window.location = "http://www.yoururl.com"; Bhakti Movement in Medieval India | मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन

Bhakti Movement in Medieval India | मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन



विषय-प्रवेश (Introduction):

भारतीय धर्म, समाज एवं संस्कृति प्राचीन काल से ही अत्यधिक सुद्रढ़, सम्रद्ध और गौरवपूर्ण रही है। अनेक विदेशी आक्रमणकारियों ने विभिन्न कालखण्डों में भारत पर आक्रमण किये। जब-जब भी भारत पर विदेशी आक्रमण हुए या विदेशियों का शासन रहा, भारतीय संस्कृति और धर्म को बहुत ही आघात पंहुचा लेकिन हमारी संस्कृति का स्वरूप इन आक्रमणों के बाद भी अक्षुण्ण बना रहा। इस कारण उत्पन्न अव्यवस्था के कारण जब जब भारतीय धर्म और समाज में रूढ़िवाद, आडम्बर, सामाजिक बुराइयों आदि ने प्रवेश किया, तब तब धर्मसुधार नायकों ने एक आंदोलन के रूप में उन बुराइयों को दूर करने का संदेश समाज को दिया। भारत में भक्ति की एक लम्बी और सुदृढ परम्परा रही है। भक्ति की शुरुआत सर्वप्रथम दक्षिण भारत से हुई और इसमें विष्णु के उपासक संतो की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
भक्ति शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘भज’ शब्द से हुई हैं, जिसका अर्थ हैं भजना अथवा उपासना करना हैं. जब व्यक्ति सांसारिक कार्यों से विरक्त होकर एकांत में तन्मयता के साथ ईश्वर का स्मरण करता हैं, तो उसे भक्ति कहा जाता हैं एवं भक्ति करने वाले को भक्त कहा जाता हैं। भारत में भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण भारत में हुई। इससे संबंध संत आलवार (विष्णु भक्त) तथा नायनार या अड्यार (शिव भक्त) कहे जाते थे. भक्ति आंदोलन के संतों ने जातिवाद की निंदा की, कर्मकांडों तथा यज्ञों का परित्याग करने पर बल दिया, महिलाओं के सशक्तिकरण पर बल दिया तथा आम बोलचाल की भाषा में लोगों तक अपने संदेश पहुचाएं।

भक्ति आंदोलन के उदय के कारण:

मुस्लिम आक्रमणकारियों ने हिन्दुओं पर तरह तरह के अत्याचार किये। उन्होंने बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया और हजारों हिन्दुओं को मुस्लिम धर्म स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया। इसके फलस्वरूप हिन्दुओं के ह््रदय में निराशा का संचार हुआ, परन्तु इसी समय भक्ति आंदोलन के प्रादुर्भाव से हिन्दुओं में प्रभु आराधना फिर से जागृत हुई और हिन्दुओं में फिर से भगवान के प्रति आस्था व प्रेम का संचार हुआ। इस युग में हिन्दू अपनी राजनैतिक स्वतंत्रता खोकर पूर्ण रूप से इस्लामी शिकंजे में फंस चुके थे। ऐसे समय वे पराधीनता के बंधन से मुक्त होने के लिए नये मार्ग की तलाश में थे और वह मार्ग उन्हें भक्ति आंदोलन के रूप में प्राप्त हुआ। मध्य युग के धार्मिक विचारकों ने भक्ति मार्ग का प्रतिपादन किया, जो अद्वैतवाद की अपेक्षा सरल था। अतः इस मार्ग की ओर साधारण जनता ही आकृष्ट हो गई। वैदिक धर्म व ब्राह्मणवाद की शिक्षाएँ अव्यावहारिक होने के साथ साथ सिद्धांतों पर आधारित थीं जो जनसाधारण की समझ के बाहर थी। इसके अलावा इस धर्म में आडम्बरों और कर्मकांडों का ही बोलबाला था इसलिए जनता वैदिक धर्म से उब गई थी। ऐसी परिस्थिति में प्रेम मिश्रित ईश्वर भजन के आंदोलन को प्रोत्साहन मिला। मुस्लिम साम्राज्य में हिन्दुओं की प्रगति के मार्ग में अवरुद्ध हो गये थे। परिणामस्वरूप हिन्दुओं में निष्क्रियता छा गयी थी। ऐसे समय में हिन्दुओं को नये मार्ग की खोज की आवश्यकता थी परिणामस्वरूप उन्होंने भगवत भजन और आत्म चिंतन का मार्ग ढूंढ निकाला, जिसके माध्यम से उन्होंने काफी शक्ति संचित की। तत्कालीन समय में हिन्दू धर्म और समाज अनेक कुरीतियों, आडम्बरों एवं अंधविश्वासों का शिकार बना हुआ था। इसके अलावा समाज में जाति-पाति की जटिलता बहुत अधिक बढ़ गई थी तथा शूद्रों की स्थिति अत्यंत शोचनीय हो गई थी। परिणामस्वरूप अनेक धार्मिक चिंतकों व समाज सुधारकों ने भक्ति आंदोलन का प्रतिपादन कर धार्मिक व सामाजिक जटिलताओं को दूर करने का प्रयास किया गया।

