window.location = "http://www.yoururl.com"; Theory of Nationalism: Views of Gandhi | राष्ट्रवाद के सिद्धांत : गाँधी के विचार

Theory of Nationalism: Views of Gandhi | राष्ट्रवाद के सिद्धांत : गाँधी के विचार

 


गॉधीजी के राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार -

महात्मा गॉंधी वैचारिक और संघर्ष के स्तर पर न केवल भारत के लिए बल्कि पूरे विश्व के लिए एक अनुकरणीय व्यक्ति है। गॉंधीजी की भूमिका देश के राष्ट्रीय आंदोलन में एक अभूतपूर्व सेनानी के रूप में रही है। अतः भारतीय जनता ने अधिकांशतः उन्हें राजनीतिक नेता और देशभक्त राष्ट्रवादी के रूप में ही अधिक स्वीकार किया है। निःसंदेह गांधीजी राष्ट्रवादी थे लेकिन जो राष्ट्रवाद आज दुनिया के लिए घातक हो रहा है और जिसने विश्व की शांति के लिए भारी खतरा उत्पन्न कर दिया है, उस राष्ट्रवाद के समर्थक कभी भी गांधीजी नहीं रहे। गांधीजी के जीवन में राजनीति की अपेक्षा नैतिकता का महत्व अधिक था इसलिए उनका राष्ट्वाद नैतिक साम्राज्य, जीवन की सहिष्णुता और आध्यात्मिक सिद्धान्तों पर आधारित था। उनका राष्ट्रवाद वस्तुतः उनके विश्व प्रेम का शाश्वत सत्य था। गांधीजी सकारात्मक राष्ट्रवाद के समर्थक थे जो देश के विभिन्न धार्मिक, भाषाई, जातिगत और सामुदायिक विभेदों को एक सूत्र में जोड़ता है और कभी भी अपने को समूची मानवता से अलग नहीं समझता। उन्होंने राष्ट्रवाद को हमारे सामने अत्यन्त शुद्ध रूप में प्रस्तुत किया। उनका विचार था कि मनुष्य का लक्ष्य विश्व मैत्री का होना चाहिए और हमें विश्व भ्रातृत्व के लिए जीना मरना चाहिए। गाँधीजी केवल सच्चे राष्ट्रवादी ही नहीं वरन् अंतर्राष्ट्रवादी भी थे। उनकी दृष्टि में मानव को अपने राष्ट्र से आगे जाकर संपूर्ण मानव जाति के साथ परस्पर स्नेह के साथ रहना चाहिए। हम कह सकते है कि गाँधीजी के राष्ट्रवाद की अवधारणा वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को परिलखित करती है।

वस्तुतः गांधीजी अपनी पराधीनता के प्रति सजग थे। दूसरों की पराधीन करना गांधीजी की प्रकृति के विरुद्ध था। गांधीजी ने ऐसे राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया जिसने भारत को एक संपूर्ण इकाई के रूप में सूत्रबद्ध किया। ए0 आर0 देसाई के शब्दो में- “उन्होंने भारत को तरह-तरह के विभाजनों में देखा था। ढेर सारे राजनीतिक दल थे, रियासतों के अन्तर्गत और ब्रिटिश शासन के तहत धार्मिक समूह थे, जैसे कि हिन्दू और मुसलमान और हजारों जातियां थी। इसके साथ-साथ इनमें वर्गीय विभाजन भी थे। गांधीजी से पहले अनेक नेताओं ने ऐसी शक्ति खड़ी करने की कोशिश की थी जो ब्रिटिश हुकूमत से लोहा ले सके पर उनकी दिलचस्पी विभाजन की शक्तियों को घटाने और एक समरस राष्ट्र बनाने में ज्यादा नहीं थी। ऐसे समय जब भारत का जनसाधारण राजनीतिक स्वाधीनता के प्रति उदासीनता था. गांधी ने उनमें एक राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न किया।“

