window.location = "http://www.yoururl.com"; The Vedanta Philosophy and advaitism of Shanker. // वेदांत दर्शन और शंकर काअद्वैतवाद

The Vedanta Philosophy and advaitism of Shanker. // वेदांत दर्शन और शंकर काअद्वैतवाद



विषय-प्रवेश :

भारत में जितने दर्शनों का विकास हुआ, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण दर्शन वेदान्त को ही माना जाता है। इसकी महत्ता इस बात से भी प्रतिपादित होती है कि यूरोप के विद्वान् बहुत काल तक भारतीय दर्शन का अर्थ वेदान्त दर्शन ही समझा करते थे। वेदान्त-दर्शन का आधार उपनिषद् को माना जाता है। पहले वेदान्त शब्द का प्रयोग उपनिषद के लिए ही होता था क्योंकि उपनिषद् वेद के अन्तिम भाग थे। वेद का अन्त (वेद+अन्त) होने के कारण उपनिषदों को वेदान्त कहा जाता था। बाद में चलकर उपनिषदों से जितने दर्शन विकसित हुए सभी को वेदान्त की संज्ञा से विभूषित किया गया। वेदान्त-दर्शन को इसी अर्थ मे वेदान्त-दर्शन कहा जाता है।

वेदान्त दर्शन का आधार वादरायण का ’ब्रह्मसूत्र’ है। ‘ब्रह्मसूत्र’ उपनिषदों के विचारों में सामंजस्य लाने के उद्देश्य से ही लिखा गया था। उपनिषदों की संख्या अनेक थी और उपनिषदों की शिक्षा को लेकर विद्वानों में मतभेद था। कुछ लोगों का कहना था कि उपनिषद् की शिक्षाओं में संगति नहीं है। जिस बात की शिक्षा एक उपनिषद् में दी गई है, उसी बात को दूसरे उपनिषद् में काटा गया है। कुछ विद्वानों का मत था कि उपनिषद् एकवाद (Monism) की शिक्षा है तो कुछ लोगों का मत था कि उपनिषद् द्वैतवाद (Dualism) की शिक्षा देता है। वादरायण ने, कुछ लोगों के दृष्टिकोण में जो विरोध था उसे दूर करने के लिए ब्रह्मसूत्र’ की रचना की। उन्होंने बतलाया कि समस्त उपनिषद् विचार में एकमत हैं। उपनिषद की उक्तियों में जो विषमता दीख पडती है वह उपनिषदों को न समझने के कारण ही है। ‘ब्रह्मसूत्र’ को ब्रह्मसूत्र कहा जाता है क्योंकि इसमें ब्रह्म-सिद्धान्त की व्याख्या हुई है। ब्रह्मसूत्र को वेदान्त-सूत्र भी कहा जाता है क्योंकि वेदान्त दर्शन ब्रह्मसूत्र से ही प्रतिफलित हुआ है। इन दो नामों के अतिरिक्त इसे शारीरिक-सूत्र, शारीरिक मीमांसा तथा उत्तर-मीमांसा भी कहा जाता है। ब्रह्मसूत्र के चार अध्याय हैं। पहले अध्याय में ब्रह्म-विषयक विचार हैं। दूसरे अध्याय में पहले अध्याय की बातों का तर्क द्वारा पुष्टिकरण हुआ है तथा विरोधी दर्शनों का खण्डन भी हुआ है। तीसरे अध्याय में ’साधना’ से सम्बन्धित सूत्र हैं और चौथे अध्याय में मुक्ति के फलों के सम्बन्ध में चर्चा है।

ब्रह्मसूत्र अन्य सूत्रों की तरह संक्षिप्त और दुर्बोध थे। इसके फलस्वरूप अनेक प्रकार की शंकायें उपस्थित हुईं। इन शंकाओं के समाधान की आवश्यकता महसूस हुई। इस उद्देश्य से अनेक भाष्यकारों ने ब्रह्मसूत्र पर अपना अलग-अलग भाष्य लिखा। प्रत्येक भाष्यकार ने अपनी भाष्य की पुष्टि के निमित्त वेद और उपनिषद् में वर्णित विचारों का उल्लेख किया। जितने भाष्यकार हुए उतना ही वेदान्त-दर्शन का सम्प्रदाय विकसित हुआ।
शंकर, रामानुज, मध्वाचार्य, बल्लभाचार्य, निम्बार्क इत्यादि वेदान्त-दर्शन के विभिन्न सम्प्रदाय के प्रवर्तक बन गये। इस प्रकार वेदान्त-दर्शन के अनेक सम्प्रदाय विकसित हुए जिसमें कुछ प्रमुख इस प्रकार है।

शंकर का अद्वैत वेदांत (The Advaita Vedanta of Sankara)-

जीव और ब्रह्म में क्या सम्बन्ध है ?- यह वेदान्त-दर्शन का प्रमुख प्रश्न है। इस प्रश्न के विभिन्न उत्तर दिये गये हैं। उत्तरों की विभिन्नता के कारण वेदान्त के विभिन्न सम्प्रदायों का जन्म हुआ है। शंकर के मतानुसार जीव और ब्रह्म दो नहीं हैं । वे वस्तुतः अद्वैत हैं। यही कारण है कि शंकर के दर्शन को अद्वैतवाद कहा जाता है। वेदान्त के जितने सम्प्रदाय हैं, उनमें सबसे प्रधान शंकर का अद्वैत-दर्शन कहा जाता है। शंकर की गणना भारत के श्रेष्ठतम विचारकों में की जाती है। इसका कारण यह है कि शंकर में आलोचनात्मक और सृजनात्मक प्रतिभा समान रूप से है। तर्क-बुद्धि की दृष्टि से शंकर-अद्वैतवाद भारतीय दर्शनाकोश को निरन्तर आलोकित करता रहेगा। यही कारण है कि शंकर का दर्शन आधुनिक काल के यूरोपीय और भारतीय दार्शनिकों को प्रभावित करने में सफल हुआ ह। स्पीनोजा और ब्रेडले के दर्शन में हम शंकर के विचारों की प्रतिध्वनि पाते हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर, डॉ. राधाकृष्णन्, प्रो० के० सी० भट्टाचार्य, श्री अरविन्द, स्वामी विवेकानन्द इत्यादि दार्शनिकों में भी अद्वैत-दर्शन का प्रभाव किसी-न-किसी रूप में दीख पड़ता है। शंकर के दर्शन की व्याख्या करते समय डॉ. राधाकृष्णन् की ये पंक्तियां उल्लेखनीय हैं। उनके शब्दों में “उनका दर्शन सम्पूर्ण रूप में उपस्थित है जिसमें न किसी पूर्व की आवश्यकता है और न अपर की“… चाहे हम सहमत हों अथवा नहीं उनके मस्तिष्क का प्रकाश हमें प्रभावित किये बिना नहीं छोड़ता।“’ चार्ल्स इलियट (Charles Eliot) ने कहा है “शंकर का दर्शन संगीत पूर्णता और गम्भीरता में प्रथम स्थान रखता है।“’ डॉ० दास गुप्त ने कहा है “शंकर के द्वारा प्रस्थापित दर्शन का प्रभाव इतना व्यापक है कि जब भी हम वेदान्त-दर्शन की चर्चा करते हैं तो हमारा तात्पर्य उस दर्शन से होता है जो शंकर के द्वारा मंडित किया गया है।“

प्राचीन भारत के दार्शनिकों में शंकराचार्य का नाम अग्रगण्य है। उनका जन्म केरल प्रान्त के मालाबार तट के करीब अल्वर नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित कलादी नामक ग्राम में 788 ई0 के लगभग हुआ था। इनके पिता शिवगुरू नम्बूतिरि ब्राह्मण थे तथा उनकी माता का नाम आर्यमबा था। बचपन में ही उनके पिता का देहान्त हो गया जिनसे उनके पालन-पोषण का सारा भार उनकी माता पर ही पडा। माता ने उनकी शिक्षा-दीक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया। शंकर अत्यन्त प्रखर बुद्धि के थे और कहा जाता है कि आठ वर्ष की अवस्था में वे सम्पूर्ण वेद का अध्ययन समाप्त कर चुके थे। तत्पश्चात वे घर लौटकर शिक्षा देने का कार्य करने लगे और शीध्र ही उनकी ख्याति एक कुशल शिक्षक के रूप में दूर दूर तक फैल गई। इनकी ख्याति सुनकर केरल के राजा ने उन्हे दरबार में पंडित बनाने का प्रस्ताव भेजा किन्तु शंकराचार्य ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। शीध््रा ही शंकर ने अपनी माता से अनुमति लेकर सन्यास ग्रहण कर लिया।

गृहत्याग के पश्चात् सर्वप्रथम शंकराचार्य नर्मदा नदी के तट पर पहुॅचे जहॉ गोविन्द योगी को अपना प्रथम गुरू बनाया। गुरू ने उन्हे परमवंश की उपाधि प्रदान की। अपने गुरू से आज्ञा लेकर अपने ज्ञान के प्रचार के लिए शंकराचार्य काशी पहुॅचें जहॉ वे भगवान शंकर की अराधना और अपने ज्ञान के प्रचार के कार्यो में जुट गये। कहा जाता है कि एक बार स्वयं भगवान शंकर ने उनकी परीक्षा ली और अद्वैत मत का ज्ञान कराया। ज्ञान प्राप्त करने की उत्कृष्ट अभिलाषा में शंकराचार्य ने काश्मीर से कन्याकुमारी तक के विभिन्न स्थलों का व्यापक भ्रमण किया। इस दौरान अनेक आचार्यो के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ। नर्मदा नदी के तट पर ही महिष्मति में उनका मण्डन मिश्र तथा उनकी पत्नी के साथ शास्त्रार्थ हुआ। इन दोनों ने अपनी पराजय स्वीकार की तथा शंकर के शिष्य बन गये। शंकराचार्य ने देश के चारों दिशाओं – उत्तर में केदारनाथ, दक्षिण में श्रृंगेरी, पूरब में पुरी तथा पश्चिम में द्वारका – में प्रसिद्ध मठों की स्थापना की। इनका देहान्त ३२ वर्ष की अल्पायु में ही हुआ था परन्तु इतने कम समय में उन्होंने दर्शन की जो सेवा की, उसका उदाहरण भारत क्या विश्व के दर्शन नहीं मिल पाता है। इन्होंने प्रधान उपनिषदों और गीता के ऊपर भी ब्रह्मसूत्र के अलावा भाष्य लिखा है। इनके अतिरिक्त भी उनके कुछ और दार्शनिक साहित्य दीख पड़ते हैं । अद्वैत वेदान्त के सर्वप्रथम समर्थक में गौडपाद का नाम आता है जो शंकर के गुरु गोविन्द के गुरु थे परन्तु अद्वैत वेदान्त का पूर्णतः शिलान्यास शंकर के द्वारा ही हो पाता है।

