window.location = "http://www.yoururl.com"; Mansabdari System | मनसबदारी व्यवस्था

Mansabdari System | मनसबदारी व्यवस्था

अकबरकालीन शासन व्यवस्था

अकबर के अधीन शासन व्यवस्था को दो श्रेणियों में बॉटा जा सकता है – केन्द्रीय प्रशासन और प्रान्तीय प्रशासन। केन्द्रीय सरकार के चार विभाग थे और प्रत्येक विभाग की अध्यक्षता एक मन्त्री करता था। ये चार विभाग निम्न थे –

  1. प्रधानमंत्री अर्थात वकील
  2. वित्तमंत्री अर्थात दीवान या वजीर
  3. मुख्य वेतनाध्यक्ष अर्थात मीरबक्शी
  4. प्रमुख सदर अर्थात सदरुस सदर

उपरोक्त पदों पर नियुक्ति का अधिकार अकबर के पास था। इन पदों पर व्यक्ति अकबर की इच्छा तक आसीन रह सकता था। अकबर के प्रधानमंत्री को वकील कहा जाता था। प्रारंभिक चरण में यह पद महत्वपूर्ण होता था क्योंकि इसके पास वित्त का अधिकार भी था परन्तु अकबर ने सत्ता सॅंभालते ही वित्त का अधिकार इनसे छीन लिया और इसके लिए एक अलग विभाग बना दिया। अकबर के समय में वित्तमंत्री को दीवान अथवा वजीर कहते थे। मुजफ्फर खॉ के प्रथम दीवान नियुक्त किया गया था। उसके बाद राजा टोडरमल को इस पद पर नियुक्त किया गया। अकबर के काल में तीसरे वित्त मंत्री शाह मंसूर थे। इसका प्रमुख कार्य साम्राज्य की आय-व्यय का लेखा-जोखा रखना था। दीवान के बाद प्रमुख पद मीरबक्शी का होता था जिसे सल्तनत युग में दीवान-ए-आरिज के नाम से जाना जाता था। सैनिक विभाग की सम्पूर्ण जिम्मेदारी और मनसबदारों को वेतन देने का कार्य मीरबक्शी का होता था। मीरबक्शी सेना का प्रधान नही होता था किन्तु कभी-कभी उसे सैनिक अभियानों का नेतृत्व करना पडता था। सदरुस सदर को सम्राट के धार्मिक सलाहकार के रुप में कार्य करना होता था। शाही दान-पुण्य और साम्राज्य के प्रधान न्यायाधीश के रुप में भी इसे कार्य करना होता था।
प्रान्तीय शासन व्यवस्था के अन्तर्गत अकबर ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य को प्रान्तों में विभाजित कर दिया था और इसमें एकसमान शासन व्यवस्था की स्थापना की थी। 1602 ई0 मे इन प्रान्तों की संख्या 15 थी जिसे सूबा कहा जाता था। दक्षिण में तीन प्रान्त खानदेश, बरार और अहमदनगर एक साथ सम्बन्धित थे और वायसराय के रुप में शहजादा दानियाल इसका प्रबन्ध करता था। इन सूबों के प्रमुख सिपहसालार या सूबेदार कहे जाते थे जिसके अधीन एक बडी सेना होती थी। अपने प्रान्तों में सिपहसालार फौजदारी मामलों का फेसला भी करता था। एक प्रकार से सिपहसालार एक सैनिक अधिकारी था। हर सूबे में एक सिपहसालार, एक दीवान, बक्शी, सद्र, काजी, कोतवाल, मीरबहर और वाकयानवीस होते थे। इन सभी प्रान्तीय अफसरों के अलग-अलग कार्यालय होते थे। वाकयानवीस सूबों के विभिन्न कार्यालयों में संवाद लेखकों और गुप्तचरो को नियुक्त करता था। ये लोग उसके पास प्रतिदिन रिपोर्ट भेजने का कार्य करते थे। सूबों की राजधानी की आन्तरिक सुरक्षा, शान्ति और सुव्यवस्था तथा स्वास्थ्य और सफाई का प्रबन्ध कोतवाल करता था। सूबों के सभी थानों का वह सवोच्च प्रबन्धक होता था। मीर बहर नाव और पुलों की चुंगी तथा बन्दरगाहों पर कर वसूल करने का प्रबन्ध करता था।
प्रत्येक सूबा कई-कई जिलों में बॅटा होता था जिसे ‘सरकार‘ कहा जाता था। हर जिले में एक फौजदार, अमलगुजार, कोतवाल, वितिक्ची और एक खजानदार होता था। जिले का प्रमुख फौजदार कहा जाता था और वह एक सैनिक अधिकारी होता था। अपने अपने जिलों में शान्ति व्यवस्था बनाए रखना और शाही आज्ञाओं का अपने जिले में अमल करवाना उसका प्रमुख कार्य माना जाता था। कर वसूलने में अमलगुजार की सहायता करना और अपनी छोटी सुसज्जित सेना को सदैव तैयार रखना भी इसकी जिम्मेदारी थी। आमिल जिसे मुन्सिफ भी कहा जाता था का प्रमुख कार्य कर नियत करना और मालगुजारी एकत्र करना था। परगने का खजांची फोतदार होता था और कारकून क्लर्क होते थे जो मालगुजारी सम्बन्धी लेखा को सुरक्षित रखने का कार्य करते थे। कानूनगो परगने भर के पटवारियों का अफसर होता था और वह परगने की पैदावार, मालगुजारी रुपया जो वसूल हुआ और जो अभी लेना बाकी है आदि बातों का लेखा रखता था।
अकबरकालीन शासन व्यवस्था की कुछ अन्य बाते भी महत्वपूर्ण है। मुगलों के पास नौ-सेना नही थी भले ही उनकी सीमाएॅ पूरब और पश्चिम में समुद्र तक फैली थी। सूरत और कैम्बे बडे बन्दरगाह थे। प्रत्येक गॉव में ग्राम-प्रशासन के लिए ग्राम-पंचायते होती थी।

