window.location = "http://www.yoururl.com"; Shambhaji, Rajaram and Tarabai | शम्भाजी, राजाराम और ताराबाई

Shambhaji, Rajaram and Tarabai | शम्भाजी, राजाराम और ताराबाई



शम्भाजी (1681 -1689)-

शंभाजी का जन्म 14 मई 1657 ई0 को पुरंदर किले पर हुआ था जो पुणे से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर है। वह शिवाजी महाराज की पहली और प्रिय पत्नी सईबाई के बेटे थे। वो महज़ दो साल के थे जब उनकी मां की मौत हो गई जिसके चलते उनकी परवरिश उनकी दादी जीजाबाई ने किया। नौ साल की उम्र में उन्हें एक समझौते के तहत राजपूत राजा जयसिंह के यहां बंदी के तौर पर रहना पड़ा था और जब शिवाजी औरंगज़ेब को चकमा देकर आगरा से भागे थे तब संभाजी उनके साथ ही थे। उनकी जान को ख़तरा भांप कर शिवाजी महाराज ने उन्हें अपने रिश्तेदार के घर मथुरा छोड़ दिया और उनके मरने की अफवाह फैला दी। कुछ दिनों बाद वो महाराष्ट्र सही-सलामत पहुंचे। शंभाजी शुरू से ही विद्रोही प्रवृति के थे और उनके गैर-ज़िम्मेदार भी माना गया. यही वजह रही कि उनके आचरण को काबू में लाने के लिए 1678 ई0 में शिवाजी महाराज ने उन्हें पन्हाला किले में क़ैद कर लिया था। वहां से वो अपनी पत्नी के साथ भाग निकले और मुग़लों से जा मिले। लगभग एक साल तक मुग़लों के साथ रहे लेकिन एक दिन जब उन्हें पता चला कि मुग़ल सरदार दिलेर ख़ान उन्हें गिरफ्तार कर के दिल्ली भिजवाने का मंसूबा बना रहा है तो वह मुग़लों का साथ छोड़ के महाराष्ट्र लौट आए।
जब अप्रैल 1680 ई0 में शिवाजी की मौत हुई, संभाजी पन्हाला में ही कैद थे। शिवाजी की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी सोयराबाई ने अप्रेत 1680 ई० में रायगढ़ में उसका राज्याभिषेक कर दिया। किन्तु पन्हाला किले में बन्द शम्माजी ने किलेदार की हत्या कर किले पर अधिकार कर लिया और प्रधान सेनापति हम्मीरराव मोहिते को अपनी तरफ मिला लिया। इसके बाद उसने रायगढ़ किले पर अधिकार कर राजाराम तया सोयराबाई को जेल में डाल दिया। 30 जुलाई 1680 ई0 को वह सिंहासन पर बैठा और मोरोपन्त पिंगले के पुत्र नीलोपन्त को अपना पेशवा बनाया तथा अपने दूसरे अनुयायियों को मिन्न-भिन्न पुरस्कारों से पुरस्कृत किया। 30 जनवरी, 1681 ई0 को राज्याभिषेक-महोत्सव विधिपूर्वक मनाया गया किन्तु चरित्रहीन होने के कारण वह जनता में अप्रिय हो गया जिससे उसकी हत्या का षड्यन्त्र रचा गया। इसकी गन्ध मिलने पर उसने अपनी सौतेली मॉं तथा बहुत-से सामन्तों को मरवा डाला। इसका परिणाम यह हुआ कि उसके सामन्त और अफसर उसके विरुद्ध हो गये जिन्हें दबाने के लिए शम्भाजी को कड़ा कदम उठाना पड़ा। अपने पिता के सेवकों पर से उसका विश्वास उठ गया या अतः उसने कन्नौज निवासी कवि कलश नाम के एक ब्राह्मण को, जो संस्कृत और हिन्दी का विद्वान और कवि था, अपना सलाहकार नियुक्त किया तथा उसे पेशवा से भी अधिक ऊंचा पद प्रदान किया। विदेशी होने के कारण मराठे इससे बहुत अधिक घृणा करने लगे और उसे ’भेदिये’ की उपाधि देकर ’कलुष’ नाम से पुकारने लगे। इन परिस्थितियों में शम्भाजी के शासनकाल में असन्तोष और अशान्ति बनी रही। अब मराठों का प्रताप तो घटने लगा किन्तु शिवाजी ने इसमें जो जान डाल दी थी उसी के बल से शासन-प्रबन्ध किसी तरह चलता रहा।
