window.location = "http://www.yoururl.com"; Rise and Development of Communalism in India | भारत में साम्प्रदायिकता का उदय और विकास

Rise and Development of Communalism in India | भारत में साम्प्रदायिकता का उदय और विकास

 


विषय-प्रवेश :

भारत में साम्प्रदायिकता का उदय और विकास आधुनिक भारतीय इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। साम्प्रदायिकता एक आधुनिक विचारधारा और राजनीतिक प्रवृत्ति है, जिसकी सामाजिक जड़ें तथा इसके सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक लक्ष्यों को भारतीय इतिहास के आधुनिक काल में खोजा जा सकता है। यह आधुनिक सामाजिक समूहों, वर्गों और ताकतों की सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करती थी और उनकी राजनीतिक जरूरतों की पूर्ति करती थी। समकालीन आर्थिक ढांचे ने न केवल इसे उत्पन्न किया अपितु उसके कारण ही यह फली-फूली भी।

सांप्रदायिकता का उदय इस धारणा के साथ होता है कि किसी समुदाय विशेष के लोगों के, एक सामान्य धर्म के अनुयायी होने के नाते राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक हित भी एक जैसे ही होते हैं। इस मत के अनुसार भारत में हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख तथा ईसाई अलग-अलग संप्रदाय से संबंधित हैं। इनके गैर-धार्मिक हित भी उस संप्रदाय के सदस्यों के बीच समान हैं तथा भारतीय लोगों में सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक मामलों में भेद ऐसी धार्मिक इकाइयों के आधार पर ही किया जाना चाहिए। यद्यपि सांप्रदायिकता की शुरुआत हितों की पारस्परिक भिन्नता से होती है किंतु सामान्यता इसका अंत विभिन्न धर्मानुयायियों में पारस्परिक विरोध तथा शत्रुता की भावना में होता है। जहां सांप्रदायिकता के मूल में प्राचीन तथा मध्यकालीन विचारधाराओं के अनेक तत्व निहित हैं और वह उन तत्वों को उपयोग में लाती है वहीं यह भी सत्य है कि यह मूलतः एक आधुनिक विचारधारा तथा राजनीतिक प्रवृत्ति है जो आधुनिक सामाजिक समूहों, वर्गों और शक्तियों की राजनीतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उठ खड़ी हुई है। इसके सामाजिक लक्ष्यों की भांति इसकी सामाजिक जड़ें भी भारतीय इतिहास के आधुनिक काल में ही विकसित हुई हैं।

साम्प्रदायिकता का अर्थ -

सांप्रदायिकता एक विचारधारा है जिसके अनुसार कोई समाज भिन्न-भिन्न हितों से युक्त विभिन्न धार्मिक समुदायों में विभाजित होता है। सांप्रदायिकता से तात्पर्य उस संकीर्ण मनोवृत्ति से है, जो धर्म और संप्रदाय के नाम पर पूरे समाज तथा राष्ट्र के व्यापक हितों के विरुद्ध व्यक्ति को केवल अपने व्यक्तिगत धर्म के हितों को प्रोत्साहित करने तथा उन्हें संरक्षण देने की भावना को महत्त्व देती है। यह व्यक्ति में अंतरराष्ट्रीय एवं सर्वमान्य सत्य की भावना के विरुद्ध व्यक्तिगत धर्म और सम्प्रदाय के आधार पर परस्पर घृणा, द्वंद, ईर्ष्या तथा द्वेष को जन्म देती है। यह भावना अपने धर्म के प्रति अन्ध भक्ति तथा परधर्म तथा उसके अनुयायियों के प्रति विद्वेष की भावना उत्पन्न करती है। एक समुदाय या धर्म के लोगों द्वारा दूसरे समुदाय या धर्म के विरुद्ध किये गए शत्रुभाव को सांप्रदायकिता के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है। यह एक ऐसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें सांप्रदायिकता को आधार बनाकर राजनीतिक हितों की पूर्ति की जाती है और जिसमें सांप्रदायिक विचारधारा के विशेष परिणाम के रूप में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएँ होती हैं। सांप्रदायिकता में नकारात्मक एवं सकारात्मक दोनों ही पक्ष विद्यमान होते हैं। इसका सकारात्मक पक्ष, किसी व्यक्ति द्वारा अपने समुदाय के उत्थान के लिये किये गए सामाजिक और आर्थिक प्रयासों को शामिल करता है। वहीं दूसरी तरफ इसके नकारात्मक पक्ष को एक विचारधारा के रूप में देखा जाता है जो अन्य समूहों से अलग एक धार्मिक पहचान पर ज़ोर देता है, जिसमें दूसरे समूहों के हितों को नज़रअंदाज़ कर पहले अपने स्वयं के हितों की पूर्ति करने की प्रवृत्ति देखी जाती है।

साम्प्रदायिकता मध्ययुगीन परिघटना का बुनियादी सहयोगी और औपनिवेशिक राजनीति का एक उत्पाद है। दरअसल, पूरे मध्यकाल के इतिहास में साम्प्रदायिकता के नाम पर किसी फसाद के नामोनिशां तक नहीं मिलते। इसलिए भारतीय भाषाओं में साम्प्रदायिकता को ध्वनित करने वाली कोई शब्दावली नहीं है। ब्रिटेन ने इस शब्द का ईजाद किया और उसके जैसे तमाम पश्चिमी देशों में साम्प्रदायिकता को नकारात्मक नहीं, सकारात्मक अर्थ देते हैं और उनसे जुड़े कोई राजनीतिक तात्पर्य भी नहीं मिलते। पश्चिमी देशों में साम्प्रदायिकता का सीधा और आसान सा मतलब है, अपने समुदाय विशेष की सेवा या उनके लिए काम करना। हालांकि, ब्रिटेन ने भारत के लिए साम्प्रदायिकता का व्यवहार करते हुए उसमें एक नकारात्मक संकेतार्थ भर दिया और एक राजनीतिक संदर्भ दे दिया, जिसका मतलब होता है, अपने राजनीतिक स्वार्थ की खातिर दूसरों के राजनीतिक हितों के खिलाफ अपने समुदाय के लिए काम करना। ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन के पहले के भारत में इस तरह की कोई अवधारणा नहीं मिलती। यहां तक कि अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई हिन्दू-मुसलमानों ने मिलकर लड़ी थी। दोनों समुदायों के लोगों ने बादुरशाह जफर से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई की अगुवाई करने का अनुरोध किया था। इस हिन्दु-मुस्लिम एकता ने उपनिवेशी शासन को हिला कर रख दिया। ब्रिटिश शासकों ने दोनों समुदायों के बीच खाई चौड़ी करने का फैसला किया और वास्तव में इसी के साथ भारत में साम्प्रदायिक सियासत की शुरुआत होती है।

साम्प्रदायिकता की अवधारणा -

भारतीय सन्दर्भ में साम्प्रदायिकता के बारे में दो अवधारणाएं प्रचलित हैं- एक यह कि पूरा का पूरा हिन्दू-मुस्लिम समुदाय समरूप हैं और एकजुट हैं। दूसरी, दोनों समुदायों के साझा हित हैं। ये दोनों ही धारणाएं सवालों से परे नहीं हैं। न तो सभी हिन्दू और मुसलमान एकजुट हैं, समरूप हैं और न ही उनके राजनीतिक-आर्थिक स्वार्थ एक जैसे हैं। सच तो यह है कि दोनों ही समुदाय जातिवर्ती क्षेत्रों, भाषाओं और संस्कृतियों के आधार पर बंटे हुए हैं। साम्प्रदायिकता की यह बुनियादी धारण है और चाहे जिस किसी रूप में एक धड़े के राजनीतिज्ञों की राजनीति में यह प्रदर्शित हो जाए पर वह कभी भी व्यापक परिदृश्य नहीं बन सकी। दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजादी के पहले अपनी राय देने का कोई तरीका नहीं था और जनता मतदानों के जरिए मजबूती से अपने विचार नहीं जाहिर कर सकती थी और दृश्य के पीछे अंग्रेजों की साजिश से हमारा देश विभाजित हो गया।

पहचान की राजनीति साम्प्रदायिकता का आधार है और स्वभाव से वह नकारात्मक है। उसकी प्रवृत्ति होती है, सत्ताधारी आभिजात्य वर्ग के राजनीतिक-आर्थिक हितों को खुराक देना जबकि वह अपने चरित्र में गहराई तक विभाजनकारी होती है। अंग्रेजों ने हमें विभाजित करने के लिए इतिहास का उपयोग एक सर्वाधिक शक्तिशाली उपकरण के रूप में किया, क्योंकि अतीत की हमारी धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत एक भावनात्मक निवेदन है। इसलिए उन्होंने न केवल हमारे इतिहास का कालविभाजन ’हिन्दू काल’ और ’मुस्लिम काल’ में किया बल्कि अपने दो अवकाशप्राप्त सिविल अफसरों- इलियट और डाउसन के जरिए तथ्यों को इस कदर तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया मानो हम हमेशा ही धार्मिक मसलों पर लड़ते-झगड़ते रहे हैं। वे हमारी मिलीजुली संस्कृति (साझी संस्कृति या गंगा-जमुनी विरासत) को वह महत्ता न देते हुए एक दोषपूर्ण संस्कृति गढ़ने की कोशिश की जैसी हाल में हटिंगटन ने भी ’क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन’ में किया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा इसका दोहन हमारे रुझानों-प्रवृत्तियों को साम्प्रदायिक बनाने के मुख्य स्रोत के रूप में अब भी किया जा रहा है। इसको भी ठीक से समझ लेना महत्त्वपूर्ण है कि साम्प्रदायिकता बुनियादी रूप से एक सियासी परिदृश्य है, धार्मिकता से उसका कोई सरोकार नहीं है। एक सच्चा धार्मिक व्यक्ति कभी भी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता क्योंकि साम्प्रदायिकता राजनीतिक सत्ता हासिल करने के एक उपकरण के बतौर इस्तेमाल होती है, आध्यात्मिक या नैतिक संसाधन के रूप में नहीं। गांधी बड़े धार्मिक थे लेकिन उन्होंने सत्ता पाने के लिए धर्म या सम्प्रदाय के राजनीतिक उपयोग की अनुमति कभी नहीं दी। उनकी तुलना में जिन्ना और सावरकर तो अत्याधुनिक ख्यालों के थे पर उन्हें अपनी राजनीतिक महत्त्वकांक्षाओं को पूरी करने में धर्म या मजहब के इस्तेमाल से कोई गुरेज नहीं था। 

विपिन चन्द्रा जैसे इतिहासकारों ने साम्प्रदायिकता को तीन चरणों में विभक्त कर समझाने का प्रयास किया है। उनका मानना है कि बुनियादी रूप से साम्प्रदायिकता ही वह विचारधारा है जिसके आधार पर साम्प्रदायिक राजनीति खडी होती है। किसी भी दल, व्यक्ति या आन्दोलन में साम्प्रदायिक विचारधारा का जन्म पहले चरण से होता है जिसके अन्तर्गत इस विश्वास को बल मिलता है कि एक ही धर्म माननेवालों के सभी प्रकार के हित एक समान होते है। हालॉंकि यहॉ यह बात ध्यान देने वाली है कि वह यह नही मानते कि धर्म पर आधारित विभिन्न समुदायों के हित अनिवार्य रूप से एक दूसरे के विरोधी होते है। साम्प्रदायिकता के दूसरे चरण को उदार या नरमपंथी साम्प्रदायिकता कह सकते है जिसके अन्तर्गत इस विश्वास को बल मिलता है कि भारत जैसे बहुभाषी समाज में एक धर्म के अनुयायियों के समस्त हित किसी अन्य धर्म के अनुयायियों के हितों से भिन्न होते है। साम्प्रदायिकता के तीसरे और अंतिम चरण को उग्रवादी साम्प्रदायिकता कह सकते है जिसके तौर तरीके फूसीवादी होते है। इस चरण के अन्तर्गत यह मान लिया जाता है कि विभिन्न धर्मो या समुदायों के हित एक दूसरे के विरोधी होते है। इसके मूल में भय, घृणा समाहित होती है और भाषा, कर्म और आचरण के स्तर पर इनका मिजाज हिंसक होता है। भारत में साम्प्रदायिकता के ये तीनों दौर अलग-अलग समय पर आये लेकिन वे एक दूसरे को प्रभावित भी करते रहे और उनमें एक तरह से निरन्तरता भी बनी रही।

