Introduction (विषय-प्रवेश) :
भारतीय समाज और इतिहास के निर्माण में राजपूतों का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहा है। राजपूत वीरता, साहस, स्वाभिमान, स्वतंत्रता में अद्वितीय माने जाते थे। स्वाभिमान और स्वतंत्रता की रक्षा के नाम पर वे कटने-मरने के लिए तैयार रहते थे। पूर्व के तुर्क सुल्तानों के द्वारा राजपूतों को नियंत्रण में लाने की सारी चेष्टाएँ विफल रही थीं। अकबर स्वयं दूरदर्शी था। वह राजपूतों की शक्ति को अच्छी तरह से पहचानता था। राजपूत हिंदू साम्राज्य की स्थापना के नाम पर अन्य हिंदू शासकों को संगठित कर मुग़ल साम्राज्य की सुरक्षा को खतरे में डाल सकते थे। संभावित खतरे को दूर करने के उद्देश्य से अकबर ने राजपूतों के साथ मित्रता, उदारता, सहयोग और वैवाहिक सम्बन्ध की नीति अपनाकर उन्हें शत्रु के बदले मित्र बनाने का निर्णय लिया।
भारतवर्ष के इतिहास में मुस्लिम शासकों में सर्वप्रथम सम्राट अकबर पहला शासक था जिसने राजपूतों के प्रति एक निश्चित नीति अपनाई। उसके पूर्व यद्यपि कुछ मुस्लिम शासकों का कुछ राजपूत शासकों के साथ सम्बन्ध अवश्य था परन्तु कोई निश्चित नीति नहीं थी। अकबर द्वारा राजपूतों के प्रति अपनाई गई नीति के कुछ मूलभूत उद्देश्य थे। अकबर ने यह महसूस किया था कि यदि वह अपने साम्राज्य को मजबूत नींव पर स्थापित करना चाहता है तो उसे अपनी प्रजा की सद्भावना का व्यापक आधार उसके लिए बनाना होगा, भले ही वह किसी जाति अथवा धर्म के हो। इसी आम सहानुभूति के कारण वह आमतौर पर हिन्दुओं का विशेष रुप से राजपूतों का चाहने वाला बना। अकबर यह जानता था कि भारत जैसे हिन्दू प्रधान देश में हिन्दूओं के राजनीतिक नेता राजपूतों की अवहेलना करके यहॉ शान्तिपूर्वक शासन करना संभव नही है। उसके समक्ष पूरे दिल्ली सल्तनत और उसके पूर्ववर्ती दोनों मुगल सम्राटों का उदाहरण था। वंशों में बार-बार परिवर्तन होना और सबसे बढकर अकबर के पिता हुमायूॅ को निर्वासित जीवन व्यतीत करना अर्थात अकबर ने इतिहास से सीख ग्रहण करते हुए राजपूतों के प्रति नीति अपनाई जिसके लिए राजनीतिक कारणों के साथ-साथ उसकी स्वभावतः सहिष्णुता नीति, साम्राज्यवादी नीति और अधिक से अधिक लोगों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रखना जिम्मेदार था। इस प्रकार हम यह कह सकते है कि अकबर की राजपूत नीति का लक्ष्य सीमित न होकर व्यापक था।
अकबर की राजपूत नीति-
दूसरी तरफ हमे यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत में राजपूत निम्न कारणों से मुस्लिम शासकों से सशंकित रहते थे-
- क्योंकि उनको भय था कि मुस्लिम शासक उनके साम्राज्य को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लेंगे।
- क्योंकि उनका धर्म खतरे में पड जाएगा।
- उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक परम्पराएॅ नष्ट हो जाएंगी।अकबर ने अपने उदार तथा सहिष्णु धार्मिक नीति के अन्तर्गत कुछ महत्वपूर्ण कार्य किये जिससे राजपूतों का भय अकबर के प्रति समाप्त होने में मदद मिली –
- अकबर ने हिन्दूओं से लिया जाने वाला तीर्थयात्रा कर समाप्त कर दिया।
- अकबर ने गैर-मुसलमानों से वसूल किया जाने वाला धार्मिक कर जजिया को पूर्णतः समाप्त कर दिया।
