window.location = "http://www.yoururl.com"; Government of India Act, 1935 | भारत शासन अधिनियम, 1935

Government of India Act, 1935 | भारत शासन अधिनियम, 1935

 भारत शासन अधिनियम, 1935 :

भारत शासन अधिनियम, 1935 भारत में उत्तरदायित्वपूर्ण शासन की स्थापना के मार्ग में 1919 के भारत शासन अधिनियम के बाद दूसरा महत्वपूर्ण कदम था। भारत का वर्तमान सॉंवैधानिक ढॉंचा बहुत हद तक 1935 के अधिनियम पर आधारित है। दरअसल 1919 के अधिनियम से भारतीय जनता तथा राजनीतिक दल पूर्णतया असंतुष्ट थे। पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति के लिए लगातार देश में आन्दोलन चलाये जा रहे थे। 1919 के अधिनियम द्वारा ही यह निश्चय किया गया था कि अगले 10 वर्षो में इस अधिनियम कार्यान्वित रूप पर विचार करने के लिए एक आयोग नियुक्त किया जायेगा जो जॉंच-पडताल के बाद उसमें सुधारों के सम्बन्ध में सिफारिश प्रस्तुत करेगा। निर्धारित अवधि के दो वर्ष पूर्व ही 1927 ई0 में साइमन कमीशन भारत आया जिसका भारत में विरोध हुआ, फिर भी उसने अपना कार्यकाल पूरा किया और सुधारों के लिए सिफारिश किया। चूॅकि साइमन कमीशन में किसी भारतीय को शामिल नही किया गया था अतः भारतीयों ने इसका जबर्दस्त विरोध किया था और उसकी रिपोर्ट को मानने से इन्कार कर दिया। इन परिस्थितियों में भावी संविधान का प्रारूप बनाने के लिए कांग्रेस ने मोती लाल नेहरू को अधिकृत किया। लेकिन इसका कोई प्रतिफल प्राप्त नही हुआ क्योंकि नेहरू रिपोर्ट को जिन्ना की अध्यक्षता वाली मुस्लिम लीग ने खारिज कर दिया। इस प्रकार साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर विचार विमर्श करने के लिए तथा एक नये संविधान की रचना के लिए लंदन में गोलमेज सम्मेलन का आयोजन हुआ। इसके आधार पर 1933 ई0 में ब्रिटिश सरकार की ओर से नये संविधान और सुधारों के सम्बन्ध में श्वेतपत्र प्रकाशित किया गया जिसके आधार पर 1935 ई0 में भारत शासन अधिनियम पारित किया गया।

साइमन कमीशन, 1927 :

नवंबर 1927 में साइमन के नेतृत्व में एक जाँच समिति का गठन किया गया। अपने निर्धारित समय से दो वर्ष पूर्व ही इस आयोग के गठन के दो मुख्य कारण थे - 

1. इस समय भारत में सांप्रदायिक दंगे अपनी चरम पर थे और ब्रिटिश सरकार भारत की एक दयनीय छवि प्रस्तुत करना चाहती थी जिससे सत्ता के हस्तांतरण में कठिनाई उत्पन्न हो सके। 

2. 1929 ई0 में इंग्लैण्ड में चुनाव होने वाले थे, ऐसे में सत्तारूढ दल भारत के मसले को अनायास ही विपक्षी दल की झोली में नहीं छोड देना चाहता था। इस प्रकार सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में साइमन कमीशन का गठन 8 नवम्बर 1927 को किया गया लेकिन 7 सदस्यों की इस समिति का एक भी सदस्य भारतीय न था। इसके पीछे सरकारी तौर पर यह तर्क दिया गया कि चूॅंकि साइमन कमीशन की रिपोर्ट ब्रिटिश संसद के समक्ष प्रस्तुत की जानी है अतः इसके सभी सदस्यों का ब्रिटिश होना वांछनीय है। हालॉंकि यह निराधार तर्क था क्योंकि श्री सकलतवाला और लार्ड सिन्हा उस समय की भारतीय संसद में भारतीय सदस्य भी थे। ऐसी स्थिति में यदि ब्रिटिश सरकार चाहती तो सहजता से इनमें से किसी को इस आयोग में रख सकती थी। साइमन कमीशन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे -

1. प्रान्तों में सरकार के कामकाज की जॉंच करना।

2. यह जॉंच करना कि प्रतिनिधियात्मक संस्थाएॅं कितनी प्रभावशाली है।

3. भारतीय व्यवस्था में किस प्रकार का परिवर्तन लाया जाना चाहिए।

3 फरवरी 1928 को जब यह आयोग भारत पहुँचा तो कांग्रेस, मुसलिम लीग, हिंदू महासभा आदि सभी राजनीतिक दलों ने इसका पूर्ण बहिष्कार किया। भारत के जिन-जिन क्षेत्रों में साइमन कमीशन के सदस्य गये वहॉं-वहॉं आयोग का ‘‘साइमन कमीशन वापस जाओ‘‘ के नारे के साथ स्वागत किया गया। आयोग के विरोध में कई प्रदर्शन भी हुये। जगह-जगह साइमन कमीशन को काले झंडा दिखाये गये। पंजाब में इसी प्रकार के एक विशाल प्रदर्शन का नेतृत्व लाला लाजपत राय ने किया। पुलिस ने भीड को तितर-बितर करने के लिए लाठी चार्ज किया। इस दौरान घायल लाला लाजपत राय ने दहाडते हुये कहा था कि - ‘‘मेरे उपर जो लाठियॉं बरसाई जा रही है वे ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में आखिरी कील साबित होगी।‘‘ इसी प्रदर्शन के दौरान लाठी चार्ज में लाजपत राय की मृत्यु हो गयी।  तमाम विरोधों के वावजूद मई 1930 में प्रस्तुत साइमन कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसकी मुख्य बातें निम्नलिखित है -

1. प्रान्तों में द्वैध शासन की समाप्ति कर दी जानी चाहिए और स्वशासन की स्थापना की जानी चाहिए। सभी शक्तियॉं मंत्रियों को सौंप दी जानी चाहिए और व्यवस्थापिका के प्रति उŸारदाई बनाया जाना चाहिए।

2. एक संघीय सरकार की स्थापना की जानी चाहिए।

3. साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व को जारी रखना चाहिए।

4. संघीय आधार पर केन्द्रीय व्यवस्थापिका का पुनर्गठन किया जाना चाहिए।

5. आयोग ने व्यस्क मताधिकार को अव्यवहारिक करार दिया तथा सिफारिश की कि मताधिकार का विस्तार किया जायेगा तथा विधानसभा को और विस्तारित किया जायेगा।

साइमन कमीशन की रिपोर्ट को भारत के सभी तबकों द्वारा विरोध कि गया क्योंकि -

1. रिपोर्ट में औपनिवेशिक स्वराज्य (क्वउपदपवद ेजंजने) की स्थापना के विषय में कहीं भी उल्लेख तक नहीं किया गया था। 

2. केन्द्र में उत्तरदायी सरकार की स्थापना के सम्बन्ध में रिपोर्ट में कोई उल्लेख नही था।

3. रिपोर्ट में प्रान्तों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की बात तो कही गयी परन्तु गवर्नर को विशिष्ट शक्तियॉं देने की बात भी कही गई।

4. इसमें जनता की अभिलाषाओं और आकांक्षाओं की पूर्ण उपेक्षा की गई थी। इसी कारण यह भारत के किसी भी राजनैतिक वर्ग को मान्य नही थी।

इससे पहले की साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर ब्रिटिश संसद में विचार हो, ब्रिटिश सरकार ने कुछ नये प्रस्ताव रखते हुये भारत में भावी सांवैधानिक सुधारों की प्रकृति निश्चित करने के लिए एक गोलमेज सम्मेलन के आयोजन का प्रस्ताव रखा। इस रिपोर्ट की कटु आलोचना की गई तथापि इसका सबसे बड़ा गुण यह था कि इसने भारतीय राजनीति की कठिनाइयों और समस्याओं पर विस्तार से प्रकाश डाला। यह भारत की समस्याओं का बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण अध्ययन था तथा इसने राजनीतिक पुस्तकालय को एक और उच्च कोटि की रचना प्रदान की। इस रिपोर्ट की कई सिफारिशों को 1935 के भारत सरकार अधिनियम में स्थान दिया गया। 1935 में जब प्रांतों में स्वशासन स्थापित किया गया तो गवर्नरों और गवर्नर-जनरल को जो विशेष शक्तियां प्रदान की गई उनका आधार यही साइमन कमीशन रिपोर्ट थी। यह निष्कर्ष निकाला जा चुका था कि भारत में द्वैधशासन का प्रयोग पूर्णतः असफल सिद्ध हुआ है तथा भारतीयों को स्वशासन की दिशा में अग्रसर कराने की आवश्यकता है।

नेहरू रिपोर्ट, 1928 :