साम्प्रदायिकता के बारे में प्रचलित मिथक :

सांप्रदायिकता को अधिकतर गलत रूप में समझा जाता रहा है और परिणामस्वरूप इसके प्रति अनेक मिथक बन चुके हैं। इस दृष्टि से यह अति आवश्यक हो जाता है कि यह समझ लिया जाय कि सांप्रदायिकता क्या नहीं है। सांप्रदायिकता को समझने की प्रक्रिया में इससे जुड़े मिथकों को ध्यान में रखना जरूरी है।

1. प्रचलित दृष्टिकोण के विपरीत, सांप्रदायिकता केवल धर्म का राजनीति में प्रवेश मात्र अथवा केवल राजनीति की धार्मिक रूप में व्याख्या मात्र नहीं है। दूसरे शब्दों में धर्म के राजनीति में प्रवेश से आवश्यक रूप में सांप्रदायिकता का उदय नहीं हुआ। उदाहरण के लिए, बीसवीं शताब्दी के दो महानतम धर्मनिरपेक्ष नेता महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आजाद काफी धार्मिक थे और अपनी राजनीति को धार्मिक रूप में व्याख्यायित करते थे।

2. सांप्रदायिकता धार्मिक मतभेदों का परिणाम नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, आर्थिक मतभेद अपने आप में सांप्रदायिकता का सूत्रपात नहीं करते। उदाहरण के लिए, हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच धार्मिक मतभेद शताब्दियों से चले आ रहे थे किन्तु केवल आधुनिक काल में पहुँच कर ही इन मतभेदों ने सांप्रदायिकता का रूप लिया। दरअसल सांप्रदायिकता धार्मिक समस्या है ही नहीं। 

3. सांप्रदायिकता भारतीय समाज में अंतर्निहित नहीं थी, जैसा कि माना जाता रहा है। यह भारत के भूतकाल की निरंतरता नहीं बल्कि कुछ विशेष परिस्थितियों एवं विभिन्न शक्तियों के गठजोड़ का परिणाम थी। सांप्रदायिकता आधुनिक भारत में ही उपजी यह उतनी ही आधुनिक है जितना कि औपनिवेशिक शासन। सांप्रदायिकता की व्याख्या आधुनिक भारत में हुए राजनैतिक एवं आर्थिक विकासों के संदर्भ में की जानी चाहिए।

सांप्रदायिकता के अध्ययन में जो कठिनाई एकदम सामने आती है वह यह है कि अक्सर इसका विश्लेषण या इसका अध्ययन-मनन करने वाले व्यक्तियों ने (भले ही अनजाने में) बहुत-सी सांप्रदायिक मान्यताओं और पूर्वाग्रहों को स्वीकार नहीं किया है। सांप्रदायिकता का अध्येता जब तक स्वयं इन मान्यताओं को अपने अंदर खोजने का प्रयास प्रयास नहीं करता तब तक उसका यह अध्ययन मूलतः निरर्थक हो जाता है। ऐसी स्थिति में यह बहुत जरूरी है कि सांप्रदायिकता के अध्ययन के साथ-साथ सांप्रदायिक विचारधारा का आलोचनात्मक विवेचन-विश्लेषण भी किया जाए। इस तरह वस्तुतः धर्म को छोड़कर अन्य कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था जहां हिंदुओं तथा मुसलमानों या ईसाइयों या सिक्खों के अलग से अपने-अपने सामूहिक हित हों। अधिकतर स्तरों पर हिंदुओं तथा मुसलमानों के आर्थिक तथा राजनीतिक हित एक ही थे। इस अर्थ में अखंड समुदाय की कौन कहे, वे अलग-अलग समुदाय भी नहीं थे। हिन्दुओं और मुसलमानों आदि के रूप में तथा धार्मिक समूहों के रूप में अखिल भारतीय स्तर पर उनका सामूहिक आर्थिक जीवन तथा हित, सामूहिक राजनीतिक जीवन तथा हित आदि एक-दूसरे से अलग नहीं थे।

भारत में साम्प्रदायिकता के उदय और विकास के लिए उत्तरदायी परिस्थितियॉं :

यद्यपि सांप्रदायिकता का संबंध धार्मिक आधार पर अलगाववाद और कट्टरता से है, किंतु भारत में सांप्रदायिक चेतना का जन्म औपनिवेशिक नीतियों (ब्वसवदपंस च्वसपबपमे) तथा उसके विरुद्ध संघर्ष करने की आवश्यकता से उत्पन्न परिवर्तनों के कारण हुआ। भारत में सांप्रदायिकता का उदय जनता और उसकी भागीदारी पर आधारित एक नई, आधुनिक राजनीति का परिणाम है। आधुनिक राजनीति में जनता से व्यापक संबंध बनाने, उसकी आस्था जीतने और नई पहचान कायम करने की आवश्यकता के कारण सांप्रदायिकता उत्पन्न हुई। सांप्रदायिकता आधुनिक संप्रदायवादी राजनीति सामाजिक समूहों, वर्गों और ताकतों की सामाजिक आकांक्षाओं को व्यक्त करती थी और उनकी राजनीतिक जरूरतों की पूरा करती थी। समकालीन आर्थिक ढाँचे ने न केवल सांप्रदायिकता को उत्पन्न किया, अपितु उसके कारण इसका विकास और प्रसार हुआ। संक्षेप में, साम्प्रदायिकता के उदय और विकास के विभिन्न पहलुओं को हम निम्न शीर्षकों के माध्यम से समझने का प्रयास करते है -

उपनिवेशवाद और साम्प्रदायिकता -

भारत में सांप्रदायिक चेतना का जन्म उपनिवेशवाद के दबाव तथा उसके खिलाफ संघर्ष करने की ज़रूरत से उत्पन्न परिवर्तनों के कारण हुआ। विभिन्न अंचलों तथा देश के बढ़ते हुए आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक एकीकरण, भारत को एक आधुनिक राष्ट्र बनाने की प्रक्रिया, उपनिवेशवाद तथा भारतीय जनता का बढ़ता हुआ अंतर्विरोध तथा आधुनिक सामाजिक वर्गों एवं उपवर्गों का निर्माण-इन तमाम कारणों से लोगों में अपने साझा हितों की देखने के नए तरीकों की ज़रूरत हुई। नवीन विचारों और नई धाराओं के सहारे नये उदीयमान राजनीतिक यथार्थ तथा सामाजिक संबंधों को जज्ब करने तथा एकता के नए आधारों एवं नई सामाजिक-राजनीतिक पहचानों को अपनाने की प्रक्रिया को एक कठिन और क्रमिक प्रक्रिया होना ही था। राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक भाषाई विकास तथा वर्ग संघर्ष की आधुनिक धारणाओं का प्रसार एवं प्रक्रिया का अनिवार्य नतीजा था लेकिन जहाँ भी इन धारणाओं का विकास धीमी गति से या आंशिक रूप में हुआ, नए यथार्थ को जज्ब करने, संपर्क के व्यापक दायरे बनाने और नई पहचानों और विचारधाराओं का विकास करने के लिए लोगों ने जाति, इलाके, अचल, नस्ल, धर्म, संप्रदाय और पेशे जैसे आत्म-पहचान के पुराने, परिचित, पूर्व-आधुनिक तरीकों के प्रति झुकाव प्रकट किया, जो अपरिहार्य था। इस तरह की परिस्थितियों में दुनिया भर में ऐसी ही घटनाएँ हुई हैं। लेकिन अकसर ऐसा होता है कि इन पुरानी, अपर्याप्त और मिथ्या धारणाओं तथा पहचानों का स्थान राष्ट्र, राष्ट्रीयता और वर्ग की नई तथा ऐतिहासिक रूप से आवश्यक धारणाएँ और पहचान लेने लगती हैं। भारत में भी बड़े पैमाने पर यही हुआ, हालाँकि सर्वत्र एक जैसे ढंग से नहीं। यहाँ खास बात यह हुई कि देश के कुछ हिस्सों में आम जनता के कुछ वर्गों में धार्मिक चेतना सांप्रदायिक चेतना में बदल गई। भारत में जो स्थिति थी, उसकी कुछ बातें इसमें मददगार थी- इससे समाज के कुछ हिस्सों की ज़रूरतें पूरी होती थीं तथा कुछ सामाजिक और राजनीतिक ताकतों को फायदा था। अब सवाल यह उठता है कि बीसवीं शताब्दी में सांप्रदायिकता का विकास किन कारणों से संभव हुआ, तत्कालीन स्थिति के कौन-से पहलू इसमें मददगार हुए, और यह किन सामाजिक वर्गों तथा राजनीतिक ताकतों का हित साधन कर रही थी।

यद्यपि भारत में सांप्रदायिकता का विकास अपरिहार्य नहीं था, लेकिन यह समझना गलत है कि यह सिर्फ सत्ता लोलुप राजनीतिज्ञों या धूर्त प्रशासकों के षड्यंत्र का नतीजा था। इसकी जड़ें सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में थीं। पूरी सामाजिक स्थिति ही ऐसी थी, जो इसके लिए जमीन तैयार कर रही थी और उसके अभाव में यह लंबे समय तक टिक ही नहीं सकती थी।

समाजिक-आर्थिक परिस्थितियॉ और साम्प्रदायिकता -

भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के उदय ने शक्ति संरचना में भारी परिवर्तन किए जिसका प्रभाव भारतीय समाज के सभी वर्गों पर पड़ा। साम्राज्यवाद के उदय के साथ ही उच्चवर्गीय मुसलमानों का पतन शुरू हुआ। बंगाल में, जहाँ कि उच्चवर्गीय मुसलमानों का सेना के उच्च पदों, प्रशासन एवं न्यायालयों में रोजगार पर अर्द्ध आधिपत्य था, इसका सबसे अधिक प्रभाव देखने में आया। धीरे-धीरे भूमि पर भी उनका आधिपत्य कम होने लगा। हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों ने शिक्षा, संस्कृति, नए व्यवसाय तथा प्रशासन में पद जैसी सरकारी सुविधाओं को बाद में अपनाया। परिणामतः हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों में पुरानी परंपराओं, रवैयों और मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन के लिए बौद्धिक जागरण भी बाद में हुआ। इस बिन्दु पर राम मोहन राय तथा सैयद अहमद खान के बीच अंतराल का उदाहरण कथन में स्पष्टता ला सकता है। इस अंतराल के कारण मुसलमानों के बीच कमजोरी तथा असुरक्षा की भावना ने परंपरागत विचार प्रक्रिया तथा धर्म पर उन्हें आश्रित बना दिया।

