window.location = "http://www.yoururl.com"; Shaivism: Origin and Evolution. // शैव धर्म : उद्भव और विकास

Shaivism: Origin and Evolution. // शैव धर्म : उद्भव और विकास

विषय-प्रवेश :

हिन्दू धर्म के अन्तर्गत शिव को इष्ट देव मानकर अराधना करने वालों को शैव सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है। शिव के उपासक ‘शैव‘ कहे जाते है। शिव का शाब्दिक अर्थ है – शुम, कल्याण, मंगल, श्रेयस्कर आदि। शिव तथा उससे सम्बन्धित सम्प्रदाय की प्राचीनता प्रागैतिहासिक काल तक जाती है। सैन्धव सभ्यता की खुदाई से मोहनजोदडों से प्राप्त एक मुद्रा पर पद्मासन में विराजमान एक योगी का चित्र प्राप्त होता है जिसके सिर पर त्रिशुल जैसा आभूषण और तीन मुख है। सर जान मार्शल ने इस देवता की पहचान ऐतिहासिक काल के शिव से स्थापित की है। अन्य अनेक स्थलों से कई शिवलिंग भी प्राप्त होते है जिससे यह पता चलता है कि यह भारत का प्राचीनतम धर्म था।

शैव धर्म का उद्भव –

शैवमत का मूलरूप ऋग्वेद में रुद्र की कल्पना में मिलता है। रुद्र के भयंकर रूप की अभिव्यक्ति वर्षा के पूर्व झंझावात के रूप में होती थी। रुद्र के उपासकों ने अनुभव किया कि झंझावात के पश्चात् जगत को जीवन प्रदान करने वाला शीतल जल बरसता है और उसके पश्चात् एक गम्भीर शान्ति और आनन्द का वातावरण निर्मित हो जाता है। अतः रुद्र का ही दूसरा सौम्य रूप शिव जनमानस में स्थिर हो गया। ऋग्वैदिक काल में यह मान्यता थी कि रुद्र अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त उपकारी है जिससे उनकी संज्ञा ‘शिव‘ है। भक्ति द्वारा वे आसानी से प्रसन्न किये जा सकते है। वाजसनेयी संहिता में शतरुद्रीय मन्त्र में रुद्र को समस्त लोकों का स्वामी बताया गया है। अथर्ववेद में उन्हे भव, शर्व, पशुपति, भूपति आदि कहा गया है। ब्राह्मण ग्रन्थों में रूद्र की गणना सर्वप्रमुख देवता के रूप में की गई है। यहॉ उनके आठ नाम बताए गए है – रुद्र, सर्व, उग्र, अशनि, भव, पशुपति, महादेव तथा ईशान। इनमें प्रथम चार रूप उनके उग्ररूप है जबकि अन्तिम चार रूप मंगलरूप के द्योतक है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि प्रजापति ने अपनी कन्या से समागम किया जिससे क्रुद्ध होकर देवताओं ने उन्हे दण्डित करने का निश्चय किया। उन्होने अपने रौद्र रूपों से ‘भूतपति‘ का सृजन किया जिससे प्रजापति का वध कर डाला और इस कार्य से वह ‘पाशुपति‘ की संज्ञा से विभूषित हुये। उपनिषद् काल में हम रुद्र की प्रतिष्ठा में और अधिक वृद्धि पाते है। महाकाव्यों के समय में आते-आते शैवधर्म को व्यापाक लोकाचार प्राप्त हो गया। रामायण ग्रन्थ से पता चलता है कि लंका तक में उनकी पूजा होती थी। दूसरी तरफ महाभारत में शिव की प्रतिष्ठा का व्यापक विवेचन मिलता है। महाभारत के प्रारंभिक अंशों में तो शिव कोई महत्वपूर्ण देवता नही लगते किन्तु बाद के अंशों में हम उनका चित्रण सर्वोच्च देवता के रूप में पाते है। महाभारत के द्रोणपर्व से पता चलता है कि कृष्ण तथा अर्जुन शिव से पाशुपत अस्त्र प्राप्त करने के लिए हिमालय पर्वत पर जाकर उनकी अराधना करते हैं। वे उन्हे ‘विश्व की आत्मा‘ बताते है और उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव उन्हे पाशुपतास्त्र प्रदान करते है। महाभारत के ही अनुशासन पर्व में कहा गया है कि स्वयं कृष्ण ने पुत्र प्राप्त करने के लिए हिमालय पर्वत पर जाकर शिव की अराधना की थी तथा शिव ने प्रसन्न होकर उन्हे मनोवांछित फल प्राप्त करने का वरदान दिया था।

शैव धर्म का विकास-

शैव सम्प्रदाय के अन्तर्गत लिंग पूजा का पहला स्पष्ट वर्णन मत्स्यपुराण में मिलता है। एक सम्प्रदाय के रूप में शैव धर्म का प्रारम्भ शुंग और सातवाहनों के काल में हुआ। कुषाण काल में शैव धर्म का विकास हुआ और गुप्त काल में यह चरमोत्कर्ष पर पहुॅचा। महाभारत के अनुशासन पर्व में भी लिंग पूजा का वर्णन है। शिव की उपासना अनेक साहित्यिक तथा पुरातात्विक प्रमाणों से सिद्ध होती है। भारत की प्राचीनतम आहत मुद्राओं, जिनमें से कुछ की तिथि ई0पू0 छठी-पॉचवी शताब्दी तक जाती है, के उपर भी शिवोपासना के प्रतीक वृषभ, नन्दिपद् आदि चिन्ह मिलते है। यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ‘डायनोसस‘ के नाम से शिवपूजा का उल्लेख करता है जो पर्वतीय क्षेत्रों में अधिक प्रचलित थी। अर्थशास्त्र से भी पता चलता है कि मौर्य युग में शिव पूजा प्रचलित थी। पतंजलि के महाभाष्य से पता चलता है कि ई0पू0 दूसरी शताब्दी में शिव की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती थी। महाभाष्य में शिव के अनेक नामों का भी उल्लेख मिलता है। यहॉ शिव के उपासकों को ‘शैव‘ कहा गया है। शक, पल्लव, कुषाण आदि शासकों के सिक्कों पर शिव, वृषम, त्रिशूल आदि की आकृतियॉ मिलती है जिससे यह स्पष्ट होता है कि विदेशियों में भी शिव पूजा का प्रचार था। कुषाणकालीन शासक विम कैडफिसस स्वयं को माहेश्वर कहता था तथा उसके सिक्कों पर शिव को अपनी पत्नी अम्बा या दुर्गा के साथ दिखाया गया है।
गुप्त राजवंश के शासकों के शासनकाल में वैष्णव धर्म के साथ-साथ शैव धर्म की भी उन्नति हुई और शिव की उपासना में अनेक मन्दिर और मूर्तियों की स्थापना की गयी। उदयगिरि गुहालेख से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय का प्रधानमन्त्री वीरसेन शैव मतावलम्बी था तथा उसने उदयगिरि पहाडी पर एक शैव गुफा का निर्माण करवाया था। कुमारगुप्त प्रथम के काल में करमदंडा तथा खोह में शिवलिंगों की स्थापना करवायी गयी थी। कुमारगुप्त प्रथम के सिक्कों में मयूर पर आरूढ कार्तिकेय की प्रतिमा अंकित है। स्कन्दगुप्त के बैल के आकार के सिक्के उसकी शैव धर्म में आस्था के ही प्रमाण है। गुप्त काल में भूमरा में शिव तथा नचनाकुठार में पार्वती के मन्दिरों का निर्माण करवाया गया था। गुप्तकालीन अनेक साहित्यिक रचनाओं में अनेक स्थानों पर शिवपूजा का उल्लेख मिलता है। कालिदास स्वयं शिव के अनन्य उपासक थे और कुमारसम्वत् में उन्होने शिव की महिमा का गुणगान किया है। वामन पुराण में शैव सम्प्रदायों की संख्या का विवरण है तो शिव पुराण में शिव के दस अवतारों का उल्लेख मिलता है।‘श्वेताश्वर उपनिषद्‘‘ शिव से सम्बन्धित सबसे बडा ग्रन्थ है। इन समस्त विवरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि पॉचवी शताब्दी तक समाज में शैव सम्प्रदाय ने व्यापक लोकाधार प्राप्त कर लिया था तथा शिव विभिन्न नामों और रूपों में पूजे जाते थे।
गुप्तकाल के बाद भी शैव सम्प्रदाय की उन्नति होती रही। हर्षवर्द्धन के काल में वाणभट्ट और व्हेनसांग दोनो ने ही इसका उल्लेख किया है। हर्षचरित में कहा गया है कि थानेश्वर नगर के प्रत्येक घर में भगवान शिव की पूजा होती थी। व्हेनसांग लिखता है कि वाराणसी शैव धर्म का सबसे बडा केन्द्र था जहॉ उसके एक सौ मन्दिर थे। उज्जैन का महाकालेश्वर का मन्दिर भी पूरे देश में प्रसिद्ध था। हर्षवर्द्धन के समकालीन शासक शशांक और भास्करवर्मन भी शैव मतानुयायी थे।
साहित्य और अभिलेखीय प्रमाणों से यह पुष्ट होता है कि राजपूत काल में भी शैव मत समाज में अधिक लोकप्रिय था। चन्देल शासकों के काल में खजुराहों का सुप्रसिद्ध कन्दरिया महादेव मन्दिर निर्मित हुआ। राजस्थान, गुजरात, मध्यभारत, बंगाल आदि सर्वत्र शिव मन्दिर तथा मूर्तियॉ निर्मित की गई। अलबरूनी के विवरणों से यह स्पष्ट होता है कि गुजरात के काठियावाड में स्थित सोमनाथ का मन्दिर पूर्व मध्यकाल में अत्यन्त प्रसिद्ध और समृद्ध था जो महमूद गजनवी द्धारा तोड डाला गया। इन मन्दिरों के अतिरिक्त शिव और पार्वती की अनेक मूर्तियों तथा शिवलिंगो का भी निर्माण किया गया।
उत्तर भारत के साथ-साथ दक्षिण भारत में भी शैव मत का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। दक्षिण में शासन करने वाले चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव, चोल आदि राजवंशों के समय में भी शैव धर्म की उन्नति हुई तथा शिव के अनेक मन्दिर तथा मूर्तियॉ बनवाई गयी। इस दिशा में राष्ट्रकूटों के समय में बनवाया गया एलोरा का प्रसिद्ध कैलाश मन्दिर विश्वविख्यात है। सुदूर दक्षिण में चोल राजवंश के शासकों के समय में शैव धर्म का खूब उत्थान हुआ। चोल शासक राजराज प्रथम शिव का अनन्य उपासक था जिसने तन्जौर में राजराजेश्वर का सुप्रसिद्ध शैव मन्दिर निर्मित करवाया था। राजराज का पुत्र राजेन्द्र चोल भी शिव का ही भक्त था जिसने अपनी राजधानी में वृहदेश्वर मन्दिर का निर्माण करवाया था। राजेन्द्र चोल के समय में शैव धर्म दक्षिण भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय धर्म बन गया था। चोल शासक कुलोतुंग प्रथम स्वयं एक कट्टर शैव मतावलम्बी था जिसके विषय में कहा गया है कि शिव के प्रति अतिशय श्रद्धा के कारण उसने चिदम्बरम् मन्दिर में स्थापित विष्णु की प्रतिमा को उखाड कर समुद्र में फेकवा दिया था। इसी घटना से क्षुब्घ होकर वैष्णव आचार्य रामानुज को कुछ काल के लिए चोल राज्य छोडना पडा था। एक प्रकार से इस वंश के अनेक राजाओं ने विशाल तथा भव्य शैव मन्दिरों, शिवलिंगों तथा मूर्तियों के निर्माण में गहरी रूचि प्रदर्शित की थी।
इस प्रकार हम देखते है कि शिव की उपासना भारत में प्रागैतिहासिक काल से प्रारम्भ होकर सदियों तक विकसित होती रही तथा शिव को हिन्दू धर्म में एक प्रमुख स्थान मिला। उनकी गणना ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश अर्थात त्रिदेव के रूप में की गयी। आज भी शैव घर्म भारतीय हिन्दू समाज का एक प्रमुख धर्म बना हुआ है। शिव के व्यक्तित्व में हमें आर्य और आर्येत्तर तत्वों का समावेश देखने को मिलता है।

