window.location = "http://www.yoururl.com"; VijayNagar Empire: Administration and Society | विजयनगर साम्राज्य: प्रशासनऔर समाज

VijayNagar Empire: Administration and Society | विजयनगर साम्राज्य: प्रशासनऔर समाज



केन्द्रीय प्रशासन

राजा- विजयनगर राज्य एक राजतन्त्र था। राजा प्रशासन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग होता था और वस्तुतः उसे ईश्वर के समतुल्य माना जाता था। अपने साम्राज्य के प्रशासन में राजा का कितना अधिक प्रभाव होता था, यह उसके व्यक्तित्व पर निर्भर करता था। जबकि कृष्णदेव राय ने युद्ध और शान्ति के भी क्षेत्रों में प्रतिष्ठा अर्जित की थी, सदाशिव ने केवल नाममात्र ही शासन किया। राजा राज्याभिषेक के उपरान्त सिंहासन पर बैठता था। राज्याभिषेक दरबार का एक अत्यन्त भव्य आयोजन होता था जिसमें अनेक नायक, अधिकारी तथा जनता के प्रतिनिधि सम्मिलित होते थे। अच्युतदेव राय ने अपना राज्याभिषेक तिरुपति मन्दिर में सम्पन्न करवाया था। ऐसे अवसरों पर मन्दिरों तथा ब्राह्मणों को अनुदान दिए जाते थे ।
चोल सम्राटों की भाँति विजयनगर नरेश भी अपने जीवनकाल में ही अपने उत्तराधिकारियों को नामजद कर देते थे। सामान्यतया ज्येष्ठ राजकुमार का युवराज के रूप में अभिषेक कर दिया जाता था। इस प्रकार की परंपराओं का उद्देश्य उत्तराधिकार सम्बन्धी विवादों की आशंकाओं का निवारण करना और भावी नरेश को प्रशासन कला में प्रशिक्षित करना होता था। सम्राट, युवराज या अपने उत्तराधिकारी की घोषणा अपने राजदरबारियों की उपस्थिति में करता था और युवराज के चयन से पूर्व वह अपने साम्राज्य के प्रमुख व्यक्तियों से इस सम्बन्ध में परामर्श लेता था। युवराज को एक या उससे अधिक प्रान्तों का प्रशासन सौंपा जाता था। राजसिंहासन के प्रति नरेशों की विशेष आसक्ति विजयनगर युग में अज्ञात नहीं थी। यदि कोई विजयनगर नरेश अल्पायु होने के कारण शासन व्यवस्था संचालित करने में सक्षम नहीं होते थे तो उनकी अल्पायुता काल में प्रशासन का उत्तरदायित्व प्रतिशासक या रीजेन्ट को सौंपा जाता था। सालुव नरसिंह ने अपने पुत्रों के अल्पायु होने के कारण अपने सेनानायक नरसा नायक को उनका प्रतिशासक नियुक्त किया था। इसी प्रकार राम राय, सदाशिव राय का प्रतिशासक था। परन्तु वीर नरसिंह और राम राय जैसे प्रतिशासकों ने इस विश्वास का दुरुपयोग किया और स्वयं राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। विजयनगर के इतिहास में प्रतिशासकों द्वारा पद के दुरुपयोग के दृष्टान्त कम नहीं हैं। प्रतिशासकों द्वारा छल-बल के द्वारा राजसिंहासन पर अधिकार कर लेने का संपूर्ण प्रशासन पर दुष्प्रभाव पड़ता था और प्रायः इससे पूरे साम्राज्य में असन्तोष व्याप्त हो जाता था।
राजा का मुख्य कर्तव्य अपनी समस्त प्रजा को सुरक्षा प्रदान करना तथा उनकी शिकायतों का निवारण करना था। दूसरा मुख्य कर्तव्य राज्य में प्रभावशाली पुलिस तथा सैनिक संगठनों की स्थापना करना था ताकि देश में कानून और व्यवस्था को बनाए रखा जा सके। विजयनगर के इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि राजा अपने नायकों और प्रान्तीय गवर्नरों द्वारा जनता के उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए प्रान्तों के प्रशासन में हस्तक्षेप करता था। विजयनगर नरेश स्वयं को धर्म विषयक मामलों का प्रमुख मानते थे अथवा यह समझते कि धर्म की रक्षा उनका दायित्व है। वे साम्राज्य में सामाजिक एकता बनाए रखने तथा शान्ति और समृद्धि को सुनिश्चित करने के लिए उत्सुक रहते थे। लौकिक तथा धार्मिक मस्थाओं के प्रति उनकी नीति समग्र रूप से बड़ी संतुलित होती थी। प्रशासन एवं व्यक्तिगत जीवन में वे पूर्णतः धर्म-निरपेक्ष नीतियों का अनुसरण करते थे। विजयनगर के सम्राट जनता की आर्थिक उन्नति के प्रति तटस्थ नहीं थे। उनके शासनकाल में वनो को साफ कराकर नए ग्राम बसाए गए तथा नई जमीनों को कृषि-योग्य बनाया गया। विदेश व्यापार को प्रोत्साहन प्रदान किया गया। विदेशो से आने वाले प्रवासियों को उनकी राष्ट्रीयता के अनुरूप सुरक्षा प्रदान किया गया। विदेशी व्यापारियों को राजधानी में निवाम करने की अनुमति और सहायता प्रदान की जाती थी और उन्हें रहने के लिए सुन्दर आवास प्रदान किए जाते थे।
सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीशाता था, जब किसी को निचली अदालत से सम्यक न्याय प्राप्त नहीं पाता था तो दुखी व्यक्ति न्याय के लिए राजा से याचना कर सकता था। यद्यपि राजा संपूर्ण प्रशासनतंत्र का केन्द्रबिन्दु था, तथापि वह निरंकुश नहीं होता था। कुछ विशेष नियम या संहिताए (प्राय. हिन्दू धर्मशास्त्र) तथा प्रशासकीय संस्थाएँ उसकी शक्तियों को नियंत्रित करते थे। इन संस्थाओं के अतिरिक्त विजयनगर साम्राज्य का संगठित सामाजिक समुदाय भी राजा की शक्ति पर अंकुश रखता था। विभिन्न समुदाय अपने नियमों का स्वयं निर्धारण करते थे। राजा का दायित्व केवल मात्र इन नियमों को क्रियान्वित करना होता था। प्रशासकीय संस्थाओं में राजपरिषद राजा की शक्ति पर नियंत्रण का सबसे शक्तिशाली माध्यम थी। इस परिषद की सहमति से ही राजा शासन करता था और राज्य के समस्त मामलों एवं नीतियों के सम्बन्ध में इससे परामर्श लेता था।