इसी समय भारत सचिव लॉर्ड बरकेन हैड ने भारतीयों को एक ऐसे संविधान का निर्माण करने की चुनौती दी जो सभी दलों अथवा गुटों को मान्य हो। इस चुनौती को स्वीकार करके 1928 में एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया गया। 10 मई 1928 को बंबई की दूसरी बैठक में भारतीय संविधान का मसविदा तैयार करने के लिए पं० मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में एक समिति नियुक्ति की गई। ’नेहरू रिपोर्ट’ नामक संविधान-संबंधी ब्यौरा नेहरू समिति ने अगस्त 1928 ई0 तक पूरा किया। समिति के समक्ष पहली कठिनाई राजनैतिक लक्ष्य की घोषणा के विषय में थी, यद्यपि कांग्रेस ने 1927 ई0 में ही पूर्ण राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लक्ष्य को माना था, अन्य दलों का राष्ट्रीय लक्ष्य उसे औपनिवेशिक राज्य का दर्जा (Dominion Status) प्रदान करवाने का था। समझौते के आधार पर इस सिद्धांत को अपनाया गया कि भारत को वैसा ही संवैधानिक दर्जा प्रदान किया जाए जैसा कि ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, आयरलैंड इत्यादि को प्राप्त है। एकता स्थापित करने का यही रास्ता था। कलकत्ते के स्थान पर जो राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन बुलाया गया था उसने पूर्ण स्वतंत्रता के प्रस्ताव को स्वीकार करके समिति के द्वारा तैयार संविधान को ’राष्ट्रीय विकास की ’दिशा में एक बड़ा क़दम’ बतलाया था। भारत को कॉमनवेल्थ (Common Wealth) का नाम दिया जाए। भारत में एक द्विसदनीय संसदीय प्रणाली की स्थापना की जाए। इसे देश में शांति एवं व्यवस्था स्थापित करने के लिए क़ानून बनाने का अधिकार हो तथा एक ऐसी कार्यकारिणी बनाई जाए जो संसद के प्रति उत्तरदायी हो। औपनिवेशिक राज्य के दर्जे की प्राप्ति को भविष्य में काफ़ी समय बाद के लिए नहीं छोड़ दिया गया अपितु एक अगले तात्कालिक क़दम के रूप में माना गया। समिति के समक्ष दूसरी समस्या अल्पसंख्यकों की थी। मुसलमान, जो कि अल्पसंख्यक थे, इस बात से डरते थे कि कहीं बड़ी संख्या वाले वर्ग उनका शोषण न करें। दूसरी ओर, हिंदुओं को भी बड़ी संख्या में मुसलमान जनसंख्या वाले प्रांतों से भय था। जब ब्रिटिश शासन समाप्त हो जाएगा तो सांप्रदायिक समस्याएँ कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के नेतृत्व के अंतर्गत स्वतः समाप्त हो जाएँगी, ऐसा विचार महात्मा गाँधी का था परंतु महात्मा गाँधी के विचारों से मुसलिम लीग तथा भारतीय रियासतों के नरेश भी सहमत न थे। ब्रिटेन के साथ भारत के संबंधों के विषय में वे ऐसी स्थिति चाहते थे कि दोनों देश समान समझे जाएँ और दोनों में से प्रत्येक को संबंध तोड़ देने का अधिकार होना चहिए। शायद यही औपनिवेशिक राज्य का दर्जा या डोमिनियन स्टेटस प्राप्त करने की परिभाषा थी। महात्मा गांधी ने केंद्र में भविष्य में द्वैधशासन स्थापित करने के निश्चय को रद्द करते हुए पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना पर बल दिया। भारत की भविष्य की संवैधानिक प्रणाली निर्धारित करने के विषय में कोई भी निर्णय न हो सका क्योंकि सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के विषय में जिन्ना तथा गाँधी के बीच भयंकर मनुमुटाव हो गया और अम्बेडकर ने इस समय जिन्ना का साथ दिया।

यद्यपि यह रिपोर्ट सर्वदलीय विचार-विमर्श का परिणाम थी, फिर भी मुसलिम लीग के एक नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने 1 जनवरी 1929 को मुगलमानों का एक अखिल भारतीय अधिवेशन बुलाकर मुसलमानों की मांगों को ’चौदह सूत्रों’ में प्रस्तुत किया जिसे जिन्ना के चौदह सूत्रीय प्रस्ताव के नाम से जाना जाता है। इसमें भारत के लिए संघात्मक सरकार, पृथक् चुनाव-क्षेत्रों और केंद्रीय विधान सभा में मुसलमानों के लिए 1/3 प्रतिनिधित्व इत्यादि शर्तें भी थीं। चूंकि मुसलमानों ने अपनी मांगों के द्वारा नेहरू समिति रिपोर्ट के आधारभूत सिद्धांतों को रद्द कर दिया था, अतः कांग्रेस तथा लीग के बीच एकता स्थापित होना असंभव था। इस प्रकार यह अखिल भारतीय संविधान का सुझाव असफल रहा। 

लॉर्ड इरविन की घोषणा, 1929

नेहरू रिपोर्ट की असफलता पर भी ब्रिटिश सरकार ने यह अनुभव किया कि भारतीयों की संवैधानिक माँगों की अधिक समय तक उपेक्षा नहीं की जा सकती। इस कारण तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन ने 31 अक्टूबर, 1929 को यह घोषणा की - “1917 की घोषणा से यह स्पष्ट है कि भारत को औपनिवेशिक राज्य का दर्जा मिले।“ लार्ड इरविन का यह भी कथन था कि भारतीय संविधान पर विचार करने के लिए शीघ्र ही लंदन में एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाएगा जिसमें ब्रिटिश भारत तथा देशी रियासतों के प्रतिनिधि ब्रिटिश सरकार से मिलेंगे। इस घोषणा का महत्त्व इस बात में है कि इससे पहले केवल ब्रिटिश सरकार को ही भारत के संवैधानिक विकास के संबंध में सोचने एवं निर्णय करने का अधिकार प्राप्त था, परंतु अब इस परम्परा का परित्याग करके एक सम्मेलन के द्वारा समस्या के संबंध में सोचने का कार्यक्रम अपनाया गया ।

गॉंधी-इरविन समझौता, 1931

लंदन में 1930 में जो प्रथम गोलमेज सम्मेलन हुआ उसमें अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के किसी भी प्रतिनिधि ने भाग नहीं लिया था। इसमें अन्य भारतीय सदस्यों ने डोमिनियन स्टेटस या औपनिवेशिक स्तर के राज्य की मांग की। इस सम्मेलन को केवल सांप्रदायिक मतभेदों में कुछ कमी लाने के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार की सफलता प्राप्त नहीं हुई। इस समय भारत में चल रहे सविनय अवज्ञा आंदोलन की सफलता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस के महत्त्वपूर्ण नेताओं को बिना शर्त रिहा कर दिया। महात्मा गॉंधी तथा वायसराय लार्ड इरविन के बीच 5 मार्च, 1931 को हुए समझौते के आधार पर सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया गया तथा कांग्रेस ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने का वचन दिया।

सितंबर, 1931 ई0 में प्रारंभ हुए इस सम्मेलन में कांग्रेस की ओर से महात्मा गाँधी तथा मुसलिम लीग की ओर से जिन्ना ने प्रतिनिधित्व किया। गाँधी का यह विचार था कि कांग्रेस देश के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है। एकता स्थापित करने के लिए इस कारण रिपोर्ट पर आधारित तीन प्रस्ताव प्रस्तुत किए गए। भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाया जाए तथा इसका कोई राज्य-धर्म न हो। संसद के निम्न सदन में और उन प्रांतों में जहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हों, उनके लिए स्थान सुरक्षित रखे जाएँ। उत्तर-पश्चिमी प्रांत में जहाँ हिंदू अत्पसंख्यक हैं वहाँ हिंदुओं को भी ऐसी सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। पृथक निर्वाचन-क्षेत्र की पद्धति के स्थान पर संयुक्त निर्वाचन प्रणाली अपनाई जाए। अन्य सुझाव भारतीय देशी रियासतों से संबंधित थे। डोमिनियन स्टेटस की प्राप्ति के बाद भारतीय रियासतों से संबंधित अधिकार केंद्रीय सरकार को हस्तांतरित कर दिए जाएँ। अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र के पास ही रहने दी जाएँ। संविधान की व्याख्या और न्याय के लिए एक उच्चतम न्यायालय की व्यवस्था की जाए। कूपलैंड ने ठीक कहा है - “इसने भारतीयों के द्वारा सांप्रदायिकता की कठिनाइयों को सुलझाने का सबसे स्पष्ट तरीका अपनाया था”।

1932 के अंत में बुलाया गया तृतीय गोलमेज सम्मेलन भी असफल हुआ। 1933 में व्यापक सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया गया था। गोलमेज़ सम्मेलन में हुए वाद-विवाद के आधार पर 1 मार्च, 1933 को ब्रिटिश सरकार ने एक श्वेतपत्र प्रकाशित किया जिसका नाम ’भारतीय संविधान-सुधारों के बारे में सुझाव’ रखा गया था। अप्रैल मास में ब्रिटिश संसद के दोनों सदनों की एक संयुक्त समिति का गठन किया गया जिसका सभापतित्व लॉर्ड लिनलिथगो ने किया। इस समिति का कार्य भविष्य में भारत सरकार के विषय में विचार करना था। 1934 के अक्टूबर माह में इसकी रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। यह रिपोर्ट तथा श्वेतपत्र उस भारत सरकार अधिनियम का आधार बने जो ब्रिटिश संसद के द्वारा 1935 में पास कर दिया गया था।