भक्ति आन्दोलन के प्रमुख तत्व या विशेषताएॅ-

इस युग के भक्ति आंदोलन के संतों की यह विशेषता रही थी कि ये स्थापित जाति भेद़, समाज में फैली असमानताओं एवं कुप्रथाओं पर सवाल उठाते थे। वे अपने अनुयायियों को सीख देते थे कि हमे परमात्मा द्वारा बताएं गये मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। भक्ति परम्परा से जुड़े हुए सभी संत हर किसी से प्यार करने पर जोर देते थे। इनकी रचनाओं में बार बार यह कहा गया हैं कि न कोई ऊँचा और न कोई नीचा सभी मानव बराबर हैं।
भक्ति आंदोलन के अनुयायियों का विश्वास था कि ईश्वर एक है जिसे लोग विष्णु, राम, कृष्ण, अल्लाह आदि नामों से पुकारते है। इस सम्बन्ध में कबीर, नानक आदि संतों ने भी यही उपदेश दिया कि हिन्दुओं के ईश्वर व मुसलमानों के अल्लाह को अलग अलग विभाजित नहीं किया जा सकता हैं अर्थात वे तो एक ही है सिर्फ नाम अलग अलग हैं।
भक्ति आंदोलन के संतों ने ईश्वर भक्ति पर बल दिया हैं। भक्ति मार्ग के विचारकों का मत था कि यदि मनुष्य को मोक्ष प्राप्त करना है तो एकाग्रचित होकर श्रद्धा से ईश्वर की भक्ति में लग जाना चाहिए। भक्ति मार्ग में आत्म समर्पण के सिद्धांत को मान्यता दी गई हैं। भक्ति आंदोलन के प्रचारकों ने यह मत प्रकट किया कि मनुष्य को ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपने आप को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। मनुष्य को यही सोचना चाहिए कि ईश्वर जो कुछ कर रहा है, अच्छा ही कर रहा हैं अर्थात मनुष्य को ईश्वर की इच्छा के सामने सिर झुका देना चाहिए।
भारत में भक्ति आंदोलन के सभी संतों ने गुरु की महत्ता पर बल दिया। उनका मानना था कि बिना गुरु के मनुष्य को ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। गुरु मनुष्य की सोई हुई आत्मा को जगाकर उसे प्रेम, सेवा तथा भक्ति के मार्ग पर चलाता है। गुरु की कृपा से ही इस भवसागर को पार किया जा सकता हैं। भक्ति आंदोलन के संतों ने पाखंडों तथा आडम्बरों का विरोध किया तथा शुद्ध आचरण एवं विचारों की पवित्रता पर बल दिया। उन्होंने धार्मिक पाखंडों तथा आडम्बरों को निरर्थक बताया तथा नैतिकता एवं ह््रदय की शुद्धता पर बल दिया।
