window.location = "http://www.yoururl.com"; The Nyaya Philosophy. // न्याय दर्शन

The Nyaya Philosophy. // न्याय दर्शन

विषय प्रवेश –

न्याय दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम को माना जाता है। इन्हे अक्षपाद के नाम से भी जाना जाता है, यही कारण है कि न्याय दर्शन को अक्षपाद दर्शन भी कहा जाता है। न्याय को तर्क-शास्त्र, प्रमाण शास्त्र भी कहा जाता है क्योंकि इस दर्शन में तर्क-शास्त्र और प्रमाण-शास्त्र पर ज्यादा जोर दिया गया है। न्याय दर्शन के ज्ञान का आधार ‘न्याय-सूत्र‘ को माना जाता है जिसके रचयिता गौतम मुनि है। न्याय-सूत्र न्याय दर्शन का प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है जिसमें पॉच अध्याय है। कालान्तर में अनेक भाष्यकारों ने न्याय-सूत्र पर टिका लिखकर न्याय- दर्शन का साहित्य समृद्ध किया। ऐसे टीकाकारों में वात्स्यायन, वाचस्पति मिश्र और उदयनाचार्य का नाम उल्लेखनीय है।
अन्य भारतीय दर्शन की तरह न्याय का भी चरम उद्देश्य मोक्ष को प्राप्त करना है। मोक्ष की अनुभूति तत्व-ज्ञान अर्थात वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को जानने से ही हो सकती है। इसी उद्देश्य से न्याय दर्शन में 16 पदार्थो की व्याख्या हुई है जो निम्नलिखित है –
  1. प्रमाण – ज्ञान के साधन को प्रमाण कहा जाता है। न्याय दर्शन के मतानुसार प्रमाण चार है -प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द।
  2. प्रमेय – ज्ञान के विषय को प्रमेय कहते है। प्रमेय के अन्तर्गत ऐसे विषयों को उल्लेख है जिसका वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है।
  3. संशय – मन की अनिश्चित अवस्था को, जिसमें मन के सामने दो या दो से अधिक विकल्प उपस्थित होते है, संशय कहा जाता है। इस अवस्था में विषय के विशेष का ज्ञान नहीं होता है।
  4. प्रयोजन – जिस वस्तु की प्राप्ति के लिए जो कार्य किया जाता है उसे प्रयोजन कहा जाता है।
  5. दृष्टान्त – ज्ञान के लिए अनुभव किये हुए उदाहरणों को दृष्टान्त कहा जाता है। यह हमारे तर्क को सबल बनाता है।
  6. सिद्धान्त – सिद्ध स्थापित सिद्धान्त को ज्ञान के क्षेत्र में आगे बढना सिद्धान्त कहा जाता है।
  7. अवयव – अनुमान की संभावना को अवयव कहा जाता है।
  8. तर्क – यदि किसी बात को साबित करना है, तब उसके विपरित को सही मानकर उसकी अप्रमाणिकता को दिखलाना तर्क कहलाता है।
  9. निर्णय – निश्चित ज्ञान को निर्णय कहा जाता है। निर्णय को अपनाने के लिए संशय का परित्याग करना आवश्यक हो जाता है।
  10.  वाद उस विचार को कहा जाता है जिसमें सभी प्रमाणों और तर्को की सहायता से विपक्षी के निष्कर्ष काटने का प्रयास किया जाता है।
  11. जल्प – जीतने की अभिलाषा से तर्क करना जल्प कहलाता है।
  12. वितण्डा – प्रतिवादी के विचारों को काटने की चेष्टा से किया जाने वाला तर्क वितण्डा कहलाता है।
  13. हेत्वाभास – प्रत्येक अनुमान हेतु पर निर्भर करता है। यदि हेतु में कोई दोष हो तो अनुमान भी दूषित हो जाता है। सामान्यतया अनुमान के दोष कों हेत्वाभास कहते है।
  14. छल – किसी व्यक्ति की कही हुई बात का अर्थ बदलकर उसमें दोष संकेत करना छल कहा जाता है। जैसे कोई यह कहे कि मेरे पास नव वस्त्र है। उस व्यक्ति के कहने का यह अर्थ है कि मेरे पास नया वस्त्र है लेकिन जब विरोधी नव का अर्थ नया न लेकर 9 संख्या समझ लेता है तब यह छल कहा जाएगा।
  15. जाति – जाति भी छल की तरह एक प्रकार का दुष्ट उत्तर है। समानता और असमानता के आधार पर जो दोष दिखलाया जाता है वह जाति है।
  16. निग्रह-स्थान – वाद-विवाद के सिलसिले में जब वादी ऐसे स्थान पर पहुॅचता है जहॉ उसे हार माननी पडती है तो वह निग्रह स्थान कहलाता है। दूसरे शब्दों में पराजय के स्थान कों निग्रह-स्थान कहा जाता है।
उपर्युक्त वर्णित 16 पदार्थो में से ‘प्रमाण‘ और ‘प्रमेय‘ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, शेष सभी कही न कहीं इसी में समाहित है।

प्रमाण –

यह किसी विषय के यथार्थ अथवा सम्यक ज्ञान प्राप्त करने का मापन है। प्रमाण के चार प्रकार बताये गये है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, और शब्द। वस्तुओं के साक्षात् ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जाता है जो इन्द्रियो तथा उसके विषयों के सम्पर्क से प्राप्त किया जाता है। इस प्रकार का ज्ञान यथार्थ होता है। जैसे- अंखा से देखकर हर किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करते है। प्रत्यक्ष ज्ञान दो प्रकार का होता है- वाह्य तथा मानस। बाह्य प्रत्यक्ष में ज्ञात वस्तु का सयोग ऑख, कान आदि बाहरी इन्द्रियो से होता है। मानस प्रत्यक्ष में ज्ञात वस्तु का संयोग केवल मन से ही होता है। दूसरी दृष्टि से इसको निर्विकल्प तथा सविकल्प नामक दो अवस्थाये मानी गयी है। प्रथम से तात्पर्य प्रत्यक्ष ज्ञान के अविकसित तथा द्वितीय से तात्पर्य उसके विकसित रूप से है। किसी वस्तु की अनुभूति मात्र को निर्विकल्प प्रत्यक्ष कहते है, जैसे अन्धकार में किसी वस्तु को देखकर केवल उसके रूप-रंग, आकार-प्रकार आदि के विषय में सामान्य अभास मिलता है। सविकल्प प्रत्यक्ष में हम उस वस्तु के विषय में पहले हुई प्रतीति के आधार पर निर्णय करते है। यही प्रत्यक्ष का विकसित रूप है। नैयायिको (न्याय दर्शन के समर्थक या अनुयायी) के अनुसार प्रत्येक सविकल्प प्रत्यक्ष के पूर्व निर्विकल्प प्रत्यक्ष होता है।
प्रत्यक्ष के बाद अनुमान को अवस्था आती है। अनुमान, किसी पूर्वज्ञान के आधार पर वस्तुओं के अन्दाज लगाने को कहा जाता है। यह केवल इन्द्रियों द्वारा ही नहीं होता, वरन् ऐसे साधन से होता है जिससे साध्य अथवा अनुमानित वस्तु का नियत सम्बन्ध रहता है। साधन तथा साध्य के इस नियत सम्बन्ध को ‘व्याप्ति‘ कहा गया है। इसमें कम से कम तीन वाक्य तथा अधिक से अधिक तीन पद रहते है जिन्हे पक्ष, साध्य तथा साधन (लिग) कहा जाता है। पक्ष से साधन के अस्तित्व पता चलता है। जिस वस्तु का अस्तित्व पक्ष में सिद्ध करना होता है उसे साध्य कहा जाता है तथा जिसका साध्य के साथ नियत सम्बन्ध रहता है उसे साधन कहा जाता है। साधन का अस्तित्व पक्ष में बना रहता है। इसे हम इस प्रकार समझ सकते है –

‘‘पर्वत मे आग है, क्योकि उसमें धुआँ  है। जहाँ पुआल है वहाँ आग है।‘‘

यहाँ पर्वत मे धुएं को देखकर यह निष्कर्ष निकलता है कि उसमें आग है क्योकि हम यह पहले से ही जानते है कि आग तथा धुऑ में व्याप्ति का सम्बन्ध रहता है। यहाँ पर्वत पक्ष, अग्नि साध्य तथा घुओं साधन है। इस प्रकार हम देखते है कि पक्ष के सम्बन्ध में अनुमान किया जाता है, साध्य को पक्ष के सम्बन्ध मे सिद्ध किया जाता है तथा साधन के द्वारा पक्ष के सम्बन्ध में साध्य सिद्ध किया जाता है। नैयायिको का मत है कि अनुमान को बोधगम्य बनाने के लिये पाँच स्पष्ट पदो मे उसे व्यक्त करना चाहिए- प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय तधा निगमन। इसे हम इस प्रकार समझ सकते है
  1. इस पर्वत मे आग है (प्रतिज्ञा)।
  2. क्योकि इसमें धुआँ है (हेतु)।
  3. जहाँ धुऑं है वहाँ आग है, जैसे चूल्हे में (उदाहरण)।
  4. इस पर्वत मे भी घुऑं है (उपनय)।
  5. अतः. इस पर्वत मे आग है (निगमन)।
उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि प्रतिज्ञा मे विषय को पहले प्रतिपादित किया जाता है, हेतु में प्रतिज्ञा का कारण बताया जाता है, उदाहरण में साध्य तथा हेतु का सम्बन्ध स्पष्ट किया जाता है, उपनय मे उदाहरण को प्रदत्त विषय पर भी लागू किया जाता है तथा इन सबसे जो निष्कर्ष निकलता है वह निगमन होता है।

