window.location = "http://www.yoururl.com"; Partition of Indian and its Impact | भारत विभाजन और उसके परिणाम

Partition of Indian and its Impact | भारत विभाजन और उसके परिणाम

 


भारत विभाजन और उसके परिणाम :

भारत-विभाजन भारतीय इतिहास की एक विराट, त्रासद और अभूतपूर्व घटना है और जिन परिस्थितियों में यह घटना घटी वह अत्यन्त दुःखदायी हैं। त्रासद इसलिए कि आश्चर्यजनक रूप से, इस विभाजन का कारण न तो कोई बाहरी आक्रमण था, न गृहयुद्ध, न उत्पादन या पूँजी या बाज़ार की आर्थिक विवशताएँ और न ही कोई प्राकृतिक प्रकोप या स्थायी भौगोलिक अवरोध। प्रत्यक्ष रूप से यह करोड़ों मनुष्यों का, सांवैधानिक रूप से अपना प्रतिनिधित्व करनेवाले नेताओं के माध्यम से, स्वेच्छा से चुना हुआ निर्णय था। यह निर्णय देश के इतिहास और सभ्यता के सन्दर्भ में लगभग उतना ही महत्त्वपूर्ण और काल को खण्डित करनेवाला निर्णय था, जहाँ से सभ्यताएँ और समाज या तो तत्काल आत्महत्या की ओर मुड़ जाते हैं या धीरे-धीरे आत्मविनाश की ओर या फिर अविश्वसनीय तरीके से अपनी जड़ता को तोड़कर उन्नति कर जाते हैं। अपने प्राचीन इतिहास, मिश्रित परम्पराओं और सीमाओं को अक्षुण्ण रखनेवाला देश अन्ततः 1947 में दो हिस्सों में बाँट दिया गया। विवेक, जनस्वीकृति और समस्त अपरिहार्यताओं की विवशता को ध्यान में रखने का दावा करते हुए, संवैधानिक तरीके से एक देश को फाड़कर उसके अन्दर से ही, उसके दूसरे प्रतिद्वन्द्वी देश को जन्म दे दिया गया। हिन्दुओं और मुसलमानों के साथ न रह सकने की विवशता इस विभाजन का नैतिक व अपरिहार्य आधार बनायी गयी।

वास्तव में भारत में साम्प्रदायिकता का उदय और विस्तार की चरम परिणति ही भारत विभाजन था। इसका प्रमुख कारण मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता और उनकी साम्प्रदायिक भावना थी। ऐसा क्यों हुआ कि 1857 के विद्रोह की असफलता के बाद ही हिन्दू व मुसलमानों की दो अलग दिशाएँ तय होने लगीं जबकि लगभग पिछले छह सौ सालों से दोनों समाज व दोनों सभ्यताएँ साथ-साथ रह रहीं थीं। स्थायी रूप से विकसित हो चुकी इस अन्तर्भुक्ति को नष्ट करने के पीछे अवश्य ही कुछ प्रभावी व शक्तिशाली शक्तियाँ रही होंगी। बाहरी हस्तक्षेप के रूप में ब्रिटिश सरकार की नीतियाँ थीं जो कि एक शासक के लिए स्वयं को सत्ता में बनाये रखने के लिए अनिवार्य होती हैं। 1857 की हिन्दू-मुस्लिम एकता ने उन्हें बुरी तरह हिला दिया था। यह गठजोड़ ब्रिटिश सत्ता के लिए खतरनाक था। उनकी सारी प्रशासनिक चेष्टाएँ व राजनीतिक कौशल बाद में इसी में जुट गया कि भविष्य में ये दोनों धर्म संयुक्त रूप से उनके विरुद्ध न हो कर एक दूसरे के विरुद्ध हो जाएँ। ब्रिटिश सरकार अंततः इसमें सफल रही। मुख्य रूप से 1857 से लेकर 1947 ई0 तक निरन्तर ऐसे कारक पैदा होते रहे जो हिन्दू और मुसलमान दोनों के बीच विघटन और अलगाव को बढाते रहे। सदियों तक साथ-साथ रहने के बावजूद भी हिन्दू और मुसलमान अपने धार्मिक मतभेदों को भुला नहीं सके थे। शिक्षा और आधुनिक विचारों की कमी तथा अंग्रेजों की दासता के कारण धर्म से अधिक श्रेष्ठ और उपयोगी आदर्श उनके सम्मुख नहीं बन सका। ऐसी स्थिति में सर सैयद अहमदखाँ के नेतृत्व में आरम्भ हुए अलीगढ़-आन्दोलन ने साम्प्रदायिक रूप धारण कर लिया। धीरे-धीरे भारतीय मुसलमान यह विश्वास करने लगे कि उनका हित न केवल बहुसंख्यक हिन्दुओं से भिन्न है अपितु उनके विरोध में भी है। सर मुहम्मद इकबाल ने साम्प्रदायिकता की इस भावना का पोषण किया और उनके साथ अन्य बहुत से मुसलमान नेता सम्मिलित हो गये। मुस्लिम लीग और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्ना का इसमें सबसे बड़ा योगदान था। मुस्लिम लीग ने अपने पूरे राजनीतिक संघर्ष में अँग्रेजों के विरुद्ध कोई प्रत्यक्ष आन्दोलन नहीं छेड़ा। इसी तरह 1923 में हिन्दू महासभा के पुनर्गठन और शक्तिशाली होने के बाद व 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गठन के बाद हिन्दुओं के एक बड़े वर्ग का मुख्य शत्रु अँग्रेजी सरकार न होकर मुसलमान हो गया। यही अँग्रेज सरकार चाहती थी। मिस्टर जिन्ना के नेतृत्व में लीग की नीति दृढ़ और स्पष्ट हो गयी तथा वह मुसलमानों को प्रभावित करने में सफल हुई जिसका अन्तिम परिणाम भारत का विभाजन और पाकिस्तान का निर्माण था।

अंग्रेज शासकों ने इस साम्प्रदायिकता की भावना को निरन्तर प्रोत्साहन दिया। 1870 ई0 से अंग्रेजों ने मुसलमानों की सहानुभूति प्राप्त करने की नीति अपनायी, हिन्दू और मुसलमानों में अन्तर करना आरम्भ किया, मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान की, हिन्दुओं की राष्ट्रीयता की भावना के विरुद्ध उन्हें प्रयोग में लाने का प्रयत्न किया और ’फूट डालो व शासन करों की नीति को अपने शासन का अंग बनाया। अंग्रेजों के सहयोग और प्रोत्साहन से मुस्लिम साम्प्रदायिकता की भावना सफल हुई। 1909 ई0 के चुनावों में साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को इसी आधार पर अपनाया गया और उसके पश्चात् अंग्रेज निरन्तर मुसलमानों की माँगों का समर्थन करते रहे। यह कहना अनुचित न होगा कि मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग से बहुत पहले ही अंग्रेज सरकार भारत में दो राष्ट्रों के अस्तित्व को स्वीकार कर चुकी थी और उसका प्रत्येक कार्य इसी आधार पर होता था। अंग्रेजों ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के विरुद्ध एक प्रमुख हथियार के रूप में प्रयोग किया जिसके कारण मुसलमानों में यह भावना दृढ़ हुई तथा पाकिस्तान का निर्माण सम्भव हो सका। 