मनसबदारी व्यवस्था-

मुगलों द्वारा विकसित मनसबदारी व्यवस्था (Mansabdari System) ऐसी थी जिसका भारत के बाहर कोई उदाहरण नहीं मिलता। मनसबदारी व्यवस्था की उत्पत्ति संभवतः विश्वविख्यात मंगोल विजेता और आक्रमणकारी चंगेज खां के काल में हुई थी जिसने अपनी सेना को दशमलव के आधार पर संगठित किया था। इसमें सबसे छोटा इकाई दस का था और सबसे ऊँचा दस हजार (तोमान) का था जिसके सेनाध्यक्ष को खान कहकर पुकारा जाता था। मंगोल की इस सैन्यव्यवस्था ने कुछ सीमा तक दिल्ली सल्तनत की सैन्यव्यवस्था को प्रभावित किया क्योंकि इस काल में हम एक सौ और एक हजार के सेनाध्यक्षों (सदी और हजारा) के बारे में सुनते हैं लेकिन बाबर और हुमायूँ के काल में मनसबदारी प्रथा थी या नहीं इस बारे में इतिहासकार अभी तक कुछ भी ज्ञात नहीं कर सके हैं। इसलिए मनसबदारी व्यवस्था की उत्पत्ति को लेकर इतिहासकारों में काफी मतभेद है। वर्तमान प्रमाण के आधार पर ऐसा लगता है कि मनसबदारी व्यवस्था का प्रारम्भ अकबर ने अपने शासन काल के उन्नीसवें वर्ष 1575 ई0 में किया था।
सम्राट अकबर सेना के महत्त्व को भली-भांति जानता था और उसका मानना था कि एक स्थायी और शक्तिशाली सेना के अभाव में न तो शांति स्थापित की जा सकती है और न ही साम्राज्य की रक्षा और विस्तार किया जा सकता है। अकबर से पूर्व जागीदारी प्रथा के आधार पर सेना एकत्र करने की प्रथा प्रचलित थी। उसने देखा कि जागीरदार निश्चित संख्या में न घोड़े रखते हैं और न ही घुड़सवार या सैनिक रखते हैं। इसके विपरीत वे सरकारी धन को अपनी विलासता पर खर्च कर लेते थे। अतः इन कमियों से निजात पाने के लिए अकबर ने जागीरदारी प्रथा के स्थान पर मनसबदारी प्रथा के आधार पर सेना को संगठित किया। मनसबदारी सेना को संगठित करने की ऐसी व्यवस्था थी जिसमें प्रत्येक मनसबदार अपनी-अपनी श्रेणी और पद (मनसब) के अनुसार घुड़सवार सैनिक रखता था। इस व्यवस्था में मनसबदार सम्राट् से प्रति माह नकद वेतन प्राप्त करता था।

