window.location = "http://www.yoururl.com"; Theory of Nationalism | राष्ट्रवाद के सिद्धान्त

Theory of Nationalism | राष्ट्रवाद के सिद्धान्त

 

विषय प्रवेश (Introduction) :

आधुनिक विश्व के इतिहास में ऐसी कई प्रभावशाली विचारधाराएं एवं सिद्धांत हुए हैं जिनमें विश्व इतिहास की दिशा बदलने की क्षमता रही है। फ्रांसीसी क्रांति के दौरान अवतरित हुए तथा कई विद्वान राजनीतिक विचारकों के अनुसार सम्पूर्ण बीसवी सदी की अधिकांश उथल-पुथल हेतु उत्तरदायी, ऐसे ही एक शक्तिशाली एंव आकर्षक राजनीतिक सिद्धांत का नाम है ’राष्ट्रवाद’। विद्वानों का मानना है कि राष्ट्रवाद ने आधुनिक इतिहास को आगे बढ़ाने में कई तरह से ईंधन का कार्य किया है तथा लगभग प्रत्येक आधुनिक राष्ट्र इससे प्रभावित हुआ। हालांकि राष्ट्रवाद की प्रकृति प्रत्येक राष्ट्र में भिन्न-भिन्न रही है। 

सही मायने में देखा जाय तो राष्ट्रवाद एक ऐसी सशक्त भावना है जो किसी राष्ट्र के प्रति उसके नागरिकों की निष्ठा, प्रेम और समर्पण का प्रतीक होती है। यह राष्ट्रवाद की भावना ही है जो किसी देश के नागरिकों को एकता बनाये रखने के लिए प्रेरित करती है, उन्हे अपने सांस्कृतिक मूल्यों से प्यार करना सिखाती है और खुद से पहले राष्ट्र को अहमियत देने की प्रेरणा देती है। राष्ट्रवाद को एक राजनीतिक-सांस्कृतिक सिद्धांत के रूप में भी देखा जाता है और इसे एक जनभावना भी बताया गया है तथा कुछ विचारकों ने इसे एक आंदोलन भी माना है तो बहुतों ने इसे एक विशेष प्रकार की विचारधारा भी कहा है। लेकिन ’राष्ट्रवाद’ के प्रयोग, उपयोग एवं परिणाम को देखते हुए सामान्यतः ’राष्ट्रवाद’ को एक ’दोधारी तलवार’ के रूप में विश्लेषित किया जाता है जो कि एक तरफ किसी राष्ट्र के लोगों के लिए एक वरदान साबित हो सकती है जो उन्हें आपसी विभिन्नताओं एंव विविधताओं के वाबजूद तथा मतभेदों को दरकिनार कर एक प्रकार की ’जोड़ने वाली शक्ति (Binding Forces) की तरह कार्य करे। वहीं दूसरी तरफ एक विनाशकारी शक्ति का भी यह रूप ले सकती है यदि राष्ट्रवाद का सहारा लेकर किसी राष्ट्र में एक धर्म अथवा प्रजाति के लोगों की श्रेष्ठता स्थापित करते का प्रयास किया जाए या जब राष्ट्रवाद के नाम पर युद्ध को न्यायोचित बताया जाए। राष्ट्रवाद के दोनों ही स्वरुपों को पूरा विश्व पिछले दो-ढाई सदी में देख चुका है। राष्ट्रवाद ने जहाँ एक तरफ यूरोप में राजतांत्रिक तानाशाही की समाप्ति हेतु लोकतांत्रिक क्रांतियों द्वारा यूरोप के लोकतंत्रीकरण में योगदान दिया तो वहीं दूसरी ओर इसने देशों के मध्य कटुता, युद्धों एंव अस्त्र-शस्त्र की स्पर्धा को भी बढावा दिया जिसके परिणामस्वरूप अंततः विश्वयुद्ध छिड़ गया। इसके साथ ही राष्ट्रवादी भावनाओं ने जहां एक तरफ उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद को ध्वस्त कर बहुत से देशों को आजादी तथा लोकतांत्रिक शासन प्रणाली प्रदान की तथा शोषण से मुक्ति दिलाई तो वहीं दूसरी ओर हिटलर, मुसोलिनी, स्टॉलिन एंव माओत्सेतुंग जैसे नेताओं के हाथों में आकर यही राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद व तबाही का वाहक भी बना है, इसके अतिरिक्त राष्ट्रवाद ने जहां संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट्र को दुनिया के सामने खड़ा किया तो वहीं इसी तरह की राष्ट्रवादी भावनाओं ने ही कई शक्तिशाली राष्ट्रों को टुकड़ों में विभाजित भी किया है।

उपरोक्त से स्पष्ट है कि राष्ट्रवाद का स्वरूप समय, परिस्थिति, उद्देश्य एंव नेताओं-राजनीतिज्ञों के विचारों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है, यही कारण है कि राष्ट्रवाद जैसे गतिशील व जीवंत सिद्धांत की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी जा सकी है तथा विभिन्न विचारकों ने राष्ट्रवाद के भिन्न-भिन्न प्रकार एंव भेद बताये हैं किन्तु फिर भी यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता कि राष्ट्रवाद वर्तमान समय में भी एक बहुत ही आकर्षक एवं प्रभावशाली सिद्धांत है जो कि आज भी विभिन्न राष्ट्रों की आंतरिक राजनीति एंव विदेश नीति को विभिन्न तरह से प्रभावित कर रहा है।

