Introduction (विषय-प्रवेश):
इस्लाम में सूफीमत का विकास किसी धर्म में होने वाले रहस्यवादी आन्दोलन की सफलता तथा लोकप्रियता का महत्वपूर्ण एवं दिलचस्प इतिहास है। वस्तुतः सूफी वही कहलाता है जो तसव्वुफ का अनुयायी हो और सारे धर्मो से प्रेम करता हो। दसवीं शताब्दी के आसपास परम्परागत रुढिवादी प्रवृतियों पर अंकुश लगाने के लिए इस्लाम तथा हिन्दू धर्म में दो महत्वपूर्ण रहस्यवादी आन्दोलनों – सूफी एवं भक्ति आन्दोलन का उदय हुआ। इन आन्दोलनों ने व्यापक आध्यात्मिकता एवं अद्वैतवाद पर बल दिया, साथ ही निरर्थक कर्मकाण्ड
, आडम्बर तथा कट्टरता के स्थान पर प्रेम, उदारता एवं गहन भक्ति का अपना आदर्श बनाया।
आरबेरी ने लिखा है कि सूफीवाद का उद्भव इस्लाम को प्राप्त होने वाली राजनीतिक सफलता का प्रत्यक्ष परिणाम है। तथ्यों का अवलोकन करने पर यह पता चलता है कि सूफीमत के विकास में ईरान का महत्वपूर्ण योगदान है। वास्तव में इस्लाम का जो पौधा ईरान में लगा था वही सूफीमत के रुप में विकसित एवं फलित हुआ। सूफीवाद मूलतः दार्शनिक व्यवस्था पर टिका था और इस दार्शनिक व्यवस्था के कारण ही सूफीवाद ने इस्लाम की कट्टरता को तिलांजली देकर रहस्यवाद की आंतरिक गहराई से समझौता कर लिया। सूफियों ने अपना रास्ता कुरान और सुन्नत के भीतर से ही निकाला है परन्तु उनके मार्ग व दिशा हमेशा शरीयत से मेल नही खाते। सूफीमत के इतिहास से हमें ज्ञात होता है कि इसके विकासकाल से ही एकांतवास और पवित्र जीवन की भावना का प्रवेश हुआ है। आरंभिक सूफी ईश्वर प्रेम में मग्न रहते थे। हिन्दू धर्म में अनेक धार्मिक आन्दोलन के सदृश्य ही इस्लाम धर्म में भी धार्मिक सुधार आन्दोलन हुये और इन आन्दोलनों ने मध्ययुग के पूर्वार्द्ध में धार्मिक सिद्धान्तों एवं मान्यताओं की दार्शनिक व्याख्या की। हिन्दू धर्म के समान ही मुस्लिम धर्म में भी मुल्ला, मौलवियों और उलेमाओं का सामाजिक व्यवस्था पर प्रभुत्व था जिसके प्रतिक्रियास्वरुप मुस्लिम सुधार आन्दोलन का आरंभ हुआ और भारत में सूफीवाद का सूत्रपात हुआ।
रहस्यवाद का उद्भव धर्म से हुआ है और सूफीवाद का उद्भव भी इस्लाम धर्म से ही हुआ था। प्रारंभ से ही इस्लाम धर्म के अनुयायियों में कुछ ऐसे लोग थे जो सांसारिक सुख सुविधाओं से घृणा करते थे और संयमित जीवन व्यतीत करने में विश्वास करते थे। अनेक निष्ठावान मतावलम्बी जो बाह्य जगत के वैभव एवं सम्पति को मिथ्या मानते थे, सांसारिक मोह माया को त्याग कर संयमी एवं संन्यासी जीवन व्यतीत करने एकान्त में चले गये। यही से इस्लाम में नियमित तसव्वुफ आन्दोलन का शुभारंभ हुआ। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य ईश्वर के प्रति प्रणय भावनाओं से अनुप्राणित पूर्ण निष्ठा, समर्पण और आत्मा का अनुशासन था।
मंसूर हल्लाज प्रथम साधक था जिसने अपने को ‘अनलहक‘ घोषित किया और प्राण न्यौछावर कर दिये। प्रतिष्ठित संत ब्याजिद बुस्तामी का सूफी मत के इतिहास में महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका थी। व्याजिद बुस्तामी ने तसव्वुफ आन्दोलन को आध्यात्मिक आनन्द एवं अनन्त सत्ता के रहस्यवादी रुप दो सिद्धान्तों को देकर नयी दिशा दी थी। ब्याजिद का लगभग 875 ई0 के आसपास देहान्त हो गया और उनका सम्प्रदाय ताइफूरियन के नाम से प्रसिद्ध है। इस्लामी रहस्यवाद में ब्याजिद ने सर्वप्रथम ‘फना‘ शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ होता है – स्वयं के अस्तित्व का नष्ट कर देना। इसका व्यापक अर्थ है कि ईश्वर से तादात्म्य स्थापित हो जाने के बाद भौतिक शरीर का पूर्ण विनाश हो जाता है और उस स्थिती में व्यक्ति को अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है। इस अलौकिक आनन्द की स्थिती को ‘बका‘ शब्द से अभिव्यक्त किया जाता है। अल-गजाली ने सूफीमत को मुस्लिम जगत में सम्माननीय स्थान प्राप्त कराया और उसी के चिन्हों पर जलालुद्दीन रुमी और फरीदुद्दीन अल्तार ने सूफीमत को आरोपों और उलेमा के अत्याचारों से मुक्त किया। इब्नुलअरबी वह प्रथम व्यक्ति था जिसने सूफी जगत में महत्वपूर्ण ‘वहदत-उल-वुजूद‘‘ का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त का सारांश यह था कि भगवान सर्वव्यापी है और सबमें उसी की झलक है और उससे कुछ भी अलग नही है। सभी मनुष्य समान है।
सूफीयों द्वारा प्रतिपादित रहस्यवाद एवं प्रेम तत्व आदि की चर्चा करते हुए हम पाते है कि सूफीमत का इस्लाम से अनेक मुद्दों पर गहरा मतभेद है लेकिन दिलचस्प बात यह है कि प्रायः सभी सूफी मुसलमान थे और साथ ही वे अपने सिद्धान्तों की विवेचना करते समय इस्लाम को अपनी ऑखों से ओझल नही होने देते थे। सभी विरोधों और विरोधाभासों के होते हुए भी सूफीमत इस्लाम धर्म की ओर उन्मुख रहा है। इस्लाम ने भी सूफीमत को उदारता से स्वीकार किया है।
सूफी मत का आविर्भाव –
इस्लामी रहस्यवाद को ही सूफी धर्म के नाम से जाना जाता है। सूफी धर्म इस्लामी रहस्यवाद का ही एक रूप है। ’सूफी’ शब्द की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। कुछ विद्वान इसे ग्रीक शब्द ’सोफिया’ (ज्ञान) का रूपान्तर मानते हैं। कुछ विद्वानों ने ’सफा’ से सूफी की उत्पत्ति मानी है। इन विद्वानों का मानना है कि जो व्यक्ति पवित्र थे, वे ’सूफी’ कहलाये। कुछ विद्वानों के अनुसार मदीना में मुहम्मद साहब द्वारा बनवाई गई मस्जिद के बाहर सफ्फ अर्थात् चबूतरे पर जिन गृहहीन व्यक्तियों ने शरण ली थी तथा जो पवित्र जीवन बिताते हुए ईश्वर की आराधना में लगे रहते थे, वे ’सूफी’ कहलाये।