शंकर का जगत-विचार (Sankara’s theory of world)-

शंकर के दर्शन में विश्व की व्याख्या अत्यन्त ही तुच्छ शब्दों में की गई है। शंकर ने विश्व को पूर्णतः सत्य नहीं माना है। शंकर के मतानुसार ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है शेष सभी वस्तुएं ईश्वर, जीव जगत् प्रपंच है। शंकर के दर्शन की व्याख्या सुन्दर ढंग से इन शब्दों में की गई है, “ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः“ ।(ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है। जगत् मिथ्या है तथा जीव और ब्रह्म अभिन्न है)। शंकर ने जगत् को रस्सी में दिखाई देने वाले साँप के समान माना है। यद्यपि जगत् मिथ्या है फिर भी जगत् का कुछ-न-कुछ आधार है। जिस प्रकार रस्सी में दिखाई देने वाला साँप का आधार रस्सी है उसी तरह विश्व का आधार ब्रह्म है। अतः ब्रह्म विश्व का अधिष्ठान है। जिस प्रकार सांप रस्सी के वास्तविक स्वरूप पर आवरण डाल देता है उसी प्रकार जगत् ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप पर आवरण डाल देता है और उसके रूप का विक्षेप जगत् यथार्थ प्रतीत होने लगता है। शंकर के मतानुसार सम्पूर्ण जगत् ब्रह्म का विवर्त मात्र है। जिस प्रकार साँप रस्सी का विवर्त है उसी प्रकार विश्व भी.ब्रह्म का विवर्त है। देखने में ऐसा मालूम होता है कि विश्व ब्रह्म का रूपान्तरित रूप है परन्तु यह केवल प्रतीतिमात्र है। ब्रह्म सत्य है। विश्व असत्य है। अतः सत्य ब्रह्म का रूपान्तर असत्य वस्तु में कैसे हो सकता है? ब्रह्म एक है विश्व नानारूपात्मक हैं। एक का रूपान्तर अनेक में मानना हास्यास्पद है। ब्रह्म अपरिवर्तनशील है, विश्व परिवर्तनशील है। अपरिवर्तनशील ब्रह्म का रूपान्तर परिवर्तनशील विश्व में मानना भ्रामक है। अतः शंकर विवर्तवाद का समर्थक है। यदि यह परिवर्तनशील संसार आभास मात्र है तब इस संसार को जादूगर के खेल की तरह समझा जा सकता है। जिस प्रकार जादूगर जादू की प्रवीणता से एक सिक्के को अनेक सिक्कों के रूप में परिवर्तित करता है, बीज से वृक्ष उत्पन्न करता है, फलफूल उगाता है, उसी प्रकार ब्रह्म माया की शक्ति के द्वारा विश्व का प्रदर्शन करता है। जिस प्रकार जादूगर अपने जादू से स्वयं प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्म भी माया से प्रभावित नहीं होता। इस प्रकार शंकर ने जगत् को जादू की उपमा से समझाने का प्रयास किया है। शंकर के विश्व सम्बन्धी विचार को भलीभांति समझने के लिए त्रिविध सत्ताओं (Three grades of Existences) पर विचार करना अपेक्षित होगा। शंकर के मतानुसार सभी सामान्य विषय तीन कोटि  में विभाजित किये जा सकते हैं-

  1. प्रातिभासिक सत्ता (Apparent existence)  
  2. व्यावहारिक सत्ता (Practical existence) 
  3. पारमार्थिक सत्ता (Supreme Existence)

प्रतिभासिक सत्ता के अन्दर वे विषय आते हैं जो स्वप्न अथवा भ्रम में उपस्थित होते हैं । ये क्षण भर के लिये रहते हैं। इनका खंडन जाग्रत अवस्था के अनुभवों से हो जाता है।
व्यावहारिक सत्ता के अन्दर वे वस्तुएं आती हैं जो हमारे जाग्रत अवस्था में सत्य प्रतीत होती हैं। ये व्यावहारिक जीवन को सफल बनाने में सहायक होते हैं। चूंकि ये वस्तुएं तार्किक दृष्टि से खण्डित होने की क्षमता रखती हैं इसलिये इन्हें पूर्णतः सत्य नहीं माना जाता है। इस प्रकार में आने वाली वस्तुओं का उदाहरण टेबुल, कुर्सी इत्यादि हैं।
पारमार्थिक सत्ता शुद्ध सत्ता है जो न बाधित होती और न जिसके बाधित होने की कल्पना की जा सकती है। शंकर के मतानुसार जगत् को व्यावहारिक सत्ता में रखा जा सकता है। जगत् व्यावहारिक दृष्टिकोण से पूर्णतः सत्य है। जगत् प्रतिभासिक सत्ता की अपेक्षा अधिक सत्य है और पारमार्थिक सत्ता की अपेक्षा कम सत्य है। जगत् को शंकर ने न पूर्णतः सत्य माना है और न भ्रम और स्वप्न की तरह मिथ्या माना है। जगत् तभी असत्य होता है जब जगत् की व्याख्या पारमार्थिक दृष्टि से की जाती है।

शंकर ने विश्व को पारमार्थिक दृष्टि से असत्य सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तर्कों का प्रयोग किया है

(1) जो वस्तु सर्वदा वर्तमान रहती है उसे सत्य माना जाता है परन्तु जो वस्तु सर्वदा वर्तमान नहीं रहती है, वह असत्य है, जगत् की उत्पत्ति और विनाश होता है। इससे सिद्ध होता है कि जगत् निरन्तर विद्यमान नहीं रहता है। अतः जगत् असत्य है।
(2) जो अपरिवर्तशील है वह सत्य है, जो अपरिवर्तनशील नहीं है वह असत्य है। ब्रह्म सत्य है, क्योंकि वह अपरिवर्तनशील है। इसके विपरीत विश्व असत्य है, क्योंकि वह परिवर्तनशील है ।
(3) जो देश, काल और कारण-नियम के अधीन है वह सत्य नहीं है। जो देश, काल और कारणनियम से स्वतंत्र है, वह सत्य है। जगत् देश, काल और कारण-नियम के अधीन रहने के कारण असत्य है।
(4) विश्व की वस्तुएं दृश्य हैं। जिस प्रकार स्वप्न की वस्तुएं दृश्य हैं उसी प्रकार विश्व की वस्तुएं दृश्य हैं। जो दृश्य है वह मिथ्या है, क्योंकि वह अविद्या-कल्पित है। विश्व दृश्य की वस्तु होने के कारण पारमार्थिक दृष्टिकोण से असत्य है।
(5) जगत् ब्रह्म का विवर्त है। ब्रह्म जगत् रूपी प्रपंच का अधिष्ठान है जो विवर्त है उसे परमार्थतः सत्य नहीं कहा जा सकता है। अतः विश्व असत्य है।
(6) जो परा विद्या से ज्ञात होता है वह सत्य है और जो अपरा विद्या से ज्ञात होता है वह सत्य नहीं है। ब्रह्म परा विद्या से ज्ञात होता है; इसलिए वह सत्य है। जगत् अपरा विद्या का विषय है इसलिये जगत् मिथ्या है।
(7) जिस प्रकार स्वप्न और भ्रम की चीजें मिथ्या होने पर भी सत्य प्रतीत होती हैं वैसे ही यह जगत् परमार्थतः असत्य होते हुए भी सत्य प्रतीत होता है। ब्रह्म परमार्थतः सत्य है । जगत् इसके विपरीत व्यवहारतः सत्य है। अतः जगत् परमार्थतः सत्य नहीं है।

शंकर के अनुसार विश्व का आधार ब्रह्म है जिसका आधार यथार्थ हो वह अयथार्थ नहीं कहा जा सकता है। जिस प्रकार मिट्टी वास्तविक है उसी प्रकार उसका रूपान्तर भी वास्तविक है। यह जगत् तात्त्विक रूप में ब्रह्म है क्योंकि वह उसके ऊपर आश्रित है। यह जगत् ब्रह्म का प्रतीति रूप है जो सत्य शंकर का जगत्-विचार बौद्ध-मत के शून्यवाद के जगत्-विचार से भिन्न है। शून्यवाद के अनुसार जगत् का आधार असत् है जबकि शंकर के अन जगत् का आधार सत् है। शंकर का जगत्-विचार बौद्ध-मत के विज्ञानवाद के जगत्-विचार से भिन्न है। विज्ञानवादियों के अनुसार मानसिक प्रत्यय ही जगत् के रूप में दिखाई देता है परन्तु शंकर के अनुसार विश्व का आधार विज्ञान-मात्र नहीं है। यही कारण है कि विज्ञानवाद ने विश्व को आत्मनिष्ठ (Subiectivat) माना है जबकि शंकर ने विश्व को वस्तुनिष्ठ (Objective) माना है।

शंकर के विश्व-सम्बन्धी विचार और ब्रैडले (Bradley) के विश्व-संबंधी विचार में साम्य है। शंकर ने विश्व को ब्रह्म का विवर्त माना है। ब्रैडले ने भी विश्व को ब्रह्म का आभास (Appearance) कहा है। दोनों के दर्शन में विश्व का स्थान समान है।
शंकर ने बौद्ध-दर्शन की तरह विश्व को अनित्य और असत्य माना है। इसलिये शंकर को कछ। विद्वानों ने प्रच्छन्न-बौद्ध (Buddha in disguise) कहा है।

