window.location = "http://www.yoururl.com"; VIjaynagar Empire : Political History | विजयनगर साम्राज्य : राजनीतिक इतिहास

VIjaynagar Empire : Political History | विजयनगर साम्राज्य : राजनीतिक इतिहास


Introduction (भूमिका) :

1336 ई0 में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना विशेषतः दक्षिण भारत की तथा सामान्यतः भारत के इतिहास की एक महान घटना है। दक्षिण भारत में तुगलक सत्ता के विरुद्ध होने वाले राजनीतिक तथा सांस्कृतिक आन्दोलन के परिणामस्वरूप इसकी स्थापना हुई। संगम के पाँच में से दो पुत्रों हरिहर प्रथम तथा बुक्का ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की थी। ऐसा माना जाता है कि हरिहर और बुक्का ने माघव विद्यारण्य तथा उनके भाई सायण की प्रेरणा से मुसलमान से हिन्दू बनकर नवीन विजयनगर राज्य की स्थापना तथा संगम वंश के नाम से शासन आरम्भ किया। लेकिन विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की परिस्थितियों तथा इसके संस्थापकों के उद्भव के संबंध में अनेक विवाद हैं। वर्तमान शताब्दी के प्रारम्भ से ही, जब राबर्ट स्वेल ने मुख्यतः विदेशी वृत्तान्तों के आधार पर “एक विस्मृत साम्राज्य“ (A Forgotten Empire, 1901) नामक अपनी रचना प्रकाशित की, यह विद्वानों में पर्याप्त विवाद का विषय रहा है।
विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों के उद्भव से संबंधित तीन मुख्य विचारधाराएँ हैं-
(क) तेलुगू, आन्ध्र या काकतीय उद्भव,
(ख) कर्नाट (कर्नाटक) या होयसल उद्भव,
(ग) कम्पिली उद्भव ।
प्रथम मान्यता के अनुसार, हरिहर और बुक्का अन्तिम काकतीय शासक प्रतापरुद्र देव काकतीय के कोषाधिकारी (प्रतीहार) थे। तुगलक सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक द्वारा काकतीय राज्य की विजय के पश्चात् ये दोनों भाई विजयनगर के वर्तमान स्थान पर पहुंचे जहाँ एक वैष्णव सन्त विद्यारण्य ने उन्हें अपना संरक्षण प्रदान किया तथा उन्हें विजयनगर नामक नगर तथा साम्राज्य की स्थापना करने के लिए अनुप्रेरित किया । इस मान्यता की पुष्टि मुख्यतः कालज्ञान ग्रन्थों विशेषकर विद्यारण्य कालज्ञान तथा कुछ अन्य स्रोतों से होती है। विजयनगर साम्राज्य के संस्थापकों के तेलुगू या काकतीय उद्भव की मान्यता का समर्थन करने वाले आधुनिक विद्वानों ने अपनी मान्यता के समर्थन में यह भी तर्क प्रस्तुत किया है कि विजयनगर नरेशों ने अपने राज्य चिह्न और प्रशासकीय प्रभागों को काकतीयों से ग्रहण किया था । इसके अतिरिक्त विजयनगर नरेशों ने तेलुगू भाषा और साहित्य को अत्यधिक संरक्षण प्रदान किया था।
दूसरे सिद्धान्त (कर्नाट या होयसल उद्भव सम्बन्धी मान्यता) के अनुसार, हरिहर और बुक्का होयसल राजा वीर बल्लाल तृतीय की राजसेवा में थे, जिसने अपने पुत्र के नाम विजयविरुपाक्षपुर नामक नगर की स्थापना की, जो बाद में विजयनगर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जो विद्वान इस सिद्धान्त का समर्थन करते हैं उनका यह मत है कि हरिहर और बुक्का होयसलों से सामन्त तथा सेनापति थे।
तीसरे सिद्धान्त के अनुसार, हरिहर और बुक्का कम्पिली (कर्नाटक में सागर के पास) के राय के यहाँ नौकरी करते थे। जब मुहम्मद बिन तुगलक के भतीजे वहाउद्दीन गुर्शप ने उसके विरुद्ध विद्रोह करके कम्पिली के राय के पास शरण ली, तब सुल्तान ने कम्पिली पर आक्रमण करके उसे सल्तनत में शामिल कर लिया। इस युद्ध के समय हरिहर और बुक्का दोनों को युद्ध बन्दी बनाकर दिल्ली लाया गया। 1335 ई0 में जब दक्षिण में तुगलक प्रदेशों में विद्रोहों के कारण भयंकर अव्यवस्था व्याप्त थी, तो सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने इन दोनों बन्धुओं को कारागार से मुक्त करके, दक्षिण में पुनर्व्यवस्था स्थापित करने के लिए, तुगलक सेनाओं का सेनानायक नियुक्त करके दक्षिण भेजा, जहाँ एक सन्त की प्रेरणा से उन्होंने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की परिस्थितियों तथा उसके संस्थापकों के उद्भव सम्बन्धी विषय अभी तक अनिर्णीत हैं और प्रत्येक सिद्धान्त के समर्थन में अनेक तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं।
लेकिन इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि हरिहर और बुक्का बन्धुओं जिन्होंने 1336 ई. में इस साम्राज्य की स्थापना की थी, संगम के पुत्र थे और उन्होंने अपने पिता के नाम पर विजयनगर के प्रथम वंश का नाम संगम वंश (1336-1485 ई0) रखा। सालुव नरसिंह द्वारा स्थापित दूसरा वंश, जिसे सालव वंश के नाम से जाना जाता है, ने 1485 से 1505 ई0 तक शासन किया। तुलुव नाम से प्रसिद्ध तीसरे वंश ने 1503 से 1570 तक शासन किया । चतुर्थ अर्थात अरविद वंश ने लगभग सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक शासन किया, लेकिन यह अन्तिम वंश अपने प्राचीन गौरव की केवल एक धुंधली प्रतिच्छाया मात्र था।