भारत-विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण में काँग्रेस की मुसलमानों के प्रति सन्तुष्टीकरण की दुर्बल नीति भी उत्तरदायी थी। समय-समय पर कॉंग्रेस ने लीग की अनुचित माँगों को स्वीकार करके उसे बढ़ावा दिया। अनेक अवसरों पर काँग्रेस ने अपने सिद्धान्तों तक को त्याग दिया। ऐसी एक गम्भीर भूल 1916 ई0 के ’लखनऊ-समझौते में की गयी थी जिसके अन्तर्गत काँग्रेस ने मुसलमानों के पृथक प्रतिनिधित्व और उनको उनकी जनसंख्या से अधिक अनुपात में व्यवस्थापिका-सभाओं में सदस्य भेजने के अधिकार को स्वीकार कर लिया। 1932 ई0 में साम्प्रदायिक निर्णय के विषय में काँग्रेस ने अस्पृश्य जातियों के अलग हो जाने के भय से जिस दुर्बलता का परिचय दिया, उससे भी मुस्लिम साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन मिला। समय-समय पर लीग से समझौता करने के प्रयत्न और मिस्टर जिन्ना से भेंट आदि भी मिस्टर जित्रा और लीग के मनोबल को बढ़ावा देने वाले सिद्ध हुए। काँग्रेस ने अपने राष्ट्रीय स्वरूप को सिद्ध करने के प्रयत्न में हिन्दुओं से निरन्तर त्याग की माँग की लेकिन मुसलमानों से हठ करके कुछ नहीं माँगा। काँग्रेस ने मुसलमानों के उग्र और वैयक्तिक चरित्र को समझने का प्रयत्न नहीं किया और न उनके व्यवहार को सत्यता की कसौटी पर परखा। धर्म पर आधारित कट्टर और दृढ़ अल्पसंख्यकों से व्यवहार करने का सफल मार्ग सन्तुष्टीकरण का नहीं हो सकता था, इस सत्य को काँग्रेस न समझ सकी। काँग्रेस की इस सन्तुष्टीकरण की नीति से न केवल मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिला अपितु इसकी प्रतिक्रियास्वरूप हिन्दू साम्प्रदायिकता भी पनपी। काँग्रेस की सबसे बड़ी असफलता यह रही कि वह एक ऐसा नारा, एक ऐसा आदर्श और एक ऐसा लक्ष्य प्रस्तुत न कर सकी जिसके सम्मुख हिन्दू और मुसलमानों को अपने धार्मिक मतभेदों का ध्यान ही न रहता और वह उस एक नारे, आदर्श और लक्ष्य की पूर्ति के लिए एक हो जाते। धार्मिक मतभेदों को भुलाने के चक्कर में वह धार्मिक मतभेदों पर बल देती गयी। काँग्रेस इस प्रश्न का उत्तर न दे सकी कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय मुसलमानों का भविष्य क्या होगा? मिस्टर जिन्ना ने मुसलमानों के सम्मुख यह प्रश्न रखा और उसका उत्तर भी दे दिया- वह था मुसलमानों के लिए हिन्दुओं की गुलामी। काँग्रेस इसका प्रत्युत्तर न दे सकी। ऐसी स्थिति में मुसलमानों की पाकिस्तान की माँग दृढ़ हो गयी। समय निकल जाने के पश्चात् मूर्ख भी समझदार हो जाता है, यह ठीक है, परन्तु फिर भी विवश होकर यह कहना पड़ता है कि काँग्रेस धर्म निरपेक्षता, समाजवाद और आर्थिक व सामाजिक न्याय पर आधारित भारत के निर्माण का लक्ष्य अपने देशवासियों के सम्मुख रखने में असमर्थ और असफल हो गयी थी। ऐसी स्थिति में भारत में साम्प्रदायिकता का पनपना स्वाभाविक था।

अन्तरिम सरकार में लीग के सदस्यों का सम्मिलित किया जाना, मुस्लिम लीग की ’प्रत्यक्ष कार्रवाई, लीग और कॉंग्रेस के मन्त्रियों के परस्पर मतभेद के कारण अन्तरिम सरकार की दुर्बलता, अंग्रेज सरकार की घोषणा कि वह जून 1948 ई0 से पहले ही भारत छोड़ देगी तथा हिन्दू-मुस्लिम दंगों की भयंकरता आदि भी भारत-विभाजन के कारण बने, इसमें सन्देह नहीं है। 3 जून, 1947 ई0 को पं0 जवाहरलाल नेहरू ने कहा थाः “देश के विभिन्न भागों में लज्जाजनक, पूर्णित और असहनीय हिंसा हुई है। यह समाप्त होनी चाहिए।“ सरदार पटेल ने कहा था - “मैंने यही अनुभव किया कि यदि हम विभाजन स्वीकार नहीं करते हैं तो भारत कई टुकड़ों में बँटकर बिल्कुल बरबाद हो जायेगा।“ द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् ब्रिटेन की दुर्बलता, भारत का उसके लिए आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद न होना और अमेरिका की सरकार का ब्रिटेन पर भारत को स्वतन्त्रता प्रदान करने का दबाव ऐसे कारण थे जिनसे भारत को शीघ्र स्वतन्त्रता देना आवश्यक हो गया। ऐसी स्थिति में लीग की हठ और हिन्दू-मुस्लिम दंगे भारत-विभाजन के कारण बन गये।

विभाजन की अनिवार्यता -

इसमें कोई सन्देह नही है कि भारतवासियों का विशाल बहुमत विभाजन का कट्टर विरोधी था। हिंदू और सिक्ख तो उसके विरुद्ध थे ही, मुसलमानों का भी एक वर्ग विभाजन के खिलाफ था। फिर भी, इस बारे में विभिन्न मत हो सकते हैं कि कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं-विशेषकर नेहरू और पटेल-ने उस समय, सांप्रदायिक आधार पर, देश के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण को स्वीकार कर उचित किया या अनुचित। किंतु, इतिहास पर कोई भी कठोर निर्णय डालने से और तत्कालीन नेताओं ने जो कुछ किया उसके लिए आज उनकी भर्त्सना करने से पहले, यह उचित होगा कि हम अपने आपको उस समय में ले जाकर रखें तथा तब की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही नेताओं द्वारा देश का विभाजन स्वीकार करने के औचित्य पर विचार-विमर्श करें। मार्च, 1947 में लार्ड मांडटबेटेन भारत आए और उन्होंने भारतीय नेताओं से बातचीत करनी शुरू की। पाकिस्तान की मांग के प्रति कांग्रेस के रुख में मार्च और जून, 1947 के बीच परिवर्तन आया। देखना होगा कि इन दिनों देश की स्थिति क्या थी और कांग्रेस के नेताओं के सामने विकल्प क्या थे : 

(1) कांग्रेस और लीग में किसी तरह भी कोई समझौता नहीं हो पाया था क्योंकि लीग पाकिस्तान की मांग से टस से मस होने को तैयार नहीं थी। 

(2) देश सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका में जल रहा था; हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे के रक्त से होली खेल रहे थे; संपत्ति, महिलाओं का सम्मान, मासूम बच्चों की जान, कुछ भी सुरक्षित न था; अराजकता का साम्राज्य था। नेताओं को लगा कि निर्दोष देशवासियों की हत्याएँ होती रहें इससे तो पाकिस्तान बन जाना अच्छा था। 

(3) अंग्रेज अफसरों और ब्रिटिश सरकार की सहानुभूति लीग के साथ थी। सांप्रदायिक दंगों में भी अंग्रेज अफसरों ने लीग का साथ दिया। यदि अंग्रेज न चाहते तो दंगे इस व्यापक पैमाने पर होते ही नहीं और होते भी तो उन्हें पुलिस और फौज के समुचित प्रयोग से दबाया जा सकता था। किंतु अंग्रेज कूटनीतिज्ञ संभवतः, सोचते थे कि संयुक्त भारत बहुत शक्तिशाली हो जाएगा और संभवतः तब भारत में ब्रिटेन के आर्थिक और औद्योगिक स्वार्थों की रक्षा न की जा सके। पाकिस्तान बन जाने से दोनों आपस में लड़ते रहेंगे, कमजोर रहेंगे तथा पश्चिमी राष्ट्रों पर आश्रित रहेंगे। विशेषकर उन्हें विश्वास था कि पाकिस्तान अधिक मैत्रीपूर्ण रहेगा और उसकी भूमि में ब्रिटिश हितों को एक स्थायी प्रभाव-क्षेत्र मिल जाएगा। गैर-कानूनी ढंग से अंग्रेज फौजी अफसरों की मदद से हथियारों में तस्कर व्यापार चल रहा था तथा कुछ देशी नरेशों के सहयोग से भारत की एकता को नष्ट करने का षड्यंत्र रचा जा रहा था। 

