window.location = "http://www.yoururl.com"; Growth of Radical and Perverse Communalism | उग्र और विकृत साम्प्रदायिकता का विकास

Growth of Radical and Perverse Communalism | उग्र और विकृत साम्प्रदायिकता का विकास

 


विकृत और उग्रवादी सांप्रदायिकता का विकास -

1937 के बाद घृणा, भय और अतार्किकता की राजनीति के कारण विकृत और उग्रवादी सांप्रदायिकता का विकास हुआ और जन-साधारण को तेजी से अपनी गिरफ्त में लेने लगा। जिन्ना ने मुस्लिम लीग को मजबूत करने के लिए विभिन्न असंतुष्ट मुस्लिम दलों और संगठनों को लीग में मिलाना आरंभ किया। फलस्वरूप 1927 ई0 में जिस मुस्लिम लीग की सदस्य संख्या 1330 थी, 1939 ई0 में लाखों तक पहुँच गई। अब जिन्ना कांग्रेस को ’हिंदुओं की पार्टी’ कहने लगे और गांधी के ’रामराज’ की ’हिंदुराज’ से तुलना करने लगे।

इस उग्रवादी सांप्रदायिकता के विकास के कई कारण थे। सांप्रदायिकता के उग्र होने का एक कारण यह भी था कि 1932 के सांप्रदायिक निर्णय और फिर 1935 के सरकार अधिनियम द्वारा मुस्लिम लीग की अधिकांश माँगें मान ली गई थीं। अब संप्रदायवादियों को अपना अस्तित्व बचाने, राजनीतिक स्तर पर जिंदा रहने और आगे बढ़ने के लिए नई जमीन और नये कार्यक्रम की तलाश थी। 1937 के चुनावों में कांग्रेस प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनकर उभरी थी। जमींदारों और सूदखोरों की पार्टियों का सफाया हो गया था। राष्ट्रीय आंदोलन की आर्थिक-राजनीतिक नीतियों के क्रांतिकारी रूपांतरण के कारण युवा मजदूर वर्ग और किसान तेजी से वामपंथ की ओर आकर्षित हो रहे थे। कांग्रेस के बढ़ते जनाधार से चिंतित जमींदार और भूस्वामी अपने-अपने स्वार्थों की रक्षा के लिए सांप्रदायिक पार्टियों का दामन थामने लगे। पश्चिम पंजाब के बड़े जमींदार और मुस्लिम नौकरशाह यूनियनिस्ट पार्टी को छोड़कर मुस्लिम लीग के इर्द-गिर्द इकट्ठा होने लगे और बंगाल के मुस्लिम जमींदारों और जोतदारों (भूस्वामियों) ने भी यही किया। उत्तर और पश्चिम भारत के हिंदू जमींदारों, भूस्वामियों, व्यापारियों और साहूकारों ने हिंदू सांप्रदायिक दलों और समूहों का दामन पकड़ना शुरू कर दिया।

प्रांतों में कांग्रेस के शासन के दौरान जिन्ना ने कांग्रेस के विरुद्ध लगातार प्रचार किया। जिन्ना ने कांग्रेस पर आरोप लगाना शुरू किया कि कांग्रेस मुसलमानों के प्रति निर्दयी, क्रूर और शत्रुतापूर्ण दृष्टिकोण अपना रही है और सांप्रदायिक दंगे रोकने में असफल रही है। जिन्ना ने ब्रिटिश सरकार पर भी मुस्लिमों के शोषण की प्रक्रिया में कांग्रेस के साथ मिले होने का आरोप लगाया। सभी प्रांतों में रहनेवाले मुसलमानों को जिन्ना ने विश्वास दिलाया कि मुस्लिम समुदाय का भविष्य केवल लीग के हाथों में ही सुरक्षित है। अब सांप्रदायिकता का स्वरूप गरम हो गया तथा उसके चरित्र में भय, घृणा, दमन एवं हिंसा जैसे शब्दों का समावेश हो गया।

