window.location = "http://www.yoururl.com"; Merger of Princely States and role of Sardar Patel | देशी रियासतों का विलय और सरदार पटेल की भूमिका

Merger of Princely States and role of Sardar Patel | देशी रियासतों का विलय और सरदार पटेल की भूमिका

 


परिचय -

किसी भी देश की ताकत उस देश की एकता में निहित होती है और यदि देश बड़ा और विभिन्न धर्म, भाषा के लोग रहने वाले हो तो उन्हें एकता की डोर में बाधकर रखना मुश्किल होता है लेकिन हमारे देश भारत की सबसे बड़ी यही खूबसूरती है की इतने धर्म, संप्रदाय, जाति के बावजूद आपस में मिलजुलकर रहते है और देश के एकता को बनाये रखे हुए है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देशी रियासतों का एकीकरण कर अखंड भारत के निर्माण में लौह पुरूष और भारत का विस्मार्क सरदार बल्लभ भाई पटेल के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। 

भारत को आजादी मिलने के पश्चात हमारे देश में लगभग 500 से अधिक देशी रियासते थी और इन सबको आपस में मिलकर एक देश का गठन करना बहुत ही मुश्किल कार्य था। सभी रियासते अपनी सुविधानुसार अपना शासन चाहते थे। ऐसी स्थिति में भारत और इन देशी रियासतों को एक प्रशासन के अन्तर्गत लाना प्रायः राजनीतिक नेतृत्व के सामने सबसे महत्वपूर्ण कार्यभार था। लेकिन अंतरिम सरकार के गृहमंत्री लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल के सुझबुझ, साहस और धैर्य और इन रियासतों के प्रति अपनी स्पष्ट नीति के कारण यह कार्य संभव हो सका। उन्होने प्रयत्न किया कि भारत की सीमाओं के निकट अथवा उसके अन्तर्गत जितने भी राज्य थे, वे भारत के साथ सम्मिलित हो जाय। सरदार पटेल ने देशी रियासतों को भौगोलिक, आर्थिक तथा जनता की इच्छाओं को ध्यान में रखते हुये कार्य करने का सुझाव दिया। उन्होने यह भी सुझाव दिया कि कांग्रेस देशी नरेशों की दुश्मन नही है बल्कि उनकी और उनके प्रजा के हितों और समृद्धि का संरक्षक है। इस अपील का भारतीय नरेशों पर सकारात्मक प्रभाव पडा और अधिकांश देशी रियासतों और उनके नरेशों ने भारतीय संघ में शामिल होना स्वीकार कर लिया। 

सरदार बल्लभ भाई पटेल -

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को वैचारिक एवं क्रियात्मक रूप में एक नई दिशा देने की वजह से सरदार पटेल ने राजनीतिक इतिहास में एक अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान पाया। उनके कठोर व्यक्तित्व में बिस्मार्क जैसी संगठन कुशलता, कौटिल्य जैसी राजनीति सत्ता तथा राष्ट्रीय एकता के प्रति अब्राहम लिंकन जैसी अटूट निष्ठा थी। जिस अदम्य उत्साह और असीम शक्ति से उन्होंने नवजात गणराज्य की प्रारम्भिक कठिनाइयों का समाधान किया, उसके कारण विश्व के राजनीतिक मानचित्र में उन्होंने अमिट स्थान बना लिया। भारत के राजनीतिक  इतिहास में सरदार पटेल के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। 

सरदार पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नडियाद में हुआ। वे खेड़ा जिले के कारमसद में रहने वाले झावेर भाई पटेल और लाडबाई पटेल की चौथी संतान थे। पारम्परिक हिन्दू माहौल में पले-बढ़े सरदार पटेल ने करमसद में प्राथमिक विद्यालय और पेटलाद स्थित उच्च विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की लेकिन उन्होंने अधिकांश ज्ञान स्वाध्याय से ही अर्जित किया। 1897 में 22 साल की उम्र में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी और ज़िला अधिवक्ता की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, जिससे उन्हें वक़ालत करने की अनुमति मिली। मात्र 19 वर्ष की उम्र में वल्लभ भाई पटेल की शादी झबेरबा से हुई। पटेल जब सिर्फ 33 साल के थे, तब उनकी पत्नी का निधन हो गया। 

सरदार पटेल अन्याय नहीं सहन कर पाते थे। अन्याय का विरोध करने की शुरुआत उन्होंने स्कूली दिनों से ही कर दी थी। नडियाद में उनके स्कूल के अध्यापक पुस्तकों का व्यापार करते थे और छात्रों को बाध्य करते थे कि पुस्तकें बाहर से न खरीदकर उन्हीं से खरीदें। वल्लभभाई ने इसका विरोध किया और छात्रों को अध्यापकों से पुस्तकें न खरीदने के लिए प्रेरित किया। परिणामस्वरूप अध्यापकों और विद्यार्थियों में संघर्ष छिड़ गया। 5-6 दिन स्कूल बंद रहा। अंत में जीत सरदार पटेल की हुई। अध्यापकों की ओर से पुस्तकें बेचने की प्रथा बंद हुई।

सरदार पटेल को अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने में काफी समय लगा। उन्होंने 22 साल की उम्र में 10वीं की परीक्षा पास की। सरदार पटेल का सपना वकील बनने का था और अपने इस सपने को पूरा करने के लिए उन्हें इंग्लैंड जाना था, लेकिन उनके पास इतने भी आर्थिक साधन नहीं थे कि वे एक भारतीय महाविद्यालय में प्रवेश ले सकें। उन दिनों एक उम्मीदवार व्यक्तिगत रूप से पढ़ाई कर वकालत की परीक्षा में बैठ सकते थे। ऐसे में सरदार पटेल ने अपने एक परिचित वकील से पुस्तकें उधार लीं और घर पर पढ़ाई शुरू कर दी। इंग्लैंड में वकालत पढ़ने के बाद भी उनका रुख पैसा कमाने की तरफ नहीं था। सरदार पटेल 1913 में भारत लौटे और अहमदाबाद में अपनी वकालत शुरू की और जल्द ही वे लोकप्रिय हो गए। एक वकील के रूप में सरदार पटेल ने कमज़ोर मुक़दमे को सटीकता से प्रस्तुत करके और पुलिस के गवाहों तथा अंग्रेज़ न्यायाधीशों को चुनौती देकर विशेष स्थान अर्जित किया। वकालत के पेशे में तेज़ी से उन्नति करते हुए सरदार पटेल अहमदाबाद अधिवक्ता बार में अपराध क़ानून के अग्रणी बैरिस्टर बन गए। गम्भीर और शालीन पटेल अपने उच्च स्तरीय तौर-तरीक़ों और चुस्त अंग्रेज़ी पहनावे के लिए जाने जाते थे। वह अहमदाबाद के फ़ैशनपरस्त गुजरात क्लब में ब्रिज के चैंपियन होने के कारण भी विख्यात थे। अपने मित्रों के कहने पर पटेल ने 1917 में अहमदाबाद के सैनिटेशन कमिश्नर का चुनाव लड़ा और उसमें उन्हें जीत भी हासिल हुई।