नयनार –

दक्षिण भारत में शैव सम्प्रदाय का प्रचार-प्रसार करने वाले सन्तों को ‘‘नयनार‘‘ कहा जाता है। सामान्यतया पल्लवों के शासनकाल में शैव धर्म का प्रचार-प्रसार नायनारों के द्वारा किया गया। नायनार सन्तों की कुल संख्या 63 बताई जाती है जिसमें अप्पार, तिरूज्ञान, सम्बन्दर, सुन्दर मूर्ति, मणिक्कवाचगर आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। तमिल में नायनारों की इस भावनात्मक भक्ति कविता को ‘देवारम‘ कहा जाता है। प्रमुख नायनार सन्तों में अप्पर का नाम सबसे प्रसिद्ध है। अप्पर जिसका दूसरा नाम तिरूनाबुक्करश है, पल्लवनरेश महेन्द्रवर्मन प्रथम का समकालीन था। उसका जन्म तिरूगमूर के बेल्लाल परिवार में हुआ था। बताया जाता है कि पहले वह एक जैन मठ में रहते हुए भिक्षु जीवन व्यतीत करता था लेकिन बाद में शिव की कृपा से उसका एक असाध्य रोग ठीक हो गया। अप्पर ने दास भाव से शिव की भक्ति की तथा उसका प्रचार-प्रसार जनसाधारण में किया। एक अन्य संत तिरूज्ञान सम्बन्दर तन्जोर जिला के शिवाली ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुआ था। उसके विषय में एक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार तीन वर्ष की आयु में ही पार्वती की कृपा से उसे दैवीज्ञान प्राप्त हो गया था। उसके पिता ने उसे सभी तीर्थो का भ्रमण कराया। जब वह पाण्ड्य देश की यात्रा पर था तभी उसने वहॉ के राजा और प्रजा को जैन धर्म से शैवधर्म से दीक्षित किया था। सम्बन्दर का बौद्ध आचार्यो के साथ भी वाद-विवाद हुआ तथा सभी को उसने शास्त्रार्थ में पराजित किया। उसने कई भक्ति गीत गाए तथा इस प्रकार उसकी मान्यता सबसे पवित्र शैव सन्त के रूप में हो गयी। आज भी तमिल प्रदेश के अधिकांश शैव मन्दिरों में उसकी पूजा की जाती है।
एक अन्य नायनार सन्त सुन्दर मूर्ति का जन्म नाबलूर के निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उसका पालन-पोषण नरसिंह मुवैयदरेयन नामक सेनापति ने किया। यद्यपि उसका जीवन काल मात्र 18 वर्षो का रहा फिर भी वह अपने समय का अनन्य शैव भक्त बन गया। उसने लगभग एक सहस्त्र भक्ति गीत लिखे। उसकी इसी प्रतिभा के कारण उसे ‘ईश्वरमिश्र‘ की उपाधि से सम्बोधित किया गया है। इसी प्रकार मणिक्कवाचगर, मदुरै के समीप एक गॉव के ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुआ था। चिदम्बरम् में उसने लंका के बौद्धों को वाद-विवाद में परास्त कर ख्याति प्राप्त किया। उसने भी अनेक भक्तिगीत लिखे जिन्हे ‘‘तिरूवाशगम्‘‘ में संग्रहीत किया गया है।
इन सभी शैवसंतों ने भजन-कीर्तन, शास्त्रार्थ एवं उपदेश के माध्यम से तमिल समाज में शिव भक्ति का जोरदार प्रचार किया। इन्होने भक्ति को ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन बताया। नायनार सन्त जाति-पाति के विरोधी थे तथा उन्होने समाज के सभी वर्गो के लोगों के बीच अपने सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया।

शैव सम्प्रदाय के संस्कार –

  • शैव सम्प्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते है।
  • इस सम्प्रदाय के साधु अथवा सन्त जटा रखते है।
  • इस सम्प्रदाय के अनुयायी सिर तो मुंडाते है लेकिन चोटी नही रखते।
  • इसके अनुष्ठान रात्रि में होते है।
  • इनके अपने तांत्रिक मन्त्र होते है।
  • यह निर्वस्त्र भी रहते है, भगवा वस्त्र भी पहनते है और हाथ में कमंडल, चिमटा रखकर धुनी भी रमाते है।
  • शैव चन्द्र पर आधारित व्रत या उपवास करते है।
  • शैव सम्प्रदाय में समाधि देने की परम्परा है।
  • इसके अनुयायी भभूति तिलक आडा लगाते है।
  • शैव साधुओं को नाथ, अघोरी, अवधूत, बाबा, औघड, योगी, सिद्ध आदि कहा जाता है।

शैव धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय –

वामन पुराण में शैव धर्म के चार सम्प्रदायों का उल्लेख किया गया है। समय बीतने के क्रम में शिव के उपासकों के कई सम्प्रदाय बन गये जिसके आधार व नियम अलग-अलग थे। संक्षेप में, कुछ सम्प्रदायों का परिचय इस प्रकार है –