संगम वंश (1336-1485 ई0)-

हरिहर और वुक्का के प्रयासों से नवसंस्थापित विजयनगर राज्य शीघ्र ही एक महान साम्राज्य के रूप में उदित हुआ। हरिहर प्रथम (1336-56 ई0) ने अपने भाई बुक्का की सहायता से विजय और साम्राज्य विस्तार के एक युग का शुभारम्भ किया। लगभग 1346 ई0 तक होयसल राज्य को विजित कर लिया गया तथा 1347 में कदम्ब प्रदेश को विजयनगर में शामिल कर लिया गया। 1352-53 ई0 में हरिहर प्रथम ने मदुरा की सल्तनत की विजय के लिए दो सेनाएँ भेजीं- एक कुमार सवन्न के नेतृत्व में एवं दूसरी कुमार कम्पा (या कम्पन) के सेनानायकत्व में। कुमार कम्पन ने मदुरा की सल्तनत को विजय करके उसे विजयनगर साम्राज्य में शामिल कर लिया। कुमार कम्पन (या कम्पा) की पत्नी गंगा देवी ने अपने पति द्वारा मदुरा विजय का अपने ग्रन्थ मदुरा विजयम् में बड़ा सजीव वर्णन किया है।
हरिहर प्रथम का उत्तराधिकारी उसका भाई बुक्का प्रथम (1350-77 ई0) हुआ जिसने इस उदीयमान राज्य को शक्तिशाली बनाने और इसका विस्तार करने का कार्य शुरू किया। उसने राजनारायण सम्बुव राय के विरुद्ध एक अभियान भेजा था, जिसे हरिहर ने कुछ समय पूर्व अपने सामन्त शासक के रूप में पुर्नस्थापित किया था और उसके तत्काल बाद ही संभवतः उसने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। उसने बहमनी सुल्तान मुहम्मद शाह प्रथम के साथ भी युद्ध किया और उसके साथ एक समझौता किया, जिसके द्वारा कृष्णा-तुंगाभद्रा (या रायचूर) दोआब पर विजयनगर का अधिकार हो गया। उसने अपने पुत्र कुमार कम्पा, जिसने मदुरा की मुस्लिम सल्तनत की विजय की थी, को नवविजित तमिल प्रदेशों पर विजयनगर साम्राज्य का वाइसराय नियुक्त किया।
बुक्का के पुत्र तथा उत्तराधिकारी हरिहर द्वितीय (1377-1404 ई0) ने इस नए राज्य को सुदृढ़ किया। उसने बहमनी सुल्तान मुजाहिद शाह द्वारा रायचूर दोआव पर आक्रमण को विफल किया। जव सुल्तान इस विफल अभियान के बाद अपनी राजधानी गुलबर्गा वापस जा रहा था तो मार्ग में उसकी हत्या कर दी गई। इस परिवर्तित स्थिति का लाभ उठाते हुए हरिहर द्वितीय ने कोंकण और दक्षिणी कर्नाटक पर आक्रमण किया, रेड्डी शासकों पर आक्रमण करके अदांकी तथा श्री शैलम् क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। 1398 ई0 में उसने वेलमाओं और बहमनियों को पराजित किया। हरिहर द्वितीय की सबसे बडी सफलता पश्चिम में बहमनी राज्य से बेलगॉव तथा गोवा का अधिकार छीनना था। उसने श्रीलंका पर भी हमला किया था। वह शिव के विरुपाक्ष का उपासक था। अपनी विद्वता और विद्वानों के संरक्षण के कारण वह राज व्यास या राज बाल्मिकी नाम से भी जाना जाता था। 1404 ई0 में उसकी मृत्यु के उपरान्त उत्तराधिकार के बारे में विवाद उत्पन्न हो गया और इसके फलस्वरूप राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हुई। ऐसा प्रतीत होता है कि उसके दो पुत्रों विरुपाक्ष प्रथम तथा बुक्का द्वितीय ने बारी-बारी से दो वर्षों तक शासन किया तथा 1406 ई0 में देवराय प्रथम सिंहासन पर बैठा।
अपने राज्यारोहण के तुरन्त बाद देवराय प्रथम (1406-24 ई0) को फिरोज़ शाह बहमनी के आक्रमण का सामना करना पड़ा तथा उसे मजबूर होकर बहमनियों को बाँकापुर का किला सुपुर्द करना पड़ा। देवराय ने फिरोज़ शाह बहमनी के एक मित्र शासक अनदेव चोड की आक्रामक गतिविधियों का प्रत्युत्तर देने के लिए उसके संबंधी तथा रेड्डी राज्य के शासक कतायवेम के साथ मैत्री स्थापित की। 1415 ई0 में लड़े गए एक युद्ध में फिरोज़ ने तो अनदेव की रक्षा की लेकिन कतायवेम मारा गया। तथापि चार वर्षों बाद देवराय ने पांगल पर अधिकार कर लिया और बहमनियों के विरुद्ध एक निर्णयात्मक विजय प्राप्त की परन्तु देवराय प्रथम को वहमनियों के उग्र प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, क्योंकि उन्होंने कोण्डविदु के रेड्डियों, वारंगल के वेलमाओं तथा उड़ीसा के गजपति नरेशों के साथ सैनिक गठबन्धन कर लिया था। देवराय की मृत्यु के उपरान्त इस गठबन्धन के कारण विजयनगर को कठिन स्थिति का सामना करना पड़ा।
देवराय प्रथम ने अनेक जनकल्याणकारी योजनाओं को प्रारम्भ किया। 1410 ई0 में उन्होंने तुंगाभद्रा पर एक बाँध का निर्माण करवाया जिससे कृषि का अत्यधिक विकास हुआ। उन्होंने तुंगभद्रा से अपनी राजधानी (विजयनगर) तक 24 किलोमीटर लम्बे एक जलसेतु या जलप्रणाली का भी निर्माण करवाया। इस जलप्रणाली के निर्माण से राजधानी में जल का अभाव समाप्त हो गया। यह जलप्रणाली नगर के लिए इतनी उपयोगी सिद्ध हुई कि इसके परिणामस्वरूप विजयनगर साम्राज्य को राजस्व से प्राप्त आय काफी बढ़ गई। देवराय प्रथम ने सिंचाई के लिए हरिहर नदी पर बाँध बनाने की योजना को भी प्रोत्साहन प्रदान किया। उन्होंने अपनी राजधानी विजयनगर को भी काफी विकसित किया। नगर के चारों ओर दीवारों का विस्तार किया गया, रक्षा-मीनारों का निर्माण कराया गया और नगर के क्षेत्रफल का विस्तार करके उसकी किलाबन्दी की गई। देवराय प्रथम के शासनकाल में ही इटैलियन यात्री निकॉलो कॉन्टी ने 1420 ई0 में विजयनगर की यात्रा की। उसने लिखा है कि नगर की परिधि 96 किलोमीटर थी और उसमें 90,000 शक्तिशाली सैनिक निवास करते थे। निकॉलो ने नगर और उसके नरेश का उल्लेख करते हुए, विजयनगर में मनाए जाने वाले दीपावली, नवरात्रि आदि जैसे उत्सवों का भी वर्णन किया है।