(4). संविधान-सभा में बोलते हुए, सरदार पटेल ने और भी साफ-साफ शब्दों में बताया था कि किस प्रकार अंग्रेज अफसर जिलों में अपना कब्जा कायम रखे हुए थे तथा किस प्रकार उनकी साजिश से दंगे हो रहे थे। जैसा कि हम देख चुके हैं, अंतरिम सरकार में शामिल होने के बाद मुस्लिम लीग ने सरकार का कोई भी काम ठीक से चला सकना असंभव कर दिया था। कांग्रेस के नेताओं का सिरदर्द लीग ने इतना बढ़ा दिया था कि अंत में तंग आकर, पंडित नेहरू के शब्दों में - इस “सिरदर्द से छुटकारा पाने के लिए वे सिर ही कटवा डालने को तैयार हो गए।“। पटेल ने कहा यदि शरीर के अंग में जहर फैल गया हो तो उसे शीघ्र ही अलग कर देना चाहिए ताकि शेष सारे शरीर में जहर न फैले। 

(5) कांग्रेस को दो बुराइयों में से एक को चुनना था- देश का विभाजन अथवा गृह-युद्ध। कांग्रेस ने विभाजन को कम बड़ी बुराई समझा क्योंकि नेताओं को यह स्पष्ट हो गया था कि यदि देश का विभाजन न हुआ तो केंद्र दुर्बल रहेगा, कांग्रेस और लीग की मिली-जुली सरकार चल नही पाएगी और देश प्रगति नही कर सकेगा। नेहरू के शब्दों में - “उन्होंने घटनाओं से विवश होकर ही विभाजन को स्वीकार किया।” कहते हैं पंडित नेहरू पहले विभाजन के विरोधी थे किंतु वे मांउटबेटेन से बहुत प्रभावित थे। आचार्य कृपलानी और मौलाना आजाद आदि का मत है कि पंडित नेहरू मांउटबेटेन के सम्मोहन के ही शिकार हो गए। कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की 12 जून को तथा कांग्रेस महासमिति की 14 और 15 जून, 1947 को दिल्ली में बैठक हुई जिनमें विभाजन की मांउबेटेन योजना पर विचार-विमर्श हुआ। मौलाना आज़ाद, अन्य राष्ट्रवादी मुसलमान, पाकिस्तान में शामिल किए जाने वाले प्रदेशों के हिंदू-सदस्य तथा उत्तर प्रदेश के पुरुषोत्तम दास टंडन आदि ने योजना का विरोध किया। मौलाना आज़ाद ने कहा कि यदि कांग्रेस नेताओं ने विभाजन मान लिया तो इतिहास उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा किंतु नेहरू, पंत, कृपलानी, पटेल और अंत में गांधी ने भी इसे स्वीकार करने की राय दी। गोविन्द बल्लभ पंत ने स्वीकृति का प्रस्ताव पेश करते हुए कहा- ‘‘3 जून की योजना की स्वीकृति ही देश के लिए स्वराज और स्वाधीनता पाने का एकमात्र मार्ग है। इसके अंतर्गत हम एक शक्तिशाली केंद्र वाला ऐसा भारतीय संघ बना सकते हैं जो राष्ट्र को प्रगति के पथ पर ले जा सके....आज हमारे सामने दो विकल्प हैं-3 जून की योजना की स्वीकृति या फिर आत्महत्या।‘‘

भारत विभाजन और कांग्रेस -

भारत का विभाजन मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग को लेकर हुआ। पृथक राष्ट्र की माँग 1940 के बाद तेज़ी से उभरी और मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में लीग ने सांवैधानिक तरीकों से और प्रत्यक्ष कार्रवाई करके राजनीतिक गतिरोध की ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जिससे विभाजन अवश्यम्भावी हो गया। लेकिन हमें यह भी नही भूलना चाहिए कि पाकिस्तान के निर्माण में अंग्रेजों का बहुत बड़ा हाथ था। अंग्रेज शासकों ने बढ़ते हुए राष्ट्रीय आंदोलन में गतिरोध उत्पन्न करने के लिए साम्प्रदायिक शक्तियों का इस्तेमाल किया। लीग को मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था के रूप में स्वीकार किया और उसे वीटो की शक्ति दी। अंत में जब अंग्रेजों की नज़र में अखंड भारत सुविधाजनक प्रतीत होने लगा, तब उन्होंने इसे एक रखने का थोड़ा प्रयत्न किया, पर जिन्ना की कारगर धमकियों के सामने उनकी एक न चली। साम्प्रदायिक दंगों को अधिकारीगण रोक नहीं पाए और विभाजन अवश्यम्भावी हो गया। कांग्रेस अपनी सम्पूर्ण प्रतिबद्धता के बावजूद भारत की अखंडता की रक्षा नहीं कर सकी। इसके दो कारण थे। यह राष्ट्रीय आन्दोलन में मुस्लिम जनता को शामिल करने में असफल रही और साम्प्रदायिकता से लड़ने की सही नीति नहीं अपना सकी। ब्रिटिश शासक वर्ग द्वारा राष्ट्रीय जन आन्दोलन के विरूद्ध ‘फूट डालो और शासन करो‘ की नीति से प्रोत्साहित मुस्लिम लीग ने जब उपमहाद्वीप के विभाजन की मॉंग की तो उनका उद्देश्य आम मुसलमानों की स्थिति सुधारना कदापि नही था। उनका स्पष्ट उद्देश्य भौगोलिक दृष्टि से महाद्वीप में एक ऐसा क्षेत्र स्थापित करना था कि मुस्लिम व्यवसायी-व्यापारी वर्ग तथा नवोदित बौद्धिक वर्ग हिन्दू प्रतिस्पर्धा से बच सके। 

सवाल तो यह है कि कांग्रेस ने आखिर विभाजन क्यों मंजूर कर लिया? वस्तुतः मुस्लिम लीग किसी भी कीमत पर अपना हक़ लेने के लिए अड़ गई और ब्रिटिश सरकार को अपने ही बनाए जाल से न निकल पाने के कारण उनकी माँग को मंजूर करना पड़ गया, यह बात तो समझ में आती है। लेकिन भारत की एकता और अखंडता में विश्वास रखनेवाली कांग्रेस ने विभाजन क्यों स्वीकार किया, यह अब भी एक मुश्किल सवाल है। आखिर बात क्या थी कि नेहरू और पटेल ने 3 जून योजना की वकालत की और कांग्रेस कार्यसमिति तथा (अखिल भारतीय) कांग्रेस समिति ने उसके पक्ष में प्रस्ताव पारित कर दिया? सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि गाँधीजी तक ने अपनी मूक स्वीकृति दे दी, क्यों? गाँधी के समर्थकों का यह मानना है कि नेहरू और पटेल ने विभाजन को इसलिए स्वीकार किया, क्योंकि सत्ता का इंतज़ार उनके लिए असहनीय हो रहा था और इसीलिए उन्होंने गाँधीजी की सलाह की उपेक्षा कर दी, जिससे गाँधीजी काफी मर्माहत हुए लेकिन फिर भी उन्होंने सांप्रदायिक घृणा का अकेले ही मुक़ाबला किया, जिस प्रयास की प्रशंसा में माउंटबेटन ने उन्हें एक “वनमैन बाउंडरी फोर्स“ कहा।

इस संदर्भ में यह याद रखना चाहिए कि 1947 में नेहरू, पटेल और गाँधी के सामने विभाजन को स्वीकार करने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं रह गया था। चूँकि कांग्रेस मुसलिम जनसमूह को राष्ट्रीय आंदोलन में नहीं खींच सकी थी और मुसलिम सांप्रदायिकता के ज्वार को रोक पाने में अक्षम साबित हुई थी, इसलिए अब उसके पास विकल्प ही नही था। कांग्रेस की विफलता 1946 के चुनावों में एकदम साफ़ हो चुकी थी। इन चुनावों में लीग को 90 प्रतिशत मुसलिम सीटें मिली थीं। वैसे तो कांग्रेस जिन्ना के विरूद्ध़ अपनी लड़ाई 1946 में ही हार चुकी थी, लेकिन जब कलकत्ता और रावलपिंडी की सड़कों पर तथा नोआखाली और बिहार के गाँवों में सांप्रदायिक दंगे फूट पड़े, तो उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली। जून 1947 तक कांग्रेस के नेता महसूस करने लगे थे कि सत्ता के तुरंत हस्तांतरण से ही यह सांप्रदायिक पागलपन रोका जा सकता है। अंतरिम सरकार की अपंगता ने भी पाकिस्तान को एक अपरिहार्य वास्तविकता बना दिया। अंतरिम सरकार के मंत्री लोग आपस में तू-तू मैं-मैं करते, और अलग-अलग बैठकों में निर्णय करते। इसलिए बैठकों से बचते रहते और लियाकत अली खाँ, जिनके पास वित्त विभाग था, दूसरे विभागों के काम में रुकावट डालते। गवर्नर लीग का साथ दे रहे थे दंगों में लोग मारे जा रहे थे। नेहरू को लग रहा था कि अगर इन चीज़ों को अंतरिम सरकार रोक नहीं पा रही है, तो फिर उसमें हमारे बने रहने का औचित्य क्या है? सत्ता के हस्तांतरण से कम-से-कम इतना तो होगा कि एक ऐसी सरकार बनेगी जो सचमुच नियंत्रण कर सके।

