गांधीजी का अहिंसा, सत्याग्रह और असहयोग सम्बन्धी विचार :
भारत को स्वतंत्रता दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले महात्मा गॉंधी एक महान राजनीतिज्ञ व स्वतंत्रता सेनानी ही नही अपितु वह एक सामाजिक व धार्मिक चिन्तक भी थे और भारतीय समाज में धर्म तथा परम्परा के नाम पर प्रचलित दोषों को समाप्त करने के लिए सतत आजीवन प्रयत्नशील रहे। उनकी धर्म में विशेष आस्था थी। गंभीर चिन्तक होने के कारण उन्होंने एक दार्शनिक दृष्टिकोण अपना लिया था और उसी दृष्टिकोण से उनका बैयक्तिक, सामाजिक, और राजनीतिक जीवन संचालित हुआ। उनका दार्शनिक दृष्टिकोण तात्कालीन मार्क्सवादी हिंसात्मक क्रान्ति के विपरित अहिंसात्मक था।
गांधीजी की अवधारणा थी कि भारत में एक आदर्श समाज की स्थापना की जाय। अपनी इस अवधारणा को कार्यरूप देने के लिये जिस सम्प्रभुत्व समाज व राज्य का स्वरूप उनके मानस पटल पर था उसका आधार नैतिकता थी। आदर्श राज्य की कल्पना तो सहज हो सकती है परन्तु उनकी वास्तविक अनुभूति अत्यन्त कठिन कार्य है क्योंकि ऐसे समाज या राज्य तभी अस्तित्व में आ सकते है जब उस समाज या राज्य का रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति आदर्श हो। सत्य, अहिंसा एवं त्याग के मार्ग पर मननशील व्यक्ति ही ऐसी दशा को प्राप्त करने में सफल हो सकता है।
गाँधीजी के अहिंसा पर विचार-
गांधीजी ने कहा कि अहिंसा का अर्थ पृथ्वी पर किसी वस्तु को विचार, शब्द या कर्म के द्वारा हानि न पहुंचाना है। अतः अहिंसा का अर्थ केवल भौतिक चोट पहुँचाना नही, जो आदमी मन में भी दूसरों की बुराई सोचता है वह भी हिंसक है। अहिंसा का यह अर्थ नहीं है कि गाजर, मूली न खाई जाय क्योंकि वह जीवित है। अहिंसा का अर्थ यह भी नहीं है कि नरभक्षी पशु को न मारा जाय। गांधीजी का तो यहाँ तक कहना है कि अगर कोई व्यक्ति ऐसी बीमारी से ग्रस्त ह,ै जो लाइलाज है और उसके जीवित रहने की संभावना कम ही है तथा वह स्वयं भी मृत्यु चाहता है तो उसे जहर देकर मारने में बुंराई नही है। उन्होंने स्वयं अपने बछडे को जहर देकर मार डाला क्योंकि वह लाइलाज था और असहनीय पीडा से युक्त था। परन्तु ऐसा करते समय निम्न बाते ध्यान में रखी जाय -
1. बीमारी लाइलाज हो।
2. सभी संबंधित लोगो को उसके बचने की कोई आशा न हो।
3. उसको किसी प्रकार नहीं बचाया जा सकता हो।
4. रोगी स्वयं अपनी इच्छा नही बता सकता या वह स्वयं यह समझता हो कि वह बच नही सकता है।
गांधीजी के सत्याग्रह सम्बन्धी सिद्धान्त -
गांधीजी सत्याग्रह को आत्मा की शक्ति मानते थे। साहित्यिक दृष्टि से सत्याग्रह का अर्थ सत्य पर आग्रह करना या उस पर डटे रहना है परन्तु यह काम आसान नही है। सर्वप्रथम तो व्यक्ति को सत्य की खोज करनी होती है, जो आत्मा के अन्तःकरण से होता है। उसके बाद उस सत्य पर अटल रहना होता है। जो व्यक्ति हर परिस्थिति में सत्य पर डटे रहता है, वही सत्याग्रही होता है। कुछ लोग सत्याग्रह को दुर्बलो का साधन मानते है परन्तु यह गलत है। सत्याग्रही वही हो सकता है जिसमे आत्मा का बल हो। सत्याग्रही निडर होना चाहिये। इसके लिये मोटा-तगड़ा होना भी जरूरी नही है, इसके लिये तो नैतिक बल जरूरी है।
