window.location = "http://www.yoururl.com"; Maratha Empire under Peshwas | पेशवाओं के अधीन मराठा साम्राज्य

Maratha Empire under Peshwas | पेशवाओं के अधीन मराठा साम्राज्य

बालाजी विश्वनाथ, 1713 – 20

शिवाजी ने अपने अथक परिश्रम से एक मराठा राज्य की स्थापना की थी लेकिन उनकी मृत्यु के बाद योग्य उत्तराधिकारी के अभाव में मराठा राज्य की नींव हिल गई। इन प्रतिकूल परिस्थितीयों में बालाजी विश्वनाथ के रुप में एक कुशल राजनीतिज्ञ, सेनानायक तथा संगठनकर्ता का मराठा राजनीतिक पटल पर पदार्पण हुआ जिसने शाहू का हाथ थामा तथा डूबते हुए मराठा साम्राज्य को बचाने का भरसक प्रयत्न किया। यह कहना पूर्णतया सत्य है कि – अकेले रहकर शाहू पूर्ण रुप से असफल सिद्ध होता। उसने अपनी कुशलता तथा कूटनीतिज्ञता से विरोधी शक्तियों को दमन कर शाहू की स्थिती को सुदृढ किया तथा मराठा राज्य की रक्षा कर उसे पुनर्जिवित किया।
बालाजी विश्वनाथ एक ब्राह्मण था और उसने अपने जीवन की शुरुआत एक छोटे से राजस्व अधिकारी के रुप में प्रारंभ किया। 1708 ई0 वह बालाजी धनाजी जाधव की सेवा में रहा लेकिन 1708 ई0 में उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र चन्द्रसेन जाधव के ताराबाई के पक्ष में मिल जाने पर बालाजी विश्वनाथ को शाहू की सेवा में आने का अवसर प्राप्त हुआ। 1707 ई0 में जब शाहू मराठा साम्राज्य का छत्रपति बना तो उसने बालाजी विश्वनाथ को सेनाकर्ते की पदवी देते हुए नई सेना के गठन व देश में शान्ति व सुव्यवस्था की स्थापना का कार्य सौंपा। बालाजी विश्वनाथ की सेवाओं से प्रसन्न होकर 1713 ई0 में शाहू ने उसे पेशवा या मुख्य प्रधान नियुक्त किया।

बालाजी विश्वनाथ की उपलब्धियॉ –

शाहू और ताराबाई के सत्ता संघर्ष के समय बालाजी विश्वनाथ ने शाहू की स्थिती को सुदृढ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके लिए बालाजी विश्वनाथ ने तीन प्रमुख कार्य किये – सेना का सुदृढ संगठन, ताराबाई का दमन और खटावकर का दमन। इस प्रकार उसने मराठा साम्राज्य में विरोधियों का दमन कर शान्ति व्यवस्था कायम करने तथा शाहू की स्थिती को मजबूत बनाने में सफलता प्राप्त की। शिवाजी के शासनकाल से लेकर तात्कालीन समय तक परिवर्तित परिस्थितियों में बालाजी ने यह अनुभव किया कि प्रशासन की संघीय व्यवस्था ही अधिक व्यवहारिक और उपयोगी है फलस्वरुप उसने शक्तिशाली मराठा सामन्तों के संघ की स्थापना की। इसके अन्तर्गत शाहू के समर्थकों और स्वामीभक्त सामन्तों को प्रसन्न करने के लिए न केवल उन्हे उनकी पुरानी जागीरे स्थायी कर दी गई अपितु उन्हे नई जागीर, सुविधाएॅ और शक्तियॉ भी प्रदान की गई।
मराठा संघ की स्थापना के बाद बालाजी विश्वनाथ ने वित्तीय पुनर्गठन का भी प्रयास किया। सामन्तों को राजस्व वसूलने की शक्तियॉ प्रदान की गई तथा उन्हे निश्चित धनराशी राजकोष में जमा करना पडता था। सरदेशमुखी की आय तो पूर्णतः छत्रपति के पास जाती थी तथा शेष छः मुगल सूबों से प्राप्त चौथ की राशी तथा जागीरों से प्राप्त आय को राजकोष में सम्मिलित किया जाता था। बालाजी विश्वनाथ ने साम्राज्य निर्माण के लिए निश्चित नीति बनाकर इसे क्रियान्वित किया। प्रो0 जी0एस0 सरदेसाई ने इस बात का समर्थन करते हुए कहा है कि – हिन्दू साम्राज्य के निर्माण में उसने समस्त उपलब्ध साधनों को प्रयुक्त करके दूरदर्शिता का परिचय दिया जिसे शिवाजी ने आदर्श बनाया था। दूसरी तरफ कुछ इतिहासकार इस मत से सहमत नही है और उनका मानना है कि साम्राज्य निर्माण के कार्य में दो शर्तो की पूर्ति आवश्यक है- विभिन्न हितों के मध्य पूर्ण समन्वय और आंतरिक शान्ति तथा विस्तारवादी प्रक्रिया द्वारा निरन्तर विभिन्न राज्यों को अपने प्रभाव क्षेत्र में जाना। इन इतिहासकारों के अनुसार बालाजी ने तो प्रथम शर्त की पूर्ति की लेकिन दूसरी शर्त की पूर्ति में वह असफल रहा।
फर्रूखशियर के मुगल सम्राट बनने के उपरान्त निजाम-उल-मुल्क दक्षिण का सूबेदार बना। मुगल साम्राज्य उस समय दलबन्दी में विलिन था। अतः निजाम ने अपने को दक्षिण का स्वतंत्र शासक बनने का प्रयास किया। सर्वप्रथम उसने मराठों की चौथ तथा सरदेशमुखी वसूल करने के अधिकार को अस्वीकार किया। उसने कई स्िानों पर आक्रमण भी किये। खाफी खॉ के शब्दों में- ‘‘ निजाम ने मराठों को कई स्थानों पर परास्त किया लेकिन अपनी छापामार नीति के कारण मराठे उसके नियंत्रण में नही आये।‘‘ इसी बीच 1715 ई0 में उसे दिल्ली वापस बुला लिया गया और उसकी जगह पर हुसैन अली दक्षिण भेजा गया। कुछ समय तक हुसैन अली भी निजाम अली की नीति पर चलता रहा और उसने भी मराठों का दमन करना चाहा। बालाजी के सैनिकों ने बुरहानपुर के पास हुसैन अली के मीरबक्शी जुल्फीकार खॉ को परास्त किया। इस समय हुसैन अली सतारा पर आक्रमण की तैयारी कर रहा था। इसी समय शंकर जी मल्हार के माध्यम से 1718 ई0 में बालाजी व हुसैन अली के मध्य एक समझौता हुआ जिसके शर्ते निम्नलिखित है –

