प्रारंभिक चरण से ही मराठा सरदार अपने लिए राज्य की उपाधि का प्रयोग करते थे परन्तु इसका तात्पर्य राजत्व से नही था। संभवतः प्राचीन काल में चन्द्रगुप्त मौर्य के बाद किसी भी शासक ने हिन्दू विधान के अनुसार अपना राज्याभिषेक नही किया था। शिवाजी ने 5 जून 1674 ई0 को रायगढ में अपना राज्याभिषेक करके प्राचीन हिन्दू परम्परा को पुनर्जिवित किया और भारत के एक भू-भाग में हिन्दू राज्य की पुनर्स्थापना की।
राज्याभिषेक के कारणों पर प्रकाश डालते हुए जदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक ‘ शिवाजी एण्ड हिज टाइम्स‘ में लिखा है कि ऐसा करना अधिकांशतः व्यवहारिक कारणों तथा अंशतः धार्मिक कारणों से आवश्यक हो गया था। संक्षेप में, जदुनाथ सरकार के अनुसार इसके लिए निम्न कारण उत्तरदायी थे –
- यद्यपि प्रत्येक दृष्टिकोण से उनकी स्थिती सुदृढ थी लेकिन सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से मुगल सम्राट औरंगजेब के लिए वह केवल जमींदार मात्र थे, आदिलशाह के लिए वह एक सामन्त जागीरदार के बागी पुत्र थे। वे किसी भी राजा के साथ राजनीतिक स्तर पर समानता के अधिकारी न थे।
- राज्याभिषेक न होने के कारण उनके वादों में राज्य के शासक की सार्वजनिक प्रतिज्ञाओं की पवित्रता और निरन्तरता नही रह सकती थी और वह किसी सन्धि पर हस्ताक्षर नही कर सकते थे।
- शिवाजी को अभी तक लोग विदेशी और लुटेरे ही समझते थे।
- शक्ति के बल पर अर्जित सम्पति और भू-भाग को वैधता प्राप्त करने के लिए राज्याभिषेक आवश्यक था।
- एक औपचारिक राज्याभिषेक द्वारा ही शिवाजी को एक राजा के रुप में देखा जा सकता था।
- शिवाजी का राज्याभिषेक धार्मिक दृष्टि से भी अनिवार्य था।
महाराष्ट्र की जनता उन्हे हिन्दू धर्म का संरक्षक तथा उद्धारक मानती थी। वे उनकी स्थिती एक स्वतंत्र राज्य के पद पर औपचारिक रुप से आसीन करके हिन्दू जाति का पूर्ण राजनीतिक उत्थान चाहते थे। इन समस्त तथ्यों की पृष्ठभूमि में शिवाजी को राज्याभिषेक की आवश्यकता महसूस हुइ्र्र।
प्राचीन हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार राजा का पद केवल क्षत्रिय ही ग्रहण कर सकता है परन्तु महाराष्ट्र के रुढिवादी ब्राह्मण शिवाजी को रक्त से क्षत्रिय नही मानते थे। अतः शिवाजी ने काशी निवासी प्रसिद्ध ज्योतिष विश्वेश्वरजी से राज्याभिषेक की विधि को सम्पन्न कराने की प्रार्थना की। तात्कालीन समय में विश्वेश्वरजी गागभट्ट के नाम से प्रसिद्ध थे। शिवाजी ने उनको काशी से बुलाकर अपनी जन्मकुण्डली बनवाई। गागभट्ट ने यह सिद्ध किया कि शिवाजी रक्त से क्षत्रिय और चिŸाड राजपूत राजवंश से सम्बन्धित है। तत्पश्चात राज्याभिषेक की प्रक्रिया प्रारंभ हुई और इसके सम्बन्ध में शास्त्रों का मंथन करने के लिए अनेक विद्वान ब्राह्मण नियुक्त कर दिये गये। भारत के विभिन्न प्रान्तों के विद्वान निमंत्रित किये गये। भारत की लगभग सभी सरकारों के राजदूत और राज्य प्रतिनिधियों के अतिरिक्त अंग्रेज व्यापारी तथा अन्य युरोपिय