अपैपनिवेशिक काल में अंग्रेजों के आर्थिक शोषण और देशव्यापी आर्थिक ठहराव के कारण सरकारी नौकरियों, वकालत और डाक्टरी जैसे पेशों तथा उद्योग-धंधों में जबरदस्त प्रतिद्वंदिता थी। उपलब्ध आर्थिक अवसरों का अधिकतम हिस्सा हथियाने के लिए मध्य वर्ग के लोग जाति, प्रांत और धर्म जैसी सामूहिक पहचानों का सहारा लेते थे। इस तरह सांप्रदायिकता मध्यवर्ग के कुछ लोगों को तात्कालिक सहायता पहुँचा सकती थी और उसने पहुँचाया भी। सिकुड़ते हुए आर्थिक अवसरों के उस दौर में सांप्रदायिकता की जड़ें मध्य वर्ग में निहित थीं तथा उसके द्वारा मध्य वर्ग ने अपने हितों तथा आकांक्षाओं को अभिव्यक्त किया। मुसलमानों में सांप्रदायिक और अलगाववादी प्रवृत्ति के विकास का एक प्रमुख कारण शिक्षा, व्यापार और उद्योगों में उनका अपेक्षाकृत पिछड़ापन था। उन्नीसवीं सदी के पहले के 70 वर्षों में उच्च वर्ग के मुसलमान ब्रिटिश-विरोधी, रूढ़िवादी और आधुनिक शिक्षा के दुश्मन थे, इसलिए देश में शिक्षित मुसलमानों की बहुत संख्या कम रही। शिक्षा के अभाव में आधुनिक पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान और राष्ट्रवाद जैसी भावनाएॅं मुसलमान बुद्धिजीवियों में नहीं फैल सकी और उनमें राजनीतिक चेतना का विकास नहीं हो सका। इसके विपरीत हिंदुओं ने बड़ी संख्या में अंग्रेजी तथा पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने में उत्साह दिखाया जिसके परिणामस्वरूप नई शिक्षा पद्धति में ढलकर हिंदू सरकारी नौकरियों और अन्य आर्थिक लाभ के पदों पर काबिज हो गये।

सरकारी नौकरियों एवं व्यवसायों के लिए आधुनिक शिक्षा आवश्यक थी, किंतु धार्मिक रूढ़िवादिता, नवीन शिक्षा नीति और शिक्षा में अंग्रेजी भाषा के प्रसार के कारण मुसलमान बौद्धिक व्यवसाय में पिछड़ गये। ब्रिटिश सरकार के मुस्लिम-विरोधी चरित्र ने भी मुसलमानों के आर्थिक और सांस्कृतिक अधःपतन का पथ प्रशस्त किया था। ऊँचे पद यूरोपियनों को प्रदान किये गये और छोटे पद हिंदुओं को, किंतु मुसलमान सरकारी नौकरियों से वंचित हो गये, जिससे दोनों समुदायों के बीच आर्थिक और सांस्कृतिक खाई पैदा हो गई। ऑंकडे गवाह है कि 1882 ई0 तक मुसलमानों के पास अच्छी खासी सरकारी नौकरियाँ थीं और ऊँचे तथा प्रभावशाली पदों पर भी उनका अच्छा खासा प्रतिनिधित्व था। किंतु 1883 में जब अंग्रेजी राज में अरबी और फारसी की जगह राजभाषा अंग्रेजी बनी, तो शक्ति और प्रभाववाले पद मुसलमानों से छिनकर हिंदुओं के हाथों में जाने लगे, जिन्होंने नये वातावरण से अपना तालमेल अधिक तेजी से स्थापित कर लिया था। स्पष्ट है कि आधी सदी के अंदर सरकारी सेवाओं में हिंदुओ-मुसलमानों, दोनों समुदायों की तुलनात्मक उपस्थिति पूरी तरह उलट गई और लगभग यही स्थिति उद्योग-व्यापार में थी।

जब मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का कुछ विस्तार हुआ, तो एक शिक्षित मुसलमान के सामने व्यवसाय या व्यापार के बहुत कम अवसर थे। ऐसी स्थिति में मुसलमानों में यह धारणा भी पनपी कि अंग्रेजों और हिंदुओं के बीच मुस्लिम समाज के खिलाफ आंतरिक गठजोड़ है जिससे दोनों समुदायों के बीच दूरी बढ़ने लगी और प्रतिक्रियावादी बड़े जमींदार, मध्यवर्गीय मुस्लिम जनता पर अपना प्रभाव बनाये रखने में सफल रहे। भू-स्वामी और जमींदार, चाहे हिंदू हों या मुसलमान, अपने स्वार्थ के कारण ब्रिटिश शासन का समर्थन करते थे।

कालान्तर में उच्चवर्गीय और प्रतिक्रियावादी मुसलमानों ने मुसलमानों में वर्गीय चेतना को उभारा और धर्म के आधार पर मुस्लिम समुदाय को एकताबद्ध किया ताकि मुस्लिम समुदाय को धार्मिक अस्मिता के नाम पर लामबंद करके ब्रिटिश सरकार और हिंदुओं से सौदेबाजी की जा सके। प्रतिक्रियावादी मुसलमानों ने प्रचार किया कि मुसलमानों के आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक अस्मिता की रक्षा तभी हो सकती है, जब उनका एक अलग राष्ट्र हो। प्रतिक्रियावादी मुसलमानों के दुष्प्रचार को धीरे-धीरे मुस्लिम निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग की सहानभूति मिलने लगी, क्योंकि बड़ी चालाकी से उनकी आर्थिक दुर्दशा और धार्मिक अस्मिता को एक अलग राष्ट्र के विचार से जोड़ दिया गया।

ब्रिटिश नीति की भूमिका और साम्प्रदायिकता -

सांप्रदायिकता के विकास के लिए ब्रिटिश नीति मुख्य रूप से जिम्मेदार है। यदि सांप्रदायिकता भारत में पनपी और इसने भयावह रूप धारण कर लिया जैसा कि 1947 के उदाहरण से स्पष्ट है, तो इसके लिए बहुत कुछ अंग्रेजी सरकार जिम्मेदार है जिसने कि सांप्रदायिकता को काफी बढ़ावा दिया। लेकिन इससे पूर्व कि हम अंग्रेजी नीति पर चर्चा करें, कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक प्रतीत होते हैं। अंग्रेजों ने सांप्रदायिकता को जन्म नहीं दिया। जैसा कि हमने देखा, कुछ सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक मतभेद पहले से ही मौजूद थे। अंग्रेजों ने इनका निर्माण नहीं किया बल्कि सिर्फ इन परिस्थितियों का लाभ उठाया था जिससे उनका राजनैतिक उद्देश्य पूरा हो सके। इसलिए यह स्पष्ट है कि “फूट डालो और राज करो“ की अंग्रेजी नीति जिस पर हम चर्चा करने जा रहे हैं केवल इसलिए सफल हो सकी क्योंकि समाज की आंतरिक आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ उस सफलता में भूमिका निभा रही थीं। यह समझना महत्वपूर्ण है कि सांप्रदायिकता के विकास एवं उसके इस्तेमाल तथा “फूट डालो और राज करो की नीति के लिए परिस्थितियाँ अत्यंत अनुकूल थीं। 1857 की क्रान्ति के बाद सरकार के समक्ष मुख्य रूप से दो उद्देश्य थेः 

1. समाज में समर्थक बनाना, नियंत्रण एवं प्रभाव बढ़ाने के उद्देश्य से कुछ वर्गों को संरक्षण देना और इस प्रकार समाज में अपने आधार को मजबूत करना।

2. भारतीयों में एकता न होने देना। यदि समाज के सभी वर्ग एक विचारधारा के अंतर्गत हो जाते तो अंग्रेजी साम्राज्य के लिए खतरा पैदा कर सकते थे। इसलिए सांप्रदायिक विचारधारा को इस्तेमाल करके उसे बढ़ावा देते हुए भारतीयों में एकता नहीं होने दी गयी। बीसवीं शताब्दी में यह कार्य और प्रभावपूर्ण ढंग से किया गया और राष्ट्रीय विचारधारा, संगठन और माँगों के न्यायसंगत होने तथा उनकी प्रमाणिकता को नकारने के उद्देश्य से सांप्रदायिक माँगों और संगठनों को प्रोत्साहित किया गया। इस प्रकार एक ओर मुसलमानों को कांग्रेस से दूर करने का भरसक प्रयास किया गया और दूसरी और कांग्रेस के दावों को यह कहकर ठुकराया जाता रहा कि कांग्रेस मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही है। सांप्रदायिकता ने सरकार को एक और लाभ पहुँचाया। सांप्रदायिक तनाव बने रहने तथा इसके और बदतर होने को अंग्रेजी शासन ने अपनी सरकार बनाए रखने के एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया। उनका तर्क था कि भारतीय जनता आपस में विभाजित है, अतः यदि ब्रिटिश शासन समाप्त भी हो जाए तो भी वे सरकार बनाने की स्थिति में नहीं हैं।

फूट डालो और शासन करों की यह नीति मात्र साम्प्रदायिकता के स्तर पर ही अभिव्यक्त नही हुई अपितु भारतीय समाज में जो भी विभाजनकारी तत्व मौजूद थे, उन सभी को इसने प्रोत्साहित किया जिससे कि राष्ट्रीय एकता की भावना को तोडा जा सके। अंग्रेजो ने एक प्रान्त को दूसरे प्रान्त के खिलाफ, एक जाति व वर्ग को दूसरे जाति व वर्ग, एक भाषा को दूसरे भाषा के खिलाफ, उदारवादियों को गरमपंथियों के खिलाफ आदि को भिडा देने की भरपूर कोशिश की और अन्ततः साम्प्रदायिकता ही उनके लिए अधिक कारगर साबित हुआ। एक प्रकार से यही उपनिवेशवाद का प्रमुख हथियार बन गया। इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिकतावादियों को सरकारी संरक्षण दिया, उन्हे रियायते दी गई और उन्हे अलग-अलग दर्जा दिया गया। साम्प्रदायिकता से जुडे हर चीज के प्रति सहिष्णुता दिखाई गई और उनकी नाजायज मॉगों को भी स्वीकार किया गया। हम आसानी से समझ सकते है कि अपने 20 वर्षो के उदारवादी चरण में कांग्रेस की कोई भी व्यापक मॉग स्वीकार नही की गई जबकि मुस्लिम लीग ने 1906 ई0 में वायसराय के सम्मुख जो साम्प्रदायिक मॉंग रखी उसे तुरन्त स्वीकार कर लिया गया। कालान्तर में 1932 में ‘‘साम्प्रदायिक पंचाट‘‘ के द्वारा भी अंग्रेजों ने सभी साम्प्रदायिक मॉगों को स्वीकार किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में तो अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने के लिए साम्प्रदायिक ताकतों को पूरी छूट दे दी गई।

वस्तुतः साम्प्रदायिकता को रोकने के लिए कुछ विशेष कदम उठाना जरूरी था जो सरकार ही कर सकती थी परन्तु ब्रिटिश सरकार ने इस दिशा में कोई कदम नही उठाये अतः एक प्रकार से ब्रिटिश नीति ने उसे प्रोत्साहित किया। यहॉ ध्यान देने वाली बात यह है कि राष्ट्रवादी पत्र-पत्रिकाएॅ, समाचार-पत्र, पर्चों, लेखनी, किताबों तथा साहित्य आदि का तेजी से दमन किया गया लेकिन सार्वजनिक मंचों, पत्र-पत्रिकाओं, भाषणों और अफवाहों के जरिए साम्प्रदायिक घृणा फेलाने वाले लोगों पर कोई कार्यवाही नही की गई। इतना ही नही ऐसे व्यक्तियों को समय-समय पर विभिन्न प्रकार से पुरस्कृत भी किया गया। कुल मिलाकर हम यह कह सकते है कि औपनिवेशिक शासन ने जब साम्प्रदायिकता को बढावा देने का फैसला कर ही लिया था तो ऐसी स्थिति में उसपर नियंत्रण बनाना आसान नही था।

