दक्षिण भारत में भक्ति की साधना पद्धति के संस्थापक रामानुजाचार्य थे। इनका जन्म 1016-17 ई0 में हुआ था। रामानुज सन्यास लेने के बाद ‘यतीराजा‘ के नाम से भी विख्यात हुए। उन्होने श्रीरंग में रहस्यवाद का अध्ययन किया, ब्रह्मसूत्र, वेदान्त सार एवं वेदान्त द्वीप आदि पर टीका लिखि और 74 शिष्यों को इसके महत्व की शिक्षा दी। उन्होने मेलकोट और श्रीरंगम में मन्दिर निर्मित करवाया तथा विशिष्टाद्वैत के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। रामानुज ने मूर्तिपूजा एवं धार्मिक संस्कारों की महत्ता पर अधिक बल दिया और कहा कि विष्णु सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म है। सगुणमार्गी रामानुज के विचारों का दक्षिण भारत के निवासियों पर गहरा प्रभाव पडा और देखते ही देखते उनके हजारों शिष्य बन गये। रामानुजाचार्य भक्ति आन्दोलन के प्रथम प्रवर्तक संत माने जाते है। उसके बाद माध्वाचार्य, निम्बकाचार्य, बल्लभाचार्य एवं चैतन्य जैसे सन्तो ने उनके सिद्धान्तों को विकसित किया।
ऐसा कहा जाता है कि निम्बार्क दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के तट पर वैदूर्य पत्तन के निकट (पंडरपुर) अरुणाश्रम में श्री अरुण मुनि की पत्नी श्री जयन्ति देवी के गर्भ से मद्रास प्रान्त में तैलंग ब्राह्मण परिवार में 1250 ई0 में उत्पन्न हुए थे। श्रीनिम्बार्काचार्य की माता का नाम जयन्ती देवी और पिता का नाम श्री अरुण मुनि था। कतिपय विद्वानों के अनुसार द्रविड़ देश में जन्म लेने के कारण निम्बार्क को द्रविड़ाचार्य भी कहा जाता था। इन्हें भगवान सूर्य का अवतार कहा जाता है। कुछ लोग इनको भगवान के सुदर्शन चक्र का भी अवतार मानते हैं कतिपय विद्वानों के अनुसार द्रविड़ देश में जन्म लेने के कारण निम्बार्क को ’द्रविड़ाचार्य’ भी कहा जाता था। इनके गुरु देवर्षि नारद थे तथा नारद के गुरु श्रीसनकादि थे। इसलिये इनका सम्प्रदाय ’सनकादि सम्प्रदाय’ के नाम से प्रसिद्ध है। इनके मत को ’द्वैताद्वैतवाद’ कहते हैं। निम्बार्क का जन्म भले ही दक्षिण में हुआ हो, किन्तु उनका कार्य क्षेत्र मथुरा रहा। यह पहले व्यक्ति है जिन्होने उत्तर भारत में राधा कृष्ण की भक्ति को प्रचारित किया। इनके सिद्धान्त बडे सूक्ष्म और सरल थे और राधा कृष्ण की भक्ति द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति का ज्ञान देते थे। इसको ’सनकादिक सम्प्रदाय’ भी कहा जाता है।
उत्तर भारत के महानतम सन्तों में रामानन्द का नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय है। ‘भक्तमाल‘ ग्रन्थ के अनुसार इनका जन्म 1356 ई0 में माना जाता है तथा रामानुज की शिष्य परम्परा में इनका चौथा स्थान माना जाता है। सामान्यतया इनका जन्म 1299 ई0 में प्रयाग के आकुल ब्राह्मण परिवार में हुआ था। प्रयाग और काशी से शिक्षा प्राप्त कर वह राघवानन्द के शिष्य बन गये और इस प्रकार रामानुज सम्प्रदाय में शामिल हो गये। उन्होने द्वारिका सहित अनेक स्थानों का भ्रमण किया और अन्त में काशी को अपना निवास स्थान बनाया। रामानन्द ने जाति प्रथा का मुखर विरोध किया और अपने सम्प्रदाय में ब्राह्मण, क्षत्रिय, चमार, जाट एवं स्त्री आदि सभी को शामिल कर एक सशक्त सम्प्रदाय की स्थापना की। रामानन्द के दर्शन का मूल तत्व यह था कि ब्रह्म ‘राम‘ से विश्व की उत्पति हुई है, राम सर्वज्ञ है, शरणागतों की रक्षा करते है, वे अदुभूत शक्तिसम्पन्न है और वे ही विष्णु के रुप है। उन्होने सभी वर्ग और जाति के लोगों के लिए धर्म का द्वार खुला बताया और ‘रामोपासना‘ पर बल दिया। उन्होने ईश्वर भक्ति और सामाजिक समानता पर जोर दिया और जबरन मुसलमान बनाये गये हिन्दूओं को पुनः वैष्णव बना लिया। उनके प्रमुख शिष्यों में कबीर, धन्ना, सेना, रैदास, नरहरि, सुखा, अनन्त, नन्दा आदि प्रमुख थे। रामानन्दी आन्दोलन आगे चलकर तीन सम्प्रदायों में विभक्त हो गया – राम भक्ति, कृष्ण भक्ति और नाथ पंथी। रामानन्द से जिस नयी चेतना, स्फूर्ति और दिशा की अपेक्षा समाज को थी, अपनी शिष्य परम्परा द्वारा उन्होने 18वीं शताब्दी के अन्त तक उत्तर भारत को प्रदान किया।
दक्षिण भारत से भक्ति आन्दोलन को उत्तर भारत लाने का श्रेय रामानन्द को दिया जाता है। इन्होने बिना किसी जन्म, जाति, लिंग आदि भेदभाव के सभी के लिए भक्ति के द्वार खोल दिए। रामानन्द ने अपने उपदेश की माध्यम भाषा के रूप में हिन्दी को अपनाया ताकि उनका सन्देश पत्यक्ष रूप से जनसामान्य तक पहुँच सके। इनकी शिक्षा में जातीय बन्धन बहुत कम थे तथा शुद्रो को भी ईश्वर की दृष्टि में समान समझा जाता था। रामानन्द ने अपने आध्यात्मिक द्वार सभी जातियों के सदस्यों के लिए खोलकर हिन्दुओं के अनुदार सामाजिक व्यवहार का परित्याग कर दिया था। धर्म अब विश्वास, भावना तथा भक्ति का प्रश्न हो गया। इनकी शिक्षाओं के परिणामस्वरूप उपेक्षित वर्गों का कोई भी सदस्य बिना किसी मध्यस्थ के अपने ईश्वर तक पहुँच सकता था।
भारतीय आध्यात्मिक जीवन को इनको अनुपम देन इनको शिक्षाओं में पाई जाने वाली समन्वय की भावना है। इन्होंने उन सभी विचारों को स्वीकार किया जो हमारी आध्यात्मिक परम्परा मे सही और स्थायी महत्व का था- चिन्तन दर्शन (उत्तर) का योग और ज्ञान तथा दक्षिण के भक्ति सम्प्रदाय का पूर्ण समर्पण और वह सब कुछ अस्वीकार कर दिया जो अवास्तविक, क्षणिक, जड़ या साम्प्रदायिक था। इस आशय का एक प्रचलित पद्य है जिसका भाव यह है- “पहले द्रविड देश में भक्ति उदित हुई. जिसे रामानन्द उत्तर में लाए तथा कबीर ने उसे विश्व के सातों महाद्वीपो तथा नो भागों में प्रचारित किया।‘‘
रामानन्द ने विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के विचार ग्रहण किए। उन्हें अपने हृदय के प्रेम और भक्ति से जीवन्त बनाया तथा आध्याभिक अनुभूति के नवीन पथ का निर्माण किया। हमे उनकी आधिकाश शिक्षाओ और विचारों की जानकारी नहीं है लेकिन जिन शिष्यो को इन्होंने शिक्षा दी उनके कान्तिमय व्यक्तित्व ही इनके जीवन्त सन्देश के वाहक थे। इनका एक गीत ग्रन्थ साहिब में भी सकलित है।
हालांकि रामानन्द ने राम के प्रचलित नाम का प्रयोग किया था, फिर भी इनका ईश्वर प्रेम और दयामय ईश्वर है, जो निर्विकार हैं, वह वेदान्त का शाश्वत ब्रह्म ही नहीं है बल्कि व्यक्ति के हृदय का प्रेमी, मित्र तथा स्वामी है। जब रामानन्द को यह अनुभव हुआ कि ईश्वर एक है, वहीं सभी का जनक है, तो जाति और धर्म के सभी भेदभाव इनके लिए समाप्त हो गए और इन्होंने मानव जाति को एक बड़े परिवार के रूप में तथा सभी व्यक्तियों को बन्धु के रूप में पाया। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अपने जन्म के कारण नही बल्कि केवल अपने प्रेम तथा सहानभूति के द्वारा महान होता है इसलिए ये बिना किसी भेद-भाव के सभी को हिन्दी में उपदेश देने लगे। जिसके कारण आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्य की नींव पडी।
