शिवाजी के नेतृत्व में मराठों का उत्थान मध्यकालीन भारतीय इतिहास की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना के रुप में जानी जाती है। यद्यपि शिवाजी का साम्राज्य अल्पकाल में ही समाप्त हो गया फिर भी शिवाजी ने हिन्दूओं की सहज क्षमता का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जो कालान्तर में मनुष्य की आत्मा को जाग्रत करता हुआ एक आदर्श के रुप में चमकता रहेगा।
छत्रपति शिवाजी एक महान देशभक्त, कुशल संगठनकर्ता तथा विलक्षण प्रतिभा से युक्त एक महान कूटनीतिज्ञ थे। थोडे ही समय में शिवाजी ने एक मराठा राज्य की स्थापना कर ली थी और इसके विस्तृत प्रभार को वहन करने के लिए उन्होने एक सुदृढ केन्द्रीय नागरिक प्रशासन की स्थापना की। शिवाजी के नागरिक प्रशासन में दो तथ्य सम्मिलित है –
- अष्टप्रधान व्यवस्था
- राजस्व व्यवस्था
- अष्टप्रधान व्यवस्था –
- शिवाजी ने राजकीय कार्यो में सहायता के लिए आठ मन्त्रियों की एक समिति बनाई थी जिसे ‘अष्टप्रधान‘ कहा जाता है। ये मन्त्री निम्नलिखित है –
- पेशवा अर्थात प्रधानमंत्री – इसे प्रधानमंत्री भी कहा जा सकता है। छत्रपति की अनुपस्थिती में यह उनका कार्यभार सॅभालता था।
- अमात्य अर्थात आडिटर- इसे राजस्व मंत्री या वित्त मंत्री कहा जा सकता है। यह राज्य की समस्त आय-व्यय का लेखा-जोखा रखता था।
- मंत्री अर्थात क्रानिक्टर- इसे व्यक्तिगत परामर्शदाता के रुप में जाना जा सकता है। यह दरबार में प्रतिदिन घटित होने वाले बातों को लिपिबद्ध करता था।
- सचिव अर्थात सुप्रिटेण्डेण्ट- यह राजा के पत्र व्यवहार का उत्तरदायित्व सॅभालता था।
- सुमन्त अर्थात विदेश मंत्री- राज्य के विदेशमंत्री को सुमन्त कहा जाता था जिसका प्रमुख कार्य बाह्य शक्तियों के बारे में राजा को परामर्श देना, विदेशी राजदूतों और प्रतिनिधियों के स्वागत और निवास आदि का प्रबन्ध करना था।
- सेनापति – इसे कमाण्डर इन चीफ कहा जा सकता है। इस पर सेना की भर्ती, संगठन तथा अनुशासन का भार होता था।
- दानाध्यक्ष या पण्डित राव- मराठी भाषा में इसे पण्डित राव कहा जाता है जो धार्मिक विभाग का अध्यक्ष होता था। राज्य की ओर से गरीबों को सहायता प्रदान करना, धार्मिक क्रियाकलापों के लिए नियम बनाना आदि इनके कार्य थे।
- न्यायाधीश – अंग्रेजी में इसे चीफ जस्टिस कहा जा सकता है। इसके अधीन न्याय विभाग होता था। मुकदमों की सुनवाई करना और न्याय प्रदान करना इसका प्रमुख कार्य था।
अष्टप्रधान के मन्त्रियों के समकक्ष एक अन्य अधिकारी होता था जिसे चिटनिश कहा जाता था लेकिन उल्लेखनीय है कि वह अष्टप्रधान का सदस्य नही होता था। वह छत्रपति का व्यक्तिगत सचिव होता था। चिटनिस का कार्य बहुत जटिल होता था अतः उसकी सहायता के लिए सबनिस, पोतनिस, परसनिस, गडनिस आदि जैसे कर्मचारी थे जो विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के कर्तव्यों का निर्वहन करते थे।
यद्यपि प्रत्येक विभाग के अलग-अलग मंत्री थे लेकिन सम्पूर्ण शक्ति के स्रोत स्वयं शिवाजी थे। आर0वी0एन0 कर्नी के अनुसार – यह आठों मंत्री शिवाजी के सचिव के समान कार्य करते थे। इनको स्वतः स्वतंत्र रुप से कोई कार्य करने की अनुमति नही थी। ये सभी शिवाजी को सलाह देते थे लेकिन इनके सलाह को मानने के लिए शिवाजी बाध्य नही थे। मंत्री पदों पर नियुक्तियॉ योग्यता के आधार पर की जाती थी।
