रविन्द्र नाथ टैगोर और उनका राष्ट्रवाद -
जीवन परिचय -
भारत के इतिहास में रवीन्द्रनाथ टैगोर को ’गुरुदेव’, ’कविगुरु’ और ’बिस्वाकाबी’ के नाम से भी जाना जाता है। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 को कलकत्ता में हुआ था। वे अपने माता-पिता की तेरहवीं संतान थे। मात्र आठ वर्ष की उम्र में ही उन्होने अपनी पहली कविता लिखी और सोलह साल की उम्र में कहानियॉं और नाटक लिखना प्रारंभ कर दिया था। वह एक कवि, उपन्यासकार, नाटककार और दार्शनिक थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर एशिया के पहले व्यक्ति थे जिन्हे ‘गीजांजलि‘ नामक पुस्तक के लिए वर्ष 1913 ई0 में साहित्य के क्षेत्र मे नोबेल पुरस्कार दिया गया। अपनी सभी साहित्यिक उपलब्धियों के अलावा, वह एक दार्शनिक और शिक्षा के पैरोकार थे। उन्होंने न केवल बांग्लादेश और भारत के लिए राष्ट्रगान प्रदान किया बल्कि अपने सीलोन के छात्रों में से एक को श्रीलंका के गान को लिखने के लिए प्रेरित किया।
गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने बांग्ला साहित्य के ज़रिये भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नई जान डाली। वे एकमात्र कवि हैं जिनकी दो रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान बनीं। भारत का राष्ट्रगान जन-गण-मन और बांग्लादेश का राष्ट्रगान आमार सोनार बांग्ला गुरुदेव की ही रचनाएं हैं। ईश्वर और इंसान के बीच मौजूद आदि संबंध उनकी रचनाओं में विभिन्न रूपों में उभर कर आता है। साहित्य की शायद ही ऐसी कोई विधा है, जिनमें उनकी रचना न हो - गान, कविता, उपन्यास, कथा, नाटक, प्रबंध, शिल्पकला, सभी विधाओं में उनकी रचनाएं विश्वविख्यात हैं। उनकी रचनाओं में गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, कथा ओ कहानी, शिशु, शिशु भोलानाथ, कणिका, क्षणिका, खेया आदि प्रमुख हैं। उन्होंने कई किताबों का अनुवाद अंग्रेज़ी में किया। अंग्रेज़ी अनुवाद के बाद उनकी रचनाएं पूरी दुनिया में फैली और मशहूर हुईं।
गुरुदेव 1901 में सियालदह छोड़कर शांतिनिकेतन आ गए। प्रकृति की गोद में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना की जो आगे चलकर 1921 ई0 में विश्व भारती विश्वविद्यालय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। एक ऐसा स्कूल था जिसने पारंपरिक शिक्षा की दिशा बदल दी। शांतिनिकेतन में टैगोर ने अपनी कई साहित्यिक कृतियां लिखीं थीं और यहां मौजूद उनका घर ऐतिहासिक महत्व का है।
रविंद्रनाथ टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। रविंद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी ज़्यादातर रचनाएं तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के कई रंग पेश करते हैं। अलग-अलग रागों में गुरुदेव के गीत यह आभास कराते हैं मानो उनकी रचना उस राग विशेष के लिए ही की गई थी।
राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार -
रवींद्रनाथ टैगोर की राष्ट्रवाद की समझ प्राचीन भारतीय दर्शन पर आधारित है, जिसके अनुसार पूरी दुनिया एक घोंसला है। उनकी राय में, राष्ट्रवाद एक माया या मृगतृष्णा की अवधारणा थी और इसे लगातार आगे नहीं बढ़ाया जाना चाहिए। टैगोर ने राष्ट्रवाद में सामान्य विश्वास से खुद को दूर करने के प्रयास में राष्ट्रवाद को शांति, सद्भाव और कल्याण जैसी अवधारणाओं के साथ जोड़ने का प्रयास किया। वह आगे कहते हैं कि अगर भारत किसी भी तरह से दुनिया की मदद करने का फैसला करता है, तो वह मानवता के रूप में ही होना चाहिए।