अयूनसर अल सिराज का कथन है कि, ’सूफी’ शब्द अरबी भाषा के ’सूफ’ शब्द से निकला है जिसका अर्थ है ऊन। मुहम्मद साहब के पश्चात् अरब देश में जो सन्त ऊनी कम्बल ओढ़कर घूमते थे तथा अपने मत का प्रचार करते थे, वे सूफी कहलाये। पाश्चात्य विद्वान् ब्राउन ने इस मत को स्वीकार करते हुए लिखा है कि ईरान में इन रहस्यवादी साधकों को ऊन पहनने वाला कहा जाता था। ईरान में ये सन्त ऊनी वस्त्र को जीवन की सादगी तथा विलासिता से दूर रहने का प्रतीक मानकर एकान्त जीवन व्यतीत करने पर बल देते थे।
डॉ. अवध बिहारी पाण्डेय के अनुसार, “सूफी उन मुसलमान सन्तों को कहते हैं जो दीनता का जीवन बिताने के उद्देश्य से ऊन के मामूली कपड़े पहनते हैं तथा जो कुरान में निहित रहस्य को विशेष महत्त्व देते हैं।“ गजाली के अनुसार, “सूफी होने का तात्पर्य यह है कि निरन्तर शान्ति से रहता हुआ मनुष्य ईश्वर की उपासना में लीन रहे।“
अतः स्पष्ट है कि सूफी सम्प्रदाय के सन्तों का जीवन बड़ा सरल, सादा तथा स्नेह से भरा हुआ था। ये सन्त सांसारिक भोग-विलास से दूर रहकर पवित्र तथा संयमी जीवन व्यतीत करते थे। ये सन्त पवित्र आचरण तथा उच्च आदर्शों के कारण बहुत लोकप्रिय थे।
डॉ. ताराचन्द के अनुसार सूफी मत स्रोत है जिसमें अनेक देश की नदियों का समावेश है। कुरान तथा पैगम्बर मुहम्मद का जीवन इसके मुख्य स्रोत हैं। ईसाई धर्म तथा नव अफलातून दर्शन के प्रभाव से इसका विकास हुआ। हिन्दू तथा बौद्ध सिद्धान्तों तथा नास्तिकों ने इसे अधिक प्रभावित किया। अतः हम निःसन्देह कह सकते हैं कि सूफी मत के आविर्भाव में इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, जैन, नास्तिक मत, वेदान्त तथा हिन्दू आदि धर्मों का योगदान है। परन्तु यह प्रभाव नकल के रूप में नहीं रहा बल्कि सूफी साधकों एवं चिन्तकों ने उन बाहरी विचारधाराओं को अपने ढंग से अपनाया तथा सूफी मत का विकास इस्लाम धर्म के अनुसार ही हुआ है।
सूफीवाद का उद्देश्य –
सूफीवाद का मुख्य उद्देश्य प्रेम और भक्ति के माध्यम से मानवता की सेवा करना माना जाता है परन्तु सूफी संत आन्तरिक क्रियाओं के बल पर खुदा और व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध स्थापित करने पर ज्यादा बल देते हैं। सूफी संत कुरान तथा शरीयत दोनों में विश्वास करते हैं परन्तु खलीफाई मान्यताओं को मान्यता नहीं देते है इसीलिए मध्यकाल के दौरान कई शासकों ने सूफी संतों के खिलाफ़ आदेश भी दिए। सामान्य रूप से सूफीवाद के दो प्रमुख सिद्धांत माने जाते हैं – एक मराफत का सिद्धांत और दूसरा फ़ना का सिद्धांत। ’मराफत का अर्थ अध्यात्म होता है जिसमें रहस्यमय ज्ञान को प्राप्त करने के लिए तर्क को त्याग देना ही उचित समझा जाता है। ’फ़ना का अर्थ स्वयं को पूरी तरह खुदा के अधीन कर देना होता है।
सूफीवाद का विकास –
प्रो0 निजामी के अनुसार इस्लाम धर्म और समाज को परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल बनाने के लिए सूफी आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ। उनका कहना है कि मंगोल नेता हलाकू द्वारा बगदाद पर आक्रमण के परिणामस्वरूप मुस्लिम सामाजिक जीवन का विनाश तथा नैतिकता का पतन होने लगा। ऐसी परिस्थितियों में सूफी धर्म का विकास मानव संस्कृति, मुस्लिम समाज, नैतिकता तथा आध्यात्मिक सिद्धान्तों की रक्षा करने के लिये हुआ। उस समय मुसलमानों की राजनैतिक शक्ति कमजोर हो चुकी थी, चारों ओर अव्यवस्था, अराजकता तथा आतंक का वातावरण था, ऐसी परिस्थिति में मुस्लिम समाज में नवजीवन का उदय करने के लिए सूफी सन्तों ने संगठित होकर प्रयास करने का निश्चय किया। सूफी सन्तों के विचार से उनका मत उतना ही प्राचीन है जितना इस्लाम धर्म। सूफी सन्तों के मतानुसार हजरत मुहम्मद ने ईश्वर से जो अलौकिक ज्ञान प्राप्त किया था, उसे दो रूपों में प्रकट किया। प्रथम रूप में तो उसे कुरान में संगृहीत किया तथा कुछ ऐसा ज्ञान जो जनसाधारण के लिये आवश्यक नहीं था तथा केवल ईश्वर के चुने हुए प्रतिनिधियों के ही योग्य समझा, उसे गुप्त रखा गया तथा उसे एक रहस्यमय ढंग से मुहम्मद साहब ने अपने चुनिन्दा शिष्यों को ही प्रदान किया।
सूफी मत के विकास को निम्नलिखित चार अवस्थाओं में वर्गीकृत किया गया है-
प्रथम चरण- प्रथमावस्था में फकीर के रूप में जीवन व्यतीत करने की प्रवृत्ति मुख्य थी। सूफी साधक सांसारिक भोग-विलास की वस्तुओं से अलग रहकर गरीबी में अपना जीवन व्यतीत करते थे। इस काल में सूफी मत का आधार व्यक्तिगत था। सूफी सन्त एकान्त में प्रायश्चित करते थे। उनमें प्रेम साधना की भावना का अभाव था।
इस काल के प्रमुख साधकों में इमाम हसन बसरी, इब्राहीम बिन आघम, अबू हाशिम तथा रबिया बसरी के नाम प्रमुख हैं। आठवीं शताब्दी की महिला रहस्यवादी रबिया और दसवी शताब्दी के मंसूर बिन हल्लाज प्रारंभिक सूफी सन्त माने जाते है। मंसूर ने स्वयं को ‘अनलहक‘ अर्थात मै ईश्वर हूॅ घोषित किया जिसके कारण उसे फॉसी दे दी गई। इस काल में रिजा तथा संतोष को प्रधानता देकर एकान्त जीवन व्यतीत करने हुए ईश्वर और व्यक्ति के बीच प्रेम सम्बन्धों पर विशेष बल दिया जाता था। आठवीं सदी के अन्तिम वर्षों में सूफी साधकों का मानसिक बल प्रबल हो गया तथा सभी सूफी साधकों ने परम सत्ता की सर्वव्यापकता तथा प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में परम सत्ता के दर्शन करने के सिद्धान्त को अधिक अपनाया। शेख अबू हाशिम सूफी मत के एक प्रमुख सन्त थे। उन्होंने आठवीं शताब्दी में मैसोपोटामिया में एक मठ की स्थापना की थी। इससे शीघ्र ही हजारों लोग शेख अबू हाशिम के अनुयायी बन गये। अतः आठवीं शताब्दी के अन्त तक के सूफी सन्तों ने एकान्तप्रियता, ईश्वरीय चिन्तन तथा ध्यानमग्न रहकर आनन्द उठाने पर बल दिया।