शिवाजी ने अपने किसी भी मंत्री या अधिकारी को वेतन जागीर के रुप में नही दिया। उन्होने नकद वेतन देने की पद्धति अपनाई फलस्वरुप मराठा साम्राज्य में सामन्तवाद कमजोर हुआ। एम0जी0रानाडे ने अपनी पुस्तक ‘‘राइज ऑफ द मराठाज‘‘ में अष्टप्रधान की तुलना वायसराय की कार्यकारिणी परिषद से की ह ै लेकिन यह उचित नही है। उदाहरणस्वरुप कार्यकारिणी परिषद के सदस्य बैठकों में उपस्थित रहते थे जबकि अष्टप्रधान के अधिकांश सदस्य अनुपस्थित रहते थे। इसके अतिरिक्त कुछ इतिहासकार अष्टप्रधान की तुलना ब्रिटिश मंत्रीमण्डल से करते है जो सर्वथा अनुचित है। इसके मुख्यतः दो कारण है – पहला, कैबिनेट प्रणाली में सामूहिक उत्तरदायित्व को माना जाता है और दूसरा, कैबिनेट प्रणाली में प्रधानमंत्री सर्वोपरि होता है। उल्लेखनीय है कि अष्टप्रधान में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नही थी। डा0 एस0एन0 सेन अपनी पुस्तक ‘‘एडमिनिस्ट्रेटिव सिस्टम ऑफ द मराठा‘‘ में लिखते है कि – शिवाजी का शासन नौकरशाही का शासन नही था। उनकी शासन-प्रणाली फ्रेडरिक महान के प्रबुद्ध निरंकुशतावादी शासन के समान थी। शिवाजी की शासन-व्यवस्था, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित शासन व्यवस्था से बिल्कुल भिन्न थी। इस सम्बन्ध में उन्होने कौटिल्य के अर्थशास्त्र और मनुस्मृति आदि से प्रेरणा ली थी।
राजस्व प्रणाली –
शिवाजी की राजस्व व्यवस्था मलिक अम्बर की राजस्व व्यवस्था से प्रभावित थी लेकिन इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि शिवाजी नकलची थे जैसा कि अंग्रेज इतिहासकार कहते है। शिवाजी ने राजस्व व्यवस्था के क्षेत्र में भूमि मापन प्रणाली को लागू किया और भूमि को लकडे के डंडे, जिसे काठी कहते थे, से नापने की प्रथा चलाई। एक काठी बख्रों के अनुसार पॉच हाथ तथा पॉच मुट्ठी का होता था। 20 काठी का एक बीघा, 120 बीघा का एक चॉवर होता था। सामान्यतया इससे पूर्व भूमि-मापन के लिए रस्सी का प्रयोग किया जाता था। शिवाजी ने भूमि का सर्वेक्षण भी करवाया जिसके दो उदाहरण मिलते है – पहला, अन्नाजी दत्तो के द्वारा कोंकण क्षेत्र में भूमि का सर्वेक्षण करवाया गया और दूसरा, मोरोपन्त के द्वारा सिरवल क्षेत्र में भूमि सर्वेक्षण करवाया गया।
शिवाजी के साम्राज्य में दो प्रकार के क्षेत्र शामिल थे – एक को स्वराज्य क्षेत्र तथा दूसरे को मुकदई क्षेत्र कहते है। स्वराज्य क्षेत्र प्रत्यक्षतः मराठों के नियंत्रण में था जबकि जिन क्षेत्रों से मराठे चौथ और सरदेशमुखी नामक कर वसूलते थे , वह क्षेत्र मुकतई कहलाता था। पूरे साम्राज्य की भूमि का सर्वेक्षण कर भू-लगान निश्चित किया गया। लगान निश्चित करते समय उषर भूमि को छोड दिया जाता था। प्रारंभ में शिवाजी ने कुल उपज का 33 प्रतिशत लगान की दर निश्चित की लेकिन कुछ समय पश्चात इसे बढाकर 40 प्रतिशत कर दिया गया। यद्यपि कृषियोग्य भूमि का अभाव था फिर भी उन्होने कृषि को बहुत प्रोत्साहन दिया और स्वराज्य के अन्दर कृषि कार्य करने के लिए कृषकों को प्रेरित भी किया। ग्राण्ड एवं डफ के शब्दों में – ‘‘शिवाजी के समय उनके राज्य के कृषकों की दशा अन्य राज्यों के कृषकों की दशा से काफी बेहतर थी।‘‘
शिवाजी के समय किसानों से भू-राजस्व के अतिरिक्त लगभग 50 प्रकार के कर वसूल किये जाते थे। शिवाजी ने इनमें से अधिकांश कर को समाप्त कर दिया। भू-राजस्व के अतिरिक्त दो अन्य वसूलियॉ भी की जाती थी- पहला, बर्हिशुल्क और दूसरा, सिक्का ढालने का शुल्क। लगान वसूली को ध्यान में रखकर स्वराज्य को तीन भागों में बॉटा गया था – प्रान्त, जिला और ग्राम। प्रान्त के सर्वोच्च पदाधिकारी को सूबेदार कहते थे। इसे मुख्य रुप से देशाधिकारी भी कहा जाता था। जिला को तर्फ कहा जाता था और इसके सर्वोच्च अधिकारी को हवलदार कहा जाता था। इसके अतिरिक्त गॉवों में पंचायते भी होती थी। कभी- कभी दो या तीन सूबों के उपर सर-सूबेदार भी नियुक्त किये जाते थे। ये सभी अधिकारी योग्यता के आधार पर नियुक्त किये जाते थे और समय-समय पर इनका स्िानान्तरण भी होता रहता था।