1917 ई0 में मोहनदास करमचन्द गांधी से प्रभावित होने के बाद सरदार पटेल ने पाया कि उनके जीवन की दिशा बदल गई है। वे गाँधीजी के सत्याग्रह और अंहिसा के सिद्धान्त के साथ तब तक जुड़े रहे, जब तक वह अंग्रेज़ों के खिलाफ भारतीयों के संघर्ष में क़ारगर रहा लेकिन उन्होंने कभी भी खुद को गाँधीजी के नैतिक विश्वासों व आदर्शों के साथ नहीं जोड़ा। फिर भी गाँधीजी के अनुसरण और समर्थन का संकल्प करने के बाद सरदार पटेल ने अपनी शैली और वेशभूषा में परिवर्तन कर लिया। उन्होंने गुजरात क्लब छोड़ दिया और भारतीय किसानों के समान सफ़ेद वस्त्र पहनने लगे तथा भारतीय खान-पान को पूरी तरह से अपना लिया।

सरदार पटेल गांधीजी के चंपारण सत्याग्रह की सफलता से काफी प्रभावित थे। 1918 ई0 में गुजरात के वारदोली जिले के खेड़ा खंड में सूखा पड़ा और किसानों ने करों से राहत की मांग की, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने मना कर दिया। गांधीजी ने किसानों का मुद्दा उठाया, पर वो अपना पूरा समय खेड़ा में अर्पित नहीं कर सकते थे इसलिए एक ऐसे व्यक्ति की तलाश कर रहे थे, जो उनकी अनुपस्थिति में इस संघर्ष की अगुवाई कर सके। इस समय सरदार पटेल स्वेच्छा से आगे आए और खेडा के किसान संघर्ष का नेतृत्व किया। बारदोली सत्याग्रह का नेतृत्व कर रहे पटेल को सत्याग्रह की सफलता पर वहॉं की महिलाओं ने ’सरदार’ की उपाधि प्रदान की और उसके बाद देश भर में राष्ट्रवादी नेता के रूप में उनकी पहचान बन गई। 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन में सरदार पटेल, महात्मा गाँधी के बाद अध्यक्ष पद के दूसरे उम्मीदवार थे। गाँधीजी ने स्वाधीनता के प्रस्ताव को स्वीकृत होने से रोकने के प्रयास में अध्यक्ष पद की दावेदारी छोड़ दी और पटेल पर भी नाम वापस लेने के लिए दबाव डाला। इसका प्रमुख कारण मुसलमानों के प्रति पटेल की हठधर्मिता थी। अंततः जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष बने। 1930 ई0 में नमक सत्याग्रह के दौरान पटेल को तीन महीने की जेल हुई। मार्च, 1931 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के करांची अधिवेशन की अध्यक्षता की। जनवरी, 1932 में उन्हें फिर गिरफ़्तार कर लिया गया। जुलाई, 1934 में वह रिहा हुए और 1937 के चुनावों में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के संगठन को व्यवस्थित किया। 1937-1938 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष पद के प्रमुख दावेदार थे। एक बार फिर गाँधीजी के दबाव में पटेल को अपना नाम वापस लेना पड़ा और जवाहरलाल नेहरू निर्वाचित हुए। अक्टूबर, 1940 में कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ पटेल भी गिरफ़्तार हुए और अगस्त, 1941 में रिहा हुए।

अंतरिम सरकार के गृहमंत्री के रूप में उनकी पहली प्राथमिकता देसी रियासतों को भारत में मिलाना था। 562 छोटी-बड़ी रियासतों का भारतीय संघ में विलीनीकरण करके भारतीय एकता का निर्माण करना सरदार पटेल की महानतम देन थी। विश्व के इतिहास में एक भी व्यक्ति ऐसा न हुआ जिसने इतनी बड़ी संख्या में राज्यों का एकीकरण करने का साहस किया हो। सरदार पटेल के निधन के 41 वर्ष बाद 1991 में भारत के सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान भारतरत्न से उन्हें नवाजा गया। यह अवॉर्ड उनके पौत्र विपिनभाई पटेल ने स्वीकार किया। सरदार पटेल के पास खुद का मकान भी नहीं था और वे अहमदाबाद में किराए एक मकान में रहते थे। 15 दिसंबर 1950 में मुंबई में जब उनका निधन हुआ, तब उनके बैंक खाते में सिर्फ 260 रुपए मौजूद थे। उनकी सादगी उनकी पहचान थी। इस प्रकार स्वतंत्रता के बाद विभिन्न रियासतों में बिखरे भारत के भू-राजनीतिक एकीकरण में केंद्रीय भूमिका निभाने के लिए सरदार पटेल को ’भारत का बिस्मार्क’ और ’लौहपुरुष’ भी कहा जाता है। 

रियासतों का एकीकरण क्यों आवश्यक था?