व्यापारियों के प्रतिनिधियों ने भी इस महोत्सव में भाग लिया। इससे पूर्व अपने पूर्वजों की ओर से क्षत्रिय धर्म का पालन न करने के कारण शिवाजी को 28 मई 1674 ई0 को प्रायश्चित करना पडा। गागाभट्ट ने इस अवसर पर उन्हे जनेऊ धारण करवाया। हालॉकि उनके राज्याभिषेक की तिथियों को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। जब शिवाजी महाराष्ट्र के प्रसिद्ध मन्दिरों के दर्शन कर लौट आये तब 1674 ई0 के मध्य में राज्याभिषेक का कार्य आरंभ हुआ। 8 जून को उन्होने अपनी जीवित पत्नियों के साथ क्षत्रिय विधि से पुनः विवाह किया। 14 जून को राज्याभिषेक का शुभ मुहुर्त था। सोने के आठ घडों में पवित्र नदियों का जल भरा गया जिन्हे लेकर आठ मंत्री आठ कोनों पर खडे हुए फिर उन्होने इस जल को शिवाजी , उनकी रानी तथा युवराज के सिरों पर डाला। गागभट्ट ने शिवाजी महाराज के उपर राजकीय छत्र लगाकर उन्हे छत्रपति की उपाधि से विभूषित किया।
ग्राण्ड और डफ ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री आफ द मराठा‘ में लिखते है कि – अनेक विधिपूर्वक संस्कार और प्रत्येक शास्त्रोक्त करने के पश्चात शिवाजी रायगढ में 14 जून 1674 ई0 को सिंहासनारुढ हुए। मुख्य संस्कार जी0एस0 सरदेसाई की पुस्तक ‘‘न्यू हिस्ट्री आफ द मराठा‘ के अनुसार – 14 जून 1674 ई0 को सूर्योदय के एक घण्टा पूर्व सम्पन्न हुआ। जब शिवाजी सिंहासन पर बैठ गये तो उनपर पवित्र जल छिडका गया। इसके बाद उनकी आरती उतारी गई और ऊॅचे आवाजों में ‘‘शिवाजी की जय‘‘ के नारे लगाये गये। राज्याभिषेक के पश्चात शिवाजी का एक विशाल जुलूस भी निकाला गया।
निश्चलपुरी गोस्वामी नाम का एक प्रसिद्ध तांत्रिक शिवाजी का पुरोहित था जिसने बताया कि गागभट्ट ने जो राज्याभिषेक कराया वह अशुभ मुहुर्त में हुआ था और उसमें तांत्रिक विधि को छोड दिया था। उसने यह भी बताया कि इसी कारण उनकी माता जीजाबाई का देहान्त राज्याभिषेक के दिन से बारह दिन के भीतर हो गया और शिवाजी पर अनेक आपत्तियॉ आई। शिवाजी ने इसी तांत्रिक की सलाह से 4 अक्टूबर 1674 ई0 को अपने राज्याभिषेक का दूसरा समारोह तांत्रिक विधि से मनाया। इस प्रकार पहला राज्याभिषेक वैदिक रीति से करवाया गया था जबकि दूसरा राज्याभिषेक तांत्रिक विधि से कराया गया।
राज्याभिषेक का महत्व :
जी0एस0 सरदेसाई ने राज्याभिषेक के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि – जनसाधारण का ध्यान आकृष्ट करने तथ अपने आदर्शो की पुष्टि करने के लिए शिवाजी का राज्याभिषेक करना आवश्यक था। उनके राज्याभिषेक ने हिन्दूओं के अतिरिक्त समकालीन मुस्लिम तथा ईसाई शक्तियों को यह अनुभव करा दिया कि हिन्दू अब सही अर्थो में अपनी भूमि के स्वयं मालिक है तथा अब और अधिक धार्मिक उत्पीडन सहन नहीं किया जा सकता है। राज्याभिषेक के फलस्वरुप स्वराज्य में पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता की स्थापना की गई। राज्याभिषेक से इस भ्रान्तिपूर्ण अवधारणा का भी अन्त हुआ कि शिवाजी तथा मराठे मात्र लुटेरे है।