क्या विश्व पूर्णतः असत्य है? (Is the World Totally Unreal)-

शंकर के दर्शन में विश्व की व्याख्या कुछ इस प्रकार हुई है कि कुछ लोगों ने ऐसा सोचा है कि शंकर विश्व को पूर्णतः असत्य मानते हैं। विश्व को शंकर भ्रम, पानी के बुलबुले के समान, सर्प-रज्जु … विपर्यय, स्वप्न, जादू का खेल, माया, इन्द्रजाल, फेन इत्यादि शब्दों से संकेत किया है। जब हम इन शब्दों को साधारण अर्थ में समझते हैं तब विश्व पूर्णतः असत्य सिद्ध होता है। शंकर ने इन शब्दों का प्रयोग यह बतलाने के लिये किया है कि जगत् पूर्णतः सत्य नहीं है। इन उपमाओं को यथार्थ अर्थ में ग्रहण करने से ही हमारे सामने कठिनाई उत्पत्र होती है।

शंकर ने विश्व को स्वप्न कहा है। जिस प्रकार स्वप्न की अनुभूतियां हमें स्वप्न काल में ठीक प्रतीत होती हैं उसी प्रकार जब तक हम विश्व में अज्ञान के वशीभूत निवास करते हैं विश्व यथार्थ प्रतीत होता है। जिस प्रकार स्वप्न की अनुभूतियों का खंडन जाग्रतावस्था से हो जाता है उसी प्रकार विश्व की अनुभूतियों का खंडन मोक्ष प्राप्त करने के बाद आप-से-आप हो जाता है। यद्यपि शंकर ने विश्व को स्वप्न माना है, फिर भी वह स्वप्न और संसार के बीच विभेदक रेखा खींचता है। स्वप्न कुछ काल तक ही विद्यमान रहता है, परन्तु विश्व स्वप्न की तुलना में नित्य प्रतीत होता है। स्वप्न और विश्व में दूसरा अन्तर यह है कि स्वप्न परिवर्तनशील है। हमारे प्रत्येक दिन के स्वप्न बदलते रहते हैं। कल जिस स्वप्न की अनुभूति हो पायी थी, आज उसी स्वप्न की अनुभूति सम्भव नहीं है परन्तु विश्व इसके विपरीत अपरिवर्तनशील है। स्वप्न और विश्व में तीसरा अन्तर यह है कि स्वप्न व्यक्तिगत (Subjective) है, जबकि विश्व वस्तुनिष्ठ (Objective) है। इस प्रकार शंकर का जगत् स्वप्न के समान है वह स्वप्नवत् नहीं है। जो बात शंकर के इस जगत विषयक उपमा पर लागू होती है वही बात शंकर की अन्य उपमाओं- जैसे फेन, भ्रम, पानी के बलबले इत्यादि-पर भी लागू होती है। शंकर ने स्वयं इस बात पर जोर दिया है कि उपमाओं को ज्यों-का-त्यों नहीं समझना चाहिये।

शंकर के विश्व को असत्य कहना भ्रामक है। असत्य (unreal) उसे कहा जाता है जो असत् (Non-existent) है। आकाश-कुसुम, बन्ध्या-पुत्र आदि असत्य कहे जा सकते हैं, क्योंकि इनका अस्तित्व नहीं है। इसके विपरीत विश्व का अस्तित्व है और विश्व दृश्य है। अब प्रश्न उठता है कि क्या का सत्य है? सत्य (Real) वह है जो त्रिकाल में विद्यमान रहता है। सत्य का विरोध न अनुभूति होता है और न तर्क की दृष्टि से। विरोध होने की क्षमता उसमें नहीं रहती है। इस दृष्टि से ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, क्योंकि वह त्रिकाल-अबाधित सत्ता है। जगत् विरोधों से परिपूर्ण है। जगत् का व्याघात तर्क की दृष्टि से सम्भव है। जगत् को सत्य और असत्य दोनों नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि ऐसा विचार विरोधाभास है। इसलिये शंकर ने विश्व को अनिर्वचनीय कहा है। जगत् की अनिर्वचनीयता से विश्व की असत्यता नहीं प्रमाणित होती है।
शंकर विश्व को असत्य नहीं मानता है, क्योंकि उसने स्वयं बौद्ध-मत के विज्ञानवाद की आनोचना इसी कारण की है कि वे जगत् को असत्य मानते थे। चूंकि शंकर ने स्वयं जगत् को असत्य मानने के कारण कटु आलोचना की है, इसलिये यह प्रमाणित होता है कि वह स्वयं विश्व को असत्य नहीं मानता होगा।

शकंर के मतानुसार विश्व में तीन प्रकार की सत्ता है

  1. पारमार्थिक सत्ता
  2. व्यावहारिक सत्ता
  3. प्रातिभासिक सत्ता
प्रातिभासिक सत्ता के अन्दर स्वप्न, भ्रम इत्यादि रखे जाते हैं। शंकर ने विश्व को व्यावहारिक सत्ता के अन्तर्गत रखा है। विश्व व्यावहारिक दृष्टिकोण से पूर्णतः सत्य है। विश्व स्वप्न, भ्रम, आदि की अपेक्षा अधिक सत्य है। विश्व पारमार्थिक दृष्टिकोण से असत्य प्रतीत होता है। विश्व ब्रह्म की अपेक्षा कम सत्य है। जब तक हम अज्ञान के वशीभूत हैं, यह विश्व पूर्णतः सत्य है। जब शंकर ने स्वप्न, भ्रम इत्यादि को भी कुछ सत्यता प्रदान की है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि वह विश्व, को पूर्णतः असत्य मानता है।

शंकर का मोक्ष-सम्बन्धी विचार भी जगत् की असत्यता का खंडन करता है। वे बलपूर्वक कहते हैं कि मोक्ष का अर्थ जगत का तिरोभाव नहीं है। मोक्ष प्राप्त करने के बाद भी जगत् का अस्तित्व रहता है। यदि ऐसा नहीं माना जाय तो मोक्ष का अर्थ विश्व का विनाश होता और तब विश्व का विनाश प्रथम व्यक्ति की मोक्षानुभति के साथ ही हो जाता। मोक्ष की प्राप्ति विश्व में रहकर की जाती है। जीवनमुक्ति की प्राप्ति के बाद भी संसार विद्यमान रहता है। अतः संसार को असत्य मानना भ्रान्तिमूलक है।

शंकर कर्म में भी विश्वास करता है और कर्म विश्व में रहकर ही किया जाता है। शंकर का कर्म के प्रति आसक्त रहना विश्व की असत्यता का खंडन करता है। इसीलिये डॉ. राधाकृष्णन् ने कहा है – “जीवन-मुक्ति का सिद्धान्त, मूल्यों की भिन्नता में विश्वास, सत्य और भ्रान्ति की भिन्नता में विश्वास, धर्म और अधर्म में विश्वास, मोक्ष-प्राप्ति की सम्भावना जो विश्व की अनुभूतियों के द्वारा सम्भव है, प्रमाणित करता है कि आभास में भी सत्यता निहित है।“

शंकर ने विश्व को असत्य नहीं माना है, क्योंकि वह विश्व का आधार ब्रह्म को मानते है। उन्होने कहा है कि ब्रह्म की यथार्थता जगत् का आधार है। विश्व ब्रह्म पर आश्रित होने के कारण वस्तुतः ब्रह्म ही है। जिस प्रकार मिट्टी के घड़े का आधार मिट्टी होने के कारण मिट्टी का घड़ा सत्य माना जाता है उसी प्रकार विश्व का आधार ब्रह्म होने के कारण विश्व को असत्य मानना गलत है। डॉ. राधाकृष्णन ने शंकर के जगत्-विचार की व्याख्या करते हुए इस सत्य की ओर संकेत किया है। उन्होंने कहा है कि- “यह जगत् निरपेक्ष ब्रह्म नहीं है, यद्यपि उसके ऊपर आश्रित है जिसका आधार तो यथार्थ हो किन्तु जो स्वयं यथार्थ न हो उसे यथार्थ का आभास या व्यावहारिक रूप अवश्य कहा जायेगा।“ इन सब युक्तियों से प्रमाणित होता है कि शंकर विश्व को पूर्णतः असत्य नहीं मानते है।
कुछ विद्वानों ने शंकर के विश्व-विषयक विचार की आलोचना यह कहकर की है कि शंकर के दर्शन में विश्व को सत्य नहीं माना गया है जिसके फलस्वरूप अविश्ववाद (Acosmism) का विकास होता है। यह आलोचना प्रो० केयर्ड के द्वारा की गई है। कुछ आलोचकों ने शंकर के जगत-विषयक विचार के विरुद्ध दूसरी आलोचना की है। दर्शन का काम है जगत् की व्याख्या करना; परन्तु शंकर जगत् को असत्य मानकर उसकी समस्या को ही उड़ा देते हैं। अतः शंकर का विश्व-सम्बन्धी विचार असंगत है।

माया और अविद्या सम्बन्धी विचार –

शंकर के दर्शन में माया और अविद्या का प्रयोग एक ही अर्थ में हुआ है। जिस प्रकार आत्मा और ब्रह्म में तादात्म्य है उसी प्रकार माया और अविद्या अभिन्न है। शंकर ने माया, अविद्या, अध्यारोप, भ्रान्ति, विवर्त, भ्रम, नामरूप, अव्यक्त, मूल प्रकृति आदि शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है परन्तु बाद के वेदान्तियों ने माया और अविद्या में भेद किया है। उनका कहना है कि माया भावात्मक है जबकि अविद्या निषेधात्मक है। माया को भावात्मक इसलिये कहा जाता है कि माया के द्वारा ब्रह्म सम्पूर्ण विश्व का प्रदर्शन करता है और माया विश्व को प्रस्थापित करती है। अविद्या इसके विपरीत ज्ञान के अभाव को संकेत करने के कारण निषेधात्मक है। माया और अविद्या में दूसरा अन्तर यह है कि माया ईश्वर को प्रभावित करती है जबकि अविद्या जीव को प्रभावित करती है। माया और अविद्या में तीसरा अन्तर यह है कि माया का निर्माण मूलतः सत्व गुण से हुआ है जबकि अविद्या का निर्माण सत्य, रज तथा तम गुणों से हुआ है। माया का स्वरूप सात्विक है परन्तु अविद्या का स्वरूप त्रिगुणात्मक है।
माया के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठता है-माया रहती कहां है? शंकर का कहना है कि माया ब्रह्म में निवास करती है। यद्यपि माया का आश्रय ब्रह्म है फिर भी ब्रह्म माया से प्रभावित नहीं होता है। जिस प्रकार रूपहीन आकाश पर आरोपित नीले रंग का प्रभाव आकाश पर नहीं पडता तथा जिस प्रकार जादूगर जादू की प्रवीणता से स्वयं नहीं प्रभावित होता उसी प्रकार माया भी ब्रह्म को प्रभावित करने में असफल रहती है। माया का निवास ब्रह्म में है, ब्रह्म अनादि है अतः ब्रह्म की तरह माया अनादि है। माया और ब्रहा में तादात्म्य का संबंध है। माया ब्रह्म की शक्ति है जिसके आधार पर वह विश्व का निर्माण करता है। जिस प्रकार “जादू की प्रवीणता से विभिन्न प्रकार के खेल दिखाता है उसी प्रकार ब्रह्म माया की शक्ति से विश्व का नाना रूपात्मक रूप उपस्थित करता है। माया के कारण निष्क्रिय ब्रह्म सक्रिय हो जाता है। एक प्रकार से शंकर के अनुसार माया सहित ब्रह्म ही ईश्वर है।