दो औपनिवेशिक राज्यों को तात्कालिक सत्ता हस्तांतरण की योजना स्वीकार करने का एक और कारण था। इससे भारत के विखंडीकरण की आशंका नष्ट हो जाती, क्योंकि इस योजना में प्रांतों और रियासतों को अलग से स्वतंत्रता देने की बात नहीं थी। अन्त में अपनी तमाम अनिच्छा के बावजूद रियासतों को इस या उस देश में शामिल होना पड़ा जो एक बडी उपलब्धि थी। रियासतें अगर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखतीं, तो भारत की एकता के लिए वे पाकिस्ताने से भी बड़ा खतरा साबित होतीं।

इस तरह 1947 में कांग्रेस द्वारा विभाजन को स्वीकार करना मुसलिम लीग की एक संप्रभु मुसलिम राज्य की दलील को स्वीकार करने की प्रक्रिया का ही आखिरी चरण था। वस्तुतः लीग के सम्मुख जून 1947 में ही पूर्ण समर्पण किया जा चुका था, जब कांग्रेस ने यह इच्छा जाहिर की थी कि यदि तत्कालीन अंतरिम सरकार को सत्ता का हस्तांतरण कर दिया जाए, तो वह डोमिनियन का दरजा स्वीकार कर लेगी। लेकिन अंततः उसने विभाजन और डोमिनियन का दरजा, दोनों स्वीकार कर लिए।

भारत विभाजन और गॉंधीजी -

भारत विभाजन की इस प्रक्रिया में गॉंधीजी की क्या मनःस्थिति थी। सामान्यतया इस काल में उनकी अप्रसन्नता और असहाय स्थिति का अक्सर उललेख होता है और यह भी कहा जाता है कि कांग्रेस की फ़ैसला लेनेवाली समितियों में उनकी कोई आवाज नहीं रह गई थी तथा वे अपने ही प्रिय नेहरू और पटेल द्वारा छले गये थे। हमारी दृष्टि में गाँधीजी की असहाय स्थिति का कारण न तो जिन्ना का दुराग्रह था और न नेहरू और सरदार पटेल की तथाकथित सŸा-लोलुपता। वास्तव में वे अपने ही लोगों के सांप्रदायिक हो जाने से असहाय थे। उनके अपने लोगों में ही सांप्रदायिकता घुस गई थी। अपनी 4 जून 1947 की प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने विभाजन को इसलिए स्वीकार किया, क्योंकि लोग ऐसा ही चाहते थे। यह माँग मंजूर की गई, क्योंकि आप लोगों ने ऐसा चाहा। कांग्रेस ने यह माँग कभी नहीं की, लेकिन कांग्रेस में जनता की नब्ज़ समझने की क्षमता है, उसने महसूस किया कि खालसा और हिंदू, दोनों की इच्छा यही है। तो यह विभाजन के लिए सिखों और हिंदुओं की आतुरता थी, जिसने गाँधीजी को व्यर्थ, दिशाहीन और अक्षम बना दिया था, गाँधीजी जन नेता थे और जन नेता की उस वक्त अहमियत ही क्या रह जाती है, जब उसका जन ही उसका अनुसरण करने से इनकार कर दे। गाँधीजी कांग्रेस के नेताओं की अवहेलना तो कर सकते थे, जैसा कि उन्होंने 1942 में किया था, जब उन्होंने देखा कि समय संघर्ष के लिए सही है। लेकिन अब वे बड़े पैमाने पर कुछ नहीं कर पाते। 1947 में ’अच्छाई की ताक़तें’ थी ही नहीं, जिनके आधार पर वे कोई कार्यक्रम बनाकर निर्णय ले पाते। गॉंधीजी ने स्वयं कहा था कि मुझे इस प्रकार की स्वस्थ भावना का कहीं कोई चिह्न दिखाई नहीं देता। अतएव उपयुक्त समय आने तक मुझे इंतज़ार करना पड़ेगा।

लेकिन एक दृष्टिहीन व्यक्ति अँधेरे में निहायत अकेले टटोलते हुए प्रकाश की किसी किरण तक पहुँचता, तब तक राजनीति इंतज़ार नहीं कर सकती थी। माउंटबेटन योजना उनका पीछा कर रही थी और गाँधीजी समझ रहे थे कि दंगों तथा अंतरिम सरकार की अक्षमता के कारण विभाजन अपरिहार्य हो गया है। अतः 14 जून 1947 की अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में दृढ़ क़दमों से गए और कांग्रेसजनों से विभाजन को एक तात्कालिक अनिवार्यता रूप में स्वीकार करने को कहा, लेकिन उन्हें यह सलाह भी दी कि वे इसे हृदय से न स्वीकार करें तथा इसे निरस्त करने का दीर्घकालीन कार्यक्रम बनाएँ। गाँधीजी ने स्वयं भी विभाजन हृदय से स्वीकार नहीं किया और नेहरू की तरह भारतीय जनता में उनकी आस्था बनी रही। यह बात अवश्य है कि अब उन्होंने अकेले चलने का फैसला किया, वे नोआखाली के गाँवों में पैदल घूमते रहे, बिहार के मुसलमानों को आश्वस्त करते रहे और कलकत्ता में दंगा रोकने के लिए न केवल लोगों को समझाते रहे, बल्कि उपवास की धमकी भी देते रहे। वैसे भी ’जदि तोर डाक शुने केउ न आशे, तबे एकला चलो रे’ (यदि तुम्हारे आह्वान पर कोई नहीं आता, तो अकेले चलो) अरसे से उनका प्रिय गीत था, वही उन्होंने किया।

15 अगस्त 1947 की सुबह जब जनमानस आज़ादी और विभाजन की वास्तविकता से रूबरू हो रहे थे, हमेशा की तरह, गाँधी और नेहरू दोनों ही भारतीय जनता की भावनाओं को प्रतिबिंबित कर रहे थे, गाँधीजी अपनी प्रार्थना के ज़रिए अँधेरे में हो रही हलचल, हत्याओं, अपहरणों और बलात्कारों का प्रतिकार कर रहे थे, तो नेहरू की आँखें क्षितिज पर उभर रहे प्रकाश पर टिकी थीं, जहाँ स्वतंत्र भारत का उदय हो रहा था। जवाहर लाल नेेहरू के इन कवित्वपूर्ण शब्दों ने कि “बरसों पहले हमने नियति के साथ एक करार किया था’ लोगों को याद दिलाया कि उनकी किकर्तव्यविमूढ़ता ही एकमात्र सत्य नहीं है, उससे भी बड़ा सत्य है वह गौरवपूर्ण संघर्ष जो जद्दोजहद से भरा था, जिसके दौरान बहुत-से लोग शहीद हुए और असंख्य लोगों ने करबानियाँ दीं, उस दिन का स्वप्न देखते हुए, जब भारत आज़ाद होगा, वह दिन आ गया था।