शम्भाजी ने राज्य पर अपना अधिकार अच्छी तरह स्थापित भी नहीं किया था कि उसे औरंगजेब के चतुर्थ पुत्र राजकुमार अकबर का दक्खिन को भागने का समाचार मिला। अकबर शम्भाजी का सहयोग प्राप्त कर अपने पिता से भारत का सिंहासन छीनना चाहता था। उसने मई, 1681 ई० में शम्माजी को सूचना दी कि वह मराठा राजा के सहयोग से औरंगजेब को गद्दी से उतार कर स्वयं बादशाह बनना चाहता है। राजकुमार अकबर को रायगढ़ से 25 मील उत्तर स्थित पाली में ठहराकर शंभाजी ने उसकी सुख-सुविधा का प्रबन्ध किया गया। 23 नवम्बर 1681 ई0 को शंभाजी और अकबर द्वितीय में मुलाकात हुई किन्तु दोनों में कोई समझौता नहीं हो सका।
शम्भाजी को राजकुमार की सच्चाई में सन्देह था और उसे यह भी डर था कि कहीं यह सब औरंगजेब का षड्यन्त्र न हो। मराठा राजा अपने चरित्र की दुर्बलता एवं घरेलू कठिनाइयों के कारण भी दिल्ली के विरुद्ध धन और समय नहीं लगा सकता था। यद्यपि मराठा राजा ने अकबर की सुख-सुविधा का पूरा-पूरा प्रबन्ध कर दिया था किन्तु फिर भी अकबर का 6 वर्ष का महाराष्ट्र प्रवास निष्फल ही रहा और औरंगजेब को राजगद्दी से उतारने की योजना केवल कागज पर ही सिमट कर रह गयी।
इसी बीच में औरंगजेब ने अपने पुत्र का दक्खिन में पीछा किया और औरंगाबाद में अपना निवास स्थान बनाकर लगभग 25 वर्ष तक उसी के आसपास अपना जीवन बिताता रहा। उसने शम्भाजी और अकबर के अनुयायियों में भेदभाव के बीज बोकर उनमें से बहुतों को घूस और पुरस्कारों द्वारा अपने पक्ष में कर लिया। उसने शहाबुद्दीनखां को नासिक के पास के मराठों के मुख्य-मुख्य किले छीनने के लिए भेजा जिससे उत्तर में अकबर का मार्ग रुक जाय। खान ने नासिक से सात मील उत्तर में स्थित रामसेज किले का घेरा डाल दिया किन्तु समय पर मराठा सेना के आ जाने के कारण उसे घेरा उठा लेना पड़ा। अकबर ने अब शम्भाजी को सलाह दी कि दोनों मिलकर या तो औरंगजेब के प्रधान स्थान पर धावा बोल दें अथवा गुजरात होते हुए राजपूताना पर आक्रमण करें। किन्तु शम्भाजी परिस्थितियों से विवश होकर इस साहसिक काम में योग न दे सका। दोनों राजकुमारों की हिचकिचाहट के कारण औरंगजेब को बीजापुर और गोलकुण्डा राज्य पर आक्रमण कर उन्हें अपने साम्राज्य में मिलाने का अवसर मिल गया और 1686 ई० में बीजापुर का पतन हो गया और 1687 ई० में गोलकुण्डा का। अब अकबर को शम्भाजी की सहायता की कोई आशा न रही। अतः निराश होकर फरवरी 1687 ई० में उसने राजापुर से अंग्रेजी जहाज द्वारा ईरान में जाकर शरण ली।
शम्माजी का जंजीरा और चोल पर आक्रमण, 1681-83 ई०
जिस सयय औरंगजेब दक्खिन की यात्रा कर रहा था उसी समय शम्भाजी ने जंजीरा के सिद्दियों और चोल के पुर्तगालियों पर आक्रमण कर दिया क्योंकि औरंगजेब ने इनसे मराठा राजा के विरुद्ध लड़ाई छेड़ने के लिए कहा था और सिद्दियों ने 1681 ई० के अन्त में रायगढ़ किले के पास तक के मराठा प्रदेश पर आक्रमण कर दिया था। अतः शम्भाजी ने जल और थल से जंजीरा का घेरा डालकर और बहुत नुकसान पहुंचाकर इसका जवाब दिया था। किन्तु इसी समय औरंगजेब दक्खिन में आ गया और शम्भाजी को जंजीरा का घेरा उठाना पड़ा। 