द्वितीय चरण- द्वितीय अवस्था में रहस्यवादी प्रवृत्तियों के उदय तथा उत्तरोत्तर विकास में सैद्धान्तिक तथा दार्शनिक चिन्तन की प्रधानता रही है। हसन बसरी के अनुसार संसार अपने आप में एक नीरस वस्तु तथा नकारात्मक है परन्तु जब इसमें आध्यात्मिक भावनाएँ क्रियाशील हो जाती हैं तब इसका स्वरूप परिवर्तित हो जाता है। सभी कष्ट आनन्द में बदल जाते हैं। हृदय तथा मस्तिष्क का उस समय सुन्दर संयोग दृष्टिगोचर होता है। इस अवस्था में सूफी साधकों ने परम सत्ता को प्रियतम के रूप में मानना प्रारम्भ किया। उसके प्रेम को प्राप्त करना ही सूफी साधकों के लिये अभीष्ट था। उसके सम्पूर्ण धार्मिक कार्यों का उद्देश्य प्रियतम को प्राप्त करना था। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सूफी साधकों को विश्वास था कि इस अवस्था में ईश्वर की कृपा से सब कुछ प्राप्त करना संभव है। पहले जो परमात्मा मानव की पहुंच से बाहर था, अब वह ’अल हक्क’ से प्रकट होने लगा। इस काल के साधक प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में परम सत्ता को देखने लगे और अपने अहं को खोकर बेखुदी की हालत में अपने परम सत्ता से साक्षात्कार करने लगे।
तृतीय चरण- सूफीवाद के विकास का उदय 12वीं तथा 13वीं शताब्दी की देन है। उस समय मुस्लिम समाज अराजकता, अव्यवस्था तथा नैतिक पतन का सामना करने लगा तब उसमें नवीन जीवन प्रदान करने के लिये सूफी सन्तों ने संगठित होने का निश्चय किया। सूफी साधकों की प्रसिद्धि से आकर्षित होकर लोग उनके शिष्य बनकर संगठित होने लगे। इस प्रकार साधकों तथा सन्तों ने अपनी-अपनी शिष्य परम्परा आरम्भ की। प्रारम्भिक काल में प्रमुखतः दो सम्प्रदाय थे- इलहामिया और इत्तिहादिया। इस काल में निम्नलिखित 6 बातों पर विशेष जोर दिया जाता था-
कुरान में पूर्ण आस्था रखना।
1- हजरत मुहम्मद के जीवन को आदर्श बनाना।
2- धर्मसम्मत भोजन ग्रहण करना।
3- हराम की वस्तुओं का त्याग करना।
4- दूसरों द्वारा कष्ट पहुँचाने पर कष्ट का अनुभव न करना।
5- नियम का निष्ठापूर्वक पालन करना।
अल गज्जाली ने, जिसे परम्परावादी तत्व और सूफी दोनों समान रुप से देखते थे, रहस्यवाद और इस्लामी परम्परा के बीच मेल कराने का प्रयत्न किया। गज्जाली सूफी मत का प्रकाण्ड विद्वान् था। उसने इस्लाम धर्म का गहन अध्ययन कर अनेक ग्रन्थों की रचना की तथा इस्लाम के सिद्धान्तों का विवेचन कर सूफी मत के सिद्धान्तों से उनका सुन्दर सामंजस्य स्थापित किया। इसके अतिरिक्त उमर खय्याम, तनाई, निजामी, फरीदुद्दीन अत्तार, जलालुद्दीन रूमी, शेख सादी आदि कवियों ने सूफी मत के प्रचार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस समय सूफी साहित्य में प्रेम और विरह की प्रधानता हो गई।
चतुर्थ चरण- इस युग में सूफी सन्तों का पतन होने लगा। इस अवस्था में सूफी सन्त अपने आदर्शों को भूल गये। सूफियों का सम्मान नवाबों तथा बादशाहों के दरबार में बढ़ गया। इन सब बातों के होते हुए भी कालक्रम से सूफी मत की शक्ति क्षीण होती गई। सूफी अनुयायियों में अनैतिकता की वृद्धि होने लगी जो कि उनके पतन का कारण बनी।
सूफीवाद की मुख्य विशेषताएंः
- सूफीवाद व्युत्पन्न इस्लाम से प्रेरणा प्राप्त करता है। जबकि रूढ़िवादी मुस्लिम बाहरी आचरण और धार्मिक अनुष्ठानों के अंधे पालन पर निर्भर करते हैं, सूफी संत अपनी पवित्रता चाहते हैं।
- सूफी संतों के अनुसार, भगवान प्रेमी (’माशूक’) के प्रिय हैं, यानी भक्त अपने प्रिय (भगवान) से मिलने के लिए उत्सुक हैं।
- सूफ़ियों का मानना है कि प्रेम और भक्ति ही ईश्वर तक पहुँचने का एकमात्र साधन है।
- पैगंबर मुहम्मद के साथ, वे अपने ’मुर्शिद’ या ’पीर’ (गुरु) को भी बहुत महत्व देते हैं।
- भक्ति उपवास (रोज़ा) या प्रार्थना (नमाज़) से अधिक महत्वपूर्ण है
- सूफीवाद जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं करता।
- सूफीवाद सरल जीवन जीने पर जोर देता है।
- सूफी संतों ने अरबी, फारसी और उर्दू आदि में प्रचार किया।
भारत में सूफीवाद का विकास –
भिन्न-भिन्न देशों में विकसित होता हुआ सूफीमत भारत में प्रवेश करता है। ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास सूफी सम्प्रदाय 12 सिलसिलों में विभाजित हो गया था। प्रत्येक सिलसिला का एक नेता होता था जो शिष्यों के साथ खानकाह अर्थात आंगन में रहता था। सूफी विचारधारा में गुरु अर्थात पीर और शिष्य अर्थात मुरीद के बीच सम्बन्ध का महत्व था। प्रत्येक पीर अपना एक उत्तराधिकारी अर्थात वलि नियुक्त करता था। सूफी सिलसिला दो वर्गो में विभाजित है – बा-शरा तथा बे-शरा। जो सूफी इस्लामी विधान से बॅधे है अर्थात घुमक्कड सूफी सन्त बा-शरा कहलाते है जबकि जो शरा से बॅंधे नही है वे बे-शरा कहलाते है। बा-शरा सिलसिलों में केवल दो ही उत्तर भारत में अधिक प्रचलित हुए- चिश्ती और सुहारावर्दी। भारत में सूफी आन्दोलन का प्रारंभ दिल्ली सल्तनत की स्थापना से पूर्व ही हो चुका था। अबुल फजल ने दस अवस्थाओं से गुजरना पडता था। ये दस अवस्थाएॅ निम्नलिखित है –
१- तौबा अर्थात पश्चाताप
२- बजा अर्थात संयम
३- तबाकुल अर्थात प्रतिज्ञा
४- जुहद अर्थात भक्ति
५- फग्र अर्थात निर्धनता
६- सब्र अर्थात संतोष
७- रिजा अर्थात आत्मसमर्पण
८- शुक्र अर्थात आभार
९- खौफ अर्थात डर
१०- रजा अर्थात उम्मीद
भारत में प्रचलित सूफी सम्प्रदाय या सिलसिला –
सूफीवाद के अन्तर्गत बहुत सी शाखाएं हैं जिन्हें सिलसिला के नाम से जाना जाता है। भारत में सबसे पुराना सिलसिला, चिश्ती सिलसिला को माना जाता है तथा इसे अत्यंत उदारवादी सिलसिला भी कहा जाता है। सभी सूफी सिलसिलों में नक्शबंदी सिलसिला को सबसे कट्टरपंथी सिलसिला माना जाता है क्योंकि नक्शबंदी सिलसिला के अनुयायी संगीत तथा गाने-बजाने के विरोधी माने जाते हैं। भारत में सूफियों का आगमन महमूद गजनवी के आगमन के साथ माना जाता है क्योंकि भारत में सबसे पहले आने वाले सूफी संत शेख इस्माइल थे जिन्होंने लाहौर को अपना स्थान बनाया था। सूफीवाद को मूल भारत में लाने का श्रेय 12वीं शताब्दी में मुहम्मद गौरी के साथ आने वाले ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती को दिया जाता है। संक्षेप में, भारत में प्रचलित कुछ प्रमुख सूफी सिलसिलों का विवरण निम्नलिखित है –