शिवाजी के राज्याभिषेक के अवसर पर ही मराठा संविधान औपचारिक रुप से लागू किया गया। इसी समय अष्टप्रधान प्रणाली भी औपचारिक रुप से प्रचलित की गई। इस अवसर पर शिवाजी ने तीन उपाधिया ग्रहण की –
- क्षत्रिय कुलावतन्स
- सिंहासनाधिश्वर
- महाराजा छत्रपति अर्थात छत्र धारण करने वाला।
राज्याभिषेक के अवसर पर ही शिवाजी ने एक सम्वत चलवाया जिसे अविशेक सम्वत् या राजशक कहते है। यह सम्वत् मराठों में 1818 ई0 तक चला। इसी अवसर पर शिवाजी ने मराठी भाषा को राजभाषा घोषित किया। राजकीय कार्यो में संस्कृत शब्दावलियों को विशेष महत्व दिया गया। इसी समय उनके आदेश से संस्कृत का एक शब्दकोष बनाया गया जिसका नाम ‘राजकहवार कोश‘ था।
यहॉ यह उल्लेखनीय और स्वाभाविक है कि शिवाजी के राज्याभिषेक की घटना से मुगल सम्राट अप्रसन्न ही हुआ होगा। इसके अतिरिक्त बीजापुर और गोलकुण्डा के शासकों के उपर इस घटना का क्या प्रभाव पडा- इस सम्बन्ध में किसी भी स्रोत से हमे कोई स्पष्ट जानकारी नही मिलती है। दूसरी तरफ शिवाजी के राज्याभिषेक की घटना से हिन्दू बहुत प्रष्फुल्लित हुए। उनमें आशा की किरण और उत्साह की भावना उत्पन्न हुई और समस्त हिन्दूओं ने शिवाजी को अपना नवीन रक्षक स्वीकार कर लिया।
शिवाजी ने अपने राज्याभिषेक द्वारा इस भ्रान्तिपूर्ण अवधारण का भी अन्त कर दिया कि मराठे क्षत्रिय नही है और उनका समूल नष्ट हो गया है। इसके अतिरिक्त तात्कालीन समय तक शिवाजी को एक बीजापुर का अधीनस्थ जागीरदार मात्र समझा जाता था। राज्याभिषेक के फलस्वरुप वैधानिक रुप से शिवाजी को एक स्वतंत्र शासक की स्थिती तथा समकालीन भारतीय शासकों के समान राजनैतिक स्थिती प्राप्त हुई।
शिवाजी का बीजापुरी-कर्नाटक अभियान, 1677-78 ई0
1674 ई. में रायगढ़ में अपना राज्याभिषेक करवा कर शिवाजी ने खुद को मराठा साम्राज्य का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया था और ‘छत्रपति’ की उपाधि धारण की। उनका राज्याभिषेक मुग़ल आधिपत्य को चुनौती देने वाले लोगों के उत्थान का प्रतीक था। राज्याभिषेक के बाद उन्होंने नवनिर्मित ‘हिन्दवी स्वराज्य’ के शासक के रूप में ‘हैन्दव धर्मोद्धारक’ (हिन्दू आस्था का संरक्षक) की उपाधि धारण की थी। इस राज्याभिषेक ने शिवाजी को भू-राजस्व वसूलने और लोगों पर कर लगाने का वैधानिक अधिकार प्रदान कर दिया था।
सन 1677-78 ई0 में शिवाजी का ध्यान कर्नाटक की ओर गया। शिवाजी के कर्नाटक बीजापुरी अभियान के क्या कारण थे- इस सम्बन्ध में मतभेद है और सभी इतिहासकारों ने इसे अपने-अपने ढंग से देखा है।
कर्नाटक-बीजापुरी अभियान के कारण –
जी0 एस0 सरदेसाई ने अपनी पुस्तक ‘‘न्यू हिस्ट्री आफ द मराठा‘‘ में लिखा है कि – 1674 ई0 तक शिवाजी का राज्य बहुत अधिक विस्तृत नही था। यह राज्य 200 मील लम्बा तथा इससे कुछ कम चौडा था जो तीन ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। उत्तर की ओर से मुगलों का दबाव निरन्तर बढता जा रहा था जबकि पूर्व में बीजापुर और गोलकुण्डा तथा पश्चिम में सिद्दीयों तथा पुर्तगाली की ओर से शिवाजी को निरन्तर खतरा रहता था परिणामस्वरुप सुदूर दक्षिण में शिवाजी ने स्वराज्य विस्तार की योजना बनाई।