न्याय दर्शन का तीसरा प्रमाण उपमान है जिसका अर्थ है तुलना (Comparison) इसमें समानता तथा तुलना के आधार पर एक वस्तु से दूसरी वस्तु का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। उदाहरण के लिये यदि हमने कभी बकरी नहीं देखा तथा कोई अन्य व्यक्ति हमसे उसके रूप-रंग, आकार-प्रकार का वर्णन करता। कालान्तर में जब बकरी को देखकर हम उस वर्णन के आधार पर उसका ज्ञान प्राप्त कर लेते है तो हमारा यह ज्ञान उपमान द्वारा प्राप्त कहा जायेगा।

चौथा तथा अन्तिम प्रमाण ‘शब्द ‘ कहा गया है। ‘शब्द‘ ज्ञान वह है जिसे हम विश्वासनीय व्यक्तियों अथवा वेदादि प्रामाणिक ग्रन्थो के आधार पर प्राप्त करते है। प्राचीन ऐतिहासिक पुरुषों अथवा ईश्वर सम्बन्धी हमारा ज्ञान शब्द प्रमाण पर ही आधारित होता है। इस प्रकार न्याय इन चार. प्रमाणो का अस्तित्व ही स्वीकार करता है।

प्रमेय- जानने योग्य पदार्था तथा तत्वों की संज्ञा प्रमेय है जिनकी संख्या बारह बतायी गयी है –

(1) आत्मा, (2) शरीर, (3) इन्द्रिय, (4) अर्थ, (5) बुद्धि, (6) मन, (7) प्रवृत्ति, (8) दोष, (9) पुनर्जन्म, (10) फल, (11) दुःख तथा (12) अपवर्ग।

आत्मा तथा उपवर्ग प्रमेयों में प्रधान हैं जिनका विवरण यहाँ दिया जायेगा।

न्याय दर्शन अनेकात्मवाद का समर्थक है जिसके अनुसार भिन्न-भिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न आत्मायें निवास करती हैं। आत्मा उत्पत्ति तथा नाश से रहित, नित्य, सर्वव्यापी सत्ता है। चैतन्य आत्मा का नित्य लक्षण नहीं है अपितु मन के सम्बन्ध से वह चैतन्य प्राप्त करता हैं। मन एक सूक्ष्म, नित्य एवं अविभाज्य तत्व है जो अणु के रूप में स्थित है। इसी के द्वारा आत्मा ज्ञान तथा सुख-दुःख की अनुभूति प्राप्त करता है। शरीर का निर्माण परमाणुओं से हुआ है। अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति न्याय भी मोक्ष की समस्या पर विचार करता है जिसे अपवर्ग कहा गया है। आत्मा का मन, शरीर के साथ संयुक्त होना ही दुःख का कारण है। जब तक आत्मा शरीरग्रस्त रहता है, दुखों का पूर्ण विनाश सम्भव नहीं है। अतः मोक्ष तभी सम्भव है जबकि आत्मा का शरीर तथा इन्द्रियों के बन्धन से छुटकारा हो जाय। मोक्ष की प्राप्ति के लिये तत्वज्ञान अर्थात् सत्य के सम्यक ज्ञान की आवश्यकता है। इसे प्राप्त करने के उपाय श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन बताये गये है। सर्वप्रथम मोक्ष चाहने वाले को किसी योग्य गुरु से धर्म ग्रन्थों में वर्णित आत्मा सम्बन्धी ज्ञान को सुनना चाहिये। इसके बाद उस ज्ञान को सुदृढ़ करना चाहिये। ऐसा करने पर तत्वज्ञान का उदय हो जाता है तथा वह आत्मा को शरीर से भिन्न मानने लगता है। मनुष्य ऐसा समझ लेने पर सांसारिक वासनाओं तथा प्रवृत्तियों से बाधित नहीं होता तथा निष्काम भाव से अपना कार्य करता है। जब उसके पूर्व जन्म के संचित कर्मों का नाश हो जाता है तो उसे मुक्ति मिलती है या वह जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। इसी को न्याय में अपवर्ग कहा गया है। इस अवस्था में व्यक्ति के समस्त दुःखो का नाश हो जाता है। किन्तु नैयायिक इसे आनन्दमय नहीं मानते क्योंकि मोक्षप्राप्त आत्मा में किसी भी प्रकार की अनुभूति नहीं रहती है तथा वह सुख-दुःख से परे होकर अचेतन हो जाता है। यही जीवन का परम ध्येय है।

ज्ञान का स्वरूप (The Nature of Knowledge)-

न्याय दर्शन में ज्ञान को बुद्धि (Cognition) उपलब्धि (Apprehension) का पर्याय माना गया है। वस्तुतः ज्ञान बुद्धि और उपलब्धि के अर्थ में प्रयुक्त किये जाते है। ज्ञान का प्रयोग दो अर्थो में किया जाता है – व्यापक अर्थ तथा संकुचित अर्थ में। व्यापक अर्थ में यह यथार्थ तथा अयथार्थ ज्ञान का सूचक है। इसे हम एक उदाहरण से समझ सकते है – रात्रि में एक व्यक्ति रस्सी को देखकर उसे रस्सी समझता है और दूसरा उसे सॉप समझता है। यद्यपि यहॉ ज्ञान दोनों का हो रहा है, फिर भी दोनों के ज्ञान में इसलिए अन्तर है कि एक को यथार्थ ज्ञान हो रहा है तथा दूसरे को अयथार्थ ज्ञान हो रहा है। इस प्रकार व्यापक अर्थ में ज्ञान शब्द का प्रयोग यथार्थ और अयथार्थ ज्ञान के रूप में होता है। परन्तु इसके विपरित संकुचित अर्थ में ज्ञान यथार्थ ज्ञान का ही एकमात्र बोधक होता है। न्याय दर्शन में ‘ज्ञान‘ शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में ही हुआ है।
न्याय दर्शन में ज्ञान का स्वरूप प्रकाशमय माना गया है। ज्ञान का स्वरूप है किसी वस्तु को प्रकाशित करना। जिस प्रकार दीपक समीपवस्थ वस्तु को प्रकाशित करता है उसी प्रकार ज्ञान भी वस्तु को प्रकाशित करता है। तर्क कौमुदी में कहा गया है कि- ‘‘अर्थ प्रकाशो बुद्धिः‘‘। अर्थात वस्तु के प्रकाश मे ही ज्ञान नीहित है। ज्ञान के सन्दर्भ में दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि ज्ञान हमारेे कार्य का आधार है। मनुष्य सही या गलत ज्ञान के आधार पर ही कार्य करता है। यही कारण है कि विज्ञान को सभी व्यवहार का जनक माना जाता है। ज्ञान के सन्दर्भ में तीसरी बात यह है कि ज्ञान आत्मा का गुण है (Knowledge is attribute of soul)। न्याय दर्शन के अनुसार ज्ञान का सम्बन्ध ज्ञाता और ज्ञेय से है। जो ज्ञान प्राप्त करता है वह ज्ञाता है और जो ज्ञान का विषय है, वह ज्ञेय है। बिना आत्मा अथवा ज्ञाता के ज्ञान संभव नही है। जब आत्मा ज्ञेय के सम्पर्क में आता है तब ज्ञान संभव होता है। आत्मा ही ज्ञान का आधार है।