शंकर के माया सम्बन्धी विचार (Sankara’s Conception of the Absolute)-

शंकर एकतत्त्ववादी हैं। वह ब्रह्म को ही एकमात्र सत्य मानता है । ब्रह्म को छोड़कर शेष सभी वस्तुएं-जगत्, ईश्वर-सत्य नहीं हैं।
शंकर के मतानुसार सत्ता की तीन कोटियां है -(1) पारमार्थिक सत्ता (2) व्यावहारिक सत्ता (3) प्रातिभासिक सत्ता
ब्रह्म पारमार्थिक दृष्टि से पूर्णतः सत्य है। वह एकमात्र सत्य कहा जाता है। ब्रह्म स्वयं ज्ञान है। वह प्रकाश की तरह ज्योतिर्मय है। इसीलिये ब्रह्म को स्वयं प्रकाश कहा गया है। ब्रह्म का ज्ञान उसके स्वरूप का अंग है। ब्रह्म सब विषयों का आधार है, यद्यपि वह द्रव्य नहीं है। ब्रह्म दिक् और काल की सीमा से परे है। ब्रह्म पर कारण नियम भी नहीं लागू होता है। शंकर ने ब्रह्म को निर्गुण कहा है। उपनिषद् में सद्गुण और निर्गुण-ब्रह्म के दोनों रूपों की व्याख्या हुई है। यद्यपि ब्रह्म निर्गुण है, फिर भी ब्रह्म को शून्य नहीं समझा जा सकता है। उपनिषद् ने भी निर्गुणो गुणी कहकर निगुर्ण को भी गुण-युक्त माना है।
शंकर के मतानुसार ब्रह्म पूर्ण एवं एकमात्र सत्य है। ब्रह्म का साक्षात्कार ही चरम लक्ष्य है। वह सर्वोच्च ज्ञान है। ब्रह्म-ज्ञान से संसार का ज्ञान जो मूलतः अज्ञान है, समाप्त हो जाता है। ब्रह्म अनन्त, सर्वव्यापी तथा सर्वशक्तिमान है। वह भूत जगत् का आधार है। जगत् ब्रह्म का विवर्त है परिणाम नहीं। शंकर ने केवल इसी अर्थ में ब्रह्म को विश्व का कारण माना है। इस विवर्त से ब्रह्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक जादूगर अपने ही जादू से ठगा नहीं जाता है। अविद्या के कारण ब्रह्म नाना रूपात्मक जगत् के रूप में दीखता है। शंकर के अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, जगत् मिथ्या है।
ब्रह्म सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वेदान्त दर्शन में तीन प्रकार के भेद माने गये हैं -

  1. सजातीय भेद (Homogeneous Distinction) 
  2. विजातीय भेद (Heterogeneous Distinction) 
  3. स्वगत भेद (Intermal Distinction)

एक ही प्रकार की वस्तुओं के बीच जो भेद होता है उसे सजातीय भेद कहा जाता है जैसे एक गाय और दूसरी गाय। जब दो असमान वस्तुओं में भेद होता है तब उस भेद को विजातीय भेद कहते हैं। गाय और घोड़े में जो भेद है वह विजातीय भेद का उदाहरण है। एक ही वस्तु और उसके अंशों में जो भेद होता है उसे स्वगत भेद कहा जाता है। गाय के सींग और पूॅंछ में जो भेद होता है वह स्वगत भेद का उदाहरण है। ब्रह्म में न सजातीय भेद है न विजातीय भेद है और न स्वगत भेद है। शंकर का ब्रह्म रामानुज से भिन्न प्रतीत होता है क्योंकि रामानुज ने ब्रह्म को स्वगत भेद से युक्त माना है। शंकर ने ब्रह्म को ही आत्मा कहा है। इसलिये शंकर के दर्शन में ’आत्मा = ब्रह्म’ कहकर दोनों की अभिन्नता को प्रमाणित किया जाता है। ब्रह्म को सिद्ध करने के लिए शंकर कोई प्रमाण की आवश्यकता नहीं महसूस करते है। इसका कारण यह है कि ब्रह्म स्वतः सिद्ध है। शंकर का ब्रह्म सत्य होने के नाते सभी प्रकार के विरोधों से मुक्त है। सत्य उसे कहते हैं जिन कभी विरोध नहीं होता है।’ शंकर के अनुसार विरोध दो प्रकार का होता है- (1) प्रत्यक्ष विरोध (Experiential Contradiction) और (2) सम्भावित विरोध (LogicalContradiction) जब एक वास्तविक प्रतीति दूसरी वास्तविक प्रतीति से खंडित हो जाती है तब उसे प्रत्यक्ष विरोध कहा जाता है। साँप के रूप में जिसकी प्रतीति हो रही है उसी का रस्सी के रूप में प्रतीति होना इसका उदाहरण है। संभावित विरोध उसे कहा जाता है जो युक्ति के द्वारा बाधित होता है। परिवर्तन को असत्य माना जाता है, क्योंकि इसका खंडन युक्ति से होता है। शंकर का ब्रह्म प्रत्यक्ष विरोध और सम्भावित विरोध से शून्य है। ब्रह्म त्रिकालाबाधित सत्ता है।

ब्रह्म व्यक्तित्व से शून्य है। व्यक्तित्व (Personality) में आत्मा (Self) और अनात्मा (Not self) का भेद रहता है। ब्रह्म सब भेदों से शून्य है। इसलिए ब्रह्म को निर्व्यक्तिक (Impersonal) कहा गया है । ब्रैडले ने भी ब्रह्म को व्यक्तित्व से शून्य माना है परन्तु शंकर का ब्रह्म-सम्बन्धी यह विचार रामानुज के ब्रह्म-विचार से भिन्न है। रामानुज के मतानुसार ब्रह्म में व्यक्तित्व है। वह परम व्यक्ति है। शंकर ने ब्रह्म को अनन्त असीम कहा है। वह सर्वव्यापक है। उसका आदि और अन्त नहीं है। वह सबका कारण होने के कारण सब का आधार है। पूर्ण और अनन्त होने के कारण आनन्द ब्रह्म का स्वरूप है।
ब्रह्म अपरिवर्तनशील है। उसका न विकास होता है न रूपान्तर होता है। वह निरन्तर एक समान ही रहता है।
शंकर के ब्रह्म की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि उन्होंने ब्रह्म को अनिर्वचनीय माना है। ब्रह्म को शब्दों के द्वारा प्रकाशित करना असम्भव है। ब्रह्म को भावात्मक रूप से जानना भी सम्भव नही है। हम यह नहीं जान सकते कि ’ब्रह्म’ क्या है, अपितु हम यह जान पाते हैं कि “ब्रह्म क्या नहीं है।“ उपनिषद् में ब्रह्म को ‘‘नेति नेति’‘ अर्थात् ’यह नहीं है’ कहकर वर्णन किया गया है। शंकर उपनिषद के ‘नेति-नेति‘ विचार के आधार पर ही ब्रह्म की व्याख्या करते है। नेति-नेति का शंकर के दर्शन में इतना प्रभाव है कि वह ब्रह्म को एक कहने के बजाय अद्वैत (Non-dualism) कहता है। ब्रह्म की व्याख्या निषेधात्मक रूप से ही की जाती है। ब्रह्म को अनिर्वचनीय कहने का यह अर्थ नहीं कि वह अज्ञेय है। ब्रह्म की अनुभूति होती है। इस प्रकार ब्रह्म निर्गुण, निर्विशेष और निराकार है। सत् और असत्, एक और अनेक,… ज्ञान और अज्ञान, कर्म और अकर्म, क्रियाशील और अक्रियाशील, दायक और फलहीन, . . . इत्यादि प्रत्यय ब्रह्म पर लागू नहीं हो सकते।