भारत शासन अधिनियम, 1935 की प्रमुख विशेषताएॅं :

भारत शासन अधिनियम, 1935 की प्रमुख विशेषताएॅ निम्नलिखित बताई जा सकती है -

विस्तृत और लम्बा प्रलेख - 1935 के भारत शासन अधिनियम की प्रमुख विशेषता यह थी कि यह एक लम्बा और विस्तृत प्रलेख था। इस अधिनियम के लक्ष्य के सम्बन्ध में कोई नया घोषणा नही की गई, इसका लक्ष्य वही रखा गया जो 1919 के अधिनियम का था। कोई नये प्रस्ताव जैसे पूर्ण स्वतंत्रता और औपनिवेशिक स्वराज्य के बारे में कोई आश्वासन नही दिया गया इसलिए भारतीय इस अधिनियम से भी असन्तुष्ट रहे। यह अधिनियम बहुत लम्बा और जटिल प्रलेख था जिसमें 361 धाराएॅं और 10 परिशिष्ट अर्थात अनुसूचियॉ थी। इसमें केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों के ढॉचे का विस्तृत वर्णन किया गया था। इसके अतिरिक्त एक बहुत ही जटिल संघात्मक व्यवस्था और अल्पसंख्यकों तथा विधायकों के कानून संरक्षण का प्राविधान किया गया था। इसमें कोई शक नही है कि इस अधिनियम की गणना विश्व के सबसे लम्बे और जटिल संविधानों में इसका स्थान आता है। एक प्रकार से केवल मूल सिद्धान्तों को निर्धारित न करके शासन सम्बन्धी समस्त बातों का व्यौरेवार विवरण था जिससे संविधान का आकार बढ गया।

अखिल भारतीय संघ का निर्माण - 1935 के भारत शासन अधिनियम में एक ऐसे अखिल भारतीय संघ की रचना का प्रस्ताव किया गया जो ब्रिटिश भारत के प्रान्तों और भारतीय राज्यों की पर्याप्त संख्या से मिलकर बने। इस अधिनियम में यह उपबंधित किया गया था कि ब्रिटिश प्रान्तों के लिए संघ में शामिल होना अनिवार्य  था जबकि भारतीय देशी राज्य प्रस्तावित संघ में स्वेच्छा से सम्मिलित होंगे। यह संघ 11 ब्रिटिश गवर्नर प्रान्तों, 6 चीफ कमिश्नर के प्रान्तों और देशी रियासतों से मिलकर बनना था। यह निर्णय किया गया था कि यह संघ ब्रिटिश सम्राट के द्वारा ब्रिटिश संसद के दोनों सदनों के समक्ष एक घोषणा के तुरन्त बाद ही स्थापित कर दिया जायेगा। इसके लिए भारतीय रियासतों के शासकों के द्वारा द्वितीय सदन अर्थात काउन्सिल ऑफ स्टेट में कम से कम 52 सदस्य मनोनीत किये जाय तथा जो राज्य ऐच्छिक रूप से इस संघ में सम्मिलित हो रहे है उनकी जनसंख्या अन्य ब्रिटिश राज्यों की सम्मिलित जनसंख्या से कम से कम आधी होनी चाहिए। अखिल भारतीय संघ के निर्माण के प्रस्ताव को मुस्लिम लीग का भी समर्थन प्राप्त था। श्वेतपत्र की सिफारिशों के तुरन्त बाद ही 1935 के अधिनियम में इसका प्राविधान रखा गया था। संघ में सम्मिलित होने वाली प्रत्येक रियासत के शासक को एक अंगीकार पत्र पर हस्ताक्षर करने अनिवार्य थे। इस पत्र में यह उल्लेख करना आवश्यक था कि सम्बद्व शासक कौन-कौन से विषय संघीय कार्यपालिका को सौंपने को तैयार है। संघ शासन का अध्यक्ष ब्रिटिश सम्राट/साम्राज्ञी को ही रखा गया जबकि भारतीय गवर्नर जनरल अथवा वायसराय उसके प्रतिनिधि के रूप में संघीय शक्तियों के प्रयोग में लाने का अधिकारी नियुक्त किया गया। संघ सरकार में एक संघीय कार्यपालिका और संघीय विधानमण्डल का भी प्राविधान किया गया। वास्तव में इस अधिनियम से भी ब्रिटिश संसद की प्रभुता को बरकरार रखा गया।

यहॉ यह उल्लेखनीय है कि केन्द्र के स्तर पर अखिल भारतीय संघ का निर्माण नही हो सका क्योंकि शर्तानुसार पर्याप्त संख्या में वर्तमान भारतीय नरेशों ने प्रस्तावित संघ में शामिल होना आवश्यक नही समझा। इतिहासकार आर० जे० मूर ने अनुदारवादी राजनीतिज्ञों के इस कथन की आलोचना की है कि यदि अखिल भारतीय संघ की संघ-संबंधी धाराएँ द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व लागू कर दी जाती तो भविष्य में जो भारत का विभाजन हुआ, उसकी नौबत नहीं आती। वास्तव में संघीय व्यवस्था की धाराओं में भारतीय समस्या का समाधान निहित नहीं था । इस व्यवस्था ने कांग्रेस तथा मुसलिम लीग दोनों की मांगों की आंशिक पूर्ति तक नहीं की गई थी। संघ योजना वाइसराय के द्वारा क़ानून लागू करने में निर्बलता के कारण असफल नहीं हुई थी। न ही इसकी असफलता का कारण अनुदारवादी कट्टर विरोधी दल के द्वारा इसे पास किए जाने में क़रीब एक वर्ष का समय लगा देना था। इसकी असफलता का कारण इसकी मूलभूत कमजोरियाँ थीं। भारत संघ योजना, भारत के विभाजन का विकल्प नहीं था। ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने तो सदा से ही एक ऐसी नीति का अनुसरण किया था जिससे फूट और सांप्रदायिकता का विष और भी अधिक फैले तथा भारतीय एकता चूर-चूर हो जाए। यदि ब्रिटिश संघ की योजना का लक्ष्य भारतीय एकता स्थापित करना था तो विभिन्न वर्गों के बीच मित्रता और सद्भावना को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए था। परंतु मुहम्मद अली जिन्ना जो 1934 तक एक राष्ट्रीय गुट (front) के लिए पृथक् चुनाव क्षेत्र के सिद्धांत को समाप्त करने के लिए सहमत थे, ब्रिटिश राजनीतिज्ञों से वह सम्मान प्राप्त नहीं कर सकते थे जो उनके सांप्रदायिक मित्र कर सकते थे।

शक्तियों का विभाजन और विषयों का बॅटवारा - अखिल भारतीय संघ की स्थापना के लिए इस अधिनियम द्वारा शक्तियों का विभाजन और विषयों का बॅटवारा कर दिया गया। विषयों के विभाजन के लिए तीन सूचियॉं बनाई गई- संघीय सूची, प्रान्तीय सूची और समवर्ती सूची। संघीय सूची में 59 विषय, प्रान्तीय सूची में 54 विषय और समवर्ती सूची में 36 विषय रखे गये। सशस्त्र सेनाएॅं, मुद्रा, डाक-तार, रेल, केन्द्रीय सेवाएॅं, विदेशी मामले, रेडियों एवं वायरलेस जैसे विषयों को संघीय सूची में शामिल किया गया। प्रान्तीय हित के विषय थे - शिक्षा, भूराजस्व, स्थानीय स्वशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, नहरें, जंगल, खानें, आंतरिक व्यापार, उद्योग धंधे इत्यादि। इन विषयों पर केवल प्रांतीय विधान सभा को ही क़ानून बनाने का अधिकार था। समवर्ती सूची में वे विषय रखे गए थे जिनपर संघीय तथा प्रांतीय दोनों ही विधानमंडल क़ानून बना सकते थे। यदि प्रांतीय और केंद्रीय विधान सभा के क़ानून में किसी भी प्रकार का विरोध हो जाता तो प्रांतीय कानून को रद्द कर दिए जाने का प्रावधान रखा गया। जो विषय उपर्युक्त सूचियों में सम्मिलित नहीं थे, उनके संबंध में गवर्नर-जनरल के आदेश से केंद्रीय अथवा प्रांतीय विधान सभाओं को क़ानून बनाने का अधिकार दिया गया।