भारत विभाजन के परिणाम -

एक व्यक्ति जो कहीं भी स्वतंत्रता दिवस के हर्षोल्लास में शामिल नहीं हुआ था पर जिसकी अनुपस्थिति सबको खली थी वह थे महात्मा गांधी। थके-हारे राष्ट्र-पिता इस दिन भी दिल में कितने ही संताप लिए राजधानी से दूर गांव-गांव पैदल चलकर सांप्रदायिक हिंसा की विभीषिका के सताए परिवारों के अवशेषों को सांत्वना और सहानुभूति बांट रहे थे। यदि किसी के सपने सबसे अधिक टूटे थे तो वह व्यक्ति भी गांधीजी ही थे क्योंकि गॉधीजी ने जीवन-भर प्रेम और अहिंसा का पाठ पढ़ाया था तथा शांतिमय अहिंसात्मक उपायों से देश की एकता की रक्षा करने और उसे स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष किया था, पर आज जब स्वतंत्रता के साकार होने का क्षण आया तो देश में शांति, प्रेम और अहिंसा नहीं, अपितु, घृणा, हिंसा और आतंक का साम्राज्य था। सांप्रदायिकता और घृणा के दानव के विरुद्ध गांधीजी जीवन भर लडते रहे थे। औरों के लिए भले ही यह विजय का क्षण रहा हो पर महात्मा गांधी के लिए इससे अधिक दुःखदायी वातावरण और क्या हो सकता था जबकि उनकी आंखों के सामने उनके सभी आदर्शों का खून हो गया हो। 

वस्तुतः जो विभाजन का समर्थन करते हैं उनके पास यही तर्क है कि हिन्दुओं और मुसलमानों की जीवन पद्धतियाँ हर क्षेत्र में इतनी विरोधी थीं कि उनमें कोई सामंजस्य सम्भव ही नहीं था। बल्कि एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व को क्षति पहुँचाता था। ये तनाव, संघर्ष, पारस्परिक घृणा, असन्तुलन ही धीरे-धीरे बढ़ते हुए विभाजन के लिए जरूरी कारण बन गये। यह बात दूसरी है कि इस फोड़े ने पूरी तरह पकने में कुछ अधिक वर्षों का समय ले लिया। उनका कहना है कि हिन्दुओं का जातिवाद मुसलमानों को अपने से बिलकुल अलग करता था। उनका छुआ पानी न पीना, उनके हाथ का, यहाँ तक कि उनके बर्तनों का खाना भी उनके लिए पाप था। यह जहर इतने गहरे तक फैला था कि जाति व्यवस्था में निम्न वर्ग के दबे कुचले भी इससे ग्रसित थे। हिन्दू गाय की पूजा करते थे, मुसलमान उसको स्वादिष्ट मांस के लिए खाते थे। एक देव - मूर्ति की पूजा करता था तो दूसरा उसे तोड़ना अपने लिए सवाब समझता था। दोनों में विवाह असम्भव था। वस्त्र, भोजन, इतिहास, ईश्वर, उपासना-पद्धतियाँ, पारिवारिक बुनावट, भाषा सब भिन्न थे। 1857 के बाद मुसलमानों का सामन्त वर्ग यह कभी नहीं भूला कि उसने लगभग 600 साल तक हिन्दुओं पर शासन किया है। हिन्दू कभी नहीं भूले कि मुसलमानों ने जबर्दस्ती उनसे धर्म परिवर्तन कराया, उनके मन्दिरों को नष्ट किया, उसकी स्त्रियों को उठाया। विभाजन के समर्थकों के पास इसी तरह के तर्क हैं। कुछ राष्ट्रवादी मुसलमानों और कुछ काँग्रेसी नेताओं की सारी सद्भावनाओं के बाद भी, विभाजन के समर्थक और योद्धा अपने तर्कों पर अड़े थे। दोनों के साथ-साथ रहने के सैकड़ों सालों के लिए उनका कहना था कि वे रेल की पटरियों की तरह साथ-साथ थे, न कि किसी सामाजिक अन्तुर्भुक्ति के कारण। उनका कहना था कि वे सिर्फ दो अलग ’धर्म’ नहीं थे, बल्कि हर तरह से दो अलग राष्ट्र थे जिनमें कोई आधारभूत समानता ही नहीं थी।

पर इतिहास इतना इकहरा और पारदर्शी नहीं होता। यदि हम इन तर्कों को मानें तो बहुत से दूसरे प्रश्न भी पैदा होते हैं। 600 सालों तक जो मिश्रित सभ्यता रही उसका आधार क्या था ? हर गाँव में हिन्दू, मुसलमान दोनों के परिवार थे। मन्दिर था, मस्जिद भी थी। उनके त्यौहार, रीति-रिवाज, परम्पराएँ, सामाजिक ढाँचा सब सुरक्षित थे। जो स्थितियाँ विभाजन के समर्थक बताते हैं, यदि वही एकमात्र वास्तविकता होतीं, तो देश में विभाजन या बड़े स्तर का कोई विघटन बहुत पहले हो जाना चाहिए था। सब जानते है कि 1857 की क्रान्ति में दोनो धर्मो के लोग साथ-साथ लडे थे। कितना आसान था विभाजन का रुक जाना, यदि जिन्ना और काँग्रेस किसी भी स्तर पर समझौते के लिए उस तरह तैयार हो जाते जिस तरह 1916 में तिलक और जिन्ना हो गये थे। हालॉंकि माउण्टबेटन के आने के बाद नेहरू और पटेल विभाजन के लिए जिन्ना से अधिक व्यग्र थे। विभाजन की माउण्टबेटन की योजना को काँग्रेस ने पहले स्वीकृति दी। माउण्टबेटन ने 2 जून को आधी रात को लगभग धमकाते हुए इसे जिन्ना पर थोप दिया और जिन्ना ने चुपचाप सर हिला दिया। बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि जिन्ना अन्त तक पाकिस्तान नहीं चाहते थे। ’पाकिस्तान’ उनके लिए सिर्फ एक मोहरा था जिसे वह राजनीति की शतरंज में बहुत सलीके से आगे बढ़ा रहे थे, इसलिए कि काँग्रेस को दबाव में लेकर मुसलमानों के लिए अधिक से अधिक शक्ति और अधिकार ले सकें। ’सच तो यह है कि हिन्दू और मुसलमानों की पृथक जीवन-पद्धति, उनके पृथक धर्म, पृथक परम्पराएँ विभाजन का कारण नहीं थीं बल्कि बिसात पर खेली जा रही एक बाजी थी जिसमें मोहरों की जगह करोड़ों व्यक्तियों के जीवन दाँव पर लगे और नष्ट हो गये। यह सिर्फ जिन्ना की जिद, आहत अहंकार और महत्त्वाकांक्षा थी जिसने इन तर्कों को बड़ा रूप देकर पाकिस्तान को जन्म दिया।

इस प्रकार विभाजन ने अन्ततः, एक वृहद सार्वभौम भारत की सम्भावना का अन्त कर दिया परन्तु कुछ आधारभूत प्रश्न उभर कर सामने आता है जैसे - विभाजन क्यों नही होना चाहिए था? विभाजन होने में क्या गलत हुआ ? क्या यह उचित था कि विभाजन को रोककर देश को गृहयुद्ध की तरफ ढकेल दिया जाता जिसकी शुरुआत दंगों की श्रृंखलाओं से हो चुकी थी ? क्या विभाजन को रोककर अँग्रेजों की गुलामी और कई वर्षों तक की जाती ?

वस्तुतः जिन्ना जिस आधार पर और जिस धर्म की लड़ाई लड़ने का छद्म कर रहे थे, उसके वह कभी थे ही नहीं। वह मुस्लिम लीग के नेता थे, देश के मुसलमानों के नहीं। इस्लामी जगत में जिन्ना सदैव एक आत्मनिर्वासित की तरह रहे । हिन्दू धर्म उनके लिए कभी न समस्या रहा, न किसी समस्या का कारण। बाद में जिस काँग्रेस पर सिर्फ ’हिन्दू’ पार्टी होने के तर्क के कारण उन्होंने राजनीति के सारे आरोपों, शंकाओं और विरोधों को जन्म दिया, उसी काँग्रेस के घोषित और उग्र हिन्दू तिलक से जिन्ना, 1916 में ’लखनऊ पैक्ट’ बड़ी सरलता से कर चुके थे। यह पैक्ट बताता है कि जिन्ना और काँग्रेस समझौता कर सकते थे, केन्द्रीय संघ बना सकते थे, अविभाजित भारत को चला सकते थे। पूरे जीवन में जिन्ना ने कभी हिन्दू धर्म के खिलाफ एक शब्द नही कहा। जिन्ना की श्रद्धा के पात्र तिलक और गोखले थे, कभी कोई मुस्लिम उनके सम्मान का पात्र नहीं रहा। अपने खोजा सम्प्रदाय के धार्मिक गुरु आगा खाँ को वह सख्त नापसन्द करते थे। तिलक का मुकदमा जिन्ना ने लड़ा था और उनके मन में तिलक के लिए गहरा सम्मान था । एम0सी0 छॉगला का मानना है कि गाँधी, नेहरू और दूसरे नेताओं के लिए वह कठोर और कटु बातें कहते थे, लेकिन जहाँ तक गोखले और तिलक का सवाल है, जिन्ना के मन में उनके और उनके विचारों के प्रति गहनतम सम्मान था।

