औपनिवेशिक भारत में हुये विभिन्न आदिवासी व जनजातीय जन-आन्दोलन व विद्रोह :
Tribal Movement and Revolt in Colonial India.
ब्रिटिश भारत के इतिहास में 1857 का जन-आन्दोलन अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए जनता के विभिन्न वर्गों का प्रथम विद्रोह नहीं था। 1772 में बंगाल, बिहार और उड़ीसा के प्रांतों का वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य में विलय के शीघ्र बाद अंग्रेज-विरोधी भावनाएँ जाग्रत हो गई थीं और इसी प्रकार, प्लासी के युद्ध के बाद की शताब्दी में और 1857 के शक्तिशाली विद्रोह के विस्फोट के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक विद्रोह, आंदोलन और बगावतें हुईं और ब्रिटिश शासन का खुलेआम विरोध किया गया जिसमें किसानों, शासकों, सैनिकों, जमींदारों, धार्मिक भिक्षुओं और अपदस्थ भारतीय शासकों के मंत्रियों तथा आश्रितों ने खुलकर भाग लिया। इनमें से अधिकांश समूह निम्न वर्गों के थे। इसलिए इन विद्रोहों तथा आंदोलनों को सबाल्टर्न इतिहासकारों द्वारा “आधारभूत इतिहास“ ¼History from Below½ की संज्ञा दी गई है। किसानों और आदिवासियों के आंदोलनों का, जो कि कहीं अधिक व्यापक तथा प्रायिक थे, बाद में वर्णन किया गया है। यहाँ पर विविध जन आंदोलनों का वर्णन किया जा रहा है। हम इन आंदोलनों को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से विभिन्न प्रकार से वर्गीकृत कर सकते हैं : (1) राजनीतिक-धार्मिक आंदोलन, (2) अपदस्थ शासकों के आश्रितों के आंदोलन, ( 3 ) अपदस्थ शासकों और जमींदारों के आंदोलन तथा (4) विविध आंदोलन।
आज के इस आलेख में हम कुछ इसी प्रकार के उन विद्रोहों और जन आन्दोलनों का उल्लेख और वर्णन करेंगे।
फकीर विद्रोह (1776 - 77) -
बंगाल में घुमक्कड़ मुसलमान धार्मिक फकीरों का एक समूह था। बंगाल के विलय के शीघ्र बाद, 1776-77 में इन फकीरों के नेता मजनूम् शाह ने अंग्रेजी सत्ता को चुनौती देते हुए जमींदारों और किसानों से धन वसूल करना प्रारम्भ कर दिया। मजनूम् शाह की मृत्यु के बाद, चिराग अली शाह ने अपनी गतिविधियों का विस्तार बंगाल के उत्तरी जिलों तक किया। पठानों, राजपूतों और सेना से निकाले गए भारतीय सैनिकों ने उसकी सहायता की। उसकी सहायता करने वाले दो प्रसिद्ध हिन्दू नेता थे - भवानी पाठक और एक महिला देवी चौधरानी। चिराग अली शाह के नेतृत्व में फकीर बहुत शक्तिशाली हो गए और उन्होंने अंग्रेजी फैक्ट्रियों पर आक्रमण करके उनके माल, नकदी और गोला-बारूद पर कब्जा कर लिया। फकीरों तथा कम्पनी की सेनाओं के बीच अनेक लड़ाइयाँ और झड़पें हुईं और अंततः उन पर 19वीं शताब्दी के शुरू में ही काबू पाया जा सका।
संन्यासी विद्रोह (1770 - 1820) -
हिन्दू नागा और गिरि सशस्त्र संन्यासी कभी अवध और बंगाल के नवाबों तथा मराठा और राजपूत शासकों की सेनाओं का एक हिस्सा हुआ करते थे। 1770 में बंगाल में भयंकर अकाल ने इस प्रांत को जबरदस्त अराजकता और कष्टों में ग्रस्त कर दिया। इस अकाल के बाद संन्यासियों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह का प्रमुख कारण था, तीर्थ स्थलों की यात्रा करने वाले तीर्थ यात्रियों पर प्रतिबंध लगाया जाना। संन्यासियों ने अंग्रेजी फैक्ट्रियों पर धावा बोल दिया और नगरों से धन वसूल करना प्रारम्भ कर दिया जिसके परिणामस्वरूप संन्यासियों की बड़ी-बड़ी मंडलियों और अंग्रेजी सेनाओं के बीच अनेक संघर्ष हुए। लगभग आधी शताब्दी के लम्बे संघर्ष के बाद 19वीं शताब्दी के द्वितीय चरण में संन्यासी विद्रोह समाप्त हुआ।