इस अधिनियम के द्वारा केंद्रीय कार्यपालिका के क्षेत्र में आंशिक उत्तरदायित्व प्रदान करने के लिए शासन को दो भागों में विभक्त किया गया - आरक्षित विषय तथा हस्तांतरित विषय। आरक्षित विषयों में प्रतिरक्षा, चर्च संबंधी विषय, विदेशी मामले, तथा क़बीलों के मामले शामिल किए गए। इनका शासन गवर्नर-जनरल कुछ पार्षदों (councellors) की सहायता से अपनी मर्जी से चला सकता था। इन पार्षदों की अधिकतम संख्या 3 रखी गई। शेष सब विषय हस्तांतरित विषय थे। इनका प्रशासन गवर्नर-जनरल तथा उसके मंत्रिमंडल के अधीन रखने का प्रावधान रखा गया। निर्देश के अनुसार यह जरूरी था कि मंत्रिमंडल के सदस्य विधान मंडल में स्थाई बहुमत प्राप्त दल से संबंधित हों। ये मंत्री गवर्नर-जनरल की इच्छानुसार ही अपने पद पर रह सकते थे। मंत्रिमंडल की बैठकों की अध्यक्षता का अधिकार गवर्नर-जनरल को ही प्रदान किया गया। मंत्रिपरिषद् में, निर्देश के अनुसार, अल्पमत तथा देशी रियासतों का भी प्रतिनिधित्व आवश्यक था। आरक्षित तथा हस्तांतरित विषयों का संचालन गवर्नर-जनरल को ही सौंपा गया। उससे यह अपेक्षा की गई कि वह कार्यकारिणी के दोनों भागों में सहयोग स्थापित करेगा तथा मंत्रियों में संयुक्त उत्तरदायित्व के भाव को प्रोत्साहित करेगा। केंद्र में उत्तरदायी शासन की व्यवस्था करते समय गवर्नर-जनरल को जो विशेषाधिकार एवं विशेष उत्तरदायित्व सौंपे गए थे वे केंद्र में उत्तरदायी सरकार की स्थापना के मार्ग में बाधक सिद्ध हुए।

गवर्नर जनरल की विस्तृत शक्तियॉ - 1919 के अधिनियम की भाँति 1935 के अधिनियम के अंतर्गत गवर्नर जनरल को अत्यंत विस्तृत शक्तियां प्रदान की गईं। रक्षा, धार्मिक विषय, बाह्य मामले तथा कबीलों के विषय ऐसे विषय थे जिनका प्रशासन केवल गवर्नर-जनरल की इच्छा पर निर्भर था। इन विभागों के व्यय के विषय में केंद्रीय विधान सभा अथवा मंत्रिमंडल को किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप का अधिकार नहीं था। इन विषयों में गवर्नर-जनरल केवल भारत-सचिव के अधीन था। अन्य विषय भी गवर्नर-जनरल की इच्छा के अधीन रखे गए थे, जैसे मंत्रिमंडल के सदस्यों की नियुक्ति एवं पदच्युति, संघ सरकार के प्रशासन तथा आर्थिक परामर्शदाता की सहायता से उसके संचालन की देख-रेख, केंद्रीय विधान सभा के अधिवेशन को बुलाना, क़ानूनों की स्वीकृति की घोषणा, रेलवे-संबंधी नियमों तथा संघ सेवाओं से संबंधित नियमों का निर्माण। इनके अतिरिक्त गवर्नर-जनरल अपने व्यक्गित निर्णय के अनुसार विशेष उत्तरदायित्व के विषयों का संचालन कर सकता था - भारत अथवा इसके किसी भी हिस्से में शांति के ख़तरे को रोकना, संघीय सरकार के आर्थिक स्थायित्व तथा व्यवस्था की सुरक्षा करना, जनसेवा से संबंधित सदस्यों के अधिकारों और क़ानूनी हितों को सुरक्षित रखना, अल्ग्संख्यकों के क़ानूनी हितों की सुरक्षा करना, भेदभाव के विरुद्ध क़ानूनों के प्रति क़दम उठाना, भारतीय राज्यों तथा नरेशों के अधिकारों को सुरक्षित रखना इत्यादि। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि समस्त संरक्षणों और आरक्षणों का उद्देश्य भारत में उत्तरदायी शासन के विकास को रोकना तथा ब्रिटिश शासन को दृढ़ बनाना था।

केन्द्र में द्विसदनात्मक व्यवस्था - संघ योजना के अधीन द्विसदनीय विधानमण्डल की व्यवस्था थी। द्वितीय सदन अथवा काउंसिल ऑफ़ स्टेट में 260 सदस्य तथा निम्न सदन अर्थात फ़ेडरल एसेंबली में 375 सदस्यों का प्रावधान रखा गया। निम्न सदन की अवधि 5 वर्ष नियत की गई तथा उच्च सदन के 1/3 सदस्यों को प्रति तीन वर्ष बाद अवकाश प्राप्त करना निश्चित कर दिया गया। दोनों सदनों में स्थानों का विभाजन जनसंख्या के आधार पर नहीं किया गया था। निम्न सदन में 14 करोड़ 40 लाख जनसंख्या में ग़ैर-मुसलमानों को 105 सीटें प्रदान की गईं तथा 6 करोड़ 65 लाख मुसलमानों को 83 सीटें दी गई। सांप्रदायिक पंचनिर्णय के आधार पर भारतीय मतदाताओं को अनेक श्रेणियों और समूहों में विभक्त किया गया। मुसलमानों, सिक्खों, भारतीय ईसाइयों, ज़मींदारों, पूंजीपतियों तथा स्त्रियों, सबके लिए पृथक् चुनाव क्षेत्रों की व्यवस्था की गई। हरिजनों के संदर्भ में भी सांप्रदायिक चुनाव-पद्धति का विस्तार किया गया। इस प्रकार केंद्र में मंत्रिमंडल के लिए संयुक्त उत्तरदायित्व के सिद्धांत का पालन करना कठिन हो गया। भारतीय जनता के महत्त्वपूर्ण घटकों का एक साथ मिलकर रहना असंभव हो गया तथा भारतीय एकता को भारी आघात पहुँचा। इस कारण 1919 के अधिनियम की धाराओं के केंद्रीय कार्यपालिका अनुसार तथा विधान सभा को चलने दिया गया यद्यपि इसमें समय-समय पर परिवर्तन किए गए।

भारत परिषद की समाप्ति - 1935 के इस अधिनियम ने गृह सरकार के क्षेत्र में 1858 से स्थापित भारत-परिषद् को समाप्त कर दिया परंतु इसके स्थान पर भारत सचिव के लिए कुछ परामर्शदाता नियुक्त किए जिनकी संख्या अधिक-से-अधिक 6 तथा कम-से-कम 3 होती थी। उन विषयों पर, जो हस्तांतरित थे तथा जिनका शासन उत्तरदायी मंत्रियों को सौंपा हुआ था, भारत-सचिव के नियंत्रण में कमी कर दी गई। परंतु जो विषय गवर्नर तथा गवर्नर-जनरल की स्वैच्छिक (स्वविवेकी) शक्तियों के अधीन थे उनमें भारत-सचिव का नियंत्रण पूर्ववत् बना रहा। भारत मंत्री परामर्शदाताओं से परामर्श लेने के लिए बाध्य नही था किन्तु सार्वजनिक सेवाओं के सम्बन्ध में इसके द्वारा दिये गये परामर्श को स्वीकार करना भारत मंत्री के लिए आवश्यक था। 1935 के अधिनियम में किसी भी प्रकार का परिवर्तन अथवा संशोधन करने की शक्ति ब्रिटिश संसद के हाथ में ही केंद्रित रखी गई।

प्रान्तीय स्वायतत्ता  - प्रान्तीय स्वायतत्ता की बात इस अधिनियम की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता थी। इसके पूर्व प्रान्तों में केवल आंशिक उत्तरदायित्व था लेकिन अब प्रान्तों के प्रशासन का तरीका बदल गया। इसके तहत सभी प्रान्तीय विभागों का कामकाज निर्वाचित मन्त्रियों को देखना था। कहने के लिए तो प्रान्तीय शासन की बागडोर निर्वाचित मन्त्रियों के हाथों में थी परन्तु उसके उपर गवर्नर जनरल की नियुक्ति का प्राविधान था। संघीय सरकार अथवा केंद्रीय विधान सभा को प्रांतीय क्षेत्र के अंतर्गत विषयों के बारे में कोई भी क़ानूनी शक्ति नहीं रही यद्यपि गवर्नर के ऊपर गवर्नर-जनरल को कई क्षेत्रों में निरीक्षण की शक्तियाँ इस अधिनियम 1 के अंतर्गत प्रदान की गई। जिस क्षेत्र में स्वायत्त सरकार को लागू किया जाना था, उस क्षेत्र में ही क़ानून निर्माण संबंधी (वैधानिक) शक्तियाँ प्रदान की गई थीं। इसके अतिरिक्त प्रायः कार्यकारिणी का कार्यक्षेत्र भी वैधानिक कार्यक्षेत्र से ही संबंधित था। प्रांतों में मुख्य कार्यपालिका शक्ति गवर्नर के हाथ में केंद्रित की गई थी। गवर्नर को ऐसे विशेषाधिकार प्राप्त थे जिसके चलते वह जब चाहे तब प्रशासन को अपने हाथों में ले ले और जबतक चाहे तबतक उसपर अपना कब्जा बरकरार रखे। इस प्रकार इस नये अधिनियम में भी वास्तविक राजनीति और आर्थिक सŸा तो अंग्रेजों के ही हाथों में बनी रही। इसके अतिरिक्त प्रांतों से द्वैधशासन के अधीन आरक्षित और हस्तांतरित विषयों के अंतर को समाप्त करके प्रांतीय क्षेत्र के प्रशासन का नियंत्रण मंत्रिमंडल को सौंप दिया गया। मंत्रियों की नियुक्ति और पदच्युति के विषय में तथा उनमें कार्य-विभाजन करने के नियम गवर्नर-जनरल के मंत्रिमंडल के समान ही रखे गए थे। यह आशा की गई थी कि गवर्नर मंत्रियों के परामर्श से ही शासन चलाएँगे। यह प्रावधान रखा गया कि मंत्रियों का चुनाव विधान सभा में बहुमत दल से ही किया जाए तथा मंत्रियों में संयुक्त जिम्मेदारी की भावना जागृत हो। मंत्रिमंडल को विधान सभा के प्रति उत्तरदायी घोषित किया गया। इस प्रकार की परिपाटियों के विकसित होने से ही उत्तरदायी शासन स्थापित हो सकता था।