टैगोर की राय में, राजनीतिक स्वतंत्रता की तुलना में मन की स्वतंत्रता अधिक महत्वपूर्ण है। उनका तर्क है कि जब सामूहिक संगठन की आवश्यकता मनुष्य में जन्मजात होती है, राष्ट्र अंततः ऐसी शक्ति में विकसित हो जाते हैं कि व्यक्ति राष्ट्र के लिए एक उपकरण के अलावा और कुछ नहीं बन जाता है। उनका मत था कि एक ऐसा देश जिसका अपने बारे में संकीर्ण दृष्टिकोण है, वह अधिक उन्नत राष्ट्रों के साथ शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में नहीं रह सकता है और वह पिछड़ जाएगा।
टैगोर का समकालीन परिदृश्य -
टैगोर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ जब भारत औपनिवेशिक पराधीनता का शिकार था। 20वीं सदी के पहले दशक के दौरान देश के भीतर एवं बाहर भारतीय राष्ट्रवाद ने भी क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के उभार को देखा जिसका स्वरुप हिंसक था और जिसने कितने निर्दोषों की सिर्फ इसलिए बलि ली क्योंकि वे अँग्रेज थे। इस स्थिति ने टैगोर को भी विचलित किया। उन्होंने महसूस किया कि राष्ट्र, राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद की अवधारणा के मूल में घृणा है जो बुनियादी मानवीय मूल्यों के प्रतिकूल है।
उस समय का वैश्विक परिदृश्य तो और भी विचलित करने वाला था। उन्होंने देखा कि 17वीं शताब्दी से 19 शताब्दी के दौरान वाणिज्यवाद एवं औद्योगिक क्रांति की पृष्ठभूमि में पश्चिमी देशों में राष्ट्रवाद ने किस प्रकार उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद का रूप ले लिया और इसकी पृष्ठभूमि में इसने अफ्रीकी एवं एशियाई देशों को गुलामी की ओर धकेलते हुए मानव एवं मानवता के इतिहास को कलंकित किया। इतना ही नहीं, इसने 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में यूरोपीय देशों को जिस राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा की ओर धकेला, उसकी परिणति प्रथम विश्वयुद्ध के रूप में हुई। लेकिन, राष्ट्रवाद का यह ज्वार यहीं पर नहीं थमा। यह इसके बाद भी जारी रहा और 1920 के दशक एवं इसके बाद इसने जर्मनी में नाजीवाद, इटली में फासीवाद एवं जापान में सैन्यवाद के रूप में राजनीतिक सर्वसत्तावादी निरंकुशता को जन्म देते हुए हिटलर एवं मुसोलिनी के राजनीतिक उभार को संभव बनाया। अंततः इसकी परिणति द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में हुई।
वैचारिक धरातल पर देखें, तो पश्चिमी राष्ट्रवाद की सीमाओं ने भी टैगोर को राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद के प्रश्न पर पुनर्विचार के लिए उत्प्रेरित किया। ध्यातव्य है कि इटली के छोटे-छोटे नगर-राज्यों (ब्पजल ैजंजमे) की पृष्ठभूमि में विकसित पश्चिमी राष्ट्रवाद की संकल्पना ‘एक भाषा, एक जाति एवं एक राष्ट्र’ की संकल्पना पर आधारित है। यह संकल्पना भारतीय परिस्थितियों के लिए बहुत उपयुक्त नहीं थी क्योंकि भारत एक बहुभाषा-भाषी देश था जहाँ विभिन्न धर्मों के अनुयायी रहते आये हैं और जहाँ पर्याप्त सांस्कृतिक विविधता है। ऐसी स्थिति में पश्चिमी राष्ट्रवाद की संकल्पना भारत के लिए बहुत प्रासंगिक नहीं रह जाती है। यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें टैगोर की राष्ट्र-विषयक् धारणा ने आकार ग्रहण किया।
राष्ट्रवाद और देशभक्ति का फ़र्क :