1940 के बाद मुस्लिम लीग पर जिन्ना का हमेशा पूरा नियन्त्रण रहा। 1946 के चुनावों में मुस्लिम लीग की सफलता का पूरा श्रेय सिर्फ जिन्ना को जाता है। यदि विभाजन के समर्थकों के ये तर्क सही हैं कि दो विपरीत धर्मों की पृथक सत्ता और पृथक अस्तित्व की विवशता ने ही विभाजन को अपरिहार्य बनाया, तो फिर जिन्ना अकेले विभाजन को जन्म देने में कैसे सक्षम थे, या कैसे रोकने में समर्थ थे ? पर सत्य यही था। विश्व के इतिहास में यह अनोखी घटना है कि एक व्यक्ति ने सिर्फ अपने पूर्वाग्रहों के कारण, बिना किसी आधार और परम्परा के, एक राष्ट्र के अन्दर से दूसरे राष्ट्र को जन्म देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो।

पाकिस्तान की माँग सिद्धान्त रूप से ही अव्यावहारिक, दोषपूर्ण व गलत सूचनाओं पर आधारित थी। जिन क्षेत्रों को पाकिस्तान में माँगा जा रहा था, वहाँ की वास्तविक मुस्लिम आबादी, उनकी राजनीतिक स्थिति, उनके आर्थिक संसाधन, उद्योग धन्धे, उनकी सामाजिक स्थितियाँ व भारत में बचे मुसलमानों के भविष्य व उनके अल्पसंख्यक होने के बुनियादी सवाल के बारे में जिन्ना को या मुस्लिम लीग में अन्य किसी को कुछ भी स्पष्ट नहीं था। गणित, भूगोल, इतिहास, परम्पराएँ, अन्तर्राष्ट्रीयता, समाजशास्त्र ऐसे विषय जिन्ना के लिए पाकिस्तान के सामने नगण्य व अर्थहीन थे। लाहौर प्रस्ताव स्वयं में पाकिस्तान की आर्थिक, भौगोलिक अवधारणाओं को लेकर पूरी तरह अस्पष्ट था। उसके निहितार्थ राजनीति से प्रेरित थे न कि मुसलमानों की वास्तविक समस्याओं के प्रति। दोनों पाकिस्तानों को जोड़ने के लिए भारत के अन्दर 800 मील लम्बे गलियारे की जिन्ना की माँग इसका सबूत है। इस हास्यास्पद माँग के पीछे, जिन्ना ने तर्क दिया कि जब आज दोनों देशों के बीच रास्ता है तो विभाजन के बाद भी ’हिन्दू राज्य’ को रास्ता देना चाहिए। जिन्ना से जब पूछा गया कि हिन्दू बहुल होने के बाद असम पाकिस्तान का हिस्सा क्यों होना चाहिए? (जिन्ना यह चाहते थे) तो उनका उत्तर था कि ’असम’ इसके अलावा कहाँ फिट होगा ? जब पूछा गया कि हिन्दू बहुल मद्रास का अल्पसंख्यक मुसलमान क्या करेगा? तब जिन्ना का जवाब था कि उसके पास तीन विकल्प हैं। पहला यह है कि वह उस राष्ट्र की नागरिकता ग्रहण कर ले जहाँ वह है, दूसरा यह कि वह उस राष्ट्र में विदेशी की तरह रहे, तीसरा यह कि वह पाकिस्तान आ जाए, मैं उसका स्वागत करूँगा, वहाँ बहुत जगह है। (इण्डिया अनडिवाइडेड, पृ0 395) 7 अगस्त, 1947 को गाँधी नोआखाली के दंगा पीड़ित गाँवों के लिए पदयात्रा पर गये और जिन्ना पाकिस्तान के गर्वनर जनरल बनने के लिए करॉची की ओर उड़े। जहाज पर बैठने से पहले भारत में पीछे छूट गये लीग के नेताओं से जिन्ना ने कहा कि देश अब विभाजित हो गया है। उन्हें भारत का वफादार नागरिक होना चाहिए। भारत के लीगी नेताओं, राष्ट्रवादी मुसलमानों और छूटे हुए साढे़ चार करोड़ मुसलमानों की नियति एक नये देश में अल्पसंख्यक बन जाने के कारण बहुत संकटपूर्ण हो गयी थी। इस पाकिस्तान ने उन्हें क्या दिया ? विभाजन के समर्थकों के पास इसका कोई उत्तर नहीं है। आज के दौर में तो यह सर्वाधिक प्रासंगिक सवाल है। 

1940 में लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान के प्रस्ताव से पहले भी और बाद में भी, पाकिस्तान या अलग मुस्लिम राज्य को लेकर कई योजनाएँ प्रकाशित हुई थीं। लीग ने 1940 में लाहौर के अपने प्रस्ताव में इनमें से किसी को न तो पूरी तरह स्वीकार किया था और न ही अपनी कोई सम्पूर्ण योजना प्रकाशित की थी। उसने सिर्फ सैद्धान्तिक रूप से अलग क्षेत्र की माँग की थी। ’पाकिस्तान’ शब्द प्रस्ताव में कहीं नहीं था। उस अलग क्षेत्र की पूरी रूपरेखा, भौगोलिक सीमाएँ आदि बाद में विचार करने के बाद प्रकाशित होनी थीं जो अन्तिम क्षणों तक नहीं हुईं। यदि कोई व्यक्ति लीग के प्रस्ताव पर आधारित पाकिस्तान को समझना चाहे तो वह असमर्थ है। लीग के पास अन्तिम बिन्दु तक पाकिस्तान की पूरी रूपरेखा क्यों नहीं थी ? मुसलमानों का भविष्य जिस देश में सुरक्षित किया जा रहा था वह कहाँ था ? कैसा था? क्या उसका ढाँचा था ? क्या आन्तरिक गठन था ? क्या सीमाएँ थीं, सेना थी, उद्योग थे, आर्थिक संसाधन थे ? कौन इस देश के बारे में जानता था ? जिन्ना, लियाकत अली या मुस्लिम लीग के दूसरे नेता ? विस्तार से कभी इसके पक्षों पर चर्चा क्यों नहीं हुई? क्यों नहीं मुस्लिम लीग के प्रस्ताव पर पूरे देश के मुसलमानों में बहस चलायी गयी? इस धुँधलके के बीच पाकिस्तान की एक साफ, मुकम्मल तस्वीर क्यों नहीं रखी गयी जो करोड़ों मनुष्यों का जीवन नष्ट होने से बचा सकती थी ? सेना की तरह या देश के 400 करोड़ नगद रुपयों की तरह आबादी का स्थानान्तरण क्या शान्ति और सहमति से नहीं हो सकता था ? अम्बेडकर ने इसका सुझाव भी दिया  था और इसकी योजना भी दी थी, परन्तु निश्चित रूप से यह एक कठिन और बहुत कठिन कार्य था। कोई भी अपनी धरती, अपने खेत, अपनी दुकानें, मित्र, परिवार छोड़कर दूसरे देश में निर्वासित नही होना चाहता था। इसके अलावा दूसरे देश की सीमाएँ व क्षेत्र अन्त तक अस्पष्ट और विवादित थे फिर ऐसी स्थिति में एक आशंकित भविष्य के लिए वे अपना सुखी वर्तमान नष्ट क्यों करते ? प्रश्न यही है कि विभाजन की नीति ऐसी क्यों नहीं बनी जिसमें आबादी का शान्तिपूर्ण स्थानान्तरण हो सकता था? माउण्टबेटन किस जल्दी में थे कि उन्होंने जून, 1948 की निर्धारित तिथि से लगभग 10 महीने पहले विभाजन कर दिया ? हमारे नेताओं को क्या जल्दी थी कि एक बार विभाजन पर सहमत हो जाने के बाद शान्तिपूर्ण प्रयासों से उन्होंने आबादी के स्थानान्तरण का मार्ग नहीं ढूँढ़ा। वे किस जल्दी में थे? क्या थक गये थे संघर्ष से, क्या देह साथ नहीं दे रही थी या सत्ता की अदम्य लालसा थी ? ध्यान दें कि उस समय जिन्ना की उमर लगभग 72 वर्ष, पटेल की लगभग 71 वर्ष, नेहरू की लगभग 60 वर्ष थी क्या इसीलिए देश का विभाजन हड़बड़ी में कर दिया गया ? यह एक ऐसा ऑपरेशन था जिसके लिए औजारों को ‘स्अरलाइज‘ करने की भी प्रतीक्षा नहीं की गयी।

