window.location = "http://www.yoururl.com"; Shivaji : Treaty of Purandar, 1665 | शिवाजी : पुरन्दर की संधि, 1665

Shivaji : Treaty of Purandar, 1665 | शिवाजी : पुरन्दर की संधि, 1665



पुरन्दर की संधि, 1665 ई0:

पुरन्दर की सन्धि मराठा इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। पूना में रात्री में शाइस्ता खॉ पर आक्रमण तथा सूरत की लूट मुगलों पर प्रत्यक्ष प्रहार था जो औरंगजेब के लिए अपमानजनक था। फलस्वरुप सितम्बर 1664 ई0 में औरंगजेब ने राजकुमार मुअज्जम तथा राजा जसवन्त सिंह को दक्षिण भारत में स्थानांतरित करके उसके स्थान पर आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह को दक्षिण भारत में मुगल सूबेदार के रुप में नियुक्त किया। जयसिंह उस समय मुगल दरबार में सबसे प्रमुख हिन्दू सामन्त थे। 30 सितम्बर 1664 ई0 को मुगल सम्राट ने उन्हे दक्षिण भारत जाने की इजाजत दी। उनके साथ-साथ उनका पुत्र तीरथ सिंह, दिलेर खॉ तथा दाउदखॉ कुरैशी जैसे महत्वपूर्ण सेनापति भेजे गये। प्रमुख तोपचि के रुप में निकोलो मनुची भी इस सेना में विद्यमान था। जी0एस0 सरदेसाई ने अपनी पुस्तक ‘‘ न्यू हिस्ट्री ऑफ द मराठा‘‘ में लिखते है कि -‘‘इतनी बडी सेना इससे पूर्व दक्षिण भारत नही भेजी गयी थी।‘‘
राजा जयसिंह मार्च 1665 ई0 में पूना पहुॅचा। महाराष्ट्र पहुॅचने से पूर्व ही राजा जयसिंह ने शिवाजी के विरुद्ध बीजापुर के शाह तथा अंग्रेजी तथा पुर्तगाली नौसैनिक सहायता का आश्वासन प्राप्त कर लिया था। इसके अतिरिक्त उसने अनेक प्रकार के प्रलोभन देकर शिवाजी के अनेक सदस्यों को भी अपनी ओर मिला लिया था। अनेक स्रोतों से यह भी पता चलता है कि अपने सन्देशवाहकों के द्वारा जयसिंह ने यह स्पष्ट कर दिया था कि मुगल साम्राज्य में हिन्दूओं का सम्मान होता है। अगर शिवाजी भी मुगल अधीनता स्वीकार कर लेंगे तो उन्हे भी दरबार में उच्च पद मिलेगा लेकिन इस प्रयास में उसे सफलता नही मिली।
मिर्जा राजा जयसिंह को दक्षिण भेजते समय औरंगजेब ने यह स्पष्ट निर्देश दिया था कि कोंकण क्षेत्र में शिवाजी की शक्ति को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाय क्योंकि वह क्षेत्र ही शिवाजी की आर्थिक समृद्धि का आधार है। लेकिन जयसिंह ने ऐसा नहीं किया क्योंकि वह जानता था कि कोंकण क्षेत्र में शिवाजी को पराजित करना सम्भव नही है। साथ ही साथ वह यह भी देख चुका था कि शाइस्ता खॉ, अफजल खॉ तथा जसवन्त सिंह की पराजय कोंकण क्षेत्र में ही हुई है। परिणामतः जयसिंह ने शिवाजी को पठारी क्षेत्र में पराजित करने की नीति अपनाई। मार्च के अन्तिम सप्ताह में जयसिंह ने सासावाड नामक स्थान पर अपना मुख्य शिविर स्थापित किया और दिलेर खॉ को पुरन्दर तथा दाउदखॉ कुरैशी को राजगढ का घेरा डालने के लिए भेजा। 14 अप्रैल का दिलेर खॉ ने बज्रगढ पर अपना अधिकार कर लिया। पुरन्दर के दुर्ग का किलेदार मुरारबाजी पराजित हुआ। ऐसा प्रतीत होने लगा कि पुरन्दर बहुत दिनों तक स्वतंत्र नही रह पायेगा। जिस समय जयसिंह ने स्वराज पर आक्रमण किया था उस समय शिवाजी भीमगढ में थे। अप्रैल के मध्य में जब वो पुरन्दर पहुॅचे तबतक पुरन्दर में मराठों की स्थिती काफी खराब हो चुकी थी।
बहुत सोच-विचार करने के बाद शिवाजी ने मुगलों के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निश्चय किया। 11 जून 1665 ई0 को छः ब्राह्मण सलाहकारों के साथ शिवाजी जयसिंह से मिलने गये। लगभग चार दिनों तक विचार-विमर्श करने के बाद जयसिंह और शिवाजी के बीच एक सन्धि सम्पन्न हुई जिसे मराठों के इतिहास में पुरन्दर की सन्धि के नाम से जाना जाता है। शिवाजी के जयसिंह के पास जाने तथा वहॉ 4 दिन रुकने के दौरान क्या घटनाएॅ हुई – इस सम्बन्ध में हमे तीन स्रोतों से जानकारी मिलती है –