ऐसा माना जाता है कि इनके प्रारंभिक 12 अनुयायी थे – रविदास मोची, कबीर जुलाहा, धन्ना जाट किसान, सेना नाई, पीपा राजपूत, भवानन्द, सुखानन्द, आशानन्द, सुरानन्द, परमानन्द, महानन्द, और श्री आनन्द। नामदेव ने 15वीं शताब्दी में महाराष्ट्र के पंडारपुर नामक स्थान को भक्ति आन्दोलन का केन्द्र बनाया और उन्होने जातिप्रथा के विरुद्ध आन्दोलन किया।
कबीर –
भक्ति आन्दोलन युग के सर्वाधिक लोकप्रिय सन्त एवं कवि कबीर (1440-1510 ई॰) का नाम हिन्दू तथा मुसलमानों में समान रूप से लोकप्रिय है। उनका प्रारम्भिक जीवन अन्धकारपूर्ण है। परम्परा के अनुसार उनका जन्म किसी विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से वाराणसी के समीप हुआ तथा पालन-पोषण एक जुलाहा दम्पत्ति-नीरू तथा नीमा-ने किया। बडा होने पर उन्होंने बालक का नाम ‘कबीर’ रखा। यह अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ ‘महान’ होता है।
मध्ययुगीन संतों में कबीरदास की साहित्यिक एवं ऐतिहासिक देन स्मरणीय है। वे मात्र भक्त ही नहीं, बड़े समाज-सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों का डटकर विरोध किया। अंधविश्वासों, दकियानूसी अमानवीय मान्यताओं तथा रुढियों की कटु आलोचना की। उन्होंने समाज, धर्म तथा दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण विचारधारा को प्रोत्साहित भी किया। कबीर ने जहां एक ओर बौद्धों, सिद्धों और नाथों की साधना पद्धति तथा सुधार-परंपरा के साथ वैष्णव संप्रदायों की भक्ति-भावना को ग्रहण किया वही राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक असमानता के विरुद्ध प्रतिक्रिया भी व्यक्त की। इस प्रकार मध्यकाल में कबीर ने प्रगतिशील तथा क्रांतिकारी विचारधारा को स्थापित किया।
काफी हद तक कबीर तत्कालीन स्थितियों को प्रभावित करने में सफल रहे। उन्होने जनसाधारण के लिए धर्म की सहजता या भक्ति की सुगमता पर बल दिया। जनसाधरण की ही भाषा में उन्होंने बताया कि निर्गुण प्रभु सबका है, उस पर किसी वर्ग व्यक्ति तथा धर्म-जाति आदि का अधिकार नहीं है। वह भी बहुत बडी बात है कि निर्गुण भक्ति-धारा में कबीर पहले संत ये जो संत होकर भी अंत तक शुद्ध गृहस्थ बने रहे एवं शारीरिक श्रम की प्रतिष्ठा को मानव की सफलताओं का अधार बताया।
धार्मिक विचार-
धर्म के संबंध में कबीर ने अत्यंत महत्वपूर्ण विचार उपस्थित किए है। उन्होंने किसी धार्मिक विश्वास को इसलिए स्वीकार नहीं किया कि वह धर्म का अंग बन चुका है अपितु अंधविश्वासो, व्रत अवतारोपासना, ब्राहमणों के कर्मकांड तथा तीर्थ आदि पर कसकर व्यंग किए। उन्होंने पहली बार धर्म को अकर्मण्यता की भूमि से हटाकर कर्मयोगी की भूमि पर लाकर खड़ा कर दिया। कबीर ने पौराणिक हिंदू-मत के साथ-साथ मुल्लाओं और काजियों की रुढिवादी धार्मिक-परंपराओं का भी डटकर विरोध किया। मूर्ति-पूजा, मन्दिर-मस्जिद, तीर्थव्रत आदि की उन्होंने कड़ी निन्दा करते हुए उन्हें त्याज्य बताया। इस संबन्ध में उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ वस्तुतः उल्लेखनीय हैं-
पाहन पूजे हरि मिलें, तो में पूजूं पहार। ताते तो चकिया भली, पीस खाय संसार ।
कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई चुनाय। ता चढ़ि मुल्ला बांग दै, बहरा हुआ खुदाय ।।
ना मैं मन्दिर ना मैं मस्जिद ना काबे कैलास में। मैं तो रहूँ शहर के बाहर, मेरी कुटी मवास में ।।
उनका कहना था कि राम-रहीम, कृष्ण-करीम, मक्का तथा काशी एक ही परमेश्वर की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ है ।वे भक्ति और बाहरी आडंबरों का संबंध सूर्य और अंधकार का-सा मानते थे जो एक साथ नहीं रह सकते। सारांश यह है कि कबीर धार्मिक क्षेत्र में सच्ची भक्ति का संदेश लेकर प्रकट हुए थे। उन्होंने निर्गुण-निराकार भक्ति का मार्ग अपनाकर मानव धर्म के सम्मुख भक्ति का मौलिक रुप प्रस्तुत किया। यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि कबीर के राम दशरथ पुत्र राजा राम नहीं है अपितु घट-घट में निवास करने वाली अलौकिक शक्ति है जिसे राम-रहीम् कृष्ण, खुदा कोई भी नाम दिया जाए। उसका रुप एक है। उसकी प्राप्ति के लिए न मंदिर की आवश्यकता है न मस्जिद की। वह सबमें विद्यमान है और सभी उसे भक्ति तथा गुरु की कृपा से प्राप्त कर सकते है।
सामाजिक एवं आर्थिक विचार :
संतों की ओर से जाति-प्रथा को चुनौती बहुत पुराने जमाने से मिलती चली आ रही है। ऐसे संतों में सर्वप्रथम नाम महात्मा बुद्ध का है। असल में कबीर, नानक आदि उसी धारा के संत है जो बुद्ध के कमंडल से बही थी किंतु कई बार बंधन ढीले होने के बावजूद आज भी जाति-प्रथा कायम है। कबीर ने मध्यकालीन विषम सामाजिक परिस्थितियों में इस प्रथा का डटकर विरोध किया और बिखरे हिंदू समाज को संगठित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसी प्रकार हरि का भजे सो हरि का होई, जाति-पाति पूछै नहि कोई’ का उद्घोष कर उन्होंने परम्परागत जाति-प्रथा को गम्भीर चुनौती दी। कबीर की दृष्टि मानव की प्रगति-विरोधी समाज व्यवस्था के इस तथ्य पर पहुंच गई थी कि वहॉ विचार के धरातल पर तो समानता का बोलबाला अकसर किया जाता है पर आचार के धरातल पर उनमें भेदभाव है। अतः जीवन-भर कबीर हिंदू समाज को समझाते रहे कि जन्म से सभी समान है। जिस व्यक्ति ने अपने पवित्र कर्मों से भक्ति को अपनाया उसकी जाति का संबंध पूछना अनुचित है। कबीर ने कर्म की श्रेष्ठता पर अपने जुलाहेपन में भी गर्व समझा हालाँकि समाज में उस समय इस वंश का निम्न स्थान था।
दैवी एकता (Divine Unity) के तर्क से कबीर ने एक ऐसा रंग दिखाया कि उनकी शिष्य-परंपरा में हिंदू और मुसलमान सभी दीक्षित होने लगे। शुभचिंतक वक्ता होने के कारण दोनों जातियों कबीर को कठोर-कर्कश जानते हुए भी प्यार से अपनाना चाहती थीं। यह उनके मानवतावाद की विजय थी। कबीर ने सामाजिक एवं धार्मिक कुरीतियों के विरुद्ध खड़े होकर संपूर्ण मानव जाति के कल्याण एवं एकता के लिए अपने सुखों को त्याग दिया। कबीर ने समाज के आर्थिक ढॉचे पर भी कडा प्रहार किया। उन्होंने ईश्वर से यह मांग की कि-
साई इतना दीजिये जामें कुटुम्ब समाय। मैं भी भूखा न रहूं साधु न भूखा जाये ।।
आर्थिक विचार-
जिस तथ्य को मार्क्स तथा एंगेल्स ने आधुनिक युग में पहचाना, कबीर ने बहुत पहले स्पष्ट घोषणा की थी कि समाज तथा राष्ट्र में अधिकतर विवाद अर्थव्यवस्था की असमानता से उपजते है। राजनीतिक परिवर्तनों एवं सामाजिक अत्याचारों के कारण शिल्पकारों, श्रमजीवियों, किसानों तथा अन्य पिछडे वर्गो की दशा अति चिंतनीय थी। यद्यपि अधिकांश धन जमींदारों तथा अमीरों के पास एकत्रित था तथापि बहुसंख्यक समाज अर्थाभाव से ग्रस्त था।