मनसब शब्द का अर्थ –

मनसब फारसी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है -दर्जा, स्थान और पद। इसलिए मनसबदार शाही सेना के अन्तर्गत उच्चपद-प्राप्त अधिकारी होते थे। मनसबदारी का निम्नतम दर्जा 10 का था और सर्वोच्च दर्जा 10 हजार का था। अपने शासनकाल के उत्तरार्द्ध में अकबर ने इस सर्वोच्च दर्जे को 12 हजार का बना दिया था। जिस समय मनसबदारी प्रथा आरम्भ की गयी, उस समय 5 हजार से ऊपर के मनसब बादशाह के नाती-पोते तथा अन्य निकट के सम्बन्धियों के लिए सुरक्षित कर दिये गये थे किन्तु बाद में राजा मानसिंह, मिर्जा अजीज कोका तथा एक-दो और उच्च पदस्थ अधिकारियों को 6 हजार के मनसब प्रदान कर दिये गये थे। इसके पश्चात 8 हजार और उसके ऊपर के मनसब शाही घराने के व्यक्तियों के लिए रक्षित किये गये। आरम्भ में अकबर ने प्रत्येक मनसब के लिए केवल एक श्रेणी निर्धारित की थी; किन्तु शासनकाल के उत्तरार्द्ध में उसने 5 हजार से नीचे के प्रत्येक मनसब में तीन श्रेणियाँ और कर दी थीं। इस प्रकार बहुत-से मनसबदारों को दोहरे पद प्राप्त थे, जैसे ’जात’ और ’सवार’ दोनों पद एक ही मनसबदार को मिले हुए थे। यह आवश्यक नहीं था कि जितने का मनसब मिला हो उतनी ही संख्या में ही कोई मनसब सैनिक रखे। उदाहरण के लिए, यह जरूरी नहीं था कि एक हजार का मनसबदार अपने नीचे एक हजार सैनिक ही रखे। मनसबदारों को अपने संरक्षण में एक निश्चित संख्या तक सैनिक रखने तो अवश्य पड़ते थे, किन्तु यह संख्या उनके मनसब की संख्या का बहुत छोटा भाग होती थी। साम्राज्य के अधिकारियों के पद और उनके वेतन का निश्चित करने के लिए मनसब-प्रथा एक सरल माध्यम था। यह भी आवश्यक नहीं था कि किसी उच्च मनसब प्राप्त व्यक्ति को उसके मनसब के अनुरूप ही ऊँची नौकरी पर रखा जाय। राजा मानसिंह को वैसे तो 7 हजार का मनसब प्राप्त था, किन्तु उन्हें कभी भी दरबार में मन्त्रिपद प्राप्त नहीं हुआ। मन्त्रियों का मनसब राजा मानसिंह के मनसब से कम ही था। इसी प्रकार अबुज फजल को शाही सेना के अन्य अधिकारियों की अपेक्षा बहुत ही छोटा मनसब प्राप्त था, किन्तु मानप्रतिष्ठा की दृष्टि से वह ऊंचे-ऊँचे मनसबदारों तथा अधिक वेतन प्राप्त अनेक व्यक्तियों से कहीं आगे थे। यह भी जरूरी नहीं था कि किसी मनसबदार को सरकारी सेवा और नौकरी में रखा ही जाये। कुछ मनसबों का बादशाह की सेवा में उपस्थित रहने और जो काम उन्हें बताया जाय उसे करने के अतिरिक्त और कोई कार्य नहीं था। आवश्यकता पढ़ने पर किसी भी मनसबदार को किसी भी सेवा-कार्य के लिए बुलाया जा सकता था। शायद काजी और सदर को छोड़कर सभी शाही अधिकारी मनसबदारी प्रथा के सदस्य थे और अपने मनसब के अनुरूप कुछ संख्या में उन्हें सैनिक रखने पड़ते थे। मुगल सम्राट के अधीन नरेश भी जो अर्द्ध-स्वतन्त्र रियासतों के शासक थे, मनसबदार बना दिये जाते थे और इन्हें भी अपने मनसब के अनुपात में एक निश्चित संख्या में सैनिक रखने पड़ते थे, जिनका निर्धारित समय पर उन्हें निरीक्षण कराना पड़ता था। मनसबदार की नियुक्ति, उनकी तरक्की अथवा उनके बर्खास्त किये जाने के नियम-कायदे नहीं थे। बादशाह की इच्छामात्र पर ही उनकी तरक्की होती थी और जब वह चाहता था उन्हें नियुक्त करता था अथवा पदच्युत कर देता था।