  • जयसिंह का सरकारी विवरण
  • मनुची का वृतान्त
  • फारसी भाषा में लिखा गया एक गुमनाम व्यक्ति का विवरण जिसको ‘‘शिवाजी का जयसिंह के नाम पत्र‘‘ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है।

जयसिंह के सरकारी विवरण का सारांश इस प्रकार है – जब मुगलों का बज्रगढ पर अधिकार हो गया तो 20 मई को शिवाजी का प्रमुख सलाहकार रघुनाथ पण्डित अधीनता और सन्धि का एक प्रस्ताव लेकर मेरे पास आया। मैने शिवाजी को सूचना भिजवाई कि वो आत्मसमर्पण कर दे। 11 जून को शिवाजी मुझसे मिलने आये और चार दिनों के वार्तालाप के दौरान सन्धि की शर्ते निश्चित की गई। तत्पश्चात जब शिवाजी वापस पुरन्दर लौटने लगे तो उनके द्वारा समर्पित किलों पर अधिकार करने के लिए तीरथ सिंह भी पुरन्दर आया।
मनुची के विवरण से हमे मात्र सैनिक व्यवस्था के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है, कोई महत्वपूर्ण घटना का विवरण नही मिलता है। जबकि गुमनाम व्यक्ति के फारसी विवरण से हमें निम्न सूचनाएॅ मिलती है –
प्रारम्भ में शिवाजी ने जयसिंह के अन्दर हिन्दूत्व की भावना जगाने तथा राज्य निर्माण में उनसे सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया। शिवाजी ने अफजल खॉ हत्याकाण्ड के सम्बन्ध में सफाई देते हुए कहा कि आत्मरक्षा में उन्होने अफजल खॉ की हत्या की थी। शिवाजी ने जयसिंह से हिन्दू होने के नाते अत्याचारी इस्लामी शासन के खिलाफ धार्मिक और राजनीतिक स्वतंत्रता स्थापित करने में सहयोग की अपील की। शिवाजी ने स्पष्ट रुप से कहा कि मुगल सम्राट औरंगजेब की सत्ता राजपूतों के समर्थन पर टिकी है और यह बडे शर्म की बात है कि जयसिंह जैसा महान राजपूत शासक मुगल सम्राट के निर्देशन में हिन्दू विरोधी कार्य कर रहा है। शिवाजी के बातों का उत्तर देते हुए जयसिंह ने कहा कि जो भी हो औरंगजेब हमारा स्वामी है और उसके प्रति वफादार रहना हमारा कर्तव्य है। इसपर शिवाजी ने कहा कि- आप बहुत कर्तव्यपरायण बनते है तो उस समय आपकी वफादारी कहॉ चली गयी थी जब आपने अपने स्वामी शाहजहॉ और दाराशिकोह के खिलाफ औरंगजेब का साथ दिया था। शिवाजी ने कहा – मित्र, आप औरंगजेब से सावधान रहे, आप मेरा साथ दे या न दे, मै अपने निर्णय पर प्रतिबद्ध हूॅ।
वस्तुतः इस स्रोत से प्राप्त सूचना सबसे अधिक प्रमाणिक मानी जाती है। इस प्रकार अन्ततः सितम्बर 1665 ई0 में सम्राट औरंगजेब ने भी इस सन्धि पर अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी।
पुरन्दर की सन्धि की मुख्य शर्ते निम्नलिखित है