शिवाजी की राजस्व व्यवस्था की एक मुख्य विशेषता यह थी कि उन्होने जागीरदारी प्रथा का विरोध किया। शिवाजी अपने कर्मचारियों और अधिकारियों को सदैव नकद वेतन देते थे। शिवाजी ने पहले से चली आ रही जागीरदारी प्रथा के तहत् प्रदान की गई जागीरों को जब्त कर लिया और इस प्रकार उन्होने सरकार तथा किसानों के बीच प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित किया। भूमि कर के अतिरिक्त राज्य के आय के और भी साधन थे जैसे- भेंट, आयात-निर्यात तथा पारपत्र आदि। परन्तु मराठा राज्य की सबसे अधिक आय उनके शत्रुओं से होती थी। वर्ष में आठ माह शिवाजी की सेना का व्यय भार किसी न किसी शत्रु क्षेत्र को उठाना पडता था। सेना भार के अतिरिक्त राज्यकोष के लिए भी शत्रुक्षेत्र से धन वसूल किया जाता था। इस प्रकार की धनवसूली को ही चौथ और सरदेशमुखी कहते थे।
चौथ के स्वरुप के विषय में विद्वानों में मतभेद है। सरदेसाई के अनुसार यह वैसा कर था जो विरोधी अथवा विजित राज्यों से वसूल किया जाता था। रानाडे इसकी तुलना वैलेजली की सहायक सन्धि से करते है और कहते है कि यह पडोसी राज्यों की सुरक्षा की गारंटी के लिये लिया जाने वाल कर था। सर जदुनाथ सरकार का मानना है कि चौथ एक एक लुटेरे को घूस देकर उससे बचने का उपाय मात्र था, यह सभी शत्रुओं के विरुद्ध शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए सहायक प्रबंध नही था। चौथ का सैद्धान्तिक आधार जो भी रहा हो, व्यवहार में यह सैनिक चन्दा छोडकर और कुछ भी नहीं था। चौथ कुल अनुमानित राजस्व का 25 प्रतिशत होता था जो शत्रु क्षेत्र से वसूल किया जाता था। इस प्रकार के धन को वसूल करने के लिए शक्ति तथा बल का प्रयोग किया जाता था। चौथ के समान सरदेशमुखी भी एक प्रकार का कर था जो कुल राजस्व का 10 प्रतिशत वसूल किया जाता था। शिवाजी का यह कथन था कि वे महाराष्ट्र्र प्रदेश के वंशानुगत सरदेशमुख है, अतः उन्हे उस क्षेत्र से सरकारी आय का 10 प्रतिशत भाग मिलना चाहिए। शिवाजी का यह भी कहना था कि मुस्लिम राज्यों ने उनके इस पैतृक अधिकार को छीन लिया है, यदि वे उन्हे कुल आया का 10 प्रतिशत दे दे तो वे उनके विरुद्ध शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे।
सैन्य संगठन –
शिवाजी के द्वारा मराठी सेना को एक नये ढंग से संगठित करना उसकी सैनिक प्रतिभा का एक ज्वलंत प्रमाण है। पहले मराठों की लड़नेवाली फौज में अधिकतर अश्वारोही होते थे, जो आधे साल तक अपने खेतों में काम करते थे तथा सूखे मौसम में सक्रिय सेवा करते थे। किंतु शिवाजी ने एक नियमित तथा स्थायी सेना का गठन किया। उनके सैनिकों को कर्तव्य के लिए सदैव तैयार रहना पड़ता था तथा वर्षा ऋतु में उन्हें वेतन और रहने का स्थान मिलता था। उनकी सेना में चालीस हजार घुड़सवार और दस हजार पैदल सैनिक थे।
शिवाजी ने एक बड़ा जहाजी बेड़ा बनाया तथा बंबई के किनारे की छोटी-छोटी जातियों के हिंदुओं को नाविकों के रूप में भरती किया। यद्यपि शिवाजी के समय में मराठी जल-सेना ने कोई अधिक विलक्षण कार्य नहीं किया, फिर भी बाद में अंग्रियों के अधीन मराठा बेड़े ने अंग्रेजों, पुर्तगालियों तथा डचों को बहुत तंग किया। नौसेना में शिवाजी ने कुछ मुसलमानों को भी नियुक्त किया था। सभासद बखर के अनुसार शिवाजी की सेना में लगभग बारह सौ साठ हाथियों तथा डेढ़ से तीन हजार ऊँटों का दल भी था। उसके गोलंदाज फौज की संख्या ज्ञात नहीं है, किंतु उसने सूरत के फ्रांसीसी निर्देशक से अस्सी तोपें एवं अपनी तोड़ेदार बंदूकों के लिए काफी सीसा खरीदा था।