आर्थिक दष्टि से कबीर ने जन-समाज के लिए धन को अनिवार्य तत्व माना और शारीरिक परिश्रम द्वरा आवश्यकता के अनुकूल अर्जित करने एवं उपभोग करने का संदेश दिया। वे उतने ही धन को सर्वोपरि समझते थे जो दैनिक आवश्यकता की भली प्रकार पूर्ति करे। एक स्थान पर वे लिखते हैं : “हे माधव, मुझसे भूखे पेट भक्ति नहीं होगी, लो अपनी माला सॅंभालो। तुम तो कुछ दोगे नहीं तो लो मैं ही माँग लूँ।“ परंतु धन-संचय एवं वैभव की उन्होंने निंदा की तथा लोकहितार्थ धनोपार्जन को श्रेयस्कर बताया। आज की दार्शनिक शब्दावली में वे साम्यवादी थे। अहंकार को त्याग नश्वर संसार के मायाजाल से विमुख हो भक्ति करने का अभिप्राय कबीर ने अकसर यह बताया कि कोई किसी का आर्थिक शोषण न कर सके। वे मानते थे कि मानव में कर्तव्य का विवेक हो तो समाज स्वस्थ हो सकता है। इस प्रकार उन्होंने उपेक्षितों में आशा और विश्वास को पैदा करते हुए जीवन की एक नवीन दिशा का संकेत दिया।
संक्षेप में, कबीर ने जीवन के सभी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण विद्यारधारा का बीजारोपण किया। वे विचारों की उच्चता, ताजगी तथा सादगी से परवर्ती विचारकों को बहुत पीछे छोड़ गए। वैसे तो उन्होंने मानव समाज को बहुत कुछ दिया परंतु समकालीन समाज व धर्म के क्षेत्र में उनकी तीन बातों का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था। ये बातें हैं, वर्णव्यवस्था पर कुठाराघात, सांप्रदायिक तत्वों का बहिष्कार और भक्ति की सादगी एवं व्यापकता का प्रचलन। उनके विचार किसी व्यक्तिगत स्वार्थ पर नहीं टिके थे इसीलिए जिस कुरीति पर भी उन्होंने चोट की, पूरी निर्भीकता से की। उनके विचारों ने धर्म, दर्शन और समाज को प्रभावित किया क्योंकि वे समकालीन वातावरण में उपयुक्त थे। जैसा कि मैकोलिफ ने कहा है, “वे एक निडर अन्वेषी (Path Finder) थे, भारत के हिंदू-मुसलिम समुदायों की एकता के महान अग्रदूत थे और मानवता की आस्था के समर्थक थे। उनका उपदेश था कि – ‘‘दैवी शक्ति मानव जाति की समग्रता में प्रकट होती है।“ इस प्रकार कबीर उच्च कोटि के निर्गुण भक्त ही नहीं थे, अपितु वे समाज सुधारक. उपदेशक एवं प्रगतिशील विचारक भी थे। डा0 हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में ”युगावतार की शक्ति और विश्वास लेकर वे पैदा हुए थे और युग-प्रवर्तन की दृढ़ता उनमें विद्यमान थी इसलिये वे युग-प्रवर्तन कर सके।”
नानक –
कबीर के बाद मध्ययगीन समाज को प्रभावित करने वाले सन्तों में नानक का नाम अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। वैसे निर्गुणमार्गी संतों में नानक का व्यक्तित्व अत्यत भद्र और शांत है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि विचारों और सामाजिक आचारों की दुनिया में परिवर्तन लाने वाले गुरु नानक किसी का दिल दुखाए बिना तथा किसी पर आघात किए बिना कुसंस्कारों को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं। उनका उपचार प्रेम, मैत्री, सहानुभति और सर्वहितचिंतन था। नानक की ’वाणी’ में अदुभूत पवित्र निष्ठा, प्रभु के लिए पुकार एवं आत्मसमर्पण का तीव्र आवेश है। जहाँ एक ओर उन्होंने मानव के सामाजिक दुःखों का अनुभव किया वही दूसरी ओर अंधविश्वासों और गलत मान्यताओं को दूर करने का प्रयास भी किया। भेदभाव से ऊपर उठकर वे हिंदू-मुसलमानों को समान-दृष्टि से देखते थे। उनके विचार कबीर तथा अन्य निर्गुण संतो से मिलते है, परंतु नानक में अक्खड़पन तथा खंडन-मंडन की प्रवृत्ति कम रही है। सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्र में एकेश्वरवाद, मूर्ति-पूजा का विरोध, हिंदू-मुसलिम एकता और सच्ची पवित्र भक्ति उनका ध्येय रहा है। विषम परिस्थितियों में उन्होंने मनुष्य की अंतर्निहित शक्ति को जगाया तथा एक सर्वोच्च शक्ति के अस्तित्व में विश्वास द्वारा भक्ति-भावना को विशाल पृष्ठभूमि में स्थापित कर दिया। साथ ही उन्होंने सीधी बातों को सीधी भाषा मे कहा। यह आवश्यक नहीं था कि वे परंपराओं के मुहताज हो। उनके विचारों में कहीं भी संकीर्णता न थी। ऐसी स्थिति में शताब्दियों से पददलित निम्न जातियों को बंधनों से मुक्त होने की अपार प्रेरणा नानक से मिली क्योंकि कबीर की तरह ही नानक ने भी जाति-प्रथा के विविध पहलुओं पर कसकर प्रहार किया।
भारतीय धर्मसाधना के अतिरिक्त नानक के सामने इस्लाम-धर्म भी था। मुस्लिम संतों का सत्संग भी उन्होंने प्राप्त किया था। काफी सोच-समझकर ही उन्होंने समन्वय का मार्ग अपनाया। उन्होंने शक्तिशाली इस्लाम के उत्तम सिद्धांतों को सहज भाव से अपनाया। नानक के मत में सच्चा समन्वय वही है जो ईश्वर की मौलिक एकता को पहचाने और उसके असर से मानव की एकता को पहचानने में सहायता दे। विशाल मानवतावादी दृष्टि को ग्रहण कर जो समस्त मनुष्य-जाति को सामूहिक रूप से नाना प्रकार के कुसंस्कारों के बंधनों से मुक्त कर जीवन की उच्च भूमि पर ले जाने की प्रेरणा दे, वही सच्चा समन्वय है। .
प्रायः मध्ययुग के अन्य संतों का संदेश धार्मिक और सामाजिक जीवन तक ही सीमित रहा, परंतु नानक इस दृष्टि की व्यापकता में भी आगे रहे और परवर्ती काल में प्रभावशाली सिख-संप्रदाय के प्रर्वतक बने। कनिंघम के शब्दों में “नानक ने सुधार के सच्चे सिद्धांतों का बड़ी सूक्ष्मता के साथ साक्षात्कार किया और ऐसे व्यापक आधार पर धर्म की नींव रखी, जिसके द्वारा गुरु गोविंद सिंह ने अपने देशवासियों में एक नवीन राष्ट्रीयता की भावना को जन्म दिया। उत्तम सिद्धांतों को ऐसा व्यावहारिक रुप दिया कि उनके धर्म में छोटी-बड़ी जातियों को जीवन के सभी क्षेत्रों में समान मर्यादा प्राप्त हुई।
नानक के प्रभाव से पंजाब की जनता के साथ-साथ देश को भी नई दिशा मिली तथा समानता, बंधुता, ईमानदारी तथा सृजनात्मक शारीरिक श्रम के द्वारा जीविकोपार्जन पर आधारित नई समाज-व्यवस्था स्थापित हुई। उन्होंने पारंपरिक समाज और धर्म की भर्त्सना या विरोध का मार्ग ही नहीं अपनाया वरन् आध्यात्मिक साधना वाली भक्ति और सूफी परंपरा की मध्यकालीन भारतीय जीवन तथा सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों के संदर्भ में व्याख्या भी की। उनका यह प्रयास अत्यधिक महत्वपूर्ण और ध्यान देने योग्य है। वस्तुतः गुरु नानक में हमें विचारपरक जनतांत्रिक सिद्धांतों के महत्वपूर्ण सूत्र मिलते है जो समाजवादी समाज का पूर्वाभास देते हैं। यहाँ संप्रदायवाद और जातिवाद की निंदा के संकेतों के साथ उनकी सामाजिक दायित्व की भावना का उदार रुप भी मिलता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि पंजाब में भक्ति-आंदोलन के अग्रदूत गुरु नानक राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं के प्रति अत्यधिक जागरुक थे और उन्होंने उनके लिए उपचारात्मक उपाय भी सुझाए है। उनकी सिद्धांत-दृष्टि का केंद्र भी लोक-मंगल की भावना ही रही है।