पागलपंथी विद्रोह (1813- 33) -
उत्तर-पूर्वी भारत में पागलपंथी नाम का एक धार्मिक पंथ था जो सत्य, समानता और भाईचारे के सिद्धान्तों का अनुयायी था। उत्तर-पूर्व क्षेत्र के बहुत से हिन्दू, मुसलमान और गारो तथा हैजांग आदिवासी इस पंथ के अनुयायी बन गए। 1813 में पागलपंथियों के नेता टीपू ने सशस्त्र अनुयायियों को संगठित किया और काश्तकारों को जमींदारों के विरुद्ध भड़का करके उनके गढ़ों पर आक्रमण किए। कुछ ही वर्षों में टीपू इतना शक्तिशाली हो गया कि स्वतंत्र सत्ता का प्रयोग करने लगा और प्रशासन को चलाने के लिए एक न्यायाधीश, एक मजिस्ट्रेट और एक कलेक्टर नियुक्त किया। दो दशकों (1813-33) तक पागलपंथी अंग्रेजी सत्ता की अवज्ञा करते रहे।
वहाबी आंदोलन (, 1820-70)-
उत्तर-पश्चिमी, पूर्वी तथा मध्य भारत के क्षेत्रों में हुआ वहाबी आन्दोलन मूलतः इस्लाम का सुधारवादी आन्दोलन था, जिसका लक्ष्य मुस्लिम समाज को “भ्रष्ट धार्मिक तौर-तरीकों से मुक्त करना था। इस आन्दोलन के संस्थापक अब्दुल वहाब नामक व्यक्ति थे, जिनके नाम पर इसे वहाबी नाम दिया गया और शीघ्र ही इसने एक धार्मिक-राजनीतिक संप्रदाय का रूप धारण कर लिया। भारत में इस आन्दोलन के संस्थापक सैयद अहमद रायबरेलवी (1786-1813) थे, जिन्होंने अब्दुल वहाब (1703-1787) की शिक्षाओं के आधार पर भारत में वहाबी आन्दोलन की स्थापना की। सैयद अहमद की महत्त्वाकांक्षा पंजाब में सिखों और बंगाल में अंग्रेजों को अपदस्थ करके भारत में मुस्लिम सत्ता को पुनर्जीवित और पुनर्स्थापित करना था। उन्होंने इन दोनों शक्तियों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष प्रारम्भ किए। 1820-70 अर्थात् आधी शताब्दी तक वहाबी संघर्षरत रहे।
सैयद अहमद ’रायबरेलवी’ एक साधारण परिवार के थे और उन्होंने अनुयायियों को शस्त्रों के प्रयोग करने के लिए प्रशिक्षित किया और स्वयं सैनिक वेशभूषा धारण करके सैनिक परेडें आयोजित कीं। इस संप्रदाय की विचारधारा शीघ्र ही काबुल, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त, बंगाल, बिहार, मध्य प्रांत आदि में फैल गई। कुछ समय के लिए सैयद अहमद ने पेशावर पर कब्जा कर लिया (1830) और अपने नाम से सिक्के ढलवाए; किन्तु अगले ही वर्ष वह वालाकोट की लड़ाई में मारे गए।
1831 में सैयद अहमद की अचानक मौत हो जाने के बाद, पटना इस आंदोलन का केन्द्र बन गया। इस अवधि में आंदोलन का नेतृत्व मौलवी कासिम, विलायत अली, इनायत अली, अहमदुल्ला आदि ने किया जिन्होंने उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रान्त में अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक युद्ध लड़े। वहावी आंदोलन 1857 के विद्रोह की तुलना में कहीं अधिक नियोजित, संगठित और सुगठित था। इसके अनुयायियों द्वारा बड़ी गोपनीयता के साथ अपनी गतिविधियों का संचालन किया और इसके अनुयायियों की एक-दूसरे के प्रति निष्ठा बड़ी प्रशंसनीय थी। सैयद अहमद ने चार खलीफा अथवा आध्यात्मिक वाइस रीजेंट नियुक्त किए। लोगों को अंग्रेज काफिरों के विरुद्ध भड़काने