पाशुपत सम्प्रदाय –

यह शैवों का सबसे प्राचीन सम्प्रदाय है जिसकी उत्पत्ति ई0पू0 दूसरी शताब्दी में हुई थी। पुराणों के अनुसार इस सम्प्रदाय की स्थापना लकुलीश अथवा लकुली नामक ब्रह्मचारी ने की थी। इस सम्प्रदाय के अनुयायी लकुलीश को शिव का अवतार मानते है। इस सम्प्रदाय के लोग अपने हाथ में एक लगुड या दण्ड धारण करते थे जिन्हे शिव का प्रतीक माना जाता था। कहीं कहीं पाशुपत तथा शैव को एक-दूसरे का पर्याय बताया गया है। शैव सन्तों के लिए ‘पाशुपत आचार्य‘ संज्ञा का प्रयोग मिलता है। महेश्वर कृत ‘‘पाशुपत सूत्र‘‘ जो इस सम्प्रदाय का सैद्धान्तिक ग्रन्थ है, तथा ‘‘वायु पुराण‘‘ से पाशुपत सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का ज्ञान होता है।
शैव धर्म के अन्तर्गत पाशुपत सम्प्रदाय का विकास हुआ। पाशुपत मत का उल्लेख महाभारत में हुआ है। जिसका उपदेश ब्रह्मा के पुत्र भूतनाथ श्रीकण्ठ उमापति शिव ने शांत चित्त होकर दिया था। ऐसा लगता है, पाशुपत मत का उदय महाभारत की रचना के बहुत पहले किसी समय हो गया था तथा इसका प्रवर्तक स्वयं शिव अथवा शिव नामक कोई मनुष्य था, जिसे कालान्तर में शिव का अवतार मान लिया गया। पाशुपत् मत का विकास क्रमशः हुआ तथा इसका उल्लेख पुराणों और अभिलेखों में मिलता है। वायु पुराण और लिंग पुराण के विवरणों के अनुसार पाशुपत मत का प्रवर्तक या संस्थापक लकुलिन अथवा लकुलीश नामक ब्रह्मचारी था, जिसे उसके उपासक ‘शिव का अवतार‘ मानते थे। जिस समय वासुदेव कृष्ण उत्तरी भारत में अपना धर्म-प्रचार कर रहे थे, उस समय पश्चिमी भारत के कायावरोहण नामक स्थान पर लकुलीश का जन्म हुआ था। वह शिव के अट्ठाईसवें और अन्तिम अवतार थे। उपर्युक्त पुराणों की कथा के अनुसार युगों के अट्ठाईसवें प्रत्यावतर्न में जब कृष्ण द्वैपायन ने जन्म लिया था तब महादेव ने श्मशान में पड़े एक मृत व्यक्ति के शरीर में प्रवेश किया और लकुलिश नामक ब्रह्मचारी के रूप में अवतरण किया, जिनके कुशिक, गर्ग, मिश्र और कौरूष्य नामक चार शिष्य हुए। अन्ततः वे पाशुपत् योगमय नियत दृढ़ धर्मोपदेश करके रूद्र में प्रविष्ट हो गए। अतः पुराणो ं के अनुसार इस मत के प्रवर्तक लकुलिश थे। ‘लकुलिश का अर्थ था ‘लकुट’ या ‘लगुड’ अथवा ‘लकुल’ (लंगोटी) धारण करने वाला। पाशुपत् सम्प्रदाय के लोग हाथ मे ं लगुड (दंड) धारण करते हैं, जो एक प्रकार से शिव का प्रतीक होता है। कुषाण शासक हुविष्क (दूसरी सदी ईस्वी) की मुद्रा पर इसी प्रकार का चित्र अंकित है जो इस सम्प्रदाय के विषय में ज्ञान प्रदान करने वाला सर्वाधिक प्राचीन प्रमाण है। चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (चौथी सदी) के मथुरा-स्तम्भ-लेख में उल्लिखित है कि उदिताचार्य नामक एक पाशुपत अनुयायी ने उपमितेश्वर और कपिलेश्वर नामक दो लिंगो ं की स्थापना की थी। उस अभिलेख में यह भी उल्लिखित है कि कुशिक के क्रमागत होने वाले शिष्यों में उदिताचार्य दसवें थे (कुशिकाद्दशमेन)। अगर प्रत्येक शिष्य को 25 वर्ष के अन्तर से रखा जाय तो किशक का जन्म समय 130 ई0 हुआ होगा। ऐसा लगता है कि कुषाण शासक हुविष्क सम्भवतः कुशिक के समकालीन और पाशुपत मत से प्रभावित था। गुजरात के एक अभिलेख (तेरहवीं सदी) से ज्ञात होता है कि भट्टारक लकुलीश के रूप में शिव ने अवतार लिया था, जिनके चार शिष्य थे। कुशिक उनमें पहले शिष्य थे। चार शिष्यों की सूचना वायु पुराण से भी प्राप्त होती है। पाशुपत व्रत की विशेष चर्या के लिए लकुलीश का अवतार हुआ था। स्पष्ट है कि लकुलीश ने पाशुपत का प्रचार उत्तरी और पश्चिमी भारत में किया था और उनका समय पहली और दूसरी सदी के बीच था। लकुलीश की एक आकृति काश्मीर के पुराणदीप्थान मंदिर (नवीं सदी) के तोरणद्वार पर उत्खनित है। ‘लकुलीश पाशुपत’ के नाम से भी यह मत चला, जिसमें से मानव-व्यंजक लकुलीश शब्द हट गया और देव-व्यंजक पशुपति बचा रह गया, यद्यपि उदयपुर के एकलिंग-अभिलेख से पता चलता है कि शैव सम्प्रदाय लकुलीश के नाम से भी ख्यात था। इसमें इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक और उनके उत्तराधिकारी कुशिक का भी उल्लेख है, जो गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त द्वितीय के मथुरा-अभिलेख के विवरण से बहुत कुछ मिलता है। बाणभट्ट ने पाशुपत सम्प्रदाय को शैव धर्म के रूप में चिन्हित किया है, जिसके अनुयायी अपने ललाट पर भस्म लगाते और रूद्राक्ष की माला लिए रहते थे। ह्वेनसांग ने लिखा है कि सिंध और अहिच्छन्न के लोग बौद्ध नहीं है वे भस्म रमाने वाले पाशुपत मत के मानने वाले हैं।

पाशुपत सम्प्रदाय का सिद्धांत-

पाशुपत मतानुयायी द्वैतवादी हैं। उन्होंने पाशुपत सिद्धांत के अन्तर्गत पांच पदार्थों को स्वीकार किया-
(1) कार्य, (2) कारण, (3) योग, (4) विधि और (5)दुःखान्त।
इसी विचारानुसार पाशुपत सम्प्रदाय के पांच सिद्धांत निर्दिष्ट किये गये है, जिन्हें परवर्ती भाष्यकारों ने अपने विचारानुसार प्रतिपादित किया।
(1) कार्य – उसे कहा गया जिसमें स्वातन्त्र्य शक्ति नहीं है। यह तीन प्रकार का माना गया है – विद्या, अविद्या (कला) और पशु। कार्य के अन्तर्गत ही जीव और जड़ होते हैं। जीव (पशु) का गुण विद्या है, जो दो प्रकार की होती है- बोध और अबोध। जीव और बोध स्वभाववाली विद्या चित्त है तथा धर्म और अधर्म से मुक्त विद्या अबोध है। चेतन के अधीन होते हुए स्वयं अचेतन पदार्थ कला है, जिसके दो भेद होते हैं- कार्यरूपा और कारणरूपा (इन्द्रिय)। कार्यरूपा कला में पृथ्वी आदि पॉंच तत्व तथा गंधादि पांच गुण विद्यमान हैं। कारणयुक्त कला में तेरह इन्द्रियों (पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां तथा बुद्धि, अहंकार और मन) का अन्तर्भाव है। पशु पाशों से आबद्ध है, इसलिए उसमें पशुत्व है। पशु के भी दो प्रकार है- एक सांजन और दूसरा निरंजन। शरीर-इन्द्रिय की कलाओं से सम्बन्ध होने के कारण मलयुक्त पशु सांजन है तथा जो पशु इससे आबद्ध न होकर मुक्त और निर्मल है, वह निरंजन है।

(2) कारण – यह वह तत्त्व है जो समस्त वस्तुओं की सृष्टि और संहार के साथ अनुग्रह प्रदान करता है। वही परमात्मा है, परमेश्वर है, जो अपना अपरिमित ज्ञान और प्रभु-शक्ति जीवों को प्रत्यक्ष कराता और उसका पोषण करता है। इसलिए उसे पति की संज्ञा दी गयी। पति के रूप में वह ज्ञान और क्रिया की शक्तियों से सम्पन्न होता है और पूर्णतः स्वतंत्र होते हुए वह आद्य, कर्त्ता और ऐश्वर्यवान के रूप में रहता है। उसमें शक्ति और कृतत्व का तादात्म्य रहता है तथा वह स्वतंत्र कर्त्ता कहा जाता है।

(3) योग – योग वह है जिसमें चित्त के माध्यम से ‘आत्मा’ (जीव पशु) का परमात्मा (पतिकर्त्ता) से सम्बन्ध स्थापित होता है। योग के दो प्रकार हैं- (1) क्रियात्मक (जप, तप, ध्यान आदि) तथा (2) अक्रियात्मक (अनुभव और ज्ञान)

