विषय-प्रवेश (Introduction)
भारतीय इतिहास में एक इतिहासकार के रूप में कल्हण का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है और उनके द्वारा संस्कृत में रचित ग्रन्थ ‘राजतरंगिणी‘ अपने ढंग की अकेली रचना है। यह संस्कृत में उपलब्ध उन रचनाओं में सर्वाधिक पहली महत्वपूर्ण रचना है जिसमें इतिहास की विशेषताएॅ पाई जाती है। इसमें कल्हण ने भू-बैज्ञानिक युग से लेकर स्वयं अपने युग तक के अर्थात 12वीं सदी तक के इतिहास का विवरण दिया है। कल्हण ने अपनी कृति में केवल एक महान वीर के क्रियाकलापों का ही उल्लेख नही किया है उसने उस स्थिती को समझने और उसकी व्याख्या करने की कोशिश भी की है जिसमें वे रह रहे थे।
कश्मीर निवासी कल्हण जाति से ब्राह्मण था और उसका जन्म परिहासपुर में हुआ था। “राजतरंगिणी” की रचना कल्हण ने 1148-1149 में प्रारंभ की थी और दो बर्षो में इसे पूरा कर लिया था। कल्हण के पिता का नाम चम्पक था जो राजा हर्ष (1089-1101) के समय द्वारपति, मंत्री आदि महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके थे। हर्ष की मृत्यु के बाद वे अपने पदभार से पृथक हो गये थे। यह मंत्री-पुत्र कल्हण की प्रखर प्रतिभा और गहरी सूझ-बूझ का परिणाम है कि उसने अपने इतिहास का नाम “राजतरंगिणी” रखा। कल्हण एक कुशल इतिहासकार ही नहीं, एक कुलीन कवि भी था। उसने एक सफल कवि की तरह तरंगिणी अथवा नदी की तुलना राज्य से की है। उसका मानना था कि नदी के जल के समान देश में राजा आते हैं, जाते हैं, किंतु राजसिंहासन खाली नहीं रहता। जल की धारा राज का प्रवाह है जो न कभी सूखता है और न लौटकर ही आता है। तरंगिणी की यह धारा अविछिन्न रूप में बहती रहती है।
कल्हण की राजतरंगिणी एक लम्बा वर्णात्मक काव्य है जिसमें 8000 संस्कृत छन्द अथवा श्लोक है जो 8 सर्गो में बॅंटे हुए है। प्रत्येक सर्ग को कवि ने तरंग की संज्ञा दी है। कुल मिलाकर इस ग्रन्थ को तीन भागों में बॉटा जा सकता है। प्रथम भाग में 1 से 3 सर्ग अर्थात तरंग को रख सकते है जिसमें कल्हण ने समसामयिक परम्पराओं के आलोक में अतीत की घटनाओं का उल्लेख किया है। इसमें काश्मीर का 7वीं शताब्दी तक का इतिहास वर्णित है। द्वितीय भाग में 4 से 6 तरंगों को रखा जा सकता है जिसमें कार्कोट तथा उत्पल राजवंशों का इतिहास वर्णित है। इसके लेखन में कल्हण ने अपने पूर्ववर्ती इतिहासकारों तथा समकालीन इतिहासकारों के स्रोतों से सामग्री का उपयोग किया है। तृतीय भाग में अंतिम दो तरंगों अर्थात 7 से 8 सर्गों को रखा जा सकता है। यह राजतरंगिणी का सबसे लम्बा और विस्तृत भाग है जिसमें 12वीं शताब्दी का विवरण है। इसके अन्तर्गत काश्मीर के दो लोहार राजवंशों का इतिहास वर्णित है जिसके लेखन में कल्हण ने अपने व्यक्तिगत ज्ञान और प्रत्यक्ष दर्शन से संग्रहीत साक्ष्यों को आधार बनाया है।