चिश्ती सिलसिला –
चिश्ती सिलसिले की स्थापना भारत में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ने की थी, जो 1192 ई0 में मुहम्मद गोरी के साथ भारत आये थे। शुरू में वह लाहौर में रहे। फिर वह दिल्ली चले गए और अंत में अजमेर आकर बस गए। ख्वाज़ा मुईनुद्दीन चिश्ती का जन्म ईरान के सीस्तान में हुआ था। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती को ख्वाजा हास्न उस्मान का शिष्य माना जाता है और उन्हीं के आदेश पर ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, मुहम्मद गौरी के साथ 1192 ई0 में भारत आए थे। भारत आकर ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने अपना निवास स्थान राजस्थान के अजमेर में बनाया और वही से आरत में चिश्तिया सम्प्रदाय की नींव डाली थी। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के दो परम शिष्य, शेख हमीद-उद-दीन नागौरी और कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी थे। 1236 ई0 में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की मृत्यु राजस्थान के अजमेर में हुई थी। उनके पवित्र और सरल जीवन के कारण, विभिन्न धर्मों के लोगों ने उन्हें अपने आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के निचले वर्गों के साथ स्वतंत्र रूप से मिलाया। वे भक्ति संगीत सभाओं का आयोजन करते थे। त्याग, ध्यान और निस्वार्थ सेवा के उनके गुणों के कारण, भारत के विभिन्न हिस्सों से लोग अजमेर में उनके स्थान पर आए। अजमेर (अजमेर शरीफ) में उनकी ’दरगाह’ (मकबरा) मुसलमानों के साथ-साथ हिंदुओं के लिए भी एक तीर्थ स्थान बन गई है।
शेख मुइनुद्दीन चिश्ती के शिष्य थे कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी जिनकी याद में कुतुबुद्दीन ऐवक ने कुतुबमीनार का निर्माण कार्य प्रारंभ करवाया था। इनका जन्म आधुनिक उज्बेकिस्तान के फरगना में हुआ था। सुल्तान इल्तुतमिश के विशेष प्रार्थना करने पर ख्वाज़ा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी ने दिल्ली को अपना निवास स्थान बनाया था। ख्वाज़ा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के प्रमुख शिष्य शेख फरीद और शेख बदरुद्दीन गजनवी थे। 1236 ई0 में ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की मृत्यु दिल्ली में हुई थी।
शेख हमीद-उद-दीन नागौरी, ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के परम शिष्यों में से एक थे। इन्होने अपना निवास स्थान राजस्थान के नागौर में बनाया था। शेख़ हमीद-उद-दीन नागौरी को सुल्तान तारीकीन अर्थात सन्यासियों का सुल्तान भी कहा जाता है।
कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के प्रमुख शिष्यों में बाबा फरीदुद्दीन गंज-ए-शकर का नाम महत्वपूर्ण है जो बाबा फरीद के नाम से प्रसिद्ध है। इनका जन्म 1175 ई0 में आधुनिक पाकिस्तान के मुल्तान में हुआ था। सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव श्री बाबा फरीद से बहुत प्रभावित थे इसी कारण गुरु अर्जुन देव ने गुरु ग्रन्थ साहिब या आदि ग्रन्थ में बाबा फरीद के कथनों को शामिल किया था। इनका दृष्टिकोण व्यापक और मानवीय था। बलबन बाबा फरीद को काफी सम्मान देता था। बाबा फरीद ने अपने अंतिम समय में दिल्ली के शासक बलबन की पुत्री हुसेश से निकाह कर लिया था। बाबा फरीद ने हॉसी और अजोधन को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। उनके हजारों भक्त पंजाब के फरीदकोट में उनकी समाधि पर जाते हैं। बाबा फरीद के कारण चिश्तियॉ सिलसिला को भारत में व्यापक लोकप्रियता प्राप्त हई। उन्होने भारतीय वातावरण से समझौता करते हुए खास तौर पर निम्न वर्गो दीन-दुखियों के लिए प्यार और उदारता के लिए खोल दिये। इस प्रकार तात्कालीन सामाजिक और धार्मिक जीवन को अपने व्यक्तित्व के बल पर प्रभावित करने वाले बाबा फरीद एक परम पवित्र तथा त्यागी साधक के प्रतीक रहे है। बाबा फरीद के दो प्रमुख शिष्य शेख निजामुद्दीन ऑलिया तथा हजरत अलाउद्दीन साबिर थे जिनमें से शेख निजामुद्दीन औलिया को बाबा फरीद ने अपना उत्तराधिकारी बनाया था।
शेख निजामुद्दीन औलिया का जन्म 1236 ई0 में उत्तर प्रदेश के बदायूॅं में हुआ था। शेख निजामुद्दीन औलिया को महबूब-ए-इलाही अर्थात खुदा का प्रेमी, सुल्तान-उल-औलिया अर्थात संतों का राजा आदि के नामों से भी जाना जाता था। चिश्तिया सम्प्रदाय में सबसे लोकप्रिय संत, शेख निजामुद्दीन औलिया को ही माना जाता है। चिश्तिया सम्प्रदाय का भारत में सबसे ज्यादा प्रचार-प्रसार शेख निजामुद्दीन औलिया के समय में ही हुआ था। निजामुद्दीन औलिया बाबा फरीद के शिष्य थे और इनके नेतृत्व में चिश्ती सिलसिले का भारत भर में विकास हुआ। निजामुद्दीन औलिया ने भी अपने उपदेशों से मानव हृदय को शान्ति प्रदान की क्योंकि इनके उपदेशों में मानव मात्र के लिए अनेक उपयोगी और कल्याणकारी तत्व विद्यमान थे। हिन्दू-मुसलमान की एकता एवं समाज सुधार में इनका विशेष योगदान था। आत्म निन्दा पर ध्यान न देना, अपराधी को क्षमा कर देना, साम्प्रदायिकता को तिलांजली देना इनके गुण थे। इनके बारे में यह मान्यता प्रचलित है कि इन्होने दिल्ली सल्तनत के सात सुल्तानों का काल देखा था। परन्तु वे कभी भी किसी के दरबार में नही गये और उनके बारे में प्रसिद्ध है कि मेरे घर के दो दरवाजे है, अगर सुल्तान एक से अन्दर आता है तो मैं दूसरे से बाहर चला जाता हूॅ। उन्होंने कुतुबुद्दीन मुबारक शाह के दरबार में उपस्थिति होने के आदेश को भी नहीं माना। निजामुद्दीन औलिया ने योग प्राणायाम पद्धति अपनाई तथा योगी सिद्ध कहलाए। 