आरंभ से ही नानक का संदेश कबीर, दादू, चैतन्य तथा अन्य संतों के समान होने पर भी अपनी बारीकी में भिन्न था और उनके अनुयायियों ने एक विशिष्ट सामाजिक-राजनीतिक वर्ग लिया था जो रुढ हिंदू सामाजिक ढांचे की मान्यताओं का उतना ही विरोधी था जितना कि उत्तरकालीन मुगलों की नीतियों का। यहां यह कहा जा सकता है कि उनके संदेश की सामाजिक और राजनीतिक तीव्रता और प्रगाढ़ता ने ही आने वाले समय में गुरु गोविंद सिंह के नेतृत्व में सिक्ख मत का व्यापक आधार निर्मित किया।
नानक ने जिस धार्मिक आंदोलन का आरंभ किया था उसे उनके अनुयायियों ने आगे बढाया। कबीर ने समाज की बुराइयों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया किंतु गुरु नानक के उपदेशों में एक सुनिश्चित धर्म के बीज मौजूद थे। यही कारण है कि समय बीतने पर सिक्ख मत पूर्ण धर्म का रुप धारण कर लिया। सिक्खों की न झुकने की भावना में शहादत की संभावना मौजूद थीं। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि भक्ति आन्दोलन के सामाजिक व राजनीतिक आयाम व्यापक थे और किस प्रकार एक विरोधपरक आन्दोलन नये सामाजिक-राजनीतिक संगठन एवं उनके विकास का कारण बन सकता है।
रविदास अथवा रैदास –
सन्त रविदास रामानन्द के अतिप्रिय शिष्यों में से एक थे। ये जन्म से मोची थे लेकिन इनका धार्मिक जीवन जितना शुद्ध था उतना ही उन्नत और पवित्र था। सिक्खों के ग्रन्थ साहिब में संग्रहीत रविदास के तीस से अधिक भजन है। कबीन ने भी अनेक बार इनके प्रति अपनी गहन श्रद्धा को व्यक्त किया है। रविदास भी उसी परम ईश्वर के उपासक थे जो सभी धार्मिक सम्प्रदायों से उपर तथा परे है तथा जिनका कोई आदि तथा अन्त नही है। इनका यह उपदेश था कि परमात्मा अपने भक्तों के हृदय में निवास करता है और उसे किसी धार्मिक कृत्य और अनुष्ठान का सम्पादन करके नही पाया जा सकता है। उसे तो वही पा सकता है जिसके अन्तर ने दैवी प्रेम की अनुभूति कर ली हो। इनका कहना था कि मानव सेवा ही जीवन में धर्म की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति का माध्यम है। इन्ही के जीवन से जुडी घटना के कारण यह लोकोक्ति प्रचलित हो गई कि- मन चंगा तो कठौती में गंगा।
दादू (1544-1603 ई0) :
कबीर और नानक के साथ-साथ निर्गुण-भक्ति की परंपरा में दादू का महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि उनकी सुधारवादी भावना कबीर और नानक के सामने तुच्छ है तथापि उनकी रचनाओं का अपना ऐतिहासिक महत्व है। उनकी रचनाओं में प्रभु के सच्चे चिंतन और इंसान की व्यावहारिक तथा नैतिक शुद्धता का मार्मिक वर्णन है। अन्य निर्गुण संतों की तरह दादू भी बाह्य साधना से ध्यान हटाकर वैयक्तिक साधना पर जोर देते हैं। परमात्मा के उपासक संत संप्रदायों में दादू की यह विशेषता है कि इसमें पुस्तकीय ज्ञान का तिरस्कार न कर लिखित रुप में संत-वाणियों की रक्षा पर विशेष जोर दिया गया है। फलस्वरूप आज हमें उनके ग्रन्थ-संग्रह में न केवल दादू अपितु अनेक संतों की सामाजिक साधना का अमृत प्राप्त होता है। संक्षेप में, दादू ने ईश्वरीय भक्ति को समाज-सेवा एवं मानवतावादी दृष्टि से संबद्ध किया है।
दादू दयाल ने विनम्रता, अहं से निर्लिप्त रहने और ईश्वर के प्रति समर्पित रहने की शिक्षा दी है। ईश्वर की प्राप्ति न केवल प्रेम और भक्ति के माध्यम से ही संभव है बल्कि मानवता के प्रति सेवा से भी संभव हो सकती है। दादू-ग्रंथावली से उद्भूत संकल्पनाओं में से एक अत्यधिक महत्वपूर्ण संकल्पना है- गुरु की संकल्पना।
इनका जन्म सन् 1544 में अहमदाबाद में ब्राह्मण परिवार में हुआ था तथा इनकी मृत्यु सन् 1603 में राजस्थान के नराना या नारायण गाँव में हुई थी जहाँ अब इनके अनुयायियों (दादू-पन्थियों) का मुख्य केन्द्र है। इनके जीवन का महान स्वप्न सभी धर्मों के विपथगामियों को प्रेम और बन्धुत्व के एकसूत्र में आबद्ध करना था और इन्होंने इस महान आदर्श को कार्यरूप में परिणत करने के लिए ब्रह्म सम्प्रदाय या परब्रह्म-सम्प्रदाय की स्थापना की। इनके विचारों में अत्यधिक उदारता तथा गहनता मिलती है और उन पर कवीर के प्रभाव की स्पष्ट छाप दिखाई देती है।
दादू धर्म-ग्रन्थों की सत्ता में नहीं बल्कि आत्म-ज्ञान के महत्त्व में विश्वास करते थे। इनके अनुसार आत्मज्ञान अनुभूति प्राप्त करने के लिए हमें स्वयं को अहम् की सभी प्रकार की भावना से मुक्त करना चाहिए और अपना जीवन पूर्णरूपेण ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए। ईश्वर के सम्मुख सभी स्त्री-पुरुष, भाई-बहनों की भाँति हैं। वह व्यक्तियों के हृदय में निवास करता है और हृदय से हमें उसका चिन्तन करना चाहिए। ईश्वर से मिलन केवल प्रेम और भक्ति के माध्यम से ही संभव है। यह प्रेम और भक्ति प्रार्थनाओं से नहीं, अपित विश्व की सेवा के द्वारा ही उसकी (ईश्वर की) भक्ति और उसके साथ तादात्म्य प्राप्त किया जा सकता है, जो उस समय होता है जब सभी पापों और दुष्कर्मों का परित्याग कर हम ईश्वरेच्छा के प्रति स्वयं को निष्ठापूर्वक समर्पित कर देते हैं।
दादू की शिक्षा थी-“विनयशील बनो तथा अहम् से मुक्त रहो, दयालु बनो तथा कर्म में लगे रहो, निडर, ओजस्वी नायक बनो, अपने मन को साम्प्रदायिकता से और धर्म के सभी निष्क्रिय रूपों एवं प्रदर्शनों से अलग रखो, स्वभाव से क्षमाशील तथा दृढ़ विश्वासी बनो । सच्चा गुरु मिल जाने पर अनुभूति का मार्ग अपेक्षाकृत आसान हो जाता है।“
ये स्वयं स्वभाव से अधिक सरल तथा दृढ़ विश्वासी थे और इनकी प्रार्थनाएँ ओजपूर्ण तथा माधुर्ययुक्त होती थीं। ये गृहस्थ थे तथा इनका विश्वास था कि गृहस्थ का सहज जीवन आध्यात्मिक अनुभूति के लिए अधिक उपयुक्त है। दादू के अनुरोध पर इनके शिष्यों ने विभिन्न सम्प्रदायों की भक्तिपरक रचनाओं को संकलित किया। विभिन्न सम्प्रदायों के धार्मिक साहित्य से संकलित यह ग्रन्थ सम्भवतः विश्व का अपने प्रकार का पहला ग्रन्ध था, क्योंकि आदिग्रन्थ या अन्य साहिब को 1604 ई0 में संकलित किया गया, जबकि दादूपंथियों के द्वारा संकलित यह ग्रन्थ 1600 ई0 से कुछ पूर्व पूरा हो चुका है था। इस संकलन में अनेक मुसलमान सन्तों, जैसे कि काज़ी कदम, शेख फरीद, काजी मोहम्मद, शेख बहावद और वखना, की रचनाओं को भी संकलित किया गया है।
दाद् के अनेक शिष्यों में सुन्दरदास (1597-1689 ई0) रज्जब तथा अन्य बहुत से प्रतिष्ठित व्यक्ति थे । दादू ने अपने शिष्यों से गूढ दार्शनिक सिद्धान्तों को संस्कृत से सरल हिन्दी में अनूदित करवाया। इन्होंने अपने शिष्यों को हिन्दी गद्य एवं पद्य में रचनाएँ करने की प्रेरणा प्रदान की। दादू ने हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों को अपना शिष्य बनाया और इनके शिष्यों में से ऐसे बहुत से गुरु बने और इनके सम्प्रदाय में ऐसे बहुत गुरु हुए हैं जो मुस्लिम परिवारों के थे। आज भी दादू सम्प्रदाय की रज्जव शाखा में जो कोई भी आध्यात्मिक अनुभूति की ऊँचाई पर पहँचता है उसे धर्म संघ के प्रमुख के रूप में स्वीकार किया जाता है, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। रज्जब के गीत और प्रार्थनाएँ सार्वभौमिक होती हैं तथा भक्ति की दृष्टि से उत्कृष्ट।