विभाजन ने भारत की एक दीर्घजीवी व विकसित मिश्रित सभ्यता को नष्ट कर दिया। यह इसका एक अन्य नकारात्मक परिणाम था। मिश्रित समाजों की इसी उपलब्धि और शक्ति ने इस देश को विभाजन के पहले के पाँच हजार साल का अबाधित, अखण्डित इतिहास दिया था। विभाजन का अन्य नकारात्मक परिणाम दो धार्मिक राष्ट्रों की सम्भावनाओं को जन्म देना था। धार्मिक राष्ट्र एक अनिवार्य बुराई है। इस्लाम के धार्मिक आधार पर बने पाकिस्तान के जन्म ने स्वयं भारत में एक ’हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा और सम्भावना को, वैचारिक व भावनात्मक स्तर पर मजबूत आधार दे दिया। विभाजन के बाद ’हिन्दू राष्ट्र’ उसी तरह अपने आप स्वीकृति पाने लगा जिस तरह अँधेरा कहते ही रोशनी या पाप कहते ही पुण्य अपने आप अस्तित्व में आ जाते हैं। विभाजन के बाद भी गाँधी मुसलमानों की सुरक्षा और सम्मान के लिए लड़े, इस बात के लिए गाँधी की प्रशंसा की जानी चाहिए और यह बड़ी बात थी। विभाजन के बाद मुसलमानों के पक्ष में बोलने के लिए एक अविचलित नैतिक शक्ति और दुर्दम्य आत्मविश्वास चाहिए था। विभाजन गाँधी के सम्पूर्ण जीवनदर्शन का ’लिटमस टेस्ट’ था और गाँधी इस पर शत प्रतिशत खरे उतरे। विभाजन के बाद भारत एक हिन्दू राष्ट्र होने से बच गया, जबकि पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र होने से नहीं बच पाया। कुल मिलाकर वृहद सार्वभौम राष्ट्र की सम्भावना का अन्त विभाजन का अन्य दुखद पक्ष था ।

विभाजन क्यों हुआ यह प्रश्न हमेशा अनुत्तरित होगा पर यह प्रश्न जरूर पूछा जा सकता है कि विभाजन कौन चाहता था ? क्या काँग्रेस ? क्या जिन्ना? क्या अँग्रेज? आदि-आदि । इनमें से सब कहते है कि नही, हम विभाजन नही चाहते थे लेकिन फिर भी सबकी सहमति से सांवैधानिक तरीके से प्रस्ताव स्वीकृत करके विभाजन हुआ। इसमें किसी तरह का बल प्रयोग नही था, विवशता नही थी। यह इतिहास की ही विडम्बना है कि हर पात्र कहे कि नहीं, मैं यह नहीं चाहता था, पर घटना हो जाए। 

शुरू में विभाजन कोई नहीं चाहता था। 1937 के चुनावों में देश के किसी भी महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल, नेता या संगठन के पास विभाजन का विचार नहीं था। रहमत अली को उपहास की दृष्टि से देखा जाता था ।1937 की सर्दियों के चुनाव में मुस्लिम लीग का घोषणा पत्र लगभग वैसा ही था, जैसा काँग्रेस का। देश को अँग्रेजों से मुक्त कराने का लक्ष्य था, हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयास था। जिन्ना ने काँग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से इस विषय पर उनकी कुछ बातें भी हुई पर यह बात आगे नहीं बढ़ी। 1947 की सर्दियों तक देश के नेता विभाजन को ही एकमात्र विकल्प मानने लगे थे। 10 वर्षों का यह वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कालखण्ड था, जिसने इस देश की अखण्डता को नष्ट करके इसका इतिहास पूरी तरह बदल दिया। वस्तुतः यह सब उस खेल की तरह था जो निहायत लापरवाही, हल्केपन और गैरजिम्मेदारी के साथ शुरू हुआ पर धीरे-धीरे इसमें नये खिलाड़ी शामिल होते गये, नियम बनते गये, टोलियाँ बनती गयीं, रेफरी आ गये और अन्त में किसी भी तरह से जीतना इस खेल में खिलाड़ियों का एकमात्र और अन्तिम लक्ष्य रह गया।

सच यही है कि अन्त में सबने विभाजन चाहा था। जो गाँधी कहते थे कि ‘‘विभाजन मेरी लाश पर होगा‘‘, अन्ततः 14 जून, 1947 को कॉंग्रेस की महासमिति में विभिन्न कारणों से विभाजन के प्रस्ताव पक्ष में चालीस मिनट तक बोले थे। पर गाँधी ही अकेले व्यक्ति थे जो अँग्रेजों से कहते थे कि ‘तुम जाओ, हमें ईश्वर पर छोड़ दो, बर्बादी में छोड़ दो, हम आपस में तय कर लेंगे, पर तुम जाओ।‘ गाँधी अपने साथियों से कहते थे कि विभाजन मत करो, हम दस साल अँग्रेजों से और लड़ लेंगे। माउण्टबेटन को मालूम था कि यही अकेला व्यक्ति है जो अपनी आत्मा और दूरदृष्टि, दोनों से, विभाजन नहीं चाहता। गाँधी ने अपनी दूसरी मुलाकात में ही माउण्टबेटन को प्रस्ताव दे दिया था कि तुम मुस्लिम लीग को देश दे दो, जिन्ना को प्रधानमन्त्री बना दो। यदि लीग इसे अस्वीकार करे तब फिर यह अवसर ’काँग्रेस को दो। तुम जाओ। गाँधी का यह अचूक राजनीतिक दाँव था पर नेहरू और पटेल जैसे लोग इसे नहीं समझ पाये। गाँधी के इस एक प्रस्ताव ने एक तरह से पूरी राजनीतिक समस्या का समाधान कर दिया था। पर यह कोई नहीं चाहता था, यहॉ तक कि जिन्ना भी नहीं। उनकी पूरी साख दाँव पर लगती और नष्ट हो जाती। जिन्ना न तो ’लोक’ का अनुभव रखते थे न प्रशासन’ का उनकी सारी राजनीति ड्राइंगरूम की थी। गाँधी का यह प्रस्ताव नकार दिया गया और नेहरू और माउण्टबेटन के स्टाफ के संयुक्त प्रयास से इसे तत्काल रद्द कर दिया गया। जिन्ना तक यह प्रस्ताव पहुँचा ही नहीं और यदि पहुँचता, तो सम्भव था जिन्ना की प्रतिक्रिया इस देश का इतिहास बदल देती।

14 जून, 1947 को काँग्रेस कार्यसमिति में विभाजन के प्रस्ताव की स्वीकृति पर बोलते हुए गाँधी ने फिर एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही थी जिसकी ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया और जिसे लोहिया ने इंगित किया है। गाँधी ने कहा था कि विभाजन पर सहमत हो जाने के बाद लीग और काँग्रेस आपस में बैठकर इसके क्रियान्वन की प्रक्रिया तय करें। अँग्रेज सरकार को इससे बिलकुल बाहर रखें। यह सुझाव वस्तुतः विभाजन रोकने की गाँधी की अन्तिम कोशिश थी। गाँधी ने सोचा था कि विभाजन की प्रक्रिया इतनी जटिल और अव्यावहारिक है कि जब दोनों दल बैठें, तो सम्भव है कि उन्हें यह बात समझ में आए कि वे कितना गलत कर रहे हैं, और वे अन्य किसी विकल्प पर विचार करें। माउण्टबेटन ने ‘चाकू से केक काटने‘ की तरह भारत के टुकड़े करके बाँट दिये, जिससे लाखों जीवन नष्ट हुए, जो सम्भव है गाँधी के इस सुझाव से बच जाते।

