window.location = "http://www.yoururl.com"; Shaktism: Origin and Evolution. // शाक्त धर्म : उद्भव और विकास

Shaktism: Origin and Evolution. // शाक्त धर्म : उद्भव और विकास

विषय-प्रवेश :

आदि शक्ति अर्थात देवी की उपासना करने वाला सम्प्रदाय शाक्त कहा जाता है। प्राचीन भारतीय देवसमूह में देवताओं के साथ-साथ देवियों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है तथा शक्ति (देवी) की पूजा अत्यन्त प्राचीन काल से होती रही है। विशेष रूप से भारत में वैष्णव तथा शैव धर्मों के ही समान ही शाक्त धर्म भी अत्यन्त लोकप्रिय रहा है। क्रमशः शक्ति के साथ कई नाम संयुक्त हो गये जैसे- दुर्गा, काली, भवानी, चामुण्डा, रुद्राणी, लक्ष्मी, सरस्वती आदि। समय के साथ दुर्गा को आदिशक्ति स्वीकार कर उन्हें सृष्टि, पालन तथा संहारकर्ता के रूप में मान्यता प्रदान की गयी।

शाक्त धर्म की उत्पत्ति -

शाक्त धर्म का शैव धर्म के साथ घनिष्ठ संबंध रहा है। शिव की पत्नी पार्वती (उमा) को जगजननी कहा जाता है। शैवमत के ही समान शाक्त मत की प्राचीनता भी प्रागैतिहासिक युग तक जाती है। सैन्धव सभ्यता में मातृदेवी की उपासना व्यापक रूप से प्रचलित थी। खुदाई में माता देवी की बहुसंख्यक मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं। वैदिक साहित्य से अदिति, उषा, सरस्वती, श्री, लक्ष्मी आदि देवियों के विषय में विस्तृत सूचना मिलती है। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में देवीसूक्त मिलता है, जिसमें वाक्शक्ति की उपासना की गयी है। वह एक स्थान पर कहती है – मैं समस्त जगत की अधीश्वरी हूँ, अपने भक्तों को धन प्राप्त कराने वाली, ब्रह्म को अपने से अभिन्न मानने वाली तथा देवताओं में प्रधान हूँ। मैं सभी भूतों में स्थित हूँ, विभिन्न स्थानों में रहने वाले देवगण जो कुछ भी कार्य करते हैं वह सब मेरे लिये ही करते हैं। इसी प्रकार अदिति का माता के रूप में कई ऋचाओं में वर्णन मिलता है। वह माता, पिता तथा पुत्र सब कुछ है। सभी देवगण, पंचजन, भूत तथा भविष्य सभी कुछ अदिति ही हैं। सरस्वती की ऋग्वेद में सौभाग्यदायिनी कहकर स्तुति की गयी है। अथर्ववेद में पृथ्वी को माता कहकर उसकी पुत्र, धन, मधुर वचन प्रदान करने के लिये स्तुति की गयी है। इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि शक्ति की महत्ता को वैदिक ऋषियों ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया था। शक्ति की उपासना के उद्भव के पीछे वैदिक तथा अवैदिक दोनों ही प्रवृत्तियों का योगदान रहा है।