  • शाहू को दक्षिण के छः सूबों में चौथ तथा सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार दे दिया गया।
  • मुगल सम्राट द्वारा अधीनस्थ किये गये मराठा स्वराज्य के प्रदेश लौटा दिये गये।
  • शाहू की माता व उसकी दो पत्नियों को भी मुक्त करने का वचन दिया गया।
  • इसके बदले शाहू 10 लाख पेशकश तथा 15 हजार सैनिक सूबेदार की रक्षा के लिए देगा।

इस सन्धि में मराठों व सैयद बन्धुओं के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण तथा सुदृढ हो गये। यह सन्धि बालाजी विश्वनाथ की महान उपलब्धि मानी जाती है क्योंकि इस सन्धि से शाहू छत्रपति बन गया और उसकी माता व पत्नी मुक्त हो गयी। इतिहासकार रिचर्ड टेम्पल ने मुगल सूबेदार हुसैन अली तथा बालाजी विश्वनाथ के बीच 1719 ई में हुई सन्धि को ‘‘मराठा साम्राज्य का मैग्नाकार्टा‘‘ की संज्ञा दी हैं।
इस सन्धि पर मुगल सम्राट ने हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया। इसपर बालाजी विश्वनाथ 18 हजार सैनिकों के साथ 1719 ई0 में दिल्ली जा धमका जहॉ उसने फर्रूखशियर को हटाने में सैयद बन्धुओं की मदद की। सैयद बन्धुओं ने फर्रूखशियर को अन्धा कर दिया और उसके स्थान पर रफीउर्दजात को नया सम्राट बना दिया। उसने सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिये। इस यात्रा के समय बालाजी ने अपनी ऑखों से दिल्ली की दयनीय दशा को देखा, अपने छत्रपति की माता को साथ लाया और साथ में वह 32 लाख रुपया नकद भी लेकर लौटा। इसलिए पेशवा बालाजी विश्वनाथ की यह दिल्ली यात्रा भी महान उपलब्धि मानी जाती है।
इन सम्पूर्ण विवेचनों से यह स्पष्ट है कि बालाजी विश्वनाथ ने शाहू की महाराष्ट्र में जडे जमाई, मराठों को संगठित किया तथा अपनी स्वामी की धाक दिल्ली में जमा दी। इसके अतिरिक्त मराठा महासंघ की स्थापना करना उसके सबसे बडी उपलब्धि है। बालाजी विश्वनाथ ने अपनी क्षमता तथा योग्यता के बल पर पतन की ओर जा रहे मराठा साम्राज्य को रोका और कुछ समय के लिए मराठा राज्य की सोयी हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त किया।

बाजीराव प्रथम, 1720-40 .

बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद शाहू ने उनके पुत्र बाजीराव प्रथम को पेशवा नियुक्त किया और इस प्रकार बालाजी विश्वनाथ के परिवार में पेशवा पद पैतृक अर्थात वंशानुगत हो गया। बाजीराव प्रथम के काल में मराठा शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर पहुॅच गई क्योंकि बाजीराव प्रथम ने ही मराठा साम्राज्य के विस्तार के लिए उत्तर दिशा में आगे बढने की नीति का सूत्रपात किया ताकि मराठों का पताका कृष्णा से लेकर अटक तक फहराए।
बाजीराव प्रथम ने मुगल साम्राजय के तेजी से हो रहे पतन और विघटन को नजदीक से महसूस किया इसलिए वह इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहता था। मुगल साम्राज्य के प्रति अपनी नीति की घोषणा करते हुए बाजीराव प्रथम ने कहा – ‘‘हमें इस जर्जर वृक्ष के तने पर आक्रमण करना चाहिए, शाखाएॅ तो स्वयं ही गिर जायेगी।‘‘
23 जून, 1724 ई0 में शूकरखेडा के युद्ध में मराठों की मदद से निजामुल-मुल्क ने दक्कन के मुगल सूबेदार मुबारिज खाँ को परास्त करके दक्कन में अपनी स्वतंत्रता सत्ता स्थापित की। निजामुल-मुल्क ने अपनी स्थिति मजबूत होने पर पुनः मराठों के खिलाफ कार्यवाही शुरू कर दी तथा चौथ देने से इंकार कर दिया। परिणामस्वरूप 1728 ई0 में बाजीराव ने निजामुल-मुल्क को पालखेङा के युद्ध में पराजित किया। युद्ध में पराजित होने पर निजामुल-मुल्क संधि के लिए बाध्य हुआ। 6मार्च 1728 ई0 में दोनों के बीच मुंशी शिवगाँव की संधि हुई जिसमें निजाम ने मराठों को चौथ और सरदेशमुखी देना स्वीकार कर लिया। इस संधि से दक्कन में मराठों की सर्वोच्चता स्थापित हो गई।
इस संधि से शाहू को मराठों के एकमात्र नेता के रूप में मान्यता देने आदि सभी शर्ते मंजूर हो गई किन्तु उसने शंभाजी द्वितीय को शाहू को सौंपने से इंकार कर दिया। 1731 में डभोई के युद्ध में बाजीराव प्रथम ने त्रियंबकराव को पराजित कर सारे प्रतिद्वन्दियों का अंत कर दिया। 1737 ई0 में मुगल बादशाह ने निजाम को मराठों के विरुद्ध भेजा। परंतु इस बार भी बाजीराव उससे अधिक योग्य सेनापति सिद्ध हुआ। उसने निजाम को भोपाल के पास युद्ध में पराजित किया। भोपाल युद्ध के परिणामस्वरूप 1738 ई0 में दुरई-सराय की संधि हुई। इस संधि की शर्ते पूर्णतः मराठों के अनुकूल थी। निजाम ने संपूर्ण मालवा का प्रदेश तथा नर्मदा से चंबल के इलाके की पूरी सत्ता मराठों को सौंप दी। 1739 ई0 में बेसीन की विजय बाजीराव की महान सैन्य कुशलता एवं सूझबूझ का प्रतीक थी। इस युद्ध में बाजीराव ने पुर्तगालियों से सालसीट तथा बेसीन के क्षेत्र छीन लिये। यूरोपीय शक्ति के विरुद्ध यह मराठों की महानतम विजय थी।
पुर्तगालियों की धार्मिक कट्टरता, बलात धर्म परिवर्तन, लूटपाट तथा अत्याचारों के कारण तटवर्ती मराठा समुदाय में उनके प्रति घृणा की भावना आ गई थी। पुर्तगालियों की उत्तरी क्षेत्र की राजधानी बेसीन थी तथा दक्षिणी क्षेत्र की राजधानी गोआ थी। पुर्तगालियों द्वारा सभी जहाजों को परमिट लेने व अपने क्षेत्र के बंदरगाहों में शुल्क चुकाने के लिए बाध्य किया जाता था। बाजीराव प्रथम ने 1733 ई0 में जंजीरा के सिद्दियों के खिलाफ एक लंबा शक्तिशाली अभियान आरंभ किया और अंततोगत्वा उन्हें मुख्यभूमि से निकाल बाहर कर दिया। सिद्दी जो पहले निजामशाह तथा बाद में आदिलशाह राज्य में सैनिक अधिकारी थे, 1670 ई0 के बाद से मुगलों की सेवा में आ गये।
बाजीराव प्रथम को लङाकू पेशवा अथवा शक्ति के अवतार के रूप में स्मरण किया जाता है। वह शिवाजी के बाद गुरिल्ला युद्ध का सबसे बङा प्रतिपादक था। शाहू ने बाजीराव प्रथम को योग्य पिता का योग्य पुत्र कहा है। बाजीराव प्रथम ने ही हिन्दू पद पादशाही का आदर्श रखा। यद्यपि बालाजी बाजीराव ने इसे खत्म कर दिया। 1732 ई0 में बाजीराव ने एक इकरारनामा तैयार किया जिसमें होल्कर, सिंधिया, आनंनदराव तथा तुकोजी पवार आदि के हिस्सों की व्याख्या की गई थी। इसी समझौते ने मालवा में भावी चार मराठा रियासतों की आधारशिला रखी।

हिन्दू पद पादशाही की अवधारणा और बाजीराव प्रथम :