इन सब उदारवादी प्रावधानों के साथ-साथ ब्रिटिश सरकार की गहरी कूटनीतिक चाल ने भी अपना रंग दिखाया। ऐसा विचार प्रस्तुत किया गया था कि अनुभवहीन मंत्री संभवतः प्रशासनिक ग़लतियाँ कर बैठेंगे जिससे प्रांतीय प्रशासन में विभिन्न कठिनाइयां पैदा हो जाएँगी और उत्तरदायी शासन सफलतापूर्वक कार्य नहीं करेगा। संरक्षण और आरक्षणों की व्यवस्था करके गवर्नर को विभिन्न प्रकार की विपुल शक्तियाँ प्रदान की गई ताकि ब्रिटिश सरकार का भारत पर नियंत्रण ढीला न पड़ सके। स्वेच्छाचारी शक्तियों के अधीन अनेक विस्तृत अधिकार गवर्नर को सौंपे गए थे जिनका प्रयोग वह अपने विवेक के यह निर्णय कर सकता था कि किस विषय में उसे प्रयोग करना है अथवा व्यक्तिगत निर्णय-शक्ति का प्रयोग करना है। प्रांतीय सरकार के कार्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए नियम बनाना, मंत्रियों को नियुक्त करना अथवा पदच्युत करना और उनके वेतन नियत करना, प्रांतीय विधान सभा का अधिवेशन बुलाना, स्थगित करना तथा निम्न सदन को भंग करना, अध्यादेश जारी करना, प्रांतीय लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों की नियुक्ति करना - ये सभी अधिकार उसकी स्वेच्छाचारी शक्तियों के अधीन थे ।

विशेष उत्तरदायित्व तथा व्यक्तिगत निर्णय की शक्तियों के अंतर्गत विभिन्न अधिकार अधिनियम के अनुबंध 52 के अंतर्गत दिए गए थे। इन अधिकारों के प्रयोग में गवर्नर के लिए अपने मंत्रियों से परामर्श करना अनिवार्य था, किंतु परामर्श को स्वीकार करना अथवा अस्वीकार करना उसकी इच्छा पर निर्भर करता था। इसके अतिरिक्त कई अन्य ऐसे विषय भी थे जहाँ गवर्नर अपनी व्यक्तिगत निर्णय-शक्ति का प्रयोग कर सकते थे, विशेष शक्तियों के प्रयोग के समय प्रांत का गवर्नर, भारत के गवर्नर-जनरल के अधीन होता था। विपुल शक्तियों एवं प्रभाव के कारण गवर्नर जनरल की विशेष जिम्मेवारियाँ थीं एवं व्यक्तिगत निर्णय की शक्तियाँ प्रांत के प्रत्येक क्षेत्र पर छाई हुई थीं। मंत्रियों के परामर्श से प्रयोग में लाए जाने वाले अधिकार वास्तव में नाममात्र के ही थे। 1935 के अधिनियम ने गवर्नर-जनरल को केवल एक संवैधानिक अध्यक्ष न बनाकर उसे अत्यंत विस्तृत और वास्तविक शक्तियाँ प्रदान की थीं। यह आशा करना व्यर्थ था कि गवर्नर मंत्रियों के परामर्श के अनुसार कार्य करेंगे। गवर्नर के स्वेच्छाचारी अधिकारों और विशेष उत्तरदायित्वों ने मंत्रियों के कार्यों को पूर्णतः प्रभावहीन बना दिया था। मंत्रियों की नियुक्ति एवं पदच्युति गवर्नर की इच्छा पर ही निर्भर करती थी। प्रांतीय कार्यपालिका का निर्माण एवं उसे भंग करना गवर्नर की इच्छा पर ही आधारित था। अधिनियम के अनुच्छेद 63 के अनुसार यह घोषणा करके कि प्रांत अथवा इसके किसी भाग में संविधान असफल हो गया है तथा इसके अनुसार सरकार नहीं चलाई जा सकती, गवर्नर प्रांतीय स्वराज्य के संपूर्ण ढाँचे का अंत कर सकता था। ऐसी परिस्थिति में गवर्नर स्वयमेव प्रांत के प्रशासन को नियंत्रण में ले सकता था। मंत्रियों के हाथों में जो नाममात्र के अधिकार थे उन्हें सार्वजनिक सेवाओं ने उपहासास्पद बना दिया था। मंत्रियों का इस वर्ग पर कोई भी नियंत्रण न था। सचिवों का गवर्नर के साथ प्रत्यक्ष संपर्क रहता था जब कि उन्हें कार्य मंत्रियों के अधीन करना था। वे मंत्रियों के आदेशों और निर्णयों को परिवर्तित अथवा संशोधित करते रहते थे। दूसरे शब्दों में, इस प्रकार के अप्रत्यक्ष तरीके से गवर्नर मंत्रियों पर नियंत्रण रखते थे। इस प्रकार उन्हें अनुभवहीन और अयोग्य सिद्ध करने का सुनहरा अवसर प्राप्त होता था।

विधि-निर्माण के क्षेत्र में भी गवर्नर की शक्तियाँ अत्यंत ही विस्तृत थीं। विधान मंडल के अधिवेशन को बुलाना, स्थगित करना अथवा निम्न सदन को भंग करना, सदनों के अधिवेशन में भाषण देना, विचारार्थ विधेयक के विषय में विधान सभा को संदेश भेजना, बिल को स्वीकृति प्रदान करना अथवा सदनों को वापस भेज देना, अथवा ब्रिटिश सम्राट की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखना, विधानमंडल के कार्य-संचालन-संबंधी नियमों का निर्माण, विधान सभा में विचार-विमर्श के लिए प्रश्नों के पूछने को रोकना, यदि कोई विधेयक प्रांत की शांति के लिए संकट उत्पन्न कर सकता हो अथवा गवर्नर के विशेष उत्तरदायित्व के मार्ग में बाघा बन रहा हो तो वह इसे रोक सकता था। एक अन्य महत्त्वपूर्ण विधायी शक्ति थी, बिना विधान मंडल द्वारा पास हुए भी विधेयकों को क़ानूनी रूप प्रदान करके लागू करना। इसके अतिरिक्त गवर्नर विधान सभा के विश्रामकाल के दौरान तथा अपने स्वविवेक या व्यक्तिगत निर्णय के अधीन अध्यादेश जारी कर सकता था। आर्थिक क्षेत्र में, गवर्नर बजट तैयार करवाता था तथा उसकी अनुमति के बिना अनुदान के लिए माँग विधान सभा में प्रस्तुत नहीं की जा सकती थी। प्रांतीय सरकार की वित्तीय मांगों को विधान सभा से स्वीकार करवाना गवर्नर का ही कार्य था। विधान सभा के द्वारा किसी रकम की कटौती होने पर अथवा उसके अस्वीकृत होने पर वह अपने विशेषाधिकारों के द्वारा इन्हें पुनः स्थापित कर सकता था।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि गवर्नर प्रांतीय शासन की धुरी अथवा सर्वशक्तिमान था। प्रांत के प्रत्येक क्षेत्र के प्रशासन की सभी शाखाएँ उसी के द्वारा नियंत्रित थीं।