के लिए ये खलीफा देश के कोने-कोने की यात्रा करते थे। आंदोलन में कुछेक कमजोरियाँ भी थीं जैसे कि साम्प्रदायिक उन्माद, धर्मान्धता और कुछ इसके नेताओं के मध्य पारस्परिक मतभेद परन्तु वहाबियों ने हिन्दुओं का कभी विरोध नहीं किया। कुछ स्थानों पर और विशेषकर बंगाल में इसने वर्ग संघर्ष का रूप धारण कर लिया, जहाँ किसी सांप्रदायिक भेदभाव के बिना किसानों ने जमींदारों के विरुद्ध भयंकर विद्रोह कर दिए। वहाबी आंदोलन निःसंदेह भारत को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराने के उद्देश्य से प्रेरित था परन्तु इस संघर्ष का उद्देश्य भारत के लिए स्वतंत्रता प्राप्त करना नहीं था, बल्कि मुस्लिम शासन की पुनर्स्थापना करना था।
अंग्रेजी सरकार ने इस आंदोलन से प्रभावित विभिन्न क्षेत्रों और इसके नेताओं एवं अनुयायियों के विरुद्ध जोरदार और कड़े उपाय करके आंदोलन की जड़ों पर प्रहार किए। वहाबियों के विरुद्ध बार-बार सेना का प्रयोग किया गया और इसके कई नेताओं तथा अनुयायियों को मृत्युदण्ड दे दिया गया जिससे लगभग 1870 के आसपास इस आंदोलन का उत्साह समाप्त हो गया।
कूका विद्रोह (1860 - 70 ) -
कूका आंदोलन वहाबी आंदोलन से बहुत कुछ मिलता-जुलता था। दोनों धार्मिक आंदोलन के रूप में आरंभ हुए किन्तु बाद में ये राजनीतिक आंदोलनों के रूप में परिवर्तित हो गए, जिनका सामान्य उद्देश्य अंग्रेजों को देश से बाहर निकालना था। पश्चिमी पंजाब में कूका आंदोलन की शुरुआत लगभग 1840 में सम्भवतः भगत जवाहर मल्ल द्वारा की गई, जिन्हें आमतौर पर सियान साहिब के नाम से पुकारा जाता था। इसका उद्देश्य सिख धर्म में प्रचलित बुराइयों और अंधविश्वासों को दूर करके इस धर्म को शुद्ध करना था। सियान साहिब और उनके शिष्य बालक सिंह ने अपने अनुयायियों का एक दल गठित किया और उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रान्त में हजारा को अपना मुख्यालय बनाया। कूका आन्दोलन के सामाजिक सुधारों में जाति और अंतर्जातीय विवाहों पर लगे प्रतिबंधों को समाप्त करना, मांस, मदिरा और नशीली वस्तुओं का सेवन न करना और महिलाओं द्वारा पर्दा का परित्याग करना आदि शामिल थे। पंजाब पर अंग्रेजों की विजय के बाद सिख प्रभुसत्ता को पुनर्स्थापित करना कूका आन्दोलन का मुख्य कार्यक्रम बन गया। कूका आन्दोलन के राजनीतिक पक्ष ने अंग्रेजी सरकार के लिए बहुत बड़ी चिन्ता उत्पन्न कर दी, जिसने इस आन्दोलन को कुचलने के लिए 1863 और 1872 के दौरान जोरदार उपाय किए। 1872 में इसके एक नेता रामसिंह कूका को रंगून में निर्वासित कर दिया गया जहाँ 1885 में उनकी मृत्यु हो गई ।
रामोसी विद्रोह (1822, 1825 - 26) -
रामोसी मराठा सेना और पुलिस में अधीनस्थ कर्मचारी थे। मराठा साम्राज्य के पतनोपरान्त इन्होंने कृषि का धन्धा अपना लिया। 1822 में इन रामोसी कृषकों ने बहुत अधिक लगान निर्धारण और इसे वसूल करने के अत्यन्त उत्पीड़क तरीकों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। रामोसियों ने सतारा के आसपास के क्षेत्रों को लूट लिया और किलों पर आक्रमण किए। 1825-26 में भयंकर अकाल और अन्नाभाव के कारण उन्होंने उमाजी के नेतृत्व में पुनः विद्रोह कर दिया। तीन वर्षों तक उन्होंने दक्कन के प्रदेशों को खूब तहस-नहस किया। अंततः ब्रिटिश सरकार ने उन्हें शान्त करने के लिए न केवल उनके अपराधों को माफ कर दिया अपितु उन्हें भू-अनुदान दिए गए और पहाड़ी पुलिस में भर्ती किया गया।