  • शिवाजी ने अपने लगभग 20 या 23 दुर्ग मुगलों को सौंप दिये।
  • शिवाजी ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली।
  • यह निश्चित हुआ कि शिवाजी स्वयं औरंगजेब से मिलने आगरा जायेंगे।
  • शिवाजी के पुत्र शंभाजी को मुगल सेवा में सम्मिलित कर लिया गया।
  • यह निश्चित हुआ कि बीजापुरी अभियान में शिवाजी मुगलों की सहायता करेंगे।

सन्धि का महत्व और मूल्यांकन –
पुरन्दर के सन्धि के सम्बन्ध में इतिहासकारों ने भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किये है। जी0एस0 सरदेसाई ने अपनी पुस्तक ‘‘द मेन करेन्ट्स ऑफ द मराठा‘‘ में लिखा है कि – पुरन्दर का समझौता शिवाजी के लिए मैत्रीपूर्ण समझौता था लेकिन यह कथन स्वीकार करने योग्य नही है। शर्तो के मुताबिक शिवाजी ने अपने 23 दुर्ग मुगलों को सौंपे थे, उनका अपना पुत्र मुगल सम्राट की सेवा करें, यह सब मैत्रीपूर्ण कैसे हो सकता है। एम0जी0 रानाडे ने अपनी पुस्तक ‘‘राइज ऑफ द मराठा‘‘ में लिखते है कि – पुरन्दर का समझौता करना शिवाजी की एक गहरी राजनीतिक चाल थी। रानाडे का मानना है कि शिवाजी ने उत्तर भारत की जनता की भावनाओं को जानने-समझने के लिए इस प्रकार की सन्धि की। लेकिन शिवाजी ने सिर्फ जनता की भावनाओं को जानने के लिए मुगल अधीनता तथा पुरन्दर की सन्धि की अपमानजनक शर्तो के स्वीकार किया था- ऐसा कहना या मानना गलत है।
जी0एस0 सरदेसाई ने ‘‘न्यू हिस्ट्री ऑफ द मराठा‘‘ में लिखा है कि – पुरन्दर का समझौता शिवाजी की क्षणिक पराजय थी और यह तो केवल दिखावा मात्र था, ‘‘ इस कथन को भी हम स्वीकार नही कर सकते क्योंकि शिवाजी के साथ जो कुछ भी हुआ वह सब वास्तविकता थी, दिखावा बिल्कुल भी नही।
जहॉ तक इस सन्धि के महत्व का प्रश्न है – पुरन्दर की सन्धि मिर्जा राजा जयसिंह की महान कूटनीतिक प्रतिभा का परिचायक है क्योंकि दक्षिण भेजते समय औरंगजेब ने जयसिंह से सन्धि करने से मना किया था फिर भी जयसिंह ने ऐसा किया। इसका प्रमुख कारण यह था कि मुगल लम्बे समय तक महाराष्ट्र में शिवाजी के साथ संघर्ष नही कर सकते थे क्योंकि वहॉ का भौगोलिक परिवेश मुगलां के अनुकूल नहीं था। इसके अतिरिक्त जयसिंह ने शिवाजी के साथ सन्धि न की गई होती तो संभव था कि शिवाजी ने कुछ ही दिनों के अन्दर बीजापुर और गोलकुण्डा के साथ मुगलों के विरुद्ध त्रिगुट बना लिया होता। इस सन्धि का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि यह मुगलों और मराठों के बीच एक ऐसा समझौता था जिसका उद्देश्य बीजापुर का विभाजन करना था। इस सन्धि के तुरन्त बाद जयसिंह ने बीजापुर पर आक्रमण की तैयारी की जिसमे मराठों का सहयोग अपेक्षित था।
वास्तव में मराठा-मुगल सम्बन्धों में यह पहला और अन्तिम अवसर था जब शिवाजी ने मुगलों की अधीनता स्वीकार की थी। अप्रत्यक्ष रुप से ही सही, पहली बार मुगलों के सम्मुख शिवाजी की भारी पराजय हुई और यदि शिवाजी पराजित हुए थे तो हमें निष्पक्ष होकर निर्विकार होकर हमें स्वीकार करना चाहिए।