प्रमा और अप्रमा का स्वरूप –

यथार्थ ज्ञान को ‘प्रमा‘ कहा गया है। वस्तु को उसी रूप में ग्रहण करना जिस रूप में वह है ‘प्रमा‘ है। रस्सी को रस्सी के रूप में ग्रहण करना ‘प्रमा‘ है। पहले के ज्ञान का स्मरण ‘स्मृति‘ है। अनुभव वह ज्ञान है जो स्मृति से भिन्न है। यथार्थ अनुभव ‘प्रमा‘ है। चूॅकि स्मृति का अनुभव नहीं होता है, इसलिए ‘स्मृति‘ ‘प्रमा‘ नही है। अयथार्थ ज्ञान का ‘अप्रमा‘ की संज्ञा से अभिहित किया गया है। अनुभव दो प्रकार का होता है – यथार्थ और अयथार्थ। यथार्थ अनुभव को ‘प्रमा‘ कहा गया है जबकि अयथार्थ अनुभव को ‘अप्रमा‘ कहा गया है। संशय, भ्रम और तर्क अप्रमा की कोटि में आते है। दूसरे शब्दों में जब हम किसी वस्तु में ऐसे गुणों की कल्पना करते है जिसका अस्तित्व वस्तु में नही है तो वह ज्ञान ‘अप्रमा‘ कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप जब हम रस्सी को सॉप समझ लेते है तो वह ज्ञान ‘अप्रमा‘ है क्योंकि रस्सी में सॉप का गुण समाविष्ट नहीं है।
उपरोक्त विवेचन से यह प्रमाणित होता है कि यथार्थ ज्ञान को ‘प्रमा‘ कहा जाता है। जो जिस रूप में है उसे उसी रूप में ग्रहण करना ही ‘प्रमा‘ है। प्रमा की तीन विषेषताओं को निरूपण न्याय दर्शन में हुआ है। प्रमा की पहली विशेषता अनुभवत्व है, दूसरी विशेषता असंदिग्घत्व है जबकि तीसरी विशेषता यथार्थत्व है।

प्रत्यक्ष का स्वरूप (Nature of Perception)

न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष पहला प्रमाण है। न्याय दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष पर जितनी गंभीरता से विचार किया है उतनी गम्भीरता से पाश्चात्य दार्शनिकों ने नही किया है। न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष का अत्यधिक महत्व है। न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष का प्रयोग ज्ञान के साधन के अतिरिक्त साध्य के रूप में भी हुआ है। प्रत्यक्ष के द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह भी प्रत्यक्ष ही कहा जाता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष का प्रयोग प्रमाण तथा प्रमा दोनों के अर्थो में हुआ है। प्रत्यक्ष की यह विशेषता अन्य प्रमाणों में नही दिखाई पडती है। प्रत्यक्ष ज्ञान सन्देहरहित होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान को किसी अन्य ज्ञान के द्वारा प्रमाणित करने की आवश्यकता नही होती है। इसका कारण यह है कि प्रत्यक्ष स्वयं निर्विवाद है। इसलिए कहा गया है कि – ‘‘प्रत्यक्षे किं प्रमाणम्‘‘।
प्रत्यक्ष की अन्य विशेषता यह है कि प्रत्यक्ष में विषयों का साक्षात्कार हो जाता है। जैसे मान लिजिए कि शर्मा सर ने कहा कि ‘‘आज कॉलेज बन्द है‘‘। इस कथन की परीक्षा कॉलेज जाने से स्वतः हो जाती है। इस प्रकार प्रत्यक्ष का प्रमेय से साक्षात्कार होता है। प्रत्यक्ष की यह विशेषता अन्य प्रमाणों में नही पाई जाती है। प्रत्यक्ष को अन्य प्रमाणों को प्रमाण कहा जाता है। सभी ज्ञान, अनुमान, शब्द, उपमान आदि किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष पर ही आश्रित है। प्रत्यक्ष के बिना इन प्रमाणों से ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अतः प्रत्यक्ष ही इन प्रमाणों को सार्थकता प्रदान करता है। इन्ही सब कारणों से प्रत्यक्ष की महत्ता न्याय दर्शन में अत्यधिक बढ गई है। न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष की परिभाषित करते हुए कहा गया है कि – ‘‘इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्यज्ञानं प्रत्यक्षम्‘‘। अर्थात जो ज्ञान इन्द्रिय और विषय के सन्निकर्ष से उत्पन्न हो, उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है।
स्पष्ट है कि इन्द्रिय और वस्तु के सन्निकर्ष अर्थात सम्पर्क ही प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त ज्ञान यथार्थ और वास्तविक है।

अनुमान (Inference)

अनुमान न्याय-दर्शन का दूसरा प्रमाण है । अनुमान शब्द का विश्लेषण करने पर इसमें दो शब्दों का समावेश पाते हैं । ये दो शब्द है – ‘अनु‘ और ‘मान‘ । अनु का अर्थ ‘पश्चात‘ और मान का अर्थ ‘ज्ञान‘ होता है । इस प्रकार अनुमान का अर्थ है- वह ज्ञान जो एक ज्ञान के बाद आये। वह ज्ञान प्रत्यक्ष ही ज्ञान है जिसके आधार पर अनुमान की प्राप्ति होती है। पहाड़ पर धुएँ को देखकर वहाँ आग होने का अनुमान किया जाता है। इसीलिये गौतम मुनि ने अनुमान को ‘‘तत्वपूर्वकम् प्रत्यक्ष मूलक‘‘ कहा है। अनुमान वह ज्ञान है जिसमें प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर जाया जाता है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर जाना आगमन कहा जाता है। यद्यपि प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों को प्रमाण माना गया है फिर भी दोनों में अत्यधिक अन्तर है।
प्रत्यक्ष ज्ञान स्वतन्त्र एवं निरपेक्ष रूप से ज्ञान का साधन है। वह स्वयंमूलक कहा जाता है परन्तु अनुमान अपनी उत्पत्ति के लिए प्रत्यक्ष पर आश्रित है। इसलिये अनुमान को प्रत्यक्षमूलक ज्ञान कहा गया है।
प्रत्यक्ष ज्ञान वर्तमान तक ही सीमित है। इसका कारण यह है कि प्रत्यक्ष का ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से होता है। जो वस्तु इन्द्रियों की पहुँच के बाहर है उसका ज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं होता है परन्तु इसके विपरीत अनुमान से भूत और भविष्य का भी ज्ञान होता है। अतः अनुमान का क्षेत्र प्रत्यक्ष के क्षेत्र से बृहत्तर है। प्रत्यक्ष-ज्ञान सन्देहरहित एवं निश्चित होता है; परन्तु अनुमानजन्य-ज्ञान संशयपूर्ण एवं अनिश्चित होता है । इसका फल यह होता है कि हमारे अधिकांश अनुमान गलत निकलते हैं तथा एक ही आधार से किये गये अनुमानों के निष्कर्ष भिन्न-भिन्न होते हैं। प्रत्यक्ष में विषयों का साक्षात्कार होता है। इसी कारण प्रत्यक्ष को अपरोक्ष ज्ञान (Immediate Knowledge) कहा जाता है । परन्तु अनुमान में विषयों का साक्षात्कार नहीं होता है जिसके फलस्वरूप अनुमानजन्य-ज्ञान को परोक्ष ज्ञान (Mediate Knowledge) कहा जाता है।
प्रत्यक्ष की उत्पत्ति इन्द्रियों के द्वारा होती है। इसका फल यह होता है कि योगज के अतिरिक्त सभी प्रकार के प्रत्यक्ष का स्वरूप प्रायः एक ही रहता है। सभी प्रत्यक्ष में वस्तु की उपस्थिति समान भाव से होती है परन्तु अनुमान के रूप व्याप्ति की विविधता के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के होते है।
अनुमान की आवश्यकता वहीं पड़ती है जहाँ विषय-ज्ञान सन्देहजनक हो। पूर्ण ज्ञान के अभाव में अथवा निश्चित ज्ञान की उपस्थिति में अनुमान करने का प्रश्न ही निरर्थक है परन्तु प्रत्यक्ष के साथ ये बातें नहीं लागू होती हैं। प्रत्यक्ष को न्याय-शास्त्र में एक मौलिक प्रमाण माना गया है । सभी प्रमाणों में इस स्थान प्रथम आता है किन्तु अनुमान प्रत्यक्ष के बाद स्थान ग्रहण करता है। इससे प्रमाणित होता है कि प्रत्यक्ष प्रथम कोटि का प्रमाण है जबकि अनुमान द्वितीय कोटि का प्रमाण है। प्रत्यक्ष और अनुमान के मुख्य अन्तर को जान लेने के बाद अनुमान के स्वरूप और अवयव पर विचार करना वांछनीय है।
अनुमान जैसा ऊपर कहा गया है, उस ज्ञान को कहते है जो पूर्व ज्ञान पर आधारित हो । अनुमान का उदाहरण यह है –