(4) विधि – यह वह साधक व्यापार है जिससे जीव को महेश्वर की प्राप्ति होती है। (1) मुख्य और (2) गौण इसके दो भेद निर्दिष्ट है। मुख्य विधि में धर्म का साक्षात् कारण है जिसे ‘चर्या’ भी कहते है। इस मुख्य विधि के भी दो प्रकार हैं- व्रत और द्वार। भस्म-स्नान, भस्म शयन, जप, उपहार और प्रदक्षिणा नामक कार्य ‘पंचविधि व्रत’ कहे जाते हैं। इसमें उपहार अथवा नियम की छः श्रेणिया निर्दिष्ट हैं- (1) ग्राथन (असुप्त व्यक्ति का सुप्त मनुष्य की तरह चेष्टा करना), (2) स्पंदन (निःशक्त के रूप में अंगों का कम्पन), (3) मंदन (लंगड़ाते हुए चलना), (4) श्रृंगारण (किसी कामिनी को देखकर कामुक जैसी चेष्टा करना), (5) अवितत्करण (विवेकहीन होकर निन्दित कार्य करना) और (6) अवितदभाषण (अज्ञान की बातें करना)। गौण विधि में अनुस्नान (पूजा के उपरांत भस्म-स्नान), भैक्ष्य, उच्छिष्ट, निर्माल्य और लिंग धारण किया जाता है।

(5) दुःखान्त – इसका अभिप्राय है, दुःख का अंत अर्थात् दुःखों से अत्यन्त निवृत्तिरुपा मुक्ति। दोषों (मलों) के कारण जीव बन्धन में रहता है जो पांच प्रकार के हैं- (1) मिथ्या ज्ञान, (2) अधर्म, (3) सक्तिहेतु (विषयों में आसक्ति और सम्पर्क), (4) च्युति (रुद्रत्व से चित्त का च्युत हो जाना) और (5) (अल्पज्ञता आदि पशुत्व के उत्पादक धर्म)। योग और विधि से मन को स्थित करते हैं तथा मोक्ष-लाभ के लिए पंचविध उपायों में से ‘प्रपत्ति’ का साधन बनाते हैं, जिसके कारण शिव का चित्त साधको ं के प्रति दयार्द्र और कोमल हो जाता है, फलस्वरूप शिव के अनुग्रह से जीव को मुक्ति मिलती है। अतः दुखान्त के दो प्रकार हैं- (दुःखों की मात्र निवृत्ति) और (2) सात्मक (ज्ञान और कर्म की शक्ति से परमैश्वर्य की प्राप्ति)। ज्ञानशक्ति के पांच भेद हैं- (1) दर्शन (सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट वस्तुओं का ज्ञान) (2) मनन (समस्त चिन्तित विषयों का ज्ञान), (3) श्रवण (भली भांति शब्दो का ज्ञान)। इसी प्रकार क्रियाशक्ति भी तीन प्रकार की कही गई, जो मुक्त पुरूषों में अदभुत रूप उद्भूत होते हैं- (1) मनोजवित्य (तुरन्त कार्य करना), (2) कामरूपित्व (इच्छानुसार विविध रूप धारण करना) तथा (3) विकरणधर्मित्व (इन्द्रिय-व्यापार के अवरूद्ध हो जाने पर भी ऐश्वर्यशाली होना।)

उपर्युक्त सिद्धान्तों के आधार पर ही पाशुपत सम्प्रदाय का विकास हुआ तथा उनका वैशिष्ट्य और साधना-तत्व शैव धर्म के अन्तर्गत गृहीत हुआ। पाशुपत सम्प्रदाय से सम्बन्धित नेपाल स्थित काठमांडू में पशुपतिनाथ का मंदिर है, जहा आज भी दार्शनार्थियों और अनुयायियों की भीड़ लगी रहती है जिनमें भारत के विभिन्न भागों के यात्री भी होते हैं। राजस्थान के कतिपय अभिलेखों में पाशुपत सम्प्रदाय का उल्लेख है। चाहमान शासक विग्रहपति द्वितीय के हर्षनाथ मन्दिर की प्रशस्ति (973ई.) में शैव आचार्य अल्लट और उसके शिष्य पाशुपत धर्मावलम्बी भावद्योत का उल्लेख है। इस अभिलेख में अल्लट राणपल्लिका (शेखावटी, जिला जयपुर) में सांसारिक कुल नामक सम्प्रदाय का संस्थापक कहा गया है जो पंचार्थिक शाखा पाशुपत के आचार्य विश्वरूप का शिष्य था। नाथ प्रशस्ति एकलिंगजी (971ई.) में पाशुपत योग साधना करने वाले कुशिक योगियों तथा उस सम्प्रदाय का परिचय मिलता है जो एकलिंगजी की पूजा करने वाले और लकुलीश के मन्दिर के निर्माता कहे गए हैं। इसी सम्प्रदाय के वेदांग मुनि का उल्लेख भी उक्त अभिलेख में है जिसने स्याद्वाद (जैन) तथा सौगत (बौद्ध) विचारकों को विवाद में परास्त किया था। चीरवेके शिलालेख (1273ई.) मे ं भी एकलिंगजी के अधिष्ठाता पाशुपत योगियों के अग्रणी शिवराशि का उल्लेख मिलता है। 1153ई. के एक अभिलेख में पाशुपत आचार्य विश्वेश्वर का उल्लेख है। कुमारपाल के समय के मंगरोल और वेरावल अभिलेखों में पाशुपत आचार्यों का उल्लेख है। गुजरात में इसके अस्तित्व का उल्लेख मिलता है। प्रारम्भिक कलचुरि शासक कृष्णराय शंकरगण और बुद्धराज परममाहेश्वर कहे गए हैं। वे पाशुपत सम्प्रदाय से सम्बद्ध थे। शंकरगण के अभोना पत्र (597ई.) में कृष्णराय को जन्म से ही भगवान पशुपति का भक्त कहा गया है। बुद्धराज के 610ई. के एक अभिलेख मे बुद्धराज की पत्नी अनन्तमहायी पाशुपत या भगवान पशुपति की भक्त कही गई है। कोक्कलदेव द्वितीय (दसवीं शताब्दी के चतुर्थांश) के गुर्गी शिलालेख में शैव आचार्य प्रशान्त शिव का उल्लेख है जो पांचार्थिक तत्त्व अर्थात् पाशुपत दर्शन में निपुण ज्ञानी लोगों के बीच अपने दिन व्यतीत करते थे। कलचुरि राज्य में अनेक पाशुपत आचार्य निवास करते थे जिनमें रुद्रराशि प्रमुख हैं, जो भेड़ाघाट शिलालेख (1155ई.) के अनुसार लाट से आए थे और कलचुरि रानी आल्हणदेवी द्वारा भेड़ाघाट में निर्मित मठ, व्याख्यानशाला, उपवन आदि से समन्वित वैद्यनाथ मन्दिर के संरक्षक पद पर नियुक्त किए गए थे। लाट से प्रव्रजित भाव ब्राह्मण नामक एक अन्य पाशुपत आचार्य का उल्लेख मिलता है जिसने त्रिपुरी में भगवान शिव का एक मन्दिर निर्मित करवाया था। इसी अभिलेख में पाशुपत सिद्धान्तों के अनुकूल उसकी जीवन पद्धति का उल्लेख मिलता है, साथ ही यह कहा गया है कि इस कलियुग में भाव ब्राह्मण के समान पांचार्थ (पाशुपत) सिद्धान्त का कोई अनुयायी नहीं है। हेमावती (मैसूर) से प्राप्त 943ई0 के एक अभिलेख में कहा गया है कि लकुलीश यह सोचकर कि उनका नाम एवं उनके सिद्धान्त कहीं विस्मृत न कर दिए जाएँ, मुनिनाथ चिल्लुक के रूप में अवतरित हुए। एक अन्य परवर्ती लेख (13वीं शताब्दी के अन्तिम चतुर्थांश) चित्रा प्रशस्ति में कुशिक, गार्ग्य, कौरूश और मैत्रेय को पाशुपत योग के पालनार्थ अवतरित हुआ बताया गया है। त्रिपुरान्तकराशि जिसके सम्मान में यह प्रशस्ति रची गई है, वह चालुक्य राजा श्रीरंगदेव का आध्यात्मिक गुरु था। पाल शासक नारायणपाल के अभिलेख में एक हजार शिव मन्दिरों के निर्माण और पाशुपत आचार्यों की परिषद् को निवास, औषधि आदि की सुविधा प्रदान करने का उल्लेख है। ह्वेनसांग और बाणभट्ट ने भी पाशुपत सम्प्रदाय का उल्लेख किया है।