शाक्त धर्म का विस्तार -

महाभारत तथा पुराणों में देवी माहात्म्य का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। महाभारत के समय तक शाक्ति संप्रदाय समाज में ठोस आधार प्राप्त कर चुका था। भीष्मपर्व में वर्णित है कि कृष्ण की सलाह पर अर्जुन ने युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिये देवी दुर्गा की स्तुति की थी। वहीं बताया गया है कि प्रातः काल शक्ति की उपासना करने वाला व्यक्ति युद्ध में विजय प्राप्त करता है तथा उसे लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। विराट पर्व में युधिष्ठिर ने देवी को विन्ध्यवासिनी, महिषासुरमर्दिनी, यशोदा के गर्भ से उत्पन्न, नारायण की परमप्रिया तथा कृष्ण की बहन कहकर उनकी स्तुति की है। बताया गया है कि देवी ने नंदगोप के कुल में यशोदा के गर्भ से जन्म लिया। कंस द्वारा कन्या रूप में शिला पर पटके जाने पर वह आकाश मार्ग से चली गयी तथा विन्ध्यपर्वत पर जाकर बस गयी। पुराणों में भी विन्ध्यपर्वत को देवी का निवास स्थान बताया गया है। मार्कण्डेय पुराण में देवी की महिमा का विस्तृत गुणगान करते हुये उसकी स्तुति की गयी है। देवी को सभी प्राणियों में विष्णु-माया, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, शान्ति, लज्जा, जाति, श्रद्धा, कान्ति, लक्ष्मी, वृत्ति, स्मृति, दया, तुष्टि, मातृ आदि रूपों में स्थित बताकर उनकी उपासना की गयी है। उसे स्वर्ग तथा उपवर्ग एवं सभी प्रकार के मंगलों को देने वाली कहा गया है। उसकी पुष्टि, पालन तथा संहार की शक्तिभता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा गुणमयी कहकर स्तुति की गयी है। वर्णित है कि उसी शक्ति ने महिषासुर का वध किया, जिससे वह महिषासुरमर्दिनी नाम से विख्यात हुई। मार्कण्डेय पुराण में दुर्गा की कथा एवं स्तुति से संबंधित दुर्गासप्तशती नामक अंश है, जिसका पाठ नवरात्र के दिनों में अत्यन्त श्रद्धापूर्वक किया जाता है। एक अन्य कथा में बताया गया है, कि देवता जब शुम्भ तथा निशुम्भ जैसे असुरों से पीङित हुए तब उन्होंने हिमालय पर्वत पर जाकर आराधना की। इससे प्रसन्न होकर देवी ने अपने को प्रकट किया तथा असुरों का विनाश कर डाला। वह अम्बिका, काली, चामुण्डा, कौशिकी आदि नामों से विख्यात हुई।

इस सम्प्रदाय में  देवी की उपासना तीन रूपों में की जाती थी-

शांत या सौम्य रूप
उग्र या प्रचंड रूप
कामप्रधान रूप

उपर्युक्त तीनों के अन्तर्गत अनेक देवियों की कल्पना की गयी है। सामान्यतः देवी के सौम्य रूप की उपासना की जाती थी। उमा, पार्वती, लक्ष्मी आदि नाम उसके सौम्य रूप के ही प्रतीक हैं। दुर्गा, चंडी, कापाली, भैरवी आदि नाम उग्र रूप प्रकट करते हैं। कापालिक तथा कालमुख संप्रदाय के लोग इसी रूप की आराधना करते हैं। इसमें देवी को प्रसन्न करने के लिये पशुओं की बलि दी जाती है तथा सुरा, मांस आदि का प्रयोग मुख्य रूप से होता है। कामप्रधान रूप में देवी की उपासना शाक्त लोगों द्वारा की जाती है, जो उसे आनंद भैरवी, त्रिपुरी-सुन्दरी, ललिता आदि नाम प्रदान करते हैं। देवी के तीनों रूपों के मंदिर भारत के विभिन्न भागों में आज भी वर्तमान है। सौम्य रूप का मंदिर जम्मू के निकट वैष्णोदेवी का है, जहाँ शारदा की मूर्ति है। इसी प्रकार का एक मंदिर सतना (मध्यप्रदेश) के समीप मैहर में ऊँची पहाङी पर स्थित है। कलकत्ता स्थित काली का मंदिर देवी के उग्र रूप का है तथा असम का कामाख्या मंदिर देवी के कामप्रधान रूप का प्रतिनिधित्व करता है।

शक्ति की पूजा प्रागैतिहासिक युग से लेकर आज तक अबाध गति से होती आयी है तथा हिन्दू जनता में काफी लोकप्रिय है। शक्ति-पूजा का प्रथम ऐतिहासिक पुरातात्विक प्रमाण कुषाण शासक हुविष्क के सिक्कों पर अंकित देवी के चित्रों में मिलता है। इससे पता चलता है, कि ईसा की प्रथम शताब्दी तक देवी की मूर्तियाँ बनने लगी थी।

गुप्तकाल में पौराणिक हिन्दू धर्म की उन्नति हुई। इस समय विभिन्न देवताओं के साथ-साथ देवियों की उपासना भी व्यापक रूप से की जाती थी। नचना-कुठार में इस समय पार्वती के मंदिर का निर्माण हुआ। दुर्गा, गंगा, यमुना, आदि की बहुसंख्यक मूर्तियाँ इस काल में विभिन्न स्थलों से मिलती हैं। गंगा तथा यमुना का अंकन गुप्तकालीन मंदिरों के चौखटों पर मिलता है।