दरअसल राष्ट्रवाद एक सापेक्षिक राजनीतिक धारणा है जिसे साबित करने के लिए उनके साथ खड़े होने और उनकी विचारधारा को स्वीकार करने की ज़रुरत होती है जो खुद को राष्ट्रवाद के प्रवक्ता एवं राष्ट्रीय हितों के संरक्षक के तौर पर प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिए 1920 के दशक में जर्मनी में हिटलर ने और इटली में मुसोलिनी ने खुद को, अपने दल को और अपने समर्थकों को राष्ट्रवादी घोषित करते हुए उन लोगों के खिलाफ मोर्चा खोला जो उनसे असहमत थे और उनकी नीतियों की आलोचना करते थे। इसीलिए राष्ट्रवाद की धारणा उसके विरोधियों के उत्पीड़न के साधन में तब्दील हो गयी और इन्होंने अपने विरोधियों को देशद्रोही घोषित किया।
लेकिन, देशभक्ति साबित करने के लिए न तो किसी राजनीतिक दल की सदस्यता लेनी पड़ती है और न ही प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करना पड़ता है। यह राष्ट्रवाद की तरह सापेक्ष अवधारणा भी नहीं है। दरअसल देशभक्ति एक प्रकार से उस भूमि के प्रति आत्मीयता से भरे लगाव एवं कृतज्ञताबोध का परिणाम है जिसमें हमारा जन्म हुआ है, पालन-पोषण हुआ है, और जिसके साथ हमारा भविष्य सम्बद्ध है। यह स्वतःस्फूर्त भाव है जो हमारे भीतर छुपा हुआ है और जिसके प्रदर्शन की ज़रुरत नहीं पड़ती है। यह सकारात्मक अवधारणा है जिसका स्वरुप अधिक-से-अधिक रक्षात्मक होता है। यह न तो आक्रामक होती है और न ही इसका स्वरुप उत्पीड़क होता है। इसमें दूसरे देश पर हावी होने या उसे नीचा दिखने का भाव भी नहीं होता है। दोनों में सबसे महत्वपूर्ण फर्क यह है कि राष्ट्रवाद इस देश के सभी नागरिकों को देशभक्त नहीं मानता है।
राष्ट्रवाद और टैगोर :
राष्ट्रवाद की संकल्पना एक सांस्कृतिक संकल्पना है। इसके अनुसार समान भौगोलिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों के उस समूह को राष्ट्र कहते हैं जो समान सांस्कृतिक विरासत धारण करते हैं और इसके कारण एक-दूसरे के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ाव महसूस करते हैं; जिन्हें लगता है कि वे एक ही नियति से बँधे हैं, जो एकसमान सामूहिक लक्ष्यों से प्रेरित होते हैं और उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। लेकिन, टैगोर ने राष्ट्रवाद को देशभक्ति से भिन्न माना।
टैगोर ने राष्ट्रवाद की संकल्पना को यूरोपीय देन मानते हुए इसे सांस्कृतिक अवधारणा की जगह एक राजनीतिक-आर्थिक संकल्पना के रूप में देखा। 1913 ई0 में नोबल पुरस्कार मिलने के बाद टैगोर को विश्व-भ्रमण का अवसर मिला और इसी क्रम में 1917 ई0 में राष्ट्रवाद के बुखार में तड़प रहे जापान की यात्रा के दौरान उन्होंने राष्ट्रवाद की तीखी आलोचना की थी जिसके कारण उन्हें जापान से बगैर भाषण दिए वापस आना पड़ा। इस यात्रा के दौरान जारी वक्तव्यों और भाषणों को 2003 में संकलित करते हुए ’नेशनलिज्म’ (Nationalism) के नाम से प्रकाशित किया गया। 1917 की जापान यात्रा के दौरान ’नेशनलिज्म इन इंडिया’ (Nationalism in India) नामक निबंध में टैगोर ने राष्ट्र-राज्य (Nation-State)की आलोचना करते हुए लिखा कि “राष्ट्रवाद का राजनीतिक एवं आर्थिक संगठनात्मक आधार सिर्फ उत्पादन में वृद्धि तथा मानवीय श्रम की बचत कर अधिक संपन्नता हासिल प्राप्त करने का प्रयास है। राष्ट्रवाद की धारणा मूलतः राष्ट्र की समृद्धि एवं राजनीतिक शक्ति में अभिवृद्धि करने में प्रयुक्त हुई हैं। शक्ति की वृद्धि की इस संकल्पना ने देशों में पारस्परिक द्वेष, घृणा तथा भय का वातावरण उत्पन्न कर मानव जीवन को अस्थिर एवं असुरक्षित बना दिया है। यह सीधे-सीधे जीवन के साथ खिलवाड़ है, क्योंकि राष्ट्रवाद की इस शक्ति का प्रयोग बाह्य संबंधों के साथ-साथ राष्ट्र की आंतरिक स्थिति को नियंत्रित करने में भी होता है। ऐसी परिस्थिति में समाज पर नियंत्रण बढ़ना स्वाभाविक है। फलस्वरूप, समाज तथा व्यक्ति के निजी जीवन पर राष्ट्र छा जाता है और एक भयावह नियंत्रणकारी स्वरूप प्राप्त कर लेता है। दुर्बल और असंगठित पड़ोसी राज्यों पर अधिकार करने की कोशिश राष्ट्रवाद का ही स्वाभाविक प्रतिफल है। इससे पैदा हुआ साम्राज्यवाद अंततः मानवता का संहारक बनता है।“