गड़करी विद्रोह -
गड़करी लोग मराठों के किलों में काम करने वाले उनके आनुवंशिक कर्मचारी थे। उन्होंने मनमाने ढंग से भूराजस्व की वसूली, मराठा सेना से उनके सेवामुक्त किए जाने और उनकी जमीनों को मामलतदारों की देखरेख के अधीन रख दिए जाने के विरुद्ध उन्होंने 1844 में कोल्हापुर में विद्रोह कर दिया। काफी खून-खराबे और वित्तीय हानि उठाने के बाद ही अंग्रेज इस विद्रोह को दबाने में सफल हुए ।
सावंतवादी विद्रोह (1844) -
सावंतवादी विद्रोह का नेतृत्व एक मराठा सरदार फोन्ड सावंत ने किया जिसने अन्य सरदारों और देसाईयों की सहायता से, जिनमें से अन्ना साहिब प्रमुख थे, दक्कन के कुछ किलों पर अधिकार कर लिया। जब अंग्रेजी सेनाओं ने इन विद्रोहियों को किलों से बाहर खदेड़ दिया तो ये लोग बच कर गोवा भाग गए जिससे इस क्षेत्र में भारी खलबली मच गई। कई सावंतवादी विद्रोहियों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उन्हें विभिन्न अवधियों के लिए कारावास का दण्ड दिया गया।
वेलुथम्पी का विद्रोह (1808 - 09) -
1808-09 में त्रावणकोर (केरल) के दीवान वेलुथम्पी ने अंग्रेजों द्वारा उसे दीवान की गद्दी से हटाए जाने और सहायक संधि प्रथा के माध्यम से राज्य पर भारी वित्तीय बोझ लाद देने के कुकृत्यों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इसके बाद हुई झड़पों में थम्पी घायल हो गया और उसने जंगलों में दम तोड़ दिया।
किट्टूर चेन्नम्मा विद्रोह (1824 - 29) -
1824-29 के दौरान किट्टूर (आधुनिक कर्नाटक प्रान्त में स्थित) में उस समय एक प्रबल विद्रोह हुआ जब 1824 में स्थानीय शासक की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने गोद लिए गए किट्टूर के उत्तराधिकारी को मान्यता देने से इन्कार कर दिया और प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। इस पर दिवंगत सरदार की विधवा चेन्नम्मा ने रायप्पा की सहायता से विद्रोह कर दिया। किट्टूर के विद्रोहियों ने धारवाड़ के कलेक्टर की हत्या कर दी और किट्टूर की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। अंग्रेजों ने विद्रोह को कुचलने के लिए दमनकारी उपाय किए। रायप्पा को पकड़ लिया गया और फाँसी दे दी गई और चेन्नम्मा की धारवाड़ की जेल में मृत्यु हो गई।
विशाखापतनम् विद्रोह (1827 - 30 ) -
1827-30 के दौरान आंध्र प्रदेश के विशाखापतनम् जिले में इसी प्रकार के विद्रोह हुए और जमींदारों की सम्पत्तियाँ कुर्क कर लिए जाने एवं लगान का भुगतान न कर पाने के कारण शासन द्वारा कठोर कदम उठाए जाने के कारण जमींदारों के कई विद्रोह हुए। इनमें से जमींदारों के कुछ विद्रोह अत्यन्त उग्र थे। उदाहरणतया, पालकोंडा में विद्रोह के कारण 1832 में फौजी शासन लागू करना पड़ा।
धोंडजी वाघ (1840 - 41) -
मैसूर के टीपू सुल्तान की पराजय और मृत्यु के बाद धोंडजी वाघ ने एक विद्रोह का नेतृत्व किया। यह विद्रोह इतना प्रबल था कि आर्थर वेलेजली को स्वयं विद्रोहियों का दमन करने के लिए अंग्रेजी सेना का नेतृत्व करना पड़ा। बड़ी विषम परिस्थितियों में वीरतापूर्वक लड़ते हुए धोंडजी मारा गया।
बुंदेला विद्रोह (1846 - 47) -
