window.location = "http://www.yoururl.com"; Abul Fazl (1551-1602). // अबुल फज़ल

Abul Fazl (1551-1602). // अबुल फज़ल


विषय-प्रवेश :

शेख अबुल फजल का जन्म 14 जनवरी 1551 को हुआ था। उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘अकबरनामा‘ में इस बात पर गहरा दुख व्यक्त किया है कि क्यों उसका जन्म अकबर के जन्म के बाद हुआ लेकिन इसके साथ ही साथ उसने स्वयं को भाग्यवान भी माना है क्योंकि उसका जीवनकाल अकबर के शासनकाल में व्यतीत हुआ। अबुल फजल के सम्पूर्ण जीवन काल को हरवंश मुखिया ने अपनी पुस्तक  “Historians and Historiography during the reign of Akbar”  में दो चरणों में विभक्त किया है।

  1. उसके जीवन के प्रारंभिक 20 वर्ष जब अबुल फजल, उसके भाई फैजी तथा उसके पिता शेख मुबारक को शाही दरबार के कट्टरपंथी अर्थात उलेमाओं ने बहुत प्रभावित किया था।
  2. जब अबुल फजल और उसके परिवार को दरबार से सम्मान, संरक्षण और सुरक्षा प्राप्त हुई।
ऐतिहासिक दृष्टि से अबुल फजल ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है लेकिन अकबरनाम उसकी सार्वभौमिक सर्वाधिक चर्चित पुस्तक है। 

अबुल फजल और अब्दुल कादिर बदॉयूनी दोनो के अनुसार उपरोक्त प्रथम काल में अबुल फजल के निवास स्थान को कट्टरपंथियों ने न केवल जलाने का प्रयास किया अपितु उसके द्धारा पूरे परिवार की हत्या करने तक का भी प्रयास किया गया। बदॉयूनी का मत है कि प्रारंभिक चरण में शेख मुबारक भी कट्टरपंथी था। उसकी कट्टरपंथी प्रवृतियों का वर्णन करते हुए बदॉयूनी कहता है कि – अगर उसे कभी सडक पर भी संगीत सुनाई पड जाता था तो वह तुरन्त उल्टी दिशा में जाने लगता। आगे चलकर शेख मुबारक उदार हो गया और दूसरों धर्मो के प्रति भी उदार विचार रखने लगा। हरवंश मुखिया के अनुसार – जब शेख मुबारक इस्लामशाह सूर के शासनकाल में महदियों के सम्पर्क में आए तभी से वह उदार हो गए लकिन ठीक उसी समय से उनके परिवार का दुर्भाग्य शुरू हो गया और कट्टरपंथियों के साथ इनका खुला संघर्ष हो गया। वास्तव में यह संधर्ष व्यक्तिगत न होकर बौद्धिक था। ऐसा प्रतीत होता है कि 1571 के लगभग अबुल फजल अकबर के सम्पर्क में आया। पहले जब उलेमा और उसके परिवार के बीच ख्ुला संघर्ष हो रहा था उस समय इससे भयभीत होकर शेखमुबारक ने प्रसिद्ध सूफी सन्त शेख सलीम चिश्ती से निवेदन किया कि अकबर से वे निवेदन करके उनके परिवार के सुरक्षा की गारण्टी प्रदान करवाए। लेकिन सलीम चिश्ती ने कोई सहायता प्रदान नही की। इसके उपरान्त शेख मुबारक ने मिर्जा अजीज कोका से सम्पर्क किया जिसकी सिफारिश पर अकबर ने इनके पूरे परिवार को अपना संरक्षण प्रदान किया। वर्ष 1575 में फतेहपुर सिकरी में इबादतखाना स्थापित होने के बाद जब अकबर का कट्टरपंथी उलेमाओं के साथ संधर्ष शुरू हुआ तो अबुल फजल ने अकबर का खुलकर साथ दिया और यही से दोनो की निकटता प्रारम्भ हुई। प्रारम्भ में यद्यपि अबुल फजल के पास 20 मुन्सफे थी लेकिन सैनिक क्षमता नही होने के बावजूद उसकी तेजी से प्रोन्नती होती गई और 1602 तक उसके पास 5000 मुन्सफे हो गया। वास्तव में अकबर के शासनकाल में किसी भी गैर सैनिक अधिकारी को इतना अधिक मुन्सफ प्राप्त नही था। अबुल फजल ने अपनी पुस्तक में कही कही कुछ शत्रुओं का जिक्र किया है लेकिन कही पर भी उसने उन नामों को स्पष्ट नही किया है। सैय्यद अब्बास रिजवी, ए0एल0 श्रीवास्तव आदि ने अपने शोधों के आधार पर स्पष्ट किया है कि अब्दुल रहीम खानखाना तथा राजकुमार सलीम ही अबुल फजल के शत्रु रहे होगें। आज हमारे पास ऐसे दस्तावेज तथा प्रमाण है जिनसे प्रमाणित होता है कि सलीम ने एक राजपूत बीरसिंह बुन्देला को धन और पद का लालच देकर 1602 ई0 में अबुल फजल की हत्या करवा दी। संक्षेप में, अबुल फजल द्धारा रचित कुछ प्रमुख ग्रन्थ निम्नलिखित है –