पहाड़ पर आग है
क्योंकि वहाँ धुऑ है
जहाँ जहाँ धुऑ है वहाँ वहाँ आग है।
यह अनुमान धुऑ और आग के व्याप्ति सम्बन्ध पर आधारित है। दो वस्तुओं के बीच आवश्यक और सामान्य सम्बन्ध को व्याप्ति कहा जाता है। ‘‘जहाँ जहाँ धुआँ है वहाँ वहाँ आग है,‘‘ यह व्याप्ति-वाक्य है। उपरोक्त तर्क में धुएँ को पाकर आग का अनुमान इसी व्याप्ति- वाक्य के फलस्वरूप होता है।
अनुमान में कम से कम तीन-तीन वाक्य होते हैं। अनुमान के तीन अवयव है- पक्ष, साध्य और हेतु। पक्ष अनुमान का वह अवयव है जिसके सम्बन्ध में अनुमान किया जाता है। इस उदाहरण में पहाड़ पक्ष है क्योंकि पहाड़ के सम्बन्ध में अनुमान हुआ है। पक्ष के सम्बन्ध में जो कुछ सिद्ध किया जाता है उसे साध्य कहा जाता है। आग साध्य है क्योंकि पहाड़ पर आग का होना ही सिद्ध किया गया है। जिसके द्वारा पक्ष में साध्य का होना बतलाया जाता है वह हेतु कहलाता है। उपरोक्त अनुमान में धुऑं हेतु है क्योंकि धुएं को देखकर ही पहाड़ पर आग होने का अनुमान किया गया है। उपरोक्त अनुमान के तीन वाक्य पाश्चात्य तर्कशास्त्र के निष्कर्ष (Conclusion) लघु वाक्य (Minor Premise) और बृहत् वाक्य (Major Premise) के अनुरूप है यद्यपि पाश्चात्य तर्कशास्त्र में इनका क्रम दूसरा है। पक्ष, साध्य और हेतु पाश्चात्य तर्कशास्त्र के क्रमशः लघुपद (Minor Term), बृहत् पद (Major Term) और मध्यवर्ती पद (Middle Term) के समान हैं।

अनुमान के प्रकार (Kinds of Inference)

न्याय दर्शन के समर्थकों ने अनुमान का वर्गीकरण विभिन्न दृष्टिकोणों से किया है। प्रयोजन की दृष्टि से अनुमान के दो भेद किये गये है – स्वार्थानुमान और परार्थानुमान।
स्वार्थानुमान- जब मानव स्वयं निजी ज्ञान की प्राप्ति के लिये अनुमान करता है तब उस को स्वार्थानुमान (Inference of oneself) कहा जाता है । स्वार्थानुमान में वाक्यों को क्रमबद्ध रूप से रखने की आवश्यकता नहीं होती है। पहाड़ पर धुएँ को देखकर यह अनुमान किया जाता है कि वहाँ आग होगी। इस अनुमान का आधार पहले का अनुभव है। जब भी हमने धुएँ को देखा है तब-तब हमने उसे अग्नियुक्त पाया है इसीलिये धुआँ और आग के बीच आवश्यक सम्बन्ध हमारे मन में स्थापित हो गया है। इसी सम्बन्ध के आधार पर धुएँ को देखकर तुरन्त ही आग का अनुमान हो जाता है।

परार्थानुमान- परार्थानुमान दूसरे के निमित्त किया जाता है। जब हम दूसरों की शंका को दूर करने के लिये अनुमान का सहारा लेते हैं तो उस अनुमान को परार्थानुमान कहा जाता है । परार्थानुमान के लिये पाँच वाक्यों की आवश्यकता होती है। इसलिये इस अनुमान को पंचावयव अनुमान (Five membered syllogism) कहा जाता है । इस अनुमान के पाँच अंग इस प्रकार हैं –

पहाड़ में आग है । (प्रतिज्ञा)
क्योंकि वहाँ धुआँ है। (हेतु)
जहाँ-जहाँ धुआँ रहता है वहाँ-वहाँ आग रहती है जैसे रसोई घर में । (उदाहरण)
पहाड़ में धुआँ है । (उपनय)
इसलिए पहाड़ में आग है । (निगमन)

परार्थानुमान और स्वार्थानुमान में अन्तर यह है कि स्वार्थानुमान में तीन वाक्यों की आवश्यकता होती है, परन्तु परार्थानुमान में पाँच वाक्यों की आवश्यकता होती है। स्वार्थानुमान पहले आता है, परार्थानुमान बाद में आता है। परार्थानुमान का आधार स्वार्थानुमान है। यह स्वार्थानुमान की विधिवत् अभिव्यक्ति है।

न्याय-दर्शन में परार्थानुमान अधिक प्रसिद्ध है क्योंकि यह गौतम के तर्कशास्त्र का यह अनमोल अंग है।

शब्द (Authority)

नैयायिकों ने ‘शब्द‘ को भी प्रमाण माना है। किसी विश्वस्त व्यक्ति के कथनानुसार जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे ‘शब्द’ कहते हैं। सभी पुरुषों के वचनों को शब्द ज्ञान नहीं कहा जा सकता। शब्द ज्ञान के लिये विश्वासी पुरुष का मिलना आवश्यक है। विश्वासी पुरुषों के कथनों को ‘आप्त वचन‘ कहा जाता है। कोई व्यक्ति आप्त पुरुष तभी कहा जाता है जब उसके ज्ञान यथार्थ हो। आप्त पुरुष कहलाने के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने ज्ञान को दूसरे की भलाई के लिए व्यवहार करता हो। आप्त पुरुष के उपदेशों को ही शब्द कहा गया है। न्यायसूत्र में शब्द की यह परिभाषा है – ‘‘आप्तोपदेशः शब्दः‘‘ । वेद पुराण, ऋषि, धर्मशास्त्र इत्यादि से जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे शब्द-ज्ञान कहा जाता है।
शब्दों का विभाजन दो दृष्टिकोणों से हुआ है। सर्वप्रथम शब्द को दो हिस्सों में बाँटा गया है – (1) दृष्टार्थ, (2) अदृष्टार्थ । दृष्टार्थ शब्द का अर्थ है ऐसे शब्द का ज्ञान जो संसार की प्रत्यक्ष की जा सकने वाली वस्तुओं से सम्बन्धित हो। उदाहरणस्वरूप यदि कोई व्यक्ति हमारे सामने हिमालय पहाड़ की बात रखता है, अथवा वह विदेशी व्यक्तियों के रहन-सहन की चर्चा हमारे सम्मुख करता है तो इसे दृष्टार्थ शब्द कहते हैं।
ऐसा शब्द जो प्रत्यक्ष नहीं की जाने वाली वस्तु से सम्बन्धित हो अदृष्टार्थ शब्द कहा जाता है। ऐसे शब्दों के उदाहरण धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, नीति-दुराचार आदि से सम्बन्धित बातें हैं। दूसरे दृष्टिकोण से शब्द का विभाजन दो वर्गों में हुआ है- (1) वैदिक शब्द, (2) लौकिक शब्द । वैदिक शब्द- वेद भारत का प्राचीन साहित्य है । वेद की रचना ईश्वर ने की है। अतः वेद में वर्णित सभी विषयों को संगत माना जाता है। वैदिक शब्द को संशयहीन तथा विश्वासपूर्ण माना जाता है। वेद की बातों को वैदिक शब्द कहा गया है।
लौकिक शब्द- साधारण मनुष्य के शब्द (वचन) को लौकिक शब्द कहते हैं। इनके निर्माता मनुष्य होते हैं। अतः लौकिक शब्द निरन्तर सत्य होने का दावा नहीं कर सकते। लौकिक शब्द और वैदिक शब्द में अन्तर यह है कि लौकिक शब्द मानवकृत होते हैं जबकि वैदिक शब्द ईश्वरकृत होते हैं। वैदिक शब्द ईश्वरीय वचन होने के कारण बिलकुल सत्य होते है परन्तु लौकिक शब्द सांसारिक मनुष्य के वचन होने के कारण सत्य भी हो सकते हैं और असत्य भी। वैशेषिक-दर्शन में शब्द को एक स्वतंत्र प्रमाण नहीं माना गया है। इसे अनुमान का प्रकार कहकर अनुमान के अन्तर्गत रखा गया है। सांख्य दर्शन केवल वैदिक शब्द को ही स्वतंत्र प्रमाण मानता है। चार्वाक शब्द को प्रमाण नहीं मानता है। न्याय-दर्शन में शब्द को एक स्वतंत्र प्रमाण के रूप में माना गया है।