- अकबर ने दरबार में और प्रान्तों में भी धर्म की जगह योग्यता को आधार बनाकर पदों पर नियुक्ति प्रारंभ की जिसके परिणामस्वरुप अनेक हिन्दू विभिन्न राजकीय पदों पर आसीन हुए।
- अकबर ने हिन्दूओं के लिए पुराने मन्दिरों की मरम्मत तथा नये मन्दिरों के निर्माण की भी छूट प्रदान की।
- अकबर ने राजपूत राजाओं को बादशाह द्वारा प्रदत्त जागीर के अलावा अपनी पैतृक जागीर पर शासन करने का अधिकार दिया था, जबकि राजपूतों के अलावा किसी अन्य अमीरों के साथ ऐसा नही होता था।
इस प्रकार अकबर के कार्यो से हिन्दूओं के मन में जो शंका मुस्लिम शासकों के प्रति बनी हुई थी उसे दूर करने में सहायता मिली और हिन्दूओं ने सम्राट अकबर के साथ पूर्ण सहयोग किया। अपनी राजपूत नीति के अन्तर्गत अकबर का सम्पर्क तीन प्रकार के राजपूत राज्यों से हुआ –
- प्रथम श्रेणी में उन राजपूत राज्यों को रखा जा सकता है जिन्होने बिना किसी आनाकानी किये आसानी के साथ अकबर से समझौता कर लिया। ऐसे राज्यों में आमेर का नाम सर्वप्रमुख है जहॉ से राजा मानसिंह और भगवान दास जैसे योग्य, वीर प्रशासक और सेनापति मुगल सेवा में आये।
- दूसरी श्रेणी में ऐसे राजपूत राज्य थे जिन्होने प्रारंभ में सम्राट अकबर के साथ समझौता करने से इन्कार कर दिया। ऐसे राज्यों में जोधपुर का नाम लिया जा सकता है। ऐसे राज्यों ने प्रारंभ में अकबर द्वारा भेजे गये राजदूतों की शर्ते अस्वीकार कर दिया और सैनिक प्रतिरोध की चेष्टा की परन्तु शीध्र ही उन्हे मुगलों की शक्ति का अंदाजा लगा और उन्होने समर्पण कर दिया।
- तीसरी श्रेणी में ऐसे राजपूत राज्य थे जिन्होने जीवन पर्यनत संघर्ष किया परन्तु अकबर से समझौता या अधीनता कभी स्वीकार नही की। ऐसे राज्यों में मेवाड और उसके शासक महाराणा प्रताप का नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय है।
एक राजनीतिज्ञ की प्रतिभा और अंतर्दृष्टि के साथ अकबर ने अपनी राजपूत नीति के अन्तर्गत निम्न महत्वपूर्ण कार्य किये-
- वैवाहिक सम्बन्धों की स्थापना – राजपूतों के साथ अपने संबंध को मजबूत करने के लिए अकबर ने प्रमुख राजपूत घरानों के राजकुमारियों से विवाह किए। राजा भारमल की पुत्री से विवाह करके अकबर ने इस नीति का सूत्रपात किया। 1562 ईस्वी में जब अकबर आगरा से अजमेर जा रहा था तो आमेर के शासक भारमल अपने परिवार सहित सांगानेर के स्थान पर अकबर से मिला। उसी समय भारमल शाही नौकरी की इच्छा प्रकट करने के साथ-साथ अपनी छोटी बेटी मनीबाई का हाथ विवाह के लिए पेश किया तो उसे अकबर ने स्वीकार कर लिया। यह अकबर की तीसरी बेगम बनी। इसी से सलीम का जन्म हुआ। राजा भारमल का अनुसरण करते हुए बीकानेर, मारवाड़ और जैसलमेर आदि के राजा ने भी अकबर से वैवाहिक संबंध स्थापित किए। 1584 ईस्वी में राजा भारमल की पोती और भगवान दास की पुत्री से शहजादा सलीम (जहांगीर) का विवाह हुआ जिसकी कोख से खुसरो का जन्म हुआ।
- राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्त करना – अकबर ने राजपूतों को उच्च पद और मनसब प्रदान किए। आमेर के राजा भारमल को काफी ऊंचा पद प्राप्त हुआ। उसका पुत्र भगवानदास 5000 हजार मनसब तक पहुंचा और उसका पौत्र मानसिंह 7000 तक। बीकानेर के रायसिह और जैसलमेर के भीमसेन को महत्वपूर्ण मनसब दिए गए। राजा टोडरमल और बिहारीमल को उच्च सैनिक पदों पर नियुक्त किया गया। गुजरात जैसे सैनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों का सर्वोच्च अधिकारी भी राजपूतों को नियुक्त किया गया। मुगल सेना में 20 प्रतिशत सैनिक पद राजपूतों को दिए गए। इस प्रकार धार्मिक विद्वेषों और जमाने के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अकबर ने राजपूतों की सेवाओं को प्रशंसित और पुरस्कृत किया।