द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत और पाकिस्तान की मॉग -

1937 में लीग ने जिस प्रकार घृणा और और उत्तेजना का प्रसार किया, उससे हिंदू सांप्रदायिक संगठनों का प्रभावित होना स्वाभाविक था। हिंदू महासभा के अगुआ बी0डी0 सावरकर ने ’हिंदू राष्ट्र’ का नारा दिया और संपूर्ण हिंदू जाति के सैन्यीकरण का प्रयास किया। सावरकर हिंदुओं को समझाने लगे कि मुसलमान हिंदुओं को पदमर्दित करना चाहते हैं, उन्हें उनके ही देश मे गुलाम बनाना चाहते हैं। 1939 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक एम0एस0 गोलवलकर ने मुसलमानों तथा अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को चेतावनी दी कि हिंदुस्तान के गैर-हिंदुओं को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी, या फिर हिंदू राष्ट्र के अधीन होकर रहना होगा। हिंदू संप्रदायवादियों ने प्रचारित किया कि हिंदू एक अलग राष्ट्र है और भारत हिंदुओं का देश है। इस प्रकार हिंदू संप्रदायवादियों ने भी द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया। कांग्रेस के खिलाफ हिंदू और मुस्लिम संप्रदायवादियों ने एक-दूसरे से हाथ मिलाने में भी कोई संकोच नहीं किया। पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, पंजाब, सिंध और बंगाल में हिंदू संप्रदायवादियों ने कांग्रेस के विरोध में मुस्लिम लीग तथा दूसरे सांप्रदायिक संगठनों का मंत्रिमंडल बनवाने में मदद की। हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद की बात करने वाले किसी सांप्रदायिक संगठन या दल ने विदेशी शासन विरोधी संघर्ष में कभी कोई सक्रिय भाग नहीं लिया।

1 सितंबर, 1939 को द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद सांप्रदायिकता पर ब्रिटिश सरकार की निर्भरता और बढ़ गई। 1939 में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने सामूहिक रूप से त्यागपत्र दे दिया और माँग की कि ब्रिटिश सरकार युद्ध के बाद पूर्ण स्वाधीनता तथा सरकार में प्रभावशाली भूमिका देने की तत्काल घोषणा करे। मुस्लिम लीग ने कांग्रेसी मंत्रियों के इस्तीफे के दिन 22 दिसम्बर 1939 ई0 को ’मुक्ति दिवस’ के रूप में मनाया और लंदन के प्रति अपनी वफादारी दोहराई। ब्रिटिश सरकार ने भी संकट के समय वफादारी दिखाने के कारण जिन्ना को हरसंभव रियायतें देने का वादा किया। ब्रिटिश सरकार के शह पर जिन्ना कांग्रेस के विरूद्ध मुसलमनों को भड़काने लगे और मुस्लिमों का ध्रुवीकरण करने लगे। कांग्रेस के विरूद्ध जिन्ना ने 1940 में अलीगढ़ में छात्रों से कहा “मिस्टर गांधी चाहते हैं कि हिंदूराज के तहत मुसलमानों को कुचल डालें और उन्हें प्रजा बनाकर रखें।“ 

सिंध के एक प्रमुख मुस्लिम लीग के नेता एम0 एच0 गजदर ने मार्च, 1941 में कराची में लीग की एक सभा में कहा - ’अगर हिंदू कायदे से पेश नहीं आये, तो उन्हें उसी तरह खत्म करना होगा, जैसे जर्मनी में यहूदियों को।’ इसके बाद जेड0 ए0 सुलेरी, एफ0एम0 दुर्रानी एवं फैज-उल-हक जैसे मुस्लिम संप्रदायवादियों ने कांग्रेस के विरुद्ध व्यापक आंदोलन आरंभ कर दिया। मुस्लिम संप्रदायवादी मौलाना आजाद जैसे कांग्रेसी मुसलमान नेताओं को ’कांग्रेस के नुमाइशी बच्चे और ’इस्लाम के गद्दार’ कहने लगे।