देवराय प्रथम विद्वानों का भी महान संरक्षक था। उसके राजदरबार को हरविलासम् और अन्य ग्रन्थों के रचनाकार प्रसिद्ध तेलुगू कवि श्रीनाथ सुशोभित करते थे। राजमुॅदड़ी और कोण्डविदु के रेड्डी राजदरबारों की यात्राएँ करते हुए श्रीनाथ व अपनी प्रतिभा के सम्मानार्थ विजयनगर आए। देवराय प्रथम ने उन्हें पर्याप्त सम्मान और पुरष्कार प्रदान किए। सम्राट अपने राजप्रासाद के ‘‘मुक्ता सभागार’‘ में प्रसिद्ध व्यक्तियों का सम्मानित किया करता था। समकालीन साहित्य में इस सभागार के प्रभूत उल्लेख प्राप्त होते हैं। इस काल में विजयनगर का दक्षिण भारत के एक महान विद्याकेन्द्र के रूप में उदय हुआ, जिसके परिणामस्वरूप विजयनगर अब विद्यानगर बन गया। 1422 ई0 में देवराय की मृत्यु हो गई और उनका पुत्र रामचन्द्र उनका उत्तराधिकारी हआ। रामचन्द्र अपने पिता के शासन काल में 1390-91 ई0 से उदयगिरि प्रान्त की शासन व्यवस्था से सम्बद्ध था, परन्तु वह छः माह ही शासन कर पाया।
रामचन्द्र का उत्तराधिकारी उनका भाई विजय प्रथम हुआ। वह विजयभूपति, विजय बुक्का या वीर बुक्का तृतीय के रूप में भी प्रसिद्ध था। उसके शासनकाल की अवधि के बारे में विवाद है, हालाँकि नूनिज़ का यह कहना है कि उसने छः वर्षों तक शासन किया था, फिर भी आधुनिक विद्वानों ने उसके शासन की अवधि मात्र छः माह ही बताई है। विजय एक शक्तिहीन शासक था इसलिए उसने शासकीय मामलों में स्वयं कोई रुचि नही ली। उसके शासनकाल में संपूर्ण शासन-सूत्र उसके पुत्र देवराय द्वितीय द्वारा संचालित किया गया।
विजय प्रथम का उत्तराधिकारी देवराय द्वितीय (1423-46) था जो संगम वंश का महानतम शासक था। इस शासक के अभिलेख संपूर्ण विजयनगर साम्राज्य से प्राप्त हुए हैं और उसका शासनकाल संगम-युगीन विजयनगर साम्राज्य के वैभव और समद्धि की पराकाष्ठा का सूचक हैं। उसकी प्रजा उसे इम्माडि देवराय और साथ ही महान देवराय अविहित करती थी। चूंकि उसका शासन बड़ा वैभवपूर्ण था, अतः सामान्य-जन उसे हिन्दू पौराणिक आख्यानों के दैवीय शासक इन्द्र का अवतार मानते थे। उसके अभिलेखों में उसके लिए गजबेतेकर उपाधि अर्थात हाथियों के शिकारी, का उल्लेख मिलता है। देवराय द्वितीय अपने सिंहासन के समक्ष कुरान रखता था।
अपने राज्यारोहण के तुरन्त बाद देवराय द्वितीय को रायचूर दोआब (कृष्णा और तुंगाभद्रा के बीच का क्षेत्र) में बहमनी सुल्तान अहमद प्रथम के नेतृत्व में किए गए आक्रमण का सामना करना पड़ा, परन्तु इस युद्ध के वास्तविक परिणाम विवादास्पद हैं। परन्तु बहमनी सुल्तान द्वारा गुलबर्गा से बीदर में अपनी राजधानी स्थानान्तरित करने, जो अधिक सुरक्षित थी, से ऐसा प्रतीत होता है कि देवराय को इस युद्ध में कुछ सफलता अवश्य प्राप्त हुई। देवराय द्वितीय ने कोण्डविद् (आंध्र प्रदेश) को विजयनगर साम्राज्य में शामिल कर लिया, उड़ीसा के गजपति साम्राज्य पर आक्रमण किया और केरल के कुछ स्थानीय शासकों का दमन किया। कालीकट के जमोरिन के अतिरिक्त केरल के अधिकांश राजाओं और सरदारों ने जयनगर साम्राज्य की प्रभुसत्ता को स्वीकार किया। 1442 ई0 के बाद उसने श्रीलंका के विरुद्ध एक सैनिक अभियान भेजा जो विजयनगर को वार्षिक कर-राशि प्रदान करने के लिए सहमत हो गया।
देवराय द्वितीय साहित्य का महान संरक्षक और स्वयं सस्कृत का एक महान विद्वान था। उसे दो संस्कृत ग्रन्थों नाटक सुधानिधि एवं बादरायण के ब्रह्मसूत्र पर एक टीका- का रचना करने का गौरव प्राप्त है। फारस के राजदूत अब्दुर रज्जाक, जो उसके राजदरबार में आया था, ने समकालीन विजयनगर साम्राज्य का विस्तार से वर्णन किया है। उसकी दृष्टि में विजयनगर संसार के सबसे शानदार नगरों में से एक था। 1446 में देवराय की मृत्यु के उपरान्त विजयनगर साम्राज्य विदेशी आक्रमणों के द्वारा आक्रान्त हुआ।
देवराय द्वितीय के उपरान्त विजयराय द्वितीय (1446-47) ने लगभग एक वर्ष शासन किया। अगला शासक मल्लिकार्जुन अपने राज्यारोहण के समय अल्पायु था। इरा स्थिति का लाभ उठाकर बहमनी सुल्तान अलाउद्दीन द्वितीय और उड़ीसा के कपिलेश्वर गजपति ने विजयनगर साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया और यह युद्ध 1463 ई0 तक चलता रहा। मल्लिकार्जुन की 1465 में मृत्यु हो गई और विरुपाक्ष द्वितीय उसका उत्तराधिकारी हुआ। वह संगम वंश का अन्तिम शासक था। इसके शासनकाल में ही पुर्तगाली यात्री नूनीज ने यात्रा की थी। इसके शासनकाल में बहमनी वजीर महमूद गवॉं और उड़ीसा के गजपति नरेश ने एकसाथ विजयनगर साम्राज्य पर 1480-81 ई0 में बड़ा प्रबल आक्रमण किया। आक्रामक सेनाओं ने सदर दक्षिण में नेल्लोर और काँची तक विजयनगर साम्राज्य के प्रदेशों पर प्रहार किया, जिसके परिणामस्वरूप वहमनी साम्राज्य ने गोआ, दावुल और चौल पर तथा गजपति नरेश ने उदयगिरि एवं विजयनगर साम्राज्य के आन्ध्र तटवर्ती प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। बहमनी साम्राज्य द्वारा विजयनगर की यह प्रथम गम्भीर पराजय थी। इस अपमानजनक पराजय के कुछ समय बाद ही विरुपाक्ष के एक पुत्र ने उसकी 1485 ई0 में हत्या कर दी। उसके उपरान्त उसका पुत्र प्रौध देवराय सिंहासनारूढ़ हुआ, पर गद्दी पर बैठने के तत्काल बाद ही इस पितृघातक की हत्या कर दी गई। विजयनगर साम्राज्य में व्याप्त इस अराजकतापूर्ण स्थिति को देखकर चन्द्रगिरि के शासक और विजयनगर साम्राज्य के एक शक्तिशाली सामन्त-शासक सालुव नरसिंह ने राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया और साम्राज्य की संभावित विनाश से रक्षा की।
संगम वंश के पतन के साथ ही बहमनी साम्राज्य का भी पतन हो गया और वह पाँच बहमनी उत्तराधिकारी राज्यों में विघटित हो गया। विजयनगर एवं बहमनी साम्राज्यों के बीच कृष्णा नदी विभाजन रेखा थी। इन दोनों साम्राज्यों ने रायचूर दोआब पर अधिकार करने के लिए लगातार युद्ध किए, जो लगभग डेट शताब्दी तक चलते रहे। परन्तु विजयनगर साम्राज्य इस मामूली क्षति के अतिरिक्त, इन युद्धों से बहुत अधिक दुष्प्रभावित नहीं हुआ। फिर भी बहमनी साम्राज्य के पतन के बाद भी विजयनगर साम्राज्य और बहमनी उत्तराधिकारी राज्यों के मध्य संधर्ष चलता रहा।