इतिहास की साम्प्रदायिक व्याख्या -

भारतीय इतिहास, खास तौर से प्राचीन और मध्ययुगीन भारतीय इतिहास की अवैज्ञानिक तथा विकृत व्याख्या सांप्रदायिक चेतना के फैलाव का एक मुख्य औजार बनी। सांप्रदायिक विचारधारा का यह एक बुनियादी अंग भी था। इतिहास को सांप्रदायिक रंग देने की शुरुआत सबसे पहले 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश इतिहासकार जेम्स मिल ने प्रारंभ की जिसके अन्तर्गत भारतीय इतिहास के प्राचीन काल को हिदू युग और मध्य काल को मुसलिम युग की संज्ञा दी गई। इस दृष्टि से उसे आधुनिक काल को ईसाई युग कहना चाहिए था। इसके बाद से ही ब्रिटिश और भारतीय इतिहासकारों ने भी इस मामले में उसका अनुसरण किया। मध्य काल में मुसलिम जनता भी उतनी ही निर्धन, शोषित और दमन का शिकार थी, जितनी हिंदू जनता और ज़मींदारों, जागीरदारों तथा शासकों में हिंदू-मुसलमान दोनों थे, फिर भी इन लेखकों ने घोषित कर दिया कि उस दौर में सभी मुसलमान शासक थे और सभी हिंदू शासित। 

हिंदू अतिवादियों ने इस साम्राज्यवादी प्रचार को भी जल्द ही अंगीकार कर लिया कि मध्य युग के शासक हिदू-विरोधी थे, हिंदुओं पर जुल्म करते थे और उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाते थे। सभी सांप्रदायिकतावादी इतिहासकारों ने साम्राज्यवादियों की हाँ में हाँ मिलाते हुए मध्ययुगीन इतिहास को हिंदू-मुस्लिम विवाद का एक दीर्घ अध्याय करार दिया और यह माना कि पूरे मध्य युग में हिंदू और मुसलिम संस्कृतियाँ अलग-अलग मौजूद रहीं। आजादी की लड़ाई के दिनों में ’हजार वर्ष की गुलामी’ और ’विदेशी शासन’ जैसे मुहावरे आम हो गए थे और इसका प्रयोग कभी-कभी राष्ट्रीयतावादियों द्वारा भी किया जाता था। सब से महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि इतिहास की हिंदू सांप्रदायिक दृष्टि इस मिथक पर बहुत बल देती थी कि भारतीय समाज प्राचीन काल में एक महान ऊँचाई पर पहुँच गया था और मध्य काल में मुसलिम शासन तथा वर्चस्व के कारण उसका लगातार पतन होता गया। भारतीय अर्थव्यवस्था और तकनीक, धर्म और दर्शन, कला, साहित्य तथा संस्कृति में मध्यकाल ने जो योगदान किया, उसे पूरी तरह नकार दिया गया। स्वाभाविक था कि मुसलिम सांप्रदायिकतावादियों पर इसकी प्रतिक्रिया होती। उन्होंने प्रचारित करना शुरू किया कि मध्यकाल के सभी मुसलमान शासक वर्ग में थे या कम-से-कम मुसलिम शासन से लाभान्वित हो रहे थे। वे सभी मुसलमान शासकों को, यहाँ तक कि औरंगज़ेब जैसे मदांध राजाओं को भी, महिमा मंडित करने की कोशिश करते थे। तथाकथित पतन का उनका भी अपना एक सिद्धांत था उनके अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी में राजनीतिक सत्ता छिन जाने के बाद एक समुदाय के रूप में मुसलमानों का पराभव हुआ और हिंदू आगे बढ़ने लगे।

कुछ विद्वानों का मानना है कि भारत में सांप्रदायिकता के विकास का मुख्य कारण यहाँ कई धर्मों का समानांतर अस्तित्व था। लेकिन मेरी दृष्टि में भारत में सांप्रदायिकता के विकास में धर्म की कोई बुनियादी भूमिका नहीं थी। धर्म सांप्रदायिकता का कारण नहीं बनता, हालाँकि सभी तरह के सांप्रदायिकतावादी धार्मिक मतभेदों का इस्तेमाल करते हैं। इन मतभेदों का इस्तेमाल उन सामाजिक आवश्यकताओं आकांक्षाओं, संघर्षों इत्यादि को ढकने या विकृत रूप में पेश करने के लिए किया जाता है, जिनका धर्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है। सांप्रदायिकता के दायरे में धर्म उसी हद तक आता है, जिस हद तक वह ग़ैर-धार्मिक मामलों में राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करता है। सांप्रदायिकता के लिए धर्म एक औज़ार भर था। सांप्रदायिकतावादियों ने धर्म का प्रयोग अपने अनुयायियों को गोलबंद करने के लिए जरूर किया। सांप्रदायिकता 1939 के बाद जनता के बीच अपनी जड़ें तभी जमा पाई, जब उसने यह या वह ’धर्म खतरे में है’ का उत्तेजक नारा लगाना शुरू किया। हाँ, यह जरूर कहा जा सकता है कि धर्म के कारण साप्रदायिकता नहीं फैली, लेकिन इसमें धार्मिकता का योग ज़रूर था और उसने यह ज़मीन जरूर तैयार की जिसमें सांप्रदायिकता का पौधा फल-फल सकता था। अतः महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस साम्प्रदायिक भावना के आवेग को कम करना आवश्यक था।

सर सैयद अहमद खॉं और साम्प्रदायिकता -

भारत में साम्प्रदायिकता के उदय और विकास में मुस्लिम पुनर्जागरण के अग्रदूत सर सैयद अहमद खाँ (सितार-ए-हिन्द) की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारंभिक काल में सर सैयद अहमद खाँ कट्टर राष्ट्रवादी थे और उनका दृष्टिकोण बुद्धिमत्तापूर्ण, दूरदर्शी एवं सुधारवादी था, किंतु जीवन के अंतिम दिनों में उनकी राष्ट्रीयता सांप्रदायिकता में परिवर्तित हो गई। सर सैयद अहमद खॉं ने ‘भारत के वफादार मुसलमान’ नामक पत्र में मुसलमानों तथा अंग्रेजों के मध्य सद्भावना उत्पन्न करने के लिए कई लेख लिखे और मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा के प्रसार के लिए कई संस्थाओं की स्थापना की। सर सैयद का मुस्लिम-अंग्रेज गठबंधन का प्रयास यद्यपि हिंदू-विरोधी न होकर पूर्णरूप से मुस्लिम हितों की रक्षा करना था, लेकिन इस प्रक्रिया ने दोनों समाजों के बीच दरार पैदा की जो आनेवाले समय में बढ़ती गई। सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ में 1864 ई0 में ‘‘साइन्सटिफिक सोसायटी‘‘ की स्थापना की जिसके माध्यम से अंग्रेजी भाषा की पुस्तकों का उर्दु में अनुवाद किया जाता था। हिन्दुस्तान के प्रबुद्ध मुसलमान अलीगढ आकर मजलीसें करने लगें और धीरे-धीरे अलीगढ में एक शैक्षणिक माहौल बनने लगा। यह सुव्यवस्थित प्रयास ही अलीगढ आन्दोलन के नाम से जाना जाता है जिसका मूल उद्देश्य मुस्लिम समुदाय के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक पहलुओं में सुधार करना था। 

अपने जीवन के प्रारंभिक चरण में सर सैयद अहमद खान अपने संबोधनों में बार-बार गंगा-जमुनी तहजीब पर बल देते थे और हिन्दू-मुसलमान को ‘भारत माता रूपी दुल्हन के दो सुन्दर ऑंख‘ बताया करते थे। लेकिन 1857 की क्रान्ति के बाद अंग्रेजो द्वारा अपनाई गई ‘‘फूट डालो और शासन करों‘‘ की नीति में उलझ कर रह गये। 1870 ई0 के बाद प्रकाशित डब्लू0 हण्टर की पुस्तक ‘‘इण्डियन मुसलमान‘ में यह सलाह दी गई थी कि वे मुसलमानों से समझौता कर तथा उन्हे कुछ रियायतें देकर अपनी ओर मिलाए। अंग्रेजों के प्रति निष्ठा व्यक्त करने के उद्देश्य से सर सैयद अहमद खान ने ‘‘राजभक्त मुसलमान‘‘ नामक पत्रिका का प्रकाशन किया तथा बनारस के राजा शिवप्रसाद के साथ मिलकर ‘देशभक्त एसोसिएशन‘ की स्थापना की। अंग्रेजों के प्रभाव से सैयद अहमद खान के विचारों में परिवर्तन होने लगा। उन्हे लगने लगा कि मुसलमान हिन्दुओं से हर लिहाज से बेहतर है। लगभग इसी समय उर्दु के स्थान पर हिन्दी को आगे बढाने के लिए आन्दोलन भारत में प्रारम्भ हुआ। हिन्दी और उर्दु के बीच छिडी वर्चस्व की जंग में उन्होने हिन्दी को जाहिलों की भाषा बताया। इस आन्दोलन तथा ‘साइन्सटिफिक सोसायटी‘ के प्रकाशनों में उर्दु के स्थान पर हिन्दी लाने के प्रयासों से सैयद अहमद खान को यह विश्वास हो गया कि हिन्दूओं और मुसलमानों के रास्ते अलग-अलग है।

इस प्रकार हिन्दू मुस्लिम अलगाव का शुभारम्भ सर सैयद अहमद के हिन्दी बनाम उर्दु का मुद्दा हाथ मे लेने से हुआ। पहले वे हिन्दू और मुसलमान को दो कौम बताते थे तो उसका अर्थ होता था दो समाज। परन्तु 1887 ई0 से कौम शब्द का प्रयोग राष्ट्र के रूप में करने लगे थे और खुलकर द्विराष्ट्रवाद के समर्थन में बोलने लगे थे।

दरअसल 1885 ई0 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई तो दो बर्ष के अन्दर ही सर सैयद अहमद खान को यह ख्याल आया कि कांग्रेस हिन्दू और मुसलमानों और सभी के लिए धर्मनिरपेक्ष होने के वावजूद भी बहुसंख्यक हिन्दूओं की ही संस्था रहने वाली है। इसके द्वारा हिन्दू राजनीतिक रूप से संगठित होंगे। भविष्य में लोकतांत्रिक संस्था आने पर बहुसंख्यक हिन्दूओं को ही लाभ होगा। इसलिए उन्होने भारत के मुसलमानों से अपील करनी प्रारम्भ की कि वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से दूर रहे। अपनी इसी सोच के अन्तर्गत उन्होने इसके पश्चात हिन्दूओं का खुला विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। 14 मार्च 1888 ई0 को मेरठ में दिये गये अपने भाषण में उन्होने स्पष्ट कर दिया था कि हिन्दू मुसलमान मिलकर इस देश पर शासन नही कर सकते। अपने भाषण में उन्होने कहा - ‘‘सबसे पहला प्रश्न यह है कि इस देश की सत्ता किसके हाथ में आने वाली है। मान लिजिए अंग्रेज अपनी सेना, तोप, हथियार और बाकी सब लेकर देश छोडकर यहॉ से चले गए तो इस देश का शासक कौन होगा। क्या उस स्थिती में संभव है कि हिन्दू और मुसलमान कौमें एक ही सिंहासन पर बैठे। निश्चित ही नही, इसके लिए आवश्यक होगा कि दोनों एक दूसरे को जीते, एक दूसरे को हराए। दोनो सत्ता में समान भागीदार बनेंगे, यह सिद्धान्त व्यवहार में नही लाया जा सकेगा।‘‘

उन्होने आगे कहा - इसी समय आपको इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि मुसलमान हिन्दूओं से कम जरूर है परन्तु दुर्बल नही। उनमें अपने स्थान को टिकाये रखने का सामर्थ्य है। लेकिन समझिये कि नही है तो हमारे पठान बन्धु पर्वतों और पहाडों से निकलकर सरहदों से लेकर बंगाल तक खून की नदियॉं बहा देंगे। अंग्रेजों के जाने के बाद यहॉ कौन विजयी होगा, यह अल्लाह की इच्छा पर निर्भर है। लेकिन जबतक एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को जीतकर आज्ञाकारी नहीं बनाएगा तबतक इस देश में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती।

यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि विलियम हण्टर की रिपोर्ट ही भारत विभाजन की जड बनी थी और यह भी सच है कि सर सैयद अहमद खान ने इस रिपोर्ट पर यकीन कर लिया था। यहॉ एक बात और कहने की है कि जान स्ट्रेची ने ‘इण्डिया‘ नामक पुस्तक लिखि थी जिसमें भारत को एक देश न कहते हुए कई देशों का महाद्वीप कहा था। मुसलमानों के बारे में इस पुस्तक में स्ट्रेची ने लिखा था कि ये लोग विदेशी है, हिन्दूओं से बिल्कुल मेल नही रखते और अंग्रेजों के दोस्त हो सकते है। जिन्ना जैसे नेता शायद इसलिए मानते थे कि जबतक अंग्रेज भारत में रहे, मुसलमानों के लिए बेहतर होगा। हकीकत तो यह है कि अंग्रेजों के दोस्त न तो हिन्दू थे और न ही मुसलमान।

वस्तुतः सर सैयद अहमद खान की इसी अलगाववादी विचारधारा ने आगे चलकर मोहम्मद अली जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धान्त के लिए आधार प्रदान किया। स्पष्ट है कि जिस अलीगढ आन्दोलन के जरिए सर सैयद अहमद खान ने देश के मुसलमानों के उत्थान के लिए काम किये वही से साम्प्रदायिकता और द्विराष्ट्र सिद्धान्त का जन्म हुआ।

हिन्दू पुनरूत्थानवाद और गरमपंथी विचारधारा का अभ्युदय -

19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में आम जनमानस को जोडने की आवश्यकता  महसूस की गई और इसके लिए हिन्दू धर्म के प्राचीन गौरव को उभारने के लिए हिन्दू पुनरूत्थानवाद का सहारा लिया गया। हिन्दू पुनरूत्थानवादी आन्दोलन ने अप्रत्यक्ष तरीके से ही सही इस भ्रामक धारणा का प्रचार किया कि भारतीय समाज और संस्कृति प्राचीन काल में ‘महानता‘ और ‘आदर्श‘ की बुलंदियों पर विराजमान थी, किन्तु मध्यकाल में मुस्लिम शासन के कारण उसका निरन्तर पतन हुआ और अब इसे अंग्रेजों से खतरा है। प्रारंभिक चरण में इसका स्वरूप सामाजिक था लेकिन शीध्र ही इसने अपनी एक राजनीतिक भूमिका तैयार कर ली और हिन्दू धार्मिक प्रतीकों, देवी-देवताओं, उत्सवां और नायकों के सहारे यह राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रचारक बन गया।

आर्य समाज के तत्वाधान में जब शुद्धि आन्दोलन और गो-हत्या के विरूद्ध आन्दोलन प्रारंभ हुआ और जब आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ‘वेदों की ओर लौटो‘ का नारा दिया तो भारत के मूस्लिम वर्ग में हिन्दूओं के प्रति अविश्वास और शंका की खाई गहराने लगी। उग्रपंथी विचारधारा अपने राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए धर्म के व्यापक उपयोग में विश्वास करती थी। लाला लाजपत राय, विपिन चन्द्र पाल, तिलक और अरविन्द घोष जैसे गरमपंथी नेताओं के भाषण और लेखन धार्मिक और हिन्दू रंग में रंगे होते थे। इसी क्रम  में गरमपंथी नेता बाल गंगाधर तिलक ने गणपति और शिवाजी महोत्सव की शुरूआत की और हिन्दुओं से मुस्लिम उत्सवों का बहिष्कार करने की अपील की। इसकी प्रतिक्रिया में मुस्लिम लेखक बीजापुर और औरंगजेब के समर्थन में तथ्य प्रस्तुत करने लगे। 1893 ई0 के आसपास गो-वध को लेकर दंगे भी हुये और इस पर रोक लगाने की मॉंग होने लगी।

स्पष्ट है कि इस तरह की रस्में और कार्यकलाप किसी मुसलमान को पसन्द नही आती होगी। इन मुस्लिम विरोधी रस्मों से हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों सम्प्रदायों के बीच तनाव, शंका और अविश्वास बढता ही गया। अकबर और औरंगजेब के विरूद्ध महाराणा प्रताप और शिवाजी के संघर्ष को धार्मिक संघर्ष के रूप में महिमामंडित करना ऐेतिहासिक भूले थी और इससे दोनों सम्प्रदायों के बीच दूरियॉं बढती गई। हम यह नही कह रहे है कि गरमपंथी या हिन्दू पुनरूत्थानवादी मुस्लिम विरोधी थे लेकिन इनके राजनीतिक कार्यो और विचारों पर चढे हुये हिन्दू रंगत का लाभ उठाकर ब्रिटिश सरकार मुसलमानों के मन में जहर घोलती थी। परिणामस्वरूप बडी संख्या में मुसलमान राष्ट्रीय आन्दोलन से दूर होते गये और भारत में साम्प्रदायिकता की जडें गहरी होती गई।

बंग-भंग विरोधी आन्दोलन और साम्प्रदायिकता -

1905 के बंगाल विभाजन का जहॉं एक तरफ भारत के राष्ट्रवादी आन्दोलन पर प्रभाव पडा तो दूसरी तरफ मुस्लिम साम्प्रदायिकता के विकास में भी इसका बहुत योगदान है। भारतीय राष्ट्रवाद की उठती हुई लहर के प्रतिकार में ब्रिटिश सरकार ने सरकारी सेवाओं में मुसलमानों का विशेष प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करके हिंदुओं के विरुद्ध मुसलमानों को खड़ा करने की नीति अपनाई। मुसलमानों को विशेष संरक्षण देने की नीति सबसे पहले जुलाई 1885 के एक प्रस्ताव में पेश की गई थी। 1897 के एक गश्ती पत्र (सर्क्युलर) में प्रावधान किया गया कि कार्यपालिका की निचली सेवाओं में दो-तिहाई खाली पद नामांकन द्वारा भरे जायेंगे, ताकि समुदायों के बीच संतुलन आ सके। मुसलमानों को विशेष संरक्षण की नीति को अंततः 1905 में बंग-भंग में संस्थागत रूप दिया गया, जब मुसलमानों के बहुमत वाला एक नया, पूर्वी बंगाल प्रांत बनाया गया।

बंगाल के विभाजन के लिए प्रशासनिक सुविधा का चाहे जितना ढिढोरा पीटा गया हो, इसका मुख्य उद्देश्य बंगाल में हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़कर उसे क्षेत्रीय आधार पर विभाजित करना था और इसने बंगाल को हिन्दू बाहुल्य क्षेत्रों में बॉंट दिया। इस प्रकार यह बंगाल के राष्ट्रवाद को कमजोर बनाने और उसके विरूद्ध मुसलमानों को मजबूत करने की अंग्रेजों की इच्छा का परिणाम था। वायसराय कर्जन के अनुसार - ‘‘विभाजन पूर्वी बंगाल के मुसलमानों को वह एकता प्रदान करेगा जो कि पुराने मुसलमान शासकों और राजाओं के शासन काल के बाद उन्हे फिर से प्राप्त नही हो सकी थी।‘‘ वस्तुतः बंगाल-विभाजन से सरकार मुसलमानों को यह संदेश देना चाहती थी कि नया प्रांत बन जाने से उन्हें राजनीतिक व प्रशासनिक अवसर ज्यादा प्राप्त होंगे। कुछ हद तक ब्रिटिश सरकार और गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन मुसलमानों को यह विश्वास दिलाने में लगभग कामयाब रहे कि बंगाल का विभाजन मुस्लिमों के हित में है। यही कारण था कि मुस्लिमों का एक बड़े तबके ने अंग्रेजों के झांसे में आते हुए बंगाल विभाजन का समर्थन किया और बंग-भंग विरोधी और स्वदेशी आंदोलन को हिंदू बहुसंख्यक तानाशाही की संज्ञा दी।

बंग-भंग-विरोधी स्वदेशी नेता राजनीतिक प्रश्नों पर एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाने के बजाय बराबर यह राग अलापते रहे कि हिंदुओं की कीमत पर मुसलमानों को विशेष सुविधाएँ दी जा रही हैं। स्वदेशी आंदोलन ने जल्द ही मुसलमानों पर साफ-साफ दूसरा या अन्य की मुहर लगा दी और विभाजन-विरोधी आंदोलन जल्दी ही मुसलमानों की चेतना में एक मुसलमान विरोधी आंदोलन बन गया। यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि सभी मुसलमान अलगाववादी या सरकार समर्थक नहीं थे। अब्दुर्रसूल और हसरत मोहानी जैसे कुछ प्रगतिशील मुस्लिम बुद्धिजीवी स्वदेशी आंदोलन में बड़ी संख्या में शामिल हुए थे किंतु अनेक मुसलमान सांप्रदायिक दंगों की बाढ़ में बह गये और बंगाल के अनेक भागों में हिंदू-मुस्लिम दंगे (Hindu & Muslim Riots) हुए। यद्यपि बंगाल के दंगो का तत्कालिक कारण बंगाल विभाजन का विरोध या समर्थन था, किंतु इस दंगे की प्रवृति मुख्यतः आर्थिक थी जो हिंदू जमींदारों या पूँजीपतियों और मुस्लिम किसानों और श्रमिकों के बीच थी।

अंततः अंग्रेजी सरकार ने जब 1911 में बंगाल विभाजन को निरस्त किया तो बंगाल के उन मुस्लिमों को बहुत निराशा हुई जो नये राज्य में अपने लिए कुछ विशेष राजनीतिक व प्रशासनिक विशेषाधिकारों की उम्मीद पाल बैठे थे। बंगाल के मुसलमानों के बीच यह प्रचार किया गया कि अगर कांग्रेस के नेतृत्व में ब्रिटिश शासन से आजादी प्राप्त हुई तो मुख्यतः हिन्दुओं की तानाशाही पर आधारित होगी और मुस्लिमों को दोयम दर्जे की नागरिक माना जायेगा।

मुस्लिम लीग और साम्प्रदायिकता -

भारत-सचिव मार्ले ने 1906 के बजट भाषण ने संकेत दिया कि भारत में प्रातिनिधिक शासन का आरंभ किया जानेवाला है तो सभी मुस्लिम नेता चिंतित हो उठे। मुस्लिम नेताओं को लगता था कि नई स्वशासी संस्थाओं में बहुसंख्यक हिंदू छा जायेंगे, जो अब कांग्रेस में अच्छी तरह संगठित थे। मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल 1 अक्टूबर 1906 को शिमला में गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो से मिला। वायसराय ने आश्वासन दिया कि मुसलमानों के अधिकारों को हानि पहुंचने नहीं दी जायेगी। मुसलमानों प्रतिनिधिमंडल ने स्वतंत्र राजनीतिक कार्रवाई के लिए अपने समुदाय को संगठित करने का निर्णय किया ताकि वे अपने लिए सरकार से एक राष्ट्र के अन्दर एक राष्ट्र की मान्यता पा सकें।

इस प्रकार ब्रिटिश सरकर की शह पर सरकारी संरक्षण में 30 दिसंबर 1906 को बांग्लादेश की राजधानी ढॉंका में नवाब बकार-अल-मुल्क, आगा खाँ तथा मोहसिन-उल-मुल्क ने एक वफादार, सांप्रदायिक और रूढ़िवादी राजनीतिक संगठन ’आल इंडिया मुस्लिम लीग‘ का गठन किया। इसके अतिरिक्त अनेक बडे जमींदार, भूतपूर्व नौकरशाह और अनेक उच्चवर्गीय मुसलमान इस दल में शामिल थे। मुस्लिम लीग ने न केवल बंगाल के विभाजन का समर्थन किया, बल्कि मुसलमानों के लिए अलग मतदाता मंडलों की माँग भी की। इसका उद्देश्य नौजवान मुसलमानों को कांग्रेस की ओर न जाने देने और फलतः राष्ट्रवादी मुख्यधारा में शामिल नही होना देना था।