ब्रिटिश सहयोग से उत्साहित मुस्लिम लीग ने 22 से 24 मार्च 1940 के मध्य अपने लाहौर अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित कर एक अलग राष्ट्र की माँग को सैद्धांतिक मंजूरी प्रदान की। लाहौर प्रस्ताव में विभाजन या पाकिस्तान का उल्लेख नही था, केवल अनिश्चित भविष्य में मुस्लिम बहुल प्रांतों से स्वतंत्र राज्यों के गठन की बात थी। 24 मार्च 1940 ई0 को यह लाहौर प्रस्ताव पेश किया गया था जो आगे चलकर ‘पाकिस्तान प्रस्ताव‘ के नाम से जाना जाने लगा। इस प्रस्ताव को सिकन्दर हयात खॉं ने तैयार किया था और फजलुल हक ने इसे पेश किया था। जिन्ना ने हिंदुओं और मुस्लिमों को दो अलग-अलग राष्ट्र मानते हुए उनके लिए अलग-अलग राजनीतिक आत्मनिर्णय के आवश्यकता पर बल दिया। जिन्ना ने मुस्लिम लीग की कराची बैठक में चौधरी रहमत अली द्वारा प्रस्तुत ’पाकिस्तान’ की अवधारणा को स्वीकार कर लिया।

चुनाव, कैबिनेट मिशन और मुस्लिम लीग की भूमिका -

मुस्लिम साम्प्रदायिकता को भड़काने में अंग्रेज सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका थी। अंग्रेजों ने मुस्लिम सम्प्रदायवादियों की खुलेआम सरकारी सहायता की। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के बाद वाइसरॉय लिनलिथगो ने प्रयत्नपूर्वक मुस्लिम लीग को प्रोत्साहित किया। पाकिस्तान की माँग का इस्तेमाल कांग्रेस की इस माँग का मुकाबला करने के लिए किया गया कि विश्वयुद्ध के बाद अंग्रेजों को भारत छोड़ देना होगा। लेकिन युद्ध से पहले से सत्ता हिंदुस्तानियों के हाथ में सौंप दी जानी चाहिए। अंग्रेजी शासन ने यह तर्क दिया कि पहले हिन्दू और मुस्लिम हस्तांतरण की प्रक्रिया पर सहमत हो जाएं तभी बात आगे बढ़ सकती है। सरकारी तौर पर लीग को मुस्लिम हित के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार किया गया और अंग्रेजों ने उनसे यह भी वादा किया कि बिना लीग की सहमति से कोई भी राजनीतिक समझौता नहीं किया जाएगा। इस प्रकार लीग को ऐसी वीटो शक्ति प्राप्त हुई, जिसका उपयोग जिन्ना ने युद्ध की समाप्ति के बाद किया।

हालांकि क्रिप्स मिशन असफल रहा लेकिन इसने मुस्लिम लीग को एक तरह से प्रोत्साहित किया। प्रांतीय स्वायत्तता के प्रावधान ने पाकिस्तान बनने की माँग को वैधानिक रूप प्रदान किया। जिस समय भारतीयों द्वारा इस समस्या को बहुत हल्के ढंग से लिया जा रहा था, उस समय पाकिस्तान बनाने की माँग को सरकारी तंत्र ने काफी तेज़ी से प्रोत्साहित किया।

ब्रिटिश सरकार की अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति से मुस्लिम लीग के द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत को मौन स्वीकृति मिल गई। इसके बाद मुहम्मद अली जिन्ना ने अगस्त प्रस्ताव, क्रिप्स मिशन, शिमला सम्मेलन तथा मंत्रिमंडलीय शिष्टमंडल (कैबिनेट मिशन) के प्रस्तावों में पृथक् पाकिस्तान की माँग को पूर्णरूपेण स्वीकार किये जाने की सम्भावनाएं तलाश की। 1942 के भारत छोडो आन्दोलन में शीर्षस्थ कांग्रेसी नेताओं को जेल में डाल दिये जाने के बाद जिन्ना को मुस्लिम लीग को और भी सशक्त बनाने में मदद मिली। जिन्ना की प्रेरणा पर मुस्लिम व्यापारियों  द्वारा 1944 के अन्त में एक फेडरेशन ऑफ मुस्लिम चैम्बर ऑफ कामर्स की स्थापना की गई। जुलाई 1947 ई0 में कलकत्ता  में तीन करोड की अधिकृत पूॅंजी के साथ एक मुस्लिम बैंक की स्थापना की गई। मुस्लिम लीग की हठधर्मिता के कारण शिमला सम्मेलन असफल हो गया।