सालुव वंश (1485-1505 ई0)

सालुव नरसिंह संगम वंश के अन्तिम दिनों में चन्द्रगिरि का नायक था। उसने ऐसे समय में विजयनगर के राजसिंहासन पर अधिकार किया था, जब विजयनगर के नायक और सामन्त शासक विद्रोह कर रहे थे और बहमनी एवं गजपति सेनाओं ने विजयनगर साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया था। सालुव नरसिंह ने सर्वप्रथम आन्तरिक विद्रोहों का दमन किया और तदुपरान्त विदेशी आक्रमणों का मुकाबला किया। उड़ीसा के पुरुषोत्तम गजपति जिसने विजयनगर के उदयगिरि प्रदेश पर अधिकार कर लिया था, के विरुद्ध युद्ध करते समय गजपति नरेश ने सालुव नरसिंह को बन्दी बना लिया। सालुव नरसिंह द्वारा अपनी मुक्ति की याचना करने पर छोड़ दिया गया, पर उदयगिरि का प्रदेश गजपतियों के अधिकार में चला गया। परन्तु अपनी इस पराजय और अपमान से सालुव नरसिंह निराश नहीं हुआ और उसने विजयनगर की सेना को शक्तिशाली बनाने के लिए अश्वों का अधिकाधिक आयात करना प्रारम्भ किया, जिसके लिए उसने अरब अश्व व्यापारियों को अतिरिक्त प्रलोभन प्रदान किए। उसने कर्नाटक के तुलु प्रदेश पर विजयनगर की सत्ता की स्थापना की। 1490 ई0 में अपनी मृत्यु से पूर्व सालुव नरसिंह ने नरसा नायक को अपने दो अल्पायु पुत्रों का संरक्षक नियुक्त किया। इन दोनों में तिम्म ज्येष्ठ था, अतः उसका राज्याभिषेक किया गया, पर उसके एक शत्रु ने उसकी हत्या कर दी, जिसके बाद उसके छोटे भाई इम्माड़ि नरसिंह को गद्दी पर बैठाया गया। इम्माडि के वयस्क होने पर उसका अपने संरक्षक नरसा नायक से विवाद प्रारम्भ हो गया। चूँकि संपूर्ण शासनतंत्र नरसा नायक के पास था, अतः उसने इम्माडि नरसिंह को बन्दी बनाकर पेनुकोण्डा के किले में नज़रबन्द कर दिया। अगले दस वर्षों तक सारी सत्ता नरसा नायक के हाथों में केन्द्रीभूत रही। उसने वड़ी सफलतापूर्वक शासन करके विजयनगर साम्राज्य के खोए हुए प्रदेशों पर पुनः अधिकार किया। उसने बीजापुर के सुल्तान यसफ आदिल खाँ और उड़ीसा के प्रतापरुद्र गजपति को पराजित किया। उसने सुदूर दक्षिण के चोल, पांड्य और चेर शासकों को भी विजयनगर साम्राज्य की प्रभुसत्ता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। उसने बीदर के कासिम बरीद के साथ मित्रता करके रायचूर दोआब के अनेक किलों पर भी अधिकार कर लिया। 1505 ई0 में नरसा नायक के पुत्र वीर नरसिंह ने सालुव नरेश इम्माडि नरसिंह की हत्या करके स्वयं राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया और विजयनगर साम्राज्य के तृतीय या तुलुव राजवंश की स्थापना की।

तुलुव राजवंश (1505-1570 ई0)-

वीर नरसिंह के इस दुष्कृत्य के विरुद्ध संपूर्ण विजयनगर साम्राज्य में उसके विरुद्ध व्यापक रूप से विक्षोभ एवं विरोध व्यक्त किया गया। वीर नरसिंह अपने शासन के चार वर्षों में आन्तरिक विद्रोहों एवं बाह्य आक्रमणों का मुकाबला करता रहा। 1509 ई0 में उसकी मृत्यु के उपरान्त उसका अनुज कृष्णदेव राय सिंहासनारूढ़ हुआ।

कृष्णदेव राय (1505-1529 ई0)