ईश्वर-विचार (Sankara’s Conception of God)-

ब्रह्म निर्गुण और निराकार है। ब्रह्म को जब हम विचार से जानने का प्रयास करते हैं तब वह ईश्वर हो जाता है। ईश्वर सगुण ब्रह्म है। ईश्वर सर्वज्ञ है, वह सर्वव्यापक है, वह स्वतंत्र है, वह एक है, वह अन्तर्यामी है, ईश्वर जगत् का स्रष्टा, पालनकर्ता और संहारकर्ता है। वह नित्य और अपरिवर्तनशील है। ब्रह्म का प्रतिबिम्ब जब माया में पड़ता है, तब वह ईश्वर हो जाता है। शंकर के दर्शन में ईश्वर को ’मायोपहति ब्रह्म’ कहा जाता है। ईश्वर माया के द्वारा विश्व की सृष्टि करता है। माया ईश्वर की शक्ति है, जिसके कारण वह विश्व का प्रपंच रचता है। ईश्वर विश्व का प्रथम कारण है, ऐसा श्रुतियों में कहा गया है यद्यपि ईश्वर विश्व का कारण है फिर भी वह स्वयं अकारण है। इसीलिये ईश्वर को कारण से शून्य माना गया है।
ईश्वर व्यक्तित्वपूर्ण है। वह उपासना का विषय है। कर्म नियम का अध्यक्ष ईश्वर है। ईश्वर व्यक्तियों को उनके शुभ और अशुभ कर्मों के आधार पर सुख-दुःख का वितरण करता है। ईश्वर कर्म फलदाता है। संसार के लोगों के भाग्य में जो विभिन्नता है इसका कारण उनके पूर्ववर्ती जीवन का कर्म ही है। अतः ईश्वर नैतिकता का आधार है। ईश्वर स्वयं पूर्ण है। यह धर्म-अधर्म से परे हैं वह एक है।
ईश्वर को विश्व का स्रष्टा माना जाता है। प्रश्न यह है कि ईश्वर विश्व की सृष्टि किस प्रयोजन से करता है। यदि यह माना जाय कि ईश्वर विश्व का निर्माण किसी उद्देश्य से करता है तब ईश्वर की पूर्णता का खंडन होगा। सृष्टि ईश्वर का एक खेल है। वह अपनी क्रीड़ा के लिए ही सृष्टि करता है। सृष्टि करना ईश्वर का स्वभाव है जिस प्रकार साँस लेना मानवीय स्वरूप का अंग है उसी प्रकार सृष्टि करना ईश्वरीय स्वभाव का अंग है। ईश्वर विश्व का उपादान और निमित्त कारण दोनों है। वह स्वभावतः निष्क्रिय है-परन्तु माया रहने के कारण वह सक्रिय हो जाता है।
सृष्टिवाद के विरुद्ध में कहा जाता है कि ईश्वर को विश्व का कारण मानना भ्रान्तिमूलक है, क्योंकि कारण और कार्य के स्वरूप में अन्तर है। यदि ईश्वर विश्व का कारण है तो फिर विश्व के स्वरूप और ईश्वर के स्वरूप में अन्तर क्यों है? शंकर इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार देते है कि जिस प्रकार अचेतन वस्तु का विकास चेतन वस्तु से होता है। उदाहरणस्वरूप नाखून-केश का विकास जिस प्रकार मनुष्य से होता है उसी प्रकार ईश्वर से जो पूर्णतः आध्यात्मिक है भौतिक वस्तु का निर्माण होता है।
शंकर ने ईश्वर को विश्व में व्याप्त तथा विश्वातीत माना है। जिस प्रकार दूध में उजलापन अन्तर्भूत है उसी प्रकार ईश्वर विश्व में व्याप्त है। यद्यपि ईश्वर विश्व में व्याप्त है फिर भी वह विश्व की बुराइयों से प्रभावित नहीं होता है। ईश्वर विश्वातीत (ranscendent) भी है। जिस प्रकार घड़ीसाज की सत्ता घड़ी से अलग रहती है उसी प्रकार ईश्वर विश्व का निर्माण कर अपना सम्बन्ध विश्व से विच्छिन्न कर विश्वातीत रहता है। शंकर के ईश्वर-सम्बन्धी विचार और ब्रैडले के ईश्वर-सम्बन्धी विचार में समरूपता है। ब्रैडले ने ईश्वर को ब्रह्म का विवर्त (Appearance) माना है। उसी प्रकार शंकर ने भी ईश्वर को ब्रह्म का विवर्त कहा है।
ईश्वर को सिद्ध करने के लिए जितने परम्परागत तर्क दिये गये हैं शंकर ने उन सभी की आलोचना की है। तात्विक युक्ति हमें केवल ईश्वर के विचार को देती है. ईश्वर के वास्तविक अस्तित्व का नहीं। न्याय दर्शन में ईश्वर को सिद्ध करने के लिये अनेक तर्कों का प्रयोग हआ है। शंकर उन तर्कों को गलत बतलाते हुए कहते है कि ईश्वर का अस्तित्व तर्कों से नहीं सिद्ध हो सकता है। अब प्रश्न यह है कि ईश्वर के अस्तित्व का क्या आधार है? शंकर ईश्वर के अस्तित्व को श्रुति के द्वारा प्रमाणित करते है। चूंकि श्रुति में ईश्वर की चर्चा है इसलिए ईश्वर का अस्तित्व है। शंकर का ईश्वर सम्बन्धी यह दृष्टिकोण कान्ट के दृष्टिकोण से मिलता है। कान्ट ने भी ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए दिये गये तर्को की आलोचना करते हुए ईश्वर के प्रमाण का आधार विश्वास को मान लेते है। इसलिए डा0 शर्मा ने कहा है कि- ‘‘ जिस प्रकार काण्ट विश्वास को ईश्वर का आधार मानता है उसी प्रकार शंकर भी श्रुति को ईश्वर का आधार मानते है।‘‘
शंकर का ईश्वर-विचार न्याय के ईश्वर विचार से भिन्न है। न्याय दर्शन के अनुसार ईश्वर करुणा से जगत् का सृष्टि करता है परन्तु यह विचार शंकर को मान्य नहीं है। शंकर ईश्वर को विश्व का उपादान एवं निमित्त कारण मानते है परन्तु न्याय ईश्वर को सिर्फ विश्व का निमित्त कारण मानता है। न्याय ने ईश्वर की स्थापना तर्क के द्वारा की है परन्तु शंकर ने ’श्रुति’ के द्वारा की है। शंकर का ईश्वर विचार निमित्तोपादानेश्वरवाद (Panentheism) है जबकि न्याय का ईश्वरवाद है। कछ लोग शंकर के दर्शन ईश्वर-सम्बन्धी विचार के विरुद्ध आक्षेप करते हैं। उनका कहना है कि शंकर के दर्शन में ईश्वर का कोई महत्त्व नहीं है परन्तु यह आलोचना निराधार है। शंकर ने ईश्वर को व्यावहारिक दृष्टि से माना है। व्यावहारिक जीवन की सफलता के लिये ईश्वर में विश्वास करना आवश्यक है। ब्रह्म को किसी प्रकार नहीं जाना जा सकता है। ईश्वर ही सबसे बड़ी सत्ता है जिसका ज्ञान हमें हो पाता है। ब्रह्म के सम्बन्ध में जो कुछ भी चर्चा होती है वह सच पूछा जाय तो ईश्वर के सम्बन्ध में ही होती है। ईश्वर की उपासना और भक्ति से मानव मोक्ष को अपना सकता है। अतः ऐसा सोचना कि शंकर के दर्शन में ईश्वर का कोई महत्त्व नहीं है सर्वथा भ्रामक होगा।

ब्रह्म और ईश्वर में भेद-

ब्रह्म पारमार्थिक दृष्टि से सत्य है जबकि ईश्वर व्यावहारिक दृष्टि से सत्य है। ब्रह्म निर्गण, निराकार और निर्विशेष है परन्तु ईश्वर सगुण और सविशेष है। ब्रह्म उपासना का विषय नहीं है, परन्तु ईश्वर उपासना का विषय है। वह विश्व का स्रष्टा, पालनकर्ता और संहारकर्ता है, परन्तु ब्रह्म इन गुणों से शून्य है। ईश्वर जीवों को उनके कर्मों के अनुसार फल देता है, परन्तु ब्रह्म कर्म-फल-दाता नहीं है। ब्रह्म व्यक्तित्व-शून्य है परन्तु ईश्वर इसके विपरीत व्यक्तित्वपूर्ण (Personal) है। ईश्वर में माया निवास करती है इसलिए ईश्वर को मायोपहित ब्रह्म कहा जाता है। परन्तु ब्रह्म माया से शून्य है। ईश्वर सक्रिय है, जबकि ब्रह्म निष्क्रिय है। ब्रह्म को सत्य माना जाता है, परन्तु ईश्वर असत्य है। ईश्वर की सत्यता तभी तक है जब तक जीव अज्ञान के वशीभूत है। ज्योंही जीव में विद्या का उदय होता है त्योंही ईश्वर उसे असत्य प्रतीत होने लगते हैं। इसलिए शंकर के दर्शन में ईश्वर को व्यावहारिक मान्यता कहा जाता है।
शंकर ने ब्रह्म को सत्य, अनन्त तथा ज्ञानस्वरूप माना है। ब्रह्म का यह वर्णन उसके स्वरूप लक्षण के अन्तर्गत आता है। परन्तु माया से संयुक्त ब्रह्म जिसे ईश्वर कहा जाता है जगत् की उत्पत्ति, संरक्षण एवं भंग का कारण है। ब्रह्म का यह वर्णन उसका तटस्थ लक्षण कहलाता है। इस भेद को शंकर ने एक उपमा के द्वारा बतलाया है। एक गड़ेरिया रंगमंच पर राजा का अभिनय करता है, देश विजय करता है। नाटक की दृष्टि से वह राजा के रूप में प्रकट होता है। यह उसका तटस्थ लक्षण है परन्तु वास्तविकता यह है कि वह एक गड़ेरिया है। यह उसका स्वरूप लक्षण है। इस विवेचन से यह प्रमाणित होता है कि ब्रह्म और ईश्वर में अन्तर है।
यद्यपि शंकर के दर्शन में ईश्वर और ब्रह्म में अन्तर दीखता है फिर भी उनके दर्शन में ईश्वर तथा ब्रह्म के बीच निकटता का सम्बन्ध भी है। ब्रह्म और ईश्वर को मिलाकर शंकर के दर्शन में चार अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। इनमें तीन ईश्वर और एक पर ब्रह्म की अवस्था है। ईश्वर की तीन अवस्थाओं को उपमा द्वारा समझा जा सकता है। बीज की हम तीन अवस्थायें पाते हैं। बीज की पहली अवस्था वह है जब वह प्रारंभिक अवस्था में शक्ति के रूप में रहता है। बीज की दसरी अवस्था तब होती है जब वह अंकुर दे देता है। बीज की तीसरी अवस्था वह है जब वह पौधे का रूप ले लेता है। बीज की यह तीन अवस्थायें ईश्वर की तीन अवस्थाओं के अनुरूप हैं। ईश्वर की उपरोक्त तीनों अवस्थाओं का क्रमशः ईश्वर, हिरण्यगर्भ तथा वैश्वानर कहा गया है। जब तक माया कार्यान्वित नहीं होती है तब तक. वह ईश्वर है। ज्योंही माया अपना कार्य प्रारम्भ कर सूक्ष्म पदार्थों को बना डालती है त्योंही उसे ,’हिरण्यगर्भ’ कहा जाता है। जब स्थूल पदार्थ का निर्माण हो जाता है तब ईश्वर का पूर्ण विकसित रूप् विराट या वैश्वानर कहा जाता है। ईश्वर के ये तीनों रूप असत्य एवं मायावी है। ब्रह्म इनसे प्रभावित नही ंहोता है। इन तीन अवस्थाओं से अलग ब्रह्म का रूप है जिसे वास्तविक तथा परमार्थतः सत्य कहा गया है। इसलिए ब्रह्म को परब्रह्म कहा गया है।