1945-46 की सर्दियों में चुनाव हुए। शिमला कांफ्रेस के अनुकूल परिणाम तथा पाकिस्तान की माँग के आधार पर चुनाव होने तक लीग मुस्लिम मतदाताओं को आकृष्ट करने के लिए पृथक मुस्लिम निर्वाचन मंडल का उपयोग करने के लिए बेहतर स्थिति में थी। इस्लाम के खतरे में होने के धार्मिक नारे के साथ मुस्लिम व्यापारियों एवं मध्यम वर्ग के मुसलमानों की हुकूमत तथा अपने भविष्य के प्रति आत्म निर्णय लेने के मुसलमानों के विशेषाधिकार के सपने को समाहित कर दिया गया। यद्यपि कांग्रेस, विशेषकर जनसाधारण के अंतर्गत आज़ादी प्राप्त होने के पूर्वानुमान के कारण, अपनी लोकप्रियता के चरमोत्कर्ष पर थी लेकिन धार्मिक कट्टरता के इस माहौल में वह अधिक संख्या में मुस्लिम वोट आकृष्ट करने की स्थिति में नहीं थी। चुनाव के परिणाम से विशेषतः कांग्रेस और लीग की स्थिति के संदर्भ में, यह सारी स्थिति स्पष्ट हो गयी। कांग्रेस की अभूतपूर्व विजय भी उस प्रभाव के महत्व को कम नहीं कर सकी जो सरकार मुसलमानों मतदाताओं को पहले ही दे चुकी थी। ब्रिटिश दृष्टिकोण तथा अंग्रेजों की अध्यक्षता में आगे चलने वाली चर्चाओं की दृष्टि से 1946 में कांग्रेस की भारी सफलता से भी अधिक महत्वपूर्ण, लीग द्वारा मुस्लिम मतदाताओं को किसी भी तरीके से, चाहे वह नैतिक हो अथवा अनैतिक, अपनी ओर आकृष्ट करना था। इस दृष्टि से मुस्लिम लीग ने काफी महत्वपूर्ण सफलता अर्जित की थी और उसे 86.6 प्रतिशत मुस्लिम वोट प्राप्त हुए। केन्द्रीय विधान परिषद के सभी 30 सीट उसे ही मिली तथा प्रांतों में कुल 509 मुस्लिम सीटों में से 442 सीट उसे प्राप्त हुई। इस सफलता के बावजूद भी लीग उन मुस्लिम बाहुल्य प्रांतों में सफल न हो सकी जिन्हें वह पाकिस्तान में शामिल करने की माँग लेकर चल रही थी। उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांतों और असम में कांग्रेस के हाथों इसे पराजित होना पड़ा और पंजाब में यूनियनिस्ट को यह अपदस्थ न कर सकी। सिंध और बंगाल में भी जहाँ लीग ने अपने मंत्रिमंडल का गठन किया वहाँ वे सरकारी तथा यूरोपीय सहयोग बल पर ही टिके हुए थे। ब्रिटिश अनुमान के अनुरूप मुख्य राजनीतिक दलों द्वारा सीमित चुनावों में अपने-अपने रूप में सफलता प्राप्त करने के साथ ही एटली सरकार ने बगैर कोई समय नष्ट किए उनसे बातचीत का दौर आरंभ कर दिया। तीन ब्रिटिश कैबिनेट सदस्यों का एक उच्च स्तरीय मिशन भारत में समझौते द्वारा शांतिमय ढंग से सत्ता हस्तांतरण के तरीके ढूँढने भारत भेजा गया। अतः जून 1946 ई0 में भारत के संवैधानिक भविष्य को निर्धारित करने तथा अंतरिम सरकार पर निर्णय लेने के उद्देश्य से वाइसरॉय की सहायता से भारतीय नेताओं के साथ बातचीत के लिए कैबिनेट मिशन भारत आ पहुँचा।