गांधीजी : राष्ट्रवाद के सशक्त प्रतीक -

गांधीजी का राष्ट्रवाद भारत की आजादी के लिए संघर्षों में निहित था। उनके हृदय में राष्ट्रवाद का जन्म दक्षिण अफ्रीका में ही हो गया था। ट्रांसवाल की राजनीतिक पृष्ठभूमि पर गांधीजी ने अपने अद्भूत राजनीतिक कौशल, दर्शन एवं तकनीक का विकास किया। गांधीजी ने राष्ट्रीय चेतना को व्यापक क्षितिज प्रदान किया। उनके राष्ट्रवादी चिंतन में धर्म, समाज एवं संस्कृति सभी का समावेश था। सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह और नैतिकता का निर्वाह उनके राष्ट्रवाद के अभिन्न अंग थे। अहिंसा द्वारा हृदय परिवर्तन के सम्बन्ध में उनकी दृढ आस्था थी। सत्याग्रह पर उनका अटल विश्वास था. जिसकी उत्पत्ति सत्य के सर्वोच्च आदर्श से हुई है। अतः गांधीजी का राष्ट्रवाद सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक खाइयों को पाटने का सशक्त हथियार है।

भारतीय राष्ट्रवाद आजादी के लिए संघर्ष का परिणाम था। औपनिवेशिक दासता के मकड़जाल से निकलने के लिए अपनाए जाने वाले तौर-तरीकों ने भारतीय राष्ट्रवाद को प्रभावित किया। यादव के शब्दो में - “गांधीजी ने राष्ट्रवाद को अलग ढंग से प्रस्तुत किया। गांधी जी ने राष्ट्र को प्रजा से जोडा। गांधीजी के राष्ट्रवाद को उनके चिंतन से अलग नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दो में गांधीजी ने राष्ट्रवाद पर अलग से अपना कोई विचार प्रस्तुत नहीं किए। इस लिए गांधी जी के विचारों में राष्ट्रवाद को समझने के लिए उनकी विचारधारा और संपूर्ण दर्शन का अध्ययन करना जरूरी है।“ गांधीजी का मानना है कि - “राष्ट्रवाद एक राजनीतिक विचार है जो आधुनिक विचारो के साथ आधुनिक समाज की स्थापना करता है। यह बहुसंख्यक लोगो की असीम श्रद्धा, विश्वास और राष्ट्र के प्रति भक्ति है। यह राज्य को केवल राजनीतिक संगठन के रूप भी प्रदान करता है।“

गांधीजी के राष्ट्रवादी चिंतन में अपने राष्ट्र को किसी अन्य राष्ट्र को हेय दृष्टि से देखना अनुचित था। उनका मत था कि राष्ट्र, व्यक्ति से बढ़कर है क्योंकि व्यक्ति की पहचान राष्ट्र से होती है। उनका यह भी मानना था कि कोई अन्य राष्ट्र भी उनके देश के प्रति द्वेष दृष्टि न रखे। वे राष्ट्र को अपना सबकुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार थे। उनका राष्ट्रवाद, अंतर्राष्ट्रीयतावाद से प्रभावित था। गांधीजी कहा करते थे कि जो व्यक्ति राष्ट्रवादी नहीं है वह अंतर्राष्ट्रीयतावादी नहीं हो सकता। अंतर्राष्ट्रीयतावाद तभी संभव है जब राष्ट्रवाद अस्तित्व में आ जाए अर्थात् जब भिन्न-भिन्न देशो के लोग संगठित हो चुके और वे एक व्यक्ति की तरह काम करने के योग्य बन जाए। राष्ट्रवाद बुरी चीज नहीं है, बुरी है संकुचित वृत्ति, स्वार्थपरता और एकांतिकता जो आधुनिक राष्ट्रो के विनाश के लिए उत्तरदायी है।

गांधीजी का मानना था कि हिन्दुस्तान में विविध धर्मों के लोग रहते हैं। जब बाहर से आने वाले व्यक्ति विद्यमान निवासियों के साथ आसानी से घुलमिल जाते है तभी कोई देश एक राष्ट्र माना जाता है। उसमें उदार प्रवृति होनी चाहिए। दूसरे लोगो की विविधताओं को समावेश करने की शक्ति ही राष्ट्रवाद का प्रमुख गुण है। गांधीजी ने कहा था - “मेरा लक्ष्य केवल भारतीयों के बीच भाईचारे की स्थापना नहीं है। मेरा लक्ष्य केवल भारत की स्वतंत्रता नहीं, यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि आज मेरा लगभग पूरा जीवन और पूरा समय इसी में लगा है। मेरी राष्ट्रभक्ति कोई एकांतिक वस्तु नहीं हैं। यह सर्वसमावेशी है और मैं उस राष्ट्रभक्ति को नकार दूंगा जो अन्य राष्ट्रीयताओं के दुख और शोषण पर सवार होने का प्रयास करेगी।“

