिहास का अध्ययन इल्म-ए-तफसील का अर्थ है – कुरान और शरीयत पर की गई टिकाओं का ज्ञान। इल्म-ए-तफसील सूफीवादी कानून से भी अधिक महत्व रखता है। उसके विचार में सभी इतिहासों का मूल तत्व सत्य होता है अतः सभी इतिहासकारों को अपनी तारीख में सत्य का समावेश करना चाहिए। साथ ही उन्हे निष्पक्ष भी होना चाहिए। एक इतिहासकार अगर किसी शासक की अच्छाईयों का गुणगान कर रहा है तो उसे उसके दुर्गुणों को भी लिखना चाहिए। कभी भी किसी इतिहासकार को भय, लालच या व्यक्तिगत मित्रता के दबाव में आकर इतिहास का निर्माण नही करना चाहिए। उस इतिहासकार को माफ किया जा सकता है जिसने किसी जिवित व्यक्ति के बारे में कोई सत्य घटना छुपा ली हो लेकिन मृत व्यक्ति के बारे में लिखते समय इतिहासकार को केवल सत्य का ही उल्लेख करना चाहिए। जियाउद्दीन बरनी यह दावा करता है कि उसने अपने इतिहास में केवल सत्य का ही उल्लेख किया है और उसका इतिहास आने वाली पीढी के लिए एक आदर्श होगा। लेकिन जियाउद्दीन बरनी ने अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में जो आदर्श वाक्य लिखे है उसने पालन उसने स्वयं नही किया है।
- सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक धर्म के सम्बन्ध में उदारवादी दृष्टिकोण रखता था। सुल्तान हिन्दू मुस्लिम एकता चाहता था। हिन्दूओ को उसने ऊॅचे-ऊॅचे राजकीय पदों पर नियुक्त किया और साधु-सन्तों के साथ वह बैठकर धर्म पर विचार विमर्श करता था। दूसरी तरफ जियाउद्दीन बरनी उलेमा वर्ग से सम्बद्ध था और उसमें कट्टरता कूट-कूट कर भरी थी। वह हिन्दूओं को द्धितीय श्रेणी का नागरिक मानता था। ऐसी स्थिती में यह स्वाभाविक है कि वह सुल्तान का कटु आलोचक होगा।
- मुहम्मद बिन तुगलक से पूर्व न्याय विभाग पर उलेमाओं का वर्चस्व था। उलेमा वर्ग के ही व्यक्ति न्याय विभाग में नियुक्त होते थे। सुल्तान ने उलेमाओं को पूर्णतः अवहेलना की और न्याय विभाग पर से उनके एकाधिकार को समाप्त कर दिया। न्याय विभाग में उसने योग्यता के आधार पर नियुक्तियॉं प्रारम्भ की चाहे वे हिन्दू हो या मुसलमान। जियाउद्दीन बरनी को यह सब पसन्द नही था।
Peter Hardy ने लिखा है कि – ‘‘जियाउद्दीन बरनी ने वास्तव में धार्मिक आधार पर इतिहास की व्याख्या की है क्योंकि वह यह स्वीकार करता है कि इल्म-ए-हदीस तथा इल्म-ए-तारीख दोनो जुडवा है।‘‘
जियाउद्दीन बरनी में वर्ग चेतना की भावना काफी तीव्र है जैसे –
- वह अभिजात वर्ग का व्यक्ति है।
- वह शासक वर्ग का सदस्य है।
- उसमें उच्च वंश के होने की चेतना नीहित है।
- उसमें उलेमा होने की चेतना नीहित है।
- उसमें तुर्की मुसलमान होने की चेतना नीहित है।
Dr. K.A. Nizami ने Pf. Mohibbul Hasan द्धारा संकलित पुस्तक “History of Medieval India” में ‘जियाउद्दीन बरनी‘ नामक शीर्षक से एक लेख लिखा जिसमें उन्होने पीटर हार्डी के इस निष्कर्षो की आलोचना की है। उनका मानना है कि जियाउद्दीन बरनी इतिहास की धार्मिक व्याख्या नही करता है, उसका इतिहास धार्मिक ज्ञान की शाखा नही है क्योंकि जियाउद्दीन बरनी सल्तनतकाल का अकेला इतिहासकार है जो यह स्वीकार करता है कि प्रशासन में शरीयत का अनुसरण उचित नही है। राज्य कार्य के लिए भिन्न राजकीय कानून होने चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म तथा राजनीति दोनो अलग अलग विषय वस्तु है।