स्वतंत्रता के बाद, सामने आने वाली पहली और प्रमुख समस्याओं में से एक, एक एकीकृत, समान रूप से प्रशासित भारत की अवधारणा में रियासतों का एकीकरण था। चूंकि इन रियासतों को 19वीं और 20वीं शताब्दी के दौरान बड़े पैमाने पर अंग्रेजों द्वारा संरक्षण दिया गया था, इसलिए वे अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा को देने के विचार से सहज नहीं थे। इनमें से कुछ राज्यों जैसे-जोधपुर, भोपाल और त्रावणकोर ने आजादी से पहले और स्वतंत्रता के बाद जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर ने समस्याएं खड़ी कीं। भारत की नवगठित सरकार इस विचार के खिलाफ थी कि राज्य के भीतर स्वतंत्र राष्ट्र होने से भारत की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा को केवल खतरा होगा। यह अनुमान लगाया गया था कि एक विदेशी शक्ति द्वारा आक्रामकता के कार्य के मामले में, इन रियासतों को बड़े पैमाने पर देश पर हमले के लिए मंच के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा। इस प्रकार रियासतों को जल्द से जल्द एकीकृत करना आवश्यक था।

देशी राज्यों का विलय और सरदार पटेल :

औपनिवेशिक भारत में लगभग 40 प्रतिशत भू-भाग पर 500 से ज्यादा छोटी और बड़ी  देशी रियासते थी जिसपर शासन करने वाले राजाओं को ब्रिटिश सर्वोच्चता के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की स्वायत्तता प्राप्त थी। इनकी जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 28 प्रतिशत था। ब्रिटिश शासन उन्हे हर प्रकार की सुरक्षा तबतक प्रदान करती थी जबतक कि वे अंग्रेजों की बात मानते रहे। ये रियासते वैधानिक रूप से ब्रिटिश भारत के भाग नही थे, लेकिन ये ब्रिटिश क्राउन के पूर्णतः अधीन थी। ये रियासतें  राष्ट्रवादी प्रवृतियों  एवं अन्य उपनिवेशी शक्तियों के उदय को नियंत्रित करने में ब्रिटिश सरकार के लिए सहायक के रूप में थी। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 ने रियासतों को यह विकल्प दिया कि वे भारत या पाकिस्तान अधिराज्य (डोमिनियम) में शामिल हो सकती हैं या एक स्वतंत्र संप्रभु राज्य के रूप में स्वंय को स्थापित कर सकती हैं।

1947 ई0 में सवाल यह था कि अंग्रेजों के जाने के बाद इन देशी रियासतों का क्या होगा। जैसे ही सर्वोच्च शक्ति पीछे हटने के लिए तैयार होने लगी, वैसे ही बड़ी रियासतों में से कइयों ने आजादी के सपने देखने और उन्हें अंजाम देने के लिए उपाय ढूंढ़ने शुरू कर दिए। उन्होंने यह दावा किया कि इन दो नवजात राज्यों यानी भारत और पाकिस्तान को सवोच्चता हस्तांतरित नहीं किया जा सकता। 20 फरवरी 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली की इस घोषणा ने उनकी महत्वाकांक्षा को और हवा दे दी कि “सम्राट की सरकार सर्वाच्चता के अंतर्गत अपनी शक्तियों और कर्तव्यों को ब्रिटिश भारत की किसी सरकार को सौंपने का इरादा नहीं रखती है।“ परिणामस्वरूप कई रियासतों के शासकों ने दावा किया कि 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश शासन समाप्त होने के बाद वे स्वतंत्र हो जाएंगे।

इसमें उन्हें मुहम्मद अली जिन्ना से भी प्रोत्साहन प्राप्त हुआ जिन्होंने सार्वजनिक तौर पर 18 जून 1947 को घोषित किया कि “सर्वोच्चता की समाप्ति के बाद सभी रियासत स्वतंत्र संप्रभुतासंपन्न राज्य होंगे“ और “यदि चाहें तो स्वतंत्र रहने का चुनाव कर सकते हैं।“ हालांकि इस संदर्भ में ब्रिटिश रवैए में कुछ हद तक बदलाव तब आया जबकि भारतीय स्वाधीनता अधिनियम पर अपने भाषण के दौरान एटली ने कहा, “सम्राट की सरकार को यह आशा है कि सभी रियासत कुछ समय के दौरान धीरे-धीरे ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के एक या दूसरे अधिराज्य (डोमीनीयन) के अंदर अपना उचित स्थान तलाश लेंगे।“

हालांकि, भारतीय राष्ट्रवादियों को कोई ऐसी स्थिति मंजूर नहीं थी जिसमें इसके भू-भाग के अंदर सैकड़ों छोटी-बड़ी रियासतों और स्वायत्त राज्यों के फैले होने के कारण स्वतंत्र भारत की एकता को खतरा पहुंचे। खास तौर इसलिए भी कि राष्ट्र-रचना की प्रक्रिया में 19वीं सदी के अंत से ही देशी रियासतों की जनता ने हिस्सा लिया था और भारतीय राष्ट्रवाद और भारत राष्ट्र के प्रति एक प्रबल भावना विकसित की थी। परिणामस्वरूप, ब्रिटिश भारत और इन रियासतों के राष्ट्रवादी नेताओं ने सभी रजवाड़ों के आजादी के इन दावों को ठुकरा दिया और बार-बार यह दुहराया कि देशी रजवाड़ों के सामने आजादी का कोई विकल्प नहीं है- उनके पास सिर्फ यही विकल्प है कि अपनी क्षेत्रीय स्थिति की निकटता और इसकी जनता की इच्छाओं के अनुरूप वे या तो भारत में शामिल हो सकते हैं या पाकिस्तान में। दरअसल, राष्ट्रवादी आंदोलन लंबे समय से यह मानती आ रही थी कि राजनीतिक सत्ता पर अधिकार उसके राजा का नहीं बल्कि जनता का होता है और रियासतों की जनता भी भारत राष्ट्र के अभिन्न अंग हैं। इसके साथ ही साथ रियासतों की जनता प्रजा समितियों के नेतृत्व में अपूर्व रूप से आंदोलित थी जो जनवादी राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना और शेष भारत के साथ एकीकरण की मांग कर रही थी।