आत्म-विचार (Sankara’s Conception of the Soul)

शंकर आत्मा को ब्रह्म कहते है। आत्मा और ब्रह्म सच पूछा जाय तो एक ही वस्तु के दो भिन्न-भिन्न नाम है। आत्मा स्वयं सिद्ध है। साधारणतः जो वस्तु स्वयं सिद्ध नहीं रहती है, उसे प्रमाणित करने के लिये तर्को की आवश्कता होती है। इसलिये आत्मा को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है, यह तो स्वयंसिद्ध है। यदि कोई आत्मा का निषेध करता है और कहता है कि ’मैं नहीं हैं तो उसके इस कथन में भी आत्मा का विधान निहित है। फिर भी ’मैं’ शब्द के साथ इतने अर्थ जुड़े हुए हैं कि आत्मा वास्तविक स्वरूप निश्चित करने के लिये तर्क की शरण में जाना पड़ता है। कभी-कभी ’मैं’ शब्द का प्रयोग शरीर के लिये होता है। जैसे ’मैं मोटा हूं।’ कभी-कभी ’मैं’ शब्द का प्रयोग इन्द्रिय के लिये होता है जैसे ’मैं अन्धा हूँ।’ कभी-कभी ’मैं’ कर्मेन्द्रिय का संकेत करता है जैसे ’मैं लंगड़ा हूँ।’ कभीकभी ’मैं’ ज्ञाता का भी संकेत करता है जैसे ’मैं जानता हूँ’।
अब प्रश्न यह है कि इनमें से किसको आत्मा समझा जाय? इसका उत्तर सरल है। जो सभी अवस्थाओं में विद्यमान रहे वही आत्मा का तत्त्व हो सकता है। उपरोक्त सभी उदाहरणों में आत्मा का मौलिक तत्त्व चैतन्य है, क्योंकि वह सभी अवस्थाओं में विद्यमान रहता है। उदाहरणस्वरुप, ’मैं मोटा हूँ’ में शरीर के रूप में आत्मा का चैतन्य है। मैं अन्धा हूँ’ में इन्द्रिय के रूप में आत्मा का चैतन्य है। अतः चैतन्य सभी अवस्थाओं में सामान्य होने के कारण मौलिक है। इसलिये चैतन्य को आत्मा का स्वरूप माना गया है। चैतन्य आत्मा का स्वरूप है।
इस प्रकार विभिन्न प्रकार से शंकर ने सिद्ध किया है कि चैतन्य अत्मा का स्वरूप लक्षण है। चैतन्य आत्मा का गुण नहीं, बल्कि स्वभाव है। यहॉ पर चैतन्य का अर्थ किसी विषय का चैतन्य नहीं, बल्कि शुद्ध चैतन्य है । चेतना के साथ-साथ आत्मा में सत्ता (Existence) भी है। इसका कारण यह है कि सत्ता सर्वथा वर्तमान रहती है। चैतन्य के साथ-ही-साथ आत्मा में आनन्द भी है। साधारण वस्तु में जो आनन्द रहता है वह क्षणिक रहता है। परन्तु आत्मा का आनन्द शुद्ध और स्थायी है। चूंकि आत्मा वस्तुतः ब्रह्म ही है इसलिये आत्मा को सच्चिदानन्द कहना प्रमाण प्रतीत होता है। भारतीय दर्शन में आत्मा के जितने भी विचार मिलते हैं उनमें शंकर का विचार अदितीय है। वैशेषिक ने आत्मा का स्वरूप सत् (Existence) माना है । न्याय के मतानुसार आत्मा स्वभावत. अचेतन है । सांख्य ने आत्मा को सत+चित् (Existence Consciousness) माना है । सांख्य का आत्मा का स्वरूप चैतन्य है जिसमें सत्ता भी निहित है । शंकर ने आत्मा का स्वरूप सच्चिदानन्द (सत्चि+त्आ+नन्द) मानकर आत्मा-सम्बन्धी विचार में पूर्णता ला दी है।
शंकर ने आत्मा को नित्य, शुद्ध और निराकार माना है और उनकी दृष्टि में आत्मा एक ही है। यद्यपि आत्मा एक है फिर भी अज्ञान के फलस्वरूप वह अनेक प्रतीत होती है। जिस प्रकार एक चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जल की विभिन्न सतहों पर पड़ने से यह अनेक प्रतीत होता है उसी प्रकार एक आत्मा का प्रतिबिम्ब अविद्या पर पड़ने से वह अनेक प्रतीत होता है। आत्मा यथार्थतः भोक्ता और कर्ता नहीं है। वह उपाधियों के कारण ही भोक्ता और कर्ता दिखाई . पड़ता है। शुद्ध चैतन्य होने के कारण आत्मा का स्वरूप ज्ञानात्मक है। वह स्वयं प्रकाश है तथा विभिन्न विषयों . को प्रकाशित करता है। आत्मा पाप और पुण्य के फलों से स्वतन्त्र है। यह सुख-दुःख की अनुभूति नहीं प्राप्त करती है। आत्मा को शंकर ने निष्क्रिय कहा है। यदि उसे सक्रिय माना जाय तब वह अपनी क्रियाओं के फलस्वरूप परिवर्तनशील होगा। इस प्रकार आत्मा की नित्यता खंडित हो जायेगी।
आत्मा विशुद्ध ज्ञान का नाम है। आत्मा ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय की व्यावहारिक त्रिपुटी से परे है। वह ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय त्रिपुटी का आधार है। इसी अधिष्ठान पर तो त्रिपटी का खेल हो रहा है। अतः आत्मा त्रिपुटी का अंग नहीं है। आत्मा देश, काल और कारण-नियम की सीमा से परे है। .आत्मा सभी विषयों का आधारस्वरूप है। आत्मा सभी प्रकार के विरोधों से शून्य है। आत्मा त्रिकाल-अबाधित सत्ता है। वह सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वह अवयव से शून्य है। शंकर के दर्शन में आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। आत्मा ही वस्तुतः ब्रह्म है। उपनिषद के वाक्य ’अहं ब्रह्मास्मि’ (I am Brahman) से भी आत्मा और ब्रह्म के अभेद का ज्ञान होता है।

जीव-विचार (The Conception of Individual Self)-

आत्मा की पारमार्थिक सत्ता है, पर जीव की व्यावहारिक सत्ता है। जब आत्मा शरीर, इन्द्रिय, मन इत्यादि उपाधियों से सीमित होता है तब वह जीव हो जाता है । आत्मा एक है जबकि जीव भिन्नभिन्न शरीरों में अलग-अलग है। इससे सिद्ध होता है कि जीव अनेक हैं। जितने व्यक्ति-विशेष हैं, उतने जीव हैं। जब आत्मा का प्रतिबिम्ब अविद्या में पड़ता है तब वह जीव हो जाता है। इस प्रकार जीव आत्मा का आभास मात्र (Appearance) है।
जीव संसार के कर्मों में भाग लेता है इसलिये उसे कर्ता कहा जाता है। वह विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है इसलिये उसे ज्ञाता कहा जाता है। सुख-दुःख की अनुभूति जीव को होती है। वह कर्म-नियम के अधीन है। अपने कर्मों का फल प्रत्येक जीव को भोगना पड़ता है। शुभ और अशुभ कर्मों के कारण वह पुण्य और पाप का भागी होता है।
शंकर ने आत्मा को मुक्त माना है परन्तु जीव इसके विपरीत बन्धन-ग्रस्त है। अपने प्रयासों से जीव मोक्ष को अपना सकता है। जीव को अमर माना गया है। शरीर के नष्ट हो जाने के बाद जीव आत्मा में लीन हो जाता है। एक ही आत्मा विभिन्न जीवों के रूप में दिखाई देती है। जिस प्रकार एक ही आकाश उपाधि, भेद के कारण घटाकाश, मठाकाश, इत्यादि में दीख पड़ता है उसी प्रकार एक ही आत्मा शरीर और मनस की उपाधियों के कारण अनेक दीख पड़ती है। “
जीव आत्मा का वह रूप है जो देह से युक्त है और उसके तीन शरीर हैं – स्थूल शरीर, लिंग शरीर और कारण शरीर। जीव शरीर और प्राण का आधार स्वरूप है। जब आत्मा का-अज्ञान के वशीभूत होकर-बुद्धि से सम्बन्ध होता है तब आत्मा जीव का स्थान ग्रहण करती है। जब तक जीव में ज्ञान का उदय नहीं होगा, वह अपने को बुद्धि से भिन्न नहीं समझ सकती इसलिये शंकर ने इस सम्बन्ध का नाश करने के लिये ज्ञान पर बल दिया है।

शंकर के बंधन और मोक्ष सम्बन्धी विचार (Sankara’s Theory of Bondage and Liberation)-

