window.location = "http://www.yoururl.com"; Chuaar Rebellion(1798-99) | चुआड़ विद्रोह

Chuaar Rebellion(1798-99) | चुआड़ विद्रोह

 


चुआड़ विद्रोह :

1719 ई0 में बॉकुडा जिले के दक्षिण-पश्चिम और मेदिनीपुर जिले के उत्तर-पश्चिम हिस्से में बड़ा विद्रोह हुआ जिसे साधारणतः चुआर या चुआड विद्रोह के नाम से जाना जाता है।

बांग्ला के शब्द-कोष के अनुसार चोआड़ शब्द का अर्थ है दुर्वृत्त और नीच जाति। बांग्ला में गाली के रूप में इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। लगता है कि इस शब्द के अर्थ के पीछे सामन्त-जमींदारों का वर्ग-विद्वेष उसी तरह काम करता रहा है जैसे हिन्दी के ‘चमार’ शब्द के पीछे। दरअसल ये उक्त अंचल के आदिवासी थे। यह जंगल प्रधान अंचल था और अंग्रेजों के पहले ’जंगलमहाल’ कहलाता था। चोआड़ जंगल साफ कर खेती करते. पशु पक्षियों का शिकार करते और जंगल में पैदा होने वाली वस्तुओं को बेच कर गुजारा करते थे। उनमें से अधिकांश स्थानीय जमींदारों के यहाँ पाइक यानी सिपाही का काम करते थे। वेतन के बदले उन्हें जमीन दी जाती थी जो पाइकान जमीं कहलाती थी। तीर-धनुष, बरछी, फरसा आदि उनके हथियार थे। किसी-किसी के पास बंदूकें भी होती थी।

अंग्रेज शासकों ने कब्जा जमाते ही चुआड़ों की पुश्तैनी जमीनें छीन-छीन कर नये जमींदारों के साथ देखना और इन जमीदारों के साथ मिल कर नयी ’प्रजा’ बसाना शुरू किया। साथ ही पाइकों को हटा कर बाहर से ला-लाकर पुलिस को उनकी जगह नियुक्त किया। अनुमान लगाया जाता है कि इससे लगभग पच्चीस हजार पाइक जमीन, घर-द्वार, जीविका का साधन सबकुछ खोकर दर-दर ठोकरें खाने लगे। इन सिपाहियों और किसानों की सम्मिलित शक्ति नें विद्रोह की वह आग लगा दी जिसे बुझाना अंग्रेज शासकों के लिए बड़ा कठिन हो गया था।

अंग्रेज शासकों ने कितने ही पुराने जमींदारों के हाथ से जमीन छीन ली थी क्योंकि वे बेशुमार बढाये गये लगान को चुकाने में असमर्थ थे। ऐसे पुराने जमींदारों में से भी कुछ इस विद्रोह में शामिल हो गये। रायपुर परगने के दुर्जन सिंह ऐसे ही जमींदार थे। उनके नेतृत्व में चुआड विद्रोहियों ने मेदिनीपुर जिले में अंग्रेज शासन उखाड फेंका। ब्रिटिश शासकों को खुद स्वीकार करना पडा है कि इस विद्रोह का मूल कारण चुआड़ किसानों और पाइको से जमीन और जीविका का छीना जाना था। मेदिनीपुर के तात्कालीन कलक्टर ने राजस्व बोर्ड के पास 25 मई 1798 ई0 को लिखा कि -

प्राचीन काल से जो अपने दखल की गई जमीन का भोग करते आ रहे थे, उन्होने देखा कि बिना अपराध और बिना कारण जमीन भोगने का उनका अधिकार जान-बूझकर छीन लिया गया, इस बहाने की सरकारी पुलिस के खर्च और गुजर के लिए यह जरूरी है, और उन्हें सारी सम्पत्ति से वंचित कर दिया गया अथवा उस जमीन पर इतना ज्यादा राजस्व लगाया गया जिसे देने की क्षमता उनमें नहीं। उन्होंने यह भी देखा कि आवेदन-निवेदन से कोई फायदा नहीं हुआ। ऐसी हालत में पहला मौका मिलते ही उन्होंने अस्त्र धारण कर अपने से छीनी गयी जगह-जमीन वापस पाने की चेष्टा की। इसमें आश्चर्य या क्रोध करने का कोई कारण नहीं हो सकता।