हिन्दू पद पादशाही की स्थापना का लक्ष्य दूसरे पेशवा बाजीराव प्रथम (1720-1740 ई.) ने रखा था। इसका अर्थ था भारत पर मुस्लिमों का शासन समाप्त करने के लिए सभी हिन्दू राजाओं का एक हो जाना और सम्पूर्ण भारत में हिन्दू राज्य की स्थापना करना। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक था कि मराठे अन्य सभी हिन्दू राजाओं के साथ मैत्रीपूर्ण, उदारतापूर्ण तथा बराबरी का व्यवहार करते, ताकि स्वराज्य की स्थापना में सभी हिन्दू भागीदार बन सकते।
छत्रपति शिवाजी द्वारा व्यवस्थित तरीके से स्थापित हिंदू पद पादशाही के अंतर्गत एक नवीन हिंदू राज्य का पुनर्जन्म किया गया, जिसने पेशवाओं के समय में एक व्यापक आकार ले लिया।
बाजीराव प्रथम का शिवाजी के हिंदवी स्वराज्य या “हिंदू पद पादशाही” के उदात्त स्वप्न में अटूट विश्वास था और इस स्वप्न को मूर्त रूप देने हेतु अपने विचारों को छत्रपति शाहू के दरबार में रखने का उन्होंने निश्चय किया। उन्होंने मुग़ल साम्राज्य की कमज़ोर हो रही स्थिति का फ़ायदा उठाने के लिए शाहू महाराज को उत्साहित करने के लिए कहा कि – ‘आइये हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखायें तो स्वयं ही गिर जायेंगी, हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी।’ इसके उत्तर में शाहू ने कहा था कि, ‘निश्चित रूप से ही आप इसे हिमालय के पार गाड़ देगें, क्योंकि आप योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं।’
छत्रपति शाहू ने धीरे धीरे राज-काज से अपने को क़रीब-क़रीब अलग कर लिया और मराठा साम्राज्य के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव पर सौंप दिया। उन्होंने वीर योद्धा पेशवा को अपनी सेना का नेतृत्व करते हुए आगे बढ़ने की अनुमति दे दी और छत्रपति शिवाजी के स्वप्न को पूरा करने के लिए उन्हें हर मार्ग अपनाने की पूरी स्वतंत्रता प्रदान की। बाजीराव की महान सफलता में, उनके महाराज का उचित निर्णय और युद्ध की बाजी को अपने पक्ष में करने वाले उनके अनुभवी सैनिकों का बड़ा योगदान था। इस प्रकार उनके निरंतर के विजय अभियानों ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में मराठा सेना की वीरता का लोहा मनवा दिया जिससे शत्रु पक्ष मराठा सेना का नाम सुनते ही भय व आतंक से ग्रस्त हो जाता था।
बाजीराव का विजय अभियान सर्वप्रथम दक्कन के निजाम निजामुलमुल्क को परास्त कर आरम्भ हुआ। दक्कन के बाद गुजरात तथा मालवा जीतने के प्रयास में बाजीराव प्रथम को सफलता मिली तथा इन प्रान्तों में भी मराठों को चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार प्राप्त हुआ। ‘बुन्देलखण्ड’ की विजय बाजीराव की सर्वाधिक महान विजय में से मानी जाती है। मुहम्मद खां वंगश, जो बुन्देला नरेश छत्रसाल को पूर्णतया समाप्त करना चाहता था, के प्रयत्नों पर बाजीराव प्रथम ने छत्रसाल के सहयोग से 1728 ई0 में पानी फेर दिया और साथ ही मुगलों द्वारा छीने गये प्रदेशों को छत्रसाल को वापस करवाया। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा काल्पी, सागर, झांसी पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।
बाजीराव प्रथम लगातार बीस वर्षों तक उत्तर की तरफ बढ़ते रहे, प्रत्येक वर्ष उनकी दूरी दिल्ली से कम होती जाती थी और मुगल साम्राज्य के पतन का समय नजदीक आता जा रहा था। यह कहा जाता है कि मुगल बादशाह उनसे इस हद तक आतंकित हो गया था कि उसने बाजीराव से प्रत्यक्षतः मिलने से इंकार कर दिया था और उनकी उपस्थिति में बैठने से भी उसे डर लगता था। मथुरा से लेकर बनारस और सोमनाथ तक हिन्दुओं के पवित्र तीर्थयात्रा के मार्ग को उनके द्वारा शोषण, भय व उत्पीड़न से मुक्त करा दिया गया था। बाजीराव की राजनीतिक बुद्धिमता उनकी राजपूत नीति में निहित थी। वे राजपूत राज्यों और मुगल शासकों के पूर्व समर्थकों के साथ टकराव से बचते थे, और इस प्रकार उन्होंने मराठों और राजपूतों के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंधों को स्थापित करते हुए एक नये युग का सूत्रपात किया। उन राजपूत राज्यों में शामिल थे- बुंदी, आमेर, डूंगरगढ़, उदयपुर, जयपुर, जोधपुर इत्यादि।
खतरनाक रूप से दिल्ली की ओर बढ़ते हुए खतरे को देखते हुए सुल्तान ने एक बार फिर पराजित निजाम से सहायता की याचना की। बाजीराव ने फिर से उसे घेर लिया। इस कार्य ने दिल्ली दरबार में बाजीराव की ताकत का एक और अप्रतिम नमूना दिखा दिया। मुगल, पठान और मध्य एशियाई जैसे बादशाहों के महान योद्धा बाजीराव के द्वारा पराजित हुए। निजाम-उल-मुल्क, खान-ए-दुर्रान, मुहम्मद खान ये कुछ ऐसे योद्धाओं के नाम हैं, जो मराठों की वीरता के आगे धराशायी हो गये। बाजीराव की महान उपलब्धियों में भोपाल और पालखेड का युद्ध, पश्चिमी भारत में पुर्तगाली आक्रमणकारियों के ऊपर विजय इत्यादि शामिल हैं।