भक्ति आंदोलन के संतों ने जाति प्रथा तथा ऊँच नीच के भेदभावों का खंडन कर सामाजिक समानता पर बल दिया। इन संतों ने निम्न जाति के लोगों के को भी मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी बताया। उन्होंने घोषित किया कि भगवान के दरबार में पहुंचने के लिए उच्च जाति का होना आवश्यक नहीं हैं। बल्कि भक्तिमय ह््रदय वाला कोई भी निम्न जाति का व्यक्ति भगवान से साक्षात्कार कर सकता हैं। जात-पात पूछे नहीं कोई हरि को भजे सो हरि का होई – यह भक्ति आंदोलन का लोकप्रिय नारा था। भक्ति आंदोलनों के संतों ने हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल दिया। उन्होंने राम और रहीम तथा ईश्वर और अल्लाह में कोई भेद नहीं बताया। उन्होंने हिन्दू मुस्लिम संस्कृतियों में समन्वय स्थापित करने पर बल दिया। भक्ति आंदोलन के संतों ने साम्प्रदायिकता का विरोध किया। उन्होंने धार्मिक कट्टरता तथा संकीर्णता का खंडन कर उदार दृष्टिकोण अपनाने पर बल दिया। उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
भक्ति आंदोलन के संतों ने अपनी शिक्षाओं का प्रचार जन भाषाओं में किया ताकि जनसाधारण उन्हें सरलता से ग्रहण कर सके। जन साधारण की भाषा का प्रयोग करने के कारण भक्ति आंदोलन के सिद्धांतों का प्रचार तीव्रता से हुआ। भक्ति मार्ग के अनुयायियों ने मानव समाज के भेद भाव को भुलाकर प्राणिमात्र की एकता पर बल दिया हैं। भक्ति मार्ग के विचारकों का मानना है कि जाति-पाति व भेद भाव को भुलाकर बन्धुत्व की भावना से रहने में ही मानवता का कल्याण हो सकता हैं।
भक्ति आंदोलन के संतों ने शुभ कर्मों तथा सद्गुणों के विकास पर बल दिया। उन्होंने सत्य, अहिंसा, दयालुता, उदारता, परोपकार, दानशीलता आदि सद्गुणों को ग्रहण करने तथा काम, क्रोध, मोह, लाभ, अहंकार आदि का परित्याग करने का उपदेश दिया। उनके अनुसार ईश्वर की प्राप्ति के लिए मनुष्य को शुद्ध आचरण करना आवश्यक है और साथ ही कर्म, वचन व मन की पवित्रता भी आवश्यक हैं। भक्ति आंदोलन के अधिकांश संतों ने निवृत्ति मार्ग का विरोध किया। उनका कहना था कि भक्ति के लिए घर गृहस्थी को छोड़कर सन्यासी होना आवश्यक नहीं हैं। मनुष्य गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों का पालन करता हुआ भी शुद्ध आचरण तथा भक्ति के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त कर सकता हैं। भक्ति आंदोलन राज्याश्रय रहित आंदोलन था। भक्ति आंदोलन वास्तव में जन आंदोलन था जिसके द्वार सभी लोगों के लिए खुले हुए थे। इसके अधिकांश संत और प्रचारक निम्न जाति से थे। वे राजदरबार की कृपा पर आश्रित नहीं थे। सामान्य जनता ने भक्ति आंदोलन को पूरा पूरा सहयोग दिया।