कापालिक एवं कालमुख

कापालिक के इष्ट देव भैरव हैं, जो शंकर के अवतार माने जाते हैं। इस सम्प्रदाय के अनुयायी भैरव को ही सर्जन और संहार करने वाला मानते हैं। ये लोग सुरापान करते और समाज में घृणित पदार्थ ग्रहण करते हैं। इनका विश्वास है कि ऐसा करने से इनकी ज्ञानशक्ति तीक्ष्ण होती है। साथ ही ये लोग सर्वदा भैरवी से आलिंगित रहने का समर्थन करते हैं। शंकर दिग्विजय में उल्लिखित है कि उज्जयिनी में माधव ने शंकराचार्य को कापालिकों से मिलाया। कापालिकों का आचार्य जब आचार्य शंकर से मिला तब उसका शरीर श्मशान-भस्म से पुता हुआ था। उसके एक हाथ में नर-कपाल और दूसरे हाथ में लौह-यष्टि थी। शैव होने के कारण आचार्य शंकर के शरीर पर भी भस्म की रेखाएँ थीं। अतः उस कापालिक आचार्य ने शंकर से कहा- ‘‘तुम्हारी काया पर भी भस्म पूर्णतः ठीक है, किन्तु कपाल पात्र के स्थान पर तुमने यह अपवित्र मृतपात्र क्यों लिया है? क्यों नहीं तुम कपाली भैरव की पूजा करते? सुरा और रक्तरंजित कपालों से पूजा किये बिना भैरव कैसे प्रसन्न होंगे? अतः इस उद्धरण से स्पष्ट है कि कापालिक सम्प्रदाय का अनुयायी तामसी क्रियाओं का अनुसरण करके उसके माध्यम से अपने उपास्य देव और भैरव को प्रसन्न करता है। सिर पर जटाजूट, गले मे रूद्राक्षमाला, शरीर पर श्मशान-भस्म, हाथ में नर-कपाल धारण करना कापालिकों के प्रधान लक्षण हैं। उनका मत है कि छः मुद्राओं के प्रयोग से भगासन पर बैठकर परम ब्रह्म ‘आत्मा’ का चिन्तन करने से मुक्ति संभव है। उनकी छह मुद्राएँ हैं- 1. कंठिका, 2. रूचक, 3. कुंडल, 4. शिखामणि, 5. भस्म और 6. यज्ञोपवीत। इस सम्प्रदाय के सिद्धांत के अनुसार इन मुद्राओं को धारण करने से मनुष्य आवागमन के बन्धन से मुक्त हो जाता है। कापालिक और कालमुख शैव धर्म के दो भिन्न सम्प्रदाय है, तथापि इनमें कोई स्पष्ट भिन्नता नहीं है। इन्हें पाशुपत सम्प्रदाय की प्रशाखा कहा जा सकता है। फकुर्हर ने कापालिक सम्प्रदाय को पाशुपत सम्प्रदाय का ही एक अन्य विशिष्टीकरण माना है। सम्प्रदाय के रूप में यह छठीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के प्रारम्भिक चरणों में ही संगठित हुआ था। इसके अस्तित्व का अभिलेखीय साक्ष्य छठी-सातवीं शताब्दी के उत्तर भारत के निरमण्ड (कांगड़ा-कुल्लू क्षेत्र) के महाराजा महासामन्त समुद्रसेन के ताम्रपत्र में मिलता है, जिसमें भगवान कपालेश्वर का उल्लेख है। चालुक्य पुलकेशिन द्वितीय के भतीजे नागवर्धन के सातवीं शती के अभिलेख से कापालिक सम्प्रदाय का महाराष्ट्र में अस्तित्व प्रमाणित होता है। इस अभिलेख में भगवान कपालेश्वर के मन्दिर में पूजा और महाव्रतियों के जीवनयापनार्थ एक ग्रामदान का उल्लेख है। कापालिक व्रत महाव्रत कहा जाता है और उसका निर्वाह करने वाले को महाव्रती। भोज के तिलकवाड़ा ताम्रपत्र (वि.सं. 1130) में दिनकर नामक साधु का महाव्रतधर के रूप में उल्लेख हुआ है। शंकर दिग्विजय में उनका उल्लेख इस युग में उनकी गतिविधियों का परिचायक है। यह सिद्धांत और व्यवहार में वाममार्गी शाक्त सम्प्रदाय के अधिक निकट है। राजपूताना के दो अभिलेखों में कापालिक सम्प्रदाय का सन्दर्भ है, इसमें एक वि.सं. 1229 का है जिसमें नित्यपरमादित्यदेव के मन्दिर के समीप कापालिक साधुओं के निवास के लिए मठ निर्माण का उल्लेख है। विवेच्ययुगीन अनेक साहित्यिक ग्रन्थों यथा- मालती-माधवम्, कथासरित्सागर, कर्पूरमंजरी, प्रबोधचन्द्रोदय, मत्तविलासप्रहसन, यशस्तिलकचम्पू में कापालिक जैसे अतिमार्गिक सम्प्रदायों के वाममार्गी कृत्यों का उल्लेख मिलता है। ‘मालतीमाधव’ में भवभूति ने श्रीशैल नामक स्थान को कापालिकों का प्रधान पीठ बताया है। नलचम्पू में भी भगवान शिव के निवास कावेरी के तट पर स्थित श्रीशैल नामक तीर्थ का उल्लेख है। उत्तर भारत में विवेच्ययुगीन अभिलेखों में कालमुख सम्प्रदाय का संकेत नहीं मिलता। इसका प्रमुख क्षेत्र दक्षिण भारत था। दसवीं शताब्दी के ग्रन्थ यशस्तिलक चम्पू में सोमदेव ने धर्म की वाममार्गी प्रवृत्तियों पर विस्तार से प्रकाश डाला है। इस ग्रन्थ में हरप्रबोध नामक तपस्वी शैव धर्म की मुख्य शाखाएँ- दक्षिण मार्ग और वाममार्ग को उल्लिखित करता है। दक्षिण मार्ग को वह लोक व्यवहार संचालन के लिए बतलाता है और वाममार्ग को विषयभोग और मुक्ति देने वाला कहता है। वह शक्ति-विनाश (माया के बिना) से शिव (सदाशिव) की प्राप्ति के प्रयत्न की तुलना भूमि रहित केवल धान्य-बीज से धान्य की उत्पत्ति से करते हुए उन्हें (दक्षिण मार्गियों को) नराधम कहता है। उसका कथन है कि इसी वाममार्ग का आश्रय लेकर महाकवि भास ने कहा है कि मद्य पीना चाहिए और प्रियतमा का मुख देखना चाहिए, एवं स्वाभाविक, सुन्दर विकार वेष धारण करना चाहिए। वह भगवान शिव चिरंजीवी हों, जिन्होंने ऐसा मोक्षमार्ग प्रदर्शित किया। इसी स्थल पर सोमदेव ने नीलपट सम्प्रदाय का भी उल्लेख किया है जो वेद को प्रमाण और किसी सृष्टिकर्ता को न मानने वाले, स्नान-धर्म और जाति गर्व के खण्डनकर्ता, और रमणियों को छोड़कर, दूसरे मोक्ष सुख की अभिलाषा करने वालों को पाखण्डी की संज्ञा देते हैं। तेरहवीं सदी के ग्रन्थ पुरातन प्रबन्ध संग्रह में नीलपट सम्प्रदाय का उल्लेख है जो स्त्रियों से आलिंगित और संभोगरत रहते थे, वे अर्द्धनारीश्वर की भांति व्यवहार का दावा करते थे और आक्षेप किए जाने पर प्रत्युत्तर में कहते थे कि नीलपट तब तक कैसे सुखी रह सकता है जब तक कि विश्व नारीमय, नदियां मद्यमय न हो जाएँ और पर्वत मांस में परिणित न हो जाए। भोज द्वारा इन्हें राज्य से निर्वासित करने और मृत्युदण्ड दिए जाने का उल्लेख इस ग्रन्थ में किया है। कालामुख सम्प्रदाय के अनुयायी कापालिकों के ही वर्ग के थे, किन्तु ये उनसे भी अधिक अतिवादी और भयंकर प्रकृति के थे। अतिमार्गी होने के कारण ही शिवपुराण में उन्हें महाव्रतधर कहा गया है। नर-कपाल में भोजन करना, जल पीना, सुरा पीना तथा नर-शव का भस्म शरीर पर लगाना आदि कार्य उनकी अतिमार्गी प्रवृत्ति स्पष्ट करते हैं। इस सम्प्रदाय में कालान्तर में जादू-टोने और नरमांस भक्षण का प्रचलन हो गया।

पाशुपत संप्रदाय से ही कालामुख और कापालिक शाखाएँ उद्भूत हुईं। कालामुख मुख्य रूप से राजदरबारों और नगरों में सीमित रहा किंतु कापालिक मत दक्षिण और उत्तर भारत में गुह्य साधना के रूप में फैला। कापालिकों के देवता माहेश्वर थे। गोरक्षसिद्धांतसंग्रह के अनुसार श्रीनाथ के दूतों ने जब विष्णु के चौबीस अवतारों के कपाल काट लिए तब वे ’कापालिक’ कहलाए।