बल्लभाचार्य (1479-1531 ई0)-
बल्लभाचार्य वैष्णवधर्म के कृष्णमार्गी शाखा के दूसरे महान सन्त थे । इनका जन्म 1479 में वाराणसी में उस समय हुआ था, जब इनके पिता लक्ष्मण भद्र तेलंगाना से अपने परिवार के साथ काशी की तीर्थयात्रा पर आए थे, उसी समय उनके दूसरे पुत्र बल्लभाचार्य का जन्म हुआ था। इन्होंने संपूर्ण देश की यात्रा की तथा अन्ततः वृन्दावन में स्थायी रूप से निवास करने लगे, जहाँ से इन्होंने कृष्णभक्ति का उपदेश दिया। ये श्रीनाथ जी के नाम से भगवान कृष्ण की पूजा करते थे। कबीर और नानक की तरह इन्होंने विवाहित जीवन को आध्यात्मिक उन्नति के लिए बाधक नहीं माना। ये संस्कृत और ब्रजभाषा में बहुत सी पाण्डित्यपूर्ण कृतियों के लेखक थे।
बल्लभाचार्य का दर्शन एक वैयक्तिक तथा प्रेममयी ईश्वर की अवधारणा पर केन्द्रित है। वे पुष्टि (कृपा) और भक्ति (निष्ठा) के पथ पर विश्वास करते थे। इन्होंने श्रीकृष्ण को सर्वोच्च ब्रह्म, पुरुषोत्तम और परमानन्द के रूप में देखा।
बल्लभाचार्य के अनुसार व्यक्ति केवल अकेले ही ईश्वर की अनुभूति कर सकता है। ईश्वर की अनुभूति के लिए व्यक्ति को भक्ति का अभ्यास करना पड़ता है। पुष्टिमार्ग की अभिव्यक्ति में मार्ग शब्द का तात्पर्य पथ या पन्थ है और पुष्टि का अर्थ ईश्वर की कृपा या अनुग्रह है। इसके द्वारा मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। अन्य किसी भी प्रकार मुक्ति से नहीं मिल सकती। भक्ति बिना किसी उद्देश्य या बिना किसी फल की इच्छा के की जानी चाहिए। इसके साथ प्रेम और सेवा होनी चाहिए।
चैतन्य महाप्रभु (1486-1533 ई0)-
फरवरी 1486 में नवद्वीप (नदिया) में इनका जन्म हुआ था। चैतन्य का वास्तविक नाम विश्वम्भर था पर बाल्यावस्था का इनका नाम निमाई था। इनके पिता जगन्नाथ मिश्र बड़े धार्मिक और विद्वान व्यक्ति थे तथा इनकी माता शची भी अत्यन्त धर्मपरायण महिला थीं। पण्डित गंगादास ने विश्वम्भर को उच्च शिक्षा प्रदान की। कहा जाता है कि ये असाधारण रूप से प्रतिभावान छात्र थे और इन्होंने पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में ही संस्कृत भाषा, साहित्य, व्याकरण और तर्कशास्त्र में प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। शिक्षा पूर्ण करने के उपरान्त इन्हें विद्यासागर की उपाधि प्रदान की गई। इनके अध्ययन-काल में ही इनके पिता का देहान्त हो गया। इनकी पहली पत्नी का नाम लक्ष्मी था, जिनकी साँप काटने से मृत्यु हो गई। इनका पुनर्विवाह हआ और इनकी दूसरी पत्नी उनके संन्यासग्रहण और मृत्य के बाद भी जीवित रहीं। वाईस वर्ष की आयु से पूर्व ही इन्होंने ईश्वरपरी नामक एक सन्त पुरुष से दीक्षा ली, जिनसे गया में तीर्थयात्रा के दौरान उनकी भेंट हुई थी। इन्होंने किस प्रयोजन से संन्यास ग्रहण किया था, यह स्पष्ट नहीं है। संन्यास ग्रहण करने के उपरान्त ये चैतन्य कहलाए। सुल्तान अलाउद्दीन हुसैन शाह के शासनकाल में इन्होंने बंगाल में तथा बाद में उडीसा में वैष्णव धर्म का प्रचार किया। उड़ीसा नरेश प्रतापरुद्र गजपति उनके शिष्य थे। उनके संरक्षण में चैतन्य स्थायी रूप से पुरी में बस गए और वहीं इनका देहावसान हुआ।
संन्यास लेने के उपरान्त ये सभी सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो गए और इनमें परमानन्द की अनुभूति अपनी चरमावस्था पर पहुँच गई। इन्होंने कहा – “मैं घर-घर जाकर ईश्वर के पवित्र नाम का प्रचार करूँगा। उसका (ईश्वर का) नाम सुनकर चाण्डाल. निम्नतम जातियों के लोग, स्त्रियों और बच्चे आश्चर्यचकित रह जाएँगे और प्रेम से उसका नाम सुनेंगे।“ चैतन्य ने ईश्वर के प्रति जितना प्रेम व्यक्त किया उतना सम्भवतः इनसे पूर्व या बाद में किसी ने भी नहीं किया। चैतन्य ने ईश्वर को कृष्ण या हरि नाम दिया और उसके प्रति परमनिष्ठा का उपदेश दिया। ये कर्मकाण्डवाद के विरोधी थे। प्रेम. भक्ति. संगीत एवं नृत्य से परिपूर्ण इनकी ईश्वरभक्ति इतनी भावप्रवण होती थी कि भक्त परमानन्द की स्थिति में ईश्वर की अनुभूति करते थे।
कबीर तथा नानक के समान चैतन्य ने भी समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया तथा बंगाल में साम्प्रदायिक सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया। उनकी शिक्षाओं का उद्देश्य पीड़ित जन समूह के कष्टों को दूरकर उनके जीवन को सुखी बनाना था। अतः उन्होंने अपना लक्ष्य मानव सेवा को बनाया तथा उसके माध्यम से प्रेम के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। अपने जीवन का अधिकांश समय वे स्वयं दलितों की सेवा में व्यतीत किया करते थे। शूद्र तथा अन्य पद-दलित जातियों को समानता का अधिकार दिलाकर महाप्रणु चैतन्य ने महान् समाज सुधारकों की श्रेणी में अपने को प्रतिष्ठित कर दिया । उनकी मानव समाज सेवा की भावना निश्चयतः प्रशसनीय है।
बंगाल में चैतन्य का योगदान भक्ति भावना के विकास में महत्वपूर्ण है। इनका प्रभाव इतना गहन और स्थायी था कि इनके अनुयायी उन्हें कृष्ण या विष्णु का अवतार मानने लगे। चैतन्य ने यह स्वीकार किया कि अकेले कृष्ण ही पूर्ण ईश्वर हैं। चैतन्य के नव-वैष्णववाद के धर्मोपदेशों ने बंगाल तथा उसके समीपवती क्षेत्रों उड़ीसा और असम में अभूतपूर्व संचेतना एवं उत्साह जाग्रत किया। उनके लगभग साथ-साथ चलने वाले आंदोलन असाधारण रूप से सुदृढ़ कृष्णभक्ति आंदोलन को शक्ति दे रहे थे। उनकी सगुण भक्ति में प्रेमाभक्ति का स्वर प्रधान था। बंगाल ने कृष्ण की प्रेम-देवता के रूप में उपासना के साथ-साथ स्वाभाविक रुप में प्रेम के अनेक नवीन आयामों का भी श्रीगणेश किया। परिणामतः विद्यापति तथा चंडीदास जैसे प्रेम के महान कवियों की वाणी को यहीं समृद्ध होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मध्यकालीन बंगाल के अधिकांश साहित्य का भक्तिपरक स्वरुप इस तथ्य की बड़े स्पष्ट ढंग से पुष्टि करता है कि मध्यकालीन बंगाली संस्कृति की प्रेरणा का ,प्रधान स्रोत धर्म था। चैतन्य के उपदेशों का सार दो शब्दों में यह है कि – यदि कोई व्यक्ति भगवान कृष्ण की उपासना करता है और गुरु की सेवा करता है तो वह माया के जाल से मुक्त हो जाता है और ईश्वर से एकीकृत हो जाता है। चैतन्य महाप्रभु ने ब्राह्मणों के धर्म के संपूर्ण कर्मकांड की भर्त्सना की है। चैतन्य का बह्म उन समस्त विशिष्ट गुणो से पूर्ण है जो उनके अनुसार भगवान कृष्ण के व्यक्तित्व में अपने सर्वोत्तम रूप में अभिव्यक्त हुए है। कृष्ण-भक्ति में भाव-विभोर होकर गाने-नाचने के भाव में कुछ-कुछ सूफियों जैसी आनंदातिरेक की व्यवस्था पैदा होती थी जिसमें ब्रह्म की आनंद कला का अनुमान किया जा सकता था। चैतन्य महाप्रभु के आधारभूत सिद्धांतों में से एक के भावार्थ के अनुसार भक्ति भावादेश की वह स्थिति है जिसमें निमग्न होने पर भक्त जाति, धम, कुल, गोत्र तथा सांप्रदायिकता की संकुचित भावना से मुक्त होकर जीवन की उदात्त भाव-भूमि पर विचरण करने लगता है।