सभी प्रकार के भारतीय नेताओं के साथ एक लम्बी बातचीत हुई। जिसमें समय-समय पर पाकिस्तान और मुसलमानों के अपने भाग्य का फैसला स्वयं करने के अधिकार के मुद्दे पर जिन्ना की हठधर्मी के कारण, व्यवधान पड़ता रहा। काफी वाद-विवाद के बाद मिशन ने इस परिस्थिति से निपटने के लिए एक जटिल किन्तु स्वीकार्य योजना प्रस्तुत की। यद्यपि वाइसरॉय तथा मिशन के एक अन्य सदस्य अलेक्जेंडर जिन्ना के प्रति सहानुभूति रखते थे लेकिन यह मिशन मुस्लिम लीग की पूर्ण की माँग स्वीकार करने की स्थिति में नहीं था क्योंकि यदि सांप्रदायिक आधार पर अपने भविष्य का फैसला करने का अधिकार मुसलमानों को दिया जाता तो यह अधिकार, उन गैर-मुस्लिमों को भी देना पड़ता जो पश्चिमी बंगाल, पूर्वी पंजाब तथा असम में बहुमत में थे। मिशन का लक्ष्य पाकिस्तान योजना को अस्वीकार करके कांग्रेस को शान्त करना तथा कुछ निकटवर्ती मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों को लेकर स्वतंत्र मुस्लिम क्षेत्रों के गठन के द्वारा एक समझौता प्रस्तुत करना था। शुरू-शुरू में कांग्रेस और लीग दोनों ही इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए तैयार थे लेकिन शीघ्र ही प्रान्तों के समूहों अथवा भागों के गठन के प्रावधानों को लेकर समस्या उठ खड़ी हुई। अन्ततः जुलाई 1946 के अन्त तक कांग्रेस और लीग ने कैबिनेट मिशन योजना पर निर्भर रहने के विरुद्ध निर्णय लिया।

हिंसा की राजनीति और प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस -

कैबिनेट मिशन योजना से पहुँचने वाले धक्के ने मुस्लिम लीग को इतना व्याकुल बना दिया कि वह तुरंत “सीधी कार्यवाही“ (Direct action) के ज़रिए स्थिति अपने पक्ष में करने के लिए तत्पर हो गयी। इसके परिणामस्वरूप सर्वप्रथम जिन्ना और मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त, 1946 के दिन प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस के दौरान बड़े पैमाने पर दंगे करवा कर भय का वातावरण बनाया और प्रतिक्रिया की एक पूरी श्रृंखला के रूप में पूरे देश, विशेषकर बम्बई, पूर्वी बंगाल और बिहार तथा यू.पी. पंजाब एवं उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांतों के कुछ भागों में फैल गए। कलकत्ता में बंगाल के मुस्लिम लीग के अध्यक्ष सुहरावर्दी के प्रोत्साहन से 16 अगस्त को गैर-मुस्लिमों पर अचानक बड़े पैमाने पर हमले शुरू कर दिए गये। इस अप्रत्याशित हमले से उभरते ही हिन्दुओं और सिखों ने भी हमले शुरू किए। शहर के बीचों बीच मौजूद सेना ने प्रतिक्रिया दिखाने में कोई जल्दबाज़ी नहीं की और जब तक सेना ने हस्तक्षेप किया, तब तक तीन दिन के अन्दर 4000 लोग मारे जा चुके थे और 10,000 से अधिक घायल हो चुके थे। सितम्बर 1946 में बम्बई में सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए लेकिन उतने बड़े पैमाने पर नहीं हुए जितने कलकत्ता में हुए थे फिर भी 300 से अधिक लोग इस दंगे में मारे गए। अक्तूबर 1946 में नोआखाली तथा तिपेरा में दंगे भड़के जिसमें 400 लोग मारे गए और बड़े पैमाने पर महिलाओं पर अत्याचार, लूट-खसोट और आगज़नी हुई। बिहार के साम्प्रदायिक दंगों में अक्तूबर के अंत में लगभग 7000 लोगों को बर्बरतापूर्वक मौत के घाट उतार दिया गया। यू0पी0 भी इस नरसंहार में पीछे नहीं रहा और केवल गढ़ मुक्तेश्वर में लगभग 1000 लोगों का कत्ले आम हुआ। 1947 के मध्य तक लाहौर, अमृतसर, मुल्तान, अटौक और रावलपिंडी के दंगों में लगभग 5000 लोग मारे गए। यह मात्र शुरुआत थी क्योंकि पूरे 1947 तथा 1948 के शुरू में सांप्रदायिक दंगे निरंतर चलते रहे जिसमें लाखों लोग मारे गए अथवा घायल हुए तथा महिलाओं के अपहरण एवं बलात्कार, निजी संपत्ति की भयंकर क्षति तथा धार्मिक स्थलों को अपवित्र करने की असंख्य घटनाएँ हुई। लाखों लोग इन दंगों के कारण शरणार्थी बन गए। मानवीय कष्टों तथा अमानवीकरण की यह सीमा, देश के आर्थिक एवं सामाजिक ढाँचे का इस प्रकार पूर्णतः अस्त-व्यस्त होना, 1946 एवं 1948 के मध्य उप-महाद्वीप में भ्रातृघात ¼Fratricide½  की ऐसी स्थिति विश्व सभ्यता के इतिहास में शायद ही इससे पूर्व कभी घटी हो। 