इसी पुस्तक में सरदेसाई यह भी मानते है कि अपना राज्याभिषेक करने के उपरान्त हिन्दू परम्परा के अनुसार उनके लिए दिग्विजय करना परम आवश्यक हो गया था परिणामतः उन्होने कर्नाटक-बीजापुरी अभियान की योजना बनाई।
जी0एस0 सरदेसाई की पुस्तक ‘‘द मेन करेन्ट्स आफ द मराठा हिस्ट्री‘‘ और टी0एस0 शेजवलंकर की पुस्तक ‘‘शिव छत्रपति‘‘ के अनुसार – शिवाजी सुदूर दक्षिण में हिन्दू पुनरुत्थानवाद का कार्य करना चाहते थे। विजयनगर साम्राज्य का अन्तिम शासक रंगराय आजीवन हिन्दुत्व के लिए संघर्ष करता रहा लेकिन वह असफल रहा। जिस प्रकार विजयनगर साम्राज्य दक्षिण में स्थित था, वहॉ पर शिवाजी एक नवीन हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करके वहॉ के हिन्दूओं को संरक्षण प्रदान करना चाहते थे।
आर0 वी0 एन0 कर्नी की पुस्तक ‘‘राइज एण्ड फाल आफ द मराठा एम्पायर‘‘, एस0 एन0 सेन की पुस्तक ‘‘एडमिनिस्टेट्रिव सिस्टम ऑफ द मराठा एम्पायर तथा सी0 बी0 वैद्य की पुस्तक ‘‘शिवाजीः द फाउण्डर ऑफ द मराठा स्वराज्य‘‘ के अनुसार – शिवाजी एक साम्राज्यवादी प्रवृति के शासक थे और वह विस्तारवादी नीति में विश्वास करते थे परिणामस्वरुप उन्होने सुदूर दक्षिण में कावेरी नदी की घाटी तक मराठा राज्य के विस्तार की योजना बनाई।
शिवाजी के समकालीन कवि परमानन्द की पुस्तक ‘अनुपुराण‘‘ के अनुसार – शिवाजी अपने बाद अपने राज्य का विभाजन नही करना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि वे महाराष्ट्र के अपने राज्य को अपने पुत्र राजाराम को सौंप दे और अपने दूसरे पुत्र शंभाजी के लिए सुदूर दक्षिण में एक नये राज्य का निर्माण करें। कुछ अन्य इतिहासकारों का यह भी मानना है कि शिवाजी के सैनिक अभियानों, नौ-सेना के निर्माण आदि के फलस्वरुप उनका राजकोष लगभग रिक्त हो चुका था। राज्याभिषेक के अवसर पर भी अपार धन व्यय किया गया था फलस्वरुप धन प्राप्त करने के लिए उन्होने इस अभियान की योजना बनाई।
कुछ इतिहासकारों का यह भी विचार है कि शिवाजी का महाराष्ट्र स्थित राज्य तीन तरफ से शत्रुओं से घिरा रहने के कारण असुरक्षित था। परिणामस्वरुप शिवाजी ने एक अन्य राज्य स्थापित करने की योजना बनाई जिससे अगर भविष्य में महाराष्ट्र पर मुगलों का दबाव बढ जाए तो मराठे वहॉ से तुरन्त भाग कर अपने दूसरे राज्य में आ जाय।
इन समस्त तथ्यों की पृष्ठभूमि में शिवाजी ने कर्नाटक-बीजापुर अभियान की योजना बनाई। शिवाजी ने अपना अभियान ले जाने से पूर्व ही दक्षिण के मुगल सूबेदार बहादुर खॉ को धन देकर अपनी तरफ मिला लिया था और यह समझौता कर लिया कि उनकी अनुपस्थिती में मुगल मराठा साम्राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे। शिवाजी ने जिस समय इस अभियान की योजना बनाई उस समय वहॉ की राजनैतिक परिस्थितीयॉ भी ठीक नही थी। 