भक्ति आन्दोलन का प्रारंभ और विकास-

ऐतिहासिक दृष्टि से भक्ति आन्दोलन के विकास को दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहले चरण के अन्तर्गत दक्षिण भारत में भक्ति के आरंभिक प्रादुर्भाव से लेकर 13वीं शताब्दी तक के काल को रखा जा सकता है और दूसरे चरण में 13वीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी तक के काल को रख सकते है। उत्तरी भारत में इसी समय यह आन्दोलन इस्लाम के सम्पर्क में आया और इसकी चुनौतियों को स्वीकार करता हुआ इससे प्रभावित, उत्तेजित और आन्दोलित हुआ। मध्यकाल से पूर्व भारत की प्राचीन धार्मिक अवस्था तथा विचारधारा पर नजर डालने पर ज्ञात होता है कि हजारों वर्ष से भारत में वेदों की स्थापना और उनकी परम्परा इतनी मजबूत रही है कि हमारे आध्यात्मिक और लौकिक कर्म उसी से संचालित होते रहे है। चूॅकि वेद हमारे जीवन पद्धति के स्रोत और समर्थक रहे है अतः भारत में जो चिन्तक विचारक ऋषि और सन्त हुए उनपर वैदिक विज्ञान का गहरा प्रभाव पडा है। कहा जाता हैं कि भक्ति परम्परा का प्रचलन महाभारत के समय भी था। जब गीता में अर्जुन से भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि तुम सभी धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओं, तब अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण भक्ति मार्ग पर चलने का उपदेश दे रहे होते है। यदि भक्त सच्चे मन से भक्ति करे तो ईश्वर कई रूपों में भक्त को मिल सकता हैं। भक्ति के लिए ईश्वर के कई रूप देखने को मिलते हैं, कहीं मनुष्य के रूप में तो कही प्रकृति के विविध रूपों में। लेकिन समय के साथ व्यवहारिक धरातल पर इस समाज में अनेक समस्याएॅ उत्पन्न हो गयी और समाज में उॅंच-नीच, छूआछूत जैसी भावनाएॅ बलवती होती गयी। बाह्य आक्रमणों ने इसे और भी विकट बना दिया। ऐसी स्थिती में बाहरी आडम्बरों तथा अर्थहीन संस्कारों में उलझे लोग अपना उद्देश्य खो बैठे। इस कठिन समय में भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने भक्ति मार्ग को अपनाते हुए विषमताग्रस्त समाज में मानव की अन्तर्निहित शक्ति को जाग्रत करने का कार्य किया। समाज की कुरीतियों और अंधविश्वासों को दूर करने के लिए उन्होने निर्मल भक्ति तथा पवित्र जीवन की बात की। उनकी वाणी में शक्ति थी, पाडित्य का बोझ नही था। उनके प्रयत्नों से सामाजिक क्रान्ति के द्वार खुल गये और उन्होने समाज को न केवल ईश्वर से परिचित कराया अपितु धार्मिक आडम्बरों और सामाजिक-राजनीतिक अत्याचारों से पीडित जनता को नवचेतना भी प्रदान किया।
यूॅ तो भक्ति आन्दोलन के प्रारंभ की तिथि निर्धारित करना असंभव है परन्तु फिर भी शंकराचार्य से हम इसकी शुरुआत मान सकते है। बौद्धों के प्रभाव को घटाने और वेदों-ब्राह्मणों की महत्ता को स्थापित करने के लिए शंकराचार्य ने अपने दर्शन में अद्वैतवाद पर जोर दिया। अद्वैतवाद का आधार है – ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है। आत्मा परमात्मा ही है वह उससे भिन्न अथवा पृथक नही है। शंकराचार्य ने ईश्वर की शिव के स्वरुप में दर्शाकर जनसाधारण के लिए शैव उपासना और ब्राह्मणों के लिए ज्ञानमार्ग द्वारा एकेश्वरवाद का मार्ग प्रशस्त किया और सगुण भक्ति का विरोध किया। परन्तु शंकर का निर्गुण ज्ञानवाद मन में बैठी निराशा से मानव को मुक्ति न दिला सका। अतः कालान्तर में चिन्तकों ने इस अद्वैतवाद का विरोध किया और चार नये मत स्थापित किये गये –
12वी शताब्दी में रामानुजाचार्य द्वारा विशिष्टाद्वैतवाद।
13वीं शताब्दी में माध्वाचार्य द्वारा द्वैतवाद ।
13वीं शताब्दी में विष्णुस्वामी द्वारा शुद्धाद्वैतवाद और
13वीं शताब्दी में ही निम्बकाचार्य द्वारा द्वैताद्वैतवाद।
ये चारों मत वैष्णव सन्तो द्वारा चलाए गये और इनमें थोडा-बहुत अन्तर होने के वाबजूद सभी की प्रवृति सगुण भक्ति की ओर ही है। वैष्णवों की सगुण भक्ति का जनसाधारण पर गहरा प्रभाव पडा लेकिन यह भी स्वीकार करना पडा कि इन वैष्णवों का भक्तिमार्ग, व्यवहारिक रुप से तात्कालीन सामाजिक-धार्मिक असमानताओं को दूर न कर सका।