बंगाल पर चैतन्य के आंदोलन के प्रभाव का मूल्यांकन करते समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह आंदोलन कभी भी अधिसंख्यक जनता का धर्म नहीं बना। बंगाल से एक भावनात्मक लहर के रुप में आरंभ होकर यह आंदोलन एक रुढ परंपराओं के अनुरूप वगीकृत रुप में ढलकर शांत हो गया। चैतन्य-आंदोलन की जिस देन को आज समस्त बंगाल का सम्मिलित दायित्व माना जा सकता है वह है इस आंदोलन में भाग लेने वालों द्वरा सृजित व्यापक साहित्य। डॉ० तपन राय चौधरी के शब्दों में – चैतन्यवाद को सही परिप्रेक्ष्य में देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह शुष्क बुद्धिवादी व्यवस्था और ज्ञान के अतुष्टिकर मार्ग के विरुद्ध भावनात्मकता और सादगी का विद्रोह था, यह सुधारवादी आंदोलन तंत्रवाद का विरोधी था। मध्ययुगीन भारत में जब चैतन्यमत ने बंगाली समाज के स्वस्प-निर्माण में सशक्त भूमिका अदा की तो भक्ति-आंदोलन में ऐसे तत्वों का महत्व स्पष्ट हो गया।
मीराबाई (1498-1546 ई0)-
मीराबाई सोलहवीं शताब्दी के भारत की एक महान महिला सन्त थीं। ये मेड़ता के रत्नसिंह राठौर की इकलौती सन्तान थीं। इनका जन्म लगभग सन् 1498 ई0 में मेड़ता जिले के कुदवी ग्राम में हुआ था और इनका विवाह 1516 ई0 में राणा सागा के बड़े पुत्र और युवराज भोजराज से हुआ था। ये बचपन से ही अत्यधिक धार्मिक महिला थी तथा अपने पिता और पितामह की तरह वैष्णव धर्म के कृष्णमार्ग की अनुयायी थी। अपने पति की मृत्यु के उपरान्त ये पूर्णतः धर्म-परायण जीवन व्यतीत करने लगी। कृष्ण की सच्ची भक्त और धार्मिक व्यक्तियों की सरक्षिका के रूप में इनकी दूर-दूर तक ख्याति फैली, जिससे आकर्षित होकर सुदूर स्थानों से सामान्य स्त्री-पुरुषों और सन्तों का चित्तौड़ में आगमन हुआ। मेवाड़ के शासकों के साथ तनावपूर्ण संबंधों के कारण ये अपने चाचा वीरमदेव के साथ रहने लगी जो कि मेड़ता के प्रमुख थे। वहाँ भी इन्होंने अपनी दैनिक चर्या को जारी रखा। ये आध्यात्मिक चिन्तन तथा धार्मिक संगीत एवं नृत्य में तल्लीन रहने लगीं। इन्होंने अन्य धार्मिक स्त्री और पुरुषों के साथ कीर्तन करना भी जारी रखा। इस प्रकार इन्होंने मेड़ता में कई वर्ष बिताए किन्तु जब उस नगर पर जोधपुर के मालदेव ने आक्रमण करके अधिकार कर लिया, तब इन्होंने द्वारका की तीर्थयात्रा करने का निश्चय किया। वहाँ इन्होंने एक भक्त का जीवन व्यतीत किया और 1546 ई0 में इनका निधन हुआ।
मीरा ने अनेक भक्तिपरक गीतों की रचना की, जो इनकी प्रसिद्धि के मुख्य आधार हैं। इनके भक्ति गीत मुख्यतः ब्रजभाषा और आंशिक रूप से राजस्थानी में लिखे गए हैं तथा इनको कुछ कविताएँ गुजराती में भी हैं। ये गीत प्रेम और भक्ति की पर्याप्त अनुभूतियों से युक्त तथा इतने श्रुतिमधुर हैं कि प्रेम और भक्ति की टीस तथा कोमलतम मानवीय भावनाओं को तत्क्षण जागृत कर देते हैं। मीरा ने अपने गीत कृष्ण को सम्बोधित किये है जिनकी उपस्थिती इन्होने अपने दैनिक जीवन के प्रत्येक कार्य में अनुभव की।
मलूकदास (1479-1531 ई0)-
ये कबीर के अनेक अनुयायियों में से एक थे। इनका जन्म 16वीं शताब्दी के अन्त में इलाहाबाद जिले में हुआ था। ये दयालु तथा सहृदय थे और धार्मिक व्यक्ति होते हुए भी ये गृहस्थ का जीवन व्यतीत करते थे। इनके सम्प्रदाय के मठ समूचे उत्तर भारत में तथा उससे आगे भी बिहार से काबुल तक पाए जाते है। इन्होने भी मूर्ति पूजा तथा धर्म के अन्य बाह्यरुपों के विरुद्ध उपदेश दिया और इनके अनुयायी अपनी मुक्ति के लिए पूरी तरह ईश्वर की कृपा पर निर्भर होते है। ये शरीर के आत्मदमन के विरोधी थे और इन्होने यह सीख दी कि आध्यात्मिकता का सच्चा पथ हृदय की सामान्य निष्ठा में होता है।
शंकरदेव (1449-1568 ई0)-
ये मध्यकालीन असम के महानतम धार्मिक सुधारक थे। इनका सन्देश विष्णु या उनके अवतार कृष्ण के प्रति पूर्ण भक्ति पर केन्द्रित था। एकेश्वरवाद इनकी शिक्षाओं का सार था। इनके द्वारा स्थापित सम्प्रदाय एक शरण सम्प्रदाय के रुप में प्रसिद्ध हुआ। इन्होने सर्वोच्च देवता की महिला सहयोगियों जैसे- राधा, लक्ष्मी, सीता आदि को मान्यता प्रदान नही की और निष्काम भक्ति पर बल दिया। शंकरदेव के सम्प्रदाय में भागवत पुराण या श्रीमद्भागवत को गुरुद्वारों में ग्रन्थ साहिब की भॉति इस सम्प्रदाय के मन्दिरों की वेदी पर श्रद्धापूर्वक प्रतिष्ठित किया जाता था। शंकरदेव मूर्तिपूजा तथा कर्मकाण्ड दोनों के विरोधी थे। ये अकेले कृष्णमार्गी वैष्णव सन्त थे जो मूर्ति के रुप में कृष्ण की पूजा के विरोधी थे। असम के महानतम वैष्णव सन्त होने के कारण ये असम के चैतन्य के रुप में प्रसिद्ध है।
शंकरदेव ने जातिप्रथा की निन्दा की तथा जनता में इनकी मातृभाषा के द्वारा अपने विचारों का प्रचार किया। उनके धर्म जो सामान्यतया महापुरुषीय धर्म के रुप में जाना जाता है, का असम के जन-जीवन के सभी पक्षों पर व्यापक एवं दूरगामी प्रभाव पडा।
सूरदास (सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी)-
दो महान हिन्दी कवियों सूरदास और तुलसीदास का वर्णन किए बिना भक्ति आन्दोलन का कोई विवरण पूर्ण नहीं हो सकता। दोनों ही उच्च कोटि के सन्त थे, लेकिन औपचारिक अर्थ में ये उपदेशक और सुधारक नहीं थे, और न ही इनमें से कोई किसी सम्प्रदाय या मत का संस्थापक ही था। सूरदास के जीवन की प्रमुख घटना के बारे में हमें अधिक जानकारी नहीं है, न ही इनके जन्म मृत्यु की तिथियों के बारे में ही कोई प्रामाणिक आधार है।
सूरदास भगवान कृष्ण और राधा के भक्त थे। इनका श्वास था कि मुक्ति केवल कृष्ण-भक्ति से ही प्राप्त की जा सकती है जो कि सगुण ईश्वर हैं। सूरदास द्वारा ब्रजभाषा में लिखित कृष्ण भक्ति के लालित्यपूर्ण पदों को इनके ग्रन्थों- सूरसारावली, सूरसागर एवं साहित्यलहरी में सकलित किया गया, जिनमें सूरसागर सबसे प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि सूरसागर में सवा लाख पद थे जिनमें से अब केवल पाँच-सात हजार पद ही प्राप्त होते है। यह काव्य केवल प्रेम और भक्ति से ही परिपूर्ण नही है, अपितु कृष्ण के बालरुप के वर्णन के लिए भी प्रसिद्ध है। कृष्ण के बालरुप का वर्णन करते हुए सूरदास ने मनोविज्ञान का अनुपम विवेचन किया है।
तुलसीदास (1589-1680 ई0)-
