window.location = "http://www.yoururl.com"; Arrival of Islam in India and Arab invasion (भारत में इस्लाम का आगमन और अरब आक्रमण).

Arrival of Islam in India and Arab invasion (भारत में इस्लाम का आगमन और अरब आक्रमण).

भारत में इस्लाम का आगमन-

विश्व इतिहास में इस्लाम धर्म का उत्थान एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। अरब के रेगिस्तान में इसकी उत्पत्ति हुई और अरबों, ईरानियों और तुर्को ने इसके प्रसार में प्रमुख रूप से भाग लिया। पैगम्बर मुहम्मद जिनका जन्म 570 ई0 और मृत्यु 632 ई0 में हुआ, इस्लाम धर्म के संस्थापक थे। इस्लाम ने अरबों में एक राष्ट्र के समान एकता की भावना, तीव्र सैनिक प्रवृति और उत्साह प्रदान किया और तलवार के आधार पर ही इसका विस्तार किया। मात्र 100 वर्षो के अन्दर ही इस्लाम धर्म के साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में अटलांटिक समुद्र से पूर्व में सिन्धु नदी तक और उत्तर में कैस्पियन सागर से दक्षिण में नील नदी के घाटी तक हो गया, जिसमें स्पेन, पुर्तगाल, फ्रान्स का दक्षिणी भाग, उत्तरी अफ्रीका, मिस्र, अरब, सीरिया, मेसोपोटामिया, फारस, सम्पूर्ण मध्य एशिया, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, सिन्ध आदि सम्मिलित थे। तलवार की शक्ति पर आधारित इस्लाम की शक्ति का इतने थोडे समय में प्रसार और उसकी विजय इतिहास की महत्वपूर्ण घटना थी। विश्व की विभिन्न छोटी-छोटी शक्तियॉं और धार्मिक सम्प्रदाय ही नही अपितु बडी-बडी शक्तियॉ और अनेक धर्म भी इस्लाम की बढती हुई शक्ति के आगे घुटने टेकते चले गये। हालॉकि युरोप के ईसाई राज्यों ने इस्लाम की शक्ति को रोकने के लिए विभिन्न प्रयत्न किये और यदि 716 ई0 में कुस्तुनतुनिया के निकट थियोडोर तृतीय ने तथा 732 ई0 में टुअर्स के युद्ध में चार्ल्स ने इस्लाम की सेनाओं को परास्त करने में सफलता न पाई होती तो सम्भवतया पुरा युरोप इस्लामी सत्ता और धर्म को स्वीकार करने के लिए बाध्य हो जाता। हालॉकि इसके बाद भी युरोप इसके भय से मुक्त न हो सका। कालान्तर में आटोमन तुर्को ने इस्लाम की शक्ति को पुनः युरोप में फेलाया। रोमन साम्राज्य, यूनान, बाल्कन प्रायद्वीप के देश और सम्पूर्ण पूर्वी युरोप इस्लाम की शक्ति के आगे झुक गया और ईसाई राज्यों के संयुक्त प्रयत्न और विभिन्न धर्मयुद्ध भी इस्लाम के तूफान के आगे असफल रहे। इस इस्लाम की बढती हुई शक्ति का मुकाबला भारत को भी करना पडा। लगभग 300 वर्ष तक भारत ने अपनी उत्तरी पश्चिमी सीमाओं पर इसे रोककर रखा परन्तु अन्त में भारत परास्त हुआ और इस्लाम ने भारत में प्रवेश किया।