मुस्लिम शासन काल में भक्ति आन्दोलन-

मध्यकालीन भारतीय इतिहास में 13वीं शताब्दी के बाद भक्ति-आंदोलन का जो रुप निर्धारित हुआ उसका तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों से काफी गहरा सम्बन्ध था। इन सभी स्थितियों के बीच एक महत्वपूर्ण तथ्य इस्लाम की राजसत्ता तथा उसके प्रति भारतीय प्रतिक्रिया भी थी। . इस्लाम के सामाजिक-धार्मिक मतवाद के साथ भारतीय सिद्धांत और चिंतन का संघर्ष नए ढंग से आरंभ हुआ। भारत की तात्कालिक प्रतिक्रिया को संभवतः निष्क्रियता का नाम दिया जा सकता है। कारण यह नहीं था कि समकालीन शासक वर्ग में कोई सुनिश्चित प्रतिरोध प्रस्तुत करने की शक्ति नहीं थी, बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि समाज ने इसकी ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया था क्योंकि भारतीय जीवन धर्मतांत्रिक ढंग से श्रेणीबद्ध तथा सामंतवादी व्यवस्था पर आधारित ग्रामीण कृषक-समाज के ढर्रे पर चलता चला आ रहा था। किंतु समय के साथ-साथ भारतीय समाज और शासक वर्ग के भीतर प्रतिक्रियाजन्य अनुभूतियों का जन्म हुआ और यहाँ के शासक तथा जनसामान्य ने इस्लाम की नीतियों के स्वरूप को जानने-पहचानने का प्रयत्न शुरु कर दिया। उसने यह भी महसूस किया कि इस्लामी धार्मिक और सामाजिक पद्धतियों और कार्यकलाप भारतीय जातिवाद पर आधारित रुढिवादी समाज के ढाँचे में किस प्रकार धीमी परंतु मजबूत गति से दरारें बना रहे हैं। ऐसी स्थिति में निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि भारतीय उच्च वर्ग की यह एक नकारात्मक ढंग की प्रतिक्रिया थी।
किंतु 14वीं तथा 15वीं शताब्दी के लगभग जनसामान्य की आस्था और भक्ति के भीतर से एक व्यापक आंदोलन उठ खड़ा हुआ जो सिंध, गुजरात तथा महाराष्ट्र से लेकर बंगाल, असम और उडीसा तक फैल गया। भारतीय इतिहास और सांस्कृतिक जीवन में यही आंदोलन भक्ति-आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन ने संतों के एक नए वर्ग को जन्म दिया जिसके अगुआ कबीर दास कहे जा सकते हैं। इन संत भक्तों ने एक ओर तो भक्ति के आधारभूत तत्वों के बीच सामंजस्य तथा सद्भाव स्थापित किया और दूसरी ओर भारतीय रहस्यवादी धारणाओं और सूफी साधना की रहस्यवादी धारणाओं के बीच सामंजस्य की सृष्टि की। इनमें रामानंद, नामदेव, कबीर, नानक, दादू, रविदास, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभ के नाम प्रमुख है। इन संत भक्तों में से अधिकांश समाज की छोटी जातियों से आए थे। इन्होंने मुस्लिम सूफियों के सिद्धांतों को अपने बहुत निकट पाया। परिणाम यह हुआ कि इन संतों और सूफियो के बीच मेलजोल काफी बढ़ता गया और भेदभाव की दीवार को ढहना पड़ा।
मध्यकाल में भक्ति का आंदोलन विराट जन-आंदोलन के रुप में प्रकट हुआ। जिन दिनों भक्ति और सूफ़ी आंदोलन का विकास हुआ, भारत का हिंदू समाज अनेक प्रकार की जातियों और संप्रदायों में विभक्त था। यह आध्यात्मिक क्षेत्र में भी एक प्रकार के अंधकार का युग था और देश अनेक प्रकार के कुसंस्कारों से पीड़ित था।
मध्ययुग के संतों ने इस कठिन समय में भक्ति-मार्ग को अपनाते हुए विषमताग्रस्त समाज में मानव की अंतर्निहित शक्ति को जाग्रत करने का कार्य किया। उन्होंने समाज को न केवल ईश्वर से परिचित कराया अपितु धार्मिक आडंबरों और सामाजिक-राजनीतिक अत्याचारों से पीड़ित जनता को नवचेतना भी प्रदान की। आचार्य रामानुज की पीढ़ी में स्वामी रामानंद पहले संत थे जिन्होंने भक्ति के द्वारा जन-जन को नया मार्ग दिखाया। उन्होंने एकेश्वरवाद पर जोर देकर हिंदू-मुसलमानों में प्रेम-भक्ति संबंध के साथ सामाजिक समाधान प्रस्तुत किया। उन्होंने अन्य आचार्यों की भांति कोरी दार्शनिकता का साथ नहीं दिया बल्कि भक्ति की सुगमता व व्यापकता पर उनका बल सर्वाधिक रहा है। उन्होंने न किसी देवता विशेष पर ध्यान केंद्रित किया और न किसी उपासना पद्धति पर जोर दिया। उन्होंने ब्राह्मणों और क्षत्रियों की उच्चता का खंडन करते हुए भक्ति के दर सबके लिए खोल दिए। परिणामतः रामानंद की विचारधारा से एक नवीन आंदोलन का आरंभ हुआ उनके बाद कबीर, नानक, दादू आदि संतों का एकमात्र ध्येय सामाजिक-धार्मिक भ्रष्टाचार मानव को मुक्त करना था।

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