गांधीजी के राष्ट्रवाद में अंतराष्ट्रीयवाद की झलक थी। उनका मानना था कि दोनों का सह-अस्तित्व मुमकीन है। इसका कारण है कि वे राज्य और राष्ट्र को एक-दूसरे से पृथक मानते थे। उनके अनुसार राष्ट्र ऐसे व्यक्तियों का अर्थपूर्ण सम्मिलित स्वरूप है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी अन्तःशक्तियों से परिचालित होकर एक साझे लक्ष्य को पाने के लिए प्रयत्नशील रहता है किन्तु राज्य एक मशीनी व्यवस्था है, जो राष्ट्र पर थोप दी जाती है। गांधीजी की नजर में राष्ट्र रचनात्मक और जीवंतता का रूप है तो राज्य रूढ़ियों और परम्पराओं का आदर्श रूप। उनका विचार है कि अंतराष्ट्रीयवाद तभी संभव है जब राष्ट्रवाद को महसूस किया जाए। राष्ट्रवाद को संकीर्णता, स्वार्थपरता और विशिष्टता के रूप में देखना गलत है और आधुनिक राष्ट्रवाद की अवधारणा पर यह कलंक है। आधुनिकता के इस चकाचौंध में प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को गिराकर आगे बढ़ना चाहता है। भारतीय राष्ट्रवाद इन सबसे अलग और भिन्न मार्ग प्रशस्त करता है। यह अपने आपको इस ढंग से परिपूर्ण करना चाहता है जो संपूर्ण मानवता के पक्ष में खड़ा हो सके। इसके अलावा गांधीजी स्वावलम्बी और स्वाधीन इकाइयों के समर्थक होते हुए भी अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में आत्म निर्भरता को परम आवश्यक मानते थे और चाहते थे कि विश्व के राष्ट्र आत्मनिर्भता की आत्मघातक नीति छोड़कर अंतर्निर्भर रहते हुए विश्व संघ की स्थापना करे। गांधीजी की कल्पना का विश्व अंतर्राष्ट्रीय शांति, सहयोग और मित्रता का विश्व था। उन्होंने अपने देश के लिए स्वराज पर बल दिया लेकिन यह भी अंतराष्ट्रीयता के हित में था। उन्होंने कभी भी उन भौगोलिक सीमाओं को महत्व नहीं दिया जो कि राज्य द्वारा निर्मित थी। वे स्थानीय, वर्गीय, जातीय, प्रांतीय और देश भक्ति के भावों से ऊपर थे। उनके राष्ट्रीयता सम्बन्धी विचारों में विश्व प्रेम बंधुत्व और अंतराष्ट्रीयता के तत्व देखे जा सकते हैं। गांधीजी का राष्ट्रवाद समाज के सभी तबको के साथ बिना किसी भेदभाव के सामूहिक सोच और लक्ष्य की अभिव्यक्ति था। वे जाति या वर्ग के आधार पर पृथकतावादी दृष्टिकोण के विरुद्ध थे। उन्होने जातीय ऊंच-नीच के विरूद्ध हमेशा आवाज उठायी और भारत से छुआछूत मिटाने के अथक प्रयास किए। गांधीजी के शब्दों में - “मैं सनातनी हिन्दू होने के साथ यह दावा करता हूॅं कि मुझे शास्त्रों का काफी ज्ञान हैं और यह सुझाव भी देने का साहस करता हूॅं कि अस्पृश्यता का आज जो व्यवहार किया जाता है उनका हिन्दू शास्त्रों में न तो कोई विधान है और न ही हिन्दू धर्म के अनुकूल है। हिन्दू धर्म का मूल नियम है कि सत्य और अहिंसा के अतिरिक्त सब कुछ क्षणभंगुर है। इसलिए मेरे विचार में छुआछूत मानवता पर एक कलंक है।“