1672 ई0 में बीजापुर और गोलकुण्डा के सुल्तानों की मृत्यु के बाद दरबार में गुटबन्दी बढ रही थी। गोलकुण्डा में अबुल हसन नया कुतुबशाह बना जिसने मदनपन्त नामक ब्राह्मण को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। दूसरी तरफ बीजापुर में नियुक्त नया आदिलशाह अल्पवयस्क था इसलिए बहलोल खॉ वजीर को इस अल्पवयस्क शासक का संरक्षक नियुक्त किया गया। शिवाजी के इस अभियान में गोलकुण्डा के प्रधानमंत्री मदनपन्त ने उनका खुला समर्थन दिया। इसके अतिरिक्त रघुनाथपन्त नामक एक अन्य हिन्दू ब्राह्मण ने भी इस अभियान में शिवाजी की सहायता की। शीध्र ही इन दोनों के संयुक्त प्रयासों से गोलकुण्डा का शासक इस अभियान में शिवाजी की सहायता के लिए तैयार हो गया। सम्पूर्ण योजना पर विचार-विमर्श करने के लिए शिवाजी जनवरी 1677 ई0 मेंं हैदराबाद गये और मार्च 1677 ई0 में कुतुबशाह और शिवाजी के बीच एक सन्धि हुई। इस सन्धि की शर्तो के अनुसार –
- मराठों और कुतुबशाह की संयुक्त सेनाएॅ पूर्वी तट पर आक्रमण करके बीजापुरी राज्य के तहत् आनेवाले राज्यों पर अधिकार करेंगी।
- विजित क्षेत्रों को दोनों पक्ष बराबर-बराबर आपस में बॉट लेंगे।
- कुतुबशाह प्रतिदिन दैनिक व्यय के रुप में तीन हजार हून मराठों के देगा।
- शिवाजी छः लाख हून वार्षिक कर के रुप में कुतुबशाह को देंगे।
- मुहम्मद अमीन खॉ के नेतृत्व में कुतुबशाह की ओर से पॉच हजार घुडसवार सेना की सहायता मराठों को दी जाएगी।
- इस सन्धि के क्रियान्वयन के लिए शिवाजी का एक प्रतिनिधि हैदराबाद में रहेगा।
- इस सन्धि की सभी शर्ते गुप्त रहेंगी।
इस प्रकार मार्च 1677 ई0 के अन्त में शिवाजी के नेतृतव में संयुक्त सेनाओं ने पूर्वी तट पर आक्रमण किया। सर्वप्रथम शिवाजी ने जिंजी का घेरा डाला और अन्ततः मई 1677 ई0 में बीजापुर सूबेदार नसीर मुहम्मद खॉं ने आत्मसमर्पण कर दिया। जिंजी को उन्होंने अपने राज्य की राजधानी बनाया। शिवाजी का संघर्ष जंजीरा टापू के अधिपति अबीसीनियाई सिद्दकियों से भी हुआ। सिद्दकियों पर अधिकार करने के लिए उन्होंने नौसेना का भी निर्माण किया था, परन्तु वह पुर्तग़ालियों से गोवा तथा सिद्दकियों से चैल और जंजीरा नहीं छीन सके। इसके उपरान्त त्रिचनापल्ली पर आक्रमण हुआ और जुलाई 1677 ई0 में शिवाजी ने इसपर भी अधिकार कर लिया। इससे पूर्व वैलोर पर आक्रमण किया गया था। हालॉकि वैलोर के दुर्ग का घेरा लगभग एक वर्ष तक चला। जुलाई 1678 ई0 में इसपर मराठों का अधिकार हो गया। जुलाई 1677 ई0 में शिवाजी ने तंजौर पर आक्रमण किया। शिवाजी का भाई व्यंकोजी यहॉ का शासक था। शिवाजी ने अपने भाई पर पैतृक सम्पति का बटॅवारा करने के लिए दबाव डाला लेकिन व्यंकोजी का कहना था कि उनके पिता शाहजी भोसलें ने बीजापुर की सेवा करते हुए ये सारी सम्पति अर्जित की थी और शिवाजी आजीवन बीजापुर के विरोधी बने रहे। परिणामस्वरुप पिताजी द्वारा अर्जित इस सम्पति में उन्हे कोई हिस्सा नही मिलेगा। इस बात के भी प्रमाण है कि व्योंकोजी शिवाजी के विरुद्ध युद्ध की तैयारी