1846-47 में, कुरनूल के बेदखल किए गए पॉलीगार नरसिम्हा रेड्डी ने सरकार द्वारा उसकी जब्त की गई पेंशन देने से इन्कार करने पर विद्रोह कर दिया। उसने अंग्रेजों का विरोध किया और उनके विरुद्ध शस्त्र उठाए।
पायक विद्रोह (1904 - 06) -
1904 में उड़ीसा में खुर्दा के राजा ने अपने पायकों (लगानमुक्त जमीनों का उपभोग करने वाले सैनिक) की सहायता से विद्रोह संगठित किया। इस विद्रोह के परवर्ती चरण में जगबन्धु के नेतृत्व में पायकों ने अंग्रेजी सेनाओं को परास्त करने के बाद 1817 में पुरी पर अधिकार कर लिया।
सैनिक विद्रोह -
1857 के विद्रोह से पूर्व अनेक सैनिक विद्रोह हुए जो सामान्य असंतोष और शिकायतों के कारण उत्पन्न हुए। 1906 में वेल्लोर में भारतीय सैनिकों ने अपनी सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप के विरुद्ध बगावत कर दी और मैसूर के शासकों का झण्डा फहराया। 1824 में 47वीं नेटिव इन्फॅन्ट्री के सैनिकों ने पर्याप्त “समुद्र पार सैनिक सेवा भत्ते“ के बिना बर्मा (म्यांमार) जाने से इन्कार कर दिया। व्यक्तिगत असंतोष के कारण इसी प्रकार के अन्य सैनिक विद्रोह, 1825 में असम में, 1838 में शोलापुर में, 1844 में सिंध में और 1848-50 में पंजाब में हुए। 1944 में सिंध में जाने से इन्कार करने और अफसरों की अवज्ञा करने के बाद 34वीं रेजीमेंट भंग कर दी गई। लगभग इसी समय गोविंदगढ़ में तैनात 66वीं रेजीमेंट ने विद्रोह कर दिया और इस विद्रोह को चार्ल्स नेपियर ने बेरहमी से कुचला।
गोरे सैनिकों के विद्रोह (1858) -
1857 के विद्रोह के शीघ्र बाद अंग्रेजी सेना के यूरोपीय सैनिकों ने मेरठ और इलाहाबाद की कुछ छावनियों में विद्रोह कर दिया। वे कम्पनी से ब्रिटिश शाही ताज़ (क्राउन) के अपनी सेवाओं के हस्तांतरण के विरोधी थे और सेवा-मुक्ति अथवा अतिरिक्त वेतन चाहते थे। उनके असंतोष को दूर करने में असफल रहने के बाद कैनिंग ने यही बेहतर समझा कि जो सैनिक सेवा मुक्ति चाहते हैं, उन्हें इसकी अनुमति दे दी जाए। 10 हजार यूरोपीय सैनिकों ने सेवा छोड़ने का विकल्प दिया।
उग्र जन आंदोलन (1844, 1848, 1860 ) -
कभी-कभी अलोकप्रिय प्रशासकीय कार्यों के कारण भी सरकार - विरोधी उग्र आंदोलन भड़क उठे। 1844 में नमक पर शुल्क आठ आने से बढ़ाकर एक रुपए तक दोगुना करना इसका एक स्पष्ट उदाहरण है। सूरत में दो बड़े आंदोलन हुए- एक 1848 में, जब सरकार ने बंगाल के मानक वज़न और माप शुरू करने का निर्णय किया और दूसरा आय कर अधिनियम को लेकर 1860 में आंदोलन को बेरहमी से कुचल दिया गया।
जनजातीय विद्रोह :
1991 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल जनसंख्या में अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 104 मिलियन और कुल जनसंख्या 8ण्6 प्रतिशत थी। मानव-विज्ञानियों ने इन्हें दो वर्गों में विभाजित किया है - (क) सीमान्तेतर जनजातियाँ, जो कुल जनजातीय जनसंख्या का 89 प्रतिशत थीं, और (ख) सीमांत जनजातियाँ, जो नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, असम, मणिपुर, मिज़ोरम तथा त्रिपुरा के सात उत्तर-पूर्वी सीमावर्ती राज्यों की थीं।