बाजीराव ने 41 से अधिक लड़ाइयाँ लड़ीं और उनमें से किसी में भी वह पराजित नहीं हुए। वह विश्व इतिहास के उन तीन सेनापतियों में शामिल हैं, जिसने एक भी युद्ध नहीं हारा। कई महान इतिहासकारों ने उनकी तुलना अक्सर नेपोलियन बोनापार्ट से की है। पालखेड का युद्ध उनकी नवोन्मेषी युद्ध रणनीतियों का एक अच्छा उदाहरण माना जाता है। कोई भी इस युद्ध के बारे में जानने के बाद उनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता। भोपाल में निजाम के साथ उनका युद्ध उनकी कुशल युद्ध रणनीतियों और राजनीतिक दृष्टि की परिपक्वता का सर्वोत्तम नमूना माना जाता है। एक उत्कृष्ट सैन्य रणनीतिकार, एक जन्मजात नेता और बहादुर सैनिक होने के साथ ही बाजीराव, छत्रपति शिवाजी के स्वप्न को साकार करने वाले सच्चे पथ-प्रदर्शक थे।
मशहूर वॉर स्ट्रेटिजिस्ट आज भी अमरीकी सैनिकों को पेशवा बाजीराव द्वारा पालखेड में निजाम के खिलाफ लड़े गए युद्ध में मराठा फौज की अपनाई गयी युद्धनीति सिखाते हैं। ब्रिटेन के दिवंगत सेनाप्रमुख फील्ड मार्शल विसकाउंट मोंटगोमेरी जिन्होने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मन्स के दाँत खट्टे किए थे, वे पेशवा बाजीराव से ख़ासे प्रभावित थे। अप्रैल 1740 ई0 में, जब बाजीराव अपने जागीर के अंदर आने वाले मध्य प्रदेश के खरगौन के रावरखेडी नामक गाँव में अपनी सेना के साथ कूच करने की तैयारी कर रहे थे, तब वे गंभीर रूप से बीमार हो गये और अंततः नर्मदा के तीर पर 28 अप्रैल 1740 को उनका देहावसान हो गया। एक प्रख्यात अंग्रेज इतिहासकार सर रिचर्ड कारनैक टेंपल लिखते हैं, “उनकी मृत्यु वैसी ही हुई जैसा उनका जीवन था- तंबूओं वाले शिविर में अपने आदमियों के साथ। उन्हें आज भी मराठों के बीच लड़ाकू पेशवा और हिंदू शक्ति के अवतार के रूप में याद किया जाता है।”
जब बाजीराव ने पेशवा का पद सँभाला था तब मराठों के राज्य की सीमा पश्चिमी भारत के क्षेत्रों तक ही सीमित थी। 1740 ई0 में, उनकी मृत्यु के समय यानि 20 वर्ष बाद में, मराठों ने पश्चिमी और मध्य भारत के एक विशाल हिस्से पर विजय प्राप्त कर लिया था और दक्षिण भारतीय प्रायद्वीप तक वे हावी हो गये थे। यद्यपि बाजीराव मराठों की भगवा पताका को हिमालय पर फहराने की अपनी प्रतिज्ञा पूरी नहीं कर पाए, लेकिन उनके पुत्र रघुनाथ राव ने 1757 ई0 में अटक के किले पर भगवा ध्वज को फहराकर और सिंधु नदी को पार कर के अपने पिता को स्वप्न को साकार किया। निरंतर बिना थके 20 वर्षों तक हिंदवी स्वराज्य स्थापित करने के कारण उन्हें (बाजीराव को) हिंदू शक्ति के अवतार के रूप में वर्णित किया गया है। लोगों में स्वतंत्रता के प्रति उत्कृष्ट अभिलाषा की प्रेरणा द्वारा और आधुनिक समय में हिंदुओं को विजय का प्रतीक बनाने के द्वारा वे धर्म की रचनात्मक और विनाशकारी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते थे। पेशवा बाजीराव प्रथम अपने जीवन काल में महानायक के रूप में प्रख्यात थे और मृत्यु के बाद भी लोगों के मन उनकी यह छवि उसी प्रकार विद्यमान थी। उनकी उपस्थिति हिंदू जन मानस पर अमिट रूप से अंकित हो चुकी है और इसे समय के अंतराल द्वारा भी खंडित नहीं किया जा सकता।
“Oriental Experiences” में सर आर. टेम्पल कहते हैंः “बाजीराव एक उत्कृष्ट घुड़सवार होने के साथ ही (युद्ध क्षेत्र में) हमेशा कार्रवाई करने में अगुआ रहते थे। वे मुश्किल हालातों में सदा अपने को सबसे आगे कर दिया करते थे। वह श्रम के अभ्यस्त थे और अपने सैनिकों के समान कठोर परिश्रम करने में एवं उनकी कठिनाइयों को अपने साथा साझा करने में स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते थे। राजनैतिक क्षितिज पर बढ़ रहे उनके पुराने शत्रुओं मुसलमानों और नये शत्रुओं यूरोपीय लोगों के खिलाफ उनके अंदर राष्ट्रभक्तिपूर्ण विश्वास के द्वारा हिंदुओं से संबंधित विषयों को लेकर राष्ट्रीय कार्यक्रमों की सफलता हेतु एक ज्वाला धधक रही थी। अरब सागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में मराठों के विस्तार को देखना ही उनके जीवन का ध्येय था।
यह बाजीराव ही थे जिन्होंने महाराष्ट्र से परे विंध्य के परे जाकर हिंदू साम्राज्य का विस्तार किया और जिसकी गूँज कई सौ वर्षों से भारत पर राज कर रहे मुगलों की राजधानी दिल्ली के कानों तक पहुँच गयी। हिंदू साम्राज्य के निर्माण का प्रयत्न इसके संस्थापक शिवाजी द्वारा किया गया जिसे बाद में बाजीराव द्वारा विस्तारित किया गया, और जो उनकी मृत्यु के बाद उनके बीस वर्षीय पुत्र के शासन काल में चरम पर पहुँचा दिया गया। पंजाब से अफगानों को खदेड़ने के बाद उनके द्वारा भगवा पताका को न केवल अटक की दीवारों पर अपितु उससे कहीं आगे तक फहरा दिया गया। इस प्रकार बाजीराव का नाम भारत के इतिहास में हिंदू धर्म के एक महान योद्धा और सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक के रूप अंकित है।