राजपरिषद- 

टी0वी0 महालिंगम् ने विजयनगर प्रशासन की राजपरिषद और मंत्रिपरिषद में अन्तर स्पष्ट किया है। राजपरिषद प्रान्तों के नायकों, सामन्त शासकों, प्रमुख धर्माचार्यों विद्वानों, संगीतकारों, कलाकारों, व्यापारियों और यहाँ तक विदेशी राज्यों के राजदूतों को शामिल करके गठित किया गया एक विशाल संगठन होता था। कृष्णदेव राय और उनके राजदरबार के प्रमुख विद्वान पेड्डन दोनों ही इस परिषद के सदस्य थे। यह स्पष्ट है कि इतने विविध तत्त्वों को मिला कर गठित की गई इतनी विशाल परिषद बहुत प्रभावशाली नहीं रही होगी। इसकी तुलना इंगलैण्ड की प्रीवी काउंसिल से की जाती है, जिसका महत्त्व प्रशासकीय की अपेक्षा औपचारिक अधिक था। मंत्रिपरिषद- विजयनगर-कालीन मंत्रिपरिषद की तुलना कौटिल्य के मंत्रिपरिषद के साथ की जा सकती है। इसमें राजपरिषद से कम सदस्य होते थे और सरकार की नीतियों को प्रभावित करने में यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती थी। इसकी वास्तविक संख्या स्पष्ट नहीं है, पर ऐसा अनुमान किया जाता है कि इसका स्वरूप शिवाजी के अष्टप्रधान की भाँति रहा होगा। इसकी सभाएँ वेंकट विलासमण्डप नामक सभागार में आयोजित की जाती थीं। मंत्रिपरिषद का प्रमुख प्रधानी या प्रधानमंत्री होता था, जो मराठा पेशवा का पूर्वगामी माना जा सकता है। प्रधानी मंत्रिपरिषद की सभाओं की अध्यक्षता करता था।
मंत्रियों से उच्च योग्यताओं की अपेक्षा की जाती थी। विजयनगर साम्राज्य में योग्य और कुशल मंत्रियों की परंपरा थी। “मंत्री से विद्वान, अधर्म भीरु, राजनीति में निष्णात, पचास और सत्तर वर्ष की आयु के मध्य होने, शारीरिक रूप से स्वस्थ होने, पीढ़ियों से राजपरिवार के साथ सम्बन्धित होने और छल-कपट से मुक्त होने की अपेक्षा की जाती थी।“ मंत्रियों के चयन में आनुवंशिकता के सिद्धान्त का सम्भवतः अनुसरण किया जाता था। यह माना जाता था कि किसी नए व्यक्ति की तुलना में मंत्री का पुत्र बेहतर मंत्री सिद्ध हो सकता था, क्योंकि नया व्यक्ति सत्ता के जाल में फंस सकता था। कई नरेशों के अन्तर्गत एक ही व्यक्ति को मंत्री बनाए रखने की भी परंपरा थी। दण्डनाथ और सायण बुक्का और हरिहर द्वितीय दोनों के मंत्री थे।
मंत्रियों को दण्डनायक की उपाधि प्रदान की जाती थी, इस उपाधि का अर्थ था- “प्रशासन का प्रमुख“ और “सेनाओं का नायक“। उनके कछ सैनिक दायित्व भी होते थे, जैसे कि युद्ध के समय राजा को निश्चित संख्या में सैनिक प्रदान करना। तथापि मंत्रिपरिषद द्वारा साम्राज्य के प्रशासन का सफलतापूर्वक संचालन बहुत-कुछ राजा के व्यक्तित्व पर निर्भर करता था। शक्तिशाली शासकों के शासनकाल में इसका प्रभाव अधिक नही रहता था, जबकि कमजोर शासकों के शासनकाल में राज्य की नीतियों का नियंत्रण ही इसके द्वारा किया जाता था।

केन्द्रीय सचिवालय- 

विजयनगर साम्राज्य का प्रशासन एक विशाल सचिवालय द्वारा संचालित किया जाता था, जिसके बारे में विजयनगर साम्राज्य में आने वाले प्रत्येक विदेशी यात्री ने उल्लख किया है। ‘आमुक्तमाल्यद‘ में कृष्णदेव राय ने यह विचार व्यक्त किया है कि राजकर्मचारियों की संख्या पर प्रशासन की कुशलता निर्भर करती है। केन्द्रीय सचिवालय में विभिन्न दायित्वों के निर्वाह के लिए अनेक विभाग और विभाग प्रमुख होते थे। रायसम् राजा के मौखिक आदेशों को लिपिवद्ध करता था। रायसम का पद बहुत सम्माननीय माना जाता होगा, क्योंकि इस पद पर पदासीन लोग इस पद को अपने व्यक्तिगत नाम से पूर्व (प्रीफिवरा के रूप में) प्रयुक्त करते थे। कर्णिकम लेखाधिकारी होता था। विजयनगर साम्राज्य में शायद ही ऐसा कोई कार्यालय या विभाग हो जिसमें कर्णिकम नामक कर्मचारी कार्यरत न हों। सर्वनायक, पदाकर्ता और वसल्कार्यम राजा और राजदरवार से सम्बन्धित कर अधिकारी होते थे। उन्हें राजप्रासाद से सम्बन्धित दायित्व भी सौंपे जाते थे। फारस के राजदूत अब्दुर रज्जाक ने विजयनगर के सचिवालय का उल्लेख करते हुए लिखा है कि यह चालीरा स्तम्भों वाला भवन था, जिसे वह दीवानखाना के रूप में उल्लिखित करता है और यह भी बताता है कि इसमें राजकर्मचारी कैसे बैठते थे और . किस प्रकार आलेख रखे जाते थे।