कल्हण ने राजतरंगिणी इस उद्देश्य से लिखी थी कि लोग उससे लाभ उठाएं। उसे सुने, उसके पात्रों तथा उसमें वर्णित चरित्रों से प्रेरणा लेकर उन्हें याद रखें। राजतरंगिणी धार्मिक नहीं बल्कि एक राजनैतिक अथवा ऐतिहासिक कथा है। धार्मिक कथा के कारण जिस प्रकार चरित्र विकसित होता है, आत्मा का विस्तार होता है, ठीक उसी प्रकार इस राजनीतिक कथा के कारण राजाओं और देश का चरित्र सुधरेगा, यही कल्हण की मंशा थी। राजतरंगिणी लिखने का कल्हण का दूसरा कारण यह भी था कि उसने अनुभव किया था कि कितने ही कश्मीर के राजा विस्मृति के सागर में डूब गए थे। कतिपय कवियों की रचनाओं के कारण कुछेक राजाओं की ही स्मृति शेष रह गई थी। कल्हण का मानना है कवि अपनी रचनाओं की वजह से स्वयं जीवित तो रहता ही है, दूसरों को भी जीवित रखता है। राजकीय पदों पर रहने वाले मंत्री, सभासद, सेनानायक सबके सब काल के गाल में समा गए किंतु कल्हण अपनी बेमिसाल और बेजोड़ राजतरंगिणी की वजह से अमर हो गया। कल्हण इसलिए भी जीवित रह गया कि उसने विश्व में भारतीयों को इस कलंक से मुक्त किया कि भारतीयों का इतिहास नहीं है।
प्राचीन भारतीय इतिहास-लेखन के क्षेत्र में कल्हण का ’ऐतिहासिक’ व्यक्तित्व मील के एक ऐसे पत्थर की तरह अपनी महत्ता स्थापित करता है जो न केवल भारतीय अपितु पाश्चात्य इतिहास-जगत के प्रतिमानों पर भी अपनी स्वीकार्यता का स्पष्टतः मान कराता है। कश्मीर के इतिहास और संस्कृति की सामग्रिक व्याप्ति को प्रकाशमान करता हुआ उनका ग्रन्थ ’राजतरंगिणी’ बाशम के अनुसार, भारतीय इतिहास-लेखन का ऐसा एकमात्र उदाहरण है जिसे विश्व के किसी भी स्तरीय इतिहास-ग्रंथ की समकक्षता में रखा जा सकता है।’ कल्हण और उनकी राजतरंगिणी के ’ऐतिहासिक महत्व के कारण यद्यपि अनेक भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों एवं इतिहासविदों का ध्यान समय-समय पर उनकी ओर आकृष्ट हुआ है और तत्परिणामस्वरूप विद्वानों द्वारा उन पर केन्द्रित कतिपय उत्कृष्ट कृतियाँ प्रकाश में आयी हैं तथापि ये सभी प्रयास मूलतः राजतरंगिणी को ऐतिहासिक स्रोत के रूप में मूल्यांकित करते हुए उसका अध्ययन करने के प्रति केन्द्रित रहे हैं जबकि इतिहास-ग्रंथ होते हुए भी राजतरंगिणी मूल स्वरूप में ’काव्य’ है जो तत्कालीन मानकों के अनुरूप काव्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और ’काव्य’ के मूल सिद्धान्त – एक निश्चित रसविशेष की उत्पत्ति के लक्ष्य को सदैव अपने सामने रखता है।