घुड़सवार तथा पैदल दोनों में अधिकारियों की नियमित श्रेणियाँ बनी हुई थीं। घुड़सवार की दो शाखाएँ थीं- बर्गी और सिलाहदार। बर्गी वे सिपाही थे, जिन्हें राज्य की ओर से वेतन एवं साज-समान मिलते थे। सिलाहदार अपना साजसमान अपने खर्च से जुटाते थे। मैदान में काम करने का खर्च चलाने के लिए राज्य की ओर से एक निश्चित रकम मिलती थी। अश्वारोहियों के दल में 25 अश्वारोहियों की एक इकाई बनती थी। 25 आदमियों पर एक हवलदार होता था, 5 हवलदारों पर एक जुमलादार तथा दस जुमलादारों पर एक हजारी होता था, जिसे एक हजार हूण प्रतिवर्ष मिलता था।
हजारियों से ऊँचे पद पंचहजारियों तथा सनोबर्त के थे। सनोबर्त अश्वारोहियों का सर्वोच्च सेनापति था। पैदल सेना में सबसे छोटी इकाई 9 पायकों की थी, जो एक नायक के अधीन थे। 5 नायकों पर एक हवलदार, दो या तीन
हवलदारों पर एक जुमलादार तथा दस जुमलादारों पर एक हजारी होता था। अश्वारोहियों में सनोबर्त के अधीन पाँच हजारी थे, किंतु पदाति में सात हजारियों पर एक सनोबर्त होता था।
यद्यपि अधिकतर शिवाजी स्वंय अपनी सेना का नेतृत्व करते थे, तथापि नाम के लिए यह एक सेनापति के अधीन थी। सेनापति अष्ट-प्रधान (मंत्रिमंडल) का सदस्य होता था। शिवाजी अपने अभियानों का आरंभ अक्सर दशहरा के मौके पर करते थे।
मराठों के इतिहास में किलों का महत्त्वपूर्ण भाग होने के कारण उनमें कार्यक्षम सेना रखी जाती थी। प्रत्येक किला समान दर्जे के तीन अधिकारियों के अधीन रहता था- हवलदार, सबनीस और सनोबर्त। तीनों एक साथ मिलकर कार्य करते थे तथा एक दूसरे पर अंकुश रखते थे। और भी, दुर्ग के अफसरों में विश्वासघात को रोकने के लिए शिवाजी ने ऐसा प्रबंध कर रखा था कि प्रत्येक सेना में भिन्न-भिन्न जातियों का संमिश्रण हो।
यद्यपि शिवाजी नियमित रूप से तथा उदारतापूर्वक सैनिकों को वेतन और पुरस्कार देते थे, परंतु उनमें कठोर अनुशासन रखना वह नहीं भूलते थे। उन्होंने सैनिकों के आचरण के लिए कुछ नियम बनाये थे, जिससे उनका नैतिक स्तर नीचा न हो। किसी स्त्री, दासी या नर्तकी को सेना के साथ जाने की आज्ञा नहीं थी। ऐसा करने पर सर काट लिया जाता था। गायें जब्ती से मुक्त थीं, किंतु बैलों को केवल बोझ ढोने के लिए ले जाया जा सकता था। ब्राह्मणों को सताया नहीं जा सकता था और न ही उन्हें निस्तार के रूप में बंधक रखा जा सकता था। कोई सिपाही (आक्रमण के समय) बुरा आचरण नहीं कर सकता था। युद्ध में लूटे हुए माल के संबंध में शिवाजी की आज्ञा थी कि जब कभी किसी स्थान को लूटा जाए, तो निर्धन लोगों का माल पुलसिया (ताँबे का सिक्का तथा ताँबे एवं पीतल के बर्तन) उस आदमी के हो जायें, जो उन्हें पाये, किंतु अन्य वस्तुएँ, जैसे सोना, चाँदी (मुद्रा के रूप में अथवा ऐसे ही), रत्न, मूल्यवान चीजें अथवा जवाहरात पानेवाले के नहीं हो सकते थे। पानेवाला उन्हें अफसरों को दे देता था तथा वे शिवाजी की सरकार को दे देते थे।
इस प्रकार इन सम्पूर्ण विवरणों से यह स्पष्ट है कि शिवाजी ने अपनी कुशल केन्द्रीय नागरिक प्रशासन के माध्यम से एक संगठित शासन व्यवस्था की नींव डाली। शेरशाह की भॉति ही शिवाजी ने अल्पकाल में अपने शासन प्रबन्ध की कुशलता को प्रदर्शित किया। शिवाजी की महानता इस बात से और अधिक बढ जाती है कि आधुनिक समय की समस्त सुनियोजित सरकारों ने अपने प्रशासन में शिवाजी के उक्त सिद्धान्तों को अंगीकृत किया है।
शिवाजी का व्यक्तित्व और मूल्यांकन –