आधुनिक विद्वानों ने तुलसीदास का कवि और भक्त दोनो ही रूपों में सूरदास से बडा माना है। ये सन 1589 ई0 के आसपास वाराणसी में एक सरयूपारी दाहाण परिवार में पैदा हुए थे। इनके पिता का नाम आत्माराम दूबे तथा माता का नाम हुलसी था। अपनी पत्नी रत्नावली के व्यग्य कटाक्ष के कारण इन्होंने एक धार्मिक सन्यासी का जीवन अपना लिया। ऐसा माना जाता है कि जब ये 42 वर्ष के थे तभी से इन्होने रामचरितमानस लिखना प्रारंभ किया। इसके अतिरिक्त इन्होने कई अन्य ग्रन्थों की भी रचना की जैसे –गीतावली, कवितावली, विनय पत्रिका आदि। रामचरित मानस में सर्वोच्च कोटि की धार्मिक भक्ति का विवरण है। तुलसीदास राम के उपसाक थे तथा इन्होंने अपने इष्टदेव का आदर्श चित्र प्रस्तुत किया है। वे राम को ईश्वर का अवतार समझते थे तथा इनका विश्वास था कि व्यक्ति उनके पास केवल भक्ति के माध्यम से पहुॅच सकता है।
1680 ई0 में 91 वर्ष की अवस्था में तुलसीदास का निधन हुआ। अब भी उन्हे एक महान वैष्णव भक्त तथा आचार्य माना जाता है जो अपनी अमर कृतियो-विनय पत्रिका और रामचरित मानस के माध्यम से करोड़ो स्त्री पुरुषों के हृदयों में वास करते हैं।
नरसी मेहता –
नरसी मेहता 15वीं शताब्दी में गुजरात के एक सुप्रसिद्ध सन्त थे। 15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ये अत्यधिक लोकप्रिय हुए। इन्होने राधा और कृष्ण के प्रेम का चित्रण करते हुए गुजराती में गीतों की रचना की। ये गीत सुरतसंग्राम में संकलित किये गये है। महात्मा गॉधी के प्रिय भजन वैष्णव जन तो तोनों कहिए….. के रचयिता नरसी मेंहता ही थे।
मध्यकालीन भारत में संत-सुधारक समय-समय पर होते रहे है। किंतु रामानंद से चैतन्य तक महान विचारको की एक ऐसी परंपरा रही जैसी उससे पहले या उसके बाद में नहीं दिखाई देती। यह कहा जा सकता है कि 15वीं तथा 16वीं शताब्दी में भक्ति-आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था। यह काल सामाजिक-धार्मिक सुधारकों का काल था। कबीर और नानक जैसे अधिकांश श्रेष्ठ निर्गुणपंथी संतों का प्रभाव पूर्वी उत्तरप्रदेश तथा पंजाब पर अधिक था किंतु इस काल (15वीं-16वीं शताब्दी) में संपूर्ण भारत एक गंभीर धार्मिक उतेजना का अनुभव कर रहा था। तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई, दादू, चैतन्य आदि संतों से इस आंदोलन को अधिकाधिक बल मिला क्योंकि इन सगुण भक्तों की भक्ति-दृष्टि में अवतारवाद का जादू काम कर रहा था।
महाराष्ट्र के भक्ति सन्त :
मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के विकास तथा लोकप्रियता में महाराष्ट्र के सन्तों का महत्वपूर्ण योगदान है। ज्ञानेश्वर, हेमाद्रि, और चक्रधर से आरंभ होकर रामनाथ, तुकाराम, नामदेव ने भक्ति पर बल दिया तथा भगवान की संतान होने के नाते सबकी समानता के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया। नामदेव ने भरपूर कोशिश के साथ जाति प्रथा का खण्डन किया। अगर वे सामाजिक क्षेत्र में जाति प्रथा को उखाडने में सफल न भी हुए तो भी उन्होने आध्यात्मिक क्षेत्र में आचरण की शुद्धता, भक्ति की पवित्रता व सरसता तथा चरित्र की निर्मलता पर बल दिया। नामदेव की मराठी तथा हिन्दी रचनाओं में इनकी निर्गुणवादिता का रुप स्पष्ट देखा जा सकता है। उन्होने मराठी भाषा के माध्यम द्वारा महाराष्ट्र के सन्तों की न केवल धार्मिक और सामाजिक उन्नति की अपितु मराठों के राजनीतिक उत्थान में बुनियादी काम किया। उनके विचारों से महाराष्ट्र की जनता ने एक नवीन संगठन तथा एकता को महसूस किया है। इस प्रकार मध्ययुगीन इतिहास पर महाराष्ट्र के सन्तों का महत्वपूर्ण प्रभाव देखा जा सकता है। संक्षेप में महाराष्ट्र के कुछ प्रमुख भक्ति सन्त निम्नलिखित है –
ज्ञानेश्वर या ज्ञानदेव-
महाराष्ट्र के प्रारम्भिक भक्ति सन्त ज्ञानेश्वर का अभ्युदय 13वीं शताब्दी में हुआ था। इन्होंने मराठी – भाषा में गीता पर ज्ञानेश्वरी नामक टीका लिखी जिसकी गणना संसार की सर्वोत्तम रहस्यवादी रचनाओ में की जाती है। इनकी अन्य रचनाएँ हैं – अमृतानुभव तथा बंगदेव प्रशस्ति।
नामदेव-
नामदेव का जन्म एक दर्जी के परिवार में हुआ था। हम यह जानते हैं कि बचपन में ये बहुत उग्र स्वभाव के थे। अपनी युवावस्था में इन्होंने डाकू का जीवन व्यतीत किया तथा एक बार चौरासी सैनिकों की हत्या तक कर दी थी। जब इन्होंने अपने द्वारा पीडित एक व्यक्ति की असहाय पत्नी की दयनीय चीखों तथा अभिशापों को सुना तब अचानक ही इन्होने आध्यात्मिक जीवन अपना लिया।
इन्होने अपने जीवन का अधिकांश समय पाण्ढरपुर में बिताया। बरकरी-सम्प्रदाय के रूप में प्रसिद्ध विचारधारा की गौरवशाली परम्परा को स्थापना में इनकी मुख्य भूमिका रही दी। विसोबा खेचड़ ने उन्हें रहस्ययादी जीवन की दीक्षा दी तथा ईश्वर के सर्व-व्यापी स्वरूप से परिचित करवाया। इन्होंने अपने कनिष्ठ समकालीन ज्ञानेश्वर के साथ यात्राएं की। इनके कुछ गीतात्मक पद्य ग्रन्थ साहिब में संकलित हैं। इनके विचारों की सार भूमिका ईश्वर के प्रति मन लगाने तया सच्ची भक्ति में है। केवल ईश्वर के प्रति पूर्ण निष्ठा और सच्ची भक्ति ही हमारा उद्धार कर सकती है। इनके अनुसार केवल कष्ट उटाकर ही हृदय का शुद्धीकरण हो सकता है और विशुद्ध प्रेम के द्वारा ही ईश्वर की अनुभूति की जा सकती है। इन्होंने अनेक भक्तिपरक मराठी गीतों की रचना की, जो अभंगों के रूप में प्रसिद्ध हैं।
एकनाथ
इनका जन्म पैठण (औरंगाबाद) में हुआ था। इनका जीवन व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक जीवन के सामंजस्य का प्रतिदर्श था। इन्होंने जाति और धर्म में कोई भेदभाव नहीं किया। एक बार तो इन्होने अपने पूर्वजों को अर्पित करने के लिए तैयार किए गए श्राद्ध भोजन को अछूतों को दे दिया था। इनकी सहृदयता की कोई सीमा नहीं थी। इन्होंने प्रभु की पूजा के लिए काफी दूरी से लाए गए गोदावरी के पवित्र जल को उस गधे के गले में उडेल दिया जो प्यास से मर रहा था। इन्होंने पहली बार ज्ञानेश्वरी का विश्वसनीय संस्करण प्रकाशित करवाया। ये बहुसर्जक लेखक थे और भगवद्गीता के चार श्लोकों पर लिखी गई इनकी टीका प्रसिद्ध है। प्रतिदिन कीर्तन (भक्ति गीत) गाना इनकी दिनचर्या थी और ये अपने जीवन के अन्तिम दिन तक ऐसा कर इन्होंने अपनी रहस्यवादी अनुभूतियों को अपने अभंगों में बड़े ही स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। इन्होंने वेदान्त दर्शन तथा पूर्ववर्ती सन्तों की रहस्यवादी शिक्षाओं को जनसामान्य की भाषा में प्रस्तुत किया। 1598 ई0 में इनका निधन हो गया।
तुकाराम-
तुकाराम का जन्म एक किसान परिवार में हुआ था। इनके पास कुछ पशु तथा भू-सम्पत्ति थी, लेकिन एक बडे दुर्भिक्ष में इन्होंने अपने माता-पिता, दो पत्नियों में से अपनी एक पत्नी तथा पुत्र के साथ सब कुछ खो दिया। ये दिवालिया हो गए तथा अपने जीवन से निराश हो गए। इनकी दूसरी पत्नी कर्कशा थी जो इनके साथी भक्तो को गालियाँ देती थी। घर और बाहर दोनों ओर से दुःखी होकर तुकाराम, ज्ञानेश्वर, नामदेव व एकनाथ की रचनाओं के अध्ययन में जुट गए तथा भामहनाथ और भण्डारा की पहाड़ियों में निर्जन स्थानों में रहकर ईश्वर का चिन्तन-मनन करने लगे।