गाँधीजी का कहना था कि अगर कोई व्यक्ति अन्यायपूर्ण दमन को शान्ति से देखता रहता है तो वह असत्य को सत्य पर हावी होने का अवसर देता है, ऐसी दशा में वह सत्याग्रही नहीं हो सकता है। सत्याग्रह का अर्थ अन्याय को शान्ति से सहन करना नही है, अतः सत्याग्रह का लिए व्यक्ति का निडर होना आवश्यक है। क्यांकि उसके लिए बगैर मौत मरने के लिये तैयार रहना पडेगा। बगैर किसी को मारे स्वयं मर जाना ही बड़ा कठिन कार्य है। परन्तु यदि किसी में इतनी निडरता भी नही है तो उसे डर-डर कर भागने के बजाय मरना या मार देना चाहिए।
सत्याग्रह और अहिंसा में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि अहिंसा भौतिक कार्यवाही या दबाव में विश्वास करती है और सत्याग्रह नैतिक शक्ति में। ऐतिहासिक दृष्टि से सत्याग्रह का व्यक्तिगत रूप से पहले भी प्रयोग किया जा चुका है परन्तु गाँधीजी ने उसका सामाजिक तथा राजनीतिक शस्त्र के रूप में प्रयोग किया है।
गांधीजी के असहयोग सम्बन्धी विचार -
गाँधीजी का मत है कि समस्त बुराइयों को दूर करने के लिये असहयोग ही सबसे उपयुक्त साधन है। अगर कोई पिता अपने बच्चो के प्रति अन्याय करता है तो बच्चों को घर छोड़ देना चाहिये, यदि कोई विद्यालय अनैतिक शिक्षा देता है तो विद्यार्थी को वह स्कूल छोड़ देना चाहिए। इसी तरह कोई शासक अगर अन्याय करता है तो उसके साथ सहयोग बन्द कर देना चाहिये। मुट्टी भर अंग्रेज भारत में इतने दिन तक इसलिए बने रहे क्योंकि भारतीय उनके साथ सहयोग करते रहे थे इसलिये गांधीजी ने 1920 ई0 में अपना असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया। परन्तु यह असहयोग शान्तिपूर्ण और अहिंसात्मक होना चाहिये। हिंसात्मक असहयोग से अराजकता उत्पन्न होती है। सरकार की अवज्ञा शान्तिपूर्ण भक्ति और आदर के साथ की जानी चाहिये। गाँधीजी का कहना था कि असहयोग पूरी तरह एक लोकतांत्रिक साधन है। हालॉकि लोकतांत्रीक शासन में प्रायः इसकी आवश्यकता नही होती है परन्तु अगर शासक जनता की उपेक्षा करने लगे तो असहयोग द्वारा जैसे- कर न देना, शासन का बहिष्कार करना आदि शस्त्र से उसका विरोध किया जा सकता है।
गांधीजी का राम राज्य-
गाँधीजी ने जिस राज्य व्यवस्था की संकल्पना प्रस्तुत की थी उसे रामराज्य के नाम से जाना जाता है। गांधीजी के अनुसार- धार्मिक दृष्टि से रामराज्य का तात्पर्य है पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य। राजनीतिक दृष्टि से यह पूर्ण प्रजातन्त्र है जिसमे गरीबी एवं अमीरी तथा रंगभेद के आधार पर स्थापित असमानताओ का सदा सदा के लिये अन्त हो जाता है। रामराज्य में भूमि तथा राज्य पर जनता का स्वामित्व होता है, न्याय शीघ्रता से मिलता है इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को अपनी अभिरूचि, इच्छा एवं आवश्यकतानुसार पूजा-पाठ, विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लेखन, व्यवसाय, जीवन यापन की स्वतन्त्रता प्राप्त होती है। नैतिक प्रतिबंध की स्वेच्छया आरोपित के राज्य के कारण ही यह सब संभव हो पाता है।
गाँधीजी के शब्दो में- ‘‘मेरा स्वराज्य राजनीतिक स्वतन्त्रता तक ही सीमित नही है। मैं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्मराज के सत्य और अहिंसा के शासन को स्थापित हुआ देखना चाहता हूँ। दासता की जंजीरो में जकड़े रहना मनुष्य के गौरव के विरुद्ध है--- मेरे लिये देशभक्ति वही है जो कि मानवता के कल्याण में समर्थ है। मेरी जीवन योजना में साम्राज्यवाद के लिये कोई स्थान नहीं है। मैं मानव की ही नही समस्त जीवित प्राणियों की एकता में विश्वास रखता हूँ। मेरा ऐसा विश्वास है कि अगर व्यक्ति आध्यात्मिक दृष्टि से उॅंचा उठता है तो समस्त संसार को इससे लाभ पहुंचता है। मै तो एक ऐसे भारत के निर्माण के लिये कार्यरत रहूंगा जिसमे गरीब से गरीब व्यक्ति भी यह अनुभव करे कि इस देश के निर्माण में उसकी प्रभावशाली आवाज है..... एक ऐसा भारत जिसमें सब जातियाँ पारस्परिक एकता और सदभावना के स्नेह सूत्र में बँधी हुयी मिल जुलकर रहेगी। ऐसे सुन्दर भारत में अश्पृश्यता, मद्यपान, नशीली वस्तुओं के सेवन के लिये कोई स्थान नही हो सकता है। महिलाओं को भी वही अधिकार प्राप्त होंगे जो पुरुषो को। मेरे स्वप्नों के भारत का यही रूप है।“