1683 ई० में शम्भाजा ने चोल और गोआ के पुर्तगाली बन्दरगाहों पर आक्रमण कर उनको बड़ी मुसीबत में डाल दिया। मराठों ने फोंद पर पुर्तगालियों को हराकर वहाँ का किला भी छीन लिया। गोआ भी आत्मसमर्पण करने वाला था कि पुतंगालियों के भाग्य से शम्भाजी को घेरा उठा लेना पड़ा क्योंकि उसे शाहआलम के नेतृत्व में आने वाली गुगल सेना का मुकाबला करना था जो नवम्बर 1683 ई० में उसकी सेना के पिछले भाग को आतंकित कर रही थी।
शम्माजी की पराजय और निर्मम हत्या, 1686 ई०
1684 ई० के आरम्भ से औरंगजेब ने मराठा शासक शंभाजी को गिरफ्तार करने के लिए अपनी सेना भेज दी। शहाबुद्दीन फीरोजजंग और उसके पुत्र को उत्तरी कोकण और वगलाना को जीतने के लिए भेजा गया। परिणाम यह हुआ कि मुगल और मराठों के बीच भीषण युद्ध हुआ और मराठों ने मुगलों के औरंगाबाद से लेकर बुरहानपुर तक के प्रदेश को उजाड़ दिया। किन्तु मराठों के भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया। ओरंगजेब बीजापुर और गोल कुण्डा के राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लेने के बाद शम्भाजी के विरुद्ध अपनी सारी शक्ति लगाने के लिए स्वतन्त्र हो गया था और उसने बीजापुरी सेना के पिछले सेनापति को सतारा जिले पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इस समय जो युद्ध हुआ उसमें शम्भाजी का प्रधान सेनापति हम्मीरराव मोहिते मारा गया। इसके बाद मुगलों ने मराठों को घेरना आरम्म कर दिया। यह देखकर शम्भाजी के बहुत-से साथी उसे छोड़कर भाग गये। मुगल सेना ने नवम्बर 1688 ई० में कवि कलश को परास्त किया और वह किसी तरह जान बचाकर विशालगढ़ में शरण लेने के लिए भाग गया। अन्ततः संगमेश्वर के पास फरवरी 1689 ई० को हल्की-सी गुठभेड़ के बाद शम्भाजी और कवि कलश को बन्दी बनाकर बहादुरपुर में औरंगजेब के डेरे पर लाया गया।
दूसरे दिन औरंगजेब ने शंभाजी के सामने यह शर्त रखी कि यदि वह अपने सारे किले उसे सौंप दे, अपना छिपा हुआ खजाना बता दे तथा उन मुगल अफसरों के नाम बता दे जो उनसे मिले हुए है तो वह उसे माफ कर देगा और उसे मुक्त कर दिया जायेगा। शंभाजी ने अनादर के साथ इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस पर औरंगजेब ने उसे अनेक भयंकर शारीरिक यातनाएॅ दी जिसके कारण शंभाजी ने सम्राट और उसके पैगम्बरों को धिक्कारा और औरंगजेब को कहा कि वह मित्रता के पुरस्कार में अपनी लडकी का विवाह उसके साथ कर दे। इस प्रत्युत्तर से विचलित होकर औरंगजेब के आदेश पर उसी रात पहले शंभाजी की ऑखे फोड दी गई और दूसरे दिन कवि कलश की जीभ काट दी गई और लगातार पन्द्रह दिनों तक उसे रोजाना इसी तरह तडपाया गया। इसके बाद 21 मार्च 1689 ई0 को बडी निर्दयता के साथ उन्हे मार डाला गया और उनके शरीर के टुकडे-टुकडे करके कुत्तों को डाल दिये गये। उनके सिरों में भूसा भरकर दक्खिन के मुख्य-मुख्य नगरों में ढोल पीट-पीटकर घुमाया गया।