इन सम्बन्ध में प्रायः यह नियम बरता जाता था कि जब कोई मनसबदार निरीक्षण के समय निर्धारित संख्या में सैनिक-दल उपस्थित करता था और ये सैनिक चुस्त और चैतन्य पाये जाते थे, तो उसके मनसब का दर्जा बढ़ा दिया जाता था। कभी-कभी यदि कोई मनसबदार अपनी सेवा-भक्ति द्वारा बादशाह को प्रसन्न कर लेता था तो उसे बहुत ही ऊंचे दर्जे का मनसब प्रदान कर दिया जाता था। मनसबदारों को वेतन में भारी-भारी नकद रकम मिलती थी और कभी-कमी जागीर द्वारा भी वेतन देने का प्रबन्ध किया जाता था। अकबर जमीन-जागीर देने के बजाय नकद वेतन देना अधिक पसन्द करता था। यदि कभी किसी मनसबदार को जागीर प्राप्त हो भी जाती थी, तो वह इसे अधिक समय तक नहीं रख सकता था और उसकी जागीर एक-प्रान्त से दूसरे प्रान्त में बदल दी जाती थी। मनसबदार-प्रथा की स्थापना के उपरान्त जागीरी क्षेत्रों में मालगुजारी भी उसी विभाग के कर्मचारियों द्वारा वसूल और एकत्र की जाती थी, जागीरदारों के गुमाश्तों द्वारा नहीं। ये लोग काश्तकारों से नियत ’कर’ से अधिक कुछ भी वसूल नहीं कर सकते थे।
कुछ इतिहास लेखकों-विशेषकर इर्विन, स्मिथ और मोरलैण्ड-का यह विचार है कि इन मनसबदारों का पूरे बारह महीनों का वेतन नहीं दिया जाता था, बल्कि सात, आठ अथवा नौ माह का ही वेतन दिया जाता था। तत्कालीन इतिहासकारों द्वारा इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती। उनके लेखों द्वारा यह स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि मनसबदारों को वेतन पूरे वारह महीने का ही दिया जाता था। यह गलत धारणा सम्भवतः इस बात से उत्पन्न हुई है कि सरकार मनसबदारों के वेतन में से लिए हुए ऋण, सामान-सज्जा देने का मूल्य तथा उनके अधीन रहने वाले प्रत्येक सैनिक का पांच प्रतिशत वेतन काटती थी क्योंकि उनको राज्य की ओर से घोड़े तथा साज-सामान मिलता था।
मनसबदारों को अपने सैनिकों को भरती करने की पूरी स्वतन्त्रता थी और आमतौर पर ये सैनिक उन्हीं की जाति अथवा फिरके विशेष के होते थे। मनसबदारों में बहुत-से विदेशी तुर्क, ईरानी, अफगानी और भारतीय राजपूत थे। कुछ मनसबदार अरवी तथा अन्य विदेशी जातियों के भी थे। ऊँचे मनसब-प्राप्त भारतीय मुसलमानों की संख्या बहुत कम थी। मनसबदारों को अपने घोड़े तथा अन्य प्रकार का सामानसज्जा स्वयं खरीदने पड़ते थे। कभी-कभी सरकार भी उन्हें ये वस्तुएं प्रदान करती थी। प्रथम निरीक्षण के समय मनसबदार के अन्तर्गत कितने सैनिक और घोडे इत्यादि हैं, इनकी वर्णनात्मक सूची तैयार की जाती थी और घोड़ों को दाग लगाया जाता था। प्रत्येक घोड़े पर और दो निशान होते थे-सरकारी निशान सीधे पुठे पर मनसबदार का निशान वायें पुढे पर। प्रत्येक मनसबदार को एक निर्धारित अवधि पर निरीक्षण कराना होता था। यह निरीक्षण कभी तो प्रत्येक वर्ष होता था अथवा हर तीसरे वर्ष हुआ करता था। प्रत्येक मनसबदार को निश्चित वेतन मिलता था, जिसमें से वह अपने सैनिक-दल का व्यय तथा अपने सैनिकों का वेतन आदि देता था। व्यय की इन रकमों को निकालकर भी उसका वेतन अच्छा रहा जाता था। मोरलैण्ड द्वारा तैयार किये गये निम्न लेखे से यह बात और अच्छी तरह स्पष्ट होती है।