शिवाजी का आगरा जाना और वहा से बच निकलने की घटना:

पुरन्दर की सन्धि न तो शिवाजी के लिए मैत्रीपूर्ण था और न ही दिखावा। इस अवसर पर पहली तथा आखिरी बार मुगलों के सम्मुख शिवाजी की अपमानजनक पराजय हुई थी। पुरन्दर की सन्धि में एक शर्त यह भी थी कि शिवाजी स्वयं औरंगजेब से मिलने आगरा जाएॅगें। जयसिंह मध्यस्थ बनकर शिवाजी तथा मुगलों के बीच एक स्थायी समझौता कराना चाहता था। एक तरफ सन्धि से पूर्व जयसिंह ने शिवाजी के सामने यह स्पष्ट किया था कि औरंगजेब शिवाजी के साथ स्थायी मित्रता तथा शान्ति चाहता है तो दूसरी तरफ सन्धि के पश्चात उसने औरंगजेब को भी समझाने का प्रयास किया कि शिवाजी से मित्रता करना मुगलों के लिए लाभदायक है क्योंकि बीजापुर और गोलकुण्डा जैसे शिया राज्यों के विजय अभियान में शिवाजी का सहयोग लिया जा सकता है। लेकिन जयसिंह की यह बडी भारी भूल थी कि वह सम्राट औरंगजेब के चरित्र को न समझ सका। यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि शिवाजी तथा औरंगजेब दोनों एक दूसरे पर विश्वास नही करते थे। औरंगजेब तो स्वभाव से ही शंकालु प्रवृति का था। इस विषम परिस्थितियों में भी शिवाजी स्वयं औरंगजेब से मिलने आगरा गये। इसके लिए प्रमुख रुप से तीन कारण बतलाए जा सकते है –

  • शिवाजी यह जानना चाहते थे कि उत्तर भारत में स्वराज का विस्तार करते समय वहॉ की जनता और राजनीतिक शक्तियॉ उनका कहॉ तक साथ देंगी।
  • जैसा कि मिर्जा राजा जयसिंह ने आश्वासन दिया था और शिवाजी को भी यह आशा थी कि वे औरंगजेब से जंजीरा टापू प्राप्त करने में सफल हो सकते है।
  • शिवाजी दक्षिण के मुगल सूबों की चौथ और सरदेशमुखी प्राप्त करने के लिए औरंगजेब से मिलना चाहते थे।

इस प्रकार 5 मार्च 1666 ई0 को राजगढ से शिवाजी अपने पुत्र शंभाजी तथा लगभग चार हजार विश्वस्त अनुचरों के साथ आगरा के लिए रवाना हुए। 5 अप्रैल को जब वे रास्ते में थे तो उन्हे औरंगजेब का एक पत्र मिला जिसमें औरंगजेब ने लिखा था कि – ‘‘मुझे आपके आने की सूचना मिल गयी है, आप निश्चिंत होकर हमारे पास आइए, हम आपका सम्मान करेंगे और कुछ समय पश्चात आपकों छोड दिया जायेगां।
कुल मिलाकर पॉच सौ मील की यात्रा दो महीने में पूरी की गई। 12 मई को आगरे किले का दीवान-ए-खास में शिवाजी को औरंगजेब के सम्मुख पेश किया गया। इसके बाद लगभग तीन महीने तक शिवाजी आगरा में नजरबंद रखे गये। इन तीन महीनों में क्या-क्या घटित हुआ और वे कैसे बन्दीगृह से निकल भागे। इस सम्बन्ध में तीन स्रोतों से हम सही निष्कर्ष पर पहुॅच सकते है-