आसपास के गैर जनजातीय समाज और विशेषकर उपनिवेशवाद के दौरान जनजातीय क्षेत्रों में बाह्य तत्त्वों की घुसपैठ के संदर्भ में इन दोनों क्षेत्रों की भौगोलिक, आर्थिक और ऐतिहासिक दृष्टि से स्थिति भिन्न थी। इस अंतर की झलक जनजातीय क्षेत्रों में हुए आंदोलनों के स्वरूप और आन्दोलन के मुद्दों में देखी जा सकती है। जनजातीय अथवा आदिवासी लोग देश के पश्चिमी, मध्यवर्ती, पूर्वी और उत्तर-पूर्वी हिस्सों के विशाल क्षेत्र के निवासी थे। उत्तर-पूर्वी क्षेत्र को छोड़कर, वे बाहरी लोगों के आगमन से अल्पसंख्यक हो गए थे और तेजी से हुए परिवर्तनों का उन पर दुष्प्रभाव पड़ा था। वे ऐसे लोगों के समूह थे जो एक-दूसरे के साथ खून के रिश्ते में बंधे थे और जाति व्यवस्था से भिन्न रूप से होते हुए भी सामाजिक दृष्टि से अलग रूप से संगठित थे। उनकी आजीविका के साधन झूम खेती तथा शिकार और मत्स्य पालन थे। उपनिवेशवाद की स्थापना के साथ ही वे अपनी ही जमीन पर कृषि मजदूर बन कर रह गए थे और उन्हें दूरस्थ खानों, बागानों और फैक्ट्रियों में काम करने के लिए अधिकाधिक संख्या में कुलियों के रूप में भर्ती किया जाने लगा था।
औपनिवेशिक भारत में जनजातीय आंदोलन, अन्य समुदायों के आंदोलनों से इस दृष्टि से भिन्न थे कि ये अत्यधिक हिंसक, बिल्कुल अलग-थलग (कम से कम आरम्भ में) और बहुत प्रायिक थे। 1778 से 1947 तक ऐसे लगभग 70 जनजातीय विद्रोह हुए। जनजातीय विद्रोहों की विशेष बात यह थी कि इनमें जनजातीय लोगों ने प्रबल उत्साह दर्शाया और शासकीय दमनकारी तंत्र ने उनका व्यापक कत्लेआम किया।
जनजातीय (आदिवासी) आन्दोलनों के कारण -
आदिवासी आन्दोलनों के कुछ महत्त्वपूर्ण कारण इस प्रकार थे -
1. भारत में ब्रिटिश भू-व्यवस्था ने संयुक्त स्वामित्व वाली आदिवासी परम्पराओं को क्षीण किया था और जनजातीय समाज में तनावों को तीव्र किया था।
2. आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई धर्मप्रचारकों की गतिविधियों से तरह-तरह की प्रतिक्रियाएँ हुईं।
3. वन क्षेत्रों में सरकारी नियन्त्रण कड़ा करने, आरक्षित वन सृजित करने और इमारती लकड़ी और पशु चराने की सुविधाओं पर प्रतिबंध लगाए जाने के कारण आदिवासी अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई जिसके परिणामस्वरूप आदिवासी लोगों में भारी अशांति फैल गई।
4. आदिवासी लोगों ने सामान्य कानून लागू किए जाने का भी विरोध किया जो उनके विचार से उनके व्यक्तिगत जीवन में घुसपैठ करना था।
5. आदिवासी लोगों पर आन्तरिक, धार्मिक और सामाजिक-सांस्कृतिक सुधारों का भी बहुत प्रभाव पड़ा।
6. कुछ आदिवासी विद्रोह जमींदारों द्वारा इमारती लकड़ी और पशु चराने पर कर बढ़ाने के प्रयासों, पुलिस की ज्यादतियों, नए उत्पाद शुल्क विनियमों, देहाती व्यापारियों और साहूकारों द्वारा शोषण किए जाने तथा वनों में झूम खेती पर प्रतिबंध लगाने के प्रतिक्रियास्वरूप हुये।
सीमांतेतर जनजातियों में होने वाले विद्रोह मुख्यतः मध्य भारत, पश्चिम मध्य भारत और आंध्र तक सीमित थे क्योंकि निचले दक्षिणी क्षेत्र में जनजातियाँ अपने शोषण और उससे जनित असंतोष के बावजूद अत्यधिक पिछड़ी, बहुत सीमित संख्या में थीं और एक-दूसरे से इतनी अलग-थलग थीं कि वे आंदोलन नहीं कर सकती थीं। जिन जनजातियों ने इन आंदोलनों में भाग लिया वे थीं- खोंड, सावरा, संथाल, मुण्डा, ओराओं, कोया, कोल, गोंड और भील।