जात और सवार-

जात और सवार के महत्व के सम्बन्ध में विद्वानों के भिन्न भिन्न विचार है। व्लैकमैन के अनुसार जात का तात्पर्य सैनिक की उस निश्चित संख्या से था जो मनसबदारों को अपने यहाँ रखनी पड़ती थी और ’सवार’ से आशय घुड़सवारों की निश्चित संख्या से था। दूसरी ओर इर्विन का मत है कि ’जात’ से जुड़सवारों की संख्या का आशय प्रकट होता है और ’सवार’ एक प्रतिष्ठा थी, जो जात की भाति ही एक निश्चित संख्या की घोतक थी। डॉ० रामप्रसाद त्रिपाठी के अनुसार, ’सवार’ पद अतिरिक्त प्रतिष्ठा का घोतक था, किन्तु इसके द्वारा मनसबदार निश्चित संख्या में घुड़सवार रखने के लिए बाध्य नहीं था।
ऐसा मालूम होता है कि मनसबदारी-प्रथा की स्थापना के कई वर्षों बाद मनसबदार अपने मनसब के अनुसार निर्धारित संख्या में घुड़सवार नहीं रख सके थे और न निरीक्षण करने के लिए उन्हें प्रस्तुत कर सके थे। इसके साथ ही घोड़ा, घुड़सवारों, हाथी, ऊँट, बैल आदि का रखना प्रत्येक दर्जे में बड़ी गड़बड़ उत्पन्न कर देता था और सम्भवतः इसी गड़बड़ को दूर करने के विचार से अकबर ने ’जात’ से पृथक ’सवार’ दर्जे की स्थापना की थी। इसके पश्चात ’जात’ दर्जे से घुड़सवार का बोध नहीं होता था, बल्कि यह पता चलता था कि कितनी संख्या में हाथी, घोड़े तथा सामान ढोने के लिए बैलगाड़ी आदि किसी मनसबदार को रखना है। ’जात’ दर्जा, जैसा कि कतिपय आधुनिक इतिहासकारों ने समझ लिया है, कोई व्यक्तिगत दर्जा नहीं था।
दूसरी ओर ’सवार’ दर्जे से यह बोध होता था कि अकबर के शासनकाल में मनसबदारों को कितनी संख्या में घुड़सवार रखने होते थे। अकबर के उत्तराधिकारियों के शासनकाल में यह नियम कुछ ढीला पड़ गया और घुड़सवारों की संख्या ’सवार’ दर्जे से बहुत कम रह गयी।