अकबरनामा (Akbarnama)-

अकबरनामा अबुल फजल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृति है। अबुल फजल की योजना थी कि वह इस पुस्तक को पॉंच खण्ड में पूरा करे। प्रथम चार खण्ड में वह राजनीतिक इतिहास लिखना चाहता था। साथ ही साथ वह प्रत्येक खण्ड में अकबर के शासन के 30 वर्षो तक का इतिहास लिखने की योजना रखता था। अर्थात वह यह मान कर चल रहा था कि अकबर और वह स्वयं 120 साल तक जीवित रहेगें। पॉचवे खण्ड में वह अकबर के समय की राजनीतिक संस्थाओं का विवरण देना चाहता था जिसे आइन-ए-अकबरी का नाम दिया गया। लेकिन वास्तव में उसकी यह योजना पूरी नही हो सकी और तीन खण्ड में ही इस पुस्तक को पूरा करना पडा। प्रारम्भ के दो खण्डों में राजनीतिक इतिहास का वर्णन है। प्रथम खण्ड में आदम से लेकर अकबर के शासन के 17वें वर्ष तक का इतिहास नीहित है। दूसरे खण्ड में अकबर के शासनकाल के 18वें वर्ष से लेकर 46वें वर्ष तक का इतिहास नीहित है क्योंकि अकबर के शासनकाल के 47वें वर्ष में अबुल फजल की हत्या कर दी जाती है। तीसरे खण्ड में राजनीतिक संस्थाओं का विवरण है और इस खण्ड में अकबर के शासनकाल की 42वें वर्ष तक की घटनाएॅ नीहित है। इस तृतीय खण्ड को ही आइन-ए-अकबरी का नाम दिया गया है। अबुल फजल की हत्या के बाद मुहीब अली खॉं नामक व्यक्ति ने अकबरनामा के अधूरे भाग को पूरा किया अर्थात अकबर के शासनकाल के 47वें वर्ष से लेकर उसकी मृत्यु तक का इतिहास इसमें जोडा गया। अबुल फजल की मृत्यु के बाद अकबर के निर्देश पर संभवतया अबुल फजल द्धारा लिखित मूल अकबरनामा के प्रथम खण्ड को दो भागों में बॉट दिया गया। प्रथम भाग में आदम से लेकर हूमायूॅं के समय तक का इतिहास रखा गया। द्धितीय भाग में अकबर के शासनकाल के 17वें वर्ष तक का इतिहास रखा गया। इस प्रकार संशोधन के बाद इस पुस्तक के चार खण्ड हो गये जिसका चौथा खण्ड आइन-ए-अकबरी के नाम से प्रसिद्ध है। कालान्तर में आधुनिक इतिहासकारों और आइन-ए-अकबरी के अनुवादकों ने अपनी सुविधा के लिए आइन-ए-अकबरी को भी कई खण्डों में बॉट दिया।