सीमांतेतर जनजातीय क्षेत्रों में स्थिति बड़ी जटिल थी। उपनिवेशवाद आने से पूर्व ही बाहरी लोगों के प्रवेश करने के साथ ही विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों की अपेक्षाकृत सजातीय और समतावादी संस्कृति पहले से ही टूट रही थी। तद्जनित सामाजिक भेदभाव और शोषण, अंग्रेजी शासन और इसके साथ आने वाले व्यापारीकरण के कारण बहुत ज्यादा बढ़ गया था। आदिवासियों का खून चूसने और पूर्ण निजी संपत्ति की पक्षधर अंग्रेजी विधिक संकल्पनाओं के परिणामस्वरूप आदिवासी समाज के भीतर संयुक्त स्वामित्व की परम्पराएँ समाप्त करने और तनावों को तीव्र करने के लिए अंग्रेजी प्रशासकों ने मैदानी इलाकों के बाहरी लोगों- साहूकारों, व्यापारियों, जमीनें हड़पने वालों तथा ठेकेदारों को अपने साथ मिला लिया। बहुत से आदिवासी क्षेत्रों में ईसाई मिशन सक्रिय थे जो शिक्षा का प्रसार और सामाजिक उन्नति का वादा कर रहे थे, किन्तु अपने तरीके से आदिवासियों का शोषण भी कर रहे थे और प्रायः उनकी पारम्परिक विश्वास प्रणालियों के विरुद्ध बोलते और कार्य करते थे। इन गतिविधियों की आदिवासियों पर अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाएँ हुई। इन्होंने विदेशी ढंग से ईसाइयत थोपने के प्रति विरोध प्रकट किया। 1880 से वनों को आरक्षित करने और झूम खेती पर रोक लगाकर वन संपदा पर एकाधिकार जमाने और पशु चराने और जलाने की लकड़ी एकत्र करने के अधिकार सीमित करने संबंधी अंग्रेजी प्रयासों ने आग पर घी का काम किया, जैसा कि ताड़ी आदि पर नए करों के करारोपण ने किया था।
सीमांतेतर आदिवासियों के विद्रोह आमतौर पर बाहरी लोगों (घृणित दीकू) स्थानीय जमींदारों और शासकों तथा आदिवासियों के जीवन में उनके द्वारा हस्तक्षेप किए जाने के विरुद्ध प्रतिक्रियाएँ थी, जिन्हें अंग्रेजी प्रशासन का समर्थन प्राप्त था। एक समान पृष्ठभूमि होने के बावजूद इन आंदोलनों में समय और इनके द्वारा उठाए गए मुद्दों को लेकर इनमें अंतर था।
कुंवर सुरेश सिंह ने आदिवासी आंदोलनों को तीन चरणों में विभाजित किया है। पहला चरण 1795 और 1860 के बीच का था, जो अंग्रेजी साम्राज्य के उदय, विस्तार तथा स्थापना के साथ-साथ शुरू हुआ। दूसरा चरण उपनिवेशवाद की गहन अवस्था के साथ शुरू हुआ और इसकी अवधि 1860 से लेकर 1920 तक थी, जब “सौदागरों की पूँजी ने आदिवासी अर्थव्यवस्था में प्रवेश किया और भूमि तथा वनों के साथ उनके सम्बन्धों को प्रभावित किया।“ इस चरण के दौरान आदिवासियों ने तथाकथित अलगाववादी आंदोलन ही शुरू नहीं किए अपितु राष्ट्रवादी तथा कृषक आन्दोलनों में भी भाग लिया। प्रथम चरण के नेता आदिवासी समाज के ऊपरी वर्ग के थे जबकि दूसरे चरण के नेता इसके निचले वर्गों से थे। तीसरे चरण में, जैसे-जैसे आदिवासी आन्दोलन में व्यापक आन्दोलनों के साथ जुड़ने की प्रवृत्ति आई, इन्हें प्रायः ऐसे आदिवासियों ने नेतृत्व प्रदान किया जिन्हें शिक्षित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था अथवा गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्त्ताओं से लेकर अल्लूरी सीताराम राजू जैसे गैर-जनजातीय लोग इनके नेता बने। जनजातीय मुद्दों के आधार पर अध्ययन की सुविधा के लिए हम इनका वर्गीकरण इस प्रकार कर सकते है - (1) जातीय अथवा सांस्कृतिक आंदोलन, (2) सुधार अथवा सांस्कृतिक आन्दोलन, (3) कृषक और वन आधारित आन्दोलन, तथा (4) राजनीतिक आन्दोलन । ये विभाजन प्रायोगिक और अतिव्यापी हैं और प्रायः ये एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं।