बहुत कुशलता और दक्षतापूर्ण राजनयिकता के साथ प्रलोभन और दबाव का प्रयोग करते हुए सरदार बल्लभभाई पटेल, सैकड़ों रजवाड़ों और रियासतों को भारतीय संघ में दो चरणों में विलय करने में सफल हुए। कुछ रियासतों ने अप्रैल 1947 की संविधान सभा में शामिल होकर समझदारी और यथार्थता के साथ प्रायः कुछ हद तक देशभक्ति का प्रदर्शन किया परंतु अधिकांश राजा इससे अलग रहे और कुछ राजाओं ने, जैसे भोपाल, ट्रावनकोर, और हैदराबाद के राजाओं ने सार्वजनिक रूप से यह घोषित किया कि वे स्वतंत्र दर्जा का दावा पेश करना चाहते हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद क़रीब पाँच सौ से भी ज़्यादा देसी रियासतों का एकीकरण सबसे बड़ी समस्या थी। 27 जून 1947 को नवगठित रियासत विभाग का अतिरिक्त कार्यभार इस विभाग के सचिव वी0 पी0 मेनन के साथ सॅंभाल लिया। इन रियासतों के शासकों द्वारा संभावित राजनीतिक दुराग्रहता से उत्पन्न भारतीय एकता के खतरे के प्रति पटेल पूरी तरह परिचित थे। उन्होंने मेनन को उस समय कहा कि “इस परिस्थिति में खतरनाक संभावनाएं भी छुपी हुई हैं और यदि इन्हें शीघ्र ही प्रभावी तरीके से संभाला नहीं गया तो हमारी मुश्किल से अर्जित आजादी इन रजवाड़ों के दरवाजों से निकल कर गायब हो जा सकती है।“ इसलिए वह अनाकानी कर रहे रजवाड़ों को संभालने के लिए तेजी से काम पर लग गए। सरदार पटेल ने रियासतों के प्रति नीति को स्पष्ट करते हुए कहा कि रियासतों को तीन विषयों - सुरक्षा, विदेश तथा संचार व्यवस्था के आधार पर भारतीय संघ में शामिल किया जाएगा। पटेल का पहला कदम था उन राजाओं से, जिनके क्षेत्र भारत के अंदर पड़ते थे, यह अपील करना कि वे तीन विषयों पर भारतीय संघ को स्वीकृति प्रदान करें जिनसे पूरे देश का हित जुड़ा हुआ है। उन्होंने दबे तौर पर यह धमकी भी दी कि वे रियासत की बेकाबू हो रही जनता को नियंत्रित करने में मदद के लिए समर्थ नहीं हो पाएंगे तथा 15 अगस्त के बाद सरकार की शर्तें और कड़ी होती जाएगी।

अपनी रियासतों में जनता के आंदोलनों के उठते हुए ज्वार, कांग्रेस के उग्रवादी रवैए के और कठोर कार्यक्रम लागू करने के दबाव और पटेल की दृढ़ता, यहां तक कि कठोरता के कारण इन राजाओं ने सरदार पटेल की अपील को तुरंत मान लिया। राजाओं की परिषद के चांसलर महाराजा पटियाला ने भी इस कार्य में भारत सरकार को पूर्ण सहयोग दिया। 15 अगस्त 1947 तक हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर शेष भारतीय रियासतें ‘भारत संघ’ में सम्मिलित हो गयीं और इन देशी रियासतों ने “Instrument of Accesion”    और “Standstill Agreement” पर हस्ताक्षर कर दिये। हालांकि 1948 के अंत तक आनाकानी कर रहे इन तीनों रियासतों को भी इस प्रकार बात मानने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस प्रकार सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भारतीय संघ में उन रियासतों का विलय किया जो स्वयं में सम्प्रभु थे, उनका अलग झंडा और अलग शासक था। 

आज देश के विकास के लिए जैसी ज्वाला हमारे मन मे धधक रही है, जिस तरह हम सभी अपने देश को शिखर पर ले जाना चाहते हैं, जिस सपने के भारत को हम सभी अपने दिल मे सजोये हैं, उसके लिए हम सभी को सरदार जी के आदर्शों पर चलना ही होगा। हमे अपने जीवन की परवाह किये बिना देश की तरक्की के लिए हर बलिदान के लिए तैयार रहना होगा। अब केवल बातों से काम नही बनेगा, हमे खुद आगे बधकर दूसरों के लिए एक नजीर बनना होगा।

स्पष्ट है कि अधिकांश देशी रियासतों ने भारत संघ में विलय के प्रस्ताव को स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया। कुछ ऐसी देशी रियासते भी थी जिन्होने प्रारंभिक चरण में आनाकानी की लेकिन स्वतंत्रता से पहले भारत में विलय को स्वीकार कर लिया। इनमें भोपाल, ट्रावनकोर, जोधपुर आदि रियासतों का नाम उल्लेखनीय है। स्वतंत्रता के पश्चात तीन रियासते ही शेष रही गई जिन्होने भारत में विलय करने से इन्कार कर दिया। अन्ततः सरदार पटेल की दृढ इच्छाशक्ति से इन तीनों राज्यों को भारत में विलय करने के लिए बाध्य किया गया। आइये देखते है कि किस प्रकार इन रियासतों ने भारतीय संघ में विलय को स्वीकार किया।

ट्रावणकोर रियासत - 

भारत में विलय से इनकार करने वाली रियासतों में दक्षिण तटीय राज्य त्रावणकोर सबसे पहली रियासत थी। इस रियासत के दीवान सर सी0पी0 रामास्वामी अय्यर ने विलय के मुद्दे पर हाथ पीछे खींच लिए थे। इतिहासकारों की मानें तो विलय ना करने की सलाह अय्यर को मोहम्मद अली जिन्ना से मिली थी। हालांकि, यह भी माना जाता है कि सी0पी0 रामास्वामी अय्यर ने ब्रिटिशों से गुप्त समझौता कर रखा था। यू.के की सरकार स्वतंत्र त्रावणकोर के पक्ष में थी क्योंकि यह क्षेत्र मोनोजाइट नामक खनिज से समृद्ध था, जो ब्रिटेन को नाभकीय हथियारों की दौड़ में बढ़त दिला सकता था। इस तरह ब्रिटिश सरकार त्रावणकोर से निकलने वाले खनिजों पर अपना नियंत्रण रखना चाहते थी लेकिन बाद में सी0पी0 अय्यर के खिलाफ लोगों ने प्रदर्शन किया और यहां तक कि केरल समाजवादी पार्टी के एक सदस्य द्वारा उन पर जानलेवा हमला भी हुआ। इस घटना से घबडाकर बाद में वे अपनी रियासत को भारत में मिलाने के लिए तैयार हो गए और 30 जुलाई 1947 को आखिरकार त्रावणकोर भारत का हिस्सा बना।

भोपाल रियासत - 

भोपाल रियासत के नवाब हमीदुल्लाह खान ने भारत में अपनी रियासत का विलय करने से इनकार करते हुये सम्प्रभु और स्वतंत्र रहने की घोषणा की। दरअसल, इसके पीछे मूल वजह मुस्लिम लीग के नेताओं के साथ उनके करीबी सम्बन्ध थे। हालाँकि, उसने माउंटबेटन को लिखा कि कि वह एक स्वतंत्र रियासत चाहता है किंतु माउंटबेटन ने उसे उत्तर देते हुए लिखा कि ‘‘कोई की शासक अपने नजदीकी अधिराज्य (डोमिनियम) से भाग नहीं सकता है।” वस्तुतः हमीदुल्लाह खॉंन भोपाल को पाकिस्तान का हिस्सा बनाना चाहते थे, लेकिन भौगोलिक स्थिति और बहुसंख्यक हिन्दू जनता के रुख ने ऐसे होने नहीं दिया। नवाब और भारत सरकार के बीच लम्बी खींचतान चलने के बाद अन्ततः जुलाई 1947 में भोपाल रियासत के नबाव ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये।