वह विजयनगर साम्राज्य के महानतम और भारत के महान शासकों में से एक माना जाता हैं। उन्होंने विजयनगर साम्राज्य को समृद्धि और गौरव के चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। परन्तु कृष्णदेव राय अत्यन्त विषम परिस्थितियों में सिंहासनारूढ़ हुआ था। विजयनगर साम्राज्य के अनेक सामन्त न शासक विद्रोही हो गए थे। उड़ीसा के गणपति नरेश ने उदयगिरि प्रदेश और साम्राज्य के पूर्वी भागों पर अधिकार कर लिया था। बहमनी उत्तराधिकारी राज्य, विशेषतः बीजापर, विजयनगर के प्रदेशों पर अधिकार करने की योजनाएं बना रहा था। पश्चिमी समुद्रतट पर पुर्तगालियों का आगमन हो चुका था, जो भारत में अपने साम्राज्य की स्थापना के लिए विजयनगर की सहायता और समर्थन के इच्छुक थे। इन कठिन परिस्थितियों में कृष्णदेव राय ने सर्वप्रथम आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था की स्थापना की। उन्होंने उम्मतूर के विद्रोही सामन्त शासक को पराजित किया। इसके शीघ्र बाद ही 1509-10 ई0 में बीदर एवं बीजापुर के सुल्तान ने विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। कृष्णदेव राय ने इन संयुक्त आक्रमणकारी सेनाओं को पराजित किया और इस युद्ध में बीजापुर का सुल्तान यूसुफ आदिल मारा गया। यूसुफ आदिल की मृत्यु के उपरान्त आदिलशाही राज्य में अव्यवस्था व्याप्त हो गई, क्योंकि उसका उत्तराधिकारी इस्माइल अल्पवयस्क था। इस स्थिति का लाभ उठाकर कृष्णदेव राय ने संपूर्ण रायचूर में दोआब पर अधिकार कर लिया। तदुपरान्त उन्होंने बीदर और गुलबर्गा पर आक्रमण करके बहमनी सुल्तान महमूद शाह को कारागार से मुक्त करके, बीदर की राजगद्दी पर आसीन किया और इस उपलब्धि की स्मृति में कृष्णदेव राय ने यवनराज्य स्थापनाचार्य का विरुद अर्थात उपाधि धारण किया।
इन सफलताओं के बाद कृष्णदेव राय ने उड़ीसा के गजपति नरेश के विरुद्ध अपनी सैनिक शक्ति नियोजित की और उसके विरुद्ध चार युद्ध लड़े। सर्वप्रथम उसने तेलंगाना के विजयनगर प्रदेशों को पुनर्विजित किया और गोलकुण्डा के कुतुबशाही व सुल्तान को पराजित किया। कृष्णदेव राय ने उड़ीसा की गजपति सेनाओं को चारों युद्धों में पराजित किया और अंततः विजयनगर की सेनाएँ गजपति नरेश की राजधानी कटक तक जा पहुँची। इस अपमानजनक पराजय के उपरान्त उड़ीसा नरेश प्रतापरुद्र गजपति ने कृष्णदेव राय से शान्ति समझौते की याचना की, जिसके अन्तर्गत उसने अपनी पुत्री का विवाह कृष्णदेव राय के साथ कर दिया और इसके प्रत्युत्तर में कृष्णदेव राय ने उड़ीसा के विजित प्रदेशों को गजपति नरेश को वापस कर दिए। इस प्रकार कृष्णदेव राय ने विजयनगर साम्राज्य के समस्त शत्रुओं को पराजित किया और अपने राज्य की समस्त सैनिक एवं राजनीतिक समस्याओं का निदान किया। कृष्णदेव राय ने पुर्तगालियों के साथ भी कई सन्धियाँ कीं। पुर्तगालियों के प्रति उनके उदार दृष्टिकोण के दो कारण थे- प्रथमत- पुर्तगाली बीजापुर के प्रदेशों को विजित करके अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहते थे। बीजापुर, विजयनगर साम्राज्य का पुराना शत्रु राज्य था अतः बीजापुर के प्रति समान शत्रुता के कारण पुर्तगाली और विजयनगर एक-दूसरे के निकट आए। द्वितीयत- पुर्तगालियों द्वारा भारत के सामुद्रिक प्रदेशों से अरब व्यापारियों को निष्कासित कर देने के बाद घोड़ों के आपूर्ति की बहुत बड़ी समस्या थी। पुर्तगालियों ने विजयनगर के साथ सन्धि की शर्तों के अंतर्गत केवलमात्र विजयनगर को ही आयातित घोड़े बेचने का वचन दिया था।
कृष्णदेव राय केवल एक महान सेनानायक एवं विजेता ही नहीं थे, अपितु एक महान प्रशासक भी था। उन्होंने अपने प्रसिद्ध तेलुगू ग्रन्थ ‘‘आमुक्त माल्यद‘‘ में अपने राजनीतिक विचारों और प्रशासकीय नीतियों का विवेचन किया है। उन्होंने इस ग्रन्थ में राजस्व के विनियोजन एवं अर्थ-व्यवस्था के विकास पर विशेष बल देते हुए लिखा है कि “राजा को तालाबों एवं सिंचाई के अन्य साधनों एवं अन्य कल्याणकारी कार्यों के द्वारा प्रजा को संतुष्ट रखना चाहिए। विदेश व्यापार के विकास के लिए सुविधाजनक बन्दरगाहों की व्यवस्था और विदेशी – व्यापारियों को संरक्षण प्रदान करना चाहिए। राजा द्वारा कभी भी धर्म और न्याय की अवहेलना नहीं करना चाहिए।“ कृष्णदेव राय ने इन आदर्शों का स्वयं अनुसरण किया और अपने साम्राज्य को सुप्रशासन, शान्ति-व्यवस्था और भौतिक समृद्धि प्रदान की।
एक महान प्रशासक होने के साथ-साथ कृष्णदेव राय एक महान विद्वान, विद्याप्रेमी और विद्वानों के उदार संरक्षक भी था जिसके कारण वह इतिहास में अभिनव भोज के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनके राजदरबार को अष्टदिग्गज के रूप में प्रख्यात आठ प्रसिद्ध तेलुगू कवि एवं विद्वान सुशोभित करते थे – इन तेलगू कवियों में पेड्डन सर्वप्रमुख थे, जो संस्कृत एवं तेलुगू दोनों भाषाओं के महापण्डित थे, जिन्हें कृष्णदेव राय ने विशेष रूप से सम्मानित किया। कृष्णदेव राय का शासनकाल तेलुगू साहित्य का क्लासिकल या शास्त्रीय युग माना जाता है अतः उन्हें उचित रूप से आन्ध्र पितामह की उपाधि से सम्मानपूर्वक सम्बोधित किया गया। उन्होंने कला को भी संरक्षण प्रदान किया और अनेक मन्दिरों, मण्डपों, तालाबों आदि का निर्माण कराया। उन्होंने अपनी राजधानी विजयनगर के निकट नागलापुर नामक नगर की स्थापना की। हजारा और विट्ठलस्वामी मंदिर का निर्माण उसी के शासनकाल में हुआ।