राष्ट्रवाद का विध्वंसक रूप : फॉसीवाद -
फॉसीवाद तथा साम्यवाद की तुलना करते हुए रवीन्द्र नाथ टैगोर ने फॉसीवाद को साम्यवाद से कहीं अधिक खतरनाक माना और उसे ‘असह्य निरंकुशवाद’ की संज्ञा दी क्योंकि उस व्यवस्था में हर चीज नियंत्रित होती है। उन्होंने फॉसीवादियों को राष्ट्रवाद के पागलपन का प्रतीक मानते हुए वे कहते हैं कि फॉसीवाद के प्रवर्तन से पहले राष्ट्रवाद आर्थिक विस्तारवाद तथा उपनिवेशवाद से जुड़ा हुआ था। पर बाद में मशीनीकरण के साथ यांत्रिक सभ्यता के विकास ने राजनीतिक सर्वसत्तावाद के उदय के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित की। इसके परिणामस्वरूप एक ऐसा वातावरण तैयार हुआ जिसमें बहुत हद तक न तो मानवीय मूल्यों के लिए जगह रह गयी और न ही मानवीय संवेदनाओं के लिए। इस संदर्भ में देखें तो टैगोर बेनिटो मुसोलिनी की इस बात से बहुत हद तक सहमत प्रतीत होते हैं कि “राष्ट्र राज्य का निर्माण नहीं करता, अपितु राज्य द्वारा राष्ट्र का निर्माण होता है।” उन्होंने देखा कि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद किस प्रकार राष्ट्रवाद ने राज्य की शक्ति को बढ़ाया और तदनुरूप राज्य के द्वारा राष्ट्रवाद को काफी सराहा गया। इस बात की पुष्टि आज के परिप्रेक्ष्य से भी होती है। आज भी राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद शासन में मौजूद लोगों के हाथों को मजबूती प्रदान करने का साधन है और उनके द्वारा अक्सर इसका इस्तेमाल अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों को साधने के लिए किया जाता है।
समाज को राज्य से अधिक महत्व -
आधुनिक उदारवादी चिन्तक टैगोर व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रबल हिमायती हैं और शायद इसलिए भी उन्होंने राष्ट्रवाद को व्यक्ति की स्वतंत्रता के रास्ते में बाधक मानते हुए उसकी आलोचना की है। वे समाज को मानवीय विकास के लिए आवश्यक बतलाते हुए उसे राष्ट्र की तुलना में कहीं अधिक प्रमुखता देते हैं। उनका मानना है कि जहाँ राष्ट्र व्यक्ति की रचनात्मकता को बाधित करता है, वहीं समाज इसे प्रोत्साहित करता है।
मानवता पर देशभक्ति को तरजीह -
टैगोर राष्ट्रीयता एवं देशभक्ति को मानवता एवं विश्वबंधुत्व की संकल्पना के प्रतिकूल मानते थे। उनका मानना था कि- “देशभक्ति चहारदिवारी से बाहर के विचारों से जुड़ने की आजादी से हमें रोकती है। साथ ही, दूसरे देशों की जनता के दुख-दर्द को समझने की स्वतंत्रता भी सीमित कर देती है।” उन्होंने इसके लिए अपनी आलोचना का जवाब देते हुए कहा था कि “देशभक्ति हमारा आखिरी आध्यात्मिक सहारा नहीं बन सकता, मेरा आश्रय मानवता है।“ टैगोर मानवता को राष्ट्रीयता से ऊपर रखते थे और उनका कहना था कि “जब तक मैं जिंदा हूँ, मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूँगा। “