गांधीजी का राष्ट्रवाद अहिंसात्मक सजीव और सक्रिय शक्ति उत्पन्न करने वाला था। वे अपने स्वभाव, विचार और कर्म से पूर्णतः राष्ट्रवादी थे। गांधीजी के अनुसार व्यक्ति साध्य है और राज्य की उत्पत्ति व्यक्ति के लिए हुई है न कि व्यक्ति की उत्पत्ति राज्य के लिए हुई है। गांधीजी राज्य को सामाजिक उत्थान और जनकल्याण का एक साधन मात्र मानते थे। गांधीजी राज्य का सभी क्षेत्रों में विरोध करते थे। गांधीजी ने कहा था- “राज्य व्यक्ति के नैतिक विकास में बाधक है, व्यक्ति का नैतिक विकास उसकी आंतरिक इच्छाओं पर निर्भर है लेकिन राज्य का गठन शक्ति पर आधारित होने के कारण बाह्य कार्य को भी प्रभावित कर सकता हैं।“ राज्य को अनैतिक इसलिए कहा कि वह हमें सब कार्य अपनी इच्छा से नहीं वरन् दण्ड के भय और कानून की शक्ति से करने के लिए बाध्य करता है। गांधीजी मूलतः राज्य विरोधी होते हुए भी यह स्वीकार करते है कि राज्य का उन्मूलन तत्काल संभव नहीं हैं। स्पष्ट है कि वे व्यवहारिक आदर्शवादी थे। उनका मानना था कि वर्तमान परिवेश में राज्य का उन्मूलन संभव नहीं है। लेकिन राज्य के कार्यक्षेत्र को न्यूनतम किया जा सकता है जिसमें सत्ता का विकेन्द्रकरण अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

गांधीजी का राष्ट्रवाद औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति से प्रेरित था तथापि वह पश्चिम की राष्ट्रवाद की अवधारणा से कई मायने में भिन्न था। वह अपने उद्देश्य प्राप्ति हेतु किसी भी प्रकार के हिंसक और आक्रमक तरीको के खिलाफ था। गांधीजी ऐसे राष्ट्रवाद को स्वीकार नहीं करते जिसकी बुनियाद हिंसा पर आधारित हो। वे इस उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु अहिंसा के सिद्धान्तो के उपयोग के पक्षधर थे क्योंकि उनका मानना था कि प्रेम या आत्मा की ताकत के सामने हथियारों की ताकत निरीड और निष्प्रभावी हैं। वे यह भी मानते थे कि हिंसा न केवल हिंसक प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है वरन् यह संवाद के रास्ते को भी समाप्त करती है। 

गांधीजी के राष्ट्रवाद में राजनीति के आध्यात्मीकरण का सिद्धान्त परिलक्षित होता है। गांधीजी का कहना था कि- “मेरी दृष्टि में धर्म के बिना कोई राजनीति का कोई मोल नहीं, धर्म के बिना राजनीति मौत का जाल है जो आत्मा की हत्या कर देता है।“ इसी कारण उन्होंने नास्तिकवाद की नीति पर आधारित सभी समकालीन दर्शनों की निंदा की हैं। परन्तु इस दिशा में गांधीजी के आशय को सूक्ष्म तरीके से समझना चाहिए। उनका मानना था कि राजनीति गुटबंदी नहीं है इसका सत्य और न्याय से जोड़ जरूरी हैं। धर्म एक रचनात्मक पथ है जिस पर लोग अपने विश्वासों और प्रयोगों के आधार पर दैवी पथ का अनुकरण कर सकते हैं। इसी आधार पर सर्वोदयी समाज संभव हैं। सर्वोदयी समाज लोकमत पर आधारित होता है जो राष्ट्र की अंतर्निहित शक्ति को अभिव्यक्त करती है और राजनीतिक शक्ति के स्थान पर लोकशक्ति का वर्चस्व स्थापित हो जाएगा।

गांधीजी ने शक्ति आधारित राज्य की जगह एक आदर्श राज्य का स्वरूप प्रस्तुत किया जिसे उन्होने ’राम राज्य’ शब्द से सम्बोधित किया है। गांधीजी ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि धार्मिक दृष्टि से आदर्श राज्य या रामराज्य का अर्थ है - पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य। राजनीतिक दृष्टि से यह पूर्ण प्रजातंत्र है, जिसमें गरीबी और अमीरी, रंग और मतान्तर के आधार पर स्थापित असमानताओं की सर्वथा अंत हो जाता है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्राप्त होगी और प्रत्येक व्यक्ति को अपने तरीके से उपासना, स्वतंत्र लेखन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होगी। गांधीजी के अनुसार मैं तो ऐसे भारत निर्माण के लिए कार्यरत रहूॅगा जिसमें गरीब से गरीब व्यक्ति भी यह अनुभव करें कि यह उसका अपना देश है जिसके निर्माण में उसकी प्रभावशाली भूमिका है।