वीरशैव अथवा लिंगायत सम्प्रदाय –

लिंगायत सम्प्रदाय को वीरशैव सम्प्रदाय भी कहा जाता है। इसका प्रचार-प्रसार दक्षिण भारत में हुआ। इसके उपासक शिवलिंग की अराधना करते थे तथा उसे चॉदी के सम्पुट में रखकर अपने गले में पहना करते थे। वसव पुराण में इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक अल्लभ प्रभु तथा उनके शिष्य वासव को बताया गया है। इस सम्प्रदाय के पुरोहितों को जंगम कहा जाता था। कर्नाटक क्षेत्र में यह सम्प्रदाय काफी प्रचलित था। लिंगायत सम्प्रदाय के अनुयायी निष्काम कर्म में विश्वास करते तथा शिव को परम तत्व मानते है। गुरू की महिमा में इनका अटूट विश्वास है और ये जाति-पाति का खण्डन करते है। पुनर्जन्म के सिद्धान्त को भी ये नही मानते है।
दक्षिण भारत में बारहवीं शताब्दी में कलचुरि शासक विज्जल (1157-1167ई0) के मंत्री बसव ने वीरशैव या लिंगायत सम्प्रदाय का प्रवर्तन दक्षिण भारत में किया। वसव पुराण में इस सम्प्रदाय की विस्तृत चर्चा की गयी है। दक्षिण भारत में शैव धर्म का अत्यधिक प्रचार और प्रसार हुआ। इसके अंतर्गत वीरशैव सम्प्रदाय का तीव्रता से विकास हुआ। वीरशैव सम्प्रदाय के अनुयायी ‘लिंगायत’ या ‘जंगम’ भी कहे गए। वर्ण-व्यवस्था के प्रतिकूल ये लोग आचरण करते हैं तथा शिवलिंग को चांदी के सम्पुट में रखकर हर समय अपने गले में लटकाए रहते हैं। बसव पुराण के अनुसार इस सम्प्रदाय का प्रवर्तन अल्लभप्रभु और उनके शिष्य बसव (या वसवण्ण) नामक ब्राह्मण ने किया था जो कलचुरि शासक विजय का मंत्री था। वीरशैवों का यह मत है कि भिन्न-भिन्न समयों में पांच महापुरूषों ने इस धर्म का उपदेश दिया था। उनके नाम हैं- रेणुकाचार्य, दारूकाचार्य, एकोरामाचार्य, पंडिताराध्य और विश्वाराध्या। उन आचार्यों का शिव के विशिष्ट लिंगों से जन्म हुआ था। उन लोगों ने रम्भापुरी (मैसूर), उज्जैन, ऊखीमठ (केदारनाथ), श्रीशैल और काशी में अपने विशिष्ट सिंहासनों की स्थापना की। ब्रह्मसूत्र के ‘श्रीकरभाष्य’ में श्रीपति (1060ई.) ने इस सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का उपनिषद् से निःसृत बताया है। लिंगायत संप्रदाय का अधिकतर साहित्य कन्नड़ भाषा में है

इनका दर्शन और सिद्धांत निम्नलिखित आधार पर विकसित हुआ है-
(1) कर्म की प्रधानता इस सम्प्रदाय की विशेषता है। यह कर्म निष्काम कर्म है, जिसके प्रतिफल की अपेक्षा नहीं है। इसलिए इस मार्ग को ‘वीरधर्म’ और ‘वीरमार्ग’ की संज्ञा दी गई।
(2) शिव परम तत्व है जो पूर्णतः अहंता और स्वतंत्र है। उसकी परिभाषा ‘स्थल’ शब्द से की जाती है, इसलिए कि वह ‘स्थित’ है, शिव में लय स्थिर कर चुका है। अतः वह परम शिव ‘स्थल’ है। शिव में ही उपास्य और उपासक के बीच क्रीड़ा करने की शक्ति है जो अवसर पड़ने पर विभेदित हो जाता है और स्थल के दो भेद हो जाते हैं, एक अंगस्थल और दूसरा लिंगस्थल। लिंगस्थल उपास्य और शिवरूप है तथा अंगस्थल उपासक और जीव। इसी तरह लिंग (शिव) की शक्ति का नाम कला है और अंग (जीव) की शक्ति का नाम भक्ति। कला-शक्ति ‘प्रवृत्ति’ है और भक्ति-शक्ति निवृत्ति। सृष्टि शिव से जन्मती तथा भक्ति के कारण सृष्टि का शिव से तादात्म्य होता है।
(3) लिंग के तीन भेद हैं- 1. भावलिंग, 2. प्राणलिंग और 3. इष्टप्रलग। भावलिंग कलाविहीन सद्रूप काल और दिक् से अपरिच्छिन्न तथा परत्पर है। इसका साक्षात् श्रद्धा से होता है। प्राणलिंग कलाहीन और कलायुक्त चाक्षुप है। इन तीनों को क्रमशः सत्, चित् और आनन्द कहा जा सकता है। परमतत्त्व भावलिंग है, सूक्ष्म प्राणलिंग है और स्थूल इष्टप्रलग।
(4) ‘अंगस्थल’ का व्यवहार ‘जीव’ के लिए किया गया, जो तीन प्रकार का है- 1. योगांग (जो जीव-शक्ति से एकीभाव स्थापित करके सोते-जागते आनछ प्राप्त करता है), 2. भोगांग (शिव के साथ जीव का आनन्दोपभोग करना) और (3) त्यागांग (क्षणभंगुर संसार का त्याग) लिंगायत सम्प्रदाय में कुछ लिंगी ब्राह्मण भी हैं। लिंग धारण करने वाले लोग उनके अनुयायी हैं। लिंगी ब्राह्मणो ं के दो वर्ग हैं- आचार्य और पंचम। कालान्तर में लिंगायतों की चार श्रेणियां हो गई जंगम, शीलवन्त, वणिक् और पंचमशाली।