भी करने लगा था। शिवाजी तंजौर में बहुत अधिक दिनों तक नही रुक सकते थे क्योंकि महाराष्ट्र में उनका राज्य असुरक्षित था। परिणामस्वरुप रधुनाथ पन्त और घानाजी यादव जैसे सेनापति और अपनी अधिकांश सेना तंजौर के पास छोडकर शिवाजी स्वयं जुलाई 1677 ई0 में महाराष्ट्र के लिए चल दिये। महाराष्ट्र लौटते समय उन्होने मार्ग में व्यंकोजी के अधिकार क्षेत्र में आने वाले कर्नाटक के समस्त क्षेत्रों जैसे – बंगलौर, बालापुर, कोलार आदि पर अपना अधिकार कर लिया। महाराष्ट्र पहुॅचने पर शिवाजी ने अपने भाई को पुनः 1 मार्च 1878 ई0 को एक पत्र लिखा जिसमें मुख्यतः दो बातें कही गयी –
- पैतृक सम्पति का बॅटवारा कर लिया जाय अन्यथा व्यंकोजी को दण्डित होना पडेगा।
- व्यंकोजी को मुसलमानों की सेवा छोडनी होगी।
व्यंकोजी ने अपनी पत्नी दीयाबाई के प्रभाव में आकर शिवाजी से सन्धि का निश्चय किया क्योंकि उसे यह अहसास हो गया था कि वह मुसलमानों की सहायता से शिवाजी को परास्त नहीं कर पाएगा। रघुनाथ पन्त की मध्यस्थता से शिवाजी और उनके भाई व्यंकोजी के मध्य एक सन्धि हुई जिसकी प्रमुख शर्ते निम्नलिखित है –
- दोनों भाइयों के राज्य में किसी हिन्दू विराधी व्यक्ति को रहने की आज्ञा नही दी जाएगी।
- व्यंकोजी को आदिलशाह की सेवा त्यागनी होगी।
- शिवाजी द्वारा जीते गये तंजौर तथा उसके आस-पास के क्षेत्र व्यंकोजी को वापस कर दिये गये।
- कर्नाटक में शिवाजी द्वारा जीते गये सभी क्षेत्र व्यंकोजी की पत्नी दीपाबाई को इस शर्त पर दिया गया कि इनपर स्वामित्व दीपाबाई का होगा और दीपाबाई की मृत्यु के बाद उनकी पुत्री अथवा उनके द्वारा नामित व्यक्ति इसका अधिकारी होगा।
इस प्रकार इस सन्धि की शर्तो से यह स्पष्ट होता है कि शिवाजी पैतृक सम्पति का बॅटवारा करने तन्जौर नही गये थे। उनका वास्तविक उद्देश्य यह था कि व्यंकोजी मुस्लिम सेवा त्याग दे। बीजापुर-कर्नाटक अभियान के फलस्वरुप दक्षिण भारत में मराठों के दो राज्य स्थापित हो गये। यह शिवाजी का अन्तिम महान कार्य था।
शम्भाजी का परित्याग और शिवाजी का देहान्त:
शिवाजी का अंतिम जीवन चिंता में व्यतीत हुआ। उस समय उनका किशोर पुत्र शंभाजी अज्ञानतावश मुगलों के साथ जा रहा था जिसकी वजह से शिवाजी बहुत दुखी हुए और साथ ही उनकी दूसरी पत्नी सोयराबाई अपने पुत्र राजाराम को उत्तराधिकारी बनाने के लिए षड्यंत्र रच रही थी। शिवाजी चाहते थे कि शंभाजी उत्तराधिकारी बने तथा मराठा साम्राज्य को संभाले लेकिन इसके लिए शंभाजी के चरित्र में बदलाव लाना बहुत आवश्यक था। पहले शिवाजी ने शंभाजी को समझाने-बुझाने का भरपूर प्रयास किया लेकिन जब पिता के उपदेश और चेतावनी व्यर्थ सिद्ध हो गयी तब शंभाजी को 1676 ई० में गिरफ्तार कर शृगारपुर में नजरबन्द कर दिया गया। उसे बड़े अच्छे-अच्छे उपदेश दिये गये और वह प्रसिद्ध धर्मोपदेशक श्री रामदास के सम्पर्क में लाया गया किन्तु परिणाम कुछ भी नहीं निकला। अतः शिवाजी ने 1678 ई० में उसे पन्हाला में कैद करवा दिया। यहाँ मुगल सेनापति दिलेरखाँ के गुप्त दूत ने उससे भेंट की और उसे मुगलों से मिल जाने के लिए लालच दिया। 