मनसबदार की तीन श्रेणियां –

जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है, 5000 और उसने नीचे के प्रत्येक मनसब में तीन श्रेणियाँ थीं- प्रथम, द्वितीय और तृतीय। एक मनसबदार प्रथम श्रेणी में तभी आ सकता था जब उसका ’सवार’ और ’जात’ दर्जा एक समान होता था। इसके विरुद्ध यदि उसका ’सवार’ दर्जा ’जात’ दर्जे से कम होता था किन्तु आधे से कम नहीं तब वह द्वितीय श्रेणी का मनसबदार होता था । किन्तुं यदि उसका ’सवार’ दर्जा ’जात’ दर्जे से आधे से कम होता था या ’सवार’ दर्जा बिलकुल नहीं होता था तब यह तृतीय श्रेणी का मनसबदार होता था। उदाहरण के लिए, 5000 जात के मनसबदार का सवार दर्जा भी 5000 का होता था, तो वह 5000 की प्रथम श्रेणी में आता था। यदि उसका जात दर्जा 5000 और सवार दर्जा 3000 होता था तो उसे द्वितीय श्रेणी प्राप्त होती थी। यदि उसका जात दर्जा 5000 और सवार दर्जा 2500 से कम होता था तो वह तृतीय श्रेणी का मनसबदार माना जाता था। यह नियम सभी मनसबों पर लागू होता था। ’दु अस्पा’ और ’सि अस्पा’ के भेद-प्रभेद जैसी कुछ अन्य पेचीदगियों का समावेश भी किया जाता था, लेकिन हमें यहाँ उनसे कोई सरोकार नहीं, क्योंकि इनकी शुरूआत अकबर के उत्तराधिकारियों के समय में हुई थी।
कुंछ मनसबदार सैनिक दलों का संचालन करते थे। इन दलों के सैनिकों को भर्ती सरकार द्वारा की जाती थी, सम्बन्धित मनसबदार द्वारा नहीं। इन सैनिक दलों को ’दाखिली’ कहा जाता था। सेना में दाखिली हो घुड़सवार और दाखिली ही पैदल सैनिक होते थे। इनके अतिरिक्त सज्जन सैनिक भी होते थे, जिन्हें ’अहदी’ कहा जाता था। प्रत्येक सैनिक की भरती अलग-अलग होती थी और ये एक पृथक मनसबदार अथवा सैनिक अधिकारी के नेतृत्व में रहते थे। ’अहदी’ बड़े ही कुशल और स्वामिभक्ति सैनिक समझे जाते थे और इनको ऊंचा वेतन दिया जाता था। कभी-कभी तो एक अहदी सैनिक को 500 रू0 मासिक तक वेतन दिया जाता था।
मुगल सेना में घुड़सवार, पैदल सैनिक, तोप-बन्दूकची और गजवाहक भी थे, किन्तु नौ-सेना नहीं थी। घुड़सवार दल सेना की सबसे महत्त्वपूर्ण शाखा थी और इसे सम्पूर्ण सेना का पुष्प कहा जाता था। इसकी अधिकतर भर्ती मनसबदारों और अहदियों में से ही की जाती थी। पैदल सैनिक-दल किसी विशेष महत्त्व का नहीं था। इसके अन्तर्गत बन्दूकची, तीरन्दाज, मेवाती, तलवार चलाने वाले, मल्ल-युद्ध करने वाले चाकर-चेला (गुलाम लोग) आदि थे। आईने अकबरी के आधार पर हमें ज्ञात होता है कि अकबर की सेना में बन्दूकचियों की संख्या 12000 थी। मेवातियो की संख्या कुछ हजार थी और ये ’श्रेष्ठ सैनिक तथा भेदिये’ होते थे । बन्दूकें भी कई प्रकार की थीं और इस विभाग का एक अधिकारी भी होता था, जिसे मीर आतिश कहते थे। ब्लोकमैन के अनुसार अकबर की स्थायी सेना, जिस पर शाही खजाने से खर्चा किया जाता था, 25000 से अधिक नहीं थी। बाद की खोजबीनों से पता चला है कि यह संख्या बहुत कम है। हमें ज्ञात है कि जहांगीर और शाहजहां की स्थायी सेना तीन लाख से कम नही थी, अतः अकबर की स्थायी सेना तीन लाख से कम नहीं हो सकती। इसी संख्या में मनसबदारों के सैनिक-दलों तथा बादशाह के अधीन रहने वाले सैनिक दलों का सम्मिलित कर लेना चाहिए। पैदल सैनिक दल जिनकी संख्या कहीं अधिक थी, इस संख्या में सम्मिलित नहीं हैं। सेना की ओर अकबर विशेष ध्यान और समय देता था। इसके संगठन, नियन्त्रण और अनुशासन के लिए उसने बहुत से नियम-कायदे बनाये थे। दाग-महाली (सेना के हाथी-घोड़े पर दाग लगाने के लिए) नामक एक पृथक विभाग था, जिसका प्रबन्ध कई क्लर्क की सहायता से होता था। मानव-स्वभाव का कुशल पारखी होने के कारण अकबर धीरवीर और सुयोग्य व्यक्तियों को ही मनसबदार नियुक्त करता था।