आय और व्यय- 

 राज्य को विभिन्न स्रोतों से आय होती थी, वे थे भू-राजस्व, सम्पत्ति कर, व्यापारिक कर, व्यावसायिक कर, उद्योगों पर लगाए जाने वाले कर, सामाजिक और सामुदायिक कर तथा अपराधों के लिए आरोपित अर्थदण्ड। विजयनगर साम्राज्य द्वारा वसूल किए जाने वाले विविध करों के नाम थे -कदमाई, मगमाइ, कनिक्कई, कत्तनम, कणम्, वरम्, भोगम्, वारि, पत्तम, इराई और कत्तायम्।
राजस्व का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत भूमिकर होता था। भूमि का भली-भाँति सर्वेक्षण किया जाता था और राज्य उपज के छठवें भाग को भूमि-कर के रूप में वसूल करता था। ग्राम के स्वरूप (कि वह देवदान, ब्रह्मदेय, दलवाय अग्रहार या करणाम है), भू-स्वामित्व, भूमि की उत्पादकता और उगाई जाने वाली फसलों का ध्यान रखते हुए भूमि-कर का निर्धारण किया जाता था। भू-राजस्व को नकद या उपज के रूप में वसूल किया जाता था। भूमि-कर का निर्धारण सामान्यतः भूमि के सकल उत्पाद के आधार पर किया जाता था। परन्तु कभी-कभी भूमि की उत्पादक क्षमता या भूमि की जुताई के लिए प्रयुक्त होने वाले हलों की संख्या के आधार पर भी भूमि-कर का निर्धारण किया जाता था। समकालीन अभिलेखों में कृष्णदेव राय द्वारा भूमि-कर के सही निर्धारण के लिए सम्पूर्ण साम्राज्य की भूमि के सर्वेक्षण का उल्लेख है। भूमि-मापक पट्टिकाओं या जरीबों के विभिन्न नाम थे जैसे- नदलक्कुल, राजव्यवंकोल और गंडरायगण्डकोल।
मकानों, निधियों, घोड़ों, पालतू पशुओं और यहाँ तक कि वृक्षों तक पर कर लगाए जाते थे। घरों के आकार और उनमें निवास करने वाले लोगों की आर्थिक स्थिति के आधार पर गृह-कर आरोपित किया जाता था। आयात और निर्यात किए जाने वाले माल तथा आन्तरिक व्यापार पर आरोपित सीमा-शुल्क से पर्याप्त राजस्व अर्जित होता था। कृष्णदेव राय के कोण्डविदु शिलालेख में 59 वस्तुओं पर वसूल किए जाने वाले करों की दरों का भी उल्लेख है। प्याज और हल्दी पर प्रति बोरी एक दम्म, गुड़ और अदरक पर प्रति बोरी दो दम्म, काली मिर्च और चन्दन पर प्रति बोरी छः दम्म कर लगाया जाता था। नूजिज़ ने लिखा है कि नागलापुर नगर में बेंची जाने वाली वस्तुओं से 12000 परदौस शुल्क या चुंगी के रूप में वसूल किया जाता था। उसके अनुसार विजयनगर के केवल एक नगर द्वार पर चुंगी वसूल करने का अधिकार 12000 परदौस प्रतिवर्ष ठेके पर दे दिया गया था।
विभिन्न व्यवसायियों जैसे कि कैक्कोलारों, मछुआरों, गड़रियों, तेल बेचने वालों, संगीतकारों, और यहाँ तक कि वैश्याओं तक को उनके व्यवसाय के अनुसार व्यवसाय कर अदा करना पड़ता था। स्वर्णकार पाँच पणम् और मछुआरे आधा पणम् वार्षिक कर देते थे। यह कर वर्ष में एक बार अदा किया जाता था। सदाशिव राय के अभिलेखों से हमें यह रोचक सूचना प्राप्त होती है कि उसने नाइयों को व्यवसाय कर से मुक्त कर दिया था। उद्योगों को उनके द्वारा अर्जित आय के आधार पर उद्योग-कर देना पड़ता था। करघों, कोल्हुओं, धातु गलाने की भट्टियों, रेशमी धागा कातने, हीरों के खनन आदि पर उद्योग कर लगाए जाते थे। विजयनगर साम्राज्य में हीरा उद्योग बहुत समृद्ध स्थिति में था। सामाजिक एवं सामुदायिक करों में विवाह-कर बड़ा रोचक था। विवाह-कर, वैवाहिक समारोह के आयोजन के आकार और विवाह में व्यय किए जाने वाले धन पर निर्भर करता था। पर विजयनगर साम्राज्य ने विधवा विवाह को प्रोत्साहन देने के लिए ऐसे विवाहों जिनमें यदि कोई व्यक्ति विधवा से विवाह करता था, तो वर-वधू पक्ष किसी से भी विवाह-कर वसूल नहीं किया जाता था। इस कर मुक्ति के द्वारा विजयनगर सम्राटों ने विधवा विवाह को मान्यता प्रदान की।
साम्राज्य की सैन्य व्यवस्था और किलों की देख-रेख के लिए भी लोगों पर कर लगाए जाते थे। विजित प्रदेश की सुरक्षा के लिए भी एक विशेष कर आरोपित किया जाता था। सामाजिक उद्देश्यों के लिए भी कुछ कर वसूल किए जाते थे। यह सामाजिक एवं सामुदायिक कर या तो राज्य द्वारा वसूल किए जाते थे या उन्हें अन्य करों के साथ जोड़ दिया जाता था अथवा उन्हें वसूल करने का अधिकार मन्दिरों या विद्यालयों जैसी सार्वजनिक और सामाजिक संस्थाओं को सौंप दिया जाता था।
जहाँ तक करों की वसूली का सम्बन्ध है उन्हें चार प्रकार का कर वसूल किया जाता था। प्रथम में राजकर्मचारियों द्वारा राज्य की ओर से सीधे वसूल किया जाता था। द्वितीय में सबसे ऊँची बोली बोलने वाले व्यक्ति को शासन की ओर से कर वसूली का अधिकार प्रदान कर दिया जाता था। तीसरी व्यवस्था में शासन किसी संगठन या ग्राम के किसी समूह या कुछ व्यक्तियों को कर वसूल करने का अधिकार प्रदान कर देता था। चौथी व्यवस्था के अन्तर्गत कुछ प्रदेशों या भू-क्षेत्रों में नायक जैसे अधिकारियों को कर वसूल करने का अधिकार प्रदान कर दिया जाता था, जिसके बदले में वे सैनिक सेवाएँ और केन्द्रीय शासन को वार्षिक धनराशि या नज़राना प्रदान करते थे।
शासन रैय्यत की स्थिति का पूरा ध्यान रखता था। जब कभी मानसून अनुकूल न हो या अप्रत्याशित परिस्थितियों के कारण कृषि की उपज दुष्प्रभावित हो गई हो, तो ऐसी परिस्थितियों में कृषकों को करों से राहत प्रदान की जाती थी। अन्य उपयुक्त परिस्थतियों में भी करों से राहत प्रदान की जाती थी। विजयनगर-कालीन अनेक अभिलेखों से आपदाग्रस्त रैय्यत के प्रति राज्य की चिन्ता व्यक्त होती है। कुछ विशेष परिस्थितियों में शासन द्वारा निश्चित अवधि के लिए जमीनों को कर-मुक्त कर दिया जाता था और नई जमीनों को कृषि योग्य बनाने या भूमि की उत्पादकता का संवर्धन करने की स्थिति में या तो कोई निश्चित धनराशि कर के रूप में वसूल की जाती थी अथवा कृषकों की सुविधा की दृष्टि से कर को क्रमिक रूप से बढ़ाया जाता था।
केन्द्रीय राजस्व विभाग को अथवन या अस्ववन कहा जाता था। राजस्व मंत्री इस विभाग का प्रमुख होता था। अधिकारियों और लिपिकों का एक विशाल समूह विभिन्न जनपदों और स्रोतों से राज्य को प्राप्त होने वाले राजस्व का नियमित हिसाब-किताव रखता था।
निस्संदेह रूप से विजयनगर साम्राज्य के लोगों पर करों का बोझ दुस्सह था। टी0वी0 महालिंगम् के शब्दों में – “कुछ विजयनगर नरेश राज्य के राजस्व के संवर्धन के लिए प्रत्येक अवसर का लाभ उठाते थे और करों को भी अधिकाधिक कठोरता के साथ वसूल करते थे। कभी-कभी लोगों को कर अदा करने के लिए अपनी जमीनों तक को बेचना पड़ता था। जब करों का बोझ असह्य हो जाता था तो वे इसका विरोध करते थे या कहीं अन्यत्र चले जाते थे।“ इसके विपरीत विजयनगर साम्राज्य में करों की संख्या बहुत अधिक होने के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि इस युग में साम्राज्य के विभिन्न वर्गों के लोगों की समृद्धि में आशातीत रूप से अभिवृद्धि हुई, अतः राज्य ने भी इस समृद्धि का करारोपण करके लाम उठाया। इसके अतिरिक्त विजयनगर काल में करों की संख्या मले ही अधिक रही हो, पर करों की दरें करदाता की देय क्षमता के आधार पर निर्धारित की जाती थीं।
विजयनगर साम्राज्य फुजूलखर्ची की प्रवृत्ति से मुक्त था। वह आधुनिक राज्य द्वारा किए जाने वाले अनेक लोक-कल्याणकारी कार्यों के दायित्वों का भी निर्वाह नहीं करता था। राजकीय व्ययों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मद सैनिक व्यय थे। बहमनी सुल्तानों के साथ चलने वाले सतत युद्धों, नायकों एवं सामन्त-शासकों के प्रारंभिक विद्रोहों के कारण तथा साम्राज्य के विस्तार के लिए सैन्य व्यय आवश्यक भी थे। सैन्य व्ययों का एक बहुत बड़ा अंश घोड़ों के आयात पर खर्च होता था। सार्वजनिक धर्म और लोकोपकारी कार्यों पर भी राज्य द्वारा व्यय किया जाता था। दक्षिण भारतीय मन्दिरों से प्राप्त शिलालेखों में राजाओं द्वारा मन्दिरों को प्रदत दानों का उल्लेख है। सार्वजनिक निर्माण कार्य भी व्ययों की एक मद के रुप में शामिल था। तालाबों, झीलों और सिंचाई के अन्य संसाधनों का विकास किया जाता था तथा कला एवं स्थापत्य कार्यों पर पर्याप्त व्यय किया जाता था।