  • कवि परमानन्द की ‘‘शिव भारत‘‘ नामक पुस्तक।
  • फ्रांसीसी यात्री थेवनाट द्वारा लिखा गया विवरण।
  • जयपुर के राजकीय संग्रहालय में हिन्दी भाषा के बीस हिन्दी पत्र जिसे आगरे के मुगल दरबार में उपस्थित संवाद लेखकों ने लिखकर आमेर के शासक जयसिंह के पास भेजा था।

इन तीनों स्रोतों का सारांश इस प्रकार है — शिवाजी के राजगढ से चलने के पूर्व ही मिर्जा राजा जयसिंह ने शिवाजी के जीवन तथा सुरक्षा की लिखित गारण्टी दी थी। 12 मई 1666 ई0 को जबकि सम्राट औरंगजेब का 50वॉं जन्मदिन था, आगरे के दीवान-ए-खास में मीरबक्शी असद खॉ ने सम्राट औरंगजेब के सम्मुख शिवाजी को प्रस्तुत किया। शिवाजी और उनके पुत्र ने सम्राट को नजराने भेंट किये। तत्पश्चात शिवाजी को ले जाकर एक कोने में खडा कर दिया गया। उस समय जन्मदिन के अवसर पर खिल-अत अर्थात उपहार बॉटी जा रही थी लेकिन शिवाजी से सम्राट ने न ही कोई बात की और न ही उन्हे खिल-अत भेंट की गई। कुछ देर तक वे शान्त रहे तत्पश्चात वे क्रोधित हो गये। शिवाजी को समझाने के लिए औरंगजेब ने जयसिंह के पुत्र रामसिंह को भेजा। इस पर शिवाजी ने कहा – तुम जानते हो, तुम्हारे बाप जानते है और तुम्हारे बादशाह जानते है कि मै कैसा आदमी हूॅ………..। रामसिंह ने पुनः समझाने की कोशिश की परन्तु शिवाजी अपने हठ पर अडे रहे और बोले – मेरी मौत का दिन आ गया है, या तो तुम मुझे मारोगे या मै आत्मघात कर लूॅगा। मेरा सिर काटकर ले जाना चाहते हो तो ले जाओ लेकिन बादशाह के सामने मै कदापि नही जाउॅगा। तत्पश्चात दरबारी शिष्टाचार का उल्लंघन करते हुए बादशाह की तरफ पीठ करके शिवाजी बाहर निकल गये। बादशाह के कहने पर रामसिंह उन्हे अपने घर ले गया और उसके बाद 14 मई 1666 ई0 से 17 अगस्त 1666 इ्र्र0 तक उन्हे नजरबन्द रखा गया। अचानक 17 अगस्त को ही शिवाजी बन्दीगृह से भाग निकले। यद्यपि शिवाजी की परिस्थितीयॉ प्रतिकूल थी और अचानक शिवाजी ने बन्दीगृह से बच निकलने की योजना बनाई लेकिन यह योजना कब और कैसे बनाई इस सम्बन्ध में कोई भी स्रोत स्पष्ट जानकारी प्रदान नही करता है।
उपरोक्त वर्णित तीनों स्रोतों से यह पता चलता है कि शिवाजी बीमार हो गये अथवा बीमारी का बहाना कर लिया और ब्राह्मणों को दान देने के लिए फलों और मिठाईयों के टोकरे मॅगवाने शुरु कर दिये और एक दिन वापस जाते हुए टोकरों में अपने पुत्र सहित बैठकर वे भाग निकले। विभिन्न स्थानों पर पहले से ही उनके द्वारा नियुक्त व्यक्ति मिलते गये और भेष बदलते हुए लगभग 25 दिन के बाद वे राजगढ पहुॅचे।
यह घटना कहॉ तक सच है वर्तमान समय में हम इसकी जॉच तो नही कर सकते है लेकिन कुछ भी हो शिवाजी का यह कार्य बहुत साहसिक था। यदि तथ्यों का सही अवलोकन किया जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि औरंगजेब ने विश्वासघात करने की चेष्टा की थी। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि औरंगजेब ने यह चेष्टा की थी कि –