सत्ता  का हस्तानांतरण और विभाजन -

ये सांप्रदायिक दंगे ठीक उसी समय बढ़ने शुरू हुए जिस समय अल्पावधि समाधान के रूप में कैबिनेट मिशन द्वारा प्रस्तावित केन्द्र में अंतरिम सरकार सितम्बर 1946 को गठित की गयी। अंतरिम सरकार के गठन में वायसराय को उन्हीं समस्याओं का सामना करना पड़ा जो शिमला कांफ्रेंस के समय उठी थीं। जिन्ना ने इस प्रकार की सरकार में एक सिख एवं एक अनुसूचित जाति सदस्य के अतिरिक्त कांग्रेस एवं लीग के क्रमशः 5 हिन्दू और 5 मुस्लिम नामजद सदस्यों के रूप में बराबरी के प्रतिनिधित्व की माँग की, जैसा कि अपेक्षित था। कांग्रेस ने इस प्रकार की बराबरी के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया तथा साथ ही यह माँग उठाई कि कांग्रेस को अधिकार होना चाहिए कि नामजदगी की अपनी सूची में हिन्दू, मुस्लिम और अन्य किसी भी समुदाय के सदस्यों को किसी भी अनुपात में शामिल करे तथा नई सरकार वायसराय की सलाहकार समिति के बजाए एक कैबिनेट के रूप में कार्य करें। वैवेल ने जून 1945 में शिमला कांफ्रेस की भाँति ही इस आधार पर अपने प्रयास रोक दिए होते कि यदि मुख्य राजनैतिक दलों में मतभेद बने रहे तो किसी प्रकार की सफलता अर्जित नहीं की जा सकती, लेकिन जन-उभार और बिगड़ती कानून-व्यवस्था के आसन्न खतरे के कारण अंतरिम सरकार के विचार को लागू करना उनकी मजबूरी बन गई। लीग के विरुद्ध प्राथमिकता दिए जाने के वायसराय के कदम में प्रफुल्लित तथा अंतरिम सरकार के गठन को हितकर एवं सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण की दिशा में एक प्रगति के रूप में देखते हुए कांग्रेस ने 2 सितम्बर को जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में कैबिनेट के गठन का निश्चय किया। लेकिन परिस्थितियाँ कुछ इस प्रकार सामने आयीं कि कांग्रेस की अंतरिम सरकार दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में पहुँच गयी, अपनी तमाम चिंताओं के बावजूद कांग्रेस को सांप्रदायिक दंगों के ज्वार के समक्ष असहाय होकर ब्रिटिश सेनाध्यक्ष के मातहत दंगाग्रस्त क्षेत्रों में सेना भेजनी पड़ी। कांग्रेस के अग्रणी नेता 1947 ई0 तक वाद-विवाद, सांप्रदायिक दंगों और झगड़ों से तंग आकर किसी भी प्रकार की आशा छोड़ बैठे थे। वे अब इस भयावह परिस्थिति से किसी भी कीमत पर बाहर आना चाहते थे यहाँ तक कि वे अपने राष्ट्रवादी सपनों को भी दाँव पर लगाते हुए देश के विभाजन की कीमत पर भी आजादी खरीदने को तैयार थे। विभाजन की तीव्रता और सीमा आयोग के निर्णयों में विलम्ब ने विभाजन की त्रासदी को और गंभीर बना दिया।