जोघपुर रियासत -

इस रियासत का राजा हिंदू था और अधिकांश जनता भी हिन्दू थी लेकिन इसके बावजूद असाधारण रूप से वह पाकिस्तान का हिस्सा बनना चाहता था। दरअसल, जोधपुर के युवा और अनुभवहीन महाराजा धनवंत सिंह ने यह अनुमान लगाया था कि पाकिस्तान के साथ उसकी रियासत की सीमा लगने के कारण वह पाकिस्तान से ज़्यादा अच्छे तरीके से सौदेबाज़ी कर सकता है। जिन्ना ने महाराज को अपनी सभी मांगों को सूचीबद्ध करने के लिये एक हस्ताक्षरित खाली पेपर दे दिया था। इन्होंने सैन्य एवं कृषकों की सहायता से हथियारों के निर्माण और आयात के लिये कराची बंदरगाह तक मुफ्त पहुँच का प्रस्ताव भी रखा।

इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सरदार पटेल ने तुरंत राजा से संपर्क किया और उसे पर्याप्त लाभों एवं प्रस्तावों का आश्वासन दिया। पटेल ने आश्वस्त किया कि हथियारों के आयात की अनुमति होगी और जोधपुर को काठियावाड़ से रेल के माध्यम से जोड़ा जाएगा, साथ ही अकाल के दौरान अनाज की आपूर्ति सुनिश्चित की जाएगी। अन्ततः 11 अगस्त, 1947 को महाराजा धनवंत सिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। इस प्रकार जोधपुर रियासत का भारतीय अधिराज्य में एकीकरण हो गया।

जूनागढ रियासत -  

जूनागढ़ सौराष्ट्र के तट पर एक छोटी सी रियासत थी जो चारों ओर से भारतीय भू-भाग से घिरी थी और इसलिए पाकिस्तान के साथ उसका कोई भौगोलिक सामीप्य नहीं था। फिर भी इसके नवाब ने 15 अगस्त 1947 को, अपने राज्य का विलय पाकिस्तान के साथ घोषित कर दिया हालांकि राज्य की जनता, जो सर्वाधिक हिंदू थी, भारत में शामिल होने की इच्छुक थी।

शुरू से ही जातीय राष्ट्रवादी नेता, राजाओं के दावों के मुकाबले जनता की संप्रभुता का अधिक आदर करते थे। अतः यह बिलकुल आश्चर्यजनक नहीं था कि इस मामले में भी जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल इस बात से सहमत थे कि जूनागढ़ के संदर्भ में भी अन्य मामलों जैसे कश्मीर और हैदराबाद की तरह ही नियाणक स्वर जनता का होना चाहिए और उसका निर्णय जनमत संग्रह द्वारा होना चाहिए। इसके नवाब मोहम्मद महाबत खानजी तृतीय द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के खिलाफ थे। भारत ने पहले उन्हे विलय का प्रस्ताव दिया तो वे नही माने लेकिन इसी बीच मुस्लिम लीग के नेता सर शाह नवाज भुट्टो नवाब के मंत्रिमण्डल में शामिल हो गये और उन्होने पाकिस्तान में शामिल होने के लिए दबाव बनाने लगे। परिणामस्वरूप जूनागढ ने पाकिस्तान में विलय का प्रस्ताव भेजा और पाकिस्तान ने जूनागढ़ का विलयन स्वीकार कर लिया। जबकि दूसरी तरफ राज्य की जनता, शासक के निर्णय को स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं थी। उन्होंने एक जनांदोलन संगठित किया और जब भारतीय नेताओं ने जूनागढ़ रियासत को लेकर कडे कदम उठाये तो नवाब पाकिस्तान भागने के लिए मजबूर हो गया। इसके बाद भारतीय सेना राज्य में प्रवेश कर गई। 20 फरवरी 1948 को रियासत के अंदर एक जनमत संग्रह कराया गया जो व्यापक तौर से भारत विलय के पक्ष में गया। इस प्रकार जूनागढ़ का भारत में विलय संभव हो सका और वह भारत का हिस्सा बन गया।

काश्मीर रियासत -

काश्मीर रियासत की सीमा भारत और पाकिस्तान दोनों से मिलती थी। गुलाब सिंह जम्मू-काश्मीर रियासत के पहले राजा थे जिन्होने डोगरा राजवंश की नींव डाली थी। भारत की स्वतंत्रता के समय इसके शासक हरिसिंह एक हिंदू थे जबकि राज्य की 75 प्रतिशत आबादी मुसलमान थी। हरिसिंह भारत और पाकिस्तान दोनों में विलय से बचना चाहता थे। उन्हे एक तरफ भारत के जनवाद से डर था तो दूसरी तरफ पाकिस्तान के संप्रदायवाद से इसलिए वह दोनों से अलग रह कर स्वतंत्र शासक के रूप में अपनी सत्ता बनाए रखने की आशा करते थे। हालांकि नेशनल कांफ्रेन्स के नेतृत्व में लोकप्रिय राजनीतिक शक्तियों और इसके नेता शेख अबदुल्ला भारत में विलय चाहते थे। भारतीय राजनीतिक नेताओं ने कश्मीर के विलय को हासिल करने के लिए अपनी तरफ से कोई कदम नहीं उठाया और अपने सामान्य रवैए के अनुरूप वे यही चाहते थे कि कश्मीर की जनता ही यह निर्णय ले कि वह अपने भाग्य को भारत के साथ जोड़ना चाहती है या पाकिस्तान के साथ। इसमें उन्हें गांधीजी का समर्थन भी प्राप्त था जिन्होंने अगस्त 1947 में यह घोषित किया कि कश्मीर अपनी जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप भारत या पाकिस्तान किसी में शामिल होने के लिए स्वतंत्र है।