सत्य और अहिंसा गांधीजी के मिशन के मूल में थे और यही उनके राष्ट्रवाद के आधार भी थे। भारत उनकी व्यवहार भूमि थी और वे इस बात पर विश्वास करते थे कि अगर इंसानियत को बने रहना है और सौहार्द के साथ जीना है तो राष्ट्रवाद की जिस परिकल्पना में वे पले-बढ़े उसे अनवरत विस्तृत होते जाना है और अंततः विश्वबंधुत्व में परिणत हो जाना है।

गांधीजी समझते थे कि ब्रिटिश हुकूमत के तहत भारत के एक राजनीतिक इकाई बनने से पहले देश में एक होने की भावना थी और वह हमारी सांस्कृतिक विरासत की देन थी। गांधीजी की शख्सियत जल्दी ही भारत की सांस्कृतिक विरासत की एक प्रतीक बन गई। गांधीजी का राष्ट्रवाद भारत की सांस्कृतिक विरासत पर आधारित था, जिसकी गहरी जड़े भारत के मानव संसाधन और इसकी ऊर्जा में थीं। गांधीजी उन नेताओं में थे जिन्होंने सबसे पहले यह पहचाना और इस बात पर बल दिया कि भारत अपने गावों में रहता है। ऐसा करके उन्होंने मुट्ठी भर शिक्षित लोगों और करोड़ो अशिक्षितों के बीच विभाजक रेखा मिटा दी। इसने देश की संपूर्णता में एकत्व का बोध दिया जो कि स्वस्थ राष्टवाद का आधार था।

निष्कर्ष -

गांधीजी द्वारा वर्णित राष्ट्रवादी विचारधारा मानवतावाद के साथ अभीष्ट रूप से जुड़ा है। उन्होनें साम्यवादी और साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद को कभी स्वीकार नहीं किया। वह लोक मानवतावाद के पक्षधर थे। चूॅकि भारतीय राष्ट्रवाद औपनिवेशिक शासन का विरोध और उसके विरूद्ध संघर्ष से बहुत कुछ प्रभावित है। इसलिए गांधीजी ने राष्ट्रवाद की इस अनुभूति को जन आंदोलन का रूप प्रदान किया। व्यापक और विशाल जनमानस को लाभबंद करने के लिए उन्होंने अहिंसक आंदोलनों को चलाया तथा राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को अक्षुण्ण रखने के लिए रचनात्मक कार्यक्रमों को देश की जनता के सम्मुख रखा। गांधीजी ने भारत की विविधतापूर्ण सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक ताने-बाने के प्रति एक समन्वित दृष्टिकोण दिया। व्यक्ति एवं समाज के नव-अस्मिता निर्धारण को प्रस्तुत कर गांधीजी ने निश्चय ही राष्ट्रवाद के असीमित क्षितिज को व्यावहारिकता से संयोजित करने का संकल्प किया। विशाल जनमानस को एक मंच पर लाने के लिए अहिंसक आंदोलन को न केवल चलाया बल्कि ‘जिओ और जीने दो‘ के सिद्धान्त को भी आगे बढाया। उन्होने राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को कायम रखने के लिए अनेक रचनात्मक कार्यक्रम को लोगों के सम्मुख रखा। वे अपने राष्ट्रवाद के द्वारा न सिर्फ भारत की स्वतंत्रता चाहते थे बल्कि एकता और अखण्डता अक्षुण्ण रखना चाहते थे। अतः गाँधीजी राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ अंतराष्ट्रीयवादी भी है जो “वसुधैव कुटम्बकम की सशक्त अवधारणा को आधार बनाते है। उनके विचार में दूसरों को क्षति पहुँचाकर राष्ट्र कभी भी उन्नति नहीं कर सकता। स्पष्ट है कि गॉधीजी ने राष्ट्रवाद का रास्ता इस देश के लोगों को दिखाया, उस रास्ते पर चलने को आज कितने लोग राजी है, यह कहना तो मुश्किल है परन्तु यह भी सच है कि वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में गॉंधी के राष्ट्रवाद का कोई विकल्प भी नही है।


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