- राजपूतों को धार्मिक स्वतंत्रता – अकबर ने सभी राजपूत अधिकारियों सैनिकों और राजकीय पदाधिकारियों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। वे राज दरबार में और महलों में रहकर भी अपने सभी त्यौहार जैसे होली, दीपावली, रक्षाबंधन आदि मना सकते थे। यह सभी रीति-रिवाजों को अपनी परंपराओं के अनुसार संपन्न करने की छूट थी। उसने राजपूतों को मंदिर बनवाने तथा पुराने मंदिरों की मरम्मत करवाने के लिए स्वतंत्रता प्रदान की। यहॉ तक कि अकबर इनके त्योहारों में स्वयं शामिल होता था और इनके साथ खुशियॉ मनाता था। वास्तव में उसकी राजपूत नीति का प्रमुख आधार उसकी धार्मिक नीति ही थी।
- राजपूत राज्यों को आंतरिक स्वतंत्रता – अकबर ने उन राजपूत राज्यों की बाह्य नीति को ही अपने नियंत्रण में रखा जिन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। वह राज्य प्रतिवर्ष सम्राट को कर देता था और जरूरत पड़ने पर सैनिक अभियानों के लिए सैनिक सहायता देनी पड़ती थी और उन्हें समय-समय पर मुगल दरबार में उपस्थित होना पड़ता था। अकबर ने उनके आंतरिक शासन में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया।
- व्यक्तिगत सम्बन्ध – अकबर ने अनेक राजपूतों के साथ व्यक्तिगत संबंध स्थापित किए। बीकानेर और बूंदी के राजपूत शासकों के साथ सुख दुःख में शामिल होने के संबंध स्थापित किए गए। 1593 ईस्वी में जब बीकानेर के राय सिंह का दमाद पालकी से गिरने के कारण मर गया तो अकबर स्वयं मातम मनाने के लिए उसके घर गया। उसकी लड़की को सती होने से रोका क्योंकि उसके बच्चे बहुत छोटे थे। अकबर ने जाति प्रथा की जटिलता को कम करने के लिए अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहन दिया। उसने विधवा विवाह को राजकीय स्वीकृति प्रदान की और बहुत बड़ी उम्र की महिलाओं की शादी पर पाबंदी लगाई।
अकबर की राजपूत नीति के परिणाम-
अकबर द्वारा अपनाई गई राजपूत नीति मुगलों के लिए अत्यन्त लाभदायक रही। इस नीति के परिणामस्वरुप राजपूतानों से रोज-रोज का संघर्ष समाप्त हो गया जिससे राज्य में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित हुई। युद्धों में खर्च होने वाले अनावश्यक धन के अपव्यय पर रोक लगी जिसके फलस्वरुप राज्य की आर्थिक स्थिती सुदृढ हुई। मुगल साम्राज्य के लिए अनेक योग्य प्रशासक और सेनापति प्राप्त हुए। सबसे बढकर मुगल वंश की नींव जो अबतक अस्थिर थी, उसे स्थायित्व प्राप्त हुआ और यह नींव इतनी सुदृढ हो गयी कि आने वाले वर्षो में कमजोर और अक्षम मुगल सम्राटों के होते हुए भी यह वंश सदियों तक शासन करता रहा। सबसे बढकर मुगल शासक ही हिन्दुस्तान के महत्वपूर्ण शासक माना जाने लगा।