आल इण्डिया मुस्लिम लीग के पहले आरंभिक दशक में उस पर संयुक्त प्रांत के मुसलमान हावी रहे और इसके कारण अलीगढ़ अखिल भारतीय मुस्लिम राजनीति का केंद्र बन गया। विकारुल-मुल्क और मोहसिनुल-मुल्क तथा कुछ पंजाबी नेताओं की मदद से अलीगढ़ के बजुर्गों ने लीग को स्वयं का संगठन बना लिया और उसे स्वयं की वैचारिक प्राथमिकताओं के साँचे में ढाला। 1907 और 1909 के बीच सभी प्रमुख प्रांतों में प्रांतीय मुस्लिम लीगों का गठन हुआ और उन्हें अपने संविधान तैयार करने की स्वतंत्रता थी। मई 1908 ई0 में मुस्लिम लीग की लंदन शाखा का आरंभ हुआ जिसने सैयद अमीरअली के नेतृत्व में अपने 1909 के मार्ले-मिंटो सुधारों, को निर्धारित करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्पष्ट है कि मुस्लिम लीग का गठन पूर्ण रुप से ब्रिटिश सरकार के प्रति निष्ठा की भावना से प्रेरित था और इसका एकमात्र कारण समर्थन और संरक्षण के लिए सरकार का दामन पकडना था।

पृथक् चुनाव मंडल और साम्प्रदायिकता -

मार्ले-मिण्टों सुधार, 1909 के द्वारा मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मण्डल की व्यवस्था ने भारत में साम्प्रदायिकता की आग को और अधिक प्रज्वलित कर दिया। पृथक निर्वाचन मण्डल का अर्थ चुनाव क्षेत्रों, मतदाताओं और निर्वाचित उम्मीदवारों को धर्म के आधार पर समूहों में बॉंटना था। व्यवहारिक रुप से इसका अर्थ भिन्न मुस्लिम चुनाव क्षेत्र, मुस्लिम मतदाता और मुस्लिम उम्मीदवार की प्रथा आरंभ करना था। इसका एक अर्थ यह भी था कि गैर-मुस्लिम मतदाता मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए मतदान नहीं कर सकते थे। 1909 के मार्ले-मिंटो सुधारों ने अलग चुनाव-मंडल तथा केंद्रीय व प्रांतीय विधायिकाओं में मुसलमानों के लिए आबादी में उनके अनुपात से कहीं बहुत अधिक संख्या में सीटों के आरक्षण का प्रावधान करके भारतीय मुसलमानों की अलग राजनीतिक पहचान को एक आधिकारिक वैधता प्रदान की। अलग चुनाव-क्षेत्रों में सभी मतदाता एक ही धर्म के माननेवाले होते थे, जिससे जमकर सांप्रदायिक आधार पर चुनाव का प्रचार किया जाता था। भारत सचिव लार्ड मार्ले ने वायसराय मिंटो को लिखा था - “पृथक् निर्वाचन क्षेत्र बनाकर हम ऐसे घातक विष के बीज बो रहे हैं, जिनकी फसल बड़ी कड़वी होगी।”

पृथक निर्वाचन मंडल की प्रक्रिया आरंभ करने के पीछे अंग्रेजों की सोच यह थी कि भारतीय समाज भिन्न हितों और समूहों का एक जमघट है और यह बुनियादी रुप में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बॅटा हुआ है। इसका उद्देश्य अपने संभावित सहयोगियों के हाथ मजबूत करना और हिन्दू-मुस्लिम एकता न होने देना था। इसलिए डा0 राजेन्द्र प्रसाद अपनी पुस्तक ‘‘इण्डिया डिवाइडेड‘‘ में लिखते है कि - भारत के विभाजन की शुरूआत वास्तव में 1909 के मार्ले-मिण्टो सुधार से ही प्रारंभ हो गया।

यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि मुहम्मद अली जिन्ना ने पृथक् प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को भारत के राजनीति रूपी शरीर में बुरी नीयत से प्रविष्ट किया गया विषैला तत्त्व’ बताया। जिन्ना ने 1906 में कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के मंच से ‘मुसलमानों के लिए अलग प्रतिनिधित्व अथवा विशेष सुविधाओं, जिनकी माँग आगा खाँ आदि ने अंग्रेजों के समक्ष रखी थी, का विरोध किया। 1906 ई0 के बाद जिन्ना ने जितनी जनसभाएं कीं, उनमें राष्ट्रीय एकता पर ही बल दिया, जिसके कारण सरोजनी नायडू ने उन्हें ’हिन्दू-मुस्लिम एकता के राजदूत’ (Ambassador of Hindu Muslim Unity) की संज्ञा दी थी।

सांप्रदायिकता की दिशा में मोहम्मद अली जिन्ना का पहला कदम बिना उनकी इच्छा के उठा, जब वे पृथक मतदाता मंडलों की व्यवस्था के तहत बंबई से केंद्रीय विधान परिषद के मुसलमान सदस्य चुने गये। 1913 में जिन्ना मुस्लिम लीग में सम्मिलित हो गये। इस प्रकार 20वीं सदी के पहले दशक के बाद विभिन्न कारणों से मुस्लिम युवा वर्ग में आधुनिक और परिवर्तनवादी विचारों का प्रवेश हुआ। 1911 में बंगाल विभाजन की निरस्तीकरण जैसे कार्यों से प्रथम विश्वयुद्ध के पहले ही नये मुस्लिम मध्य वर्ग में भी राजनीतिक परिपक्वता आ रही थी। मौलाना अबुल कलाम आजाद ‘अल-हिलाल’ (1912) के माध्यम से बुद्धिवादी और राष्ट्रीय विचारों का प्रचार कर रहे थे। पढ़े-लिखे मुसलमानों को लगने लगा था कि अंग्रेजों का पिट्ठू बनकर रहना मुसलमानों के व्यापक और दीर्घकालीन हित में नहीं है। 

डॉ. अंसारी, मौलाना मोहम्मद अली, हाकिम अजमल खां जैसे प्रखर मुस्लिम नेता, जो सैयद अहमद खान के अलीगढ आंदोलन की प्रशंसा करते हुए भी विश्वास करते थे कि मुसलमानों को अंग्रेजी सरकार से नजदीकियां त्यागकर राष्ट्रीय आंदोलन का भाग बनना चाहिए, कांग्रेस के साथ समझौता करना चाहते थे। 

लखनऊ समझौता, 1916 और साम्प्रदायिकता -

1911 के बाद अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं के प्रभाव के कारण मुसलमानों की ब्रिटिश शासन के प्रति राजभक्ति के दृष्टिकोण में परिवर्तन होने लगा और 1913 ई0 में मुस्लिम लीग ने अपने संविधान में परिवर्तन करके अपना उद्देश्य भारत में औपनिवेशिक स्वशासन की मॉंग करना निश्चित किया। इस प्रकार कांग्रेस और मुस्लिम लीग की नीतियों में निकटता बढने लगी और दोनों में समझौता की बातचीत अक्टूबर 1915 से प्रारंभ हो गयी। तिलक की मध्यस्थता से अन्ततः 1916 में मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच लखनऊ अधिवेशन में समझौता हो गया जिसे हम लखनऊ समझौता के नाम से जानते है।

वास्तव में लखनऊ समझौता, 1916 कांग्रेस और मुस्लिम लीग द्वारा एक समझौते पर पहुॅचने का प्रयास था और यह एक राजनीतिक मोलभाव का परिणाम था। मुस्लिम लीग का समर्थन प्राप्त करने के लिए एक अस्थायी प्रबन्ध के रूप में कांग्रेस ने पृथक निर्वाचन मण्डल की मॉंग मान ली जिसका कांग्रेस अबतक विरोध करती आ रही थी। जबतक भारतीयों की शासन में भागीदारी न देने की ब्रिटिश नीति बरकरार थी, तबतक प्रतिनिधित्व के साम्प्रदायिक आधार का कोई विशेष महत्व नही था, परन्तु अगस्त 1917 ई0 के बाद स्थिति बदल गई। 1917 ई0 में पहली बार ब्रिटिश सरकार ने शासन में भारतीयों को क्रमशः उत्तरदायित्व देने की नीति की घोषणा की और कालान्तर में 1919 के भारत शासन अधिनियम द्वारा मुसलमानों को लखनऊ समझौते की तुलना में अधिक रियायते दी गई जिससे लखनऊ समझौते का कोई अर्थ नही रहा। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि लखनऊ समझौता नेताओं के बीच समझौता था न कि जनता के बीच का। कांग्रेस-लीग के समझौते को गलत रुप में हिन्दू-मुस्लिम समझौते का नाम दिया गया। इसके पीछे समझ यह थी कि मुस्लिम लीग मुसलमानों की असली प्रतिनिधि है। 

इस प्रकार पृथक निर्वाचन के सिद्धान्त को स्वीकार कर कांग्रेस ने वास्तव में साम्प्रदायिकता की राजनीति को स्वीकार कर लिया और मुस्लिम लीग को अप्रत्यक्ष रूप से मुसलमानों के प्रतिनिधि संस्था के रूप में मान्यता प्रदान कर दी जिससे औपनिवेशिक भारत में एक नये प्रकार की साम्प्रदायिकता का विकास हुआ।

खिलाफत आन्दोलन और हिन्दू-मुस्लिम दंगे -

1919 के प्रारंभ के महीनों में भारतीय मुसलमान प्रथम विश्व युद्ध में पराजित तुर्की के भविष्य को लेकर बहुत ही उद्वेलित हो उठे। ब्रिटिश सरकार पर तुर्की के साथ की जाने वाली संधियों में न्यायोचित व्यवहार सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त दबाव डालने के उद्देश्य से भारतीय मुसलमानों के एक बहुसंख्यक वर्ग ने राष्ट्रीय स्तर पर जिस आंदोलन का सूत्रपात किया, वह खिलाफ़त आंदोलन के नाम से जाना गया। खिलाफ़त का प्रश्न मुसलिम समुदाय को क्यों इतनी व्यापकता से प्रभावित कर सका - इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ने के लिए हमें भारतीय मुसलमानों की अंतर्निहित धार्मिक मान्यताओं को समझना होगा। समकालीन परिस्थितियों में तुर्की के प्रति भारतीय मुसलमानों की एक विशेष आस्था थी। तुर्की का सुल्तान न केवल प्रभावशाली अतीत का प्रतीक था, वह मुसलिम विश्व का धार्मिक खलीफ़ा मी था। आम मुसलमान के लिए वह पैगंबर मुहम्मद का उत्तराधिकारी था जिसे वे अपना अध्यात्मिक नेता मानते थे। इसके अतिरिक्त वह अरब प्रदेश में स्थित पवित्र स्थानों का संरक्षक था। ये पवित्र स्थान मक्का, मदीना यरूशलम और स्वयं कुस्तुनतुनिया थे। तुर्की के साम्राज्य के नष्ट हो जाने पर इन स्थानों का गैर-इस्लामी हाथों में पड़ने की कल्पना ने भारत के मुसलमानों को शासन के विरुद्ध एक सूत्र में बाँध दिया।

खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व दिसंबर 1919 तक बंबई के प्रमुख मुस्लिम व्यवसाथियों के हाथ में था, जहाँ पर 19 मार्च 1919 को एक खिलाफत कमेटी का निर्माण किया गया और 17 अक्टूबर 1919 को ’खिलाफत दिवस’ के रूप में भगाने का निश्चय किया गया। महात्मा गाँधी मे रौलट बिल के आंदोलन के समय से खिलाफत के प्रश्न पर हिदू-मुसलिम एकता का स्वर्णिम अवसर माना था। आल इंडिया खिलाफत कॉन्फरेंस ने 23-24 नवंबर को अपनी बैठक में ब्रिटेन में बनी हुई वस्तुओं का बहिष्कार और शांति-सन्धियों के संबंध में बनाए जाने वाले उत्सवों के बहिष्कार का निर्णय लिया परंतु गाँधी के विरोध के कारण विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का प्रस्ताव वापस ले लिया गया।