मक्तुवाद-ए-अल्लामी/ इन्सॉं-ए-अबुल फजल (Insa-E-Abul Fazl)-

बुल फजल द्धारा रचित इस पुस्तक के तीन भाग है। प्रथम भाग में विभिन्न शासकों और सामन्तों को अकबर की ओर से अबुल फजल द्धारा लिखे गये पत्र है। द्धितीय खण्ड में अबुल फजल के द्धारा सम्राट अकबर और विभिन्न सामन्तों को लिखे गये पत्र का विवरण है और तृतीय खण्ड विभिन्न विषयों पर अबुल फजल के लेख और विभिन्न पुस्तकों में अबुल फजल के द्धारा लिखी गई प्रस्तावना, उपसंहार और टिप्पणीयों का विवरण है।

अय्यार-ए-दानिश/ कालिला दीमना (Kalila Dimna)-

विष्णु शर्मा द्धारा रचित पुस्तक ‘पंचतन्त्र‘ का अकबर ने फारसी में अनुवाद करवाया था जिसका नाम “कालिला दीमना” था लेकिन वह इस अनुवाद से सन्तुष्ट नही हो सका। इसलिए उसने अबुल फजल से इसका दूसरा फारसी अनुवाद कराया जिसका नाम अय्यार-ए-दानिश रखा गया।

मुन्तजात-ए- अबुल फजल (Muntzaat-E-Abul Fazal)

अबुल फजल द्धारा लिखित इस पुस्तक में ईश्वर सम्बन्धी तथ्य अर्थात रहस्यवाद के सम्बन्ध में उल्लेख किया गया है। इस पुस्तक में अबुल फजल ने इस बात पर जोर दिया है कि ईश्वर की प्राप्ति कट्टरता से नही अपितु भक्ति से ही प्राप्त की जा सकती है।

अकबर के आदेश पर इस्लाम का इतिहास लिखा गया था जिसका शीर्षक ‘तारीख-ए-अल्की‘ था। अबुल फजल ने इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी है।

सामान्यतया यह माना जाता है कि ‘रूक्कात-ए अबुल फजल‘ नामक पुस्तक भी अबुल फजल ने ही लिखी है लेकिन अधिकांश इतिहासकार इस बात से सहमत नही है।

अकबर के आदेश पर महाभारत का फारसी भाषा में अनुवाद किया गया था जिसका शीर्षक ‘रज्मनामा‘ था और इसे बदॉयूनी ने लिखा था। इस पुस्तक की प्रस्तावना भी अबुल फजल ने लिखा था।

Blockman का मानना है कि अबुल फजल ने एक अन्य पुस्तक भी लिखी थी जिसका नाम ‘जामी-उल-लुगात‘ था।

वास्तव में इन समस्त पुस्तकों में अकबरनामा ही सर्वश्रेष्ठ पुस्तक है। अकबरनामा में आदम से लेकर अकबर के शासनकाल के 46वें वर्ष तक का इतिहास नीहित है। आदम से इस ग्रन्थ का प्रारम्भ करने की दिशा में अबुल फजल का उद्देश्य यह था कि वह इस बात को सिद्ध करना चाहता था कि मानवता के इतिहास में अकबर का स्थान सर्वोच्च है और अकबर ने हमेशा मानवता की प्रगति के लिए कार्य किया था। लेकिन अकबरनामा में अकबर से पूर्व का इतिहास बेमन से लिखकर अबुल फजल ने यह भी स्पष्ट किया है कि उसका उद्देश्य मात्र अकबर का इतिहास लिखना है। अबुल फजल ने अकबर के शासनकाल के प्रत्येक वर्ष को अपने इतिहास लेखन के लिए ईकाई माना है। उसने अपने इतिहास लेखन के समय क्रमबद्धता पर विशेष ध्यान दिया है और यही उसके इतिहास लेखन की एक खास विशेषता है। अकबरनामा का तीसरा खण्ड अर्थात आइन-ए-अकबरी मुख्य रूप से पॉच भागों में विभाजित है –