शंकर के मतानुसार आत्मा का शरीर और मन में अपनापन का सम्बन्ध होना बन्धन है अर्थात आत्मा का शरीर के साथ आसक्त हो जाना ही बन्धन है। आत्मा शरीर से भिन्न है फिर भी वह शरीर की अनुभूतियों को निजी अनुभूतियाँ समझने लगती है। जिस प्रकार पिता अपनी प्रिय सन्तान की सफलता और असफलता को निजी सफलता और असफलता समझने लगता है उसी प्रकार आत्मा शरीर के पार्थक्य के ज्ञान के अभाव में शरीर के सुख-दुःख को निजी सुख-दुःख समझने लगती है। यही बन्धन है ।
आत्मा स्वभावतः नित्य, शुद्ध, चैतन्य, मुक्त और अविनाशी है परन्तु अज्ञान के वशीभूत होकर वह बन्धनग्रस्त हो जाती है। जब तक जीव में विद्या का उदय नहीं होगा तब तक वह संसार के दुःखों का सामना करता जायेगा। अविद्या का नाश होने के साथ-ही-साथ जीव के पूर्वसंचित कर्मों का अन्त हो जाता है और इस प्रकार वह दुःखों से छुटकारा पा जाता है । अविद्या का अन्त ज्ञान से ही सम्भव है। शंकर के अनुसार मोक्ष को अपनाने के लिए ज्ञान अत्यावश्यक है। मोक्ष को प्राप्त करने के लिए कर्म का सहारा लेना व्यर्थ है। मीमांसा के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति कर्म से सम्भव है परन्तु शंकर के अनुसार कर्म और भक्ति ज्ञान की प्राप्ति में भले ही सहायक हो सकते हैं, वे मोक्ष की प्राप्ति में सहायक नहीं हो सकते। ज्ञान और कर्म विरोधात्मक हैं। कर्म और ज्ञान अन्धकार और प्रकाश की तरह विरुद्ध स्वभाव वाले हैं। ज्ञान विद्या है जबकि कर्म अविद्या है। मोक्ष का अर्थ है अविद्या को दूर करना और अविद्या केवल विद्या के द्वारा ही दूर हो सकती है। शंकर ने ज्ञान-कर्म समुच्चय को मोक्ष का उपाय नहीं माना है। शंकर ने मात्र एक ज्ञान को ही मोक्ष का उपाय माना है। ज्ञान की प्राप्ति वेदान्त दर्शन के अध्ययन से ही प्राप्त हो सकती है परन्तु वेदान्त को अध्ययन करने के लिए साधक को साधना की आवश्यकता होती है उसे भिन्न-भिन्न शर्तों का पालन करना पड़ता है, तभी वह वेदान्त का सच्चा अधिकारी बनता है।
मोक्ष की अवस्था में जीव ब्रह्म से एकाकार हो जाता है। चूॅकि ब्रह्म आनन्दमय है इसलिये मोक्षावस्था को भी आनन्दमय माना गया है। मोक्ष की प्राप्ति के बाद भी मानव का शरीर कायम रह सकता है। मोक्ष का अर्थ शरीर का अन्त नहीं है। शरीर तो प्रारब्ध कर्मों का फल है। जब तक इनका फल समाप्त नहीं हो जाता, शरीर विद्यमान रहता है। जिस प्रकार कुम्हार का चाक, कुम्हार के द्वारा घुमाना बन्द कर देने के बाद भी कुछ काल तक चलता रहता है उसी प्रकार मोक्ष प्राप्त कर लेने के बाद पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार शरीर कुछ काल तक जीवित रहता है। इसे जीवन-मुक्ति कहा जाता है। शंकर की तरह सांख्य, योग, जैन, बौद्ध दार्शनिकों ने भी जीवन-मुक्ति को अपनाया है। जीवन मुक्त व्यक्ति संसार में रहता है फिर भी संसार के द्वारा ठगा नहीं जाता है। वह संसार के कर्मों में भाग लेता है, फिर भी वह बन्धन-ग्रस्त नहीं होता। इसका कारण यह है कि उनके कर्म अनासक्त भाव से किये जाते है।
जो कर्म आसक्त भाव से किये जाते हैं उससे फल की प्राप्त होती है । परन्तु निष्काम कर्म या अनासक्त कर्म भुजे हुए बीज की तरह हैं जिनसे फल की प्राप्ति नहीं होती है। गीता के निष्काम कर्म को शंकर ने मान्यता दी है । जब जीवन-मुक्त व्यक्ति के सक्षम और स्थल शरीर का अन्त हो जाता है तब ’विदेहमक्ति’ की प्राप्ति होती है। विदेह-मुक्ति मत्य के उपरान्त उपलब्ध होती है।
प्रो० हिरियन्ना ने शंकर के मोक्ष सम्बन्धी विचार पर प्रकाश डालते हुए कहा है, -‘‘शंकर के मतानुसार मोक्ष कोई ऐसी अवस्था नहीं है, जिसे प्राप्त करना है, बल्कि आत्मा का स्वरूप ही है, इसलिये साधारण अर्थ में उसकी प्राप्ति के उपाय की बात नहीं की जा सकती। मोक्ष को प्राप्त करने का मतलब वहाँ जीव को यह समझ लेना है जो हमेशा से उसका सहज स्वरूप रहा है, लेकिन जिसे वह कुछ समय के लिये भूल गया है।“ वृहदारण्यक उपनिषद् में इस प्रसंग की व्याख्या के लिये एक राजकुमार का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है जिसका संयोगवश लालन-पालन बचपन से ही एक शिकारी के घर में होता है पर जो बाद में जान लेता है कि वह एक राजकुमार है। शंकर का मोक्ष बौद्ध-दर्शन के निर्वाण से भित्र है। मोक्ष को शंकर ने सिर्फ निषेधात्मक नहीं माना है, बल्कि भावात्मक भी माना है। शंकर का मोक्ष न्याय-वैशेषिक के मोक्ष से भी भिन्न है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में मोक्ष की अवस्था में आत्मा अपने स्वाभाविक रूप में अचेतन दीख पड़ती है, परन्तु शंकर के अनुसार मोक्ष की अवस्था में आत्मा अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप में रहती है। शंकर का मोक्ष-सम्बन्धी विचार रामानुज से भी भिन्न है। रामानुज के दर्शन में मोक्ष की अवस्था में आत्मा स्वयं ब्रह्म नहीं हो जाती है, बल्कि उसके समान प्रतीत होने लगती है। रामानुज के मतानुसार मोक्ष की प्राप्ति ईश्वर की कृपा से होती है; परन्तु शंकर के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति मानव के अपने प्रयासों से होती है।

विवर्तवाद या सत्कार्यवाद –

शंकर सत्कार्यवाद को मानते है। कार्य उत्पति के पूर्व उपादान कारण में अन्तर्भूत है। सत्कार्यवाद को सिद्ध करने के लिये शंकर कुछ तर्क देते हैं जो निम्नलिखित है –
(1) प्रत्यक्ष के आधार पर कार्य और उनके उपादान कारण में कोई अन्तर नहीं दिखता है। सूतों और कपड़े के बीच तथा मिट्टी और घड़े के बीच वस्तुतः कोई अन्तर नहीं दिखाई पडता है।
(2) यदि कार्य की सत्ता को उत्पत्ति के पूर्व कारण में नहीं माना जाय तो उसका प्रादुर्भाव नहीं हो सकता है। जो असत् है उससे सत् का निर्माण होना असम्भव है। क्या बालू को पीसकर उससे तेल निकाला जा सकता है?
(3) उपादान कारण और कार्य को एक दूसरे से पृथक् करना सम्भव नहीं है। उपादान कारक के बिना कार्य नहीं रह सकता है। हम मिट्टी से घड़े को पृथक् नहीं कर सकते हैं। इसी प्रकार सोने से गहने को अलग नहीं किया जा सकता है।
(4) यदि कारण और कार्य को एक दूसरे से भिन्न माना जाय तो कारण कार्य का संबंध आन्तरिक न होकर बाह्य हो जायेगा। दो भिन्न पदार्थों को सम्बन्धित करने के लिये एक तीसरे पदार्थ की आवश्यकता होगी। फिर तीसरे और पहले पदार्थ को सम्बन्धित करने के लिये एक चौथे पदार्थ की आवश्यकता होगी। इस प्रकार अनवस्था दोष का प्रादुर्भाव होगा।
(5) सत्कार्यवाद के विरुद्ध असत्कार्यवाद के आक्षेपों का उत्तर देते हुए शंकर का कहना है कि निमित्त कारण की क्रिया से किसी नये द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती, बल्कि उस द्रव्य के निहित रूप की अभिव्यक्ति मात्र होती है। उपादान कारण में निहित अव्यक्त कार्य को व्यक्त करना निमित्त कारण का उद्देश्य है।
उपरोक्त तर्कों के आधार पर शंकर सिद्ध करते हैं कि कारण और कार्य में कोई भेद नहीं है और वे ’अनन्य’ हैं। कारण में शक्ति समाविष्ट है जिस शक्ति के कारण वह कार्य में अभिव्यक्त होता है।
शंकर के अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और विश्व का कारण ब्रह्म है। देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्म का रूपान्तर नाना रूपात्मक जगत में हुआ है, परन्तु वास्तविकता यह नहीं है। ब्रह्म अपरिवर्तनशील है, उसका रूपान्तर कैसे हो सकता है? ब्रह्म यथार्थ है और जो यथार्थ है उसका रूपान्तर अयथार्थ में कैसे हो सकता है? अतः शंकर मानते है कि जगत ब्रह्म का विवर्त है। शकर का यह मत ब्रह्म विवर्तवाद कहा जाता है।
विवर्तवाद शंकर के दर्शन का केन्द्रबिन्दु है। शंकर का जगत् विषयक विचार विवर्तवाद पर आधारित है। विवर्तवाद के आधार पर शंकर जगत् की सृष्टि की व्याख्या युक्ति-संगत ढंग से करते हैं परन्तु रामानुज परिणामवाद को मानने के कारण सृष्टि की संगत व्याख्या करने में अपने को असमर्थ पाते हैं। इसका फल यह होता है कि ये सृष्टि के रहस्य को मानव-बुद्धि से परे मानने लगते हैं।