गाँधी ने विभाजन का अन्तिम समय तक विरोध किया था। वह अकेले व्यक्ति थे जो अन्त तक हिम्मत नहीं हारे थे। गाँधी इस बात के लिए भी तैयार थे कि छोड़ो आजादी ... अभी विभाजन नहीं होने देंगे। लड़ना पड़ा तो अँग्रेजों से दस साल और लड़ लेंगे पर उनके दूसरे साथी थक चुके थे। सच तो यह है कि अन्तिम समय में गाँधी का साथ उनके सेनानायकों ने ही छोड़ दिया। गाँधी ने संघर्ष की यह ऊर्जा दंगों के पीड़ितों के बीच गाँव-गाँव भटकने में लगा दी। आजादी के दिन वह व्यक्ति दुखी, अकेला और बिलकुल विस्मृत था ।

शुरू-शुरू में पाकिस्तान के नायक मुहम्मद अली जिन्ना तो एक राष्ट्रवादी थे। 1905 में बंगाल विभाजन का विरोध करनेवाले, 1909 में मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मण्डल का विरोध करनेवाले, काँग्रेस के राष्ट्रवादी व प्रगतिशील विचारों का विरोध करने की वजह से सैयद अहमद को नापसन्द करनेवाले व हिन्दू-मुस्लिम एकता के दूत समझे जानेवाले गोखले, फिरोजशाह मेहता और तिलक का साहचर्य और उनसे शक्ति पानेवाले जिन्ना, बाद में पाकिस्तान के ’भौतिक जनक’ बने। जिन्ना का बाद का यह वैचारिक व भावनात्मक रूपान्तरण बहुत से प्रश्नों को जन्म देता है। जब यह बात उठेगी कि जिन्ना ही विभाजन के जिम्मेदार थे तब ये प्रश्न भी उठेंगे कि उनके इस रूपान्तरण के लिए जिम्मेदार कौन था ? काँग्रेस क्यों अन्ततः उनके लिए सिर्फ एक हिन्दू पार्टी रह गयी और क्यों काँग्रेस का बहुमत उन्हें ’हिन्दू राज’ लगने लगा ? अपने इंग्लैण्ड के 5 साल के प्रवास के बाद जब जिन्ना वापस भारत लौटे तो 1937 के चुनावों में उन्होंने काँग्रेस और लीग के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की बात रखी। काँग्रेस को तो यह गुरूर था और यह मानती थी कि देश के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करनेवाला वह एकमात्र राजनीतिक दल है, ऐसे में काँग्रेस ने जिन्ना की माँग को ठुकरा दिया। काँग्रेस की इस ठोकर ने जिन्ना के मूल और आन्तरिक तन्तु ‘दर्प‘ को बुरी तरह आहत किया। कॉंग्रेस की इस ठोकर का जवाब जिन्ना ने बाद में जीवन भर दिया। जवाब में जिन्ना काँग्रेस को राष्ट्रीय दल से हिन्दू पार्टी में ’रिड््यूस’ करते चले गये। वह काँग्रेसी नेताओं को ’हिन्दू नेता’ और काँग्रेस को ’हिन्दुओं की पार्टी’ कहने लगे। जब भी काँग्रेस ने किसी बिन्दु पर पूरे भारत का प्रतिनिधि होने की बात कही, जिन्ना वहीं अड़ गये। जिन्ना का यह ’आहतदर्प’ ब्रिटिश सरकार के अनुकूल था। जैसे-जैसे जिन्ना काँग्रेस को सिर्फ हिन्दुओं का प्रतिनिधि बनाते गये, ब्रिटिश सरकार, जिन्ना और मुस्लिम लीग को मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि मानती गयी। जिन्ना का आहत दर्प था जिसने कुर्सी पर बैठकर कानून के लिए लड़नेवाले एक वकील को धधकते हुए भारत के बीच से पाकिस्तान को जन्म देनेवाला बना दिया।

जिन्ना के विरुद्ध जवाहर लाल नेहरू की भावनाएँ ऊब और कडुवाहट से इस हद तक भर चुकी थी कि ’सर दर्द से मुक्ति पाने के लिए वह सर कटवाने’ को भी तैयार थे। जिन्ना की ’सीधी कार्यवाही’ के बाद पटेल सार्वजनिक रूप से विभाजन की बात करने लगे थे। मुसलमानों को उनके अन्दर हमेशा एक छुपा ढका हुआ कट्टर हिन्दू दिखता था। मुस्लिम लीग का आक्षेप है कि विभाजन मुख्यतः पटेल की भावनाओं का ही परिणाम था। कुल मिलाकर अन्त में हम कह सकते है कि वास्तव में सब विभाजन चाहते थे। विभाजन का दायित्व अन्ततः सब पर था। शायद सबसे अधिक अविभाजित भारत की जनता पर था जो अपनी जड़ता, निरीहता और असहायता में ’हैमलिन के बाँसुरी वादक के पीछे चलनेवाले मन्त्रमुग्ध चूहों’ की तरह अपने नेताओं का अन्धानुगमन करती रही।

एक प्रकार से भारत विभाजन राष्ट्रीय आन्दोलन की अवांछित व विकृत परिणति थी। उस संघर्ष का न तो वह लक्ष्य था, न ही दिशा थी। देश स्वतः धीरे-धीरे उस तरफ चला गया जिधर उसे जाना ही नहीं था। वे लोग, वे शक्तियाँ, वे स्थितियाँ ही अन्तिम रूप से निर्णायक हो गयीं जो अविभाजित भारत में अलक्षित, अस्तित्वहीन पड़ी थीं। ऐसी स्वतन्त्रता किसी के स्वप्न में भी नहीं थी। स्वतन्त्र होने के नाम पर करोड़ों मनुष्य उन अधिकारों, सुविधाओं और स्वप्नों से भी वंचित हो गये जो स्वतन्त्रता से पहले उन्हें गरिमापूर्ण और विश्वसनीय तरीके से सहज उपलब्ध थीं।

भारत का विभाजन लाभदायक रहा या हानिकारक, इस विषय में मतभेद हैं। प्रो0 पर्सीवल स्पीयर का कहना है- “यदि विभाजन न हुआ होता तो आपस के झगड़ों के कारण देश की औद्योगिक प्रगति रुक जाती, भारत की पंचवर्षीय योजनाएँ सफल न होतीं, केन्द्रीय सरकार दुर्बल होती और नेहरू के आदर्शों का आधुनिक भारत न बन पाता।“ अन्त में, वह लिखते हैंः “ सैद्धान्तिक रूप से विभाजन के लिए कितना भी अफसोस क्यों न किया जाय परन्तु यह, सम्भवतः, आवश्यक था और इस आधार पर देश के बड़े हितों के पक्ष में भी। इसी प्रकार, डॉ. लालबहादुर वर्मा भी लिखते हैं- “यदि विभाजन न होता तो मुसलमान सर्वदा प्रधान स्थिति में रहते और अपने अधिकार से अधिक जीवन की सुविधाएँ प्राप्त करते, क्योंकि काँग्रेस के इतिहास को देखने से यही स्पष्ट होता है। देश की अखण्डता उसी समय लाभप्रद हो सकती थी जब मुसलमानों को सन्तुष्ट करने की नीति के स्थान पर सभी के साथ समान व्यवहार करने की नीति अपनायी जाती। काँग्रेस ऐसा नहीं कर सकती थी। इस कारण देश के विभाजन पर अधिक दुःख नहीं होना चाहिए।” उनके कथनानुसार, “सम्पूर्ण देश में मुस्लिम प्रभुता अथवा भारत माँ का विभाजन- हमें इन दो बुराइयों में से एक बुराई को चुनना था, और इस दूसरी स्थिति को चुनकर, सम्भवतः, हमने एक अपेक्षाकृत अच्छी बुराई को चुना। कुछ भी हो, भारत-विभाजन एक सत्य है और भारतवासियों की भूल और राजनीतिक विवशता का परिणाम है।


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