मुद्रा व्यवस्था-

विजयनगर साम्राज्य की मुद्रा प्रणाली भारत की सर्वाधिक प्रशंसनीय मुद्रा प्रणालियों में से थी। विजयनगर साम्राज्य के स्वर्ण के सिक्कों से साम्राज्य की समृद्धि का पता चलता है। विजयनगर का सर्वाधिक प्रसिद्ध सिक्का स्वर्ण का वराह था, जिसका वजन 52 ग्रेन होता था, जिसे विदेशी यात्रियों ने हूण, परदौस या पगोड़ा के रूप में उल्लिखित किया – है। 26 ग्रेन वजन का आधे वराह को प्रताप, चौथाई वराह या आधा-प्रताप 13 ग्रेन का और फणम 5.5 ग्रेन का होता था। चाँदी के छोटे सिक्के तार कहलाते थे। एक वराह साठ तारों के समतुल्य होता था। विजयनगर का वराह एक बहुत सम्मानित सिक्का था और संपूर्ण भारत तथा विश्व के प्रमुख व्यापारिक नगरों में इन्हें स्वीकार किया जाता था।
विजयनगर साम्राज्य के सिक्कों से वहाँ के नरेशों के धार्मिक विश्वासों का भी पता चलता है। विजयनगर साम्राज्य के संस्थाएक हरिहर के स्वर्ण वराह सिक्कों पर हनुमान एवं गरुड़ की आकृतियाँ अंकित हैं । तुलुव वंश के सिक्कों पर बैल, माहेश्वर, वेंकटेश और बालकृष्ण की आकृतियाँ एवं सदाशिव राय के सिक्कों पर लक्ष्मीनारायण की आकृति अंकित है। अरविदु राजवंश के शासक वैष्णव धर्मानुयायी थे, अतः उनके सिक्कों पर वेंकटेश, शंख एवं चक्र अंकित है।

सैन्य-संगठन-

एक शक्तिशाली और विशाल सेना का गठन विजयनगर नरेशों के लिए बहुत आवश्यक था। विजयनगर साम्राज्य के इतिहास से स्पष्ट होता है कि इसका अस्तित्व वस्तुतः इसकी सैनिक शक्ति पर आश्रित था। उसे बहमनियों के आक्रमणों से आत्मरक्षा करनी पड़ती थी।
विजयनगर साम्राज्य में सेना की भर्ती की दो व्यवस्थाएँ प्रचलित थीं। पहली व्यवस्था के अन्तर्गत सैनिकों की भर्ती सीधे राज्य द्वारा की जाती थी। दूसरी व्यवस्था के अन्तर्गत विजयनगर साम्राज्य के सामन्त शासक सम्राट को सैनिक टुकड़ियाँ प्रदान करते थे। राज्य द्वारा नियुक्त एवं गठित सेना स्थायी या नियमित सेना होती थी। जबकि सामन्त-शासकों द्वारा प्रदान की जाने वाली सैनिक टुकड़ियों अस्थायी सेना थी। यह सामन्त सेना विजयनगर की सेना का बहुत बड़ा अंश थी। संपूर्ण साम्राज्य विभिन्न प्रशासकीय इकाइयों में विभाजित किया जाता था। प्रत्येक इकाई किसी नायक को प्रदान कर दी जाती थी जिसके बदले में वे राज्य को वार्षिक धनराशि एवं निर्धारित संख्या में सैनिक टुकड़ियाँ प्रदान करते थे। इन नायकों को प्रदत्त मू-क्षेत्र अमरम् कहलाते थे। अभिलेखों में अमरम् भूमि प्राप्त करने वाले नायकों को अमरनायकों के रूप में उल्लिखित किया गया है।
राजधानी में एक विशेष सेना होती थी, जिसे नूनिज ने “राजा के अंगरक्षकों“ के रूप में उल्लिखित किया है। इस विशेष सेना में पदाति, अश्वारोही और हस्तिसेना शामिल थी। इस सेना की संख्या ज्ञात नहीं है, पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह काफी विशाल थी। इस सेना की तुलना मुगलकालीन सेना के अहदियों के साथ की जा सकती है।
विजय नगर साम्राज्य की सेना में ब्राह्मणों का महत्वपूर्ण स्थान था। उन्हें न केवल प्रधान सेनाधिकारी के रूप में नियुक्त किया जाता था, बल्कि वे सेनाओं का नेतृत्व भी करते थे। विजयनगर के इतिहास में ब्राह्मण सेनानायकों और प्रान्तीय गवर्नरों के अनेक संदर्भ प्राप्त होते हैं। प्रशासन के विभिन्न विभागों में सैनिक विभाग एक महत्त्वपूर्ण विभाग होता था जिसे इस काल में खण्डाचार कहा जाता था। सैनिक विभाग और उसके अधिकारियों के बारे में हमें समकालीन अभिलेखों से बहुत सीमित जानकारी प्राप्त होती है। सैनिकों को सामान्यतया राजकोष से नकद वेतन दिया जाता था जिसकी पुष्टि विदेशी यात्रियों की रचनाओं से भी होती है।
सेना के चार अंग थे : पदाति, अश्वारोही, हस्तिसेना और तोपखाना। सेना में सबसे अधिक संख्या पदाति सेना की थी। इन सैनिकों के प्रमुख हथियार थे- तलवारें, धनुष-वाण, बन्दूकें आदि। सेना का सबसे शक्तिशाली अंग अश्वारोही सेना होती थी। अधिकांश युद्धों में इसी की सहायता से विजय प्राप्त होती थी। शक्तिशाली अश्वारोही सेना रखने वाले शासक को अश्वपति कहा जाता था। अश्वारोही सेना के लिए घोड़ों का आयात किया जाता था। कृष्णदेव राय प्रतिवर्ष तेरह हजार घोडा खरीदता था जिन्हे मुख्यतः हारमुज से लाया जाता था। दक्षिण भारतीय युद्धों में तोपखाने का प्रचलन विजयनगर युग से प्रारम्भ हुआ। समकालीन अभिलेखों में तोपों, बन्दूकों और बारूद का उल्लेख प्राप्त होता है।
विजयनगर काल में नौसेना का भी विभाग था परन्तु इसे अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। यदि विजयनगर नरेश इसे अपेक्षित महत्त्व देकर संगठित करते, तो दक्षिण भारत में पुर्तगाली अपने पैर न जमा पाते। नौसेना को शक्तिशाली बनाकर सामुद्रिक लुटेरों को भी दण्डित किया जा सकता था।