उनके शासनकाल में प्रसिद्ध पुर्तगाली यात्री डॉमिंगो पायज़ ने विजयनगर साम्राज्य की यात्रा की और कुछ समय तक कृष्णदेव राय के राजदरबार में भी रहा। पायज ने कृष्णदेव राय के व्यक्तित्व और उसके शासनकाल का विस्तार से विवेचन करते हुए लिखा है कि “वह अत्यधिक विद्वान और सदगुणसम्पन्न नरेश है, जैसा कि शायद ही कोई अन्य हो सके… । वह एक महान शासक एवं एक अत्यन्त न्यायप्रिय व्यक्ति है।‘‘ पायज़ ने विजयनगर राजधानी की अतिशय प्रशंसा की और लिखा कि “इसके बाजारों में संपूर्ण विश्व की ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो न बिकती हो।“ विजयनगर के आकार का उल्लेख करते हए वह लिखता है कि “आकार में वह (विजयनगर ) रोम के समान विशाल एवं सुविस्तृत है। इस नगर में असंख्य लोग निवास करते हैं, जिनकी संख्या का मैं (पायज) इस भय के कारण उल्लेख नहीं कर रहा हूँ कि कहीं इसे अतिशयोक्तिपूर्ण न माना जाए।“ कृष्णदेव राय के शासन में एक अन्य पुर्तगाली यात्री बार्बोसा ने भी यात्रा की, जिसने समकालीन सामाजिक एवं आर्थिक जीवन का बहुत सुन्दर वर्णन किया है।
कृष्णदेव राय ने 1529 में अपनी मृत्यु से पूर्व अपने चचेरे भाई अच्युतदेव राय (1529-42) को अपना उत्तराधिकारी नामजद किया था, क्योंकि कृष्णदेव राय का पुत्र मात्र डेढ़ वर्ष का था परन्तु कृष्णदेव राय के जामाता राम राय (या राम राजा) को यह व्यवस्था पसन्द नहीं आई। वह कृष्णदेव राय के डेढ वर्षीय पुत्र सदाशिव को राजगद्दी पर बैठाकर और स्वयं उसका प्रतिशासक (रीजेन्ट) बनकर, विजयनगर साम्राज्य का शासन सूत्र अपने हाथों में लेना चाहता था। जबकि अच्युतदेव राय के दो सालों-सलकराज तिरुमल और चिन्न तिरूमल ने राम राय की इस योजना का विरोध किया, जिसके परिणामस्वरूप विजयनगर साम्राज्य में गृह-युद्ध का संकट उपस्थित हो गया।
इस आन्तरिक अशान्ति का लाभ उठाकर उड़ीसा के नरेश प्रतापरुद्र गजपति और बीजापुर के मुल्तान इस्माइल आदिल खाँ ने विजयनगर साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। गजपति नरेश को तो पराजित कर दिया गया, पर बीजापुर ने रायचूर दोआब और मुद्गल के किले पर अधिकार कर लिया। विजयनगर की इस पराजय का लाभ उठाते हुए गोलकुण्डा के सुल्तान ने भी कोण्डविदु के किले पर आक्रमण कर दिया। अच्युतदेव राय ने कुतुबशाही सेनाओं को पराजित किया। इस वीच बीजापुर के सुल्तान इस्माइल आदिल खाँ की 1534 में मृत्यु हो गई थी और बीजापुर बड़ी अव्यवस्थित स्थिति में था। इस अव्यवस्थित स्थिति का लाभ उठाकर अच्युतदेव राय ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और रायचूर तथा मुद्गल को बीजापुर से पुनः छीन लिया।
इन युद्धों में अच्युतदेव राय की व्यस्तता और राजधानी से अनुपस्थिति के कारण विजयनगर में राम राय और सलकराज तिरुमल के मध्य सत्ता के प्रश्न पर भयंकर कलह प्रारम्भ हो गई। अच्युतदेव राय के शासन के अन्तिम वर्षों में सम्पूर्ण सत्ता सलकराज तिरुमल के हाथों में केन्द्रीयभूत रही। उसके भ्रष्ट शासन एवं अन्यायपूर्ण करारोपण के परिणामस्वरूप संपूर्ण प्रजा शासन-विरोधी हो गई और जिंजी, तंजावुर आदि के नायकों ने विद्रोह कर दिया तथा पुर्तगालियों ने तूतीकोरिन के समृद्ध मोती उत्पादक प्रदेशों पर अधिकार कर लिया और बीजापुर की आक्रामक सेनाएँ विजयनगर साम्राज्य की राजधानी तक जा पहुॅची। इस आक्रमण के दौरान बीजापुर के सुल्तान इब्राहीम आदिल शाह ने राम राय और अच्युतदेव राय के मध्य एक समझौता कराया, जिसके द्वारा राम राय को विजयनगर के प्रशासन में सहभागिता प्राप्त हुई।
1542 ई0 में अच्युतदेव राय की मृत्यु के उपरान्त उसके पुत्र वेंकट प्रथम को राजसिंहासन पर बैठाया गया और उसके मामा सलकराज तिरुमल ने स्वयं को उराका प्रतिशासक (रीजेन्ट) घोषित किया परन्तु राजमाता वरदेवी ने इस व्यवस्था का विरोध किया और अपने पुत्र को अपने कुटिल भाई के चंगुल से बचाने के लिए इब्राहीम आदिल शाह से सहायता की याचना की पर कुटिल तिरुमल ने इब्राहीम आदिल को अपने पक्ष में फोड़ लिया। इसी बीच राम राय ने सदाशिव को सम्राट घोषित कर दिया। इस पर तिरुमल ने इब्राहीम आदिल को अपनी सहायता के लिए आमंत्रित किया, पर वह राम राय से जाकर मिल गया। अन्ततः राम राय ने तिरुमल को कई युद्धों में पराजित करके अच्युतदेव राय के भतीजे सदाशिव राय को 1543 ई0 में सिंहासनारूढ़ किया और स्वयं उसका प्रतिशासक (रीजेन्ट) बन गया।