अकबर द्वारा अपनाई गई राजपूत नीति से एक तरफ जहॉ मुगलों को लाभ पहुॅचा तो दूसरी तरफ इससे राजपूतों को भी लाभ हुआ। इन्हे दिल्ली से बार-बार होने वाले युद्धों से मुक्ति मिल गई जिससे राजपूतों की शक्ति में अभिवृद्धि हुई, आर्थिक उन्नति हुई और वे अपने क्षेत्रों में विकास की ओर समुचित ध्यान देने लगे। राजपूतों को इस बात का आभास हुआ कि वे शासक वर्ग के साथ जुड गये है, निश्चित रुप से यह राजपूतों के लिए एक बहुत बडी उपलब्धि थी।
अकबर की राजपूत नीति के कारण हिंदू मुस्लिम सांस्कृतिक समन्वय की गति को प्रोत्साहन मिला। इस नीति के फलस्वरुप हिंदू और मुसलमानों ने एक दूसरे के रीति-रिवाजों और त्यौहारों में भाग लेना शुरू कर दिया। अकबर ने राज्य की ओर से संस्कृत, हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को प्रोत्साहन दिया। राजपूतों ने फारसी पढ़ने के साथ-साथ कला तथा साहित्य की उपलब्धियों के क्षेत्र में प्रशंसनीय योगदान दिया। अकबर की राजपूत नीति ने उसके दो परवर्ती मुगल सम्राटों के लिए मार्गदर्शन का कार्य किया। जहांगीर और शाहजहां ने इसी के अनुरूप राजपूतों के प्रति मित्रता की नीति अपनाई। जहांगीर ने कछवाहा राजकुमारी और एक जोधपुर की राजकुमारी से विवाह किए। उसने एक जैसलमेर और बीकानेर की राजकुमारियों के साथ भी विवाह किया और राजपूतों को उच्चतम सम्मान दिया। शाहजहां के काल में भी राजपूतों के प्रति उदार नीति जारी रही। जब तक मुगल सम्राट अकबर द्वारा अपनाई गई राजपूत नीति पर चलते रहे तब तक मुगल साम्राज्य पर कोई आंच नहीं आई। इस प्रकार अन्ततः अकबर की राजपूत नीति सफल रही और इसके पश्चात भारत की राजनीति में एक नया युग प्रारम्भ हुआ। कर्नल टाड के शब्दों में – ‘‘वास्तव में मुगल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक अकबर था। वह राजपूत स्वतंत्रतता का प्रथम सफल विजेता था।‘‘
राजपूत नीति की समीक्षा –
इसमें कोई शक नहीं कि अकबर एक साम्राज्यवादी शासक था। वह भारतवर्ष के अनेक छोटे-बड़े राज्यों पर अधिकार कर मुगलों का एकाधिपत्य भारत में कायम करना चाहता था। साम्राज्य का विस्तार और निर्माण मात्र तुर्कों और मुसलमानों के सहयोग से ही संभव नहीं था। भारतवर्ष में हिंदुओं की संख्या अधिक थी और हिंदुओं में राजपूत वीरता और साहस के लिए जाने जाते थे। मुगलों के विकास के रास्ते में राजपूतों का असहयोग अभिशाप बन सकता था और उनका सहयोग वरदान हो सकता था। अतः अफगान शक्ति को नष्ट कर अकबर लड़ाकू राजपूतों के साथ जो उदारता या सहिष्णुता की नीति अपनाई थी, उसके पीछे उसकी साम्राज्यवादी मनोवृत्ति काम कर रही थी। अकबर किसी भी राज्य की स्वतंत्रता को पसंद नहीं करता था। वह भारतीय राज्यों को मुग़ल की संप्रभुता स्वीकार करवाने के लिए सब कुछ करने को तैयार था किन्तु अपने पूर्वजों की तरह वह धर्मान्ध नहीं था। उसने राजपूतों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध कायम कर उनकी शत्रुता को मित्रता का जामा पहना दिया और राजपूत मुग़ल साम्राज्य के लिए स्तम्भ के रूप में काम करने लगे। राजपूतों की नियुक्ति सेना और प्रशासन में महत्त्वपूर्ण पदों पर की गई। वे तुर्क सरदारों के समकक्षी हो गए और इससे अकबर को दोहरा लाभ हुआ। एक तो तुर्क सेना एवं सरदारों का एकाधिपत्य भी नष्ट हो गया और वे अकबर के विरुद्ध षडयंत्र करने में असफल रह गए। इसके अतिरिक्त राजपूत वचन के पक्के होते थे और उनकी स्वामिभक्ति पर संदेह नहीं किया जा सकता था तथा दूसरा उनके सहयोग से अकबर अन्य राज्य और उनके शासकों पर विजय प्राप्त करने में सफल हुआ।