प्रान्तीय प्रशासन- 

 विजयनगर साम्राज्य दक्षिण भारत के इतिहास में एक विशालतम साम्राज्य था। इसके महानतम दिनों में कृष्णा नदी के दक्षिण का समस्त क्षेत्र इसके साम्राज्य का अंग था लेकिन सुदूर दक्षिण के कुछ राज्य विजयनगर से स्वतत्र थे। पुर्तगाली यात्री पायज के अनसार. “कष्णदेव राय के साम्राज्य छःः सौ लीग लम्बा सामद्रिक तटवर्ती क्षेत्र और उससे आगे तीन सौ अड़तालिस लीग लम्बा अन्तर्वर्ती प्रदेश शामिल था।“ स्वाभाविक रूप से इतने विशाल साम्राज्य को कुशल प्रशासन की दृष्टि से प्रांतों में विभाजित किया गया होगा। अच्युतदेव राय के शासनकाल में प्रांतों की संख्या सत्तरह थी।
प्रांतों को सामान्यतः राज्य कहा जाता था परन्तु तमिल प्रदेश में उन्हें कहीं-कहीं मण्डलम और कर्नाटक में पिर्थिक भी कहा जाता था। चूंकि राज्यों का आकार ऐतिहासिक परिस्थितियों पर निर्भर करता था अतः समस्त राज्यों का आकार एक जैसा नहीं होता था। छोटे-बड़े राज्यों में अन्तर स्पष्ट करने के लिए बड़े राज्यों को महाराज्य कहा जाता था। उदाहरणार्थ तिरुवादि राज्य था, जबकि चन्द्रगिरि महाराज्य था। साम्राज्य के कुछ राज्यों का विकास महत्त्वपूर्ण किलों के चारों ओर होता था। कण्डनूर और उदयगिरि के किले इन्हीं नामों के प्रांतों का केन्द्रविन्दु थे।
सामान्यतः राजपरिवार के कुमारों और राजकुमारों को प्रांतों के गवर्नरों के रूप में नियुक्त किया जाता था। संगम राजवंश के युग में अनेक राजकमारों को प्रान्तीय गवर्नरों के रूप में कार्य करने के संदर्भ प्राप्त होते हैं, परन्तु सालुव और तुलुव राजवंशों के काल में इस परम्परा का पतन हो गया क्योंकि इन दो वंशों के शासनकाल में पुत्रों की संख्या बहुत कम थी। संगम युग में गवर्नरों के रूप में शासन करने वाले राजकुमारों ने उदैयर की उपाधि को धारण किया। कभी-कभी योग्य और अनुभवी अधिकारियों को भी गवर्नर के रूप में नियुक्त किया जाता था और उन्हें वही प्रतिष्ठा प्राप्त होती थी जो कुमार गवर्नरों को प्राप्त थी। इस प्रकार के गवर्नरों को दण्डनायक कहा जाता था।
गवर्नरों की नियुक्ति राजा अपने मंत्रियों के परामर्श से करता था। कुछ ऐसे दृष्टान्त भी हैं जब पिता से पुत्र को गवर्नर का पद प्राप्त हो गया जैसे कि उदयगिरि राज्य के गवर्नर कंपन का पुत्र संगम द्वितीय उसका उत्तराधिकारी हुआ। गवर्नरों का एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में स्थानान्तरण कोई असामान्य बात नहीं थी। विजयनगर नरेशों ने गवर्नरों को कुछ ऐसे राजचिन्हों का प्रयोग करने की अनुमति दे दी थी, जिनका सामान्यतः शासक राजवंश प्रयोग करते थे। प्रन्तीय गवर्नरों को उनकी उपलब्धियों के लिए सम्मानित भी किया जाता था। कर्नाटक के कोलार से प्राप्त एक शिलालेख में उल्लेख है कि प्रान्तीय गवर्नरों को घोड़ा, छत्र और हाथी का हौदा जैसी वस्तुओं को प्रदान करके सम्मानित किया गया। प्रान्तीय गवर्नरों को अपने नाम से सिक्के प्रसारित करने का महत्त्वपूर्ण अधिकार भी प्राप्त था। कुछ गवर्नर दोहरी भूमिका का भी निर्वाह करते थे। वे केन्द्र में मंत्री होते थे और साथ ही साथ प्रान्तों के गवर्नर भी। कृष्णदेव राय के प्रधानमंत्री कोण्डविदु प्रान्त के गवर्नर भी थे। कृष्णदेव राय के शासनकाल में प्रान्तों की संख्या 6 थी।

नायंकार व्यवस्था-

विजयनगर साम्राज्य की प्रान्तीय प्रशासन व्यवस्था के संदर्भ में नायंकार व्यवस्था उसका एक बहुत महत्त्वपूर्ण अंग थी। इसे विजयनगर शासन व्यवस्था की एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता बताया जा सकता है परन्तु इस व्यवस्था की उत्पत्ति और इसके स्वरूप के सम्बन्ध में अनेक विवाद हैं। कुछ इतिहासकारों के मतानुसार विजयनगर साम्राज्य में सेनानायकों को नायक कहा जाता था परन्तु अधिकांश इतिहासकार इस विषय में एकमत है कि आनुवंशिक सैनिक गवर्नरों के अधीन प्रान्तीय प्रशासन प्रणाली को नायंकार व्यवस्था कहा जाता था। इसके अन्तर्गत राजा नायकों को अमरम् नामक भू-खण्ड या प्रदेश आनुवंशिक आधार पर प्रदान करता था। नायंकार शब्द दो शब्दों नायक एवं अमरम् को मिलाकर बना है, जिसका अर्थ है अमरम् भूमि का उपभोग करने वाले नायक। इस प्रकार की भूमि प्राप्त करने वाले नायकों के दो प्रमुख दायित्व होते थे। प्रथमतः तो नायक को अमरम् भूमि से प्राप्त आय का एक भाग केन्द्रीय खजाने में जमा कराना पड़ता था। यह वार्षिक वित्तीय अंशदान सामन्यतया अमरग् भूमि की आय का आधा होता था। दूसरे, नायकों को राजा की सैनिक सहायता के लिए एक सेना रखनी पड़ती थी। सेना की संख्या अमरम् भूमि के आकार पर निर्भर करती थी।
राज्य (प्रान्त) के गवर्नर (अर्थात कुमार या दण्डनायक) की संवैधानिक स्थिति नायकों से भिन्न होती थी। नायक अपने अमरम् प्रान्त में गवर्नर की तुलना में कहीं अधिक स्वतंत्र स्थिति का उपभोग करते थे। सामन्यतया राजा नायंकर प्रदेशों के आन्तरिक प्रशासन में अधिक हस्तक्षेप नहीं करता था। नायक का एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में स्थानान्तरण भी नहीं किया जाता था। नायक केन्द्र या साम्राज्य की राजधानी में दो प्रकार के अधिकारियों को नियुक्त करता था। उनमें से एक केन्द्र में नियुक्त नायक की सेना का सेनापति होता था और दूसरा, स्थानपति नामक अधिकारी राजदरबार में नायक के एजेन्ट के रूप में कार्य करता था।
विजयनगर काल में नायंकार व्यवस्था का सर्वाधिक प्रचलन तमिलनाडु में देखने को मिलता है, जहाँ विजयनगर साम्राज्य के सम्पूर्ण तमिल प्रदेश को अनेक अमरम् प्रदेशों में विभाजित करके उन्हें नायकों को प्रदान किया गया। अतः नायंकर प्रान्तों की सबसे अधिक संख्या तमिलनाडु में विद्यमान थी। यह नायक वस्तुतः अमरम् प्रदेशों के आनुवंशिक सैनिक गवर्नर होते थे। नायंकार व्यवस्था की कुछ इतिहासकारों ने सामन्तवाद के साथ तुलना की है, जो उचित नहीं है। शक्तिशाली शासकों के शासनकाल में यह नायंकार व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रही परन्तु परवर्ती विजयनगर युग में जब नायकों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित करने का प्रयास किया तो नायकों को नियंत्रित करने के लिए विशेष आयुक्तों को नियुक्त किया गया। रक्षसी-तंगड़ी के युद्ध के उपरान्त अधिकांश नायकों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी और सुदूर दक्षिण में अपने छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना की।