यही कारण है कि उन्होंने एशिया की आजादी की हिमायत तो की पर आज़ादी उनकी प्राथमिकता में शीर्ष पर नहीं थी। उन्होंने नैतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के प्रश्न को कहीं अधिक महत्व दिया और राजनीतिक आज़ादी के प्रश्न को उन्होंने उसकी तुलना में कहीं कम महत्व दिया। उस समय चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को लेकर भी वे बहुत उत्साहित नहीं थे, क्योंकि उनका यह विश्वास था कि भारत राजनीतिक आजादी से शक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। उनका मानना था कि आर्थिक रूप से भारत भले ही पिछड़ा हो, पर उसे मानवीय मूल्यों की दृष्टि से पिछड़ा नहीं होना चाहिए। उन्होंने राष्ट्र की धारणा को भारत के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर खारिज करने की आवश्यकता पर बल दिया और भारत से यह अपेक्षा की कि वह पश्चिमी राष्ट्रवाद से दूर रहते हुए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में अपनी महती भूमिका का निर्वाह करे और पूर्व की तरह मानवीय एकता के आदर्शों को हासिल करने के लिए समस्त विश्व का मार्गदर्शन करे।
राष्ट्रवाद और भारत -
रवींद्रनाथ टैगोर राष्ट्रवाद के खिलाफ थे और उन्होंने राष्ट्रवाद को बहुत बड़ा खतरा मानते हुए कहा कि यह भारत की कई समस्याओं की जड़ है। उन्होंने भारत में राष्ट्रवाद की संभावनाओं को खारिज करते हुए इसे राष्ट्र-रहित देश माना और यूरोप से भारतीय परिस्थितियों की भिन्नता की ओर इशारा करते हुए कहा कि भारत विभिन्न प्रजातियों का देश था और इसके सामने इन प्रजातियों में समन्वय बनाए रखने की चुनौती थी, जबकि यूरोपीय देशों के सामने प्रजातियों के समन्वय की ऐसी कोई चुनौती नहीं थी। इस भिन्नता के कारण ही टैगोर ने राष्ट्रवाद को भारतीय परिस्थितियों के प्रतिकूल माना। उन्होंने यूरोपीय राष्ट्रों के लिए भविष्य के खतरों के रूप में इसकी पहचान करते हुए कहा कि इस भिन्नता के बावजूद यूरोपीय राष्ट्र राष्ट्रवाद रूपी मदिरा का सेवन कर अपनी आध्यात्मिक एवं मनोवैज्ञानिक एकता को खतरे में डाल रहे हैं और भविष्य में उन्हें भी प्रजातीय समन्वय की उन चुनौतियों का सामना करना होगा जिसका सामना सामाजिक एवं सांस्कृतिक विविधता के मद्देनज़र भारत को करना पड़ रहा था। उस स्थिति में उन्हें या तो अन्य प्रजातियों के लिए अपने दरवाज़े बंद करने होंगे, या फिर उन्हें कुचलते हुए अधीनस्थ प्रजाति का रूप देना होगा। इससे भिन्न भारतीय समाज में मौजूद आत्मसातीकरण की प्रक्रिया की ओर इशारा करते हुए टैगोर ने बंग-भंग आन्दोलन (1905) के समय लिखे गए निबंध ’स्वदेशी समाज’ में यह कहा कि “आर्यों ने जब भारत पर आक्रमण किया, तब किस तरह यहाँ की स्थानीय जातियों ने उन्हें अपने भीतर समा लिया। बाद में फिर मुसलमान आएँ, उन्हें भी इसी तरह अपना लिया गया।”
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने एक राष्ट्र के रूप में भारत में अन्तर्निहित संभावनाओं को खारिज करते हुए कहा कि “भारत की समस्या राजनीतिक नहीं, सामाजिक है। यहाँ राष्ट्रवाद नहीं के बराबर है।” उन्होंने भारत की सामाजिक रूढ़ियों को राष्ट्रवाद के विकास में बाधक मानते हुए कहा कि “भारत में पश्चिमी देशों जैसा राष्ट्रवाद पनप ही नहीं सकता, क्योंकि सामाजिक कार्यो में अपनी रूढ़िवादिता का हवाला देने वाले लोग जब राष्ट्रवाद की बात करें, तो वह कैसे प्रसारित होगा?“ इस सन्दर्भ में अपनी बातों को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि “भारत में कभी सही मायने में देशभक्ति की भावना नहीं रही। बचपन से ही मुझे सिखाया गया था कि देश का सम्मान करना ईश्वर की पूजा और मानवता का आदर करने से ज्यादा जरूरी है। मैंने अब उस सबक को छोड़ दिया है और मेरा मानना है कि मेरे देशवासी अपने भारत को सही मायने में तभी आगे ला पायेंगे, जब वे अपने शिक्षकों की उस शिक्षा का विरोध करेंगे कि देश मानवता के आदर्शों से ज्यादा बड़ा है।”
राष्ट्रवाद की आलोचना के प्रमुख आधारः
राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद के सन्दर्भ में रवीन्द्र नाथ टैगोर की धारणा भी अल्बर्ट आइंस्टाइन से मिलती-जुलती है। अल्बर्ट आइंस्टाइन के अनुसार, “राष्ट्रवाद एक बचकाना बीमारी है और यह मानव जाति का चेचक है।“ टैगोर विश्व-बंधुत्व के प्रबल हिमायती थे और इसीलिए उन्होंने राष्ट्रवाद की बजाय अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की वकालत की। उन्होंने राष्ट्रवाद को इसके रास्ते में मौजूद महत्वपूर्ण अवरोध के रूप में देखा और इसे मानव एवं मानवता के लिए खतरा बतलाया। उन्होंने तीन आधारों पर राष्ट्रवाद की आलोचना की -
2. प्रतिस्पर्धी वाणिज्यवाद की अवधारणा, और
3. प्रजातिवाद ।
उन्होंने राष्ट्र के विचार को जनता के स्वार्थ का ऐसा संगठित रूप माना है, जिसमें मानवीयता और आत्मत्व लेशमात्र भी नहीं रह पाता है। उनकी दृष्टि में न तो राष्ट्र की शक्ति में वृद्धि पर कोई नियंत्रण संभव है और न ही इसके विस्तार की कोई सीमा है। उसकी इस अनियंत्रित शक्ति में ही मानवता के विनाश के बीज उपस्थित हैं। इसीलिए यह निर्माण का मार्ग नहीं, बल्कि विनाश का मार्ग है जो विभिन्न मानव-समुदायों के बीच घृणा, वैमनस्य और टकराव को उत्पन्न करता है। इसीलिए उन्होंने राष्ट्रवाद के खतरों की दिशा में संकेत करते हुए कहा कि “मानव की सहिष्णुता तथा उसमें स्थित नैतिकताजन्य परमार्थ की भावना राष्ट्र की स्वार्थपरायण नीति के चलते समाप्त हो जायेंगे।“ उन्होंने शोषण के अमानवीय उपकरण के रूप में राष्ट्रवाद के इसी रूप की आलोचना की, जिसमें नृशंसता, रुग्णता तथा पृथकता दिखाई देती है। चूँकि राष्ट्रवाद के नाम पर राज्य शक्ति का अनियंत्रित प्रयोग अनेक अपराधों को जन्म देता है, इसीलिए युद्धोन्माद को बढ़ाता हुआ राष्ट्रवाद अपने समाज-विरोधी रूप में उपस्थित होता है। लेकिन, यह समाज का ही नहीं, व्यक्ति का भी विरोधी है। व्यक्ति स्वातंत्र्य के समर्थक टैगोर को राष्ट्र के समक्ष व्यक्ति एवं उसकी स्वतंत्रता का समर्पण स्वीकार्य नहीं था। इसीलिए वे संकीर्ण राष्ट्रवाद का विरोध करते हुए इसे मानव की प्राकृतिक स्वच्छंदता एवं आध्यात्मिक विकास के मार्ग में बाधा मानते हैं।
राष्ट्रीय आन्दोलन में टैगोर की भूमिका -
रवीन्द्र नाथ टैगोर राष्ट्र, राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद की संकल्पना के मुखर विरोधी थे, इसीलिए राष्ट्रीय आन्दोलन से उनकी दूरी स्वाभाविक थी। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति वे उदासीन रहे। उन्होंने वैचारिक एवं सांस्कृतिक धरातल पर विमर्श को आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन के नेतृत्व को प्रभावित करते हुए उसके वैचारिक आधार को निर्मित करने में महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका निभायी। दिसंबर, 1911 ई0 में कलकत्ता में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने भाग लिया था और इसी अधिवेशन के दौरान उन्होंने पहली बार राष्ट्रगान गाया था। इससे पूर्व सन् 1905 ई0 में बंग-भंग आन्दोलन का विरोध करते हुए उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन में भाग लिया और इसके विरोध में रक्षा-बंधन दिवस मनाते हुए विरोध-प्रदर्शन का आह्वान किया। उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन के दौरान सन् 1905 ई0 में ही ’आमार सोनार बांग्ला’ लिखकर जन्मभूमि के प्रति अपने प्रेम का इज़हार किया और बांग्ला एकता का आह्वान किया। जब रौलट एक्ट के विरोध में आन्दोलन उठ खड़ा हुआ, तो उन्होंने अपने भाषणों और लेखों के माध्यम से ब्रिटिश शासन और उसकी दमनकारी नीतियों की घोर निंदा की। आगे चलकर उन्होंने जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड, 1919 की प्रतिक्रिया में ’नाईटहुड’ का सम्मान त्यागते हुए इस घटना के प्रति अपना विरोध-प्रदर्शन किया और ‘सर’ की उपाधि अंग्रेज़ी सरकार को लौटा दी। लेकिन 1920 ई0 में जब असहयोग आन्दोलन के दौरान स्वदेशी पर जोर देते हुए विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार का आह्वान किया गया, तो उन्होंने विदेशी वस्त्रों को जलाये जाने की घटना की खुलकर आलोचना करते हुए कहा कि यह संसाधनों की निष्ठुर बर्बादी है। 