आगे चलकर मेदिनीपुर के प्रधान सेटेलमेंट अफसर जे0सी0 प्राइस ने ’चोआड़ विद्रोह’ (Chuaar Rebellion) नामक पुस्तक में लिखा कि - बहुतों के मतानुसार, जैसे दूसरे सारे आदिवासी प्रायः जंगल और पहाड़ से निकल कर चारों तरफ लूट-मार तथा अराजकता पैदा करते हैं, चोआड़ विद्रोह भी उसी तरह की एक घटना है। लेकिन मेरा खयाल है, और ऐसा विश्वास करने के काफी कारण हैं कि मेदिनीपुर की रानी की जमींदारी के पाइकों की जागीर-जमीन दखल करने के लिए कई साल पहले जो आदेश जारी किया गया और जो बाद में आंशिक रूप से कार्यरूप में परिणत किया गया था, उसी के कारण जमींदारों और पाइकों में बड़ा असंतोष दीख पड़ा था। उसी से विक्षुब्ध पाइकों के एक हिस्से को चोआड़ विद्रोह में शामिल होने की अंतिम प्रेरणा मिली थी। पाइकों को जीवन रक्षा के लिए इसे छोड़ कर दूसरा कोई उपाय खोजे नहीं मिला। 

मेदिनीपुर जिले के रायपुर परगने में विद्रोह पहले आरम्भ हुआ। इस परगने के जमींदार दुर्जन सिंह ने निश्चित समय के अंदर अंग्रेज शासकों को राजस्व न दिया, तो उनकी जमींदारी छीन कर दूसरे आदमी के हाथ ज्यादा कीमत पर बेच दी गयी। दुर्जन सिंह ने बदला लेने के लिए विद्रोही पाइकों और चुआड़ों से मदद माँगी। विद्रोहियों ने नये जमींदार को भगा दिया और रायपुर पर अधिकार कर लिया। अंग्रेज शासकों ने कुछ दिन पहले रायपुर परगने की जिन जमीनों को पाइकों से छीन कर नये जमींदार के हाथ बेचा था, उन सब जगहों में विद्रोहियों ने नव-नियुक्त तहसीलदारों को हुक्म दिया कि भूखे पाइकों के लिए काफी चावल-दाल भेजो। साफ कह दिया गया कि अगर तहसीलदारों ने यह हुक्म न माना तो दूसरे उपाय से उन्हें रसद पहुँचाने के लिए बाध्य किया जायगा। यह हुक्म पाते ही तहसीलदार रायपुर छोड़कर भाग गये।

मार्च 1798 में दुर्जन सिंह के नेतृत्व में डेढ़ हजार विद्रोहियों ने रायपुर परगने के तीस गाँवों पर अधिकार कर लिया। नये जमींदारों ने जिन नये लोगों को लाकर बसाया था, उन्हें मार भगाया गया, बहुत से मौत के घाट उतारे गये। पाइकों और चुआड़ों ने उन जमीनों पर कब्जा कर लिया। जमींदारों के कर्मचारी और थाने के दारोगा मेदिनीपुर भाग गये।

जल्दी ही अंग्रेज शासकों ने रायपुर परगने में सेना भेजी। विद्रोहियों ने उसका मुकाबला किया, पर आखिर में हारकर वहाँ से हट गये। मई 1798 ई0 में फिर दुर्जन सिंह के नेतृत्व में 500 विद्रोहियों ने रायपुर पर धावा बोला। जमींदार के नायब की कचहरी जला दी। गुनारी थाने की कचहरी में स्थित सरकारी सेना के केन्द्र पर हमला किया। दोनों पक्षों में सारी रात भयंकर युद्ध होता रहा। दूसरे दिन दोपहर के जरा पहले विद्रोहियों को हार मान कर हट जाना पड़ा। इसके प्रायः डेढ़ महीने बाद फिर विद्रोहियों की बड़ी सेना ने रायपुर परगने पर हमला किया। इस बार सरकारी सेना को हरा कर उन्होंने इस पगरने के प्रधान बाजार और कचहरी को पूरी तरह नष्ट कर दिया। कुछ समय तक वे सारे परगने पर अधिकार जमाये रहे। इसी बीच मिट्टी का एक दुर्ग बना कर उन्होंने अपनी शक्ति मजबूत की।