वाक्य विवेचन –

नैयायिकों के अनुसार अर्थपूर्ण शब्दों के संयोग से वाक्य बनता है। वाक्यों को सार्थक होने के लिए चार शर्तों का पालन आवश्यक माना गया है। ये हैं- (1) आकाँक्षा, (2) योग्यता, (3) सन्निधि, (4) तात्पर्य ।
(1) आकाँक्षा- वाक्य सार्थक तभी हो सकता है जब उसके शब्दों में पारस्परिक सम्बन्ध की योग्यता हो। शब्द किसी सम्पूर्ण वाक्य का अंश मात्र होता है और इसीलिये किसी एक शब्द से सम्पूर्ण वाक्य के पूरे अर्थ को हम नहीं जान सकते हैं और उसे अन्य शब्दों की अपेक्षा रहती है। इसे ही आकाँक्षा कहते हैं। जैसे कोई कहता है ‘निकालो‘। इससे पूरा अर्थ नहीं निकलता अर्थात् किसको ‘निकालो‘। इस अर्थ को पूरा करने के लिये हमें जोड़ना पड़ता है- ‘चोर को‘। ऐसा करने से ही पूरा अर्थ स्पष्ट हो जाता है।
(2) योग्यता- कोई बात सार्थक तभी हो सकती है जब उसमें योग्यता भी हो। शब्दों मे केवल आकाँक्षा रहने से ही अर्थ का प्रकाशन नहीं होता। योग्यता का अर्थ है ‘‘पारस्परिक विरोध का अभाव‘‘। जैसे ‘‘आग से सींचो‘‘ ! ‘‘बर्फ से लकड़ी जलाओ‘‘। इन वाक्यों के शब्द परस्पर विरोधी हैं। आग से न सींचना सम्भव है और न बर्फ से जलाना ही सम्भव है। अतः वाक्य को सार्थक होने के लिये शब्दों को आत्म-विरोधी नहीं रहना चाहिए।
(3) सन्निधि- आकाँक्षा और योग्यता रहने के बावजूद जब तक लिखित या कथित शब्दों में क्रमशः स्थान अथवा समय की समीपता नहीं रहेगी. वाक्य का अर्थ नहीं निकल सकता। यदि हम दस घंटे का अन्तर देकर कहें- ‘‘एक…गाय…लाओ‘‘ तो इसका अर्थ नहीं निकलता। इसी प्रकार यदि हम एक पृष्ठ पर लिखें ‘गया‘ दूसरे पृष्ठ पर लिखें ‘कॉलेज‘ तथा तीसरे पृष्ठ पर लिखें ‘बन्द‘ और चौथे पर लिखें ‘है‘ तो इसका कोई अर्थ नहीं निकलता है। इससे प्रमाणित होता है कि शब्दों को एक दूसरे के समीप रहना चाहिये। इसे ‘‘सन्निधि‘‘ कहते हैं।
(4) तात्पर्य- विभिन्न परिस्थितियों एवं विभिन्न प्रसंगों में शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं। अतः कहने वाले अथवा लिखने वाले का अभिप्राय जानना आवश्यक है। मान लीजिये कि कोई कहता है – ‘सैन्धव लाओ‘ ‘सैन्धव‘ का अर्थ ‘घोडा‘ और ‘नमक‘ दोनों होता है। वैसी हालत में वक्ता का प्रसंग एवं अभिप्राय जानना आवश्यक है। यदि वह खाने के समय सैन्धव माँगे तो हमें समझना चाहिए कि वह नमक की माँग करता है। यदि वह अस्त्र-शस्त को लेकर लडाई के लिए प्रस्थान कर रहा हो तो हमें समझना चाहिये कि वह घोड़े की माँग कर रहा है।

उपमान –

न्याय-दर्शन में उपमान को एक प्रमाण माना गया है। उपमान के द्वारा जिस ज्ञान की प्राप्ति होती है उसे उपमिति कहते हैं। जैसे मान लीजिये किसी आदमी को यह ज्ञान नहीं है कि ‘नीलगाय‘ किस प्रकार की होती है परन्तु कोई विश्वासी व्यक्ति उसे कह देता है कि ‘नीलगाय‘ गाय के ही सदृश होती है। वह व्यक्ति जंगल में जाता है और वहाँ इस प्रकार का पशु दिख पड़ता है, तब वह तुरन्त समझ जाता है कि यह नीलगाय है। उसका यह ज्ञान उपमान के द्वारा प्राप्त होने के कारण उपमिति कहलाएगा। इस प्रकार हम सकते हैं कि उपमान एक ज्ञान का साधन है जिससे वस्तु का स्वभावबोध (Denotation) सूचित होता है। उपमान का विश्लेषण करने से हम निम्नांकित बातें पाते हैं –
(1) अज्ञात वस्तु को नहीं देखना।
(2) अज्ञात वस्तु के नाम की किसी ज्ञात वस्तु से समानता जानना।
(3) अज्ञात वस्तु का देखी हुई वस्तु के सादृश्य के आधार पर ज्ञान प्राप्त हो जाना।
उपमान हमारे जीवन के लिये अत्यन्त ही उपयोगी है । इसके द्वारा किसी वस्तु के स्वभावबोध का ज्ञान होता है। समानता के आधार पर नए विषयों को हम जान लेते हैं। इसके द्वारा नवीन आविष्कारों में भी सहायता मिली है।
उपमान को पाश्चात्य तर्कशास्त्र में सादृश्यानुमान (Analogy) कहा जाता है। यह ज्ञान सादृश्य के आधार पर प्राप्त होता है इसलिये इसे सादृश्यानुमान कहा जाता है। चार्वाक दर्शन उपमान को स्वतन्त्र प्रमाण नहीं मानता, वह तो सिर्फ प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है। बौद्ध-दर्शन में भी उपमान को प्रमाणिकता नहीं मिली है। जैन-दर्शन भी उपमान को प्रमाण नहीं मानता। वैशेषिक दर्शन के अनुसार उपमान कोई प्रमाण नहीं है। सांख्य भी उपमान को स्वतन्त्र प्रमाण नहीं मानता। सांख्य के मतानुसार उपमान एक प्रकार का प्रत्यक्ष है। मीमांसा, न्याय और अद्वैत वेदान्त ने उपमान को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में माना है। उपमान को स्वतन्त्र प्रमाण मानना पूर्णतः न्यायसंगत है। इसका कारण यह है कि उपमान प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, प्रत्यभिज्ञा से भिन्न है।
उपमान और प्रत्यक्ष में अन्तर- नीलगाय के प्रत्यक्षीकरण के बाद यह ज्ञान हो सकता है कि यह एक गाय है । परन्तु पहले से नीलगाय के सम्बन्ध में जानकारी के अभाव में उसे देख लेने के बावजूद उसे नीलगाय की संज्ञा नहीं दी जा सकती है।
उपमान और शब्द में अन्तर- यह ठीक है कि अपने मित्र द्वारा किये गये वर्णन के आधार पर मुझे नीलगाय का ज्ञान हुआ किन्तु सच्चे अर्थ में नीलगाय का ज्ञान देखने के बाद ही संभव होता है।
उपमान और अनुमान में भिन्नता- अनुमान में प्रत्यक्ष के आधार पर अप्रत्यक्ष का ज्ञान किया जाता है जबकि उपमान में सादृश्यता के आधार पर प्रत्यक्ष वस्तु का ज्ञान होता है।
उपमान और प्रत्यभिज्ञा में अन्तर- प्रत्यभिज्ञा से कोई नया ज्ञान नहीं मिलता है। इसके विपरीत उपमान हमें नया ज्ञान देता है।

न्याय का ईश्वर सम्बन्धी विचार (Nyaya Theology) –

न्याय दर्शन ईश्वरवादी दर्शन है और यह ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है। न्यायसूत्र में जिसके रचयिता गौतम हैं, ईश्वर का उल्लेख मिलता है। कणाद ने ईश्वर के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा है। बाद के वैशेषिक ने ईश्वर के स्वरूप की पूर्ण चर्चा की है। इस प्रकार न्याय वैषेषिक दोनों दर्शनों में ईश्वर को प्रामाणिकता मिली है, दोनों में अन्तर केवल मात्रा का है। न्याय ईश्वर पर अत्यधिक जोर देता है, जबकि वैशेषिक में उस पर उतना जोर नहीं दिया गया है। यही कारण है कि न्याय के ईश्वर-सम्बन्धी विचार भारतीय दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। प्रमाण-शास्त्र के बाद न्याय-दर्शन का महत्त्वपूर्ण अंग ईश्वर-विचार है। न्याय ईश्वर को प्रस्थापित करने के लिये अनेक तर्क प्रस्तुत करता है। उन तर्कों को जानने के पूर्व न्याय द्वारा प्रतिष्ठापित ईश्वर का स्वरूप जानना अपेक्षित है।
न्याय ने ईश्वर को एक आत्मा कहा है जो चैतन्य से युक्त है। न्याय के मतानुसार आत्मा दो प्रकार की होती है- (1) जीवात्मा, (2) परमात्मा। परमात्मा को ही ईश्वर कहा जाता है। ईश्वर जीवात्मा से पूर्णतः भिन्न है। ईश्वर का ज्ञान नित्य है.। वह नित्य ज्ञान के द्वारा सभी विषयों का अपरोक्ष ज्ञान रखता है परन्तु जीवात्मा का ज्ञान अनित्य, आंशिक और सीमित है। ईश्वर सभी प्रकार की पूर्णता से युक्त है जबकि जीवात्मा अपूर्ण है। ईश्वर न बद्ध है और न मुक्त। बन्धन और मोक्ष शब्द का प्रयोग ईश्वर पर नहीं लागू किया जा सकता। जीवात्मा इसके विपरीत पहले बन्धन में रहता है और बाद में मुक्त होता है। ईश्वर जीवात्मा के कर्मों का मूल्यांकन कर अपने को पिता के तुल्य सिद्ध करता है। ईश्वर जीवात्मा के प्रति वही व्यवहार रखता है जैसा व्यवहार एक पिता अपने पुत्र के प्रति रखता है। ईश्वर विश्व का सृष्टा, पालक और संहारक है। ईश्वर विश्व की सृष्टि शून्य से नही करता बल्कि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि के परमाणुओं तथा आकाश , काल, मन तथा आत्माओं के द्वारा करता है। ईश्वर के अभाव में सृष्टि की कल्पना भी नही की जा सकती है। न्याय दर्शन के अनुसार सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ व्यक्ति ईश्वर है, इस प्रकार विश्व की सृष्टि ईश्वर के सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ होने का प्रमाण है। ईश्वर विश्व का पालनकर्ता भी है। वह विश्व की विभिन्न वस्तुओं को रिथर रखने में सहायक होता है। यदि ईश्वर विश्व को धारण नही करे तो समस्त विश्व का अन्त हो जाय। विश्व को धारण करने की शक्ति सिर्फ ईश्वर में ही है, क्योंकि परमाणु और अदृष्ट अचेतन होने के कारण विश्व को धारण करने में असमर्थ है। ईश्वर को सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान है। ईश्वर की इच्छा के बिना विश्व का एक पत्ता भी नहीं गिर सकता।
ईश्वर सृष्टा और पालन-कर्ता होने के अतिरिक्त विश्व का संहर्ता भी है। जिस प्रकार मिट्टी के घड़े का नाश होता है उसी प्रकार विश्व का भी नाश होता है। जब-जब ईश्वर विश्व में नैतिक और धार्मिक पतन पाता है तब-तब वह विध्वंसक शक्तियों के द्वारा विश्व का विनाश करता है। वह विश्व का संहार नैतिक और धार्मिक अनुशासन के लिए करता है। ईश्वर मानव का कर्म-फलदाता है और हमारे सभी कर्मों का निर्णायक ईश्वर है। शुभ कर्मों का फल सुख तथा अशुभ कर्मों का फल दुःख होता है। जीवात्मा को शुभ अथवा अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर सुख अथवा दुःख प्रदान करता है। ईश्वर दयालु है और वह जीवों को कर्म करने के लिये प्रेरित करता है। कर्मों का फल प्रदान कर ही ईश्वर जीवात्माओं को कर्म करने के लिये प्रोत्साहित करता है। न्याय का ईश्वर व्यक्तिपूर्ण है जिनमें ज्ञान, सत्ता और आनन्द निहित हैं। ईश्वर की कृपा से ही मानव मोक्ष को अपनाने में सफल होता है। ईश्वर की कृपा से ही तत्त्व का ज्ञान प्राप्त होता है। तत्व-ज्ञान के आधार पर मानव मोक्षानुभूति की कामना करता है। इस प्रकार ईश्वर की कृपा के बिना मोक्ष असम्भव है। न्याय ईश्वर को अनन्त मानता है और ईश्वर अनन्त गुणों से युक्त है।

ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण (Proofs for the existence of God)

न्याय दर्शन न केवल ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है अपितु विविध शक्तियों द्वारा उसे सिद्ध भी करता है। उसके अनुसार ईश्वर ही जगत् का कर्ता, धर्ता एव संहर्ता है। उसी की अनुकम्पा से जीवात्मा तत्वज्ञान प्राप्त कर अपवर्ग की प्राप्ति करने में समर्थ होता है। ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने के निमित्त नैयायिक निम्नलिखित युक्तियॉ प्रस्तुत करते है –
(1) यह संसार एक कार्य है जिसका कोई समर्थ कारण अवश्य होना चाहिए और यह कारण ईश्वर ही है। संसार की विधित वस्तुओ में व्यवस्था, उनके आकार के रूप के निर्धारण तथा उनमे सहयोग के लिये ईश्वर ही अन्ततोगत्वा उत्तरदायी है।
(2) समस्त भौतिक पदार्थ परमाणुओ द्वारा निर्मित होते है। परमाणु मूलतः निष्क्रिय है तथा वे स्वतः वस्तुओ के निर्माण के लिये संगठित नही हो सकते। उनका एक सक्रिय नियोजक होना चाहिये। यह सर्वशक्तिमान् परमात्मा ही है जो उन्हे गति प्रदान करता है। हमारे वर्तमान जीवन के सुख-दुःख अदृष्ट (अच्छे या बुरे कर्मो से उत्पन पुण्यो तथा पापो के भण्डार) से उत्पन्न होते है किन्तु यह अचेतन है जो स्वतः कर्मो तथा उनके फलो मे व्यवस्था नहीं ला सकता क्योंकि इसे एक बुद्धिमान परिचालक चाहिये। यह परिचालक ईश्वर है जो अदृष्ट को गति प्रदान करता है।
(3) संसार का धारणकर्ता ईश्वर ही है। उसी की इच्छा से इसका विनाश होता है।
(4) शब्द अर्थयुक्त होते है तथा किसी विषय को सूचित करते है। शब्दो को उनके विषयों को सूचित करने की शक्ति प्रदान करने वाला ईश्वर ही है।
(5) ईश्वर वेदो का कर्ता है तथा वेद उसके अस्तित्व को प्रमाणित करते है।
(6) ईश्वर ही नैतिक नियमो का कर्ता तथा प्रवर्तक है।
(7) भौतिक जगत् के पदार्थ विभिन्न परमाणुओ की संख्या के सयोग से निर्मित होते है। संख्या सम्बन्धी विचार का मस्तिष्क से सम्बन्ध होता है। सष्टि के समय आत्माये, परमाणु, अदृष्ट, आकाश, काल, मन आदि सभी अचेतन अवस्था में रहते है। अतः संख्यात्मक विचार चेतन ईश्वर की प्रेरणा से ही उत्पन्न होते है।
(8) हम अपने अच्छे-बुरे कर्मो का ही फल भोगते हैं। हमारे पाप तथा पुण्यो का भण्डार अदृष्ट कहा जाता है। यह अचेतन है अतः इस अदृष्ट का संचालन ईश्वर की प्रेरणा से ही सम्भव हो सकता है।

न्याय दर्शन के ईश्वर सम्बन्धी विचारों के विरूद्ध आपत्तियॉ –

आलोचकों ने कई दृष्टियों से न्याय दर्शन के ईश्वर सम्बन्धी विचारों के विरूद्ध आपत्तियॉ दर्ज की है जिसका विवरण निम्नलिखित है –
(1) ईश्वर की पूर्णता को मानने के बाद सृष्टि-विचार की व्याख्या अमान्य हो जाती है। ऐसा कहा जाता है कि ईश्वर ने किसी प्रयोजन के लिए ही संसार की सृष्टि की है। अब प्रश्न यह है कि यदि ईश्वर पूर्ण है तब वह संसार की सृष्टि किस प्रयोजन से करता है। ईश्वर का निजी प्रयोजन सृष्टि में नही रह सकता है, क्योंकि उसकी कोई भी इच्छा अपूर्ण नही कही जा सकती। यदि यह कहा जाय कि ईश्वर ने जीवों के करुणावश ही संसार की सृष्टि की है, तब भी समस्या का समाधान नहीं हो पाता, क्योंकि विश्व की सृष्टि यदि करुणावश होती तो संसार में दुख, दैन्य, बीमारी, रोग, मृत्यु इत्यादि अपूर्णतायें नहीं दिखाई पड़ती। ईश्वर विश्व को सुखमय बना पाता, अतः विश्व का कारण ईश्वर को ठहराना भूल है।
(2) न्याय के ईश्वरवाद के विरुद्ध दूसरा आक्षेप यह है कि ईश्वर की कर्ता मानने से यह प्रमाणित होता है कि ईश्वर शरीर से युक्त है। इसका कारण यह है कि शरीर के बिना कोई कर्म नहीं हो सकता। परन्तु न्याय-दर्शन इस आक्षेप का उत्तर यह कहकर देता है कि ईश्वर की सत्ता श्रुति से प्रमाणित हो गयी है। अतः ईश्वर के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठाना समीचीन नहीं है।
(3) न्याय ने ईश्वर को सिद्ध करने के लिए दो तर्क वेद से सम्बन्धित दिये हैं। वे दो तर्क तीसरे और चौथे तर्क के रुप में चित्रित किये गये हैं। तीसरी युक्ति में वेद के प्रामाण्य का आधार ईश्वर को माना गया है। चौथी युक्ति में ईश्वर के अस्तित्व का आधार वेदों का प्रामाणिक होना कहा गया है। अतः आलोचकों ने न्याय की युक्ति में अन्योन्याश्रय-दोष का संकेत किया है परन्तु उनकी यह आलोचना अप्रमाण-संगत है। अन्योन्याश्रय-दोष का प्रादुर्भाव तभी होता है जब दो विषय एक ही दृष्टि से परस्पर निर्भर करते हों। परन्तु तीसरी और चौथी युक्तियों में ईश्वर दोनों विभित्र दृष्टियों से एक दूसरे पर निर्भर प्रतीत होते हैं। अस्तित्व की दृष्टि से वेद ईश्वर पर निर्भर है और इसका कारण यह है कि वेद की रचना ईश्वर ने की है परन्तु ज्ञान की दृष्टि से ईश्वर वेद पर निर्भर है, क्योंकि वेदों के द्वारा हमें ईश्वर का ज्ञान होता है।
(4) न्याय ने ईश्वर को सिद्ध करने के लिए जितने तर्क प्रस्तावित किये हैं उन सबके विरुद्ध में कहा जा सकता है कि वे ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने में पूर्णतः असफल हैं। इसका कारण यह है कि ईश्वर का ज्ञान साक्षात् अनुभव के द्वारा ही होता है। तार्किक युक्तियाँ ईश्वर का ज्ञान देने में असमर्थ हैं। ये युक्तियाँ मानव-विचारधारा को प्रमाणित करती हैं जो ईश्वर को जानने के लिए प्रयत्नशील हैं। अतः न्याय की युक्तियाँ ईश्वर के अस्तित्व की सम्भावना को सिद्ध करती हैं, ईश्वर के यथार्थ अस्तित्व को नहीं।
(5) ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए न्याय ने चौथी युक्ति में श्रुति का आश्रय लिया है। ईश्वर के अस्तित्व को इसलिए प्रमाणित किया गया है कि वेद, उपनिषद्, भगवद्गीता आदि श्रुतियाँ ईश्वर का उल्लेख करती हैं। यदि ईश्वर के अस्तित्व को श्रुति के आधार पर मान लिया जाय तो मानव की बौद्धिकता तथा स्वतन्त्र चिन्तन को गहरा धक्का लगता है। यदि ईश्वर का अस्तित्व श्रुति के दारा सिद्ध किया गया है तब ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने का न्याय का प्रयास निरर्थक प्रतीत होता है।
(6) न्याय-दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिये युक्तियों का आश्रय लिया गया है परन्तु ईश्वरीय अस्तित्व को युक्तियों के माध्यम से प्रमाणित करना संभव नही है। शंकर ने ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी प्रमाणों को निरर्थक सिद्ध किया है। कान्ट के मतानुसार ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी प्रमाण, ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने में सक्षम नहीं है। ईश्वर के अस्तित्व का आधार कान्ट ने विश्वास (Faith) को ठहराया है । ऐसी स्थिति में न्याय द्वारा प्रस्तावित ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी प्रमाणों का कोई औचित्य नहीं दिखता है।