इस प्रकार दूसरा मराठा राजा केवल नौ वर्ष के अल्प-शासनकाल के पूर्व ही समाप्त हो गया। शम्भाजी एक वीर सैनिक तो था किन्तु एक अच्छा राजा अथवा राजनीतिज्ञ नहीं था। उसमें न तो अपने पिता जैसी संगठन शक्ति थी और न अवसर से लाभ उठाने की शिवाजी जैसी योग्यता। इसके अतिरिक्त उसमें विरोध को शान्त करना, मनुष्य के गुणों को पहचानना और साथियों को निभा लेने के गुण भी नहीं थे। उसने अपनी चरित्रहीनता के कारण अपने पिता के मन्त्रियों तथा अफसरों के साथ झगड़ना शुरू कर दिया था जिसका परिणाम यह हुआ कि वह उन्हीं पर सन्देह करने लगा जिन्होंने उसके पिता के राज्य को समृद्धिशाली बनाया था। औरंगजेब का पुत्र अकबर दक्षिण में आ गया था किन्तु वह उससे मिलकर औरंगजेब अथवा उसकी राजधानी पर हमला करने में चूक गया। शम्माजी वीर और उत्साही होते हुए भी अपने जीवन में बिलकुल असफल रहा किन्तु उसकी क्रूरतापूर्ण मृत्यु से उसके पापों का प्रायश्चित हो गया। उसके बन्दी जीवन तथा मृत्यु ने मराठा जाति को एकता के सूत्र में पिरोकर उसमें वह शक्ति और साहस भर दिया कि वह मुगल सम्राट को हराने के लिए कटिबद्ध हो गयी।

राजाराम (1689 -1700)-

शम्भाजी की गिरपतारी के समय शिवाजी का द्वितीय पुत्र राजाराम उन्नीस वर्ष का नवयुवक था अतः 19 फरवरी, 1689 ई० को यह राजा घोषित कर दिया गया। इस समय शंभाजी के पुत्र शाहू अभी बहुत छोटा था और दूसरी तरफ औरंगजेब के निरन्तर हमलों से परेशान मराठों के लिए कोई दूसरा विकल्प नही था अतः स्वराज्य की रक्षा के लिए राजाराम ने यह पद स्वीकार किया। उसने प्रहलाद नीराजी तथा उन सभी बड़े-बड़े अफसरों को मुक्त कर दिया जिन्हें शम्भाजी ने अन्यायपूर्वक गिरफ्तार कर लिया था। शम्भाजी की विधवा येसूबाई राजाराम को सुरक्षा की दृष्टि से विशालगढ़ में चले जाने की सलाह देकर स्वयं निर्भीकतापूर्वक रायगढ़ के घेरे का मुकाबला करने के लिए डट गयी। इस वीरांगना से उत्साह पाकर प्रहलाद नीराजी और शंकरजी मल्हार ने मुगलों के प्रदेश पर अभूतपूर्व धावा बोलकर उसे लुटना और जलाना आरम्भ कर दिया। उन्होंने मुगलों के दक्षिणी प्रदेश के प्रत्येक भाग में शत्रु की गतिविधि का पता लगाने के लिए गुप्तचर भेज दिये। उन्होंने रायगढ़ पर जुल्फिकारखां की नयी कुमुक का आना रोक दिया किन्तु उन्हीं के एक अफसर सूर्यजी पिसाल के विश्वासघात से राजधानी रायगढ का पतन हो गया। जुल्फिकारखॉं येसूबाई, उसके छोटे पुत्र शाहू तथा दूसरे प्रतिष्ठित सज्जनों को गिरफ्तार कर मुगलों के शिविर में ले आया और औरंगजेब ने अन्य बहुत-से किलों पर अधिकार कर लिया किन्तु उसकी यह सफलता अल्पकालीन ही रही क्योंकि अब मराठों के स्वतन्त्रता युद्ध ने जन-युद्ध का रूप ले लिया था।
राष्ट्र के विनाश को देखकर मराठों में ऐसा उत्साह आया कि वे सारी शक्ति बटोरकर देश की रक्षा में सन्नद्ध हो गये। यद्यपि राजाराम में अपने पिता जैसी संगठनशक्ति नहीं थी तो भी उसके नेतृत्व में अनेक वीर युवकों ने मुगलों के तूफानी धावे को रोकने का पूरा प्रयत्न किया। इनमें सबसे प्रमुख प्रहलाद नीराजी था जो अपने समय में महाराष्ट्र में सबसे अधिक चतुर समझा जाता था। राजाराम का दूसरा प्रमुख सलाहकार रामचन्द्र नीलकण्ठ था। इसमें मनुष्यों के गुण को पहवानकर उन्हें राष्ट्र रक्षा के काम में लगा देने की अद्भुत क्षमता थी। वह अपने विशालगढ़ के प्रधान कार्यालय से उत्तर में बुरहानपुर से लेकर दक्षिण में जिंजी तक के विशाल युद्धक्षेत्र पर सतर्क दृष्टि रखता था। इसके अतिरिक्त परसराम त्रियम्बक जो राजाराम का प्रतिनिधि था, सचिव शंकरजी नारायन, शान्ताजी घोरपड़े, और धनाजी जादव की सेवाएॅ भी राजाराम को प्राप्त हुई। इन चारों ने आश्चर्यजनक कार्यों से औरंगजेब के सारे मंसूबों पर पानी फेरकर मराठों को उस खोई हुई स्वतन्त्रता को बचा लिया जो शम्भाजी की गिरफ्तारी और रायगढ़ की राजधानी के पतन से नष्ट हो गयी थी। राजाराम अपने परिवार और दरबार के साथ जिंजी भाग गया किन्तु कुछ दिन बाद जिजी ही मराठों को राजधानी बन गयी। यहीं से उत्साही और साहसी मराठों की टुकड़िया महाराष्ट्र में मुगलों पर हमला करने के लिए भेजी गयीं। ये उन्हें हर सम्भव तरीके से परेशान कर देश में सामूहिक रूप से एक जगह इकट्ठा नहीं होने देती थीं।
जिंजी की घेराबंदी-
इसी बीच में औरंगजेब की सेना ने जुल्फिकारखा के नेतृत्व में जिंजी का घेरा डाल दिया। यह घेरा तो आठ साल तक पड़ा रहा किन्तु राजाराम निकलकर महाराष्ट्र में भाग गया। लड़ाई जारी रही और शान्ताजी घोरपड़े तथा धनाजी जादव ने मुगलों की बड़ी दुर्दशा कर दी। उन्होंने औरंगजेब के शिविर को घेरकर उसे अनेक बार लूटा। इसका परिणाम यह हुआ कि महाराष्ट्र का घेरा डालकर उसे जीतने की इच्छा रखने वाला औरंगजेब मराठों से स्वयं घिर गया किन्तु हठी औरंगजेब ने समझौते की चिन्ता न करके जीतने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया और अन्त में बुरी तरह हार गया।
राजाराम मार्ग में मुगलों से बचता हुआ मार्च 1698 ई० के प्रारम्भ में ही विशालगढ़ में आ गया था। उसने सतारा में अपना दरबार स्थापित किया। हालांकि सतारा कुछ दिन बाद ही छिन गया किन्तु मराठों ने इसे 1704 ई० में फिर वापस ले लिया। राजाराम ने देश का भ्रमण कर अपने किलों के किलेदारों को प्रोत्साहन दिया। फिर उसने कुछ सेना को खानदेश तथा बरार को लूटने तथा चौथ वसूल करने के लिए भेजा। 1699 ई० में उसने सूरत को लूटने का बहाना कर सिंहगढ़ के लिए प्रस्थान किया परन्तु एक मुगल सेना ने उसे पीछे लौटने के लिए विवश कर दिया। इस समय मराठों में जोश था और उन्होंने उन्नति भी कर ली थी, अतः उन्हें विश्वास हो गया था कि वे तूफान की तरह बढ़ने वाले मुगलों को खदेड़ देंगे। किन्तु राजाराम बीमार पड़ गया और सतारा का घेरा पड़ा होने के कारण वह पालकी में सिहगढ़ ले जाया गया, जहाँ तीस वर्ष की अवस्था में 12 मार्च, 1700 ई० को उसकी मृत्यु हो गयी।
राजाराम का मूल्यांकन –
राजाराम में अपने पिता जैसी सैनिक योग्यता और आक्रमण की कुशलता नहीं थी। शिवाजी की मृत्यु के समय वह केवल दस वर्ष का बच्चा था और फिर उसे शम्भाजी की कैद में भी रहना पड़ा था, अतः उसे उचित शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला। शम्भाजी की गिरफ्तारी और मृत्यु के कारण ही वह सिंहासन पर बैठ सका था। किन्तु वह बड़ा भाग्यशाली था कि उसे रामचन्द्र पन्त और प्रहलाद नीराजी जैसे आलौकिक योग्यता के सलाहकार तथा शान्ताजी और धनाजी जैसे वीर योद्धा उसकी योजना एवं नीति को कार्यान्वित करने के