1935 के अधिनियम के अधीन प्रांतों में द्विसदनीय विधान मंडलों की व्यवस्था की गई। आसाम, बंगाल, बिहार, बंबई, मद्रास और उत्तर प्रदेश में द्विसदनीय विधान मंडल तथा पंजाब, मध्य प्रांत, बरार, उत्तर पश्चिमी सीमाप्रांत, उड़ीसा तथा सिध में केवल एक-सदनीय विधान मंडल की व्यवस्था की गई। द्विसदनीय विधान मंडलों में निम्न सदन को ’विधान सभा’ तथा उच्च सदन को ’विधान परिषद्’ का नाम दिया गया। विधान सभा के सभी सदस्य जहाँ निर्वाचित होकर आते थे, वहाँ विधान परिषद् के कुछ सदस्यों का गवर्नर द्वारा मनोनीत किए जाने का प्रावधान था। निर्वाचन के क्षेत्र में स्थानों को भिन्न-भिन्न संप्रदायों के आधार पर बाँटा गया, जैसे सामान्य स्थान, अनूसूचित जाति, मुसलमान, यूरोपीय, एंग्लो इंडियन, भारतीय ईसाई, जमींदार, विश्वविद्यालय के स्नातक, उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत और पंजाब के सिक्ख, मजदूर, व्यापारी और उद्योगपति, पिछड़े हुए क्षेत्र एवं क़बीले, सिक्ख महिलाएँ, मुसलमान महिलाएँ इत्यादि। इस अधिनियम में और भी अधिक हितों और वर्गों को प्रतिनिधित्व प्रदान करके चुनाव-पद्धति के द्वारा सांप्रदायिकता को और भी अधिक भड़काया गया। मतदान के लिए अथवा चुनाव लड़ने के लिए योग्यता संपत्ति पर आधारित थी तथा प्रत्येक प्रांत के संदर्भ में भिन्न थी। विधान परिषद के संबंध में केवल धनाढ्यों, राय बहादुरों, विधान मंडल के भूतपूर्व सदस्यों, मंत्रियों इत्यादि उच्च श्रेणियों के व्यक्तियों को ही मताधिकार प्राप्त हुआ। निम्न सदन के चुनाव के लिए अर्हताओं को और भी अधिक सरल बना दिया गया। इस प्रकार जहाँ 1919 के अधिनियम के द्वारा 3 प्रतिशत लोगों को मताधिकार प्राप्त हुआ था, 1935 के कानून के अंतर्गत 14 प्रतिशत जनता को मतदान का अधिकार प्राप्त हो गया। गवर्नर को दी गई इन विस्तृत शक्तियों के कारण विधान मंडल की शक्तियाँ संकुचित होकर रह गई थीं, यहाँ तक कि विधान मंडल के द्वारा अस्वीकृत विधेयक गवर्नर की स्वेच्छाचारी और व्यक्तिगत निर्णय की शक्तियों के द्वारा क़ानूनी रूप प्राप्त कर सकता था। केवल प्रतिबंधित तरीके से ही विधान सभा के सदस्य मंत्रिपरिषद् पर नियंत्रण रखने का प्रयास करते थे। वे मंत्रियों से प्रश्न और पूरक प्रश्न पूछ सकते थे अथवा उनके विरुद्ध काम रोको प्रस्ताव भी प्रस्तुत कर सकते थे सैद्धांतिक तौर पर विधान सभा को मंत्रिमंडल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करके उन्हें हटाने का अधिकार प्राप्त था। बजट के ऊपर चर्चा होती थी तथा 30 प्रतिशत व्यय के विषयों में कोई कटौती नहीं की जा सकती थी। अन्य विषयों पर यदि कटौती की जाती तो गवर्नर इस माँग को स्वीकृति प्रदान करके पुनः स्थापित कर सकता था।

1935 के अधिनियम के अधीन इसमें कोई दो राय नही है कि सदनों की व्यवस्था पहले की अपेक्षा अधिक उन्नत थी। जहाँ निम्न सदन में सभी के सभी सदस्य निर्वाचित थे, उच्च सदन में केवल कुछ ही सदस्य ग़ैर-सरकारी थे। पहले की अपेक्षा मतदाताओं की संख्या में भी महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई थी परंतु सांप्रदायिक आधार पर सदस्यता के वितरण से सदस्यगण जनता के वास्तविक हितों के प्रतिनिधि न बन सके। राष्ट्रीय एकता का आधार और भी अधिक बिखर गया था। उच्च सदन एक अनुदारवादी और प्रतिक्रियावादी सदन था जो ब्रिटिश सरकार को स्थायित्व और शक्ति प्रदान करने के लिए स्थापित किया गया था। गवर्नर एवं गवर्नर-जनरल की असाधारण शक्तियों के कारण स्वशासन की योजना वास्तविक अर्थों में निरर्थक बन गई थी।

संधीय न्यायालय की स्थापना - संघात्मक संविधान के लिए एक उच्च, निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायालय की आवश्यकता होती है जिसका कार्य संघ और संघ की विभिन्न ईकाईयों के बीच उठने वाले विवादों का फैसला करना और संविधान की धाराओं का अधिकृत निर्वाचन करना होता है। 1935 के भारत शासन अधिनियम के द्वारा यह व्यवस्था की गयी कि केन्द्र में संघीभूत ईकाईयों और संघ के झगडों का निपटारा करने के लिए एक संघीय न्यायालय होगा। 1 अक्टूबर 1937 से इस संघीय न्यायालय ने कार्य करना प्रारंभ कर दिया। इस संघीय न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा अधिक से अधिक 6 अन्य न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकता था। इसकी स्थापना के समय एक मुख्य न्यायाधीश तथा दो न्यायाधीशों को ही नियुक्त किया गया था। न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी और 66 वर्ष की आयु तक वह अपने पद पर बने रह सकते थे। यहॉं यह उल्लेखनीय है कि यह संघीय न्यायालय भारत के लिए उच्चतम न्यायालय नही था क्योंकि कुछ मामलों में अपील इंग्लैण्ड स्थित प्रिवी परिषद में की जा सकती थी।

साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली - अंग्रेजों ने ‘‘फूट डालों और शासन करो‘‘ की नीति को पहले जैसा बरकरार रखा। 1935 के भारत शासन अधिनियम द्वारा पहले की साम्प्रदायिक निर्वाचन पद्धति को न केवल जारी रखा गया अपितु उसे और अधिक विस्तारित किया गया। मुसलमानों को केन्द्रीय विधानमण्डल में ब्रिटिश भारत से लगभग 33 प्रतिशत स्थान दिया गया, हालॉंकि उनकी जनसंख्या इस अनुपात में नही थी। ईसाईयों, आंग्ल-भारतीय और युरोपियनों को पूर्ववत साम्प्रदायिक चुनाव प्रणाली द्वारा प्रतिनिधित्व दिया गया। पहली बार हरिजनों के लिए भी साम्प्रदायिक निर्वाचन पद्धति को अपनाया गया। इस नये अधिनियम द्वारा मजदूरों और महिलाओं को प्रतिनिधित्व से अलग अधिकार दिये गये। यहॉं यह उल्लेखनीय है कि साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली देश और राष्ट्रवाद के लिए हानिकारक थी लेकिन इससे मताधिकार का प्रयोग करने वालों की संख्या में वृद्धि अवश्य हुई।

रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया की स्थापना - 1935 के भारत शासन अधिनियम के अन्तर्गत भारत में एक केन्द्रीय बैंक के रूप में देश की मुद्रा व साख पर नियंत्रण रखने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की गई थी। इसकी स्थापना 1 अप्रैल 1935 ई0 को रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एक्ट 1934 के अनुसार हुई थी। प्रारंभ में इसका केन्द्रीय कार्यालय कलकत्ता था जो स्थानांतरित होकर 1937 ई0 में बम्बई आ गया। पहले यह एक निजी बैंक था किन्तु स्वतंत्रता के पश्चात 1949 ई0 में यह भारत सरकार का उपक्रम बन गया। 

अन्य विशेषताएॅं - भारत शासन अधिनियम 1935 के द्वारा बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया। अदन को इंग्लैण्ड के औपनिवेशिक कार्यालय के अधीन कर दिया गया और मध्य प्रान्त में बरार को शामिल कर लिया गया। इसके अतिरिक्त इसी अधिनियम द्वारा संघ लोक सेवा आयोग की स्थापना की गई, साथ ही प्रान्तीय लोक सेवा आयोग और दो या उससे अधिक राज्यों के लिए संयुक्त लोक सेवा आयोग की स्थापना भी की गई। 