हर्षकाल में भी शक्ति पूजा का खूब प्रचलन था। हर्षचरित में कई स्थानों पर दुर्गादेवी की पूजा का उल्लेख मिलता है। ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि उस समय दुर्गा देवी को मनुष्यों की भी बलि दी जाती थी। वह लिखता है, कि एक बार समुद्र से यात्रा करते हुये उसे डाकुओं ने पकङ लिया तथा दुर्गा देवी की बलि चढाने के निमित्त उसे ले गये थे, किन्तु तूफान ने उसकी जान बचाई। पूर्व मध्यकाल में देवी की उपासना अत्यधिक लोकप्रिय हो गयी। देवी के अधिकांश मंदिर इसी युग के बने हैं। मध्य प्रदेश के जबलपुर में भेङाघाट के पास चौसठ योगिनी का मंदिर है, जहाँ नवीं-दसवीं शताब्दियों में कई देवी मूर्तियों का निर्माण किया गया था। इनमें दुर्गा और सप्तमात्रिकाओं की चौवालीस मूर्तियाँ हैं। खजुराहों में भी इसी प्रकार की मूर्तियाँ मिलती हैं। उङीसा, राजस्थान आदि के विभिन्न भागों से देवी की मूर्तियाँ तथा उसकी पूजा से संबंधित लेख प्राप्त होते हैं। राष्ट्रकूट अमोघवर्ष महालक्ष्मी का अनन्य भक्त था। संजन लेख से पता चलता है, कि उसने एक बार अपने बायें हाथ की अंगुली काटकर देवी को चढा दी थी। पूर्व मध्यकाल के साहित्यकारों तथा विदेशी लेखकों ने देवी के मंदिरों तथा उसकी उपासना का उल्लेख किया है। कल्हण के विवरण से पता चलता है कि शारदा देवी का दर्शन करने के लिये गौङ नरेश के अनुयायी कश्मीर आये थे। अबुल फजल भी शारदा देवी के मंदिर का विवरण देता है।

शाक्त तांत्रिक विचारधारा (Shakta tantric ideology)-

पूर्व मध्यकाल तक आते-आते शाक्त-धर्म तंत्रवाद से पूर्णतया प्रभावित हो गया और शाक्त-तांत्रिक विचारधारा समाज में अत्यधिक लोकप्रिय हो गयी। यहाँ तक कि प्राचीन धर्म भी इसके प्रभाव में आ गये । बौद्ध, कश्मीर शैवमत, वैष्णव, जैन आदि सभी धर्मों पर शाक्त-तांत्रिक विचारधारा का प्रभाव पड़ा तथा लोगों की आस्था तंत्र-मंत्रों में दृढ़ हो गयी।
जैन मत की देवी सचिवा देवी की उपासना शाक्त ढंग से की जाने लगी तथा कुछ जैन आचार्यों ने चौसठ योगिनियों के ऊपर सिद्धि प्राप्ति कर लेने का दावा किया। श्रीहर्ष ने अपने ग्रंथ ‘नैषधचरित‘ में सरस्वती मंत्र की महत्ता का प्रतिपादन किया जबकि गुजरात के चौलुक्य शासक कुमारपाल जैन नमस्कार मंत्र में अटूट विश्वास रखता था। उसका विश्वास था कि इसी मंत्र के कारण उसे सर्वत्र सफलता प्राप्त हुई थी। तंत्रवाद के बढते हुए प्रभाव के फलस्वरूप समाज में अनेक अन्धविश्वास दृढ़ हो गये। किन्तु तंत्रवाद से हिन्दू सामाजिक एवं सांस्कृतिक विचारधारा को कुछ लाभ भी हुए। जैसा कि रसार्णव (बारहवीं शती) से स्पष्ट होता है तंत्रवाद ने भारतीय रसायन शास्त्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
स्त्रियों की दशा सुधारने तथा जाति-पांति के बन्धनों को शिथिल बनाने की दिशा में भी तांत्रिक विचारधारा का कुछ योगदान रहा। शाक्त-तांत्रिक मत में एक ही देवता की पूजा पर विशेष बल दिया जाता था। इस विचारधारा ने पूर्वमध्यकाल में भक्ति आन्दोलन को वेग प्रदान किया। तांत्रिक सहजयान से ही नाथ सम्प्रदाय का उदय हुआ जिसने मध्यकाल में कबीर, दादू, नानक आदि सन्तों के लिये मार्ग प्रशस्त किया ।
तांत्रिक विचारधारा का आधार ‘शक्तिवाद’ है। यही कारण है कि कश्मीर शैवमत शक्ति को शिव की अन्तर्निहित प्रकृति तथा सर्वोच्च शक्ति मानता है। यही सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। तांत्रिक धर्म का लक्ष्य ‘ज्ञान कर्म समुच्चयवाद’ पर केन्द्रित है। इसमें जप, तप, मंत्र पर विशेष बल दिया जाता है। इन्हीं के द्वारा साधक स्वास्थय, धन तथा शक्ति की प्राप्ति करता है। सम्प्रति शाक्त उपासना के तीन प्रमुख केन्द्र है- कश्मीर, कान्ची तथा असम स्थित कामाख्या। प्रथम दो श्रीविद्या के प्रमुख स्थल है जबकि अन्तिम कौल मत का प्रसिद्ध केन्द्र है ।