लिए मिल गये थे। यही कारण था कि राजाराम के राज्य को इस बात का गर्व था कि जहां तक मराठा हितों का सम्बन्ध था उसने विषम स्थिति को बदल दिया था। किन्तु यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि राजाराम दुर्बल राजा, अफीमची और चरित्रहीन था। उसमें सबसे बड़ा गुण यह था कि वह अपने मन्त्रियों का पूरा-पूरा विश्वास करता था। वह शायद ही कभी उनके काम में हस्तक्षेप करता था और यही उसकी सफलता का मुख्य कारण था।

ताराबाई और मराठों का स्वतंत्रता संग्राम (1700 -1707)-

राजाराम की मृत्यु के बाद उसकी विधवा रानी ताराबाई ने अपने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को मराठा साम्राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया और स्वयं उसकी संरक्षिका बन गयी। यद्यपि नयी मराठा राजधानी सतारा का पतन राजाराम की मृत्यु के एक महीने बाद ही हो गया था किन्तु इस वीरांगना ने इसके लिए आंसू बहाने में एक क्षण भी नष्ट नहीं किया। उसने जनता में उत्साह का संचार कर औरंगजेब के विरुद्ध कड़ा मोर्चा बनाया। उसने विलक्षण संगठन-शक्ति का परिचय देकर मराठों में देशभक्ति का संचार कर दिया।
शासन सत्ता ग्रहण करने के बाद ताराबाई ने मुख्य रुप से दो कार्य किये –

  1. मंत्रिमण्डल का गठन
  2. अपनी सौत राजसबाई तथा उसके पुत्र शंभाजी द्वितीय को कारावास में डालना।
    ताराबाई ने अपने मंत्रिमण्डल में रामचन्द्र पन्त को अमात्य, घानाजी जाधव को सेनापति और शंकर जी नारायण को सचिव पद पर नियुक्त किया। ताराबाई ने जिन परिस्थितीयों में नेतृत्व ग्रहण किया वे अत्यन्त जटिल थी। राजधानी सतारा और पाली के किले पर मुगलों का अधिकार हो चुका था। राजाराम की मृत्यु से उत्साहित होकर मुगल सेना मराठज्ञें को पूर्णतया विनष्ट करने के लिए तत्पर थे। इस समय महाराष्ट्र में ऐसा कोई भी प्रभावशाली व्यक्ति नहीं था जो मराठा राजवंश में उत्पन्न पारस्परिक फूट का निराकरण करता परन्तु इस संकट के समय स्त्री होते हुए भी ताराबाई ने अत्यन्त साहस तथा दृढता से कार्य किया। उसने अपने कौशल से गृह कलह को शान्त किया तथा मुगल सम्राट की चुनौती को स्वीकार करते हुए लगातार सात वर्षो तक निरन्तर साहस और योग्यता के साथ मराठा स्वतंत्रता संग्राम को संचालित किया।
    सतारा को अपने हाथ से निकल जाने के बाद ताराबाई ने पन्हाला को अपना मुख्यालय बनाया और शीध्र ही मुगलों के विरुद्ध सैनिक अभियान प्रारंभ कर दिया। 18 अगस्त 1700 ई0 में हनुमन्तराव ने मुगलों से खटावकर जिला जीत लिया। रानोजी के नेतृत्व में एक अन्य टुकडी ने बीजापुर जिले के वागेबाडी के समृद्ध क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