अरबों का भारत पर आक्रमण-

शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य के नष्ट हो जाने के बाद कुछ हद तो सम्राट हर्षबर्द्धन के शासनकाल तक उत्तर भारत में एक शक्तिशाली और सुदृढ साम्राज्य कायम था जो शक्ति और सम्पन्नता की दृष्टि से किसी भी विदेशी आक्रमण का मुकाबला करने में समर्थ था परन्तु हर्षवर्द्धन की मृत्यु के बाद शीध्र ही उत्तरी भारत की अखंडता खंण्डित हो गयी और विभिन्न स्थानों पर स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना होने लगी तथा अनेक नये नये राजवंशों की स्थापना हुई। यहॉ यह उल्लेखनीय है कि इनमें से विभिन्न राज्य शक्ति और विस्तार की दृष्टि से काफी विशाल थे परन्तु उनकी दुर्बलता का प्रमुख कारण उनकी पारम्परिक प्रतिस्पर्धा थी। विदेशी आक्रमण के प्रति उदासीन और विदेशी परिस्थितीयों से पूर्णतया अनभिज्ञ ये सभी उत्तरी भारत के राज्य यश और साम्राज्य विस्तार के लिए आपस में ही युद्ध करते रहते थे। भारत की राजनीतिक दुर्बलता का यह सबसे मुख्य कारण था।
प्रायः भारत के उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर अवस्थित अफगानिस्तान में 9वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षो तक हिन्दू राज्य था जहॉ बौद्ध और हिन्दू धर्म प्रचलित था और वह राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत का एक अंग था। भारत की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर होने के कारण उसे अरबों के आक्रमण का सामना करना पडा। अफगानिस्तान की सीमा से सटे हुए दो प्रदेश थे- काश्मीर और सिन्ध। काश्मीर का शासक चन्द्रपीड था। उसके पश्चात उसका भाई मुक्तपीड ललितादित्य 715 ई0 में काश्मीर का शासक बना जिसने कन्नौज के शासक यशोवर्मन को परास्त किया और मार्तण्ड नामक स्थान पर एक विशाल सूर्य मन्दिर का निर्माण किया। जिस समय अरबों ने सिन्ध पर आक्रमण किया, उस समय सिन्ध एक विस्तृत राज्य था और वहॉ का शासक दाहिर था, जो ब्राह्मण था। उसके पिता चच ने अपने राजा को मारकर कुछ समय पहले ही सिन्ध को प्राप्त किया था। चच के पश्चात उसका भाई चन्द्र गद्दी पर बैठा, इस कारण दाहिर को अपने चचेरे भाई और चन्द्र के पुत्र दुराज से गद्दी के लिए संघर्ष करना पडा था। दाहिर का शासन विशेष रूप से वहॉ की लडाकू जाट जाति के प्रति असहिष्णुता का था जिसके कारण आन्तरिक संघर्ष और असन्तोष से व्याप्त सिन्ध का राज्य दुर्बल हो गया था। एक प्रकार से हम यह कह सकते है कि अरबों के आक्रमण के समय राजनीतिक दृष्टि से भारत दुर्बल था। सामाजिक दृष्टि से भारत उस समय भी विभिन्न जातियों में बॅटा हुआ था और आर्थिक दृष्टि से भारत सम्पन्न था। यद्यपि अमीरों और गरीबों की स्थिती में बहुत अन्तर नही था परन्तु तब भी जन-साधारण खुशहाल था। कृषि, व्यापार और उद्योग की दृष्टि से भारत सम्पन्न था। इस प्रकार अरबों के सिन्ध पर आक्रमण के अवसर पर भारत राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से दुर्बल नही माना जा सकता परन्तु भारत में विभिन्न राज्यों की पारस्परिक शत्रुता, सैनिक शक्ति को बढाने के प्रति उदासीनता और जन-साधारण में देश-भक्ति का अभाव ऐसी दुर्बलताएॅ थी, जो उस समय प्रकट होने लगी थी और इसी दुर्बलता ने कालान्तर में भारत के इतिहास का काफी हद तक प्रभावित किया।