न्याय के आत्मा, बंधन और मोक्ष सम्बन्धी विचार (Nyaya’s Conception of Soul,Bondage and Liberation)

आत्मा सम्बन्धी विचार –

न्याय के मतानुसार आत्मा एक द्रव्य है । सुख-दुख, राग-द्वेष, इच्छा, प्रयत्न और ज्ञान आत्मा के गुण है। धर्म और अधर्म भी आत्मा के गुण हैं और शुभ अशुभ कर्मों से उत्पन्न होते हैं।
न्याय आत्मा को स्वरूपतः अचेतन मानता है। आत्मा में चेतना का संचार एक विशेष परिस्थिति में होता है। चेतना का उदय आत्मा में तभी होता है जब आत्मा का सम्पर्क मन के साथ तथा मन का इन्द्रियों के साथ सम्पर्क होता है तथा इन्द्रियों का बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क होता है। यदि आत्मा का ऐसा सम्पर्क न हो तो आत्मा में चैतन्य का आविर्भाव नहीं हो सकता है। इस प्रकार चैतन्य आत्मा का आगन्तुक गुण (Accidental property) है। आत्मा वह द्रव्य है जो स्वरूपतः चेतन न होने के बावजूद भी चैतन्य को धारण करने की क्षमता रखती है। आत्मा का स्वाभाविक रूप सुषुप्ति और मोक्ष की अवस्थाओं में दिख पड़ता है जब वह चैतन्य-गुण से शून्य रहती है। जाग्रत अवस्थाओं में मन, इन्द्रियों तथा बाह्य जगत् से सम्पर्क होने के कारण आत्मा में चैतन्य का उदय होता है।
न्याय का आत्म-विचार जैन और सांख्य के आत्म-विचार का विरोधी है। जैन और सांख्य दर्शनों में आत्मा को स्वरूपतः चेतन माना गया है। इन दर्शनों में चैतन्य को आत्मा का गुण कहने के बजाय स्वभाव माना गया है। आत्मा शरीर से भिन्न है। शरीर को अपनी चेतना नहीं है। शरीर जड़ है परन्तु आत्मा चेतन है। शरीर आत्मा के अधीन है इसीलिये शरीर आत्मा के बिना क्रिया नहीं कर सकता है।
आत्मा बाह्य इन्द्रियों से भिन्न है क्योंकि कल्पना, विचार आदि मानसिक व्यापार बाह्य इन्द्रियों के कार्य नहीं हैं। आत्मा मन से भी भित्र है। न्याय-दर्शन में मन को अणु माना गया है। अणु होने के कारण मन अप्रत्यक्ष है। मन को आत्मा मानने से सुख, दुःख भी मन ही के गुण होंगे तथा वे अणु की तरह अप्रत्यक्ष होंगे। परन्तु सुख, दुःख की प्रत्यक्ष अनुभूति हमें मिलती है जो यह प्रमाणित करता है कि सुख, दुःख मन के गुण नहीं है। अतः मन को आत्मा नहीं माना जा सकता है।
आत्मा को विज्ञान का प्रवाह (Stream of Consciousness) मानना भी अप्रमाण-संगत है। यदि हम आत्मा को विज्ञान का प्रवाह मात्र मानते हैं तो वैसी हालत में स्मृति की व्याख्या करना हो जाता है। अतः बौद्ध दर्शन ने आत्मा को विज्ञान का प्रवाह मानकर भारी भूल की है।
आत्मा को शुद्ध चैतन्य (Pure Consciousness) मानना जैसा कि शंकर ने माना है, भी भ्रामक है। इसका कारण यह है कि शुद्ध चैतन्य नामक कोई पदार्थ नहीं है। चैतन्य को आत्मा मानने के बदले द्रव्य को आत्मा मानना, जिसका गुण चैतन्य हो, न्याय के मतानुसार मान्य है।

बंधन और मोक्ष सम्बन्धी विचार –

न्याय-दर्शन में अन्य भारतीय दर्शनों की तरह जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष के स्वरूप और उसके साधन की चर्चा करने के पूर्व बन्धन के सम्बन्ध में कुछ जानना अपेक्षित होगा। न्याय के मतानुसार आत्मा, शरीर इन्द्रिय और मन से भिन्न है परन्तु अज्ञान के कारण आत्मा, शरीर इन्द्रिय अथवा मन से अपना पार्थक्य नहीं समझती। इसके विपरीत वह शरीर, इन्द्रिय और मन को अपना अंग समझने लगती है। इन विषयों के साथ वह तादात्मयता हासिल करती है और इसे ही बन्धन कहते हैं। बन्धन की अवस्था में मानव मन में गलत धारणायें निवास करने लगती हैं। इनमें कुछ गलत धारणाएँ निम्नांकित हैं –
(1) अनात्म तत्त्व को आत्मा समझना ।
(2) क्षणिक वस्तु को स्थायी समझना।
(3) दुःख को सुख समझना।
(4) अप्रिय वस्तु को प्रिय समझना।
(5) कर्म एवं कर्म-फल का निषेध करना।
(6) अपवर्ग के सम्बन्ध में सन्देह करना।
बन्धन की अवस्था में आत्मा को सांसारिक दुःखों के अधीन रहना पड़ता है और आत्मा को निरन्तर जन्म ग्रहण करना पड़ता है। इस प्रकार जीवन के दुःखों को सहना तथा पुनः पुनः जन्म ग्रहण करना ही बन्धन है। बन्धन का अन्त मोक्ष है।
नैयायिकों के अनुसार मोक्ष दुःख के पूर्ण निरोध की अवस्था है। मोक्ष को अपवर्ग कहते हैं। अपवर्ग का अर्थ है शरीर और इन्द्रियों के बन्धन से आत्मा का मुक्त होना। जब तक आत्मा शरीर इन्द्रिय और मन से ग्रसित रहती है तब तक उसे दुःख से पूर्ण छटकारा नहीं मिल सकता है। गौतम ने दुःख के आत्यन्तिक उच्छेद को मोक्ष कहा है। हमें प्रगाढ़ निद्रा के समय, किसी रोग से विमुक्त होने पर दुःख से छुटकारा मिलता है उसे मोक्ष नहीं कहा जा सकता है। इसका कारण यह है कि इन अवस्थाओं में दुःख से छुटकारा कुछ ही काल तक के लिए मिलता है और पुनः दुःख की अनुभूति होती है। मोक्ष इसके विपरीत दुःखों से हमेशा के लिए मुक्त हो जाने का नाम है।
.नैयायिकों के मतानुसार मोक्ष एक ऐसी अवस्था है जिसमें आत्मा के केवल दुःखों का ही अन्त नहीं होता है बल्कि उसके सुखों का भी अन्त हो जाता है। मोक्ष की अवस्था को आनन्दविहीन माना गया है। आनन्द सर्वदा दुःख से मिले रहते हैं। दुःख के अभाव में आनन्द का भी नाश हो जाता है। कुछ नैयायिकों का कहना है कि आनन्द की प्राप्ति शरीर के माध्यम से होती है। मोक्ष में शरीर का नाश हो जाने से आनन्द का भी अभाव हो जाता है। इससे प्रमाणित होता है कि मोक्ष में आत्मा अपनी स्वाभाविक अवस्था में आ जाती है। वह सुख-दुःख से शून्य होकर बिलकुल अचेतन हो जाती है। किसी प्रकार की अनुभूति उसमें शेष नहीं रह जाती है। यह आत्मा की चरम अवस्था है। इसका वर्णन अभयम् (freedom from fear), अजरम् (freedom from decay and change) अमृत्युपादम (freedom from death) इत्यादि अभावात्मक रूपों में हुआ है। अब प्रश्न उठता है कि मोक्ष प्राप्त करने के उपाय क्या हैं ? नैयायिकों के अनुसार सांसारिक दुःखों या बन्धन का मूल कारण अज्ञान है। अज्ञान का नाश तत्त्व ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है और तत्त्व ज्ञान होने पर मिथ्या ज्ञान स्वयं निवृत्त हो जाता है।
शरीर को आत्मा समझना मिथ्या ज्ञान है। इस मिथ्या ज्ञान का नाश तभी हो सकता है जब आत्मा अपने को शरीर इन्द्रियों या मन से भिन्न समझे इसलिए तत्त्व-ज्ञान को अपनाना आवश्यक है। मोक्ष पाने के लिये न्याय-दर्शन में श्रवण, मनन और निदिध्यासन पर जोर दिया गया है। श्रवण का अर्थ मोक्ष पाने के लिये शास्त्रों का विशेष रूप से उनके आत्मा विषयक उपदेशों को सुनना चाहिये। मनन का तात्पर्य शास्त्रों के आत्मा विषयक ज्ञान पर विचार करना चाहिये तथा उसे सुदृढ़ बनाना चाहिये। और निदिध्यासनका अर्थ मनन के बाद योग के बतलाये गये मार्ग के अनुसार आत्मा का निरन्तर ध्यान करना अपेक्षित है। इसे ही निदिध्यासन कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि ये योग के आठ अंग हैं। इन अभ्यासों का फल यह होता है कि मनुष्य आत्मा को शरीर से भिन्न समझने लगता है। मनुष्य के इस मिथ्या ज्ञान ‘‘मैं शरीर और मन हूॅं‘‘ का अन्त हो जाता है और उसे आत्म-ज्ञान होता है। आत्मा को जकडने वाले धर्म और अधर्म का सर्वप्रथम नाश हो जाने से शरीर और ज्ञानेन्द्रियों का नाश हो जाता है। आत्मा को वासनाओं और प्रवृतियों पर विजय होती है। इस प्रकार आत्मा पुनर्जन्म और दुख से मुक्त हो जाती है। यही अपवर्ग है। न्याय-दर्शन में सिर्फ विदेह मुक्ति को प्रमाणिकता मिली है, जीवन मुक्ति जिसे बुद्ध. सांख्य, शंकर मानते है. नैयायिकों का मान्य नहीं है।