प्रांतीय स्वायत्त सरकार की कार्यप्रणाली -

जैसा कि पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है कि अखिल भारतीय संघ वाला भाग लागू नहीं हो सका। कांग्रेस ने इस योजना का विरोध किया क्योंकि उसका यह कथन था कि यह ब्रिटिश सरकार की एक ऐसी चाल थी जिसके द्वारा वह ज़मींदार वर्ग को आगे बढ़ाकर विकासशील और संवैधानिक शक्तियों पर नियंत्रण स्थापित करना चाहती थी। लीग के नेताओं (जिन्ना) को यह भय था कि संघीय विधान मंडल में नरेशों के प्रतिनिधियों को मनोनीत करने से केंद्र में हिंदुओं का बहुमत स्थापित हो जाएगा। दूसरी ओर भारतीय नरेश स्वयं इस विषय में भयभीत थे कि संघ में शामिल होकर वे अपनी निरंकुश शक्तियों एवं विशेषाधिकारों को खो देंगे। प्रांतों के स्वशासन के विषय में मुसलिम लीग ने अपना सहयोग प्रदान किया। कांग्रेस तो 1935 के संपूर्ण अधिनियम से अत्यंत ही असंतुष्ट थी। यदि यह अधिनियम प्रथम विश्व युद्ध के तत्काल बाद प्रस्तुत किया गया होता तो स्वशासन के मार्ग में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में इसका स्वागत किया जाता। कांग्रेस ने संरक्षणों की भरपूर आलोचना करके इन्हें स्वशासन में एक बड़ी बाधा बतलाया। इस समय कांग्रेस केंद्र तथा प्रांतों में पूर्ण उत्तरदायी सरकार की मांग कर रही थी। कांग्रेस का मुख्य असंतोष केंद्र में भारतीय राज्यों के प्रतिनिधित्व के विषय में था। उन्होंने भारत के संविधान का निर्माण एक भारतीय संविधान सभा के द्वारा किए जाने की मांग की। 1935 के क़ानून को अस्वीकार करते हुए यह निश्चय किया कि वे विधान सभा के अंदर अथवा बाहर इसके प्रति समर्पित नहीं होंगे ताकि यह समाप्त हो जाए। मुसलिम लीग ने 1935 के क़ानून के अनुरूप चुनाव लड़ने का निश्चय कर लिया था। कांग्रेस में भी एक ऐसा प्रभावशाली गुट मौजूद था जिसकी यह मान्यता थी कि अधिनियम के प्रांतीय प्रावधान को लागू किया जाए जब कि 1936 में फ़ैजपुर के अधिवेशन में यह निर्णय लिया गया कि प्रांतीय विधान सभा के चुनाव 1937 में लड़े जाएँ। पद ग्रहण किया जाए अथवा नहीं, इस विषय पर कांग्रेस में एकमत स्थापित न हो सका ।

1937 ई0 में कांग्रेस ने प्रांतीय विधान सभा के चुनावों में महत्त्वपूर्ण सफलताएं प्राप्त की। विधान सभा के कुल 1,585 स्थानों में कांग्रेस ने 1,161 स्थानों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे तथा 716 स्थानों पर विजय प्राप्त की थी। इन स्थानों में से 657 स्थान सामान्य चुनाव क्षेत्र के अधीन थे। गवर्नर के अधीन 11 राज्यों में से 6 प्रांतों में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला तथा 3 अन्य में वह सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर सामने आई थी। इसके विपरीत मुसलिम लीग को 482 स्थानों में से केवल 109 स्थान प्राप्त हुए थे। दूसरे शब्दों में, वह केवल मुसलमानों के 4.8 प्रतिशत मत प्राप्त कर सकी। मुसलमानों के बहुमत वाले 4 प्रांतों में से एक भी क्षेत्र में वह बहुमत प्राप्त न कर सकी। कांग्रेस इस बात से प्रसन्न थी कि जनता ने पूर्णतः सांप्रदायिक दलों अथवा व्यक्तियों को नहीं चुना। 1937 के चुनाव के पश्चात् कांग्रेस ने मुसलमानों से उनका सांप्रदायिक दल छुड़वाने के लिए तथा एक राष्ट्रीय संस्था के अंतर्गत हिंदुओं और मुसलमानों को एक करने का बीड़ा उठाया। 1937 में वर्धा में कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने महात्मा गाँधी के आग्रह पर यह निश्चय किया कि वे कांग्रेस- बहुमत वाले प्रांतों में मंत्रिमंडलों का निर्माण करेंगे बशर्ते कि गवर्नर यह घोषणा कर दे कि वह अपनी विशेष शक्तियों के तहत हस्तक्षेप करके संवैधानिक गतिविधियों के दौरान मंत्रियों द्वारा दिए गए परामर्श की अवहेलना नहीं करेगा। जून 1937 में गवर्नर जनरल लॉर्ड लिनलिथगो ने इस विषय में सार्वजनिक घोषणा की जिसे संतोषजनक मानकर कांग्रेस ने 1937 में 6 प्रांतों (बिहार, उड़ीसा, संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत, बंबई तथा मद्रास) में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बनाए। वर्ष के अंत तक उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत में तथा 1938 में आसाम में मंत्रिमंडल बनाए गए। इन मंत्रिमंडलों को बनाने में यह खास ध्यान रखा गया कि मुसलमानों को भी इनमें उचित स्थान दिया जाए। अन्य प्रांतों में कांग्रेस ने दूसरे दलों के साथ मिलकर मिले-जुले दलों के मंत्रिमंडल बनाए जाने का तीव्र विरोध किया क्योंकि सांप्रदायिक आधार पर निर्मित मिला-जुला मंत्रिमंड जनतंत्र का एक बड़ा शत्रु है।

ग़ैर-कांग्रेसी प्रांतों में गवर्नरों ने अधिकांश मामलों में अपनी इच्छानुसार कार्य एवं हस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया। इन प्रांतों में कांग्रेस के अतिरिक्त अन्य कोई भी दल संगठित अथवा बड़ा नहीं था। बंगाल और सिंध में जो संयुक्त मंत्रिमंडल बने, वे अत्यंत ही निर्बल और इस कारण अस्थायी थे। 1943 में गवर्नर ने सिंघ के मुख्यमंत्री को उस समय पदच्युत कर दिया जब कि एक स्थायी बहुमत उसका समर्थक था। इसी प्रकार की घटना को बंगाल में भी दोहराया गया। ग़ैर-कांग्रेसी प्रांतों में गवर्नरों ने अपनी स्वेच्छाचारी शक्तियों का खुलकर प्रयोग करके मनमानी चलाई। उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत, सिंध तथा बंगाल राज्यों में विधान सभा में मुसलिम लीग की कम संख्या होने पर भी उसे असंवैधानिक तरीके से सत्तारूढ़ करने का प्रयास किया गया। पंजाब में तो स्थिति और भी अधिक असाधारण रही। प्रांत का मुख्यमंत्री यद्यपि व्यक्तिगत कार्य से 6 मास से भी अधिक अनुपस्थित रहा तो भी उसके स्थान पर किसी भी व्यक्ति को नियुक्त नहीं किया गया।

1937 से 1939 के दौरान जब तक प्रांतों में कांग्रेस सत्तारूढ़ रही, मंत्रियों ने प्रांतों की संपूर्ण उन्नति तथा जनता के लाभ के लिए सराहनीय प्रयत्न किए। किसानों को ऋण से मुक्त कराने, दुर्भिक्ष की स्थिति से अच्छी सुविधाएं देने के लिए प्रयत्न किए और इसके लिए क़ानून अत्यंत शीघ्रता से पास किए गए। मद्य-निषेध, प्राथमिक शिक्षा, ग्राम विकास आदि समस्याओं की ओर ध्यान दिया गया, कृषि विकास योजनाएँ बनाईं गई और प्रौढ़ साक्षरता अभियान प्रारंभ किया गया। ब्रिटिश सरकार के प्रवक्ताओं ने भी कांग्रेस मंत्रिमंडलों के कार्यों की सार्वजनिक सफलता की प्रशंसा की है। 1939 में ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस मंत्रिमंडल से मंत्रणा किए बिना, भारत को भी द्वितीय विश्वयुद्ध में शामिल कर लिया परिणामस्वरूप कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने यह माँग की कि ब्रिटिश सरकार युद्ध में अपने वास्तविक उद्देश्य का स्पष्टीकरण करे तथा भारत के वर्तमान और भविष्य के प्रति अपनी नीति के विषय में बतलाए। परंतु वायसराय के द्वारा दिया गया उत्तर कांग्रेस को संतुष्ट न कर सका। इस कारण, 27 अक्टूबर से 15 नवंबर 1939 तक सभी कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दे दिया। इसके पश्चात् उन राज्यों में भी गवर्नर की विस्तृत शक्तियों ने कार्य करना प्रारंभ कर दिया।

कांग्रेस के द्वारा मुस्लिम लीग को उन मंत्रिमंडलों में स्थान दिया जाना, जहाँ उसे पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ था, एक दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय बतलाया जाता है। निराश होकर जिन्ना ने यह निश्चय कर लिया कि वह मुसलिम लीग को, केवल मुसलमानों की सदस्यता के आधार पर, एक विशाल संगठित दल के रूप में स्थापित करेंगे। इस प्रकार मुसिलम लीग को एक नया जीवन प्राप्त हुआ। स्थिति का लाभ उठाकर, मुस्लिम लीग का पुनर्गठन किया गया तथा 1940 से पाकिस्तान की सार्वजनिक मांग के लिए एक व्यापक आंदोलन चलाया गया।

समीक्षात्मक मूल्यांकन -

1935 का भारत शास अधिनियम यद्यपि अपने पूर्ववर्ती अनेक अधिनियम और कानूनों की तुलना में प्रगतिशील और सुधारवादी था, फिर भी भारतीय दृष्टिकोण से इसमें अनेक दोष और कमियॉं थी। इसके द्वारा भारत की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से बहुत कम भारत को दिया गया। श्री जवाहर लाल नेहरू ने इसकी तुलना उस मोटरकार से की है जिसमें सिर्फ ब्रेक्स ही हो, पर इन्जन बिल्कुल न हो। वास्तव में यह अधिनियम सीमित राजतंत्र के स्थान पर सीमित मन्त्रिमण्डल स्थापित करनेवाला था। 