  • प्रथम भाग में शाही/दरबारी संगठन तथा विभिन्न प्रशासनीक विभागों की चर्चा है। इसके अलावा इस भाग में शाही टकसाल, सुलेखन कला, चित्रकला, खाद्य सामग्रियों के दाम, भवन निर्माण सामग्रियों के दाम आदि का विवरण है।
  • दूसरे भाग में मुख्यतः सैन्य संगठन का विवरण है। इसमें जिन अन्य तथ्यों का उल्लेख है वह है – विवाह सम्बन्धी नियम, शिक्षा व्यवस्था, भूमि अनुदान, मनसबदारों की सूची, विद्वानों की सूची और कलाकारों की सूची है।
  • तीसरे भाग में मुख्यतः दो तथ्यों का उल्लेख है – प्रथम राजस्व प्रणाली तथा द्धितीय विश्व के विभिन्न स्थानों पर विभिन्न समयों में प्रचलित 20 सम्वतों का उल्लेख।
  • चौथे भाग में हिन्दू विचारधाराओं का उल्लेख है। जैसे – ज्योतिष, चिकित्सा विज्ञान, हिन्दू रहस्यवाद आदि के साथ साथ हिन्दू तौर तरीको और रहन सहन। हरवंश मुखिया के अनुसार यह भाग सबसे निम्न कोटि का है क्योंकि इसके लिखने के लिए अबुल फजल ने कोई व्यक्तिगत रूप से निरीक्षण या शोध नही किया है। यद्यपि अबुल फजल से यह आशा की जाती थी कि वह कम से कम अपने समय में हिन्दुओं की दशा का उल्लेख करता जिससे आइन-ए-अकबरी का महत्व भी बढ जाता लेकिन उसने ऐसा नही किया है। इस पुस्तक में जो लाभकारी भाग है वह है – समकालीन भारत में राजपूतों में रहने वाले विभिन्न कबीलों का वर्णन।
  • पॉंचवे भाग में अबुल फजल ने अकबर के बुद्धिमतापूर्ण कथन, उपसंहार और बहुत संक्षेप में अपनी आत्मकथा प्रस्तुत की है।

अकबरनामा से हमें विभिन्न प्रकार की तात्कालीन सूचनाएॅ मिलती है जैसे – इस पुस्तक द्धारा हमें तात्कालीन युद्ध और इससे सम्बद्ध सेनापति, युद्ध शैली तथा युद्ध सम्बन्धित अन्य घटनाओं का विवरण प्राप्त होता है। कहीं कहीं इस पुस्तक में भौगोलिक परिवेश, ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान आदि भी मिलता है। लेकिन यहॉ यह उल्लेखनीय है कि अबुल फजल द्धारा अकबरनामा में दिए गए विवरण उतने तर्कसंगत, सर्वमान्य, स्पष्ट तथा परिपक्व नहीं है जितना कि बाबर द्धारा तुजुक-ए-बाबरी में दिए गए विवरण है।अबुल फजल सामान्यतया अपने इतिहास लेखन में अपने स्रोतों का उल्लेख नही करता किन्तु जब कभी वह अपने स्रोत का उल्लेख करता है तो अधिकतर वह इसकी सूचना नही देता कि उसको सूचना देने वाला कौन था अथवा उसको वह सूचना कैसे प्राप्त हुई। यद्यपि अबुल फजल सामान्यतया स्रोतों का उल्लेख नही करता लेकिन अकबरनामा के प्रथम भाग में वह तथ्य संग्रह करने के कई माध्यम का उल्लेख करता है। जैसे – अकबर से सम्बन्धित सभी परिस्थितीयों से घटनाओं के बारे में तथ्य एकत्रित किये गये। पुराने दरबारियों, वर्तमान दरबारियों और शाही परिवार के वरिष्ठ सदस्यों से बातचीत करके भी अबुल फजल ने तथ्यों को प्राप्त किया और उसे लिखित रूप प्रदान किया। साम्राज्य के पुराने व्यापारियों को अकबर की ओर से आदेश भेजे गए कि वे लोग अपने संस्मरण लिख कर भेजे। इन संस्मरणों का भी प्रयोग अकबरनामा में किया गया। अकबर के राज्याभिषेक से लेकर अकबरनामा तक जारी किये गये शाही फरमानों की प्रतिलिपियों का प्रयोग भी अकबरनामा में किया गया। विभिन्न मन्त्री, उच्च अधिकारी आदि द्धारा प्रस्तुत की गई प्रतिवेषण भी मूल रूप से एकत्रित की गई। अबुल फजल ने स्वयं व्यक्तिगत रूप से अनेक व्यक्तियों से मिलकर सूचना प्राप्त की। इसके अतिरिक्त अपने पिता तथा सम्राट अकबर से भी अकबरनामा के लेखन में ऐतिहासिक सामग्रियॉं प्राप्त की थी। कहीं कहीं अबुल फजल ने ऐतिहासिक तथ्य के रूप में सुनी हुई बातों और विभिन्न व्यक्ति द्धारा देखे गए सपने का भी प्रयोग किया। आठन-ए-अकबरी के अनुवादक जैरेट ने अबुल फजल पर आरोप लगाया है कि वह साहित्यिक चोरी का दोषी है लेकिन हरवंश राय मुखिया अबुल फजल को इस आरोप से मूक्त करते है। अबुल फजल अक्सर दस्तावेजों के शब्द तथा घटनाओं में सूक्ष्म परिवर्तन कर देता है जो अबुल फजल का सबसे बडा गुण है। अबुल फजल लिखता है कि विभिन्न धर्म व सम्प्रदाय में अकबर द्धारा लिया गया निर्णय अन्तिम होगा। अबुल फजल ने ऐसा क्यों कहा इस सम्बन्ध में हरवंश मुखिया कहते है कि- अबुल फजल का यह मत था कि सम्राट का सम्बन्ध इस्लाम से नही था बल्कि सभी धर्मो से था परिणामस्वरूप अपने व्यक्तिगत विचारों के अनुरूप उसने ऐतिहासिक तथ्यों को बिगाड दिया। अबुल फजल ने अपने पुस्तक के लिखनेेेे में जिस प्रकार का शोध किया वह प्रशंसनीय है। वह स्वयं लिखता है कि – प्रत्येक घटना का अकबरनामा में लिखने से पहले उसने 20 से भी अधिक व्यक्तियों से इस सम्बन्ध में प्रामाणिक विवरण एकत्र किये। स्पष्ट है कि ज्ञानप्राप्त विवरणों का विरोधाभाव भी रहा होगा लेकिन उसने केवल उन्ही तथ्यों को अकबरनामा में लिखा है जो सभी स्रोतों में सामान्य है।अबुल फजल के अनुसार इतिहास विश्व की घटनाओं का तिथि क्रमानुसार संग्रह है लेकिन उसके अकबरनामा को विश्व का इतिहास नही कहा जा सकता है क्योंकि –