इन्होंने अनेक ’अभंगों की रचना की जिनमें इनकी शिक्षाएँ सन्निहित है और महाराष्ट्र में जिनका व्यापक रुप से गायन किया जाता है। ये शिवाजी के समकालीन थे तथा उनके द्वारा दिए गए विपुल उपहारों की भेंट को इन्होने स्वीकार करने से मना कर दिया।
रामदास-
इनका जन्म 1608 ई0 में हुआ था। इन्होंने बारह वर्षो तक पूरे भारत का भ्रमण किया तथा अन्ततः कृष्णा नदी के तट पर चफाल के पास बस गए जहॉ उन्होने एक मन्दिर बनवाया। शिवाजी के आध्यात्मिक गुरु रामदास का जन्म राजनीतिक उथल-पुथल के समय में हुआ था और ये इससे केवल आंशिक रूप में ही प्रभावित हुए। लेकिन ये जीवन में ईश्वर की अनुभूति को प्राथमिक तथा राजनीति को केवल गौण महत्व देते थे। ये व्यावहारिक प्रकृति के सन्त थे। इन्होंने बड़े व्यावहारिक ढंग से अपने पंथ की स्थापना की थी। उन्होंने आध्यात्मिक तथा लौकिक क्षेत्रों में कार्य करने के लिए समूचे महाराष्ट्र में अपने मठों की स्थापना की। इन्होंने अपनी अति महत्वपूर्ण रचना दसबोध में आध्यात्मिक जीवन के समन्वयवादी सिद्धान्त के साथ विविध विज्ञानों एवं कलाओं के अपने विस्तृत मानको संयुक्त रूप से प्रस्तुत किया है। इन्होंने बहुत से अभंगों और कुछ लघु कृतियों की मी रचना की जिनसे जीवन में ईश्वरानुभूति के प्रति गहन आसक्ति उत्पन्न होती है।
महाराष्ट्र में भक्ति आन्दोलन का महानतम योगदान महाराष्ट्र के लोगों को एक राष्ट्र के रूप में एकजुट करना था, जिससे शिवाजी के अधीन मराठा आन्दोलन के उत्थान में अत्यधिक सहायता मिली।
महानुभाव पन्थ-
लगभग इसी समय महाराष्ट्र में एक अन्य धार्मिक पन्थ महानुभाव पन्च की स्थापना हुई। यह पंच संभवतया जातिप्रथा का तयाकथित पूर्णविरोध, वेदों की शिक्षाओं के प्रति अविश्वास और आश्रम व्यवस्या के विरोध के कारण महाराष्ट्र के लोगों में बदनाम और अलोकप्रिय हो गया। इस पंथ के नेताओं तथा अनुयायियों को राज्य द्वारा लगाए गए कठोर प्रतिबंधों के अधीन अपना आध्यात्मिक प्रचार तथा धार्मिक गतिविधियां का अनुसरण करना पड़ा था। इसलिए उनके सभी धार्मिक ग्रन्थ की रचना प्रतीक-लिपि में हुई जिसका रहस्योदघाटन करने के लिए पहली बार वी0के0राजन ने कुंजी उपलब्ध कराई। गोविन्द प्रभु, नामक एक महान रहस्यवादी, इस पंथ के संस्थापक थे और चक्रधर इसके प्रथम धर्मप्रचारक थे। नागदेव ने इस पन्थ को व्यवस्थित आधार पर संगठित किया। अन्य लोगों के साथ-साथ भास्कर, केसवराज सूरी, दामोदर, पण्डित, बिश्वनाथ तया नारायण पण्डित इस पन्थ के अत्यधिक विद्वान तथा मुख्य अनुयायी थे। स्त्री अनुयायियों में महादम्बा प्रगतिशील रहस्यवादी तया उच्च कोटि की कवयित्री थी। महानुभाववादी लोग वस्तुतः भागवत सम्प्रदाय के अनुयायी थे। वे गीता, भागवत् और सूत्रपथ (चक्रधर की सूक्तियों का एक संग्रह) को मानक तया शास्त्रीय धार्मिक ग्रन्थ मानते थे। श्रीकृष्ण और दŸात्रेय इनके प्रमुख देव थे। इनकी दृष्टि में कृष्ण भक्ति की ईश्वरानुभूति का एकमात्र साधन है इसलिए मुख्यतः यह कृष्ण भक्ति का ही एक पन्थ है। लेकिन बाद में इन्होने विष्णु या कृष्ण के रुप में विष्णु पर जोर देते हुए सृष्टि, जीवन निर्वाह तथा विश्व संहार के सिद्धान्तों के क्रमशः प्रतीक ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव की एकता के विश्वास करते हुए दŸात्रेय को त्रिमूर्ति के रुप में स्वीकार किया। दŸात्रेय पन्त के प्रतीक नरसिंह सरस्वती और जर्नादन स्वामिन् थे।
भक्ति आन्दोलन का प्रभाव –
उपर्यक्त विवरणों से यह स्पष्ट है कि मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन एक अत्यन्त व्यापक आन्दोलन के रूप में प्रकट हुआ जिसने सम्पूर्ण देश को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में बॉधने का कार्य किया। देश के विभिन्न में फैले हुए पूरे के पूरे भक्ति आन्दोलन ने ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण की भावना अत्यन्त व्यापकता के साथ विद्यमान थी। साथ ही यह आन्दोलन आन्तरिक रुप से वैविध्यपरक था और इसमें हमें दो भिन्न-भिन्न धारणाएॅ दृष्टिगोचर होती है – निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति। निर्गुण भक्ति आन्दोलन के सन्तों में कबीर और नानक का नाम प्रमुख नही है किन्तु इन्हे पारंपरिक ढंग से विकसित हो रहे भक्ति आन्दोलन से पृथक रखना होगा। निर्गुण भक्ति की ओर आकर्षित होने वाले तथा उसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कराने वाले सन्तों के लिए यह आवश्यक नही था कि वे किसी वर्ग विशेष से जुडे ही हो। यद्यपि निर्गुण परम्परा का नाथपंथी संतों की रचनाओं में वर्णन मिलता है परन्तु उसका वास्तविक क्रियात्मक स्वरुप मध्यकाल में कबीर के बाद ही आया। निर्गुण सन्तों ने प्रभु की भक्ति निराकार रुप में करने पर जोर दिया है जबकि बल्लभ, तुलसी, सूरदास, मीरा, चैतन्य आदि ने राम या कृष्ण की पूजा या सगुण उपासना पर बल दिया है। निर्गुण सन्तों की विचारधाराएॅ उपनिषदों से प्रेरित थी। निर्गुण का प्रचार तो शंकर जैसे दार्शनिक ने भी किया परन्तु कबीर और नानक जैसे सन्तों ने सरल भाषा के माध्यम से जनसाधारण को महसूस कराया कि इस संसार की मूल सत्ता अवश्य है परन्तु उसका कोई रुप और नाम नही है।
निर्गुण सन्तो ने बाहरी साधना से ध्यान हटाकर वैयक्तिक साधना पर जोर दिया जबकि सगुण सन्तों ने मूर्तिपूजा, अवतारवाद, कीर्तन उपासना आदि को प्रोत्साहन दिया। गहराई से देखा जाय तो निर्गुण सन्तों ने जात-पात तथा साम्प्रदायिकता का खंडन करते हुए हिन्दू और मुसलमानों के लिए समन्वय का मार्ग प्रशस्त किया। दूसरी ओर जब हम तुलसी और मीराबाई जैसी विभूतियों की ओर देखते है तो हमें उनके सामाजिक-धार्मिक सन्देश में एक सुनिश्चित परिवर्तन दिखाई देता है। मीराबाई ने कुरीतियों की निन्दा और विरोध के तीखेपन को न केवल नम्र बनाया बल्कि उसमें व्याप्त प्रहार की प्रवृति को भी परिष्कृत कर दिया। तुलसी ने पूर्ण समर्पण की भावना से स्थापित आध्यात्मिक और लौकिक मान्यताओं को लोक मंगल की भावना से स्वीकृति प्रदान की। कुछ भी हो, ये सभी मध्यकालीन भारत के समग्र भक्ति आन्दोलन की विचारधारा और प्रत्यय के रुपान्तरण मात्र थे।
अब प्रश्न यह है कि क्या ये सन्त वास्तव में सामाजिक धार्मिक क्रान्ति ला सके। इसका उत्तर ढूढना मुश्किल कार्य है। किन्तु यह कहना अनुचित नही होगा कि मध्ययुगीन सन्तो ने समाज और धर्म के क्षेत्र में बनी खाइयों को मधुर वाणियों से पाटा तथा व्यक्तिगत चरित्र और चिन्तन को अधिक महत्व प्रदान किया।