जून में विद्रोहियों की एक सेना ने रामगढ़ परगने के अंग्रेजपरस्त जमींदार और उसके कर्मचारियों की जायदाद लूटी। जुलाई में गोवर्द्धन दिक्पति नामक चुआड़ नेता के नेतृत्व में प्रायः 400 विद्रोहियों ने हुगली जिले के चन्द्रकोना परगने पर हमला किया। कलकत्ता से भेजी गयी एक सेना से हारकर विद्रोही वहाँ से पीछे हटे। सितम्बर में नयाबासान और बड़जित नामक परगनों पर विद्रोहियों के हमले हुए। इन दोनों परगनों के धनियों का धन-धान्य उन्होंने लूट लिया। इसके बाद मेदिनीपुर के प्रायः सभी परगनों पर विद्रोहियों ने हमले किये और उन्हें लूटा। इस वक्त की हालत का वर्णन करते हुए जे0सी0 प्राइस ने ’चोआड़ विद्रोह’ में लिखा  है कि - संक्षेप में कहा जा सकता है कि साल के अंत में सारे जिले का कोई अंचल नहीं बचा जहाँ विद्रोहियों का हमला न हुआ हो। इससे अधिकारियों की मानसिक हालत कैसी हो गयी थी, यह इसी से समझा जा सकता है कि रात में मेदिनीपुर शहर के रास्तों में पहरा देने के लिए सारे साल एक सेना नियुक्त रही। 

मेदिनीपुर परगने की हालत सबसे बदतर थी। यह परगना विद्रोहियों का प्रधान केंद्र बन गया। कम से कम 124 गाँव उन्होंने लूट कर जला दिये। ये बड़े-बड़े और नामी गाँव थे। इसके बाद मेदिनीपुर से सिर्फ चौदह मील पर स्थित शालबनी पर आक्रमण आरंभ कर चन्द दिनों के अंदर विद्रोहियों ने उसे तहस-नहस कर दिया। उन्होंने शालबनी शहर में स्थित तहसीलदार की कचहरी, सरकारी आफिस, सेना के बैरक-सब नष्ट कर दिये। सिपाही-बरकन्दाज सभी भाग खड़े हुए। देखते-देखते सारा शहर खाली हो गया। विद्रोहियों ने जमींदारी से संबंधित सारे कागज-पत्र नष्ट कर दिये। जंगलमहाल से राजस्व की वसूली बंद हो गयी। चोआड़ों ने ऐलान कर दिया था कि जो भी राजस्व वसूल करने आयेगा, वह जिंदा वापस न जायगा। डर के कारण कोई राजस्व वसूल करने जाने को तैयार न होता था। मेदिनीपुर के जिला कलक्टर ने राजस्व बोर्ड को चेतावनी दी कि अगर चोआड़ विद्रोह को दमन करने का उपाय न किया गया तो आगामी वर्ष सारे जंगलमहाल में कोई खेती-बारी न होगी।

1799 में विद्रोह की उग्रता और भी बढ़ी। सरकारी अफसर और कर्मचारी, जमींदार और तहसीलदार सब के सब भाग कर मेदिनीपुर में जमा हुए थे। कंपनी की सेना और जिले के विभिन्न अंचलों से देशी सेना लाकर शासकों ने मेदिनीपुर की रक्षा की, लेकिन उसके आसपास के गाँवों को विद्रोही रोज लूटा करते। कलक्टर की नींद हराम हो गयी थी। उसने रेवेन्यू बोर्ड के पास 7 मार्च 1799 को भेजे गये पत्र में लिखा कि - सारे जिले के अधिवासी भागकर मेदिनीपुर में जमा हो रहे हैं। वे अपनी प्राणरक्षा के लिए अधीर हो गये हैं।... हजारों लोग शहर में बंद पड़े हैं। वे शहर के बाहर नहीं जा सकते। सारे मुफ्स्सल अंचल के साथ शहर का सम्बन्ध विच्छिन्न हो गया है।

19-20 मार्च को मेदिनीपुर शहर पर दो हजार विद्रोहियों के आक्रमण की अफवाह सुनकर सब की हालत पतली हो गयी। कलक्टर ने सरकारी खजाने से सारा रुपया-पैसा और कीमती कागजात सेना के शस्त्रागार में भेज दिये। प्रायः इसी समय गोवर्द्धन दिक्पति नामक चोआड़ सरदार के नेतृत्व में दो हजार विद्रोहियों ने मेदिनीपुर जिले के सबसे बड़े गाँव आनंदपुर को लूट लिया और जला कर खाक कर दिया। कहा जाता है कि यह गाँव मेदिनीपुर शहर से भी बड़ा था। सिपाहियों की एक टुकड़ी विद्रोहियों को रोकने गयी, लेकिन मारी गयी। धनी व्यापारियों के इस बड़े गाँव के नष्ट होने से शासक और आतंकित हो गये।