काश्मीरी शैव सम्प्रदाय तथा त्रिक्दर्शन –

काश्मीर में शैव धर्म का एक नया सम्प्रदाय विकसित हुआ जो सिद्धान्त और आचार में अन्य सम्प्रदायों से भिन्न था। यह शुद्ध रूप से दार्शनिक अथवा ज्ञानमार्गी सम्प्रदाय है जिसमें कापालिकों के घृणित आचारों जैसे सुरा-सुन्दरी पान, शरीर पर श्मशान की राख लगाना, नरकपाल में भोजन, मानव तथा पशु की बलि चढाना आदि की कटु शब्दों में निन्दा की गयी है। इस सम्प्रदाय के लोग ज्ञान को ही परमात्मा की प्राप्ति का एकमात्र साधन मानते है।
काश्मीरी शैव सम्प्रदाय के संस्थापक वसुगुप्त को माना जाता हैइसमें शिव को अद्वैत शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है। इनकी दृष्टि में शिव सर्वव्यापी है तथा जगत उसी का रूप है। शक्ति के साथ मिलकर वह सृष्टि की रचना करता है। चित्त, आनन्द, ज्ञान क्रिया, इच्छा – ये उसकी शक्तियॉ मानी गई है। जीव अपने वास्तविक रूप में शिव ही है किन्तु अज्ञानता के कारण उसे वास्तविकता का बोध नही हो पाता। अज्ञानता का आवरण हटते ही वह शिव की प्राप्ति कर लेता है। वास्तव में यही मोक्ष है। भक्ति की महत्ता को भी इस मत में स्वीकार किया गया है।
काश्मीर में जिस शैव मत का विकास हुआ वह अन्य शैव सिद्धांतों से कहीं अधिक उपयुक्त और मानवीय था तथा वह त्रिक्दर्शन के नाम से जाना गया। इस काश्मीरी शैव दर्शन में पाशुपत, कापालिक और कालमुख के निन्दनीय आचारों और गन्दे व्यवहारों का अभाव है। मांस, मंदिरा, मैथुन, खोपड़ी में आहार ग्रहण करना, श्मशान की राख अपने शरीर पर मलना तथा मनुष्य और पशु की बलि चढ़ाना जैसे अभिचारों की इसमे ं भर्त्सना की गई है। इस दर्शन में ज्ञान और ध्यान को परमब्रह्म की प्राप्ति का प्रधान आधार माना गया है। इसकी तीन शाखाएँ हैं- आगमशास्त्र, स्पन्दनशास्त्र और प्रत्यभिज्ञाशास्त्र।
त्रिक्दर्शन के आगमशास्त्र के अन्तर्गत सिद्धा, नामक, और मलिकी तीन तत्त्व हैं जो क्रमशः पशु, पति और पाश कहे गए हैं। स्पंददर्शन की दो पृथक-पृथक श्रेणियां हैं जिनमें आध्यात्मिक तत्त्वों का एक समान विवरण प्राप्त होता है जिससे शिव विश्व का स्वत्मैक्य रूप है। उसमें स्पन्दन है तथा शिव और शक्ति का तत्त्व का योग है। इस संयुक्तता से सादाख्य (मैं यह हूँ) तत्त्व का निर्माण होता है। इससे ऐश्वर्य (यह मैं हूँ) का आविर्भाव होता है। स्पंद दर्शन शाखा के पहले दार्शनिक वसुगुप्त थे और उनके शिष्य कल्लट (नवीं सदी)। इस सम्प्रदाय के दो प्रधान ग्रन्थ हैं- शिवसूत्रम् और स्वन्दकारिका। प्रत्यभिज्ञा दर्शन के प्रवर्तक सोमानन्द थे, जिनकी रचना का नाम ‘शिवदृष्टि’ है। उनके प्रमुख शिष्य का नाम उदयकर था तथा प्रशिष्य का नाम अभिनवगुप्त (दसवीं सदी का उत्तरार्द्ध)। प्रत्यभिज्ञा दर्शन का मूल आशय था कि सब कुछ शिव है। शिव की ज्योति से हम सब उद्भासित होता हैं। सब शिवमय है। जब यह ज्ञान कराया जाता है कि हम शिव हैं तब हम अपने को शिव समझने लगते हैं। यही स्थिति प्रत्यभिज्ञा दर्शन है। काश्मीरी शैव सिद्धान्त में निम्नलिखित तत्त्व मिलते हैं- परम तत्त्व अद्वय परमेश्वर है, जो शिव और शक्ति का तथा कामेश्वर और कामेश्वरी का समन्वित रूप है। यह चैतन्य, परा, संवित्, अनुत्तर, परमेश्वर, स्पंद और परम शिव है, जो उसके पृथक्-पृथक् अभिधान है। उसके दो तत्त्व हैं, ‘विश्वात्मक’ और ‘विश्वोत्तीर्ण’। ‘विश्वात्मक’ रूप में वह विश्व में सर्वत्र है तथा सृष्टि का अपने आधार पर उन्मीलन करता है। उसकी पांच शक्तियां हैं- चित्त, आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया, जिनमें समस्त सृष्टि का स्पन्दन है। जगत् में उसी का रूप है। द्वैत भावना काल्पनिक है तथा अद्वैत भावना वास्तविक। परमेश्वर के हृदय में सृष्टि की इच्छा होते ही उसके दो रूप हो जाते हैं, शिव रूप और शक्ति रूप। दोनों का एक-दूसरे से अटूट सम्बन्ध हैं। शिव को अपने प्रकाश का ज्ञान शक्ति के कारण होता है और तब सृष्टि होती है। कलातत्त्व के कारण जीव सर्वकर्तृत्व से कुछ संकुचित हो जाता है। अतः विद्या के कारण उसका संकोचक तत्त्व राग के माध्यम से विषयों के प्रति आकृष्ट होता है। ‘काल’ और ‘नियति’ के आवरण से हटने पर जीव की स्वाभाविकता होती है। वस्तुतः प्रत्यभिज्ञा का साधन-मार्ग विशिष्ट उपासना का मार्ग है, जिसमें भक्ति और ज्ञान का अपूर्व सामंजस्य है। अगर देखा जाय तो जीव ही वास्तविक रूप में शिव है। उसमें ज्ञान और भक्ति की सत्ता है। आवरण के कारण वास्तविकता ओझल रहती है। आवरण के हटने पर ‘मोक्ष’ ही शिव के परम पद की प्राप्ति है।

नाथ सम्प्रदाय –

उपर्युक्त सम्प्रदायों के साथ-साथ शैव धर्म में कुछ अन्य सम्प्रदायों का भी प्रचलन हुआ। 10वीं शताब्दी के अन्त में मत्स्येन्द्रनाथ ने ‘‘नाथपन्थ‘‘ नामक सम्प्रदाय चलाया। इसमें शिव को आदिनाथ मानते हुए नौ नाथों को दिव्य पुरूष के रूप में मान्यता प्रदान की गयी है। इनकी क्रियायें तथा आचार बज्र यानि बौद्धों से मिलती-जुलती है। नाथों की साधना पद्धति में नारी का प्रमुख स्थान है। दसवी-एग्यारहवीं शताब्दी में बाबा गोरखनाथ ने इस मत का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार किया और इसका प्रमुख केन्द्र उत्तरप्रदेश के गोरखपुर को बनाया गया।
भारत में जब तांत्रिकों और साधकों के चमत्कार एवं आचार-विचार की बदनामी होने लगी और साधकों को शाक्त, मद्य, मांस तथा स्त्री-संबंधी व्यभिचारों के कारण घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा तथा इनकी यौगिक क्रियाएँ भी मन्द पड़ने लगी, तब इन यौगिक क्रियाओं के उद्धार के लिए नाथ सम्प्रदाय का उदय हुआ था। नाथ सम्प्रदाय हिन्दू धर्म के अंतर्गत शैववाद की एक उप-परंपरा है। यह एक मध्ययुगीन आंदोलन है जो शैव धर्म, बौद्ध धर्म और भारत में प्रचलित योग परंपराओं का सम्मिलित रूप है।
नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी आदिनाथ या शिव को अपना पहला भगवान या गुरू मानते हैं। शिव के अलावा कई अन्य व्यक्तियों को नाथ सम्प्रदाय में गुरू माना जाता है। इनके नाम निम्नलिखित है –

  • आदिनाथ
  • उदयनाथ
  • सत्यनाथ
  • सतोषनाथ
  • अचलनाथ
  • कंथड़िनाथ
  • चौरंगीनाथ
  • मत्स्येन्द्रनाथ
  • गोरक्षनाथ

इनमे मच्छेन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) सर्वाधिक प्रमुख हैं।

संस्कृत के शब्द “नाथ” का शाब्दिक अर्थ “प्रभु” या “रक्षक“ है जबकि इससे संबंधित संस्कृत शब्द “आदिनाथ” का अर्थ “प्रथम” या “मूल” भगवान है और यह नाथ सम्प्रदाय के संस्थापक शिव के लिए प्रयुक्त होता है। शब्द ’’नाथ’’ उस नाम से जाना जाने वाला शैववाद परंपरा के लिए एक नवाचार है। 18 वीं सदी से पहले नाथ सम्प्रदाय के लोगों को “जोगी या योगी” कहा जाता था। हालांकि औपनिवेशिक शासन के दौरान “योगी/जोगी“ शब्द का उपयोग ब्रिटिश भारत की जनगणना के दौरान “निम्न स्थिति वाली जाति” के लिए किया जाता था। 20वीं शताब्दी में इस समुदाय के लोगों ने अपने नाम के अंत में वैकल्पिक शब्द “नाथ” का इस्तेमाल करना शुरू किया जबकि अपने ऐतिहासिक शब्द “योगी या जोगी” का प्रयोग अपने समुदाय के भीतर एक-दूसरे को संदर्भित करने के लिए करते हैं।