  • मुगलों से पूर्व का इतिहास लिखने में उसने अपनी कुछ असंगत धारणाएॅ बनाई और उसके ऐतिहासिक तथ्यों के रूप में प्रस्तुत किया।
  • अबुल फजल ने अकबर के पूर्व का इतिहास इस उद्देश्य से पूर्ण किया है कि मानवता के इतिहास में अकबर का नाम सर्वोच्च हो जाय इसलिए उसके लेखन का मूल बिन्दु अकबर के सुशासन को दर्शाना था।
  • अबुल फजल कार्य कारण में सम्बन्ध की स्थापना के लिए सामान्य नियमों का प्रतिपादन नही करता जो कि सही नही है। जैसे अकबर ने मक्कर पर आक्रमण किया तो दूसरी बार में ही उसे सफलता मिली। इसलिए वह यह कहता है कि किसी को भी सफलता पहली बार में नही मिलती है।

इस प्रकार अबुल फजल का इतिहास लेखन मूलतः तीन परिकल्पनाओं पर आधारित है –

  • अकबर एक दैवीय व्यक्ति है।
  • अकबर के प्रति वफादार रहना आवश्यक है।
  • अकबर के विरूद्ध शत्रुता, युद्ध, विद्रोह आदि का सफल होना पूर्व निर्धारित है।

अबुल फजल ने मूलतः उस अकबर का इतिहास लिखा है जब मुगल साम्राज्य क्रमशः शक्तिशाली होता जा रहा था। ऐसी स्थिती में उसकी वे सारी परिकल्पनाएॅ 16वीं शताब्दी के समकालीन परिपेक्ष्य में राजनीतिक आवश्यकताएॅ थी क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष रूप से उसने शुद्धकरणीय शासन के उपर बल दिया है। अबुल फजल स्वयं लिखता है कि उसने इतिहास लेखन में एक नई शैली को जन्म दिया है। उसकी भाषा व शैली सरल है इसलिए उसकी आइन-ए-अकबरी मध्यकालीन भारतीय इतिहास लेखन में एक मील का पत्थर साबित होती है।

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