विद्रोहियों के अनुशासन और चरित्र का प्रमाण ’चोआड़ विद्रोह’ नामक पुस्तक में उसके रचयिता जे0सी0 प्राइस के निम्नलिखित शब्दों से पाया जाता है -

विद्रोहियों के आनन्दपुर ग्राम दखल करने के कुछ घंटों बाद ही उनके सरदार मोहनलाल घोड़े पर चढ़कर इस गाँव आये। उन्होंने आते लूटपाट बंद करने का आदेश दिया। साथ ही साथ सब जगह लूटपाट बंद हो गयी। इससे नेता के प्रति विद्रोहियों का अनुगत्य संदेहातीत रूप से प्रमाणित होता है। तब मोहनलाल ने अपना झंडा गाँव के बीच उड़ाने का आदेश दिया। उसी स्थान पर सब ग्रामवासियों को सपरिवार उपस्थित होने के हुक्म की डुग्गी पिटवायी। मोहनलाल ने यह भी सूचित कर दिया कि अगर ग्रामवासी उनका हुक्म मान कर चलेंगे, तो उन पर कोई अत्याचार नहीं होगा। लेकिन अगर ऐसा न किया गया, तो बाकी ग्रामवासियों को तलवार के घाट उतार दिया जायगा और गाँव को जला कर खाक कर दिया जायगा। अवश्य ही सब उनका आदेश मान कर चले और मोहनलाल ने अपना वादा अक्षर-अक्षर पूरा किया। इसके बाद वे इस नवविजित ग्राम राज्य पर निर्विवाद अधिकार जमाये रहे।

साधारण किसान और जमींदार भी इस विद्रोह में शामिल हुए थे, इसके प्रमाण शासकों के पत्रों से ही मिलते हैं। मेदिनीपुर के कलक्टर ने राजस्व बोर्ड के नाम 29 मार्च 1799 के पत्र में लिखा कि - इसी समय प्रजा भी विद्रोह में शामिल हुई थी और चोआड़ तथा प्रजा दोनों ने मिलकर मेदिनीपुर परगने को लूटने और ध्वंस करने में कुछ भी उठा न रखा। सारा मेदिनीपुर परगना जनहीन और ध्वंस स्तूप बन गया है।... संक्षेप में कहा जा सकता है कि जंगल अंचल के प्रायः सभी जमींदार भी चोआड़ों के साथ मिल गये हैं।

विद्रोहियों के आक्रमण में वृद्धि से शासकों को संदेह हुआ कि जंगल-अंचल के पुराने जमींदार भी इसमें शामिल हैं। इसलिए उन्होंने इस अंचल की प्रधान जमींदार रानी शिरोमणि और कुछ अन्य जमींदारों को गिरफ्तार कर लिया। रानी की जमींदारी के कर्णगढ़ और आवासगढ़ नामक दो दुर्गों पर अधिकार कर लिया। लेकिन कर्णगढ़ दुर्ग पर सरकारी सेना के अधिकार करते ही विद्रोहियों की विशाल सेना ने उसे आ घेरा। खाद्य और जल के अभाव से सरकारी सेना दुर्ग खाली कर भाग खड़ी हुई।

कलक्टर ने विद्रोही नेताओं और उनके सहयोगियों की गिरफ्तारी के परवाने निकाले। पाइकों और चोआड़ों को आत्म-समर्पण का हुक्म दिया। वादा किया कि विद्रोहियों के अभियोगों पर विचार कर आवश्यक कार्रवाई की जायगी, लेकिन कोई परिणाम न निकला। जून 1799 में मेदिनीपुर के चोआड़ और पाइक विद्रोहियों के साथ पड़ोस के उड़ीसा के मराठा अधिकृत अंचल के पाइक भी शामिल हो गये। इससे विद्रोहियों की शक्ति बढ़ गयी। इसके बाद रामगढ़, शतपति, शालवनी आदि परगनों में विद्रोहियों और सरकारी सेना के बीच कई मुठभेड़ें हुई।

शासकों ने क्रमशः समझा कि केवल फौज के बल से यह विद्रोह न दबाया जा सकेगा। अंत में उन्होंने फैसला किया कि पाइकों को उनकी जमीनें वापस कर दी जायेंगी और जंगल अंचल में शांति बनाये रखने की जिम्मेदारी यहाँ के जमींदारों की होगी। राजस्व बाकी पड़ जाने से जमींदारों की जमींदारी नीलाम न की जाएगी। इस तरह पाइकों, जमींदारों और चोआड़ सरदारों को कुछ सुविधा देकर शासक यह विद्रोह शांत कर सके।


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