बालाजी बाजीराव, 1740-61

बाजीराव प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बालाजी बाजीराव पेशवा बना। निश्चित रुप से वह अपने पिता के समान योग्य सैनिक और सेनापति नहीं था जिसके कारण वह मराठा सरदारों को अपने अधीन बनाये रखने और उनमें पारस्परिक सहयोग बनाए रखने में असफल रहा। बालाजी बाजीराव ने अपने पिता बाजीराव प्रथम के अधूरे कार्यों को पूरा करते हुए मराठा साम्राज्य का उत्तर और दक्षिण में और अधिक प्रसार किया परन्तु यह भी ध्यान रखना होगा कि इसके काल में हिन्दू पदपादशाही की भावना को धक्का लगा। बालाजी बाजीराव के शासन काल में होल्कर तथा सिधियों ने राजपूत प्रदेशों को लूटा तथा रघुनाथ राव ने खुम्वेर के जाट दुर्ग को आ घेरने का कुटिल प्रयत्न किया।

बंगाल के विरुद्ध अभियान –

पेशवा पद पर नियुक्ति के एक वर्ष बाद अर्थात सन 1741 ई0 में इन्होंने नागपुर और बेरार के राजा रघुजी भोंसले को बंगाल में अभियान के लिए उत्साहित किया। रघुजी भोसले के संबंध बालाजी बाजीराव से अच्छे नहीं थे। रघुजी भोसले चाहता था कि छत्रपति शाहूजी महाराज बालाजी बाजीराव को पेशवा पद से हटा दें लेकिन शाहूजी महाराज ने इनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया। 1741 ई0 में बालाजी बाजीराव ने रघुजी भोंसले के विरुद्ध अलीवर्दी खाँ की मदद के लिए मुर्शिदाबाद (बंगाल) प्रस्थान किया तथा रघुजी भोंसले को युद्ध में पराजित कर संधि के लिए बाध्य किया। अलीवर्दी खाँ पेशवा को बंगाल पर चौथ की वसूली तथा सेना के व्यय के लिए 22 लाख रुपये की धनराशि देने पर सहमत हो गया। 1741 ई0 में मुगल बादशाह ने एक संधि करके मालवा पर मराठों के अधिकार को वैधता प्रदान की।

ताराबाई का षडयंत्र-

इसी बीच 15 दिसंबर 1749 ई0 को मराठा छत्रपति शाहू जी का निधन हो गया। चूॅकि उनकी कोई संतान नहीं थी अतः अपनी मृत्यु के पूर्व ही उन्होंने ताराबाई के पौत्र राजाराम द्वितीय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। इस प्रकार जनवरी 1750 ई0 में राजाराम द्वितीय का छत्रपति के रूप में राज्याभिषेक हुआ किन्तु ताराबाई ने राजनीति पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए षड्यंत्र करना आरंभ किया। दूसरी ओर राजाराम द्वितीय ने भी समानांतर दल को प्रश्रय देना शुरु किया किन्तु उसकी यह नीति सफल न हो सकी। ताराबाई ने पेशवा को उखाङ फेंकने तथा राजाराम द्वितीय पर अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयास किया व राजाराम को सतारा के किले में बंदी बना लिया। जब पेशवा बालाजी बाजीराव ने ताराबाई के खिलाफ युद्ध प्रारंभ किया तब ताराबाई ने गुजरात का एक शक्तिशाली परिवार दाभादे परिवार से मदद मांगी। इससे पहले की यह परिवार ताराबाई की मदद कर पाता बालाजी बाजीराव पेशवा ने दामाजी राव गायकवाड की 15000 की विशाल सेना को अस्त-व्यस्त कर दिया। अन्ततः नवंबर, 1750 ई0 में ताराबाई ने हार मान ली और उन्होंने घोषणा की कि राजाराम उनका पोता नहीं है, अब मराठा साम्राज्य और छत्रपति की सभी शक्तियां पेशवा के हाथ में आ गई।
1750 ई0 में रघुजी भोंसले की मध्यस्थता के कारण राजाराम द्वितीय तथा पेशवा के बीच संगोला की संधि हुई। इस संधि के द्वारा मराठा छत्रपति केवल नाम मात्र के राजा रह गये। अब छत्रपति को ‘महलों के महापौर’ (डंलवत वि जीम च्ंसंबम) की संज्ञा दी गई। मराठा संगठन का वास्तविक नेता पेशवा (वंशानुगत) बन गया तथा मराठा राजनीति का केन्द्र अब पूना हो गया।