  • शिवाजी की हत्या कर दी जाय।
  • शिवाजी का धर्म परिवर्तन कर सहयोग प्राप्त किया जाय।
  • शिवाजी के साथ मित्रता कायम कर उन्हे जाने दिया जाय।
  • शिवाजी को किसी किले अथवा दुर्ग में कैद कर लिया जाय।

विभिन्न स्रोतों से यह भी पता चलता है कि औरंगजेब शिवाजी को मरवाने का निर्णय ले चुका था और इसके लिए वह किसी बहाने की तलाश में था। वह शिवाजी को प्रत्यक्षतः नही मारना चाहता था क्योंकि राजपूत उसके विरोधी थे। थेवनाट लिखता है कि – जब शिवाजी को नजरबंद किया गया और औरंगजेब पर शिवाजी की हत्या का दबाव बढने लगा तो उस समय जयसिंह ने औरंगजेब से कहा था कि – सम्राट का वादा महान है और सम्राट की तरफ से हमने शिवाजी के जीवन सुरक्षा की लिखित गारण्टी दी है। अगर शिवाजी के साथ कोई अप्रत्याशित घटना होती है तो सम्पूर्ण राजपूत मुगल साम्राज्य के विरुद्ध बगावत कर देंगे।
घटना का महत्व और मूल्यांकन –
शिवाजी का आगरा जाना और वहॉ से बचकर भाग निकलना अपने आप में एक साहसिक कदम था। वास्तव में शिवाजी आगरा इसलिए गये थे कि वे मुगल साम्राज्य की शक्ति तथा साधनों की सही जानकारी प्राप्त करना चाहते थे ताकि उचित अवसर आने पर वे उसके विरुद्ध अपने भावी अभियानों को अच्छी तरह संगठित तथा संचालित कर सके। इस घटना ने औरंगजेब और मिर्जा राजा जयसिंह के मध्य एक गहरा तनाव उत्पन्न कर दिया। बादशाह को यह विश्वास हो गया कि शिवाजी को भगाने में जयसिंह के पुत्र रामसिंह का ही हाथ था। फलस्वरुप सर्वप्रथम उसने उसका दरबार में आना निषिद्ध कर दिया और तत्पश्चात उसे नौकरी से अलग कर दिया गया।
आगरा जाने के पश्चात शिवाजी ने यह अनुभव किया कि उत्तर भारत में भी हिन्दवी साम्राज्य की स्थापना की जा सकती है और वहॉ की जनता उनको अपना पूरा-पूरा सहयोग तथा समर्थन देगी। शिवाजी ने यह भी महसूस किया कि मुगल साम्राज्य भीतर से खोखला हो चुका है। कुछ इतिहासकार इसी समय से मुगल साम्राज्य का पतन देखते है और यदि तथ्यों का सही रुप से अवलोकर किया जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि औरंगजेब का पतन यही से प्रारंभ होता है।
मुगलों के साथ सन्धि, 1667-69 ई0
बन्दी जीवन और कठिन लम्बी यात्रा के कारण शिवाजी का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया था जिसके कारण वे लम्बे समय तक विश्राम करना चाहते थे। नवीन मुगल गवर्नर शहजादा मुअज्जम आरामतलब व्यक्ति था और जसवन्त सिंह शिवाजी के प्रति सहानुभूति रखता था। औरंगजेब कुछ समय के लिए उत्तर पश्चिमी सीमा पर फारस के हमले से सशंकित था। इन समस्त परिस्थितियों में शिवाजी लगभग तीन वर्ष तक चुपचाप रहे। कुछ महीने बाद उन्होने औरंगजेब को पत्र लिखा कि वह सम्राट की ओर से दक्षिण में युद्ध करने को तैयार है। दूसरी तरफ जसवन्त सिंह को भी एक पत्र में लिखा कि यदि मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा शिवाजी को क्षमा कर दिया जाय तो वह शम्भाजी को शहजादा मुअज्जम की सेवा में भेजने के लिए तैयार है। इस प्रकार मुअज्जम की सिफारिश पर औरंगजेब ने शिवाजी की ‘राजा‘ की उपाधि को मान्यता दे दी।