1325 ई0 में जब गयासुद्दीन तुगलक बंगाल अभियान से लौट रहा था तो उसने निजामुद्दीन औलिया को ही दिल्ली खाली करने को कहा था जिसके प्रत्युत्तर में औलिया ने ‘‘दिल्ली अभी दूर है‘‘ कहा था। निजामुद्दीन औलिया ने परमेश्वर की प्राप्ति के साधन के रूप में प्रेम पर बहुत जोर दिया। उन्होंने कहा, “हे मुसलमानों! मैं ईश्वर की कसम खाता हूं कि वह उन लोगों को प्रिय रखता है जो इंसानों की खातिर उससे प्यार करते हैं और उसके लिए भी जो इंसानों से प्यार करते हैं। यह प्यार करने और उसे प्यार करने का एकमात्र तरीका है। ” उन्होंने अपनी शिक्षाओं में भी हिंदी का प्रयोग किया। दिल्ली में निजामुद्दीन में उनका मकबरा मुसलमानों और हिंदुओं दोनों के लिए तीर्थस्थल बन गया है। शेख निजामुद्दीन ऑलिया के प्रमुख शिष्य अमीर खुसरो, शेख बुरहानुद्दीन गरीब, नासिरुद्दीन चिराग-ए-देहलवी आदि प्रमुख थे। शेख नसीरुद्दीन चिराग-ए-दिल्ली को चिश्ती सम्प्रदाय का सबसे चमत्कारी सन्त माना जाता है जिन्होने आध्यात्मिक मूल्य पर विशेष बल दिया।
एक अन्य सूफी सन्त ख्वाज़ा सैय्यद मुहम्मद गेसुदराज को बड़े बालों के कारण गेसूदराज के नाम से जाना जाता था। गेसूदराज ने अपना निवास स्थान कर्नाटक के गुलबर्गा में बनाया था। बहमनी शासक फिरोजशाह बहमन के विशेष अनुरोध पर गेसूदराज दक्षिण आरत में चिश्तिया सम्प्रदाय का प्रचार-प्रसार करने गए थे। गेसूदराज के द्वारा ही फारसी लिपि में उर्दू की पहली पुस्तक ‘मिरात उल आशिकी‘ की रचना की गई थी।
शेख सलीम चिश्ती निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे जिन्होने अपना निवास स्थान फतेहपुर सिकरी में बनाया। वे अकबर के समकालीन थे और इन्ही की कृपा से अकबर को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी जिसका नाम सलीम रखा गया जो बाद में जहॉगीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। शेख सलीम चिश्ती को शेख उल हिन्द के नाम से भी जाना जाता है। शेख सलीम चिश्ती ने 24 बार मक्का की यात्रा की थी। शेख सलीम चिश्ती को चिश्तिया सम्प्रदाय का अंतिम उल्लेखनीय संत माना जाता है क्योंकि इनके बाद चिश्तिया सम्प्रदाय भी कई आगों में विभाजित हो गया था।
दक्षिण भारत में चिश्ती सम्प्रदाय की शुरुआत 1340 ई0 में शेख बुरहानुद्दीन गरीब ने की थी जिन्होने दौलताबाद को अपना केन्द्र बनाया था। ये निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे। इसी तरह हाजी रुमी ने बीजापुर में खानकाह स्थापित की थी। शेख हुसैनी गेसूदराज के पहुॅचने के बाद चिश्ती सिलसिले को दक्षिण भारत में जो प्रोत्साहन तथा स्थायी महत्व मिला वह बेजोड है। यह उन्ही के प्रयत्नों का परिणाम था कि दक्षिण में सूफीमत को एक पूर्ण विकसित सिलसिले का रुप मिला। उन्ही के नेतृत्व में गुलबर्गा चिश्ती सिलसिले का प्रमुख केन्द्र बन गया।
चिश्ती सूफी संतों ने अपने प्रवचन में ईश्वर की निकटता का आभास कराने के लिए संगीत पद्धति अपनायी जिसे ‘समा‘ कहा जाता है। चिश्ती सन्तों के कुछ कार्य, हिन्दू धर्म की व्यवहारिक क्रियाओं के अनुरुप थे जैसे श्वास नियन्त्रण, एकनिष्ठ साधना एवं योगाभ्यास। चिश्ती सन्त सिर के बल खड़े होकर पैरों को छत से अथवा पेड़ की शाखा से बाँधकर, सर्वविदित ’शीर्षासन’ के अनुरुप योगाभ्यास करते थे। ये सन्त एकान्त कमरे में अथवा निर्जन स्थान पर कुछ अन्य योगिक क्रियायें भी करते थे। ये सन्त भाव-विभोर होकर पवित्र गीतों का गायन, अपने श्रोताओं को अलौकिक आनन्द की स्थिति तक पहुँचाने के उद्देश्य से करते थे। यद्यपि, उलेमाओं ने पवित्र गीतों के गायन का प्रारम्भ में विरोध किया, लेकिन बाद में उन्होंने भी इन गीतों की पुनीत भावनाओं को स्वीकार कर लिया और इनका सम्मान करने लगे। अन्य सिलसिलों की अपेक्षा चिश्ती सिलसिला भारत में काफी लोकप्रिय हुआ।
भारत में चिश्ती सम्प्रदाय की लोकप्रियता के कारण –
सूफी चिश्ती सन्तों ने अपने को जनसाधारण से जोड़ा और वे गरीबों, असहायों के सहायक बने। उन्होंने सांसारिक प्रलोभनों से अपने को बहुत दूर रखा और दिल्ली के सुल्तानों द्वारा प्रदान किये जाने वाले किसी भी पद, प्रलोभन को ठुकरा दिया। इस प्रकार वे दरिद्र के सबसे सच्चे हितैषी सिद्ध हुए। सूफी चिश्ती सन्त आडम्बर से कोसों दूर थे और उन्होंने स्वेच्छा से निर्धनता को अपनाया। वे घास-फूस की झोपडियों अथवा मिट्टी के मकानों में रहते थे। उनकी आवश्यकता बहुत सीमित थी और सादा जीवन उच्च विचार उनका आदर्श था। उनके इस आदर्श त्यागमय जीवन का जनता पर सीधा प्रभाव पड़ा। सूफी सन्तों का जीवन, सीधा, सादा और नियमित था। जिन बातों का वे उपदेश करते थे, उन पर स्वयं भी अमल करते थे। निश्चित रुप से ऐसे सन्तों के जीवन से जनता प्रेरणा लेती थी। सूफी सन्तों ने धार्मिक आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया। उन्होंने भाईचारे की भावना पर जोर दिया। इनकी धार्मिक उदारता से हिन्दू भी प्रभावित हुए।
डॉ0 निजामी के शब्दों में- चिश्तियों ने भारत में अपने सिलसिलों के विकास की प्रारम्भिक अवस्थाओं में हिन्दू प्रथाओं और रिवाजों को अपना लिया था। इस कारण हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ने चिश्ती सन्तों से प्रेरणा और दिशा निर्देशन प्राप्त किया।
ख्वाजा मुईनुउद्दीन चिश्ती के एक हिन्दू शिष्य रामदेव भी थे। चिश्ती सन्तों ने अपने मत का प्रचार करने के लिए जन साधारण की भाषा का प्रयोग किया और इस कारण इनके उपदेशों का आम जनता पर सीधा प्रभाव पड़ा। चिश्ती सन्तों ने अपने को इस्लाम की कट्टरता से दूर रखा। इस्लाम में संगीत का निषेध है, परन्तु सूफी सन्तों ने अपनी पूजा-अर्चना एवं प्रचार में संगीत का खुलकर प्रयोग किया। चिश्ती सन्त व्यवहारिकता पर विशेष बल देते थे और गृहस्थ जीवन में भी इन्होंने जनसाधारण को साधना का मार्ग दिखाने का प्रयास किया। ईश्वर प्राप्ति के लिए घर का त्याग आवश्यक नहीं है, इस बात का प्रचार करते हुए, इन सन्तों ने पलायनवादी दृष्टिकोण छोड़ने को कहा। जनता के बीच में रहते हुए, उसकी तकलीफों का अनुभव करते हुए इन्होंने जनकल्याण के लिए अपने प्रयास जारी रखे।