निजाम के विरुद्ध अभियान –

1745 ई0 में दक्कन निज़ाम आसफजाह निजामुलमुल्क की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों में सत्ता प्राप्ति के लिए युद्ध छिड़ गया। पेशवा बालाजी वाजीराव ने इस स्थिति का लाभ उठाकर खानदेश तथा वरार में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए प्रयास आरंभ कर दिए। इन प्रयासों के कारण निजाम और मराठों के मध्य युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में फ्रांसीसी जनरल बुस्सी ने निज़ाम की सहायता की। काफी लम्बे संघर्ष के बाद भतकी की संधि, 1759 ई0 के द्वारा निज़ाम ने बरार का आधा भाग मराठों को दे दिया। 1756 से 1763 ई. तक अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के मध्य गंभीर युद्ध हुआ जिसके कारण फ्रांसीसी जनरल बुस्सा निज़ाम की सहायता न कर सका। 1757 ई0 में गोदावरी के उत्तरी प्रदेश को लेकर निज़ाम और मराठों के मध्य सिन्दखेड में भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध के बाद निज़ाम 25 लाख रुपये वार्षिक कर देने योग्य प्रदेश और नालदुर्ग मराठों को देने के लिए बाध्य हो गया। 1760 ई0 में हुए उदगिरी के युद्ध के बाद मराठों को अहमदनगर, दौलताबाद, बुरहानपुर तथा बोजापुर के प्रदेश भी प्राप्त हो गए।

पानीपत का तृतीय युद्ध, 1761ई0

1751 ई0 में अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों से भयभीत होकर मुगल सम्राट ने अपने वजीर सफदरजंग के माध्यम से मराठों से सहायता की याचना की। अप्रैल, 1752 ई0 में संधि पत्र पर हस्ताक्षर हुए, जिसके अनुसार 50 लाख रुपये वार्षिक के बदले मराठों ने मुगल बादशाह को आन्तरिक तथा बाह्य आक्रमणां से रक्षा का वचन दिया। इसके अलावा मराठों को अजमेर, पंजाब, सिंध तथा दोआब के मुगल प्रदशों के चौथ वसूल करने का अधिकार भी प्राप्त हो गया। इस संधि से मराठे प्रत्यक्ष रूप से दिल्ली की राजनीति से संबंधित हो गये तथा मराठा शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई। इसी बीच 1757 ई0 में अब्दाली ने पंजाब पर अधिकार कर लिया। 1758 ई0 में मराठों ने लाहौर से अब्दाली के एजेन्ट को निकालकर सम्पूर्ण पंजाब पर अधिकार कर लिया। अहमदशाह अब्दाली ने मराठों के इस कृत्य को एक गंभीर चुनौती के रूप में लिया।
अब्दाली ने तुरंत मराठों को परास्त करने का निर्णय लिया। 1759 ई0 में उसने अटक पार किया और दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। दत्ताजी ने थानेसर के समीप अहमदशाह की आक्रामक कार्यवाहियों को रोकने का असफल प्रयास किया और मारा गया। अतः पूना से सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में एक विशाल सेना अफगानों से टक्कर लेने के लिए भेजी गई। प्रायः यह कहा जाता है कि मुख्यतः पेशवा बालाजी बाजीराव की दिल्ली की राजनीति में अत्यधिक दिलचस्पी तथा पंजाब में विवेकहीन हस्तक्षेप ने पानीपत के तृतीय युद्ध को जन्म दिया। उत्तर भारत में मराठा प्रभुत्व की स्थापना के लिए पेशवा बालाजी बाजीराव ने सदाशिव राव भाऊ को दिल्ली भेजा, जिसने 29 अगस्त, 1760 को दिल्ली पर अधिकार कर लिया। नवम्बर, 1760 में मराठा और अफगान सेनाएं पानीपत के ऐतिहासिक मैदान में आमने-सामने खड़ी हो गई। दोनो ओर आपूर्ति की कठिनाईयॉ थी और वे शान्ति के लिए बातचीत कर रहे थे लेकिन कुछ भी निर्णय नही हो सका। अन्ततः 14 जनवरी, 1761 ई0 को पानीपत के ऐतिहासिक मैदान में अफगानों एवं मराठों के मध्य युद्ध और रक्तपात प्रारंभ हो गया। इस युद्ध में मराठे परास्त हुए और उन्हें गंभीर क्षति उठानी पड़ी। आकडों के अनुसार लगभग 75 हजार मराठा सैनिक मारे गये और इस युद्ध ने सम्पूर्ण मराठा शक्ति को कुचल दिया। जदुनाथ सरकार का मानना है कि – मराठा क्षेत्र में संभवतया ही कोई परिवार ऐसा होगा जिसने कोई न कोई सम्बन्धी न खोया हो तथा कुछ परिवारों का तो सर्वनाश ही हो गया।

मराठों के पराजय के कारण –

पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की पराजय के अनेक कारण थे। सबसे बडी बात यह थी कि अब्दाली की सेना की संख्या भाऊ की सेना से कही अधिक और युद्ध कौशल में अधिक निपुण थी। सर जदुनाथ सरकार ने तात्कालीन लेखों के आधार पर यह अनुमान लगाया है कि अब्दाली के सेना लगभग साठ हजार थी जबकि मराठा सैनिकों की संख्या पैंतालिस हजार से ज्यादा नही था। संक्षेप में इस युद्ध में मराठों के पराजय के निम्न कारण बताए जा सकते है –