स्थानीय शासन-व्यवस्था-

राज्य या प्रान्त को छोटे प्रशासकीय खण्डों और उपखण्डों में विभाजित किया जाता था। परन्तु अभिलेखों से इन प्रशासकीय खण्डो या उपखण्डों का अन्तर समझने में सहायता प्राप्त नहीं होती है। क्योकि उनमें इनके नामों का क्रमबद्ध रुप से उल्लेख नही किया गया है। सामान्यतः तमिल प्रदेश में प्रान्त को जनपदों में विभाजित किया गया जिन्हें कोट्टम या कुर्रम के नाम से जाना जाता था। कोट्टम को तालुको में विभाजित किया गया, जिन्हे नाडु के नाम से सम्बोधित किया जाता था। नाडु को ऐयम्बदु अर्थात् पचास ग्रामों के समूह के रूप में गठित किया जाता था। ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थे। कर्नाटक में प्रान्त के प्रशासकीय खण्डों और उप-खण्डों के नाम तमिल प्रदेशों से भिन्न थे। यहाँ प्रान्त को वेथों में, वेथों को सीमों में, सीमों को स्थलों में और स्थलों को वलितों में विभाजित किया था।

ग्रामसभाएँ- 

विजयनगर युग में ग्रामसभा की शक्ति और स्वायत्तता पर्यापत रुप से क्षीण हो गई। हमें इस काल में ग्रामसभाओं के उल्लेख तो प्राप्त होते है. पर उनमें चोल युगीन स्वायत्तता और जीवन्तता का अभाव था । ब्राह्मणों के भू-अनुदान के रूप में प्रदत्त ग्रामों को जिसे ब्रह्मदेय की सभाओं को चतुर्वेदिमंगलम् अविहित किया जाता था। कभी कमी सभा को महासभा या महाजन भी अविहित किया जाता था। उदाहरणार्थ कावेरीपक्कम की सभा को महासभा और आगरमपुत्तूर की ग्रामसभा को महाजन नाम से उल्लिखित किया गया है। ग्रामसभाएँ विशाल संस्थाएँ होती थीं और ग्रामसभा सदस्यों से उच्च योग्यता की अपेक्षा की जाती थी। जैसे कि उन्होंने चारों वेदों का अध्ययन किया हो, यज्ञों के निष्पादन करने की अच्छी योग्यता हो और कठिन परिश्रम करने के लिए सक्षम हों। ये सभाएँ अपने कार्यों के लिए मन्दिरों और उपवनों जैसे स्थानों में अपनी बैठकें करती थीं।
सभाओं को ग्राम की जोर से जमीनें प्रदान की जाती थी। उन्हें ग्राम में जमीनों को खरीदने और बेचने का भी अधिकार प्राप्त था अर्थात् ग्राम की भूमि पर भू-स्वामित्व ग्रामसभाओं को प्राप्त था, न कि व्यक्तिगत रूप से ग्रामीणों को। प्रत्येक ग्रामसभा अपने-अपने अधिकारों के प्रति इतनी सतर्क थी कि वे बाहरी लोगों को ग्राम में जमीनें खरीदने की अनुमति नहीं देतीं थीं।
ये सभाएँ केन्द्रीय शासन की ओर से कर वसूल करने का कार्य भी करती थीं। जो भू-स्वामी अपने देय करों का भुगतान नहीं कर पाते थे, उनकी जमीनों को ग्रामसभा द्वारा अधिग्रहीत कर लिया जाता था। इन स्थानीय सभाओं को नए करों के करारोपण और पुराने करों को माफ करने का भी अधिकार प्राप्त था। परन्तु सभाएँ केवल स्थानीय करों का ही करारोपण तथा कर मुक्ति प्रदान कर सकती थी, केन्द्र द्वारा आरोपित करों को नही। इस प्रकार राजस्व विषयक नीतियों पर ग्रामसभाओं का अत्यधिक प्रभाव रहता था। समाओं को न्यायिक अधिकार भी प्राप्त थे। सभाएँ अपराधियों की जमीनों को जब्त करके, उन्हें मन्दिरों को प्रदान कर सकती थीं। ग्रामसभाएँ मन्दिरों की भी व्यवस्था करती थीं।
सभाएँ न्यासों एवं दान कार्यों की भी व्यवस्था करती थीं। जो लोग वेदज्ञों और संन्यासियों के भोजनादि की व्यवस्था के लिए अपनी सम्पत्ति का दान करना चाहते थे, वे तत्सम्बन्धी व्यवस्था के लिए ग्रामसभाओं के पास अपनी सम्पत्ति छोड देते थे। गैर-ब्रह्मदेय ग्राम की सभा उर कहलाती थी। यद्यपि विजयनगर-कालीन अभिलेखों में सभा का अनेक बार उल्लेख किया गया है, पर उर से सम्बन्धित संदर्भ बहुत थोड़े ही प्राप्त होते हैं। उर के कार्य सभाओं की भाँति ही होते थे।

नाडु- 

 बड़े-बड़े प्रादेशिक या क्षेत्रीय मण्डलों को नाडु कहा जाता था। नाडु के सदस्यों को नत्तवार कहा जाता था। इस काल के अभिलेखों में भूमि के विक्रय और मन्दिरों को सर्वमान्य अनुदान प्रदान करने के संदर्भ में नाडु सभाओं का उल्लेख प्राप्त होता है। स्थानीय संस्थाएँ राज्य के नियंत्रणाधीन थीं।
आयंगार व्यवस्था-
विजयनगर काल में ग्रामीण प्रशासन की अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता आयगार व्यवस्था थी। इस व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक ग्राम एक स्वतंत्र प्रशासकीय इकाईयॉं और ग्राम प्रशासन के कार्यों को 12 कर्मचारियों द्वारा संचालित किया जाता था, जिन्हें सम्मिलित या संयुक्त रूप से आयंगार कहा जाता था। इन ग्रामीण कर्मचारियों को राज्य द्वारा नियुक्त किया जाता था, परन्तु एक बार नियुक्त हो जाने के उपरान्त आयंगारों का अपने पदों पर आनुवांशिक अधिकार हो जाता था। जब कभी किसी पद के सम्बन्ध में कोई विवाद उठ खड़ा होता था तो शासन बड़ी सावधानीपूर्वक यह पता करता था कि परम्परा एवं रीति-रिवाजों के अनुसार उक्त पद का सही उत्तराधिकारी कौन है। आयंगार अपने पद का विक्रय कर सकते थे या उसे बन्धक भी रख सकते थे। उन्हें अपनी सेवाओं के बदले कर-मुक्त या मान्यम् भूमि प्रदान की जाती थी, जिसका वे अपनी सेवाओं के बदले में अनन्त काल तक उपभोग कर सकते थे। अपने क्षेत्राधिकार में शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना उनका दायित्व होता था। इन आयंगारों की बिना जानकारी के सम्पत्ति का हस्तांतरण और भूमि अनुदान नहीं किया जा सकता था। इन 12 आयंगार ग्रामीण कर्मचारियों में कणिकम् ग्राम का एकाउन्टेंट या प्रधान-लिपिक होता था, जो जमीन के क्रय-विक्रय सम्बन्धी दस्तावेजों को तैयार करता था। तलारी ग्राम का पुलिसकर्मी या चौकीदार होता था।