    ताराबाई ने कान्होजी जैसे शक्तिशाली सामन्त को भी जंजीरा के सिद्दीयों के विरुद्ध अभियान छेडने के लिए पत्र लिखा। इसी बीच बन्दी शाहू का उपयोग करते हुए औरंगजेब ने राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास किया। ताराबाई के संगठित मराठा संघर्ष ने औरंगजेब को उत्तेजित कर दिया और पन्हाला दुर्ग को हस्तगत करने के लिए 1701 ई0 में विशाल सेना लेकर घेरा डाल दिया। शीध्र ही पन्हाला दुर्ग का पतन हो गया और इस प्रकार ताराबाई ने प्रतापगढ दुर्ग में शरण लिया। देखते ही देखते अनेक दुर्गो और नगरों पर मुगलों का अधिकार हो गया। अपने जीवन की अन्तिम चढाई औरंगजेब ने बेराडा के सरदार पर की थी। मुगल अभियानों की भयंकरता के वावजूद भी मराठे निराश नही हुए और उन्होने अपना संघर्ष जारी रखा। मनुची ने 1707 ई0 में लिखा था कि – आजकल मराठी सेनानायक और सैनिक पूर्ण आत्मविश्वास के साथ घूमते-फिरते है क्योंकि उन्होने मुगल सेनापतियों को परास्त कर दिया है और मुगल उनसे डरने भी लगे है।
    घानाजा जाधव ने मार्च 1706 ई0 में बडौदा को पूरी तरह लूटा और मुगल फौजदार नजरतअली को बन्दी बना लिया। इसके पश्चात मुगलों के पुराने गढ बरार और खानदेश पर भी घावे मारे गये। इस प्रकार सम्पूर्ण दक्षिण भारत में ताराबाई के सैनिकों का आतंक छाया हुआ था। ताराबाई के नेतृत्व में मराठों की शक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गयी जिससे विवश होकर औरंगजेब को अपने बचाव में लगना पड़ा। वृद्ध सम्राट के अन्तिम वर्ष में तो मराठों ने महाराष्ट्र, मालवा और गुजरात तक लम्बे-लम्बे छापे मारे। उन्होंने पश्चिमी समुद्रतट के बुरहानपुर, सूरत, भड़ौंच और दूसरे समृद्ध नगरों को लूटा। इन मराठा-मुगल संघर्षों के मघ्य ही मुगल सम्राट औरंगजेब का 2 मार्च 1707 ई0 को देहान्त हो गया। सम्राट की मृत्यु ने मराठा राजनीति को एक नवीन मोड दिया। अब ताराबाई के स्थान पर शाहु मराठा राजनीति का संचालक हो गया।
    ताराबाई का मूल्यांकन –
    ताराबाई ने जिस ढंग से राजाराम की मृत्यु के बाद मराठों का नेतृत्व किया वह वास्तव में एक महत्वपूर्ण तथा उल्लेखनीय कार्य था। उसकी सफलता इस बात में नीहित थी कि उसने अपने समय के अराजक सैनिकों तथा महत्वाकांक्षी सेनानायकों को एकता के सूत्र में बॉधकर मुगलों का साहस के साथ सामना ही नही किया वरन् मुगल साम्राज्य को गहरा आघात पहुॅचाया। वास्तव में वह मराठों के संघर्ष की आत्मा थी। यथार्थ में मराठों की सफलता का सारा श्रेय ताराबाई के अदम्य और निर्भीक व्यक्तित्व को ही जाता है। राजाराम की मृत्यु से औरंगजेब को जो प्रसन्नता हुई थी उसे ताराबाई के साहसपूर्ण नेतृत्व ने विनष्ट कर दिया। मराठों को अपने स्वातन्त्र्य-युद्ध में जो सफलता मिली वह इसी रानी के व्यक्तित्व पर निर्भर थी।
    खॉफी खॉ के शब्दों में – सम्राट तथा दरबारियों ने राजाराम की मृत्यु के समाचार पर एक दूसरे को परस्पर बधाई दी थी, किन्तु उनकी प्रसन्नता अपूर्ण थी। उन्हे क्या मालूम था कि अल्लाह ने उनके लिए क्या सोचा है। ताराबाई ने चारो तरफ विध्वंस मचाया हुआ है, उसका नेतृत्व तथा सैनिक संगठन भी अद्वितीय है। इसी के परिणामस्वरुप मराठे छाये और उत्पात मचाए हुए है।
    ताराबाई के व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हुए प्रो0 ब्रजकिशार लिखते है कि- संक्षेप में, हम यह कह सकते है कि शिवाजी द्वारा जोडे गये राज्य के भग्नावशेष में से ताराबाई ने आगामी थोडे से ही वर्षो में एक नवीन महत्तर महाराष्ट्र को पुनर्जिवित कर दिखाया।

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