भारत के जिन वीरों ने अपनी असाधारण वीरता, त्याग और बलिदान से भारतभूमि को धन्य किया है, उनमें वीर शिवाजी का नाम अग्रगण्य है। मातृभूमि भारत की स्वतन्त्रता एवं गौरव के रक्षक वीर शिवाजी एक साहसी सैनिक, दूरदर्शी इंसान, सतर्क व सहिष्णु देशभक्त थे। उनकी चारित्रिक श्रेष्ठता, दानशीलता के अनेक उदाहरण गौरवगाथा के रूप में मिलते हैं। वे महाराष्ट्र के ही नहीं, समूची मातृभूमि के सेवक थे। वे हिन्दुत्व के नहीं, राष्ट्रीयता के पोषक रहे थे। शिवाजी एक समर्पित हिन्दू होने के साथ-ही-साथ धार्मिक सहिष्णु भी थे। यद्यपि वे कट्टर हिन्दू थे किन्तु औरंगजेब की तरह धर्मान्ध नहीं थे। उनके साम्राज्य में मुसलमानों को पूरी तरह से धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। कई मस्जिदों के निर्माण के लिए शिवाजी ने अनुदान दिया। उनके मराठा साम्राज्य में हिन्दू पण्डितों की तरह मुसलमान सन्तों और फ़कीरों को भी पूरा सम्मान प्राप्त था। उनकी सेना में मुसलमान सैनिक भी थे।
वह एक अच्छे सेनानायक के साथ एक अच्छे कूटनीतिज्ञ भी थे। कई अवसरों पर उन्होंने सीधे युद्ध लड़ने की बजाय अप्रत्यक्ष युद्ध से भाग लिया था लेकिन यही उनकी कूटनीति थी, जो हर बार बड़े से बड़े शत्रु को मात देने में उनका साथ देती रही। शिवाजी महाराज की “गनिमी-कावा“ नामक कूटनीति, जिसमें शत्रु पर अचानक आक्रमण करके उसे हराया जाता है, विलोभनियता से और आदरसहित याद किया जाता है।
अपनी मृत्यु से पूर्व ही शिवाजी ने मुग़लों, बीजापुर के सुल्तान, गोवा के पुर्तग़ालियों और जंजीरा स्थित अबीसिनिया के समुद्री डाकुओं के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद दक्षिण में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना कर दी थी। धार्मिक आक्रामकता के युग में वह लगभग अकेले ही धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक बने रहे थे। उनका राज्य बेलगांव से लेकर तुंगभद्रा नदी के तट तक समस्त पश्चिमी कर्नाटक में विस्तृत था। इस प्रकार शिवाजी एक साधारण जागीरदार के उपेक्षित पुत्र की स्थिति से अपने पुरुषार्थ द्वारा ऐसे स्वाधीन राज्य के शासक बने, जिसका निर्माण स्वयं उन्होंने ही किया था। उन्होंने उसे एक सुगठित शासन-प्रणाली एवं सैन्य-संगठन द्वारा सुदृढ़ करके जन साधारण का भी विश्वास प्राप्त किया। मध्य-युग में वे ही सर्वप्रथम शासक थे जिन्होंने जहाजी बेड़े की आवश्यकता पर ध्यान दिया था। उन्होंने व्यापार और सुरक्षा के लिए जहाज-निर्माणशालाएँ तथा जहाज बनवाये थे। शिवाजी की प्रेरणा से फारसी के स्थान पर मराठी राजभाषा बनी और एक राज्य-व्यावहारिक संस्कृत-कोष का निर्माण हुआ।
जिस स्वतंत्रता की भावना से वे स्वयं प्रेरित हुए थे, उसे उन्होंने अपने देशवासियों के हृदय में भी इस प्रकार प्रज्वलित कर दिया कि उनके मरणोंपरान्त औरंगज़ेब द्वारा उनके पुत्र का वध कर देने, पौत्र को कारागार में डाल देने तथा समस्त देश को अपनी सैन्य शक्ति द्वारा रौंद डालने पर भी वे अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने में समर्थ हो सके। उसी से भविष्य में विशाल मराठा साम्राज्य की स्थापना हुई। शिवाजी यथार्थ में एक व्यावहारिक और आदर्शवादी व्यक्ति थे। उनके सम्बन्ध में सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है, “उन्होंने हिन्दुओं को अधिक से अधिक उन्नति करने की शिक्षा दी। शिवाजी ने बताया कि हिन्दुत्व का वृक्ष वास्तव में मरा नहीं है किन्तु सदियों को राजनीतिक पराधीनता के कारण मरा-सा दिखायी देता है। यह फिर बढ़ सकता है और इसमें नयी-नयी पत्तियां और शाखाएं आ सकती हैं। यह अपना सिर आकाश तक फिर उठा सकता है।“
क्या शिवाजी सम्पूर्ण भारत में ’हिन्दू-स्वराज्य’ स्थापित करना चाहते थे ?