चिश्ती सन्त भक्ति में लीन रहते थे। शेख निजामुद्दीन औलिया के अनुसार ईश्वर भक्ति दो प्रकार की है- (1) लाजमी (2) मुताद्दी (प्रचारित)। प्रथम के अन्तर्गत खुदा की इबादत, उपवास, हज इत्यादि आते हैं और दूसरी के अन्तर्गत गरीब दीन दुखियों और असहाय लोगों की सहायता। दरिद्र नारायण की सेवा ही ईश्वर भक्ति का दूसरा रूप है। अपने इस दृष्टिकोण के कारण ही चिश्ती सन्त जनता में अत्यधिक लोकप्रिय हुए।
सुहारावर्दी सिलसिला –
भारत में प्रचलित दूसरा प्रतिष्ठित एवं विख्यात सूफी सम्प्रदाय सुहारावर्दी था जो चिश्ती सम्प्रदाय के साथ ही भारत आया। इस सिलसिले की स्थापना वैसे तो शेख शिहाबुद्दीन उमर सुहारावर्दी ने की लेकिन 1262 ई0 में भारत में इसके सुदृढ संचालन का श्रेय शेख बहाउद्दीन जकारिया को है। इस सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र सिन्ध और मुल्तान था। इस सिलसिले के अन्य प्रमुख सन्त थे – जलालुद्दीन तबरीजी, सैयद सुर्खपोश, बुरहान आदि। बाबा फखरुद्दीन ने पेनकोंडा के राजा और प्रजा दोनों को दीक्षित किया था। सुहरावर्दी सिलसिले के सन्तों का धार्मिक एवं राजनीतिक समस्याओं के प्रति चिश्ती सम्प्रदाय के सन्तों से बिल्कुल भिन्न दृष्टिकोण था। उनके पास बड़ी जागीरें थीं, इन्होने राज्य संरक्षण स्वीकार किया, भौतिक जीवन का पूर्ण परित्याग नही किया और राज्य सरकार से नकद राशि के रुप में अनुदान भी प्राप्त किया। शेख वहाउद्दीन जकारिया ने बहुत दौलत एकत्र की थी। सुहरावर्दी सन्त लम्बे उपवासों और भूखे रहकर शरीर शुद्धि में यकीन नहीं करते थे। सिन्ध, गुजरात, बीजापुर आदि में इस सिलसिले का प्रसार हुआ। इन्होंने धार्मिक एवं सामाजिक महत्व के विषयों में अत्यधिक दृढ़ दृष्टिकोण अपना लिया था। बरनी के अनुसार सैयद गजनवी ने सुल्तान इल्तुतमिश को हिन्दुओं के विरुद्ध भेदभाव, धार्मिक अत्याचारों एवं पीड़ाओं की नीति को कार्यान्वित करने का आग्रह किया था। सुहरावर्दी संघ में भी कुछ सन्तों का बहुत ही व्यापक, उदार, सहृदय व निष्पक्ष दृष्टिकोण था और हिन्दू समुदाय उनका बहुत सम्मान करता था। शेख सुबोध शीर्षक से संस्कृत भाषा में रचित कृति में सुहारावर्दी संघ के विशेष रुप से शेख तबरीजी के सम्बन्ध में प्रचलित लोक कथाओं को संकलित किया गया है। ये लोक कथायें हिन्दू समुदाय में बहुत लोकप्रिय थीं। इससे हिन्दुओं के शेख तबरीजी के प्रति निष्ठा एवं सम्मान का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
कादिरी सिलसिला –
तीसरा प्रमुख सूफी सिलसिला कादिरी था जिसका अभ्युदय तो अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा बहुत पहले हो चुका था लेकिन यह सम्प्रदाय बहुत बाद में लोकप्रिय हुआ। कादिरी सिलसिला के संस्थापक बगदाद के शेख महीउद्दीन कादिर जिलानी था। भारत में इस सिलसिले के प्रसार का श्रेय नियामत उल्ला और मखदूम जिलानी को जाता है। सैयद बन्दगी मुहम्मद ने 1482 ई. में सिन्ध को इस सम्प्रदाय का प्रचार केन्द्र बनाया। वहाँ से कालान्तर में यह सम्प्रदाय कश्मीर, पंजाब, बंगाल और बिहार तक फैला। इस सम्प्रदाय के अनुयायी संगीत के विरोधी थे और सामान्यतया हरे रंग की पगडियॉ बॉधते थे। इस सिलसिले का प्रख्यात संत शेख मीर मुहम्मद जिसे मियां मीर भी कहा जाता है, जहॉगीर और शाहजहॉ का समकालीन था। शाहजहॉं का पुत्र दारा शिकोह कादिरी सम्प्रदाय के शेख मुल्लाशाह दख्शी का ही शिष्य था। दारा शिकोह ने स्पष्ट रुप से घोषणा की थी कि हिन्दू दर्शन और वेदान्त में अनन्त सत्ता अर्थात ईश्वर के व्यापक दर्शन होते है। प्राकृतिक तत्वों में अलौकिक और अनन्त के दर्शन को तौहिद कहते है। दारा शिकोह के आरंभिक ग्रन्थ जो सूफी मत से सम्बन्धित थे – सफीनत-उल-औलिया, सकीनत-उल-औलिया, तरीकत-उल-हकीकत आदि है। उसने बावन उपनिषदों का संस्कृत से फारसी भाषा में अनुवाद करवाया और इसको ‘सिर्र-ए-अकबर‘ नाम दिया गया। ‘‘मज्म-उल-बहरीन‘‘ उसकी महत्वपूर्ण कृति है जिसमें हिन्दू और सूफी मत का तुलनात्मक वर्णन है। दारा शिकोह की देखरेख में दो संस्कृत ग्रन्थों भगवत गीता और योग वशिष्ठ का फारसी में अनुवाद किया गया।
नक्शबंदी सिलसिला –
नक्शबंदी चौथा प्रमुख सूफी सम्प्रदाय था जो भारत में प्रचलित हुआ। नक्शबन्दी सिलसिला ट्रांस-आक्सियाना में तेरहवीं शताब्दी में आरंभ में शुरु हुआ। इसकी स्थापना ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंद ने की थी परन्तु भारत में इस सिलसिले की स्थापना का श्रेय ख्वाजा बाकी विल्लाह को जाता है। चॅूंकि इस सिलसिले के सन्त आध्यात्मिक तत्वों से सम्बन्धित अनेक प्रकार के नक्शे बनाकर रंग भरते थे, इसलिए ये नक्शबंदी कहलाए। नक्शबन्दी सम्प्रदाय विशेष रुप से तैमूर और बाबर के वंशजों का सर्वाधिक प्रिय सूफी सम्प्रदाय था। बाबर नक्शबंदी नेता ख्वाजा उबैदुल्ला अहरार और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारियों का भक्त था। जहॉगीर के अनुसार विल्लाह ने देश के प्रत्येक नगरों एवं कस्बे में अपने खलीफा भेजे थे। विल्लाह ने समस्त विश्व के तत्वों को ईश्वर का प्रतीक मानने के दार्शनिक सिद्धान्त का विरोध किया। बाकी विल्लाह के शिष्यों में अकबर का समकालीन शेख अहमद सरहिन्दी था जो इस्लाम के सुधारक के रुप में जाना जाता है और यह इस सम्प्रदाय का सबसे प्रसिद्ध सन्त था। शेख अहमद सरहिन्दी ने ही अकबर की उदार धार्मिक नीतियों का विरोध किया। शेख अहमद सरहिन्दी एक ऐसे सूफी थे जो कट्टर मुसलमान होने के साथ ‘वहदत-उल-वुजूद‘ के सिद्धान्त, गैर-सूफी मुसलमानों और हिन्दूओं के विरोधी थे। सूफी सिलसिलों में यह सबसे कट्टर सिलसिला माना जाता है क्योंकि इसके सन्त शरीयत पर अधिक जोर देते थे।