शिवाजी ने यह तीन वर्ष राज्य को सुदृढ और सुव्यवस्थित करने में लगाये। उन्होने नये सिरे से अपने शासन का संगठन किया जिससे न केवल उनकी शासन व्यवस्था मजबूत हुई अपितु उनके राज्य की जनता की अत्यधिक भलाई हुई। सबसे बडी बात इन तीन वर्षो के अवकाश में मराठाओं ने अपनी उर्जा और शक्ति को पुर्नगठित किया।
सूरत की दूसरी लूट, 1670 ई0
औरंगजेब का हृदय साफ नहीं था और उसे सन्देह था कि मुअज्जम शिवाजी का मित्र है अतः उसने शिवाजी को दुबारा जाल में फॅसाने की योजना बनायी। उसने निश्चय कर लिया कि यदि वह इस योजना में असफल हुआ तो वह शम्भाजी को गिरफ्तार कर कैदी बनाकर रखेगा। शीध्र ही शिवाजी और मुगलों का मैत्री सम्बन्ध टूट गया क्योंकि औरंगजेब शिवाजी की नयी जागीर के एक भाग को कुर्क करके उससे एक लाख रुपये वसूल करना चाहता था जो उसने शिवाजी को 1666 ई0 में आगरा आने के लिए पेशगी दिया था। अतः शिवाजी ने अपनी फौज को मुगल सेवा में वापस बुलाकर मुगल प्रदेश पर चढ़ाई की तैयारी प्रारंभ कर दी। एक के बाद एक किले जैसे कोण्डाना, कल्याण, भिवण्डी, माहुली आदि का पतन होता गया और मुगल प्रदेश के अनेक भाग में लूट-पाट प्रारंभ हो गयी। वास्तव में मराठों की यह सफलता शिवाजी के साहस के साथ-साथ शहजादा मुअज्जम और दिलेर खॉ के बीच उत्पन्न मतभेद के कारण हुई थी। शहजादा और दिलेर खॉ की कलह ने गृहयुद्ध का रुप ले लिया जिसका लाभ उठाकर शिवाजी ने 13 अक्टूबर 1670 ई0 को सूरत पर धावा बोलकर उसे दुबारा लूटा। तीन दिन की लूट में शिवाजी के हाथ लगभग 66 लाख रुपये का माल लगा। देश के सबसे समृद्ध बन्दरगाह की बड़ी हानि हुई जिससे इसका व्यापार लगभग चौपट हो गया। दाऊद खॉं कुरैशी ने शिवाजी को सूरत में लोटने पर मार्ग में रोकना चाहा किन्तु मराठा सरदार ने लूट के सामान को चालाकी से सुरक्षित घर भेजकर दाउदा खॉ को हरा दिया।
इसके बाद शिवाजी ने बरार और खानदेश पर अचानक धावा बोलकर विजय प्राप्त की। अब शिवाजी मुगलों के जिस प्रदेश से भी गुजरे उन्होंने वही से चौथ वसूल करना आरम्भ कर दिया। उन्होंने घोषणा कर दी कि महाराष्ट्र उनका है, मुगलों का नहीं। हालॉकि इस हमले से औरंगजेब काफी आग बबूला हुआ और दक्षिणी सूबेदार बदलकर शिवाजी को नियंत्रित करने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु उसे कोई खास सफलता नही मिलीं।

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