भारतीय राष्ट्रवाद -

जहाँ तक भारतीय राष्ट्र एंव राष्ट्रवाद का प्रश्न है तो इस संबंध में विभिन्न विचारकों के विचार भिन्न-भिन्न हैं। भारतीय राष्ट्र के संबंध में विभिन्न राजनीतिक विद्वानों के विचारों को प्रमुख रूप से तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

1. पहले वग में जॉन स्ट्रैची, एंडरसन जैसे पश्चिमी इतिहासकार है जिनका मानना है कि भारतीय प्रायद्वीप में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व कोई राष्ट्र नही था या भारत एक राष्ट्र बना भी तो ब्रिटिश शासन की वजह से।

2. दूसरे वर्ग में महात्मा गांधी, नेहरू, तिलक जैसे स्वतंत्रता आन्दोलन से जुडे राष्ट्रवादी इतिहासकार है जिनका मानना है कि भारत एक प्राचीन राष्ट्र है जिसमें कहीं न कहीं भौगोलिक-सांस्कृतिक एकता की चेतना थी जिसे एक न एक दिन आधुनिक राष्ट्र बनना ही था।

3. तीसरा वर्ग सावरकर जैसे हिन्दू राष्ट्रवादी एवं तथाकथित सांस्कृतिक राष्ट्रवादी इतिहासकारों का है जिनका मानना है कि भारत एक प्राचीन हिन्दू राष्ट्र है तथा इसे हिन्दू राष्ट्र ही बनाया जाना चाहिए।

इन तीनों ही विचार वर्ग के विद्वानों के पास एक-दूसरे के तर्कों के स्वभाविक उत्तर एवं स्वयं के विचारों की पुष्टि हेतु स्वघोषित प्रमाण हैं।

अतः कहा जा सकता है कि राष्ट्रवाद लोगो के किसी समूह की उस आस्था का नाम है जिसके तहत वे खुद को साझा इतिहास, परम्परा, भाषा, जातीयता और संस्कृति के आधार पर एकजुट मानते हैं। इन्हीं बंधनो के कारण वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि उन्हें आत्म निर्णय के आधार पर अपने संप्रभु राजनीतिक समुदाय अर्थात् राष्ट्र की स्थापना करने का आधार है। कुल मिलाकर यह स्वीकार किया जा सकता हैं कि राष्ट्रवाद एक मानसिकता है जो किन्ही विशेष प्रकार के लोगो को एकताबद्ध करके उनके समूह को राष्ट्र बना देती है। ऐसी मानसिकता का कोई प्रेरक तत्व हो सकता है जैसे- धन, समान मूलवंश या नस्ल, समान जाति, समान इतिहास, समान भाषा, समान सभ्यता और संस्कृति आदि राष्ट्रवाद की भावना कहीं भी अंकुरित हो सकती है। 

भारतीय राष्ट्रवाद के संबंध में यह बात लगभग निर्विवाद रूप से सत्य है कि भारत में राष्ट्रवाद एवं आधुनिक प्रकृति की राष्ट्रीयता की चेतना का विकास ब्रिटिशों की अप्रत्यक्ष देन है। भारतीय राष्ट्रवाद की प्रकृति औपनिवेशिक शोषण-विरोधी थी। भारत में राष्ट्रवाद का विकास ब्रिटिशों द्वारा किये जा रहे औपनिवेशिक शोषण तथा उससे प्रस्फुटित भारतीय जनमानस में अंग्रेजों के विरुद्ध घृणाभाव तथा भारतीय अभिजन वर्ग में आयी आत्म-सुधार की चेतना के परिणामस्वरूप हुआ। इसके अतिरिक्त ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में आरंभ हुए सामाजिक एवं धर्मिक सुधार आंदोलन, अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गई देश में राजनीतिक एकता, पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव, अंग्रेजी नीतियों के आलोचक समाचार पत्र-पत्रिकाएं, राष्ट्रवादी-देशभक्ति साहित्य, यातायात तथा संचार साधनों का विकास, पश्चिम में घटित क्रांतियों का प्रभाव आदि-इत्यादि सभी घटनाक्रमों ने भारतीय राष्ट्रवाद को विकसित करने में योगदान दिया। इसके अतिरिक्त तिलक, गांधी, नेहरू इत्यादि आंदोलनकारी नेताओं की असाधारण नेतृत्व कला एवं क्षमता ने भी इस कार्य में निर्णायक भूमिका निभाई।

विभिन्न् विचारकों का मानना है कि ब्रिटिश शासन द्वारा अपने हितों की पूर्ति हेतु अपनाये गए विकासवादी स्वरूप ने यदि भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म के लिए पृष्ठभूमि तैयार की तथा अप्रत्यक्ष रूप से योगदान किया तो वहीं उसके प्रतिक्रियावादी एवं दमनकारी स्वरूप ने इस प्रक्रिया में ’आग में घी’ का कार्य किया।

भारतीय राष्ट्रवाद का अध्ययन करने पर अखिल भारतीय स्तर पर इसके मुख्यतः दो भिन्न दृष्टिकोण अथवा स्वरूप सामने आते हैं-

1. धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद (भारतीय राष्ट्रवाद) 2. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (हिन्दु राष्ट्रवाद)

एक तरफ जहां धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादियों यथा- गोपाल कृष्ण गोखले, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू तथा अम्बेडकर इत्यादि आंदोलनकारी नेताओ का राष्ट्रवाद आधुनिकतावादी, विविधता में एकता को स्वीकार करने वाला तथा उदार संवैधानिक मूल्यों से प्रभावित राष्ट्रवाद है, तो वहीं दूसरी ओर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है, जो मुख्यतः हिन्दू राष्ट्रवाद का द्योतक है। 

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