न्याय के मोक्ष विचार को काफी आलोचना भी हुई है। न्याय में मोक्ष को अभावात्मक अवस्था कहा गया है। इस अवस्था की प्राप्ति से सभी प्रकार के सुख-दुःख, धर्म-अधर्म का नाश हो जाता है। इसलिये वेदान्तियों ने न्याय के मोक्ष सम्बन्धी विचार की आलोचना यह कहकर की है कि यहाँ आत्मा पत्थर के समान हो जाती है। मोक्ष का आदर्श इस प्रकार उत्साहवर्द्धक नहीं रहता है। ऐसे मोक्ष को अपनाने के लिये प्रयत्नशील रहना जिसमें आत्मा पत्थर के समान हो जाती है, बुद्धिमता नहीं है। चार्वाक का कहना है कि पत्थर की तरह अनुभवहीन बन जाने की अभिलाषा गौतम जैसे आले दर्जे का मूर्ख ही कर सकता है। कुछ आलोचकों ने इसीलिये न्याय के मोक्ष को एक अर्थहीन शब्द कहा है। एक वैष्णव विचारक न्याय के मोक्ष-विचार की आलोचना करते हुए कहते है कि न्याय-दर्शन में जिस प्रकार की मुक्ति की कल्पना की गई है उसे प्राप्त करने से अच्छा तो यह हो कि हम सियार बनकर वृन्दावन के सुन्दर जंगल में विचरण करें।
न्याय ने मोक्ष को आनन्द से शून्य माना है। उसका कहना है कि आनन्द दुःख से मिश्रित रहता है। दुःख के अभाव में आनन्द का भी अभाव हो जाता है। परन्तु नैयायिक यहाँ भूल जाता है कि आनन्द, सुख से भिन्न है । मोक्ष में जिस आनन्द की प्राप्ति होती है वह सांसारिक दुःख और सुख से परे है। अतः मोक्ष को आनन्दमय मानना भ्रामक नहीं है।
नैयायिक इन कठिनाइयों से आगे चलकर अवगत होता है। नव्य-नैयायिकों ने मोक्ष को आनन्दमय अवस्था माना है परन्तु मोक्ष को आनन्दमय मानना न्याय के आत्मा सम्बन्धी विचार से असंगत है। इसे मानने के लिये आत्मा को स्वरूपतः चेतन मानना आवश्यक है।

न्याय दर्शन का मूल्यांकन –

इस प्रकार इन विविध युक्तियो के द्वारा न्याय दर्शन इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि ईश्वर का अस्तित्व है तथा वह सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, नित्य एवं सर्वव्यापी सत्ता है। न्याय दर्शन की मुख्य विशेषता उसकी तत्व मीमांसा, तर्क शक्ति तथा पद्धति है जिसने सभी भारतीय सम्प्रदायों को प्रभावित किया है। किन्तु .इसके आत्मा तथा मोक्ष सम्बन्धी विचार संतोषजनक नहीं है। न्याय मोक्ष की अवस्था को चेतन्य, आनन्द आदि सभी गुणों से शून्य मानता है। ऐसी दशा मे तो मुक्त आत्मा पाषाणवत् हो जायेगी। इसी को लक्ष्य कर श्रीहर्ष ने व्यंग्य कसा है कि गौतम ने ऐसे दर्शन का प्रतिपादन कर अपना ‘गोतम‘ (श्रेष्ठ वृषभ) नाम ही सार्थक किया है।
भारतीय दर्शन में न्याय दर्शन का प्रधान योगदान उसका ज्ञान शास्त एवं तर्कशास्त्र है। न्याय ने भारतीय दर्शन को विचार पद्धति प्रदान की है जिसका पालन भारत के अन्य दर्शनों में भी हुआ है। भारतीय दर्शन के विरुद्ध प्रायः यह आलोचना की जाती है कि यह युक्ति प्रधान नहीं है क्योंकि यह आप्त वचनों पर आधारित है। न्याय-दर्शन ऐसी आलोचना के लिए मंहतोड़ जवाब है। परन्तु तत्त्वविचार के क्षेत्र में न्याय का विचार उतना मान्य नहीं है जितना इसका प्रमाणशास्त्र है। न्याय का आत्म-विचार युक्तिहीन है। चैतन्य को आत्मा का आकस्मिक गण मानकर न्याय ने भारी भूल की है। न्याय का आत्म-विचार सांख्य और वेदान्त के आत्म-विचार से हीन प्रतीत होता है। न्याय का मोक्ष सम्बन्धी विचार भी अमान्य है। न्याय का विचार कि मुक्त आत्मा चेतनाहीन होता है, भ्रामक है। यही कारण है कि न्याय के मोक्ष विचार की काफी आलोचना हुई है।
न्याय का ईश्वर-विचार भी समीचीन नहीं है। यद्यपि न्याय ईश्वरवाद को मानता है, फिर भी उसका ईश्वरवाद धार्मिकता की रक्षा करने में असमर्थ है। ईश्वर को मानव और विश्व से परे मानकर न्याय ने धार्मिक भावना को प्रश्रय नहीं दिया है। अतः न्याय का ईश्वरवाद अविकसित एवं अपूर्ण है।

सन्दर्भ –

  1. देखिए माण्डूक्य उपनिषद् (6)।
  2. देखिए श्वेताष्वतर उपनिषद् (18)।
  3. देखिए कौषितक्यु उपनिषद् (47-48)।
  4. देखिए वृहदारण्यक उपनिषद् (4, 4)।
  5. देखिए भगवत् गीता (नवम अध्याय 17-18)
  6. देखिए तर्क संग्रह, पृ0सं0 20 ।
  7. हरिमोहन झा, न्याय दर्शन पृ0सं0 72-73
  8. एस0 सी0 चटर्जी, द न्याय थ्योरी ऑफ नालेज पृ0सं0 38
  9. मैक्स मूलर, सिक्स सिस्टम्स ऑफ इण्डियन फिलोसोफी पृ0सं0 215-216

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