मन्दिर-

विजयनगर युग में मन्दिरों को अर्द्ध-राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे। मन्दिरों को अनुदान के रूप में सर्वमान्य जमीनें प्रदान की जाती थीं। कभी-कभी मन्दिर अपनी व्यवस्था के लिए स्थानीय कर भी वसूल करते थे। कृष्णदेव राय ने चोल-मण्डलम् में शिव और विष्णु के मन्दिरों को 10,000 वराह दान में प्रदान किए और इन मन्दिरों को इतनी ही धनराशि कर के रूप में वसूल करने की अनुमति प्रदान की गई। मन्दिर विशाल भू-स्वामी होते थे और उन्हें भूमि के क्रय-विक्रय का अधिकार प्राप्त था।
मन्दिर आपदाग्रस्त लोगों को ऋण प्रदान करते थे और इस प्रकार बैंकों के रूप में काम करते थे। यदि ऋण लेने वाला व्यक्ति ऋण की अदायगी नहीं कर पाता था, तो वह मन्दिर को अपनी कुछ जमीनें बेच कर ऋण से मुक्ति पा लेता था। ऐसे भी दृष्टान्त हैं जब मन्दिरों के न्यासी फौजदारी प्रकरणों का फैसला भी करते थे। मन्दिर लघु उद्योगों को भी बढ़ावा देते थे। शिलालेखों में मन्दिरों के व्यवस्थापकों द्वारा बुनकरों को विशेष संरक्षण प्रदान करने के बारे में संदर्भ प्राप्त होते हैं। ग्रामसभाओं की भाँति मन्दिर भी विभिन्न लोगों, विशेषतः अपने उपासकों को, सम्मानित करते थे। मन्दिर अपने खर्चे से विशाल भू-खण्डों को कृषि योग्य बनाते थे। खेती के लिए जंगलों को साफ कराते थे और सिंचाई के लिए नहर और तालाब बनवाते एवं उद्यान लगवाते थे। मन्दिरों के साथ सम्बद्ध विद्यालयों की व्यवस्था भी थी जिनमें अध्ययन करने वाले छात्रों को निःशुल्क भोजन प्रदान किया जाता था। मन्दिर की सेवा कार्य के लिए संगीतकारों और नर्तकियों आदि की नियुक्ति की जाती थी।

विजयनगर साम्राज्य का सामाजिक जीवन-

विजयनगर साम्राज्य का सामाजिक इतिहास इस दृष्टि से महत्वपूर्ण था कि विजयनगर नरेशों ने प्राचीन परम्पराओं के आधार पर सामाजिक व्यवस्था के गठन का प्रयास किया। यह भारतीय इतिहास का अन्तिम साम्राज्य था जो वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित पारंपरिक सामाजिक संरचना को सुरक्षित और संवर्धित करना अपना कर्तव्य समझता था। समकालीन अभिलेखों और साहित्यिक साक्ष्यों से स्पष्ट है कि विजयनगर नरेश वर्णाश्रम धर्म से सुपरिचित थे। विजयनगर के शासकों ने सामाजिक सौहार्द्र और एकता बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास किये। गृहस्थिक कर्तव्यों का निर्वाह लोग परम्परागत नियमों के अनुसार करते थे। इस काल के अभिलेखों में उल्लेख है कि विभिन्न नरेश अपने माता-पिता के आध्यात्मिक कल्याण के लिए भूमि अनुदान करते थे और सामान्य लोग भी राजा के आदर्शो का अनुसरण करते थे। इस प्रकार विजयनगर कालीन समाज पूर्व मध्यकालीन सामाजिक व्यवस्था के आदर्शो पर संरचित था।

जातियाँ और वर्ग-

विजयनगर नरेश समस्त जातियों के हितों के उदार संरक्षक थे। समाज में ब्राह्मणों का अत्यन्त प्रमुख और प्रतिष्ठित स्थान था परन्तु उनका कार्य केवल अध्यापन एवं पुरोहित्य तक ही सीमित नहीं था। कुछ ब्राह्मण विद्वान होने के साथ-साथ मंत्री भी थे। बुक्का प्रथम और हरिहर के दो मंत्री माधव और सायण वेदों के प्रसिद्ध टीकाकार थे। ब्राह्मण मन्दिरों के पुरोहित, विशाल भू-क्षेत्रों के स्वामी, व्यापारी, उच्च अधिकारी, सेनानायक आदि होते थे। उन्हें उदारतापूर्वक भूमि अनुदान भी प्रदान की जाती थी। ब्राह्मणों को अनेक विशेषाधिकार प्राप्त थे, जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषाधिकार यह था कि उन्हें मृत्युदण्ड नहीं दिया जा सकता था। वॉन लिंसातन का ने लिखा है कि – “ब्राह्मण बहुत ईमानदार और भारतीय लोगों में सर्वाधिक सम्मानित लोग होते थे क्योंकि राजा उन्हे सर्वोच्च पद पर नियुक्त करता था और उनकी परामर्श के कोइ्र्र निर्णय नही लेता था। प्रत्येक राजा का एक ब्राह्मण राजगुरू होता था जो राजा के साथ सैनिक अभियानों में जाता था। विजयनगर काल में क्षत्रियों का कही कोई उल्लेख नही मिलता है। विजयनगर काल में क्षत्रिय वर्ग के विद्यमान न होने के कारण वाणिज्यिक और कृषि का वर्ग समृद्ध रुप से दिखाई पडता है। मध्यम वर्गो जिनमें व्यापारिक वर्ग शामिल थे, ने क्षत्रियों को पृष्ठभूमि में डाल दिया था। मध्यम वर्गो में शेट्टी नामक एक बहुत बडा समूह था। इनके समतुल्य व्यापार करने वाले तथा दस्तकार वर्ग के लोगों को ‘वीर-पांचाल‘ कहा जाता था।
परवर्ती विजयनगर युग के सामाजिक इतिहास की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता विभिन्न समुदायों के लोगों में सामाजिक चेतना का उदय था। प्रत्येक समुदाय ने सामाजिक एकता के विकास के लिए प्रयास किये। इस काल में बुनकर एक प्रमुख समुदाय था जिसे कैकोल्लार कहा गया है, जो मन्दिरों की सीमाओं के आस-पास रहते थे। मन्दिरों की व्यवस्था और स्थानीय करों के आरोपण में उनकी विशेष भूमिका होती थी। वे छोटे स्तर पर अपने उद्योगों का संचालन करते थे। कम्बलत्तर जो मूलतः गडेरिये थे, उनमें बहु-पति प्रथा और यौवनागमन के बाद विवाह का प्रचलन था। उनमें वर की आयु वधू से कम होती थी। उनमें तलाक, पुनर्विवाह और सती प्रथा का भी प्रचलन था। रेड्डियों ने देश की भौतिक समृद्धि के प्रति महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया था। विजयनगर साम्राज्य के तेलुगू प्रान्तों में इनका पर्याप्त प्रभाव था। देवराय द्वितीय के शासनकाल से इनका प्रभाव बढा। इसी प्रकार सदाशिव राय के शासनकाल में नाइयों को राज्य की ओर से प्रतिष्ठाजनक स्थिती प्राप्त हुई। अनेक ऐसे भी लोग थे जिनका सामाजिक क्षेत्र में कोई भी प्रभाव नही था।
इस काल में आर्थिक विकास और सामान्य समृद्धि के परिणामस्वरूप आर्थिक दृष्टि से समृद्ध कुछ निचली जातियों ने ऊँची जातियों के विशेषाधिकारों को हस्तगत करने का प्रयास किया। जिन निचली जातियों को उच्च जातियों के विशेषाधिकार प्रदान कर दिए गए, वे सत्-शूद्र या अच्छे शूद्र कहलाए गए और उन्हें बिना प्रस्तावित संस्कार कर्म के यज्ञोपवीत धारण करने तक की अनुमति प्रदान कर दी गई। इसी प्रकार का संघर्ष, वेलंगै अर्थात दक्षिण-वर्गीय और इडंगै अर्थात वाम-वर्गीय नामक दो औद्यौगिक वर्गो के बीच हुआ। विजयनगर युगीन अभिलेखों में इन दो औद्यौगिक वर्गों के बीच संघर्ष और राज्य द्वारा उनके बीच संघर्ष में हस्तक्षेप करने का उल्लेख प्राप्त होता है। विजयनगर नरेशों ने इन सामाजिक विवादों में बड़े न्यायपूर्ण ढंग से मध्यस्थता की। इस काल में कुछ साम्प्रदायिक तनावों, विशेषतः जैन एवं वैष्णव संपदायों के मध्य, का भी उदय हुआ। इस प्रकार के साम्प्रदायिक तनावों की स्थिति में विजयनगर नरेशों ने स्वयं वैष्णवधर्मानुयायी होते हुए भी वैष्णवों का पक्ष नहीं लिया और स्थानीय अधिकारियों को आदेश दिया कि साम्प्रदायिक तनावों को तत्काल दूर करने का प्रयास करें। विजयनगर काल में व्यापक सामाजिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप निचली जातियों की सामाजिक गतिशीलता का विकास हुआ, जिसके परिणामस्वरूप एक सामाजिक जागृति का उदय हुआ।