“ ग्रंथ के आरम्भ में भूतकाल को वर्तमान के समक्ष प्रस्तुत करने में सक्षम सुकवि की प्रजापति के साथ समता स्थापित करते हुए तथा काव्य-रस को अमृत से भी श्रेष्ठतर बताते हुए कल्हण का अप्रत्यक्ष आग्रह भी राजतरंगिणी के काव्यगत सौन्दर्य के प्रति कुछ झुका हुआ सा प्रतीत होता है यद्यपि वे कश्मीर के यथासंभव तथ्यपरक इतिहास लेखन के प्रति रंचमात्र भी विचलित होते हुए नहीं दिखायी पड़ते। यही वह प्रस्थान-बिन्दु है जहाँ से प्रस्तुत लेख इस विचारणा का आरम्भ करता है कि काव्य और इतिहास क्या नैसर्गिक रूप से परस्पर-विरोधी ही हैं अथवा उनमें कोई परस्पर सम्बन्ध भी है? स्वरूपतः काव्य कल्पनाधारित प्रस्तुति है जबकि इतिहास की नैसर्गिक तथ्यपरकता को लेकर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता किन्तु फिर भी वे किसी बिन्दु पर कहीं मिलते हैं।
यह एक सुविदित तथ्य है कि कल्हण की राजतरंगिणी प्रारम्भ से लेकर कल्हण के काल तक कश्मीर का विशद् इतिहास प्रस्तुत करती है जिसके आरम्भिक अंशों में ’अनैतिहासिक’ विवरणों के बावजूद ऐतिहासिक सूचनाओं से सर्वथा शून्य नहीं हैं और यदि ’विक्रमादित्य (द्वितीय)- जिसने मातृगुप्त को सिंहासन पर बिठाया- के काल से सम्बन्धित विवरण पर्याप्तः विश्वसनीय होते जाते हैं और कारकोट वंश के काल से तो राजतरंगिणी का ऐतिहासिक स्वरूप निश्चयतः उभरने लगता है जो धीरे-धीरे ’इतिहास’ में रूपान्तरित हो जाता है। राजतरंगिणी के इस ’इतिहास-रूपान्तरण’ में कल्हण की तथ्यपरक एवं साक्ष्याधारित लेखन-पद्धति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है जिसके अन्तर्गत ’उसने इतिहास की प्राचीन परम्पराओं का पालन करते हुए उत्तरकालीन महाकाव्य के कलापरक अनुरोधों की ओर बिल्हण आदि लेखकों की अपेक्षा कम ध्यान दिया और अपने इतिहास की प्रामाणिकता-स्थापना के उद्देश्य से सभी उपलब्ध-साहित्यिक, आमिलेखिक, मुद्राशास्त्रीय आदि स्रोतों-साक्ष्यों का आलोचनात्मक दृष्टि से उपयोग किया और तत्पश्चात् उनसे प्राप्त सामग्री की ’राग-द्वेष-बहिष्कृत’ मनोभाव से व्याख्या कर अपना निष्कर्ष प्राप्त किया’ जो इतिहास-लेखन की आधुनिक पद्धति का ही पूर्व-रूप प्रतीत होता है और वही राजतरंगिणी को इतिहास का रूप प्रदान करता है। किन्तु इसके साथ ही साथ यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है, जैसा कि वार्डर का कथन है, “कल्हण भी काव्य की ही रचना कर रहा है और उसका लक्ष्य साहित्यिक सौन्दर्य तथा ऐतिहासिक सत्य का समन्वय करना है। वह अपने आपको केवल एक सरल छन्द (के प्रयोग) तक सीमित रखता है और भाषा की पेचीदगी तथा काव्यात्मक वर्णन का विस्तार करने से दूर रहता है वह काव्य के मूल सिद्धान्त अर्थात् पाठक के हृदय में रस-निष्पत्ति के घर सामने रखता है। शान्त रस के सृजन को इतिहास की मुख्य शिक्षा के रूप में देखते हुए वह शान्त रस को ही अपने पाठकों में प्राथमिक प्रभाव के रूप में उत्पन्न कर देना पसन्द करता है। साहित्यिक सौन्दर्य की सच्चाई को ऐक्य प्रदान करने वाला यह सिद्धान्त उसकी सम्पूर्ण रचना में व्यापक है।’’ प्राचीन भारतीयों की बहुप्रचारित इतिहास-विषयक उदासीनता के बावजूद इस बात में किन्चित मात्र मी सन्देह की गुंजाइश नहीं है कि प्राचीन भारतीय अपने अतीत के प्रति सजग थे और उन्होंने अपने तरीके से उसे संरक्षित-सुरक्षित करने का प्रयास भी किया। कम से कम मौर्यकाल से शासन का ध्यान इस ओर पर्याप्त रूप में आकृष्ट हुआ और हम जानते हैं कि इतिहास की महत्ता से अवगत कौटिल्य एक ओर तो राजा की दिनचर्या में मध्याह्न के बाद इतिहास के श्रवण का निर्देश देता है“ तो दूसरी ओर प्रशासनिक व्यवस्था के अन्तर्गत अक्षपटल तथा अक्षपाटलिक के उल्लेख से इस बात के स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि राजस्व तथा दान आदि से सम्बन्धित तथा अन्य महत्वपूर्ण लेखों-प्रलेखों-अभिलेखों को सुरक्षित रखे जाने की समुचित व्यवस्था की जाती थी जिसका नैरन्तर्य आगे भी जारी रहा और स्वयं कल्हण राजतरंगिणी में इस बात का स्पष्ट संकेतन करते हैं। अतीत के संरक्षण और इतिहास-लेखन की प्राचीन भारतीयों की विशिष्टतापरक परम्परा के सातत्य में “प्रथम शताब्दी ईसवी से काव्य उस क्षेत्र में अतिक्रमण करता हुआ दिखायी देता है जो पहले इतिहास का क्षेत्र माना जाता था। इतिहास-लेखन पर इस प्रवृत्ति के गम्भीर प्रभाव पड़े, इन ऐतिहासिक काव्यों में प्रत्यक्ष तथ्य-संप्रेषण के स्थान पर अप्रत्यक्ष तथा लक्षणात्मक अभिकथन मिलते हैं जिनका मूल उद्देश्य सौन्दर्यशास्त्रीय प्रभाव उत्पन्न करना है। इस प्रकार गौण इतिहास-लेखन के साथ ही साथ प्राथमिक इतिहास-लेखन-विद्या में भी तथ्य पक्ष की अपेक्षा कला पक्ष की सर्वोपरिता प्रतिष्ठापित होने लगी। इस प्रकार के इतिहास-लेखन के उदाहरण बाणकृत हर्षचरित से लेकर चरितसाहित्य के अन्तर्गत लिखे जाने वाले विक्रमांकदेवचरित, नवसाहसांकचरित, पृथ्वीराजविजय. आदि ग्रंथों के रूप में देखे जा सकते हैं जिनमें ऐतिहासिकता के तत्व निश्चित रूप से विद्यमान है किन्तु उसका प्रस्तुतीकरण सौन्दर्यशास्त्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए किया गया है। कल्हण ने राजतरंगिणी की रचना भारतीय इतिहास-लेखन की मूल परम्परा के अन्तर्गत की है किन्तु, जैसा कि पूर्व में संकेत किया जा चुका है, उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों की अपेक्षा अपने ग्रंथ में सौन्दर्यशास्त्रीय आवश्यकताओं के प्रति बहुत कम ध्यान दिया है और उसकी काव्यात्मकता का ध्यान रखते हुए भी ’इतिहास’ का बलिदान नहीं होने दिया है।
कवि की रचनात्मकता अथवा सृजनात्मकता तथा इतिहासकार की अतीत की पुनर्संरचना की क्षमता के समन्वयन की कल्हण की दृष्टि राजतरंगिणी के प्रारम्भिक अंशों में ही उभरती दिखायी देती है जहाँ सुकवि को प्रजापति के समकक्ष रखते हुए वे लिखते हैं कि ’प्रजापति’ के समान रमणीय (काव्य का) निर्माण करने वाले कवि के अतिरिक्त दूसरा कौन सा प्राणी काल का अतिक्रमण करते हुए भूतकाल को प्रत्यक्ष कर सकता है’ तथा ’नयी-नयी सूझ देने वाली अपनी बुद्धि से कवि यदि सहृदय-संवेद्य भावों को न देखता तो उसकी दिव्य-दृष्टि का प्रमाण ही क्या होता।’’ काव्य और कवि के प्रति कल्हण का लगाव राजतरंगिणी में स्पष्टतः परिलक्षित होता है जहाँ वे ’सुकवि जनों के अमृत के प्रवाह को भी तुच्छ कर देने वाले उस अनिर्वचनीय गुणों की वन्दना करते हैं जिसके प्रभाव से अपना और पराया शरीर अमर हो जाता है। एक अन्य स्थान पर कल्हण उस कवि कर्म का गुणगान करते हैं ’जिसके अभाव में महान बलशाली राजाओं का भी स्मरण संभव नहीं हो सकता। किन्तु इसके बावजूद भी कल्हण का काव्याकर्षण उनकी काव्यासक्ति में परिणत नहीं होता क्योंकि वह इतिहासकार की समीक्षात्मक बुद्धि का क्षणमात्र के लिए भी लोप नहीं होने देते। उनके अनुसार “वही गुणवान श्रेष्ठ है जो राग-द्वेष के मनोभावों से सर्वथा मुक्त होकर अतीत कथन में सरस्वती (अर्थात् सत्य) का आलंबन करता है। इस प्रकार सौन्दर्य-बोध के साथ सत्यात्मक दृष्टि कल्हण के काव्य का भी वैषिष्ट्य है और इतिहास का भी, और इन दोनों के समन्वयन के प्रति सचेष्ट “कल्हण ने अपने काव्य की रचना इस प्रकार की है, जिससे कि उन उपाख्यानों को प्राधान्य दिया जा सके जो विशेषतः इतिहास की शिक्षा का ऐसा विवरण तथा प्रवर्तन करते हों, जैसा कि वह समझता है।’’ स्पष्ट है – कल्हण की दृष्टि में अभिव्यक्ति का माध्यम है जो अपनी सरसता एवं रोचक उनके ’इतिहास’ को पठनीय बनाने में सक्षम है और इस रूप में महाभारत के लिए आदर्श है जिसका रस-वैविध्य पाठक के मन में वैराग्य की भावना व करते हुए उसे अन्ततोगत्वा मानसिक शान्ति की ओर ले जाता है और राजतनी में घटनात्मकता तथा वर्णनात्मकता के रूप-वैचित्र्य तथा तदानुरूप रस-वैविध्य के बावजूद शान्त रस का प्राधान्य कल्हण को काव्यादर्श की भारतीय परम्परा की सानुकूलता में प्रतिष्ठित करता है और साथ ही भारतीय इतिहास की परम्परा में भी उनका महत्व अक्षुण्ण बनाये रखता है। काव्य और इतिहास का आभासतः परस्पर-विरोध कल्हण और राजतरंगिणी के सन्दर्भ में अधिक दूर तक नहीं जाता और कल्हण के कवि-रूप को मान्यता देते हुए भी उसके इतिहासकार का महत्व कदापि कम नहीं होने देता।
एलेन नेविन्स ने इतिहास की दो आधारभूत विशेषताएं बतायी हैं –
(1) विश्वसनीय स्रोत-सामग्री तथा
(2) इस सामग्री का आलोचनात्मक अध्ययन।
कल्हण की इतिहास-दृष्टि तथा राजतरंगिणी की स्रोत-सामग्री का इतिहास की उपरोक्त दोनों कसौटियों पर परीक्षण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि न केवल भारतीय इतिहास-परम्परा बल्कि पाश्चात्य मानदण्डों पर भी राजतरंगिणी की ऐतिहासिक महत्ता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता। अपनी ग्रंथ-रचना का प्रयोजन पूर्णतः निर्दोष तथा सत्य इतिहास को प्रकट करना बताते हुए कल्हण अपने पूर्ववर्ती इतिहासकारों के ग्रंथों के गुण-दोष विवेचन में प्रवृत्त होते हैं और अपने विवरणों की प्रामाणिकता के लिए कश्मीर के इतिहास पर