अंततः विवश होकर भारतीय एकात्मकता का दावा करनेवाली कांग्रेस को मुस्लिम लीग की पृथक पाकिस्तान की माँग को स्वीकार करना पड़ा। अंततः 3 जून 1947 की माउंटबेटन योजना के आधार पर ब्रिटिश भारत को दो स्वतंत्र डोमिनियनों में विभाजित कर दिया गया। 18 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद द्वारा पारित ‘भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम‘ के द्वारा दो स्वतंत्र प्रभुतासंपन्न डोमिनियनों का निर्माण हुआ और 14 अगस्त, 1947 को मुस्लिम बहुल प्रांतों- पंजाब, सिंध, ब्लूचिस्तान, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत तथा बंगाल को मिलाकर एक नये राष्ट्र ‘पाकिस्तान‘ का निर्माण कर सत्ता  का हस्तांतरण कर दिया गया।

मूल्यांकन -

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में साम्प्रदायिकता के उदय और विकास में अनेक कारणों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि इस साम्प्रदायिकता के उदय और विकास में राजनीतिक पक्ष का महत्व, अन्य कारणों की तुलना में अधिक था। ऐसा इसलिए है कि ब्रिटिश राज द्वारा क्रमशः सत्ता  हस्तानांतरित करने की नीति की घोषणा के बाद साम्प्रदायिकता का राजनीतिक प्रतिस्पर्धा सम्बन्धी रूप अधिक स्पष्ट दिखाई पडता है। इस होड में न तो कांग्रेस और न ही मुस्लिम लीग के पास ब्रिटिश राज की समाप्ति के बाद सामाजिक संरचना का कोई विस्तृत कार्यक्रम था। 19वीं शताब्दी के विशिष्ट सामाजिक-आर्थिक विकास, औपनिवेशिक शासन की भूमिका, इसकी प्राथमिकताएँ और उन्हें पूरा करने के लिए इसके द्वारा उठाए गए कदम, सांप्रदायिकता विरोधी शक्तियों की कमजोरियाँ एवं सीमाएँ और 20वीं शताब्दी में सांप्रदायिक शक्तियों का उत्थान इसके कारण हैं जिनकी चर्चा ऊपर की गयी है।

साम्प्रदायिकता का वह विष आज भी किसी न किसी रूप में हमें दिखाई पडता ही रहता है। अपने देश में उभरी-पसरी साम्प्रदायिकता के शमन के लिए कुछ जतन अपेक्षित हैं। मेरे ख्याल से यह काम इन तरीकों के जरिए बेहतर किया जा सकता है- (1) जनता को व्यापक स्तर पर जागरूक बनाकर, (2) मुद्दों पर आधारित राजनीति को बढ़ावा देकर, (3) अपने स्कूली पाठ्यक्रमों खासकर मध्यकालीन इतिहास में सुधार लाकर और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को प्रोत्साहन संवर्द्धन देकर, (4) शिक्षा प्रणाली के जरिए बच्चों के मस्तिष्क को जिज्ञासु और गुण-दोष की विवेचना करने में सक्षम बना कर, आज के बच्चों की तरह नहीं कि जो और जैसा बता दिया, उन्होंने उसी रूप में ग्रहण कर लिया; और (5) पहचान की राजनीति को कम महत्त्व देना।

इनके अलावा हमें देश-समाज में मानवाधिकार के प्रति आदर की संस्कृति गढ़नी है, पुलिस बल को संवेदनशील बनाना है, इस तरह कि जो जानमाल की सुरक्षा दे और बिल्कुल निष्पक्ष होकर कानून-व्यवस्था को लागू करने की अपनी जवाबदेही निभाए। पुलिस बल जिम्मेदारी से अपने कर्त्तव्यों का पालन कर रहे हैं कि नहीं, इसके मूल्यांकन के लिए असंदिग्ध निष्ठा और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में गहन आस्था रखने वाले जवाबदेह नागरिकों की एक कमेटी बनाई जाए। पुलिस बलों का साम्प्रदायीकरण और राजनीतिज्ञों का अपने निहित स्वार्थपूर्ति में उनके इस्तेमाल ने देश को तबाह कर दिया है। साम्प्रदायिक हिंसा की रोकथाम के लिए संभावित किसी भी प्रस्ताव को इन चिंताओं को दूर करना चाहिए।


1 Comments

  1. Superb Cobtent👍👍👍🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏thank you so much guruji..

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