विद्वानों ने गांधी के रामराज्य को अहिंसक प्रकृति का नहीं माना है क्योंकि पूर्ण अहिंसक राज्य वास्तव में राज्य नही रह जाता। अहिंसक राज्य का आधार सत्याग्रह हो सकता है। स्वयं गाँधीजी ने भविष्य के अहिंसक राज्य की कोई रूपरेखा प्रस्तुत नही की है। बहुत सामान्य बात है कि साधक की शक्ति सम्पन्नता से साधन अहिंसक होना असंभव है।
गाँधीजी का आदर्श लोकतन्त्र सत्याग्रही ग्रामीण समाज के संघो पर स्थित है। यह ऐसा समाज होगा जो आत्मनिग्रह, संयम, त्याग और अहिंसा का पूर्णतः परिपालन करेगा। वे सामाजिक समानता, अपरिग्रह तथा श्रम द्वारा निरर्थक सामाजिक विद्वेष एवं प्रतिद्वन्दिता को समूल नष्ट कर देना चाहते थे। उन्होंने समाज में आर्थिक तथा सामाजिक समता लाने के लिये श्रम पर आधारित आजीविका, वर्णव्यवस्था पर अपरिग्रह की अवधारणा को अत्यन्त युक्तियुक्त तथा समीचीन बताया था।
शोषण, सामन्तवाद, जमींदार, जागीर दार तथा पूँजीवाद पर आधारित समाज गाँधीजी के विचार से सकल मानवता के लिये कुष्ठ रोग तुल्य था और यही कारण है कि वे कुटीर उद्योग के पक्षधर थे। उनकी मान्यता थी कि कारखानो तथा बडे-बडे आद्योगिक प्रतिष्ठानों की स्थापना से वर्गसंघर्ष उत्पन्न होगा तथा श्रमिकां एवं पूँजीपतियों के बीच खाई चौड़ी होगी तथा अहिंसा पर आधारित समाज का अवचिन्तन व्यर्थ होगा। महात्मा गाँधी ऐसे समाज के समर्थक रहे जिसमें लोकतांत्रिक समाज हो तथा ऐसा समाज स्वाबलम्बी तथा आत्मनिर्भर गाँवो में विर्निमित होगा।
गाँधीजी का आदर्श समाज भारी वाहनों, वकीलां, न्यायालयों आधुनिक चिकित्सकों तथा उनकी चिकित्सा पद्धति से रहित होगा। देशीय उपकरणों, वस्तुओं, यातायात साधनों का पूर्ण उपयोग होगा तथा नैतिकता पर जीवन यापन करना, व्यक्ति रोगादि के निवारण के लिये प्राकृतिक चिकित्सा यौगिक क्रिया आदि से तन-मन को स्वस्थ रखकर आत्मनियन्त्रण तथा आत्मसंयम का आचरण करना मानव हित में कार्य करेगा।
वैसे गाँधीजी का स्वयं विश्वास था कि उनका आदर्श समाज या रामराज्य सम्भव नही फिर भी हमारा प्रयास अवश्य उस दिशा मे होना चाहिये। अतः गाँधीजी का रामराज्य वह है जिसमे राजा-रंक के बीच कोई असमानता न हो तथा समाज में अहिंसा तथा सत्याग्रह का पूर्ण स्थान हो। मनुष्य अपना जीवन नैतिकता पर आधारित मूल्यों के परिपालन द्वारा बिताये। किसी भी मनुष्य को अपनी साध्य की प्राप्ति हेतु ऐसे साधनों का प्रयोग करना चाहिये जो औचित्यपूर्ण, शुभ और नैतिक हो। सूक्ष्म रूप से गाँधीजी के रामराज्य की विशेषता ष्ळत्म्।ज्म्ैज् ळव्व्क् व्थ् ज्भ्म् ळत्म्।ज्म्ैज् छन्डठम्त्ष् कहा जा सकता है।
वास्तव मे गांधीजी किसी राष्ट्र या जाति या व्यवस्था विशेष की सीमाओं से परे होकर महामानव थे, इसलिये उनका दर्शन-विचार भले ही किसी राष्ट्र के लिये पूर्णतया हितकारी न हो परन्तु जब पूरा विश्व एक होगा एवं सम्पूर्ण मानव की केवल एक ही जाति होगी तो उनका दर्शन एवं विचार ही एकमात्र समाज का निर्धारक होगा।