परन्तु पाकिस्तान ने न केवल जूनागढ़ और हैदराबाद के विलय के मामले को सुलझाने के संदर्भ में जनमत संग्रह के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया था, बल्कि कश्मीर के मामले में भी अपने अदूरदर्शितापूर्ण कार्य से आम जनता के निर्णय की अवहेलना करने की कोशिश की। इसने भारत को भी कश्मीर के विषय में अपनी नीति आंशिक रूप से बदलने के लिए मजबूर कर दिया। 22 अक्तूबर 1947 को सर्दियों की शुरुआत के साथ ही अनाधिकारिक रूप से पाकिस्तानी सैनिक अफसरों के नेतृत्व में कई पठान कबीलाइयों ने कश्मीर की सीमा का अतिक्रमण किया और वे तेजी से कश्मीर की राजधानी श्रीनगर की तरफ बढ़ने लगे। महाराज की अकुशल सेना आक्रमणकारी सेनाओं के सामने ठहर नहीं सकी। घबराकर 24 अक्तूबर को महाराज ने भारत से सैनिक सहायता की अपील की और 25 अक्टूबर 1947 ई0 को श्रीनगर से गाडियों के काफिला के साथ जम्मू पहुॅच गये। पर नेहरू, इस हालत में भी बिना जनता की इच्छा को निश्चित किए विलय करने के पक्ष में नहीं थे। परंतु गर्वनर जेनरल माउंटबेटन ने यह रेखांकित किया कि अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के तहत भारत अपनी सेनाएं कश्मीर में तभी भेज सकता है जबकि राज्य का औपचारिक तौर पर भारत में विलय हो चुका हो। शेख अबदुल्ला और सरदार पटेल भी विलय के पक्ष में जोर डाल रहे थे। इस प्रकार 26 अक्तूबर 1947 ई0 को महाराज हरिसिंह ने काश्मीर को भारत में विलय कर शेख अबदुल्ला को रियासत के प्रशासन का प्रमुख बनाने को तैयार हो गए। इसी दिन महाराजा हरिसिंह ने भारत में विलय के लिए संधिपत्र ‘इंस्ट्रूमएट ऑफ एक्सेशन‘ पर हस्ताक्षर कर दिये। हालांकि नेशनल कांफ्रेंस और महाराज दोनों ही दृढ़ और स्थायी विलय चाहते थे परंतु भारत ने अपने जनवादी प्रतिबद्धताओं और माउंटबेटन की सलाह के अनुरूप यह घोषणा की कि घाटी में शांति तथा कानून और व्यवस्था बहाल होने के बाद विलय के निर्णय पर जनमत संग्रह कराया जाएगा।



विलय के ठीक बाद मंत्रिमंडल ने यह निर्णय लिया कि तुरंत हवाई जहाज से सेनाओं को श्रीनगर पहुंचाया जाए। इस निर्णय को गांधीजी की सहमति द्वारा भी बहुत बल मिला, जिन्होंने नेहरू को कहा कि कश्मीर में किसी प्रकार शैतानों के आगे समर्पण नहीं करना चाहिए और आक्रमणकारियों को निकाल बाहर करना चाहिए। 27 अक्तूबर को करीब 100 हवाई जहाजों में भर कर सैनिक और हथियार श्रीनगर पहुंचाए गए और युद्ध की चुनौती स्वीकार की गई। पहले श्रीनगर पर कब्जा किया गया, फिर धीरे-धीरे आक्रमणकारियों को घाटी के बाहर खदेड़ दिया गया, हालांकि फिर भी उन्होंने राज्य के कई हिस्सों पर कुछ नियंत्रण बनाए रखा और महीनों तक सशस्त्र मुठभेड़ होते रहे ।
भारत और पाकिस्तान के बीच व्यापक युद्ध के खतरे को देखते हुए भारत सरकार 30 दिसंबर 1947 को माउंटबेटन की सलाह पर कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भेजने के लिए तैयार हो गई जिसमें पाकिस्तान द्वारा अतिक्रमण किए गए क्षेत्रों को खाली करवाने का आग्रह किया गया था। हालॉंकि जवाहर लाल नेहरू बाद में इस निर्णय पर बहुत पछताए क्योंकि सुरक्षा परिषद पाकिस्तान के अतिक्रमण पर ध्यान देने के बजाए ब्रिटेन और अमरीका के निर्देशों पर पाकिस्तान की तरफदारी करने लगा। भारत की शिकायतों को नजरअंदाज करते हुए इसने अपने समक्ष ’कश्मीर प्रश्न’ को बदल कर ’भारत-पाकिस्तान विवाद’ बना दिया। इसने कई प्रस्ताव पारित किए, परंतु अंततः इसके एक प्रस्ताव का परिणाम यह हुआ कि भारत और पाकिस्तान दोनों ने 31 दिसंबर 1948 को युद्ध विराम स्वीकार कर लिया जो अब तक लागू है और असल में राज्य का विभाजन युद्ध विराम रेखा के साथ-साथ हो गया। संयुक्त राष्ट्र के इस प्रस्ताव द्वारा दोनों देशों के बीच काश्मीर में सीमा रेखा निर्धारित हुई जिसे लाइन ऑफ कन्ट्रोल अर्थात LoC कहा जाता है अर्थात जम्मू-काश्मीर और लद्दाख पर भारत पर कब्जा रहा जबकि गिलगिट-बाल्टिस्तान पर पाकिस्तान ने कब्जा बरकरार रखा जिसे आज पाक अधिकृत काश्मीर (PoK)कहते है। पाक अधिकृत काश्मीर के एक हिस्से को पाकिस्तान ने बाद में चीन को सौंप दिया था जिसे आक्साई चीन के नाम से जाना जाता है। 
ज्वाहर लाल नेहरू, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र से न्याय मिलने की उम्मीद थी, ने फरवरी 1948 में विजयालक्ष्मी पंडित को लिखे एक पत्र में अपनी निराशा और मोहभंग को व्यक्त करते हुये कहा कि- “मैं यह कल्पना भी नहीं कर सकता था कि सुरक्षा परिषद इस तरह घटिया और पक्षपातपूर्ण ढंग से व्यवहार कर सकता है जैसा कि उसने किया है। इन लोगों से दुनिया को व्यवस्थित रखने की उम्मीद की जाती है। यह बिलकुल आश्चर्य की बात नहीं है कि इसीलिए दुनिया टुकड़े-टुकड़े होती जा रही है। संयुक्त राज्य अमरीका और ब्रिटेन ने एक गंदी भूमिका निभाई है और प्रायः ब्रिटेन परदे के पीछे सबसे बड़ा खिलाड़ी था।“
1951 में संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें पाक अधिकृत कश्मीर से पाकिस्तान की सेनाओं को वापस हटा लिए जाने के बाद संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में एक जनमत संग्रह का प्रावधान था। यह प्रस्ताव भी विफल हो गया क्योंकि पाकिस्तान ने आज के तथाकथित आजाद कश्मीर से अपनी सेनाओं को वापस बुलाने से इनकार कर दिया।
उस समय से आज तक भारत और पाकिस्तान के संबंधों की राह में सबसे बड़ी बाधा काश्मीर ही बनी हुई है। भारत काश्मीर के विलय को अंतिम और अपरिवर्तनीय मानता है और काश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानता है पर पाकिस्तान इस दावे को मानने से इनकार करता है। कालक्रम में काश्मीर भारत की धर्मनिरपेक्षता की अग्निपरीक्षा का ज्वलंत प्रतीक बन गया है। 