इतिहासकार सरदेसाई का मानना है कि शिवाजी अपने स्वप्न को महाराष्ट्र तक ही सीमित न रखकर सारे भारत में हिन्दू साम्राज्य की स्थापना करना चाहते थे। वे अपने कथन की पुष्टि में कई प्रमाण देते हुये कहते है कि – शिवाजी का मुख्य उद्देश्य धार्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त करना था, देश प्राप्त करना नहीं। 1645 ई० के आरम्भ में उन्होंने दादाजी नरसप्रभु को ’हिन्दवी स्वराज्य’ की योजना के सम्बन्ध में लिखा था, जिससे उनका अभिप्राय सम्पूर्ण भारत के हिन्दुओं को धार्मिक स्वतन्त्रता दिलाना था। विचारशील एवं क्रियाशील मराठों ने उनके बाद उनके आदर्श और इच्छाओं को इसी रूप में समझा था। शिवाजी द्वारा चौथ और सरदेशमुखी कर की वसूली सम्पूर्ण भारत में राज्य-विस्तार का साधन समझी गयी है। एक समकालीन जयपुरी कवि का विश्वास है कि शिवाजी दिल्ली के साम्राज्य को लेना चाहते थे। उस कवि ने जयसिंह की इसीलिए प्रशंसा की है कि उसने शिवाजी जैसे बलवती इच्छा रखने वाले को भी वश में कर लिया था। शिवाजी का आगरा जाने का उद्देश्य अपनी आंखों से उत्तरी भारत की दशा देखकर यह जानना था कि क्या उत्तरी भारत मुगल साम्राज्य के पंजे से मुक्त होने को तैयार है? वे अपने राज्य की सुरक्षा जल-थल सेना से करते थे। दक्खिन के सुल्तानों और मुगलों से युद्ध करते हुए भी शिवाजी राजपूत राजाओं से न लड़कर उनसे मेल करने का प्रयत्न करते थे। इससे स्पष्ट है कि उनके सामने समस्त हिन्दू जाति को राजनीतिक एवं नैतिक चरित्र-निर्माण के नवीन ढांचे में ढालने का उच्च आदर्श था।
दूसरी तरफ अनेक इतिहासकार उक्त दलीलों से सहमत नही है और उनकी दृष्टि में उपर्युक्त दलीलें इतनी लचर है कि उन पर सहज विश्वास नहीं किया जा सकता। इसके लिए किसी अकाट्य दलील की आवश्यकता नहीं है कि मुगल-साम्राज्य में हिन्दू धर्म की स्वतन्त्रता सर्वथा असम्भव थी। इसका अभिप्राय राज्य के अन्दर दूसरा राज्य स्थापित करना होता और जिसे औरंगजेब जैसा सम्राट सहन नहीं कर सकता था। यह स्वीकार किया जा सकता है कि शिवाजी के ’स्वराज्य‘ की योजना ऐसी थी कि जिसमें सारा भारत आ सकता था, किन्तु इसमें सन्देह है कि उन्होंने कभी ऐसी इच्छा रखी थी। वे कल्पना के पंखों पर न उड़कर क्रियात्मक कार्य करने वाले राजनीतिज्ञ थे। हमारे पास इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है कि शिवाजी सम्पूर्ण भारत पर अधिकार करना चाहते थे और भारत में एक हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना चाहते थे। यह सर्वसम्मति से सिद्ध हो चुका है कि शिवाजी को रायगढ़ से आगरा आनेजाने में 25 दिन लगे थे । इन दिनों में उत्तरी भारत का परिस्थिति का पता लगाने का न तो समय था और न अवसर ही। वास्तव में उनके आगरा आने का उद्देश्य उत्तर भारत की परिस्थिति का ज्ञान करना नहीं था। यह भी कहना ठीक नहीं कि उन्होंने राजपूतों से युद्ध नहीं किया। हां, उन्होंने केवल उन्हीं राजपूतों से युद्ध किया जो मुगल सम्राट की ओर से लड़ते थे। जहाँ तक शिवाजी का सम्बन्ध है, उनका अन्य राजपूतों से युद्ध करने का प्रश्न ही नहीं उठता।