वास्तव में लिंलिथगों के इस कथन से यह स्पष्ट हो जायेगा कि भारत शासन अधिनियम, 1935 का प्रमुख उद्देश्य क्या था ? 1936 ई0 में लिंलिथगों ने कहा था कि - भारत सरकार अधिनियम, 1935 तो इसलिए पास किया गया क्योंकि हम समझते थे कि भारत पर अंग्रेजों का प्रभुत्व बरकरार रखने का सबसे बढिया तरीका यही है। भारतीयों के हित में संविधान में संशोधन करना हमारी नीति नही थी, हमारा तो प्रयास ही यही था कि जबतक संभव हो, भारत ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बना रहे।

प्रान्तीय स्वायतत्ता के पीछे भी अंग्रेजों की कुटिल चाल ही थी। वे मानते थे कि इसके चलते कांग्रेस के भीतर कई प्रभावशाली प्रान्तीय नेता पैदा होंगे जो प्रशासनिक अधिकारों को अपने ढंग से इस्तेमाल करना सीख जायेंगे। इस प्रकार कांग्रेस का प्रान्तीयकरण हो जायेगा और अखिल भारतीय केन्द्रीय नेतृत्व यदि समाप्त न हो सका तो कमजोर अवश्य पड ही जायेगा।

सारांश में यह कहा जा सकता है कि ब्रिटिश सरकार के लिए भारत एक उपनिवेश के समान था। साम्राज्यवादी ढाँचे के अंतर्गत भारत को अब एक ऐसे बाजार के रूप में काम करना था जो ब्रिटेन के लिए कच्चा माल उपलब्ध कराए और उसके तैयार माल को बेचे। साम्राज्य की सुरक्षा के लिए उसे फ़ौज तथा भारत-सचिव के ऑफ़िस के खर्चे और ऋण को चुकाना था। इस कारण, ब्रिटेन के लिए भारत के राजनैतिक नियंत्रण को बनाए रखना अत्यन्त आवश्यक था। भारत की फ़ौज संपूर्ण ब्रिटेन की साम्राज्यवादी फ़ौज का 1/2 भाग थी तथा इसकी उच्च कोटि की कार्यकुशलता भी प्रमाणित थी। भारत से प्राप्त धनराशि के कारण ब्रिटेन के करदाता नागरिक आर्थिक दबाव से बचे हुए थे। इस कारण 1917 की घोषणा में भी इस बात का ध्यान रखा गया था कि कहीं भारत के साम्राज्यवादी कर्त्तव्यों पर आँच न आए। व्यावहारिक तौर पर, प्रांतों में भारतीयों के प्रशासन चलाने के लिए घन की अधिक आवश्यकता पड़ी। अतः यह स्वाभाविक ही था कि इसका केंद्र की आर्थिक आय पर बुरा असर पड़ता। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के आर्थिक संकट ने भारत सरकार के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति आर्थिक उत्तरदायित्व निभाने के क्षेत्र में बाधाएँ उत्पन्न कीं। 1931 के पश्चात् भारत सरकार की करों से होने वाली आय में गिरावट आई तथा ब्रिटिश सरकार के लिए यह चिंता का विषय बन गया कि कहीं आर्थिक भार आम ब्रिटिश नागरिक को ही वहन न करना पड़े। यह भरसक प्रयत्न किया गया कि आर्थिक विषय और नीतियों पर ब्रिटिश सरकार का ही नियंत्रण बना रहे। 1935 के क़ानून के अंतर्गत आर्थिक सुरक्षा के हेतु गवर्नर-जनरल तथा गवर्नर को विशेष उत्तरदायित्व के अंतर्गत शक्तियाँ प्रदान की गई थीं। रिजर्व बैंक की स्थापना से आर्थिक स्थायित्व बनाए रखने का प्रयास किया गया। इस प्रकार 1935 के अधिनियम ने आर्थिक विभाग का हस्तांतरण किया था, आर्थिक विषयों का नहीं। जैसा कि एक भारतीय व्यवसायी ने लिखा था, नए संविधान के अंतर्गत भारतीय वित्त मंत्री का कार्य केवल कर एकत्र करके वाइसराय को सौंप देना था ताकि वह उसे फ़ौज, गृह खर्च, दीवानी प्रशासन इत्यादि पर खर्च करे। जब ब्रिटिश सरकार को यह भान हुआ कि वह भारत में अपने आर्थिक उत्तरदायित्व की केवल आंशिक पूर्ति ही कर सकेगी तो उसने भारत के लिए संवैधानिक सुधारों को प्रस्तुत करने के द्वार बंद कर दिए। चूंकि 1935 के अधिनियम के अंतर्गत संघीय सरकार की योजना लागू न हो सकी, इस कारण ब्रिटिश सरकार का भारत के आर्थिक प्रशासन पर आंशिक नियंत्रण बना रहा। 1920 से 1930 तक ब्रिटिश सरकार भारत को औपनिवेशिक राज्य का दर्जा प्रदान करने के लिए तैयार न थी परंतु 1937 में प्रांतों में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के द्वारा अभूतपूर्व बहुमत प्राप्त कर लेने से यह सिद्ध हो गया था कि भारत की संवैधानिक समस्या का केवल वही हल सफलतापूर्वक कार्य कर सकता है जो राष्ट्रवादियों को मान्य हो। 1942 तक ब्रिटिश सरकार ने यह समझ लिया था कि भविष्य की किसी भी संवैधानिक योजना में भारत को ब्रिटिश कॉमनवैल्थ छोड़ देने का अधिकार प्रदान किया जाना चाहिए। 1940 के प्रारंभिक वर्षों में ब्रिटेन के सोचने के तरीक़ों में परिवर्तन आया। इसी कारण अगस्त योजना और क्रिप्स मिशन योजना, 1919 और 1935 के अधिनियमों से बहुत ही भिन्न थीं।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में संवैधानिक विकास की प्रगति का निर्धारण ब्रिटिश राज्य के लिए भारत के सहयोग पर निर्भर करता था। भारत सरकार के लिए साम्राज्य के प्रति उत्तरदायित्व के अंतर्गत भारत-सचिव के आर्थिक व्यय की पूर्ति तथा ब्रिटेन की साम्राज्य सुरक्षा के हेतु शमन सेवा (फ़ौज) जुटाना अत्यावश्यक था। जैसे-जैसे ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति कर्त्तव्य में कटौती हुई वैसे-वैसे भारत में संवैधानिक विकास होता चला गया। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति उत्तरदायित्व के क्षेत्र में कटौती तथा भारत सरकार के अंतर्गत ग़ैर-सरकारी नियंत्रण में प्रगति कोई एक साधारण विकासशील पद्धति का परिणाम न थी। जैसे-जैसे अंतर्राष्ट्रीय संकटों के फलस्वरूप भारत सरकार पर आर्थिक दबाव पड़ता गया, वैसे-वैसे भारत सरकार को ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति अपने आर्थिक कर्त्तव्य में कटौती करनी पड़ी। चूंकि ब्रिटिश सरकार भारत के सीमित आर्थिक साधनों में किसी भी प्रकार की अभिवृद्धि नहीं कर सकती थी, इस कारण उसके लिए यह आवश्यक हो गया था कि भारत में जो लोग साम्राज्यवाद के प्रति उत्तरदायित्व के विरोधी थे उन्हें राजनैतिक सुधारों के द्वारा शांत किया जाए। इन सुधारों से ब्रिटिश सरकार को परिस्थिति के अनुसार भारत से जो भी लाभ मिल सकते थे उन्हें प्राप्त करने का उसने प्रयत्न किया। 

इस प्रकार इस अधिनियम द्वारा भी अंग्रेजों ने सिर्फ अपने हितों को ही देखा था। फिर भी इसका भारतीय संविधान और वर्तमान संघीय व्यवस्था पर विशेष प्रभाव पड़ा। भारत के संविधान में 1935 के अधिनियम के अधिकांश प्राविधान को सम्मिलित किया जाना इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि 1935 का यह भारत शासन अधिनियम भारतीयों के लिए अनुकरणीय था। इस अधिनियम के माध्यम से भारतीय नेताओं को सामूहिक उत्तरदायित्व पर आधारित सरकार बनाने का अवसर पहली बार मिला तथा भारत में 'मन्त्रिपरिषद' तथा 'प्रधानमंत्री' शब्द का प्रयोग पहली बार हुआ। इस प्रकार भारत शासन अधिनियम, 1935 के अधिकांश उपबन्धों को स्वतंत्र भारत के सांवैधानिक व्यवस्था में सम्मिलित किया जाना भारतीय राजनेताओं के सूझबूझ, दूरदर्शिता तथा इसकी उपलब्धियों की ओर इंगित करता है।


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