हैदराबार रियासत -

हैदराबाद भारत का सबसे बड़ा रियासत था और यह चारों तरफ से भारतीय भू-भाग से घिरा हुआ था। संभवतः हैदराबाद रियासत का भारत में सबसे मुश्किल हालातों में विलय हुआ था। हैदराबाद रियासत का मध्य भारत के एक बडे हिस्से पर भी शासन था। यहॉं के निजाम मीर उस्मान अली चाहते थे कि हैदराबाद को ब्रिटिश कामनवेल्थ के तहत एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया जाय। हालॉकि लार्ड माउण्टवेटन ने निजाम से साफ कह दिया था कि ये संभव नही है। हैदराबाद का निजाम ऐसा तीसरा भारतीय शासक था जिसने 15 अगस्त 1947 के पहले भारत में शामिल होना स्वीकार नहीं किया। उधर मुहम्मद अली जिन्ना निजाम का खुलकर समर्थन कर रहे थे। पाकिस्तान द्वारा प्रोत्साहित होकर हैदराबाद ने एक स्वतंत्र दर्जे का दावा किया और अपनी सेना का विस्तार करने लगा। परंतु सरदार पटेल उस पर कोई निर्णय थोपने की जल्दीबाजी में बिलकुल नहीं थे। खासकर इसलिए कि माउंटबेटन निजाम के साथ किसी समझौते की मध्यस्थता करने के लिए उत्सुक बैठा हुआ था। सरदार पटेल ने महसूस कर लिया कि समय अब भारत के पक्ष में है क्योंकि निजाम ने गुप्त रूप से यह आश्वासन दे दिया कि वह पाकिस्तान में शामिल होने का इच्छुक नहीं है तथा ब्रिटिश सरकार ने हैदराबाद को डोमीनीयन दर्जा देने से इनकार कर दिया था। परंतु पटेल ने यह साफ कर दिया कि भारत यह बर्दाश्त नहीं करेगा कि ’उसके क्षेत्र में कोई ऐसा इलाका रह जाए जो उस संघ को नष्ट कर दे जिसे हमने अपने खून पसीने से बनाया है। 12 नवंबर 1947 में भारत सरकार ने निजाम के साथ एक यथास्थिति संधि पर हस्ताक्षर इस आशा के साथ किए कि जब तक संधि वार्ता जारी रहेगा, निजाम अपने रियासत में एक प्रतिनिधिमूलक सरकार प्रस्तुत करेगा जिससे बाद में विलय आसान हो जाएगा परन्तु निजाम की योजना बिलकुल दूसरी थी। उसने माउंटबेटन के दोस्त और प्रसिद्ध अंग्रेज वकील सर वाल्टर को मोंकटोन को अपनी तरफ से भारत सरकार के साथ संधि करने के लिए नियुक्त किया। कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच तनावों को देखते हुए, निजाम संधिवार्ता को लंबा खींच कर इस बीच अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाना चाहता था, ताकि भारत से वह अपनी संप्रभुता मनवाने के लिए दबाव डाल सके।

इस बीच राज्य में तीन अन्य राजनीतिक घटनाएं हुईं। पहली यह कि अधिकारियों की सांठगांठ से एक उग्रवादी मुसलिम सांप्रदायिक संगठन इतिहाद-उल-मुसलमीन और उसके अर्ध सैनिक अंग रजाकारों का बहुत तेजी से विकास हुआ जिन्होंने संघर्षरत जनता को भयभीत कर उन पर आक्रमण करना शुरू कर दिया। दूसरी, 7 अगस्त 1947 को निजाम से जनवादीकरण की मांग को लेकर हैदराबाद रियासत कांग्रेस ने एक शक्तिशाली सत्याग्रह आंदोलन शुरू कर दिया। करीब 20,000 सत्याग्रही जेल में ठूंस दिए गए। रजाकारों के आक्रमणों और प्रशासनिक तंत्र द्वारा अत्याचारों के फलस्वरूप हजारों लोग अपनी रियासत को छोड़कर भारतीय क्षेत्रों में बने अस्थायी कैंपों में शरण लेने लगे। तीसरी, 1946 के उत्तरार्ध में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में एक शक्तिशाली किसान संघर्ष रियासत के तेलांगना क्षेत्र में विकसित हुआ। यह आंदोलन, जो 1946 के अंत तक राजकीय दमन की भयानकता के कारण क्षीण हो गया था, अब फिर से किसान दलमों द्वारा जनता पर रजाकारों के हमले के विरुद्ध सुरक्षा संगठित करने के कारण जीवंत हो गया। इन किसान दलमों ने बड़े जमींदारों पर हमला किया और उनकी जमीनों को किसानों और भूमिहीनों के बीच बांट दिया।