सदाशिव राय (1542-1570)

सदाशिव राय विजयनगर साम्राज्य का नाम मात्र का शासक था। 1565 में रक्षसी-तंगडी (तालीकोट) के युद्ध तक वास्तविक सत्ता राम राय के हाथों में रही, जो संपूर्ण साम्राज्य का निर्विवाद स्वामी बन गया। राम राय की वैदेशिक नीति का लक्ष्य विजयनगर को संपूर्ण दक्षिण भारत में सर्वोच्च बनाना था, जिसके परिणामस्वरूप विजयनगर साम्राज्य वहमनी उत्तराधिकारी राज्यों की अन्तर्राज्यीय राजनीति में अन्तर्ग्रस्त हो गया। वह “हीरे को केवल हीरे से ही काटना चाहता था“ और इस नीति के अन्तर्गत उसने एक राज्य को दूसरे राज्य से भिड़ाया। लगभग दो दशकों तक दक्षिण भारत की राजनीति पर उसने अपने पूर्ण प्रभुत्व का प्रयोग किया और समकालीन दक्कनी मुस्लिम राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करके उन सबको विजयनगर साम्राज्य का समान शत्रु बना लिया।
पर राम राय एक महान् राजनीतिज्ञ और योग्य सेनानायक था । उसने पुर्तगालियों को अपने साम्राज्य विस्तार और हिन्दू मन्दिरों का विनाश करने से रोका। यद्यपि उसने उनके साथ 1546 ई0 में व्यापारिक समझौता किया पर उनकी साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं और धर्म-परिवर्तन कराने सम्बन्धी नीति को सफल नहीं होने दिया। उसने तीन बार बीजापुर को पराजित किया, पर जब अहमदनगर ने बीजापुर पर आक्रमण किया तो उसने बीजापुर के निवेदन पर उसे सैनिक सहायता प्रदान की और 1559 ई0 में अहमदनगर को एक अपमानजनक सन्धि करने के लिए बाध्य किया। कृष्णदेव राय के शासनकाल के अतिरिक्त, विजयनगर ने ऐसी सर्वोच्च स्थिति का कमी भी उपभोग नहीं किया था। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि राम राय साम्राज्यवादी नहीं था। दक्षिण में शक्ति सन्तुलन को बनाए रखने के अपने सिद्धान्त के प्रति प्रतिबद्धता के कारण उसने किसी भी दक्कनी राज्य को विजित करके विजयनगर साम्राज्य में शामिल नहीं किया। यदि राम राय चाहता तो वह बड़ी सुविधा से ऐसा कर सकता था।