स्त्रियों की स्थिति-

विजयनगर-युगीन समाज में स्त्रियों की बड़ी सम्मानजनक स्थिति धी। कुछ स्त्रियाँ महान विदुषियों और प्रसिद्ध साहित्यकार थीं। इस काल में एक-विवाह प्रथा का सामान्यतः प्रचलन था, पर राजाओं और शासक वर्ग द्वारा बहुपत्नीत्व प्रथा का व्यापक रूप से अनुसरण किया जाता था। कन्यादान को आदर्श विवाह माना जाता था। समाज में पर्दा प्रथा प्रचलित थी। मन्दिरों में देवपूजा के लिए रहने वाली स्त्रियों को देवदासी कहा जाता था। इन्हे जीविका के लिए भूमि दे दी जाती थी अथवा नियमित वेतन दिया जाता था। ब्राह्मणों में बालविवाह का बहुत प्रचलन था। राज्य द्वारा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया जाता था और जिन विवाहों में वधू विधवा होती थी, उन पर विवाह कर आरोपित नहीं किया जाता था। शासक वर्ग एवं उच्च जातियों की स्त्रियों को भली-भाँति सुशिक्षित किया जाता था। संगीत और नृत्य की शिक्षा उनके पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण अंग होती थी। स्त्रियाँ मल्लयोद्धा, ज्योतिषा, भविष्यवक्ता, अंग-रक्षिकाएँ, सुरक्षाकर्मी, लेखाधिकारी, लिपिक, संगीतकार होती थीं और यहाँ तक कि युद्ध-क्षेत्र में भी जाती थी। संपूर्ण भारतीय इतिहास में विजयनगर साम्राज्य केवल एकमात्र साम्राज्य था, जिसने विशाल संख्या में स्त्रियों को विभिन्न राजकीय पदों पर नियुक्त किया। महिला अंगरक्षकाएँ राजा के प्रति बहुत निष्ठावान रहती थीं।
मौर्य-काल की भाँति विजयनगर युग में भी गणिकाओं की बड़ी प्रतिष्टित स्थिति थी। गणिकाएँ दो प्रकार की होती थीं- एक तो वे जो मन्दिरों के साथ जुड़ी हुई थीं और दूसरी वे थीं जो स्वतंत्र रूप से आजीविका अर्जित करती थीं। वे विभिन्न जातियों से सम्बन्धित होती थीं और किसी भी जाति या समुदाय की स्त्रियाँ गणिकाओं के वर्ग में शामिल हो सकती थीं। गणिकाएँ सुशिक्षित और सुसंस्कृत होती थीं तथा उन्हें समाज में हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता था। अधिकांश गणिकाएँ बडी धनाढ्य थीं और उन्हें राज्य की ओर से कुछ विशेषाधिकार भी प्राप्त थे।

सती या सहगमन- 

विजयनगर साम्राज्य में सती प्रथा को सहगमन अर्थात मृत पति के साथ महाप्रयाण कहा जाता था। विजयनगर साम्राज्य में सती या सहगमन के प्रचलन की समकालीन अभिलेखों और विदेशी यात्रियों के यात्रा वृत्तान्तों से पुष्टि होती है। इस क्रूर सामाजिक कुप्रथा का विदेशी यात्रियों ने व्यापक एवं सजीव रूप से वर्णन किया है परन्तु यह कुप्रथा केवल शासक वर्ग की स्त्रियों तक ही सीमित थी। अभिलेखों के अनुसार गौडा और नायक परिवारों की स्त्रियाँ भी पति की मृत्यु पर सहगमन का अनुसरण करती थीं परन्तु सती प्रथा स्वैच्छिक होता थी। बार्बोसा, नूनिज, सीज़र फ्रेडरिक, और अन्य विदेशी यात्रियों ने इस कुप्रथा का आँखों-देखा वर्णन किया है। लिंगायत संप्रदाय की विधवाओं को जीवित दफना दिया जाता था। सती या सहगमन करने वाली स्त्रियों की स्मृति में सती स्मारक सतीकल या महासतीकल अथवा महासतीगल्लु स्थापित किए जाते थे। इस प्रकार के हजारों सती स्मारक पूरे दक्षिण भारत में बिखरे पडे है। सती न होने वाली स्त्रियों को सर मुडाकर दण्डित किया जाता था। 1354 ई0 में विजयनगर के एक अभिलेख मालागौडा नामक महिला का अपने पति के मृत्यु के बाद सती या सहगमन करके स्वर्गारोहण का उल्लेख है।

दास प्रथा –

विजयनगर साम्राज्य में दास प्रथा का प्रचलन भी था और बेसवग अर्थात मनुष्यों का क्रय-विक्रय उस युग में अज्ञात नही था। विजयनगर कालीन अभिलेखों और विदेशी यात्रियों के वृतान्तों में स्त्री और पुरूष दासों के स्पष्ट संदर्भ प्राप्त होते है। दासों को कुछ विशेष नियमों के अन्तर्गत ही रखा जाता था और उनके साथ दुर्व्यवहार नही किया जाता था। निकोलो काण्टी ने लिखा है कि – विजयनगर साम्राज्य में विशाल संख्या में दास थे। जो कर्जदार अपना ऋण अदा नही कर पाते थे उन्हे सर्वत्र ऋणदाता द्वारा अपनी सम्पति अर्थात दास बना लिया जाता है।
इस प्रकार इन सम्पूर्ण विवेचनों से यह स्पष्ट है कि विजयनगर साम्राज्य के शासकों ने प्रशासन को बेहतर तरीके से संचालित करने की विधिसम्मत व्यवस्था की थी। विजयनगर साम्राज्य का समाज संतुलित और विकासोन्मुखी था और सबसे बडी बात यह थी कि धार्मिक सहिष्णुता का पालन समाज के हर वर्ग के लोग करते थे।



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