जून 1948 के आसपास पटेल अधीर होने लगे क्योंकि निजाम के साथ संधि वार्ता लंबा ही होता जा रहा था। देहरादून में अपनी बीमारी के दौरान ही उन्होंने नेहरू को लिखा था- “मैं बहुत दृढ़ता से यह महसूस करता हूं कि अब वह समय आ गया है जब हमें उनको बिलकुल साफ-साफ यह कह देना चाहिए कि हमें बिना शर्त विलय की स्वीकृति और एक जिम्मेदार सरकार के गठन से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं है। तब भी निजाम सरकार और रजकारों के उकसावों के बावजूद भारत कई महीनों तक अपना हाथ बांधे बैठी रही। परन्तु निजाम अपना कदम पीछे खींचता रहा और ज्यादा से ज्यादा हथियार आयात करता रहा। साथ ही रजकारों का लूटपाट खतरनाक अनुपात में बढ़ता जा रहा था। अंततः 13 सितंबर 1948 को भारतीय सेना ने ‘‘आपरेशन पोलो‘‘ का संचालन किया और हैदराबाद में प्रवेश कर गई। तीन दिनों के संघर्ष के बाद निजाम ने समर्पण कर दिया और नवंबर में भारतीय संघ में विलय को स्वीकार कर लिया। भारत सरकार ने उदारता दिखाई और निजाम को कोई सजा नहीं दी। उसे राज्य के औपचारिक शासक या राजप्रमुख के रूप में बहाल रखा गया और 50 लाख रुपए की प्रिवी पर्स के साथ ही उसे अपनी विशाल संपत्ति का ज्यादातर भाग अपने पास रखने की अनुमति दे दी गई।

हैदराबाद के अधिग्रहण के बाद भारतीय संघ में देशी रजवाड़ों के विलय का कठिन कार्य संपन्न हो गया और भारत सरकार की हुकूमत पूरी भारतीय जमीन पर चलने लगी। हैदराबाद की घटना भारतीय धर्मनिरपेक्षता की दूसरी जीत थी। न केवल हैदराबाद के मुसलमान बड़ी संख्या में निजाम-विरोधी संघर्षों में शामिल हुए बल्कि समूचे देश के मुसलमानों ने सरकार की विलय नीति और कार्रवाई का समर्थन किया जिससे निजाम और पाकिस्तान के नेता भी आश्चर्यचकित रह गए। जैसा कि पटेल ने 28 सितंबर को सुहरावर्दी को लिखा, “हैदराबाद के सवाल पर, भारतीय संघ के मुसलमान खुलकर हमारे पक्ष में आए हैं और निश्चय ही इससे एक अच्छी छवि बनी है। 

देशी रियासतों का भारतीय राष्ट्र में पूर्ण विलय का दूसरा और अधिक कठिन चरण दिसंबर 1947 में शुरू हुआ। एक बार फिर सरदार पटेल ने काफी शीघ्रता से सक्रिय होकर एक वर्ष के अंदर ही इस कार्य को भी पूरा कर लिया। छोटी रियासतों को या तो पड़ोसी राज्यों के साथ मिला दिया गया या फिर उन्हें आपस में मिला कर केंद्र शासित प्रदेशों में बदल दिया गया। बहुत बड़ी संख्या में रियासतों को पांच नए समूहों में मिलाया गया। ये थे - मध्य भारत, राजस्थान, पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ (पेप्सू), सौराष्ट्र एवं ट्रावनकोर-कोचीन । 

अपनी शक्ति और सत्ता का आत्मसमर्पण करने के बदले प्रमुख रियासत के शासकों को कर मुक्त प्रिवी पर्स अनंत काल के लिए दी गई। 1949 में प्रिवी पर्स की कुल रकम करीब 4.66 करोड़ रुपए थी और बाद में संविधान द्वारा इसकी गारंटी दी गई। शासकों को गद्दी पर उत्तराधिकार के साथ-साथ कुछ अन्य विशेषाधिकार जैसे अपनी पदवी, अपना निजी झंडा तथा विशेष समारोहों पर बंदूक सलामी लेने का अधिकार आदि दिया गया। हालॉंकि राजाओं को ये छूट दिए जाने के समय भी और बाद में भी इसकी कुछ आलोचना की गई थी। पर आजादी और विभाजन के ठीक बाद की मुश्किलों को ध्यान में रखते हुए शायद राजाओं की शक्ति का उन्मूलन और रजवाड़ों का शेष भारत के साथ क्षेत्रीय एवं राजनीतिक एकीकरण के लिए दी गई यह कीमत शायद बहुत कम थी। निस्संदेह रियासतों के विलयन ने क्षेत्र और आबादी के रूप में पाकिस्तान बन जाने के कारण जो हानि हुई थी उसे पूरा कर दिया। निश्चय ही इसने विभाजन के घाव को भी आंशिक रूप से भर दिया।

भारत की देह पर अब दो और घाव रह गए थे। ये थे भारत पूर्वी और पश्चिमी समुद्र तटों पर पांडिचेरी और गोवा के इर्द-गिर्द फैली हुई फ्रांसीसी और पुर्तगाली स्वामित्व वाली बस्तियां। इन बस्तियों की जनता अपने नवस्वतंत्र मातृ-देश में शामिल होने के लिए बेताब थी। फ्रांसीसी शासन कहीं अधिक न्यायसंगत था और एक लंबी संधि वार्ता के बाद पांडिचेरी तथा अन्य फ्रांसीसी बस्तियों को 1954 में भारत को सौंप दिया गया। परंतु पुर्तगाली यहां टिके रहने पर तुले हुए थे, खासकर पुर्तगाल के नाटो सहयोगी ब्रिटेन और अमरीका इसके विद्रोही तेवर को समर्थन देने के लिए तैयार थे। दूसरी तरफ भारत सरकार शांतिपूर्ण उपायों से राष्ट्रों के बीच सीमा विवाद सुलझाने की नीतियों के प्रति समर्पित होने के कारण गोवा तथा अन्य पुर्तगाली उपनिवेशों को सैनिक कदमों द्वारा आजाद कराने के पक्ष में नहीं थी। गोवा की जनता ने मसले को अपने हाथ में ले लिया और पुर्तगाली नियंत्रण से आजादी के लिए एक आंदोलन आरंभ कर दिया। परंतु इस आंदोलन के साथ-साथ भारत से सत्याग्रह के लिए जाने वाले सत्याग्रहियों को भी बहुत कठोर तरीके से कुचल दिया गया। अंत में धैर्यपूर्वक पुतर्गाल के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय जनमत तैयार होने का इंतजार करने के बाद नेहरू ने 17 दिसंबर 1961 की रात गोवा में भारतीय सेना को प्रवेश करने का आदेश जारी किया। गोवा के गवर्नर-जनरल ने बिना किसी युद्ध के तुरंत आत्मसमर्पण कर दिया और इस तरह भारत का क्षेत्रीय और राजनीतिक एकीकरण का कार्य पूरा हो गया। हालांकि इस कार्य को पूरा करने में चौदह वर्ष से अधिक समय लग गए।


1 Comments

  1. Great Content 👍👍👍👍.thanks guruji 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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