मनसबदारी व्यवस्था के दोष –

अकबर की मनसबदारी व्यवस्था में कुछ दोष और कमजोरियां भी थीं। तत्कालीन लेखकों, विशेषकर बदायूंनी, ने विस्तार से यह बात लिखी है कि प्रायः मनसबदार सरकार को धोखा देते हुए निरीक्षण के लिए बाजार से साधारण व्यक्तियों को पकड़ लाते और उन्हें फौजी वर्दी पहनाकर सैनिकों के रूप में खड़ा करते और ले-देकर निरीक्षण में सफल हो जाते थे। सैनिक विभाग की ओर से दिये गये बढिया घोडों के स्थान पर मरियल घोडे लाकर खडे करना तो उनके लिए साधारण बात थी। इस प्रकार के भ्रष्टाचार को समाप्त करने में अकबर को कई वर्ष लग गये। इसके अतिरिक्त सेना का विभाजन मनसबदारी ढंग से हुआ था और एक मनसबदार जीवनपर्यनत एक ही सैनिक दल का संचालन करता था। मनसबदारों द्वारा वेतन बॉटने की प्रथा भी काफी खराब थी जिससे अनेक दोष उत्पन्न हो गये। मनसबदार प्रणाली में कोई संगठित केन्द्र भी नही था और न संगठन में उत्पन्न होने वाली कोई शक्ति ही थी जिसका होना एक राष्ट्रीय सेना के लिए आवश्यक था। सैनिक अनुशासन के तौर-तरीकों में भी कोई समानता नही थी।
लेकिन इन तमाम कमियों और दोषों के वावजूद मनसबदारी प्रथा मध्यकालीन सैनिक व्यवस्था से उत्तम ही थी। यह प्रथा जागीरदारी प्रथा से श्रेष्ठ थी क्योंकि मनसबदारी प्रथा जागीरदारी प्रथा की तरह वंशानुगत नहीं थी और मनसबदार को प्रतिमाह वेतन लेने के लिए स्वयं प्रांत में आना पड़ता था। इसलिए उस पर सरकार का सीधा नियंत्रण होता था और वह जागीरदारों की तरह विद्रोह नहीं करते थे। मनसबदारी प्रथा ने कुशल सैनिक तथा असैनिक पदाधिकारी प्रदान किए क्योंकि स्वयं सम्राट योग्यता के आधार पर उनकी नियुक्ति करता था। कुछ विद्वानों की राय है कि मनसबदारों की मृत्यु के बाद जब्ती प्रथा के आधार पर उनकी संपत्ति पर सरकार अधिकार कर लेती थी। इससे राज्य की आर्थिक स्थिति काफी हद तक सुधरी और मनसबदारों ने धन के लालच में भ्रष्ट तरीकों द्वारा अधिक धन एकत्र नहीं किया।
मनसबदारी व्यवस्था और मुगल सेना के सन्दर्भ में अकबर द्वारा विकसित प्रशासनतंत्र को मामूली फेरबदल के साथ जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी जारी रखा। फिर भी, मनसबदारी व्यवस्था के कार्यकलाप में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। अकबर के काल में मनसबदार को अपने दस्ते के रखरखाव के लिए औसतन प्रति सवार 240 रुपए वार्षिक दिए जाते थे। जहाँगीर के काल में उसे घटाकर 200 रुपए वार्षिक कर दिया गया। इस काल में अनेक दुसरे संशोधन भी किए गए। एक प्रवृत्ति ज़ात का वेतन कम करने की थी। जहाँगीर ने ऐसी व्यवस्था आरंभ की जिसमें ज़ात का मनसब पढ़ाए बिना चुनिंदा अमीरों को अधिक संख्या में सैनिक रखने की अनुमति दी जाए। सामान्यतः किसी मनसबदार को ऐसा ‘सवार‘ मनसब नहीं दिया जाता था जिसमें उसके ‘ज़ात‘ मनसब से अधिक हो। शाहजहाँ के काल में फालतू घोड़ों की संख्या में भारी कमी ने मुगल सवार सेना की दक्षता पर प्रतिकूल प्रभाव डाला।
कुल मिलाकर मुगलों की मनसबदारी व्यवस्था एक पेचीदा व्यवस्था थी। उसका कारगर कार्यकलाप अनेक बातों पर निर्भर था। इस प्रकार मनसबदारी व्यवस्था सही नेतृत्व के अधीन अत्यन्त उपयोगी और महत्वपूर्ण संस्था सिद्ध हुई जिसने मुगल साम्राज्य में एकता और सुव्यवस्था को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई लेकिन जब व्यवस्था कमजोर पड गयी तो ऐसी स्थिती में मुगल साम्राज्य का पतन अवश्यंभावी हो गया।

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