आक्रमण के कारण-

अरबों द्वारा भारत पर आक्रमण करने से पूर्व ही अरबों के साथ भारतीयों का सम्पर्क था। वे भारत के दक्षिणी-पश्चिमी तट के प्रदेशों में व्यापार करने के लिए आया करते थे। इस्लाम को स्वीकार करने के पश्चात भी अरब निवासी भारत में व्यापार करते रहे परन्तु खलीफाओं की धर्म और साम्राज्य-विस्तार की लालसा ने अरब और भारत के सम्बन्ध मात्र व्यापारिक न रहने दिया। आज के आधुनिक बलूचिस्तान अर्थात मकरान को जीतने की लालसा में अरबों ने इस क्षेत्र पर कई आक्रमण किये लेकिन हर बार उन्हे असफलता ही मिली। अन्त में, 8वीं शताब्दी के आरम्भ में अरबों ने मकरान को जीतने में सफलता पाई। मकरान की जीत ने अरबों के लिए सिन्ध विजय के द्वार खोल दिये। अरबों के सिन्ध पर आक्रमण करने का मुख्य उद्देश्य धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक था। तलवार की शक्ति के आधार पर इस्लाम का प्रचार करना सभी खलीफाओं की नीति थी और सिन्ध पर आक्रमण भी इसी उद्देश्य से किया गया। इसके अतिरिक्त भारत से व्यापार करने वाले अरब भारत की आर्थिक सम्पन्नता से परिचित थे, अतः इसमें कोई सन्देह नही था कि धन प्राप्ति की लालसा भी इनके आक्रमण का एक लक्ष्य था। सिन्ध के समुद्री डाकूओं द्वारा कुछ अरब जहाजों को लूटा जाना तो सिन्ध पर आक्रमण करने का एक बहाना मात्र माना जा सकता है। हालॉकि इस सन्दर्भ में अलग-अलग इतिहासकारों के अलग-अलग मत है। इस सन्दर्भ में कुछ इतिहासकारों का मानना है कि समुद्री लुटेरों ने उन दासियों और उपहार को लूटा था जो खलीफा के लिए ले जा रहे थे। एक अन्य लेखक का मानना है कि लंका के राजा ने इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया था और उसके द्वारा भेजे गये उपहारों को लूटेरों ने लुट लिया। प्रसिद्ध इतिहासकार सर बूल्जले हेग ने लिखा है कि– लंका के राजा ने खलीफा के पूर्वी प्रान्तों के सूबेदा हज्जाज के पास उन अनाथ कन्याओं को भेजा था, जिनके पिताओं की मृत्यु लंका में हो गयी थी। कारण चाहे जो भी हो, इस घटना से इराक के सूबेदार हज्जाज बहुत असंतुष्ट हुआ और उसने सिन्ध के राजा दाहिर से क्षतिपूर्ति की मॉग की। जब राजा दाहिर ने इसे चुकाने से मना कर दिया तो हज्जाज अत्यधिक क्रोधित हुआ और उसने तात्कालीन खलीफा वाहिद से सिन्ध पर आक्रमण करने की आज्ञा प्राप्त कर ली।