सच बात तो यह है कि शिवाजी ने देश को मुगलों के विरुद्ध उभाड़ने का कभी कदम ही नहीं उठाया। उन्होंने तो केवल जजिया कर के दुबारा लगाये जाने का विरोध किया था। उन्होंने उत्तरी भारत के जाट, सतनामी, सिक्ख इत्यादि शक्तिशाली विरोधी तत्त्वों से कभी सम्बन्ध स्थापित नहीं किया। हां, उन्होंने एक चतुर सेनापति के रूप में जसवन्तसिंह और जयसिंह की हिन्दुत्व भावना को अवश्य प्रभावित किया था। उन्होंने उनसे (जसवन्तसिंह और जयसिंह) मिलकर मुगलों का तख्ता उलट देने की कोई ठोस योजना नहीं बनायो थी। उन्होंने तो छत्रसाल जैसे उत्साही राजा की सेवाओं को भी स्वीकार नहीं किया था और न उसे कोई सहायता ही दी थी । उन्होंने तो उसे केवल यह सलाह दी थी कि औरंगजेब जैसे शक्तिशाली सम्राट के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए वैसे ही तैयारी करो। ये वे तथ्य हैं जो बताते हैं कि शिवाजी ने अखिल भारतीय हिन्दू साम्राज्य स्थापना की कभी इच्छा नहीं की थी।
एक राष्ट्र-निर्माता के रुप में शिवाजी :
शिवाजी की गणना एक महान राष्ट्र-निर्माता के रूप में की जाती है। शिवाजी का महानतम कार्य हिन्दू-मराठा-राष्ट्र का निर्माण करना और उनकी महानतम देन उसको स्वतंत्रता की भावना प्रदान करना था। शिवाजी ने एक स्वतन्त्र हिन्दू-राज्य की स्थापना का विचार किया। ुगलाम रहकर वह बड़ी से बड़ी प्रतिष्ठा को स्वीकार करने के लिए तत्पर न थे। अपनी छः वर्ष की आयु में उन्होंने बीजापुर के सुल्तान के सम्मुख अपना सिर झुकाने से इंकार कर दिया था और औरंगजेब के दरबार में अपने को असम्मानित अनुभव करके उन्होंने दरबार की परम्परा को तोड़कर शक्तिशाली मुगल बादशाह का उसके दरबार में (अप्रत्यक्ष रूप से) अपमान कर दिया था। अपने कार्य को उन्होंने बिना किसी विशेष सहायता के आरम्भ किया और यह अनूभव करके कि बढ़ती हुई मुस्लिम-शक्ति का विरोध मराठों की एकता के बिना संभव नहीं है, उन्होंने मराठों को एकसूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया। अपने आकर्षक व्यक्तित्व और प्रारम्भिक सफलताओं के कारण वह शीघ्र ही योग्य मराठों को अपने नेतृत्व में एकत्र करने में सफल हो गये। आभाजी, रघुनाथ बल्लाल, समरजी पन्त, प्रतापराव गूजर, हमीरराव मोहिते, शिन्दोजी निम्बालकर, सम्बाजी मोर, तानाजी मालसुरे, सूर्यराव काकादे, सन्ताजी घोरपदे, धानाजी जादव खाण्डेराव दाभादे, पासोंजी भौंसले, सयाजी भौंसले, नेमाजी शिन्दे आदि अनेक ऐसे व्यक्ति थे जो शिवाजी के सहायक बने और जिनमें से अनेक ने शिवाजी की मृत्यु के पश्चात् भी मराठों का नेतृत्व किया। सभी वर्गों से आये हुए इन योग्य व्यक्तियों ने शिवाजी के हिन्दू-राज्य की सेवाएं कीं। खतरों के अवसरों पर इनमें से एक भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हुआ, एक ने भी अपने राजा से बेवफाई नहीं की, अनेक ने अपने कर्तव्य की पूर्ति करते हुए सन्तोष से अपने जीवन को युद्धों में समाप्त किया और इस प्रकार सभी ने अपने त्याग और बलिदान से मराठा-राष्ट्र को जाग्रत करने में सहायता दी। शिवाजी की मुख्य सफलता राज्य-विस्तार और धन की प्राप्ति में उतनी नहीं थी जितनी कि मराठों को एकता और आत्मविश्वास प्रदान करने में थी। शिवाजी ने महाराष्ट्र और मराठा सरदारों को यह विश्वास दिया कि वह मुस्लिम शक्ति का सफलता से विरोध कर सकते थे और यही वह विश्वास था जिसके कारण मराठों ने 20 वर्षों (1687-1707 ई0) तक दृढ़तापूर्वक औरंगजेब की विशाल शक्ति का मुकाबला किया और मुगलों की कमर तोड़ दी। यह शिवाजी और प्रायः उनके एक सौ योग्य सरदारों की योग्यता और मुसलमानों से संघर्ष में प्राप्त सफलता का ही परिणाम था कि मराठा राष्ट्र में एक नवीन साहस और आशा जाग्रत हुई थी तथा उनमें संघर्ष करने की शक्ति और अपनी अन्तिम विजय में विश्वास उत्पन्न हुआ था।