अली बंधुओं- शौकत अली और मुहम्मद अली के प्रयासों से खिलाफत आंदोलन का तीव्रतर आयाम प्रारंभ हुआ और इसी बीच जब प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्की साम्राज्य को खण्ड-खण्ड कर दिया गया तो तमाम विरोध के वावजूद खिलाफत के प्रश्न पर असहयोग आंदोलन प्रारंभ करने का निश्चय किया गया। कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए एक उपसमिति की स्थापना की गई, जिसके अध्यक्ष स्वयं गाँधी थे। सितंबर 1920 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में गांधी के नेतृत्व में एक असहयोग आंदोलन प्रारंभ करने का निश्चय किया गया।

1921 का वर्ष भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में एक नई जागृति और चेतना का वर्ष है जिससे समाज का हर वर्ग प्रभावित था। जहाँ तक मुसलमानों का प्रश्न है, खिलाफ़त के प्रश्न पर उनको बहुत बड़ी संख्या में सम्मिलित कराने में उलेमा वर्ग की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। परंतु सामाजिक दृष्टि से लगभग धर्मांध और रूढ़िबादी इस वर्ग द्वारा नेतृत्व प्रदान करने के कुछ दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम भी निकले। ये परिणाम हमें हिजरत और मोप्पला विद्रोह की घटनाओं में स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। 1920 में मौलाना आजाद ने एक फ़तवे से ब्रिटिश शासन को काफ़िरों का शासन मानते हुए भारत को दारुल हर्ब (युद्ध का स्थान) घोषित कर दिया। 

खिलाफत आंदोलन द्वारा धर्मांधता उभारे जाने के कारण दक्षिण भारत में मालाबार के पश्चिमी किनारे पर भीषण हत्याकांड हुआ, जिसे मोपला विद्रोह कहते हैं। मोपला इस क्षेत्र के निम्न हिंदू जातियों के वंशज थे, जिन्होंने अर संपर्क के काल से ही इस्लाम स्वीकार कर लिया था। आर्थिक दृष्टि से वे किसान थे और इनका शोषण ब्रिटिश नीतियों से लाभान्वित नम्बूदिरी जमींदार और नायर साहूकार वर्ग करता था। पहले भी मोपला अपनी दयनीय स्थिति के विरूद्ध विद्रोह कर चुके थे और 1921 के प्रारंभ में खिलाफ़त-समर्थक मालाबार पहुंचे और मोपला, जिनकी दृष्टि में ब्रिटिश शासन और हिंदू शोषक वर्ग में कोई अंतर नहीं था, भड़क उठे उन्होंने प्रारंभ में तो पुलिस और सेना पर आक्रमण किया, परंतु उनके क्रोध के शिकार सबसे अधिक उनके हिंदू पड़ोसी हुए। बहुत से हिंदुओं को बलपूर्वक मुसलमान बना दिया गया और उनके मंदिरों और दुकानों को लूट लिया गया। विशेषकर महिलाओं के विरुद्ध अत्याचार किए गए। नवंबर 1921 तक सेना की सहायता से विद्रोह को कुचल दिया गया, उस समय तक 3,000 मोप्पला किसानों ने अपने प्राण खोए। हिंदू-मुसलिम एकता की भावना पर इस विद्रोह का प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

चौरी-चौरा घटना को लेकर फ़रवरी 1922 में गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया जिससे खिलाफ़त समर्थकों को इससे विशेष हताशा हुई और मार्च 1922 में सेंट्रल खिलाफ़त कमेटी में गाँधी के निर्णय की भर्त्सना की गई। तुर्की में हो रहे घटनाचक्र के क्रम में 3 मार्च 1924 को तुर्की के सुल्तान को वहाँ से निष्काषित कर दिया गया और खलीफा का पद ही समाप्त कर दिया गया। इस घटना ने खिलाफ़त आंदोलन की कमर तोड़ दी और मुसलिम नेतृत्व कई टुकड़ों में विभक्त हो गया। खिलाफ़त आंदोलन में जो वर्ग धार्मिक पक्ष से बहुत प्रभावित था, उसकी दूरी कांग्रेस नेतृत्व से बहुत बढ़ गई और धीरे-धीरे वह सांप्रदायिकतावादी हो गया। एक अन्य वर्ग ’नेशनलिस्ट मुस्लिम‘ के नाम से कांग्रेस में शामिल हो गया। इसमें हकीम अजमल खाँ, टी० ए० शेरवानी, मौलाना आजाद, एम० ए० अंसारी का नाम आता है। इस प्रकार खिलाफत आन्दोलन के समाप्त होने के बाद हिन्दू-मुस्लिम एकता समाप्त हो गई और उसका स्थान साम्प्रदायिक हिंसा ने ले लिया। 1922 से 1926 के मध्य 88 दंगों का होना जिसमें लगभग 400 मौतें हुई, साम्प्रदायिकता की भयावहता का पर्याप्त प्रमाण है।

राजनीतिक संरचना और साम्प्रदायिकता का उभार -

1920 के दशक में संप्रदायवाद की वृद्धि का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण 1919 के बाद की राजनीतिक संरचना में निहित था। मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों ने मताधिकार को विस्तृत किया था, किंतु अलग निर्वाचकमंडल न केवल बरकरार रखे गये थे, बल्कि उनमें वृद्धि भी की गई थी। स्वार्थी राजनीतिज्ञों ने गुटपरस्त नारों के माध्यम से अपने लिए समर्थन बढ़ाये और अपने धर्म, क्षेत्र या जाति से संबद्ध समूहों को लाभ पहुंचाने का प्रयास किये। 1920 के दशक में शिक्षा का तो पर्याप्त प्रचार-प्रसार हो चुका था, किंतु उसी अनुपात में नौकरियों के अवसरों में वृद्धि नहीं हुई थी। 4 फरवरी, 1922 के चौरीचौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन के स्थगन के साथ ही अवसरवादी हिंदू-मुस्लिम गठजोड़ भी समाप्त हो गया, और सांप्रदायिकता को अपना सर उठाने का अवसर मिला। 1922-23 के मध्य मुस्लिम लीग एव हिंदू महासभा जैसे सांप्रदायिक संगठन पुनः सक्रिय होकर सांप्रदायिक राजनीति में कूद पड़े। हिंदू महासभा की स्थापना 1915 में पं0 मदनमोहन मालवीय एवं कुछ पंजाबी नेताओं ने हरिद्वार में कुंभ मेले में की थी।

1922-23 में हिंदू महासभा का बड़े पैमाने पर पुनरुत्थान हुआ। हिंदू महासभा के अगस्त, 1923 के बनारस अधिवेशन में शुद्धि का कार्यक्रम सम्मिलत था और हिंदू आत्मरक्षा जत्थों के निर्माण का आह्वान किया गया था। आर्यसमाजियों ने मोपलों द्वारा बलपूर्वक हिंदुओं को मुसलमान बनाने के बाद शुद्धि आंदोलन शुरू किया था। स्वामी श्रद्धानंद के नेतृत्व में आर्यसमाज ने 1923 के बाद पश्चिमी संयुक्त प्रांत में मलकान राजपूतों, गुर्जरों और बनियों को पुनः हिंदू बनाने के लिए शुद्धि आंदोलन को आरंभ किया, जो मुसलमान बना लिय गये थे। मुसलमानों ने शुद्धि और संगठन के जवाब में ‘तबलीग’ और ‘तंजीम’ आंदोलन शुरू किये।

भारत में दंगों की शुरूआत 1870 के दशक में आर्यसमाज के गौरक्षा आंदोलनों से हुई थी, किंतु 1920 के दशक में सांप्रदायिकता के पुनरुत्थान के कारण दंगों की आवृत्ति में भी विस्तार हुआ। सितंबर, 1924 में पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत (कोहट) में एक हिंदू-विरोधी दंगा हुआ, जिसमें 155 लोग मारे गये। कोहट दंगों के बाद सितंबर, 1924 में दिल्ली में मुहम्मद अली के घर रहकर गांधीजी के 21 दिन का उपवास किया। गांधीजी ने 26 सितंबर से 2 अक्टूबर, 1924 तक नेताओं की ‘एकता सभा‘ की और एक ‘केंद्रीय राष्ट्रीय पंचायत’ का गठन किया। 29 मई, 1924 को यंग इंडिया’ में गांधी ने एक बड़ी प्रासंगिक बात कही थी-  “गाय की जान बचाने के लिए मनुष्यों की जान लेना बर्बर अपराध है।” 1924 के लाहौर अधिवेशन में जिन्ना की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग ने ऐसे संघ की माँग की जिसमें मुसलमान बहुल क्षेत्रों को “हिंदुओं के प्रभुत्व” से बचाने के लिए पूर्ण प्रांतीय स्वायत्तता प्राप्त हो। जिन्ना की यह माँग अलग निर्वाचकमंडलों के अतिरिक्त थी और 1940 में पाकिस्तान की अलग माँग उठाने तक मुस्लिम लीग का यही मूलभूत नारा रहा।

1925 में नागपुर में तिलक के एक पुराने सहयोगी मुंजे के अनुयायी के0बी0 हेडगेवार ने मुस्लिम लीग के समानांतर अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक दल जैसे संगठनों का विस्तार करना शुरू कर दिया। 1925 के बाद सांप्रदायिक वातावरण के दबाव में स्वराज्यवादी दो गुटों में बँट गये- मदनमोहन मालवीय ने मोतीलाल नेहरू के विरुद्ध अपनी कटु प्रतिद्वंद्विता में लाला लाजपत राय और एन0सी0 केलकर के साथ मिलकर स्वतंत्र कांग्रेस पार्टी बनाई, जो हिंदू महासभा का ही मोर्चा था। बंगाल में 1926 में चितरंजन दास का हिंदू-मुस्लिम पैक्ट भी रद्द कर दिया गया। आरंभ में कांग्रेस के साथ सहयोग करनेवाले अली बंधुओं ने कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह हिंदू सरकार स्थापित करना चाहती है।

1926 में कलकत्ता, ढाका, पटना और दिल्ली में दंगे हुए जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये और 1926 में स्वामी श्रद्धानंद की भी हत्या हो गई। साइमन कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार 1922 से 1927 के बीच लगभग 112 बड़े सांप्रदायिक दंगे हुए। इस दौर के सांप्रदायिक दंगो में बार-बार दोहराये जानेवाला एक ही मुद्दा था- मुसलमान चाहते थे कि मस्जिदों के आगे बाजा न बजाया जाये और हिंदू चाहते थे कि गोकशी बंद की जाये। राष्ट्रवादी नेतृत्व ने समझौता- वार्ता के जरिये सांप्रदायिक राजनीति की शक्तियों से निपटने का प्रयास किया।

साइमन कमीशन और सांप्रदायिकता (Simon Commission and Communalism) -

साइमन कमीशन के बहिष्कार के अवसर पर भारत में एक बार पुनः हिंदू-मुस्लिम एकता के आसार नजर आये और कई सर्वदलीय राष्ट्रीय सम्मेलनों के बाद देश का एक सर्वसम्मत संविधान बनाया गया। दिसंबर, 1927 में दिल्ली में मुस्लिम नेताओं ने जिन्ना के नेतृत्व में एक चार सूत्रीय माँगपत्र ’दिल्ली प्रस्ताव‘ पेश किया। मुस्लिम नेताओं ने ‘दिल्ली प्रस्ताव’ में माँग की कि सिंध को एक अलग राज्य बनाया जाए, केंद्रीय विधायिका में मुसलमानों को 33 प्रतिशत से अधिक प्रतिनिधित्व दिया जाये, पंजाब तथा बंगाल में प्रतिनिधित्व का अनुपात आबादी के अनुसार तय किया जाये और साथ ही अन्य प्रांतों में मुसलमानों का वर्तमान आरक्षण बना रहे।