मुहम्मद-बिन-कासिम का आक्रमण और सिन्ध की विजय –

उपरोक्त परिस्थितीयों में हज्जाज ने एक सेना उबैदुल्ला के नेतृत्व में सिन्ध पर आक्रमण करने के लिए भेजी परन्तु उबैदुल्ला के नेतृत्व में अरबी सेना की पराजय हुई। पुनः उबैदुल्ला के नेतृत्व में एक अन्य सेना भेजी गई लेकिन दूसरी सेना को भी पराजय का सामना करना पडा। इसके पश्चात 711 ई0 में हज्जाज ने एक शक्तिशाली सेना 17 वर्षीय मुहम्मद-बिन-कासिम के नेतृत्व में सिन्ध पर आक्रमण करने के लिए भेजी। 6000 सीरियाई घुडसवार, इतने ही ऊॅट और 3000 सामान ढोने वाले ऊॅटों की सेना को लेकर मकरान के मार्ग से अरबों ने सिन्ध पर आक्रमण किया। एक अन्य सेना और पत्थर फेंकने वाला तोपखाना देवल के बन्दरगाह पर पहुॅचकर मुहम्मद-बिन-कासिम के साथ हो गया। दाहिर ने देवल की सुरक्षा और सहायता के लिए कोई प्रयत्न नही किया। 4000 राजपूतों ने देवल के किले की रक्षा करने का प्रयत्न किया लेकिन वे सफल न हो सके और रणक्षेत्र में ही मार डाले गये। इस प्रकार देवल पर अरबों का आधिपत्य हो गया। इस्लाम स्वीकार न करने के कारण 17 वर्ष से अधिक आयु के सभी पुरूष कत्ल कर दिये गये और उनके बच्चों और सि़्त्रयों को गुलाम बना लिया गया। तीन दिन तक नगर में कत्लेआम और लूट-पात होती रही। 75 सुन्दर स्त्रियॉ और लूट के माल का पॉचवा हिस्सा हज्जाज के पास भेज दिया गया। देवल से मुहम्मद-बिन-कासिम निरून के किले की ओर बढा और निरून ने बिना युद्ध के ही आत्मसमर्पण कर दिया। तत्पश्चात कासिम ने सिन्ध नदी को पार करने का निश्चय किया। दाहिर ने उस समय तक कासिम के कार्य में कोई बाधा नही डाली थी लेकिन अब विवश होकर दाहिर को कासिम का सामना करना पडा और अन्त में 20 जून 712 ई0 को युद्ध हुआ। दाहिर ने कासिम की सेना का बडी बहादुरी से मुकाबला किया। आग के भय से हाथी के भागने पर भी वह हाथी को पुनः युद्ध स्थल में लाया और उसके पश्चात उसने घोडे पर सवार होकर युद्ध किया, परन्तु अन्त में वह मारा गया। हिन्दू सेना का कुछ भाग दाहिर के पुत्र जयसिंह के साथ भागकर ब्राह्मणाबाद चला गया। रावर के किले की रक्षा दाहिर की पत्नी ने की परन्तु अन्त में रानीबाई और उसकी सहयोगी स्त्रियों ने आग में जलकर अपने सतीत्व की रक्षा की। जयसिंह के नेतृत्व में ब्राह्मणाबाद के सैनिकों ने भी वीरता से अरबों के आक्रमण का मुकाबला किया परन्तु उसकी भी पराजय हुई और किले पर कासिम का अधिकार हो गया। वहॉ पर मुहम्मद-बिन-कासिम को दाहिर की सम्पूर्ण सम्पत्ति, उसकी एक अन्य पत्नी लाडी और उसकी दो कुॅआरी पुत्रियॉ – सूर्यदेवी और परमाल देवी मिली जिसे खलीफा की सेवा के लिए भेज दिया गया। इसके बाद कासिम ने सिन्ध की राजधानी आरोर पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार सिन्ध पर अरबों की विजय पूर्ण हुई।
सिन्ध पर विजय के पश्चात 713 ई0 के प्रारम्भ में मुहम्मद-बिन-कासिम ने मुल्तान की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में हालॉकि उसे कई कठिन युद्ध करने पडे लेकिन अन्ततः उसे सफलता मिलती गई और वह मुल्तान पहुचने में सफल हुआ। एक देशद्रोही ने अरबों की उस जलधारा को बता दिया जिससे किले में पानी जाता था। अरबों ने इस पानी की धारा को रोक दिया और मुल्तान के किले ने आम्मसमर्पण कर दिया। अरबों को वहॉ इतना सोना प्राप्त हुआ कि उन्होने मुल्तान का नाम ‘‘सोने का नगर‘‘ रख दिया। मुल्तान की यह विजय भारत में अरबों की अन्तिम विजय थी।
मुहम्मद-बिन-कासिम अधिक समय तक जीवित नही रह सका। ‘चचनामा‘ में उसके दुर्भाग्यपूर्ण अन्त का विवरण देते हुए कहा गया है कि – ‘‘दाहिर की पुत्रियॉ सूर्यदेवी और परमाल देवी ने खलीफा के पास पहुॅचकर यह शिकायत की थी मुहम्मद-बिन-कासिम ने तीन दिन तक उसको अपने हरम में रखकर और उसके सतीत्व को भंग करके उन्हे खलीफा की सेवा में भेजा है। खलीफा, जो पहले ही उसकी सुन्दरता पर मुग्ध हो गया था, बहुत क्रोधित हुआ और उसने आदेश दिये कि मुहम्मद-बिन-कासिम को बैल की कच्ची खाल में बन्द करके उसके पास भेजा जाय। कासिम ने उक्त आदेश का पालन किया और स्वयं को बैल की खाल में बन्द कर लिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। जब उसकी लाश खलीफा के सामने प्रस्तुत की गई तो राजकुमारियों ने यह स्वीकार कर लिया कि उन्होने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए उसे पर यह आरोप लगाया था। खलीफा ने उन दोनो राजकुमारीयों को घोडे की पूॅछ में बॅधवाकर उस समय तक घोडे को दौडाया जबतक उन दोनो की मृत्यु न हो गयी।‘‘ यद्यपि अनेक इतिहासकार इस कहानी पर विश्वास नही करते और उनका मानना है कि कासिम की मृत्यु का कारण राजनीतिक था। नया खलीफा सुलेमान हज्जाज से असन्तुष्ट था अतः हज्जाज के चचेरे भाई और दामाद होने के कारण मुहम्मद-बिन-कासिम को कैद करके मेसोपोटामिया भेज दिया गया जहॉ अनेक शारीरिक यातनाएॅ देकर उसे समाप्त कर दिया गया।