23 दिसम्बर, 1678 ई० की रात को शम्भाजी अपनी स्त्री येसूबाई के साथ पन्हाला से निकल भागा और मुगलों के शिविर बहादुरगढ़ की ओर चल दिया। दिलेरखाँ इस समाचार से प्रसन्न हुआ और मार्ग में उसने शंभाजी का स्वागत किया। औरंगजेब भी खुश तो बहुत हुआ किन्तु शम्भाजी के परित्याग को शिवाजी का जाल समझकर उसने दिलेर खां को उस पर निगाह रखने की आज्ञा दी। दिलेरखां से मिलने के बाद शम्भाजी और दिलेरखां ने बीजापुर पर हमला किया जिसके संरक्षक सिद्दी मसूद ने शिवाजी से सहायता मांगी अतः शिवाजी ने बीजापुर का घेरा डालने वाले मुगलों पर आक्रमण कर दिया। शिवाजी ने बीजापुरियों को रसद और युद्ध-सामग्री भी दी जिससे विवश होकर दिलेरखाँ ने 24 नवम्बर को घेरा उठा लिया और. पन्हाला दुर्ग पर आक्रमण करने के लिए चल पड़ा। दिलेरखां ने मार्ग में हिन्दुओं को बहुत सताया। इससे तंग आकर जनता ने शम्भाजी से रक्षा की प्रार्थना की। शम्भाजी ने दिलेरखाँ से उसकी वकालत की तो उसने उसे फटकारकर कहा कि “मैं खुद मुख्तार हूॅं, तुम्हें मुझे सदाचार की सीख सिखाने की कोई जरूरत नहीं।“ युवराज असहाय था और औरंगजेब ने दिलेरखां को उसे. गिरफ्तार कर दिल्ली भेजने की हिदायत भी दे रखी थी। इसलिए अब उसे अपनी जान के लाले पड़ गये थे। अन्ततः वह, उसकी स्त्री और दस साथी भेष बदलकर 30 नवम्बर, 1678 ई० की रात को दिलेरखां के शिविर से भाग खड़े हुए और फिर उन्हे शिवाजी की शरण में आना पडा। शिवाजी एक वर्ष के बाद पुत्र की वापसी पर बहुत प्रसन्न हुए और पन्हाला में आकर एक महीने तक उसके पास रहे। उन्होंने पुत्र को अच्छे-अच्छे उपदेशों द्वारा सुधार कर उसे कर्तव्यपालन और उत्तरदायित्व का ध्यान दिलाने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया। किन्तु शम्भाजी ने अपने पिछले व्यवहार के लिए न तो कोई पश्चाताप किया और न अपनी आदतें ही सुधारी। तब वे उसे पन्हाला में नजरबन्द कर स्वयं सन्त रामदास का सत्संग करने के लिए सज्जनगढ़ चले गये।
इस प्रकार शिवाजी के अन्तिम दिन चिन्ता में बीते। शम्भाजी के परित्याग को उनके दिल पर गहरी चोट लगी थी और उन्हें अपने राज्य के भविष्य के सम्बन्ध में घोर निराशा हो गयी, क्योंकि राज्य का उत्तराधिकारी दुराचारी हो गया था और दूसरा राजकुमार राजाराम अभी दस वर्ष का बच्चा ही था। उसकी पटरानी सोयराबाई शम्भाजी को अधिकार से वंचित कर अपने पुत्र राजाराम को उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी। मोरोपन्त पिंगले और अन्नाजी दत्तो दोनों मराठा मन्त्री आपस में झगड़ रहे थे। इन परिस्थितियों में शिवाजी को मराठा राज्य के भविष्य के सम्बन्ध में घोर निराशा हुई। उन्होंने गुरु रामदास से इस विषय में सलाह ली किन्तु कोई हल न निकला। फिर उन्होंने 14 फरवरी, 1680 ई० को रायगढ़ जाकर राजाराम का यज्ञोपवीत और विवाह किया। वे 2 अप्रैल को बीमार पड़े और 13 अप्रैल 1680 ई0 को स्वर्गवासी हो गये।