इन सभी का श्रेय शिवाजी को था। उन्होंने अकेले ही अपने संघर्ष को आरम्भ किया था, अपने आप ही अपने समर्थकों को एकत्र किया था, स्वयं अपनी सेना का संगठन किया था और बिना किसी सहायता के एक संगठित राज्य, एक व्यवस्थित शासन और एक अजेय सेना का निर्माण करने में सफलता पायी थी। शिवाजी से पहले मराठों की शक्ति दक्षिण के राज्यों में बिखरी हुई थी। उस समय तक मराठे या तो शान्तिप्रिय किसान थे अथवा दक्षिण के मुस्लिम राज्यों में सैनिक या सरदारों के रूप में सेवा-कार्य कर रहे थे। मराठे इन राज्यों में अपनी शक्ति. योग्यता, वफादारी एव रक्त की आहुति दे रहे थे परन्तु उन्हें नेतृत्व का अधिकार नही था, वे सन्धि अथवा युद्ध का निश्चय नहीं करते थे और उनकी सेनाएँ अपनी सेनाएॅ नही थी। शिवाजी ने मराठों की बिखरी हई शक्ति को एकत्र किया तथा उनको एक राष्ट्र का स्वरुप प्रदान किया। शिवाजी ने उन्हें कट्टर और साहसी सैनिक, योग्य सेनापति और कुशल शासन प्रबन्धक बनाया तथा उन्हें यह सिद्ध करके दिखाया कि वे स्वयं अपने मालिक थे और स्वयं शासन कर सकते थे। शिवाजी ने एक राष्ट्र का निर्माण किया, एक हिन्दू राज्य का निर्माण किया और उस समय में किया जबकि मुगल-साम्राज्य अपनी शक्ति की चरमोत्कर्ष पर था और उनका मुकाबला मुगलों से ही नहीं बल्कि दक्षिण की महत्वपूर्ण शक्तियों के बीजापुर, पुर्तगाली और जंजीरा के सीद्दियों से भी था। शिवाजी पहले हिन्दू थे जिन्होंने मध्य-युग की बदलती हुई युद्ध की नैतिकता को समझा। उनके विरोधी इतिहासकार चाहे उन्हें डाकू कहें, चाहे उन्हें विद्रोही सामन्त पुकारें और चाहे औरंगजेब ने उनको ‘पहाड़ी चूहा’ कहकर अपनी सन्तुष्टि कर ली हो, परन्तु शिवाजी ने हिन्दू युद्ध-नीति की नैतिकता में एक नवीन अध्याय जोड़ा कि ’युद्ध जीतने के लिए लड़ा जाता है न कि शौर्य-प्रदर्शन के लिए’। उन्होंने युद्ध-नीति को अमानवीय. अनैतिक अथवा शौर्यरहित नहीं बनाया था बल्कि समय के अनुकूल उसके लक्ष्य को एक मोड़ दिया था जो उचित और आवश्यक था। डॉ0 जदुनाथ सरकार के अनुसार, “आधुनिक समय में भारत में ऐसी कुशलता और जीवन-शक्ति का परिचय किसी अन्य हिन्दू ने नहीं दिया। अपने उदाहरण से उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि हिन्दू-जाति एक राष्ट्र का निर्माण कर सकती है, शत्रुओं को परास्त कर सकती है, कला और साहित्य की रक्षा कर सकती है, व्यापार और उद्योग की उन्नति कर सकती है और एक ऐसी नौ-सेना का निर्माण कर सकती है जो विदेशी नौ-सेना का मुकाबला करने में समर्थ हो।“ शिवाजी ने अपने आदर्श और जीवन के उदाहरण से हिन्दुओं को अपने पूर्ण विकास का मार्ग बताया। उनकी धार्मिक सहनशीलता आधुनिक समय के लिए भी उदाहरणस्वरूप है। शक्ति और साम्राज्य को संचय करने के पश्चात् तथा औरंगजेब द्वारा जाग्रत किये गये धर्मान्धता के वातावरण में भी इस्लाम और मुसलमानों के प्रति उनका व्यवहार और मुसलमानों की वफादारी प्राप्त करने में उनकी सफलता अनुकरणीय है। शिवाजी निस्सन्देह महान् थे। इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है : “मैं उन्हें हिन्दू-जाति द्वारा उत्पन्न किया हुआ अन्तिम महान क्रियात्मक व्यक्ति और राष्ट्र-निर्माता मानता हूँ।“ उन्होंने पुनः लिखा है : “शिवाजी ने यह सिद्ध कर दिखाया कि हिन्दुत्व का वृक्ष वास्तव में गिरा नहीं है बल्कि वह सदियों की राजनीतिक दासता, शासन से पृथकत्व और कानूनी अत्याचार के बावजूद भी पुनः उठ सकता है, उसमें नये पत्ते आर शाखा आ सकती हैं और एक बार फिर आकाश में सिर उठा सकता है।” इस प्रकार शिवाजी हिन्दू-मराठा-राष्ट्र के निर्माण में सहयोग और हिन्दू-मराठा-शक्ति के उत्थान में योगदान बहुत अधिक महत्वपूर्ण है।
Tags
मध्यकालीन भारत