1930 ई0 में जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन का आह्वान किया गया, तो उन्होंने उसका समर्थन किया।
राष्ट्रीय आन्दोलन को सशर्त समर्थन -
राष्ट्रीय आन्दोलन से उनकी दूरी निर्विवाद थी और इसके पीछे उनकी यह मान्यता थी कि -
1. अति-राष्ट्रवाद और स्वदेशी का प्रबल आग्रह पश्चिम एवं विदेशी के पूरी तरह से नकार का आधार तैयार करेगा और ऐसी स्थिति में भारत खुद तक सीमित होकर रह जाएगा।
2. यह चाह सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विविधताओं से भरे भारत जैसे देश में ईसाई, यहूदी, पारसी और इस्लाम धर्म के प्रति भी असहिष्णुता का माहौल सृजित करेगा, जबकि इन्होंने अलग-अलग समय पर भारतीय समाज एवं संस्कृति पर अपनी ऐसी छाप छोड़ी है जो इनके अस्तित्व से अभिन्न हो चुकी है।
स्पष्ट है कि रवीन्द्र नाथ टैगोर आज़ाद भारत की कल्पना करते थे और इसीलिए उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विरोध किया, लेकिन आज़ादी से जुड़े आंदोलनों को टैगोर का समर्थन बिना शर्त नहीं था। उन्होंने मानवतावाद को हमेशा देशभक्ति एवं राष्ट्रवाद से ऊपर रखा, इसीलिए उन्होंने सशस्त्र विद्रोह एवं क्रांति सहित किसी भी प्रकार के हिंसक आन्दोलन का खुलकर विरोध किया। यहाँ तक कि उन्होंने उग्र राष्ट्रवादी रुख की लगातार आलोचना की और राष्ट्रीय आन्दोलन के उग्र राष्ट्रवाद के आग्रह ने उन्हें समकालीन राजनीति से दूर रहने के लिए विवश किया। लेकिन सक्रिय राजनीति से दूर रहते हुए भी उन्होंने आजादी के आन्दोलन के वैचारिक आधार को तैयार करने और ज़रुरत पड़ने पर उसके एजेंडे के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जब अछूतों के मसले पर गाँधी और अम्बेडकर के बीच मतभेद उभरकर सामने आये और ऐसा लगा कि उपनिवेशवाद विरोधी संयुक्त मोर्चा खतरे में है, तो उन्होंने दोनों के बीच के मतभेद को कम करते हुए संकट के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दूसरे शब्दों में कहें, तो जब-जब राष्ट्रीय आंदोलन पर संकट के बदल मँडराये, बतौर अभिभावक उन्होंने उसके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए उस संकट के समाधान में अपनी भूमिका का निर्वाह किया।
गॉधीजी और टैगोर के राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचारों में अन्तर -
उपर हमने महात्मा गॉंधी और रवीन्द्र नाथ टैगोर के राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचारों का विस्तृत रूप से अध्ययन किया। उपरोक्त अध्ययन के पश्चात हम इनके राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचारों में अन्तर को निम्न रूपों में स्पष्ट कर सकते है -
1. महात्मा गॉंधी एक भारतीय केन्द्रित राष्ट्रवाद को बढ़ावा देना चाहते थे जो भारतीय परम्पराओं और संस्कृतियों में अधिक नीहित हो और पश्चिम से कम प्रभावित हो जबकि प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने से पहले रवीन्द्र नाथ टैगोर एक कट्टर राष्ट्रवादी थे।
2. अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज‘ में महात्मा गॉंधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरमपंथी और उग्रपंथी दोनो राष्ट्रवादियों की आलोचना की क्योंकि उनका मानना था कि उनके दोनों दृष्टिकोण राष्ट्रवाद को एक विशिष्ट पहचान देने से चूक गये जो विशेष रूप से भारतीय था। दूसरी तरफ टैगोर के अनुसार राष्ट्रवाद मानवता के मूल सिद्धान्तों के खिलाफ जायेगा क्योंकि यह अन्य राष्ट्रों के संसाधनों और क्षेत्र के विनियोग के अलावा और कुछ नही था।
3. महात्मा गॉंधी सत्य और अनाक्रमण के प्रबल समर्थक थे। उनका मानना था कि लोगों की हत्या बर्दाश्त नही की जानी चाहिए क्योंकि राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने के लिए स्वतंत्रता सेनानियों द्धारा की गई कार्यवाही बहुत हिंसक थी जबकि रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इसे अपने राष्ट्रों के लिए धन और सम्पिŸा एकत्र करने के लिए मानवता को खत्म करने के साधन के रूप में देखा।
4. महात्मा गॉंधी ने सोचा कि भारत के लोगों की विभिन्न भाषाओं को आम भाषा, जिसे लिंगुआ फ्रेंका कहा जाता है, द्वारा एकजुट किया जाना चाहिए। दूसरी तरफ रवीन्द्र नाथ टैगोर ने सोचा कि आधुनिक राष्ट्रवाद भाषा की अवधारणा को आगे बढ़ाने में मदद नहीं कर सकता क्योंकि यह केवल सभ्यता को नुकसान पहुॅचा सकता है और नष्ट कर सकता है।
5. महात्मा गॉंधी का मानना था कि राष्ट्रवाद समाज के सभी स्तरों पर आत्मनिर्भरता पर आधारित होना चाहिए जबकि रवीन्द्र नाथ टैगोर ने दावा किया कि राष्ट्रवाद की यांत्रिक धारणा को उनकी ‘स्वदेशी समाज‘ की अवधारणा से बदल दिया गया था जो सामाजिक सम्बन्धों पर आधारित थी जो यांत्रिक और अवैयक्तिक नही थे, बल्कि प्रेम और सहयोग पर आधारित थे। अन्तर्राष्टी्रयता में उनका विश्वास इस प्रकार एक समाजवादी घटक प्राप्त करता है।
6. महात्मा गॉंधी ने तर्क दिया कि दुनिया भर के स्वतंत्रता सेनानियों ने जिस राष्ट्रवाद के ब्रांड का समर्थन किया है, वह प्रकृति और पद्धति दोनों में अधिक हिंसक था और इसके परिणामस्वरूप भविष्य में और अधिक संघर्ष होंगे। दूसरी तरफ रवीन्द्र नाथ टैगोर के अनुसार हिसंक राष्ट्रवाद सभ्यता को समाप्त कर देगा। इसके अतिरिक्त वह अहिंसक राष्ट्रवाद के खिलाफ थे क्योंकि यह भारत में अलगाववादी दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है।
इस प्रकार संक्षेप में हम यह कह सकते है कि जहॉं गॉंधीजी ने पाश्चात्य सभ्यता एवं सशस्त्र राष्ट्रवाद की तीखी आलोचना की, वहीं टैगोर ने भारतीय सभ्यता के समन्वयकारी तत्वों की महत्ता को उद्धरित किया। गॉधीजी और टैगोर समकालीन जगत में पूर्व बनाम पश्चिम, परम्परा बनाम आधुनिकता और विगत बनाम वर्तमान के बहस की अलग-अलग व्याख्या प्रस्तुत करते है। रवीन्द्र नाथ टैगोर की मान्यता थी कि ‘उच्च-भू-संस्कृति‘ अर्थात संस्कृत प्रधान शास्त्रीय परम्परा के दायरे में इन अन्तर्विरोधों को सुलझाया जा सकता है लेकिन गॉंधीजी के लिए इन अन्तर्विरोधों का हल मुख्यतः भारत और पश्चिम की लधु जन-परम्पराओं के जरिये ही भारत में शास्त्रीय परम्परा के दायरे में लोक संस्कृति का रवीन्द्र नाथ टैगोर जैसा सृजनशील इस्तेमाल बहुत कम लोग कर पाये है। दूसरे शब्दों में गैर-शास्त्रीय दायरे में शास्त्रीय परम्परा का गॉंधीजी जैसा प्रभावी इस्तेमाल किसी ने नहीं किया। आधुनिकतावादी होने के बावजूद रवीन्द्र नाथ टैगोर के लिए आधुनिक दुनिया का महत्व कम होता चला गया। उधर प्रति-आधुनिक होने के बावजूद गॉंधीजी आधुनिकता के ऐसे प्रमुख आलोचक बन कर उभरे जो परम्परा के पक्ष में खड़ा होकर उत्तर आधुनिकता को दावत देता प्रतीत होता था।