लिखे गये पूर्वकालीन ग्यारह ग्रंथो के अतिरिक्त प्राचीन राजाओं द्वारा बनवाये गये देवमंदिरों, नगरों, ताम्रपत्रों, आज्ञापत्रा, प्रशस्ति-पत्रों एवं अन्यान्य शास्त्रों के मनन-मंथन का आश्रय लेते हैं। इस ’विश्वसनीय स्रोत-सामग्री का राग-द्वेष मुक्त अर्थात् आलोचनात्मक बुद्धि से व्याख्या-विरल करते हुए कल्हण एक सजग इतिहासकार के रूप में हमारे सामने आत है । विवरणों की प्रत्यक्षता तथा व्याख्या की निष्पक्षता अपने पूर्वकालीनों और समका की तुलना में उन्हें एक विशिष्ट धरातल पर प्रतिष्ठापित कर देती है और राजतरगिणी को भारतीय इतिहास की एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना का सम्मान प्रदान करती है।
कल्हण की निष्पक्षता, स्पष्टकथनता, प्रत्यक्षता और साक्ष्यपरकता ’इतिहासकार’ के उच्चतम दायित्व-बोध के साथ राजतरंगिणी के ’ऐतिहासिक’ कलेवर को रूप-लाभ का आधार प्रदान करती है। राजदरबार के षड्यन्त्रों, राज्य के उच्चाधिकारियों के भ्रष्ट आचरणों तथा प्रशासनिक व्यवस्था के दोषों की भर्त्सना इतने स्पष्ट शब्दों में करते हैं कि कमी-कभी इस बात पर संदेह होता है कि क्या उनका ग्रंथ उनके जीवनकाल में प्रकाशित-प्रचारित हो भी सका था? यहाँ तक कि अपने संरक्षक एवं आश्रयदाता राजा हर्ष के दोषों का भी उन्होंने पूरी तटस्थता के साथ सविस्तार वर्णन किया है और यह बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार हर्ष का शासनकाल कश्मीर राज्य की प्रजा और उसकी समृद्धि के लिए दुःखदायी था। दूसरी ओर विपक्षियों के गुणों की प्रशंसा करने में भी वे पीछे नहीं रहते हैं और यही कारण है कि राजतरंगिणी में वर्णित पात्र और चरित्र ’टाइप्ड’ न होकर अपने निजी व्यक्तित्व के साथ उभरते हैं और कल्हण के चरित्र-चित्रण को वास्तविकता का आधार प्रदान करते हैं। एक इतिहासकार के रूप में कल्हण के गुण-दोषों का निरूपण करते हुए घोषाल ने कल्हण की छः विशेषताओं की ओर संकेत किया है। ये विशेषताएं हैं : भौगोलिक ज्ञान की गहनता और निश्चयात्मकता; देश-भक्ति की भावना से पूरित राज्य-निष्ठा के प्रति प्रशंसा एवं विश्वासघात तथा देशद्रोह के प्रति भर्त्सना का भाव; वीरों की प्रशंसा तथा कायरों की निन्दा, अपने संरक्षक राजा के अवास्तविक गुणों की प्रशंसा करने में तत्कालीन साहित्यिक परम्परा के विपरीत निष्पक्षता का व्यवहार; ऐतिहासिक न्याय के प्रति सराहना का भाव; ऐतिहासिक घटनाओं की बुद्धिवादी व्याख्या तथा मानवीय व्यवहार के विश्लेषण में आलोचनात्मक उपागम का यदा-कदा प्रदर्शन। कल्हण की कतिपय कमियों के प्रति भी घोषाल ने दृष्टिपात किया है, यद्यपि इन कमियों के लिए उन्होंने तत्कालीन वातावरण को कारण ठहराया है। उनके अनुसार जनसामान्य में प्रचलित अभिचार, जादू-टोना एवं शकुन विद्या की तथा भाग्य की सर्वोच्चता और कर्म के सिद्धान्त की धारणा में उनका विश्वास था। साथ ही अपनी जन्मभूमि के सम्बन्ध में ऐतिहासिक तथा पुरावृत्तीय तत्वों में विमेद के प्रति उदासीनता के कारण इतिहास और पुरावृत्त में कभी-कमी अन्तर न कर पाना कल्हण की इतिहासकार के रूप में सबसे बड़ी कमी रही है।