किंतु कांग्रेस ने जिन्ना के चार सूत्रीय प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया। नेहरू रिपोर्ट दिसंबर, 1928 में कलकत्ता के सर्वदलीय सम्मेलन में अनुमोदन के लिए प्रस्तुत की गई। यद्यपि नेहरू रिपोर्ट को सभी दलों की समिति ने तैयार किया था, किंतु मुस्लिम संप्रदायवादियों, हिंदू महासभा और सिख लीग ने भी इस रिपोर्ट का तीखा विरोध किया। मुहम्मद शफी के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग ने प्रारंभ से ही नेहरू कमिटि का बहिष्कार किया और जिन्ना जैसे राष्ट्रवादी मुसलमानों ने नेहरू रिपोर्ट को ‘हिंदू हितों का दस्तावेज’ बताते हुए “हिंदुओं-मुस्लिमों के अलग-अलग रास्ते” का नारा दिया। 1928 में शौकतअली ने बड़ी ही निराशा के साथ कहा था कि कांग्रेस हिंदू महासभा की एक दुमछल्ला बन चुकी है।

नेहरू रिपोर्ट की प्रतिक्रिया में मार्च, 1929 में जिन्ना ने मुसलमानों के विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए एक चौदह सूत्रीय माँग-पत्र तैयार किया, जिसे ‘जिन्ना के चौदह सूत्री प्रस्ताव‘ के नाम से जाना जाता है। इस प्रस्ताव पर एक सर्वदलीय बैठक का आयोजन हुआ जिसमें इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया। अब मुस्लिम लीग और आक्रामक होकर कांग्रेस पर मुस्लिम-विरोधी होने का आरोप लगाने लगी और मुस्लिमों को धार्मिक आधार पर लामलबंद करने लगी। इस प्रकार संप्रदायवादियों से बातचीत या समझौता कर सांप्रदायिक समस्या का हल निकालने की रणनीति पूर्णतः विफल हो गई। फिर भी, 1920 के दशक में सांप्रदायिक दलों और समूहों के काफी सक्रिय रहने के बावजूद सांप्रदायिकता भारतीय समाज में व्यापक रूप से नहीं फैली थी। सांप्रदायिक झगड़े मुख्यतः शहरों तक सीमित थे और सांप्रदायिक नेताओं को कोई व्यापक जन समर्थन नहीं मिल रहा था।

साम्प्रदायिक निर्णय, 1932 और साम्प्रदायिकता -

1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ’पूर्ण स्वतंत्रता’ का लक्ष्य निर्धारित किया और 1930 का वर्ष सविनय अवज्ञा आंदोलन का था। राजनीतिक गतिरोध को समाप्त करने के लिए लॉर्ड इर्विन की पहल पर लंदन में गोलमेज सम्मेलन बुलाया गया जिसकी मुख्य विशेषता थी- देशी रियासतों द्वारा एक संघीय संविधान के अंतर्गत केंद्र में उत्तरदायी सरकार को स्थापित करने के सुझाव का समर्थन। परंतु किसी भी संविधान के निर्माण की सबसे बड़ी बाधा सांप्रदायिक असहमति थी और वही वस्तुतः केंद्रीय संविधान के स्वरूप, अवशिष्ट अधिकारों के निर्णय-जैसे महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान असफल बना रही थी। गोलमेज सम्मेलन में मुसलिम प्रतिनिधि मंडल के ऊपर निरंतर सेवानिवृत्त भारतीय सिविल सेवा (आई०सी०एस०) के सदस्यों और भारत-विरोधी कंज़र्वेटिव पार्टी के एक वर्ग का प्रभाव बढ़ता जा रहा था और उसके साथ ही उनके रुख की कठोरता भी। सितंबर 1931 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में स्वयं गाँधी ने भाग लिया परंतु उनके भावपूर्ण भाषणों से समस्या के समाधान में कोई सहायता नहीं मिली। ब्रिटिश सरकार ने इन परिस्थितियों में अगस्त 1932 में ’कम्यूनल अवार्ड’ की घोषणा की। इस सांप्रदायिक निर्णय के अधीन मुसलिम, यूरोपियन, सिख, इंडियन क्रिश्चियन, एंग्लो-इंडियन समुदायों को विभिन्न प्रांतीय विधान सभाओं में अपने समुदाय के प्रतिनिधियों को पृथक् चुनाव प्रणाली के माध्यम से चुनने का अधिकार दिया गया। इतना ही नहीं, हिंदू जाति-व्यवस्था के उस अंग को भी, जिसे दलित वर्ग कहा जाता था, डॉ. अम्बेडकर के प्रयत्नों के कारण, अपने प्रतिनिधियों को चुनने के लिए पृथक् चुनाव प्रणाली की सुविधा दी गई। गाँधी ने इस व्यवस्था के विरुद्ध आमरण अनशन का मार्ग अपनाया, तब उनके जीवन की रक्षा के लिए ’पूना समझौता’ के द्वारा इस आपत्तिजनक अंग को सांप्रदायिक निर्णय से हटाया गया। तीसरे गोलमेज सम्मेलन में दिसंबर 1932 में एक ’पूरक’ सांप्रदायिक निर्णय द्वारा केंद्रीय विधान सभा में मुसलमानों के लिए एक-तिहाई स्थानों को सुरक्षित करने की घोषणा की गई। ब्रिटिश सरकार की इसी हिमायती नीति का परिणाम यह हुआ कि 1935 के अधिनियम में फ़ेडरल असेंबली के 250 स्थानों में मुसलमानों को 82 स्थान सुरक्षित किए गए थे। यह अनुपात कुल स्थानों का एक तिहाई था, जबकि मुसलमान कुल जनसंख्या के चतुर्थांश थे। कम्यूनल अवार्ड और पूना समझौता ने भी भारत में साम्प्रदायिकता को और बढाने का ही काम किया।

मुस्लिम राष्ट्रीयता का विकास और साम्प्रदायिकता -

प्रसिद्ध शायर और कवि इकबाल ने 1930 में इलाहाबाद मुस्लिम लीग के अध्यक्ष के रूप में भारत के अंदर चार मुस्लिम बहुल प्रांतों (पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत, सिंध और बलूचिस्तान) को मिलाकर एक ‘इस्लामिक राज’ के गठन का प्रस्ताव रखा था। अपनी कविताओं और दार्शनिक लेखों के द्वारा इकबाल ने युवा मुस्लिम वर्ग को ’इस्लामिक राज’ की स्थापना की ओर आकर्षित करना प्रारंभ कर दिया था। व्यवहारिक दृष्टि से अधिक पुष्ट और राजनीतिक दृष्टि से पृथकतावादी योजना कैंब्रिज विश्वविद्यालय के द्वारा प्रस्तुत की गई थी। 'Now and Never' शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित इस योजना का मस्तिष्क चौधरी रहमत अली था जो अपने आप को ‘पाकिस्तान आन्दोलन का जनक‘ कहता था। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के छात्र चौधरी रहमत अली ने 1934 में पाकिस्तान आंदोलन की नींव रखी और भारत के चार मुस्लिम प्रांतों- पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत, सिंध और बलूचिस्तान और कश्मीर को मिलाकर अस्पष्ट रूप से पाकिस्तान बनाने की बात की। पाकिस्तान (PAKISTAN) शब्द में ’पी’ पंजाब के लिए, ’ए’ अफगान क्षेत्र के लिए ’के’ कश्मीर के लिए, ’एस’ सिंध के लिए और ’तान’ बलूचिस्तान के लिए प्रयुक्त किया गया था।

रहमत अली के विचारों को उस समय की परिस्थितियों में अपरिपक्व मस्तिष्क की उपज माना गया। प्रारंभ में जिन्ना और भारत के अन्य राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं ने चौधरी रहमत अली के पाकिस्तान के विचार का मजाक उड़ाया, किंतु बाद में यही शब्द मुस्लिम राष्ट्रीयता आधार बन गया। धार्मिक राष्ट्रवाद के मौलिक तत्व को जीवित रखने और संचालित करने में साम्राज्यवादी अंग्रेजों तथा देशी रजवाड़ों, सामंतों और उच्च वर्गों के गठजोड़ ने मुख्य भूमिका निभाई क्योंकि राष्ट्रवाद के विकास के कारण उनका भी अस्तित्व खतरे में था।

1937 के प्रांतीय चुनाव और सांप्रदायिकता (Provincial Elections of 1937 and Communalism) -

बीसवीं सदी के तीसरे दशक के मध्य तक मुस्लिम लीग तथा हिंदू महासभा जैसे सांप्रदायिक संगठनों का जनाधार अत्यंत सीमित रहा था। 1937 के प्रांतीय चुनाव में मुस्लिम लीग 483 पृथक निर्वाचन क्षेत्रों में से केवल 109 पर विजयी रही और लीग को कुल मुस्लिम वोटों का केवल 4.6 प्रतिशत मिला। इसी प्रकार हिंदू महासभा की भी मिट्टी पलीद हो गई। पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत में लीग को एक भी स्थान नहीं मिला और वह पंजाब के 84 आरक्षित चुनाव क्षेत्रों में से केवल 2 और सिंध के 33 में से केवल 3 स्थान पर ही जीत सकी। मुस्लिम चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस का प्रदर्शन भी मामूली रहा। इसी बीच कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने मुसलमानों के साथ जन-संपर्क का कार्यक्रम प्रारंभ किया और ग़रीबी हटाने के समाजवादी कार्यक्रम में उनके सहयोग का आह्वान किया। उनके इस प्रयास को डॉ० इक़बाल ने मुसलमानों की ‘सांस्कृतिक एकता’ को समाप्त करने की योजना बताया और उन्हीं की मध्यस्थता से ’जिन्ना-सिकंदर समझौता’ हुआ, जिसके अनुसार पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी के मुसलिम सदस्य मुसलिम लीग के भी सदस्य बन गए। इसके तुरंत बाद बंगाल में फ़ज़लुल हक़ के नेतृत्व में और सिंध में सादुल्ला खाँ के नेतृत्व में इन विधान सभाओं के मुसलिम सदस्यों ने मुसलिम लीग की सदस्यता स्वीकार कर ली। लीग की बढ़ती हुई प्रमुखता और महत्त्व को इस काल के पत्र व्यवहारों में स्वयं प्रमुख कांग्रेसी नेताओं, जैसे गाँधी, नेहरू और सुभाष बोस, के द्वारा स्वीकार किया गया है।

मुस्लिम लीग ने कांग्रेस से प्रांतीय मंत्रिमंडलों में सीटों के निर्धारण के बारे में समझौता करने का प्रयास किया। कांग्रेस ने बड़ी बेरहमी से मुस्लिम लीग के प्रस्ताव को ठुकरा दिया और जिन्ना को सलाह दिया कि वे सत्ता में भागीदारी चाहने के पहले लीग का कांग्रेस में विलय कर दें। इस प्रकार कांग्रेस अपने मामूली प्रदर्शन के बावजूद राजनीतिक अहंकार से भर गई, जबकि उसे मुस्लिम क्षेत्रों में खड़े होने के लिए प्रत्याशी तक नहीं मिले थे। प्रांतीय चुनावों में बुरी तरह पराजित होने और कांग्रेस द्वारा दुत्कार दिये जाने के बाद जिन्ना यह प्रचार करने लगे कि कांग्रेस ब्रिटिश हुकूमत से मिलकर ’हिंदूराज’ कायम करना चाहती है और भारत से इस्लाम का नामोनिशान मिटा देना चाहती है। संप्रदायवादियों को लगा कि यदि वे अपने अस्तित्व को बचाने और राजनीतिक स्तर पर जिंदा रहने के लिए गरमवादी, जनाधारित राजनीति का सहारा नहीं लेंगे, तो धीरे-धीरे खत्म हो जायेंगे।


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