  1. टी0 एस0 शेजवलकर ने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि मराठों में एकता का अभाव था। दूसरे शब्दों में मराठों में वैचारिक मतभेद मराठों के पराजय का एक महत्वपूर्ण कारण था। इस समय सदाशिवराव भाऊ मराठों का मुख्य सेनापति था। भाऊ ने इस विचार से युद्ध किया कि – ‘‘भारत भारतीयों के लिए है।‘‘ लेकिन अनेक मराठा सरदार भाऊ के इस विचार से सहमत नही थे। भाऊ के विचारों का सबसे बडा विराधी था- मल्हार राव होल्कर। उसका कहना था कि मराठे महाराष्ट्र के बाहर केवल अपने लाभ के लिए युद्ध करते थे न कि महाराष्ट्र के लिए।
  2. काशीनाथ विश्वनाथ रजवाडे के अनुसार मराठों के पतन का सबसे प्रमु कारण था- मल्हार राव होल्कर और बुन्देल राव। होल्कर भाऊ के बाद मराठों का प्रमुख सरदार था। भाऊ साहब का कत्ल होते ही होल्कर तुरन्त भाग गया। दूसरी तरफ होल्कर बहुत ही कंजूस था। इस समय तक भाऊ के उपर ऋण हो गया था अतः उसके उपर 30 लाख रुपया का जुर्माना लगा दिया गया जिसे युद्ध के पहले चुकाना था। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि मराठा सेना भूखमरी के कगार पर खडी हो गई तथा उसके सारे घोडे मर चुके थे फलस्वरुप मराठा सैनिकों को पैदल युद्ध करना पडा।
    बुन्देल राव मराठों का राजस्व अधिकारी था। रजवाडे ने इसके उपर भी कई आरोप लगाये है –
  • यह शुजाउद्दौला को मराठों की तरफ न ला सका।
  • युद्ध के समय यह मराठों को अनाज और चारे की नियमित आपूर्ति नही कर सका।
  • अहमदशाह अब्दाली को दोआब के क्षेत्र से होने वाली अनाज और चारे की आपूर्ति को रोकने में यह असमर्थ रहा।
  • इसने युद्ध के लिए आवश्यक धनराशी भी प्रदान नही की।

शेजवलकर जैसे विद्वान का मानना है कि बुन्देल राव कोई सैनिक अधिकारी नही था अतः उससे सैनिक कार्य करवाना व्यर्थ ही था।

  1. पानीपत के तृतीय युद्ध में प्रत्यक्षदर्शी इतिहासकार काशीराम पण्डित ने फारसी भाषा में लिखा है कि – सदाशिव राव भाऊ के घमण्ड के कारण इस युद्ध में मराठों की पराजय हुई परन्तु यह विचार स्वीकार करने योग्य नही है क्योंकि सदाशिव राव दम्भी प्रवृति का व्यक्ति था। वह वित्त विशेषज्ञ के साथ साथ सख्त प्रशासक भी था।
  2. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि युद्ध के समय भाऊ ने गलत रणनीति अपनाई जिसके कारण मराठों की पराजय हुई। इस युद्ध में मराठा सेना का नेतृत्व इब्राहीम खॉ गार्दी कर रहा था। पैदल सेना के पीछे घुडसवार सेना थी और घुडसवार सेना को यह आदेश था कि युद्ध शुरु होने के दो घंटे बाद वह आगे बढेगी। इसलिए बी0बी0एस0 खरे का मानना है कि मराठा सरदारों ने भाऊ को अपेक्षित सहयोग नही किया जिसके कारण मराठों की पराजय हुई
  3. जी0 एस0 सरदेसाई के अनुसार नाना साहेब पेशवा ने उत्तर भारत की पूर्ण उपेक्षा की थी परिणामस्वरुप उत्तर भारत का मराठा राज्य असंगठित होने लगा था। रधुनाथ राव इसके लिए विशेष रुप से जिम्मेदार था। 1759 ई0 के बाद दक्षिण भारत में पेशवा के लिए कोई विशेष कार्य बचा ही नही था फिर भी वह उत्तर भारत नही आया।
  4. इसके अतिरिक्त मराठा सेना में असैनिकों की संख्या अधिक थी अर्थात वास्तविक युद्ध लडने वालों की तुलना में नही लडने वालों की संख्या तीन गुनी थी। भाऊ ने इस युद्ध में पैदल सेना को इसलिए ज्यादा महत्व दिया क्योंकि उसके पास घुडसवार सेना अधिक थे ही नही। वास्वत में अब्दाली की उत्तम युद्ध नीति तथा दॉव-पेंच ने मराठों के विजयी होने के अवसर समाप्त कर दिये।
  5. अहमदशाह अब्दाली एशिया का नेपोलियन माना जाता था। सामान्यतया यह भी कहा जाता है कि वह सदाशिव राव भाऊ से अच्छा सेनापति था। पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय इसलिए नही हुई कि भाऊ खराब सेनापति था बल्कि उनकी पराजय इसलिए हुई कि अब्दाली उससे कई बेहतर सेनापति था।
    अन्ततः सिडनी ओवेन के शब्दों में – ‘‘पानीपत के तृतीय युद्ध से मराठा शक्ति कुछ काल के लिए चूर-चूर हो गयी। यद्यपि यह बहुमुखी दैत्य मरा तो नहीं परन्तु इतनी भली-भॉति कुचला गया कि यह लगभग सोया रहा और जब यह जगा तो अंग्रेज इससे निपटने के लिए तैयार थे जिसे अन्त में जीतने और समाप्त करने में अंग्रेज सफल हुए।‘‘

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