आगे चलकर अठारहवीं शताब्दी में नक्शबंदी सिलसिले में एक नई परम्परा तरीका-ए-मुहम्मदिया विकसित हुई जिसके नेताओं में दिल्ली के ख्वाजा मुहम्मद नासिर अंदलीब और उनके पुत्र ख्वाजा मीर दर्द थे। ख्वाजा मुहॅम्मद नासिर ने एक ग्रन्थ की रचना की जिसका नाम नालाए अंदलीब था। ख्वाजा मीर दर्द उर्दू के कवि थे और सूफी मत के बारे में उन्होने अनेक ग्रन्थ लिखे जिनमें ‘इल्म-उल-किताब‘ बहुत प्रसिद्ध है। मीर दर्द का मानना था कि वहदत-उल-वुजूद और वहदत-उल-शुदूद में कोई अन्तर नही था। उन्होने तात्कालीन राजनीतिक परिस्थितीयों में अपने अनुयायियों को धैर्य रखने, दयावान होने तथा एक पवित्र जीवन व्यतीत करने की सलाह दी।
इस सम्प्रदाय का चिश्ती सम्प्रदाय के राजनीति से विलग रहने के सिद्धान्त में विश्वास नही था। उन्होंने राजा की आत्मा और जनसमुदाय की शरीर के विभिन्न अंगों से तुलना की। उन्होंने अकबर के धार्मिक प्रयोगों का भी विरोध किया क्योंकि उनको इन प्रयोगों के द्वारा इस्लाम धर्म के अस्तित्व के समाप्त हो जाने की आशंका थी। उनका दृढ़ विश्वास एवं मत था कि मुसलमानों को अपने धर्म का और हिन्दुओं को अपने धर्म का पालन करना चाहिये। इस्लाम एवं हिन्दू धर्म के विशेष, एक दूसरे से भिन्न, तत्वों पर बल देते हुये, हिन्दू धर्म के प्रति अपनी कटुता का परिचय दिया, लेकिन यह कटुता अकबर की धार्मिक नीति का विरोध करने के कारण थी।
अन्य सिलसिला –
उपरोक्त वर्णित चार प्रमुख सिलसिलों के अतिरिक्त भी अन्य कई सूफी सिलसिले प्रचलित थे। इनमें शत्तारी सिलसिला, फिरदौसी सिलसिला, कलंदरिया सिलसिला, मदरिया सिलसिला, रौशियान्ह सिलसिला आदि का नाम उल्लेखनीय है। शत्तारी सम्प्रदाय का अभिर्भाव 15वीं शताब्दी में हुआ और भारत में इसकी स्थापना शेख अब्दुल सत्तार ने की थी। ग्वालियर के शाह मुहम्मद गौस इस सम्प्रदाय के प्रमुख सन्त थे जो हुमायूॅ के समकालीन माने जाते है। संगीत सम्राट तानसेन इन्ही के शिष्य थे। शेख मुहम्मद गौस की सबसे अधिक विख्यात रचना जवाहिर-ए-खम्सा है जिसमें रहस्यवादी और जादुई क्रियाओं का भी उल्लेख है। शेख मुहम्मद की हिन्दू धर्म में रुचि विशेष उल्लेखनीय है। उन्होने संस्कृत का अध्ययन किया और कलीद-ए-मखाजिन नामक ग्रन्थ लिखा जिसमें सूफी सिद्धान्त और हिन्दूओं के ज्योतिष के साथ सम्बन्धों का विश्लेषण किया गया है। उन्होने हठ योग की एक पुस्तक ‘अमृत कुण्ड- का नया अनुवाद किया। शाहजहॉ और औरंगजेब के काल में शत्तारी परम्परा के केन्द्र ग्वालियर, मांडू और बुरहानपुर थे। इस सम्प्रदाय के सन्तों ने भारतीय एवं मुस्लिम रहस्यवादी विचारों, भावनाआ,ें सिद्धान्तों, मान्यताओं और परम्पराओं को समन्वित करने प्रयास किया। कुछ सन्तों ने हिन्दू धर्म के विचारों एवं भावनाओं को भली-भांति समझने के लिए संस्कृत भाषा का अध्ययन किया। एक सन्त ने बैशाली में योगियों के साथ कुछ समय व्यतीत किया। शत्तारी सिलसिले का प्रभाव जौनपुर, बंगाल और दक्कन के क्षेत्रों में था। फिरदौसी सम्प्रदाय के संस्थापक शेख बदरुद्दीन सुमरकन्दी थे। यह सिलसिला सुहारावर्दी सिलसिले की ही एक शाखा थी और इसका कार्यक्षेत्र बिहार था। अहमद याह्या मनेरी इसके प्रमुख सन्त थे। कलंदरिया सम्प्रदाय की स्थापना सैयद खिज्र रुमी कलंदर ने की थी और भारत में इसकी स्थापना का श्रेय नज्मुद्दीन कलंदर को जाता है। मदरिया सिलसिला के संस्थापक शेख बहाउद्दीन शाह मदार थे और कानपुर के निकट मकनपुर इनकी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। रौशियान्ह अथवा रोशनिया सम्प्रदाय के संस्थापक मियां वायजीद अंसारी थे।
गैर-रुढिवादी सूफी –
सूफीवाद के विकास के क्रम में समय-समय पर कुछ ऐसे सूफी सन्त हुए जिसे हम गैर-रुढिवादी सूफी कह सकते है जो शरीयत की पूर्ण उपेक्षा करने के लिए विख्यात थे। सोलहवीं शताब्दी में लाहौर के शेख सादुल्ला बनी इसराईल ऐसे ही थे जो आरंभ में कट्टर सूफी बने, फिर उन्होने ऐसे सभी कार्य किये जो निषिद्ध थे। उन्होने एक वेश्या से प्रेम किया, उसके साथ बैठकर शराब पीते थे और उसपर अपनी सारी दौलत लुटा दी। तथापि बाद में उन्होने अपना जीवन अध्ययन में बिताया। सोलहवीं शताब्दी में एक और शेख जलाल कन्नौजी थे जो कभी-कभी अपना चेहरा काला कर लिया करते थे, अपनी गर्दन में अपने पलंग की डोरी बॉध लिया करते थे और रोते-बिलखते सडकों पर घूमते रहते थे। सत्रहवीं शताब्दी में सबसे विख्यात मजजूब सरमद थे जिनकी कविताओं, प्रवचनों और निर्वस्त्र रहने के कारण कट्टरपंथी लेग चिढते थे। दाराशिकोह के साथ उनके सम्बन्ध होने के कारण औरंगजेब के आदेश पर उन्हे 1661 ई0 में कत्ल कर दिया गया। उपयुक्त विवरणों के वावजूद हमें यह ध्यान रखना होगा कि उनमें से कोई भी सूफी आन्दोलन की मुख्य धारा का हिस्सा नही था तथा उनकी संख्या और प्रभाव सीमित था।
प्रतिक्रियावादी विचारधारा –