अधिकांश मध्यकालीन भारतीय इतिहासकारों जैसे आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव, आई0एच0 कुरैशी, इरफान हबीब आदि अनेक इतिहासकारों ने जियाउद्दीन बरनी को एक महान इतिहासकार माना है। पीटर हार्डी ही एक ऐसे इतिहासकार है जिन्होने जियाउद्दीन बरनी की कटु आलोचना की है। बी0 शेख अली ने अपनी पुस्तक “History – Its theory and Methods” में लिखा है कि – पीटर हार्डी जियाउद्दीन बरनी को एक महान इतिहासकार नही मानते इसका मूल कारण यह है कि पीटर हार्डी ने 14वीं शताब्दी के व्यक्ति का मूल्यांकन किया 20वीं शताब्दी के व्यक्तियों के मूल्यों तथा मापदण्डो के आधार पर किया है। वस्तुतः जियाउद्दीन बरनी ने इतिहास लेखन को एक नई दिशा प्रदान की और इस दृष्टि से वह भारतीय परिपेक्ष्य में पहला इतिहासकार था जिसने इतिहास में इतिहास दर्शन का समावेश किया। जियाउद्दीन बरनी के इतिहास लेखन का लक्ष्य अमीर खुसरो की भॉंति त्रुटिपूर्ण इतिहास लिखना नही था। पाश्चात्य इतिहासकार Nankey की तरह जियाउद्दीन बरनी का भी यही विचार था कि त्रुटिपूर्ण इतिहास लिखने वाले को ईश्वरीय दण्ड का भागी बनना पडता है। जियाउद्दीन बरनी की दृष्टि में इतिहास का विश्व में एक विशेष प्रयोजन है और वह है सम्पूर्ण मानवता को सत्य का मार्ग दिखाना। अन्य इतिहासकारों की तरह जियाउद्दीन बरनी का इतिहास भी उपदेशात्मक था।
जियाउद्दीन बरनी ने अपने इतिहास का प्रारम्भ वैज्ञानिक आधार पर किया है लेकिन अन्त तक पहुॅचते पहुॅचते उसने इतिहास की दार्शनिक व्याख्या करनी प्रारम्भ कर दी है। संभवतया इसी कारण प्रो0 पीटर हार्डी ने भ्रमित होकर यह निष्कर्ष निकाला है कि जियाउद्दीन बरनी ने इतिहास को एक धर्म विज्ञान की शाखा माना है। क्या जियाउद्दीन बरनी ने अपने इतिहास ग्रन्थ की रचना में नोट्स का प्रयोग किया है ? इस सन्दर्भ में दो मत प्रचलित है –
- प्रथम मत के समर्थक प्रो0 मोहम्मद हबीब है जिनके अनुसार जियाउद्दीन बरनी ने अपने इतिहासग्रन्थों की रचना में कभी भी नोट्स का प्रयोग नही किया है। वास्तव में उसने अपनी यादाश्त के आधार पर इतिहासग्रन्थों की रचना की है।
- द्धितीय मत के समर्थक के0ए0 निजामी है जिनके अनुसार सामान्यतया जियाउद्दीन बरनी ने ऐतिहासिक ग्रन्थों की रचना में नोट्स का प्रयोग नही किया है लेकिन कहीं कहीं जियाउद्दीन बरनी द्धारा दिए गए ऑंकडों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उसने नोट्स का प्रयोग किया है।
एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि जियाउद्दीन बरनी ने पहले ‘तारीख-ए-फिरोजशाही‘ लिखी अथवा ‘फतवा-ए-जहॉदारी‘ – इस सम्बन्ध में दोनों पुस्तकों के अध्ययन के पश्चात जो आन्तरिक साक्ष्य प्राप्त होता है, उस आधार पर यह कहा जा सकता है कि ‘तारीख-ए-फिरोजशाही‘ की रचना पहले हुई, ‘फतवा-ए-जहॉदारी‘ की बाद में। वास्तव में उसने अपनी आत्मसंतुष्टि की प्राप्ति के लिए तारीख-ए-फिरोजशाही की रचना की।