नाथ सम्प्रदाय की उत्पति और विकास-

भारत में नाथ परंपरा की शुरूआत कोई नया आंदोलन नहीं था बल्कि यह “सिद्ध परंपरा” का एक विकासवादी चरण था। “सिद्ध परंपरा” ने योग का पता लगाया, जिसमें मनोवैज्ञानिक एवं शारीरिक तकनीकों के सही संयोजन से सिद्धि की प्राप्ति होती है। मल्ललिन्सन के अनुसार, “पुरातात्विक सन्दर्भों और शुरूआती ग्रंथों से पता चलता है कि मच्छेन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ का संबंध प्रायद्वीपीय भारत के दक्कन क्षेत्र से था जबकि अन्य लोगों का संबंध पूर्वी भारत से हैं। नाथ सम्प्रदाय के योगी की सबसे पुरानी प्रतिमा कोंकण क्षेत्र में पाई गई है। विजयनगर साम्राज्य के कलाकृतियों में उन्हें शामिल किया गया था। मा-हुन नामक चीनी यात्री, जिसने भारत के पश्चिमी तट का दौरा किया था अपने संस्मरण में नाथ योगियों का उल्लेख किया है। नाथ परंपरा के सबसे पुराने ग्रंथो में इस बात का उल्लेख किया गया है कि नाथ सम्प्रदाय के अधिकांश तीर्थस्थल दक्कन क्षेत्र और भारत के पूर्वी राज्य में स्थित हैं। इन ग्रंथों में उत्तर, उत्तर-पश्चिम या दक्षिण भारत का कोई भी उल्लेख नहीं है।
नाथ गुरूओं की संख्या के बारे में विभिन्न ग्रंथों में मतभेद है और विभिन्न धर्मग्रंथों के अनुसार नाथ सम्प्रदाय में क्रमशः 4, 9, 18, 25 और इससे भी अधिक धर्म गुरू थे। सबसे पहला ग्रन्थ जिसमें नौ नाथ गुरूओं का उल्लेख किया गया है वह 15वीं शताब्दी का तेलुगू ग्रन्थ “नवनाथ चरित्र” है। प्राचीनकाल के अलग-अलग धर्मग्रंथों में नाथ गुरूओं को अलग-अलग नाम से उल्लिखित किया गया है। उदाहरण के लिए, मच्छेन्द्रनाथ को 10वीं शताब्दी में लिखित अद्वैतवाद के ग्रन्थ “तंत्रलोक” के अध्याय 29.32 में “सिद्ध” के रूप में और शैव धर्म के विद्वान अभिनवगुप्त के रूप में उल्लेख किया गया है।
तिब्बत और हिमालय के क्षेत्रों में पाये गये बौद्ध ग्रंथों में नाथ गुरूओं को “सिद्ध” गुरु के रूप में उल्लेख किया गया था और शुरूआती विद्वानों का मानना था कि नाथ गुरू मूल रूप से बौद्ध हो सकते हैं, लेकिन नाथ सिद्धांत और धर्मशास्त्र बौद्ध धर्म की विचारधारा से बिलकुल अलग हैं। तिब्बती परंपरा में मच्छेन्द्रनाथ को “लुई-पे” के नाम से पहचाना जाता है, जिन्हें पहला “बौद्ध सिद्धाचार्य” के रूप में जाना जाता है। नेपाल में उन्हें बौद्ध “अवलोकीतेश्वर” के रूप में जाना जाता है। भक्ति आंदोलन से जुड़े संत कबीर ने भी नाथ योगियों की प्रशंसा की है।
इस सम्प्रदाय के परम्परा संस्थापक आदिनाथ स्वयं शंकर के अवतार माने जाते हैं। इसका संबंध रसेश्वरों से है और इसके अनुयायी आगमों में आदिष्ट योग साधन करते हैं। अतः इसे अनेक इतिहासकार शैव सम्प्रदाय मानते हैं परन्तु और शैवों की तरह ये न तो लिंग की पूजा करते हैं और न शिवोपासना और अंगों का निर्वाह करते हैं। किन्तु तीर्थ, देवता आदि को मानते हैं, शिवमंदिर और देवीमंदिरों में दर्शनार्थ जाते हैं, कैला देवी जी तथा हिंगलाज माता के दर्शन विशेष रूप से करते हैं, जिससे इनका शाक्त संबंध भी स्पष्ट है। इस परम्परा के योगी भस्म भी रमाते हैं। योगसाधना इस सम्प्रदाय के शुरूआत, मध्य और अंत में हैं। अतः इसे शैव मत का शुद्ध योग सम्प्रदाय माना जाता है।
इस पंथ वालों की योग साधना पातंजल विधि का विकसित रूप है। नाथपंत में ‘ऊर्ध्वरेता’ या अखण्ड ब्रह्मचारी होना सबसे महत्व की बात है। मांस-मद्द आदि सभी तामसिक भोजनों का पूरा निषेध है। यह पंथ चौरासी सिद्धों के तांत्रिक वज्रयान का सात्विक रूप में परिपालक प्रतीत होता है।
उनका तात्विक सिद्धांत है कि परमात्मा ‘केवल एक’ है और उसी परमात्मा तक पहुँचना मोक्ष है। जीव का उससे चाहे जैसा संबंध माना जाए, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से उससे सम्मिलन ही “कैवल्य मोक्ष या योग” है। इसी जीवन में उसकी अनुभूति हो जाए यही इस पंथ का लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रथम सीढ़ी काया की साधना है। कोई काया को शत्रु समझकर भाँति-भाँति के कष्ट देता है और कोई विषयवासना में लिप्त होकर उसे अनियंत्रित छोड़ देता है। परन्तु नाथपंथी काया को परमात्मा का आवास मानकर उसकी उपयुक्त साधना करता है। काया उसके लिए वह यंत्र है जिसके द्वारा वह इसी जीवन में मोक्षानुभूति कर लेता है, जन्म मरण जीवन पर पूरा अधिकार कर लेता है, जरा-भरण-व्याधि और काल पर विजय पा जाता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह पहले काया शोधन करता है। इसके लिए वह यम, नियम के साथ हठयोग के षट् कर्म (नेति, धौति, वस्ति, नौलि, कपालभांति और त्राटक) करता है ताकि काया शुद्ध हो जाए।

इस मत में शुद्ध हठयोग तथा राजयोग की साधनाएँ अनुशासित हैं। योगासन, नाड़ीज्ञान, षट्चक्र निरूपण तथा प्राणायाम द्वारा समाधि की प्राप्ति इसके मुख्य अंग हैं। शारीरिक पुष्टि तथा पंच महाभूतों पर विजय की सिद्धि के लिए रसविद्या का भी इस मत में एक विशेष स्थान है। इस पंथ के योगी या तो जीवित समाधि लेते हैं या शरीर छोड़ने पर उन्हें समाधि दी जाती है। वे जलाये नहीं जाते। यह माना जाता है कि उनका शरीर योग से ही शुद्ध हो जाता है अतः उसे जलाने की आवश्यकता नहीं है। नाथपंथी योगी अलख(अलक्ष) जगाते हैं। इसी शब्द से इष्टदेव का ध्यान करते हैं और इसी से भिक्षाटन भी करते हैं। इनके शिष्य गुरू के ‘अलक्ष’ कहने पर ‘आदेश’ कहकर सम्बोधन का उत्तर देते हैं। इन मंत्रों का लक्ष्य वहीं प्रणवरूपी परम पुरूष है जो वेदों और उपनिषदों का ध्येय हैं।

नाथ सम्प्रदाय भारत का एक हिंदू धार्मिक पन्थ है। मध्ययुग में उत्पन्न इस सम्प्रदाय में बौद्ध, शैव तथा योग की परम्पराओं का समन्वय दिखायी देता है। यह हठयोग की साधना पद्धति पर आधारित पंथ है। शिव इस सम्प्रदाय के प्रथम गुरु एवं आराध्य हैं। इसके अलावा इस सम्प्रदाय में अनेक गुरु हुए जिनमें गुरु मच्छिन्द्रनाथ अथवा मत्स्येन्द्रनाथ तथा गुरु गोरखनाथ सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। नाथ सम्प्रदाय समस्त देश में बिखरा हुआ था। गुरु गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया, अतः इसके वास्तविक संस्थापक गोरखनाथ माने जाते हैं। भारत में नाथ सम्प्रदाय को सन्यासी, योगी, जोगी, नाथ ,अवधूत ,कौल,कालबेलिया, उपाध्याय (पश्चिम उत्तर प्रदेश में), नामों से जाना जाता है। इनके कुछ गुरुओं के शिष्य मुसलमान, जैन, सिख और बौद्ध धर्म के भी थे।

नाथ साधु-सन्त परिव्राजक होते हैं। वे भगवा रंग के बिना सिले वस्त्र धारण करते हैं। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे ’सिले’ कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को ’सींगी सेली’ कहते हैं। उनके एक हाथ में चिमटा, दूसरे हाथ में कमण्डल, दोनों कानों में कुण्डल, कमर में कमरबन्ध होता है। ये जटाधारी होते हैं। नाथपन्थी भजन गाते हुए घूमते हैं और भिक्षाटन कर जीवन यापन करते हैं। उम्र के अंतिम चरण में वे किसी एक स्थान पर रुककर अखण्ड धूनी रमाते हैं। कुछ नाथ साधक हिमालय की गुफाओं में चले जाते हैं।

मत्स्येंद्रनाथ 84 महासिद्धों (बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा के योगी) में से एक थे। वो गोरखनाथ के गुरु थे जिनके साथ उन्होंने हठयोग विद्यालय की स्थापना की। उन्हें संस्कृत में हठयोग की प्रारम्भिक रचनाओं में से एक ‘कौलजणाननिर्णय‘ (कौल परंपरा से संबंधित ज्ञान की चर्चा) के लेखक माना जाता है। (1) वो हिन्दू और बौद्ध दोनों ही समुदायों में प्रतिष्ठित हैं। (2) मचिन्द्रनाथ को नाथ प्रथा के संस्थापक भी माना जाता है। मत्स्येन्द्र नाथ को उनके सार्वभौम शिक्षण के लिए “विश्वयोगी“ भी कहा जाता है। (3) गोरखनाथ को उनके सबसे सक्षम शिष्यों मे माना जाता है।
गोरखनाथ या गोरक्षनाथ जी महाराज प्रथम शताब्दी के पूर्व नाथ योगी के थे ( प्रमाण है राजा विक्रमादित्य के द्वारा बनाया गया पञ्चाङ्ग जिन्होंने विक्रम संवत की शुरुआत प्रथम शताब्दी से की थी जब कि गुरु गोरक्ष नाथ जी राजा भर्तृहरि एवं इनके छोटे भाई राजा विक्रमादित्य के समय मे थे) गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में स्थित है।गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है। गोरखनाथ के शिष्य के नाम भैरौंनाथ था जिनका उद्धार माता वैष्णोदेवी ने किया था।

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