शहजादा सलीम का विद्रोह, 1599-1604 ई0
अकबर के लम्बे शासनकाल में उसे कई विद्रोहों का सामना करना पड़ा। अकबर के शासनकाल का प्रथम प्रमुख विद्रोह 1564 ईसवी में मालवा का सूबेदार अब्दुल्लाह खां ने किया था। तत्पश्चात अवध में खान-ए-आलम और जौनपुर में अलीकुली खां व इब्राहिम खां ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। यह सभी उज्बेग विद्रोह की श्रेणी में शामिल थे, इन्होने मिर्ज़ा हाकिम को बादशाह घोषित कर दिया। इसके अलावा कई अन्य क्षेत्रों में भी विद्रोह हुए। इसी कड़ी में इब्राहिम मिर्ज़ा, सिकंदर मिर्ज़ा और महमूद मिर्ज़ा ने भी विद्रोह कर दिया। लेकिन अकबर ने सभी विद्रोहों का दमन कठोरता से किया, वर्ष 1573 ईसवी तक सभी विद्रोह शांत किये जा चुके थे। इन विद्रोहों के दमन करने के बाद अकबर एक मज़बूत शासक के रूप में उभरा। वर्ष 1585 ईसवी में उत्तर-पश्चिमी प्रांत में युसूफजई कबीला ने अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया। इस विद्रोह का दमन करने के लिए अकबर और बीरबल गए, इस दौरान युसूफजई लोगों के हाथों बीरबल की मृत्यु हो गयी।
अकबर के शासनकाल का सबसे चर्चित विद्रोह शहजादा सलीम का था। अकबर के शासनकाल में उसके पुत्र सलीम ने कई बार विद्रोह किया। वास्तव में अकबर ने जब उसे मेवाड के राजा अमरसिंह को परास्त करने का कार्य सौपा था उस समय सलीम को कष्ट सहना पसन्द नही था और वह राणा के विरुद्ध कुछ भी करने में असफल रहा। इससे अकबर नाराज हुआ और अपने तीसरे पुत्र दानियाल पर अधिक कृपादृष्टि रखने लगा। परिणामस्वरुप पहली बार सलीम ने 1599 ईसवी में विद्रोह किया और इस दौरान सलीम ने इलाहबाद में स्वतंत्र शासक की भाँति कार्य करना शुरू कर दिया। ऐसा माना जाता है कि इस दौरान शहजादा सलीम ने अपने नाम के सिक्के भी जारी किये। इस दौरान अकबर असीरगढ़ के घेरे में व्यस्त था। वापस लौटने पर अकबर ने अपने सबसे प्रिय दोस्त अबुल फजल को सलीम को समझाने का दायित्व सौंपा परन्तु 19 अगस्त 1602 ई0 को सलीम ने ओरछा के विद्रोही बुन्देला सरदार वीरसिंह देव द्वारा अबुल फजल की हत्या करवा दी। इस घटना से सलीम और अकबर के बीच दूरियॉ और अधिक बढ गई। अन्ततः सलीमा बेगम ने शहजादा सलीम को समझाने का व्रत लिया और उनके समझाने पर उसने अपनी ज़िद छोड़ दी।
1603 ई0 पुनः अकबर ने जब उसे मेवाड अभियान के लिए भेजा तो इस बार भी वह इलाहाबाद जाकर शराब पीने में व्यस्त हो गया और इस दौरान उसने कई जघन्य अपराध कर डाले। सलीम ने एक बार फिर विद्रोह किया। इसी वर्ष उसकी पहली पत्नी जो मानसिंह की बहन थी, उसके दुर्व्यवहार से तंग आकर अफीम खाकर आत्महत्या कर डाली जिसके फलस्वरुप सलीम और मानसिंह के मध्य स्नेह सम्बन्ध बिल्कुल समाप्त हो गया। इससे अकबर अत्यधिक नाराज हुआ। दुर्भाग्यवश 1604 ई0 में अकबर की माता और उसका तीसरा पुत्र दानियाल भी अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ। इन विषम परिस्थितियों में अकबर की चिन्ताएॅ बढने लगी और इसी घटना क्रम में अक्टूबर, 1605 ई0 में अकबर की मृत्यु हो गयी। उसे फतेहपुर सिकरी के समीप सिकन्दरा में दफना दिया गया।
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