शाक्त धर्म के सिद्धांत और आचार(Principles of Shaktism) –

शाक्त मत के अनुयायी महामातृ देवी को आदि शक्ति मानकर उसी की आराधना करते है। वही सृष्टि की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करती है। शक्ति साधक देवी के किसी एक रूप को इष्ट मानकर उसके साथ अपना तादास्थ्य स्थापित करने में विश्वास रखता है। वस्तुतः शक्ति, शिव का ही क्रियाशील रूप है। इस मत में भक्ति, ज्ञान तथा कर्म तीनों को महत्व दिया गया है।
शाक्त धर्म में तन्त्र-मन्त्र, ध्यान, योग आदि का भी स्थान है। सांसारिक भोगों को मोक्ष के मार्ग में साधक माना गया है। शाक्त धर्म में ‘कुण्डलिनी’ नामक रहस्यमय शक्ति का अत्यधिक महत्व है। साधना तथा मन्त्रों के द्वारा जब यह शक्ति जागृत की जाती है तभी मुक्ति मिलती है। कौलमार्गी शाक्त पंचमकारों अर्थात मदिरा, मांस, मल, मुद्रा तक मैथुन की उपासना के द्वारा मुक्ति पाने में विश्वास रखते हैं। उनके आचरण अत्यन्त घृणित हैं।

शाक्त सम्प्रदाय में देवी की स्तुति प्रायः तीन प्रकार में की जाती है :

(1) पहले में महापद्मवन में शिव की गोद में बैठी हुई देवी का ध्यान किया जाता है । उनका ध्यान हृदय तथा मन को आल्हादित करता है। देवी स्वयं आनन्द स्वरूपा हैं।
(2) इसमें भूर्जपत्र, रेशमी वस्त्र अथवा स्वर्णपत्र की सहायता से नौ योनियों का वृत बनाकर उसके मध्य में एक योनि का चित्र खींचकर चक्र बनाया जाता है। इसे ‘श्रीचक्र’ कहते है, इसकी पूजा दो प्रकार से की जाती है- एक जीवित स्त्री की योनि की तथा दूसरे काल्पनिक योनि की। इस आधार पर उनकी दो शाखाएं भी हैं।
(3) इसमें दार्शनिक ढंग से ज्ञान के द्वारा देवी की उपासना की जाती है। इसे पद्धति में अध्ययन तथा गान को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की गयी है। कुत्सित आचरणों की इसमें निन्दा करते हुए उन्हें त्याज्य बताया गया है।
अन्तिम विधि द्वारा देवी की उपासना करने वाले व्यक्ति ही शुद्ध एवं सात्विक भक्त होते हैं। शाक्त धर्म आज भी हिन्दुओं का एक प्रमुख धर्म है। देवी की पूजा देश के विभिन्न भागों में अति श्रद्धा एवं उल्लासपूर्वक की जाती है। बंगाल और असम में इस मत का विशेष प्रचार है। दुर्गा पूजा के अवसर पर देश भर में विविध आयोजन किये जाते है।

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