                      मुहम्मद-बिन-कासिम के आक्रमण के समय भारत की पश्चिमोत्तर सीमा

मुहम्मद-बिन-कासिम की सफलता के कारण-

मुहम्मद-बिन-कासिम के सिन्ध और मुल्तान में सफलता के अनेक कारण थे। सिन्ध आर्थिक सम्पन्नता, जनसंख्या और सैनिक दृष्टि से भारत का एक शक्तिशाली राज्य नही था। आर्थिक सम्पन्नता के अभाव में सिन्ध सैनिक दृष्टि से कभी भी एक सम्पन्न राज्य नही बन सका। दाहिर का राजवंश और स्वयं दाहिर न तो सुदृढ शासन स्थापित कर सका था और न ही जनता के बीच लोकप्रिय बन सका था। उसके प्रान्तीय सूबेदार प्रायः अर्द्धसवतंत्र थे और उनकी प्रजा उनके प्रति वफज्ञदार न थी। इसी कारण दाहिर अरबों के प्रति संगठित शाक्ति का प्रयोग नही कर सका। इसके अतिरिक्त भारत के एक कोने में अवस्थित था अतः भारत के अन्य शासक सिन्ध के प्रति उदासीन रहे। अरबों का सैन्य बल दाहिर के सैन्य शक्ति से ज्यादा श्रेष्ठ था। अरबों में धार्मिक जोश था जबकि सिन्ध के हिन्दुओं को प्रेरणा देने वाली ऐसी कोई भावना नही थी। हिन्दू अपनी घार्मिक उदारता के कारण धर्म के आधार पर राष्ट्रीयता का निर्माण नहीं कर सके। वह यह भी न समझ सके कि अरबों का आक्रमण उनके धर्म, सम्मान, समाज और संस्कृति पर होने वाले एक गम्भीर आक्रमण की पहली कडी है जिसका परिणाम भविष्य में बहुत बुरा होगा। दाहिर की सैनिक भूले भी सिन्ध के पराजय का कारण बनी। अरबों द्वारा मकरान को जीतने के पश्चता दाहिर को सचेत हो जाना चाहिए था और उसका मुकाबला करने के लिए अत्यधिक तैयारी करनी चाहिए थी परन्तु उसने ऐसा नही किया। रावर के युद्ध के पहले जबकि मुहम्मद-बिन-कासिम की सेना में बीमारी फेली हुई थी और वह सैनिक तैयारी की प्रतीक्षा कर रहा था, तब भी दाहिर ने उस पर आक्रमण नही किया। दाहिर की सबसे बडी भूल यह थी कि वह अपने ही प्रदेश से आक्रमणकारी की शक्ति को विभिन्न स्थानों पर न बिखेर सका और उसकी दुर्बल परिस्थितीयों में उसपर आक्रमण नही कर सका। हम मानते है कि दाहिर बहादुर और साहसी था परन्तु एक सैनिक की भॉंति अपने जीवन को युद्ध में झोंक देना उसकी भूल थी। इस प्रकार नेतृत्व, दूरदर्शिता और उचित अवसर के प्रयोग की दृष्टि से दाहिर असफल रहा और यही सिन्ध के पराजय का कारण बना। यह स्पष्ट हो चुका है कि देश-प्रेम की भावना के अभाव में विभिन्न अवसरों पर विभिन्न हिन्दुओं ने अपने राजा और देश की साथ दगाबाजी की। दूसरी तरफ मुहम्मद-बिन-कासिम का उत्साह, सैनिक नेतृत्व और उसकी योग्यता भी अरबों की सफलता का कारण बनी। अरबों की सफलता उनके जोश, शक्ति, योग्य नेतृत्व और एक निश्चित लक्ष्य के प्रति आस्था का परिणाम थी जबकि भारतीयों में कुल मिलाकर इन गुणों का अभाव था।