सृष्टि-विचार –

शंकर के अनुसार विश्व ईश्वर की सृष्टि है। सृष्टि की विपरीत क्रिया को प्रलय कहा जाता है। सृष्टि और प्रलय का चक्र निरन्तर प्रवाहित होता रहता है। ईश्वर विश्व का निर्माण माया से करता है और माया ईश्वर की शक्ति है। जगत् ईश्वर से उत्पन्न होता है और पुनः ईश्वर में ही विलीन हो जाता है। इस प्रकार ईश्वर जगत् का स्रष्टा, पालनकर्ता एवं संहर्ता है। वह जीवों के भोग के लिये भिन्न-भिन्न लौकिक वस्तुओं का निर्माण करता है। यहाँ यह कह देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि शंकर ने सृष्टि को परमार्थतः सत्य नहीं माना है। सृष्टि व्यावहारिक दृष्टि से सत्य है, पारमार्थिक दृष्टि से नहीं।
सृष्टिवाद के विरुद्ध यह आक्षेप किया जा सकता है कि ईश्वर को विश्व का कारण मानना भ्रामक है, क्योंकि कारण और कार्य के स्वरूप में अन्तर है। क्या सोना मिट्टी का कारण हो सकता है? ईश्वर जो आध्यात्मिक है वह विश्व का कारण नहीं हो सकता है, क्योंकि विश्व भौतिक स्वरूप है। शंकर का इस आक्षेप के विरुद्ध उत्तर है कि जिस प्रकार चेतन जीव-मनुष्य से-अचेतन वस्तुओं-नाखून, केश आदि का निर्माण होता है उसी प्रकार ईश्वर से जगत् का निर्माण होता है। साधारणतः सृष्टिवाद के विरुद्ध कहा जाता है कि ईश्वर को जीवों का स्रष्टा मानने से ईश्वर के गुणों का खंडन हो जाता है। विश्व की ओर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि भिन्न-भिन्न जीवों के भाग्य में अन्तर है। कोई सुखी है तो कोई दुःखी है। यदि ईश्वर को विश्व का कारण माना जाय तो वह अन्यायी एवं निर्दयी हो जाता है। शंकर इस समस्या का समाधान कर्म-सिद्धान्त (Law of Karma) के द्वारा करते हैं। ईश्वर जीवों का निर्माण मनमाने ढंग से नहीं करता है, बल्कि वह जीवों को उनके पूर्व-जन्म के कर्मों के अनुकूल रचता है। जीवों के सुख-दुःख का निर्णय उनके पुण्य एवं, पाप के अनुरूप ही होता है इसीलये शंकर ने ईश्वर की तुलना वर्षा से की है जो पेड़-पौधे की वृद्धि में सहायक होता है, परन्तु उनके (पेड़-पौधे) स्वरूप को परिवर्तित करने में असमर्थ होता है।
परन्तु यहाँ यह पर प्रश्न उठता है कि ईश्वर ने विश्व का निर्माण किस प्रयोजन से किया है? यदि पर माना जाय कि ईश्वर ने किसी स्वार्थ के वशीभत होकर विश्व का निर्माण किया है तो ईश्वर की पूर्णता खंडित हो जाती है।शंकर इस समस्या का समाधान यह कहकर करते हैं कि सृष्टि ईश्वर का खेल है। ईश्वर अपनी क्रीड़ा के लिये ही विश्व की रचना करता है। सष्टि करना ईश्वर का स्वभाव है और सृष्टि के पीछे ईश्वर का अभिप्राय खोजना अमान्य है।

शंकर के दर्शन में नैतिकता और धर्म –

अद्वैत वेदान्त के आलोचक बहुधा यह कहा करते हैं कि शंकर के दर्शन में नैतिकता और धर्म का स्थान नहीं है। ऐसे आलोचकों का कहना है कि यदि शंकर के अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है तथा जगत् केवल आभासमात्र है तो पुण्य और पाप में कोई वास्तविक भेद नहीं हो सकता। यदि जगत् केवल छाया मात्र है तो पाप छाया से भी न्यून है। शंकर के दर्शन से धार्मिक प्रेरणा नहीं मिल सकती क्योंकि निरपेक्ष ब्रह्म’ आत्मा के अन्दर प्रेम तथा भक्ति की भावों को नहीं प्रज्वलित कर पाता है। अतः आलोचकों के मतानुसार शंकर के दर्शन में धर्म और नैतिकता का अभाव है परन्तु आलोचकों का उक्त विचार भ्रामक है।
शंकर के दर्शन का सिंहावलोकन यह प्रमाणित करता है कि उनके दर्शन में नैतिकता और धर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान है। शंकर के दर्शन में नैतिकता और धर्म का वही स्थान है जो ईश्वर, जगत्, सृष्टि का उनके दर्शन में है। उन्होंने व्यावहारिक दृष्टिकोण से नैतिकता और धर्म दोनों को सत्य माना है। नतिकता और धर्म की असत्यता पारमार्थिक दृष्टिकोण से विदित होती है परन्तु जो सांसारिक व्यक्ति है, जो बन्धनग्रस्त है, उसके लिए व्यवहारिक दृष्टिकोण से सत्य होने वाली वस्तुएॅ पूर्णतः यथार्थ है। शंकर के मतानुसार मुमुक्षु को वैराग्य अपनाना चाहिये। उसे स्वार्थ एवं अहम भावना का दमन करना चाहिए तथा अपने कर्मों को निष्काम की भावना से पालन करना चाहिये। शंकर वेदान्त अध्ययन के लिए साधन-चतुष्टय को अपनाने का आदेश देते हैं –

  1. नित्य और अनित्य पदार्थों के भेद की क्षमता ।
  2. लौकिक और पारलौकिक भोगों की कामना का त्याग।
  3. शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति और तितिक्षा जैसे साधनों से युक्त होना।
  4. मोक्ष-प्राप्ति के लिये दढ़-संकल्प का होना ।

इस प्रकार नैतिक जीवन ज्ञान के लिये नितान्त आवश्यक समझा जाता है। यद्यपि नैतिक कर्म साक्षात रूप से मोक्ष-प्राप्ति में साहाय्य नहीं देता है फिर भी यह ज्ञान की इच्छा को जाग्रत करता है। ज्ञान ही मोक्ष का एकमात्र साधन है अतः नैतिकता परोक्ष रूप से मोक्ष की प्राप्ति में सहायक है।
शंकर के अनुसार धर्म (Virtue) और अधर्म (Vice) का ज्ञान श्रुति के द्वारा होता है। सत्य, अहिंसा, उपकार, दया आदि धर्म हैं तथा असत्य, हिंसा, अपकार, स्वार्थ आदि अधर्म हैं। शंकर के दर्शन में उचित और अनुचित कर्म का मापदण्ड भी निहित है। उचित कर्म वह है जो सत्य को धारण करता है और अनुचित कर्म वह है जो असत्य से पूर्ण है। कल्याणकारी कर्म वे हैं जो हमें उत्तम भविष्य की ओर ले जाते हैं और जो कर्म हमें अधम भविष्य की ओर ले जाते हैं वे पापकर्म हैं।
शंकर के मत में आत्मा का ब्रह्म के रूप में तदाकार हो जाना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। मनुष्य स्वभावतः आत्मा को ब्रह्म से पृथक समझता है। ब्रह्म निर्गुण है, यद्यपि वह निगुर्ण है फिर भी ब्रह्म में उपासक अनेक गुणों का प्रतिपादन करता है जिसके फलस्वरूप वह सगुण हो जाता है। वह उपासना का विषय बन जाता है। उपासना में उपासक और उपास्य का द्वैत विद्यमान रहता है। ज्ञान के द्वारा हम सत्य का अनुभव यथार्थ रूप में करते हैं, परन्तु उपासना के द्वारा सत्य का अनुभव नाम और रूप की सीमाओं से किया जाता है। धीरे-धीरे उपासना के द्वारा उपासक और उपास्य के भेद का तिरोभाव हो जाता है और वह सत्य को वास्तविक रूप में जानने लगता है। जब उपासक को यह विदित हो जाता है कि ईश्वर जिसकी वह आराधना करता है उसकी आत्मा से अभिन्न है तब उसे उपासना क विषय से साक्षात्कार हो जाता है। इस प्रकार शंकर के अनुसार धर्म आत्म-सिद्धि (Self-realisation) का साधन है।
उपरोक्त विवरण से यह निष्कर्ष निकलता है कि धर्म पूर्णतः सत्य है और धर्म की सत्ता व्यावहारिक है। ज्योंही आत्मा का ब्रह्म से साक्षात्कार हो जाता है त्योंही धर्म निस्सार प्रतीत होने लगता है।

शंकर का दर्शन अद्वैतवाद क्यों कहा जाता है (Why is Sankara’s Philosophy Called Advaitavada)-

शंकर ने उपनिषद् के एकतत्ववादी प्रवृति को अद्वैतवाद के रूप में रूपान्तरित किया है। शंकर के दर्शन को एकतत्ववाद (Monism) कहने के बजाय अद्वैतवाद (Non-dualism) कहा जाता है। शंकर ने ने ब्रह्म को परम सत्य माना है। ब्रह्म की व्याख्या निषेधात्मक ढंग से की गई है। शंकर ने यह नहीं बतलाया है कि ब्रह्म क्या है, बल्कि उसने बतलाया है कि ब्रह्म क्या नहीं है। ब्रह्म की व्याख्या के लिये नेति-नेति को आधार माना गया है। निषेधात्मक प्रवृत्तिकरण शंकर में इतनी तीव्र है कि वह ब्रह्म को एक कहने के बजाय अद्वैत (Non-dualism) कहते है। शंकर का विचार है कि भावात्मक शब्द ब्रह्म को सीमित करते हैं इसलिये वह निर्गुण निराकार ब्रह्म को भावात्मक शब्दों में बाँधने का प्रयास नहीं करता है।
शंकर के दर्शन को अद्वैतवाद कहलाने का दूसरा कारण यह है कि वह ब्रह्म को छोड़कर किसी सत्ता को सत्य नहीं मानते है। ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्य है। ईश्वर, जगत्, सृष्टि, जीव इत्यादि की सत्यता का खंडन हुआ है। शंकर में अद्वैतवादी प्रवृत्ति इतनी तीव्र है कि उसने माया को भी असत्य माना है। माया को सत्य मानने से शंकर के दर्शन में द्वैतवाद चला आता। शंकर ने स्वयं सांख्य के द्वैतवाद की कटु आलोचना की है जो कि शंकर के अद्वैदवाद का परिचायक है।
शंकर ने आत्मा और ब्रह्म; ब्रह्म और जीव के सम्बन्ध की व्याख्या भी इस ढंग से की है जिससे उसका अद्वैतवाद का समर्थक होना सिद्ध होता है। जीव और ब्रह्म अभिन्न हैं। जिस प्रकार अग्नि और उसकी चिनगारियाँ अभिन्न हैं उसी प्रकार जीव और ब्रह्म अभिन्न हैं। आत्मा और ब्रह्म के सम्बन्ध के बारे में कहा जाता है कि दोनों वस्तुतः एक ही वस्तु के दो नाम हैं। शंकर ने मोक्ष के स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा है कि मोक्षावस्था में जीव ब्रह्म में विलीन हो जाता है। वह ब्रह्म के सदृश नहीं होता है, बल्कि स्वयं ब्रह्म से एकाकार हो जाता है। इस प्रकार दोनों के बीच जो द्वैत अज्ञान के कारण रहता है उस द्वैत का अन्त हो जाता है। स्पष्ट है कि द्वैतवाद को अद्वैतवाद कहलाने के अनेक कारण हैं।

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