इस प्रकार, काव्य और इतिहास आभासतः दो परस्पर विरोधी विधायें होने के बावजूद वे अन्तरतः कतिपय अन्तस्पर्शी भाव-सूत्रों से परस्पर-सम्बद्ध होती है और भारतीय परम्परा में इसका स्पष्टतम उदाहरण महाभारत है जो एक ओर न केवल काव्य, बल्कि महाकाव्य, माना जाता है और दूसरी ओर ’जयो नामेतिहासोऽयं में अपनी इतिहासवत्ता की घोषणा करते हुए ’एष इतिहास सनातनः’ द्वारा बार-बार उसकी पुष्टि करता है। अपने इस दोहरे रूप में महाभारत लगभग सभी परवर्ती काव्यग्रंथों की रचना-यात्रा में उनके पाथेय की भूमिका का निर्वहन करता है जिसका अपवाद राजतरंगिणी भी नहीं है। इस सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि काव्य और इतिहास का यह अन्तर्सम्बन्ध केवल भारतीय परम्परा में ही नहीं देखने को मिलता बल्कि पाश्चात्य क्लासिकी परम्परा में भी इसके सूत्र देखे जा सकते हैं। इतिहास-पिता हेरोडोट्स को द्वितीय होमर कहा जाना इसी तथ्य का संकेतन करता है। थ्यूसीडाइडिज एवं पॉलिबियस के काफी समय बाद रोमन परम्परा में इतिहास को काव्योचित लक्षणों से युक्त एक ऐसी विद्या के रूप में देखा जाता था जिसमें नैतिक शिक्षण के उद्देश्य से महत्वपूर्ण तथ्यों का समावेश किया गया हो।“ अपनी समग्रगत व्याप्ति में देखे जाने पर राजतरंगिणी अपने रचनाकार के एक ऐसे प्रयास का परिणाम बनकर हमारे सामने प्रस्तुत होती है जो इतिहास की रचना के लिए प्रवृत्त तो होता है किन्तु उसे अपनी तथ्यपरक प्रकृति के कारण उत्पन्न होने वाली शुष्कता और नीरसता से बचाकर पाठकों के लिए रोचक और पठनीय बनाने के उद्देश्य से ’काव्य’ का आश्रय लेता है साथ ही इस बात के प्रति पूरी तरह सचेत रहता है कि काव्यात्मकता का मोह उसके इतिहास को पराभूत न कर दे। अतएव काव्यशास्त्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह उसे एक निर्धारित सीमा के बाहर नहीं जाने देता है। यह सीमा इतिहासकार द्वारा इतिहासकार के लिए निर्धारित सीमा है ताकि इतिहास की इतिहासवत्ता बनी रहे और उसकी प्रामाणिकता काव्यात्मकता का ग्रास न बन सके। कल्हण को भी हम इसी दृष्टि और नजरिये से देख सकते है। कल्हण का दृष्ठिकोण बहुत उदार था; माहेश्वर (ब्राह्मण) होते हुए भी उसने बौद्ध दर्शन की उदात्त परंपराओं को सराहा है और पाखंडी (शैव) तांत्रिकों को आड़े हाथों लिया है। सच्चे देशभक्त की तरह उसने अपने देशवासियों की बुराइयों पर से पर्दा सरका दिया है और एक सच्चे सहृदय की तरह देशकाल की सीमाओं से ऊपर उठकर, सत्य, शिव और सुंदर का अभिनंदन तथा प्रतिपादन किया है।
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