भारतवर्ष में शेख अहमद सरहिन्दी ने नक्शबंदी सिलसिले के नेतृत्व में एक ऐसे विचारधारा को प्रोत्साहन दिया जिसका मुख्य उद्देश्य सूफीमत तथा वहदत उल वुजूद का विरोध करना था। इस तरह की प्रतिक्रियावादी आन्दोलन का मूल कारण सम्राट की उदार नीतियॉ थी। धर्म को लेकर शेख सरहिन्दी जैसे प्रतिक्रियावादी व्यक्तियों ने भरपूर कोशिशो से सूफीमत तथा अकबर की नीतियों का विरोध किया क्योंकि उनकी निगाह में शरीयत का अस्तित्व ही मिट रहा था। सरहिन्दी ने इस बात का भी प्रचार किया कि जो खुदा संसार को बनाने वाला है वह मानव के समान नही हो सकता है। सरहिन्दी शियाओं के भी कट्टर विरोधी थे और ‘‘रद्द-ए-रवाफिज‘ नामक प्रपत्र में उनकी कडी आलोचना की है। शरीयत को अधिक महत्व देने के कारण ही सरहिन्दी ने मुगल राज्य के लिए गैर-साम्प्रदायिक आधार तैयार करने के अकबर के प्रयासों का विरोध किया। 1619 ई0 में जहॉगीर ने सरहिन्दी को इस आरोप पर गिरफ्तार करवा दिया कि वह पाखंडी थे और वह यह दावा करते थे कि आध्यात्मिक क्षेत्र में वह प्रथम तीन खलीफाओं से भी आगे थे। आगे चलकर शाह वली उल्ला ने भी कुरान तथा शरीयत की पाबंदी को उॅचा घोषित किया। हालॉंकि इस प्रतिक्रियावादी आन्दोलन की सफलता ने यह साबित कर दिया कि भारत जैसे सामाजिक संस्कृति के देश में सूफी मत में उत्पन्न सभी गैर-इस्लामी तत्वों को उखाडना कठिन है।
सूफीवाद का भारतीय समाज पर प्रभाव-
मध्यकालीन भारतीय समाज पर सूफी मत का पर्याप्त प्रभाव पड़ा। सूफी सन्तों ने हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायों में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया। सूफी सन्तों ने अपने शिष्यों को समाज-सेवा, सद्व्यवहार तथा क्षमा आदि गुणों पर जोर देने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने जनता के चरित्र तथा उनके दृष्टिकोण को सुधारने का प्रयास किया। बर्नी के कथनानुसार, “निजामुद्दीन औलिया के प्रभाव के परिणामस्वरूप जनता के सामाजिक तथा नैतिक जीवन में बड़ा परिवर्तन हुआ। उन्होंने दिल्ली के सुल्तानों के रूढ़िवादी इस्लामी विचारों का विरोध किया तथा उदारवादी दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया। उन्होंने शक्ति, प्रलोभन तथा तलवार द्वारा धर्म परिवर्तन की नीति का अनुमोदन नहीं किया। उन्होंने शासकों को गरीबों, दुःखियों तथा पददलितों की सेवा करने तथा प्रजा की भलाई करने की प्रेरणा दी।“
प्रो0 रशीद के अनुसार ये सन्त प्रजा तथा शासक वर्ग मध्य कड़ी थे। सूफी सन्तों ने साधारण जीवन व्यतीत करके जनता के मध्य रहने तथा उनकी समस्याओं को समझने की चेष्टा की। सूफी मतावलम्बियों ने आम जनता के जीवन में समयानुकूल सुधार करने का प्रयास किया। यथा शेख हमीद नागौरी एक बीघा जमीन में खेती करके तथा स्वयं अपना कपड़ा बुनकर अपना जीवन-यापन करते थे। शेख कुतुबुद्दीन फटा हुआ कपड़ा पहनते थे। संभवतः उन्हें इसी में आनन्द मिलता था। वे सामाजिक न्याय की ज्योति अपने हाथों में लेकर चलते थे। सूफी सन्तों ने एकेश्वरवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन करके पारस्परिक मतभेदों को दूर करने का प्रयास किया। उनके अनुसार ईश्वर एक है, अनेक धर्म उस एकेश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। अतः धर्म को लेकर वाद-विवाद अथवा संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं है। सूफी सन्तों ने भक्ति आन्दोलन की विचारधारा को प्रभावित किया।
ताराचन्द और युसुफ हुसैन जैसे इतिहासकारों ने इस बात की पुष्टि की है कि शंकराचार्य के अद्वैतवाद और रामानन्द की भक्ति भावना पर इस्लाम धर्म का गहरा प्रभाव पडा। भक्ति आन्दोलन के समाज तथा धर्म सुधारक कबीर, रामानन्द, नानक तथा चैतन्य इससे प्रभावित हुए। भक्ति आन्दोलन के इन सन्तों ने भी एकेश्वरवाद के सिद्धान्त द्वारा विभिन्न सम्प्रदायों के बीच समन्वय स्थापित करने तथा पारस्परिक मतभेदों को दूर करने का प्रयास किया। सूफी लोगों में इस्लामी कट्टरता अधिक नहीं थी। हिन्दू समाज व हिन्दू परम्परा की अनेक बातों को ये शीघ्र अपना लेते थे तथा उनके कारण यहाँ के सर्वसाधारण में घुल- मिलकर उन्हें अपनी बातें भी सरलतापूर्वक समझा देते थे। संक्षेप में कहा जा सकता है कि भक्ति आन्दोलन तथा सूफी साधना दोनों ने ही ईश्वरीय प्रेम के द्वारा मानवता का पथ प्रशस्त किया है। भारतीय संस्कृति एवं साधना के सम्पर्क में आने पर सूफियों ने इस संस्कृति से बहुत कुछ ग्रहण किया। इस प्रकार भारत में खानकाहों का उदार वातावरण हिन्दू मुसलमान दोनें को ही प्यार देने में सफल रहा और सूफी संतों ने प्रचार तथा खानकाहों के माध्यम से मनुष्य की कमजोरियॉ तथा सांसारिक आकर्षणों की निन्दा करते हुए समाज सुधार का प्रयत्न भी किया।
साहित्य के क्षेत्र में सूफी सन्तों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। सूफी सन्तों ने खड़ी बोली अथवा हिन्दुस्तानी भाषा के विकास में महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया था। इसके अलावा उन्होंने पंजाबी, गुजराती आदि क्षेत्रीय भाषाओं के विकास में भी योगदान दिया। बाबा फरीद ने पंजाबी साहित्य को अनूठी देन दी है। कुतुबन, जायसी, मंझन और नूर मुहम्मद जैसे सूफी कवियों का साहित्य अवधी भाषा में है। जायसी की रचनाओं में वेदान्त, योग तथा नाथ सम्प्रदाय से संबंधित विचारों तथा हिन्दू देवी-देवताओं का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। इसमें मृगावत में पैदा हुए जय, सुदामा, भोज, भर्तृहरि आदि महापुरुषों का वर्णन है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उनमें हिन्दू धर्म का विशद् ज्ञान था। प्रो0 रशीद के शब्दों में, “राष्ट्रीय संगठन की भावना को जागृत करने में सूफी सन्तों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान है।“
डॉ0 चौबे तथा आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव का कथन है कि, “हमारे देश के इतिहास में जिस समय सूफी मत का आविर्भाव हुआ, वह सूफी काव्य का स्वर्ण युग माना जाता है।“ सूफी साधकों की साहित्यिक विचारधारा ने एक बड़े जन समुदाय को प्रभावित किया। अरबी, फारसी तथा उर्दू साहित्य में तो इसका व्यापक प्रभाव पड़ा है। अन्य क्षेत्रीय भाषाओं पर भी इनका प्रभाव पड़ा, जहाँ सूफी साधना क्रियाशील रही है। इस प्रकार सूफी सन्तों ने धर्म के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।