तालीकोटा या राक्षसी-तंगड़ी का युद्ध (1565 ई0)-

विजयनगर साम्राज्य की यह शक्तिशाली स्थिति विनाश का कारण बनी। दक्कनी मुसलमान राज्य अपने पारस्परिक मतभेदों को भूलकर विजयनगर साम्राज्य के समान शत्रु बन गए और इस समान शत्रु को पराजित करने के लिए उन्होंने एक सैनिक महासंघ का गठन किया। इस ‘महासंघ’ के निर्माण की योजना किस दक्कनी सल्तान के मस्तिष्क की उपज थी, इस सम्बन्ध में बड़ा विवाद है। परन्तु इतना निश्चित है कि अहमनगर या बीजापुर का सुल्तान इस महासंघ का जन्मदाता था। पर दक्कनी राज्यों के इस महासंघ का कोई भी राज्य जन्मदाता रहा हो, पर विजयनगर साम्राज्य के विरुद्ध समान घृणा और शत्रुता इस महासंघ का वास्तविक कारण थी। दक्कनी राज्यों ने पारस्परिक वैवाहिक सम्बन्धों के द्वारा इस महासंघ को और मजबूत बनाया। अहमदनगर के हुसैन निजाम शाह की पुत्री जमाली बीबी का विवाह इब्राहीम कत्व शाह के साथ हुआ। हुसैन निज़ाम शाह ने अपनी दूसरी पुत्री चाँदबीवी का विवाह बीजापुर के अली आदिल के साथ किया और अली की बहन हदिया सुल्ताना का विवाह हुसैन निज़ाम शाह के पुत्र मुर्तजा से किया गया। विजयनगर साम्राज्य-विरोधी इस महासंघ में अहमदनगर, वीजापुर, गोलकण्डा और बीदर शामिल थे। गोलकुण्डा और बरार के मध्य पारस्परिक शत्रुता के कारण बरार इसमें शामिल नहीं हुआ। युद्ध की शुरुआत बीजापुर के अली आदिल ने, विजयनगर से रायचूर, मुद्गल, सोनी आदि के किलों की वापसी की माँग के द्वारा की। जैसा कि अपेक्षित था, राम राय ने इस माँग को ठुकरा दिया। इसके तत्काल बाद ही दक्कनी महासंघ की सेनाएँ रक्षसी-तंगड़ी नामक स्थान की ओर बढ़ीं। विजयनगर इस स्थिति के लिए तैयार नहीं था। सत्तर वर्षीय राम राय ने बड़ी वीरतापूर्वक विरोधी सेनाओं का मुकाबला किया परन्तु 23 जनवरी 1565 ई0 को हुए इस तालीकोटा युद्ध में विजयनगर की सेनाएँ बुरी तरह पराजित हुईं। राम राय और उसका भाई वेंकटाद्रि युद्ध में मारे गए। युद्ध के बाद विजेता सेनाओं ने विजयनगर में प्रवेश करके, उसे खूब लूटा और नष्ट-भ्रष्ट किया। विजयनगर, जिसकी गणना विश्व के महानतम नगरों में की जाती थी, पूरी तरह से तबाह कर दिया गया। राम राय का दूसरा भाई तिरुमल युद्ध-क्षेत्र से भागकर राजधानी आया और विजेता सेनाओं के विजयनगर पहुँचने से पूर्व राजकोष एवं विजयनगर सम्राट सदाशिव राय को लेकर सुरक्षित स्थान भागा और पेनुकोण्डा में शरण ली, जो अगले पाँच वर्षो या तुलुव राजवंश के अन्त तक, विजयनगर साम्राज्य की राजधानी रहा। राक्षसी-तंगडी का युद्ध भारतीय इतिहास के विनाशकारी युद्धों में से एक है।

अरविदु राजवंश (1570-164 9ई0)-

अरविदु राजवंश या विजयनगर साम्राज्य के अन्तिम राजवंश का संस्थापक राम राय का भाई तिरुमल था, जिसने ग्यारह माह तक शासन करने के उपरान्त राजसिंहासन अपने ज्येष्ठ भाई के पुत्र श्रीरंग (1572-85) को सौंप दिया, जिसने बीजापुर और गोलकुण्डा के सुल्तानों के आक्रमणों से असुरक्षित अनुभव करते हुए अपनी राजधानी को पेनुकोण्डा से तमिलनाडु के दक्षिण ने अर्काट जिले में स्थित चन्द्रगिरि में स्थानान्तरित कर दिया। अरविदु राजवंश यद्यपि सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक जीवित रहा, पर रक्षसी-तंगड़ी के युद्ध में विजयनगर की पराजय के बाद विजयनगर साम्राज्य का समस्त गौरव विलुप्त हो गया। साम्राज्य की शक्तिहीनता का लाभ उठाकर विजयनगर के नायकों जैसे कि तंजावूर, मदुरई, जिंजी, इक्केरी आदि के नायकों ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। दक्कनी मुस्लिम राज्यों और बाद में मुगलों एवं मराठों ने भी स्थिति का लाभ ही उठाया और सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक विजयनगर साम्राज्य भारतीय इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय मात्र बनकर रह गया।

Post a Comment

Previous Post Next Post