अरब आक्रमण का प्रभाव-

अरबों की सिन्ध की विजय से भारत का कोई महत्वपूर्ण भाग मुसलमानों के हाथ में नही गया और न ही अरबों ने भारत की राजनीतिक और सैनिक शक्ति को तोडा क्योंकि भारत में किसी भी शक्तिशाली राज्य से उनका युद्ध नही हुआ तथा सिन्ध की विजय ने मुसलमानों के लिए भारत विजय का मार्ग प्रशस्त नही किया। फिर भी अनेक इतिहासकारों ने अपने अपने ढंग से अरब आक्रमण के प्रभाव को रेखांकित करने का प्रयास किया है। राजपूतों का इतिहास लिखने वाले कर्नल टॉड ने अरबों के आक्रमण के प्रभाव को बहुत बढा-चढाकर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। कर्नल टॉड ने लिखा है कि- अरबों के आक्रमण से समस्त उत्तरी भारत दहल गया था। परन्तु उनके विचारों को कोई भी आधुनिक इतिहासकार स्वीकार नही करता है। सर बुल्जले हेग ने लिखा है कि- भारत के इतिहास में वह एक साधारण घटना थी और उसने इस विशाल प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र के एक छोटे प्रदेश मात्र को प्रभावित किया। इसी प्रकार लेनपूल ने लिखा है कि- यह इस्लाम के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी।
इसमें सन्देह नही है कि अरबों ने पहली बार भारत में इस्लामी राज्य की स्थापना की और बडी संख्या में भारत के एक क्षेत्र में हिन्दुओं को जबरर्दस्ती मुसलमान बनाया और अरब और इस्लामी संसार से भारत का निकट का परिचय कराया। परन्तु इसका अन्य कोई राजनीतिक प्रभाव भारत पर नही पडा। सांस्कृतिक दृष्टि से अरबों ने भारतीयों को प्रभावित नही किया। इसके विपरित अरब भारतीय संस्कृति और सभ्यता से प्रभावित हुए। स्थापत्य कला के अतिरिक्त हिन्दू और बौद्ध दर्शन ने अरबों की विचारधारा को गम्भीरता से प्रभावित किया। खलीफा अलमंसूर के समय में संस्कृत के ‘बह्म-सिद्धान्त‘ और ‘खण्ड खाद्यक‘ नामक ग्रन्थों का अरबी भाषा में अनुवाद किया गया। तप और सन्यास की विचारधारा को अरबों ने भारत से प्राप्त किया। इस प्रकार यद्यपि अरब सिन्ध में विजेता की दृष्टि से आये परन्तु तब भी सम्यता की दृष्टि से वे भारत को कुछ न दे सके वरन् उन्होने भारत से बहुत कुछ प्राप्त किया। डा0 आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के शब्दों में- ‘‘अरबों ने भारतीय ज्ञान को युरोप में पहुॅचाया, विशेषकर दर्शन, ज्योतिष और अंको को। 8वीं और 9वीं शताब्दी से युरोप में जो ज्ञान की ज्योति फैली उसका मुख्य कारण अरबों का भारत से सम्पर्क था।‘‘
इस प्रकार यह कहना उचित है कि अरबों के भारत पर किये गये आक्रमण का राजनीतिक प्रभाव नगण्य था परन्तु संस्कृति और सभ्यता की दृष्टि से वह अरबों के लिए ही नही अपितु अन्य देशों के लिए भी लाभदायक सिद्ध हुआ।

Post a Comment

Previous Post Next Post