प्रथम चरण
इन आंदोलनों का प्रथम चरण अंग्रेजों द्वारा आदिवासी क्षेत्रों में प्रवेश करने और वहाँ सुधार शुरू करने के प्रयासों के साथ आरम्भ हुआ। इन आदिवासी आन्दोलनों का स्वरूप प्रायः पूर्व व्यवस्था पुनर्स्थापित करना था और इनका नेतृत्व उन पारंपरिक वर्गों ने किया जिनके विशेषाधिकारों को भारत के उपनिवेशीकरण के द्वारा क्षति पहुँचाई गई थी।
पहाड़िया विद्रोह, 1778-
इस क्रम में राजमहल पहाड़ियों में बसी लड़ाकू पहाड़िया जनजाति ने अपने क्षेत्र पर अतिक्रमण का विरोध करने के लिए अपने सरदारों के नेतृत्व में 1778 से एक लम्बा और खूनी संघर्ष आरम्भ कर दिया । अंग्रेजों को उनके साथ सुलह करनी पड़ी और इसे दामनी कोल क्षेत्र घोषित करना पड़ा।
खोंड विद्रोह (1837-56)-
खोंड लोग, तमिलनाडु से लेकर बंगाल एवं मध्य भारत तक फैले विस्तृत पहाड़ी क्षेत्रों में रहते थे और पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण वे वस्तुतः स्वतंत्र थे। 1837 से 1856 तक उनके विद्रोह अंग्रेजों के विरुद्ध थे, जिनमें घुमसर, चीन-की-मेंडी, कालाहांडी तथा पटना के आदिवासियों ने सक्रिय भाग लिया। इस आंदोलन का नेतृत्व युवा राजा के नाम पर चक्र बिसोई ने किया । इस विद्रोह के मुख्य मुद्दे सरकार द्वारा मानव बलि (मरिहा) को प्रतिबन्धित करने के प्रयास, अंग्रेजों द्वारा नए करों का करारोपण और उनके क्षेत्रों में जमींदारों तथा साहूकारों के प्रवेश से सम्बन्धित थे, जिनके कारण आदिवासियों को असंख्य दुख तकलीफों का सामना करना पड़ रहा था। अंग्रेजों ने एक मरिहा एजेंसी गठित की जिसके विरुद्ध खोंडों ने टाँगी - एक प्रकार की युद्ध-कुल्हाड़ी, तीर-कमानों और तलवारों से युद्ध किया। बाद में राधाकृष्ण दण्डसेन के नेतृत्व में सवारा और कुछ अन्य योद्धा जनजातियाँ इस विद्रोह में शामिल हो गई । परन्तु 1855 में चक्र बिसोई लुप्त हो गया जिसके बाद यह आन्दोलन समाप्त हो गया ।
कोल तथा हो विद्रोह -
राजा कहलाने वाले छोटे सरदारों द्वारा शासित छोटानागपुर के कोलारी आदिवासियों ने अपने क्षेत्र में अंग्रेजी सत्ता के क्रमिक विस्तार का विरोध किया। प्राराहाट के राजा ने सिंहभूम पर अंग्रेजों के कब्जे का कड़ा विरोध किया। हो नामक उसकी जनजातीय प्रजा ने उत्साहपूर्वक राज्य की रक्षा की और वे सरकारी आदमियों को अपने राज्य में प्रवेश नहीं करने देते थे। 1827 के बाद जब अनेक जनजातीय ग्रामों में आग लगा दी गई और भारी संख्या में हो लोगों का कत्लेआम किया गया, तभी कुछ समय के लिए ही जनजातीय विद्रोहियों ने आत्मसमर्पण किया ।
1831 में छोटानागपुर के मुण्डा आदिवासियों ने विद्रोह कर दिया और हो लोग भी उनके साथ मिल गए। यह विद्रोह बाहरी लोगों की ठेके पर लगान वसूली का अधिकार प्रदान करने और उनके प्रदेशों में बंगालियों के आगमन के कारण आरम्भ हुआ। शीघ्र ही यह विद्रोह राँची, हजारीबाग, पलामू और सिंहभूम सहित काफी बड़े आदिवासी क्षेत्र में फैल गया। व्यापक और अंधाधुंध हिंसा और लूटमार की गईं। विद्रोहियों ने अपना गुस्सा विशेष रूप से विदेशी औपनिवेशिकों पर उतारा जिनमें से लगभग एक हजार आदिवासियों को उनके घरों में ही मौत के घाट उतार दिया गया। व्यापक सैनिक कार्रवाइयों के बाद 1832 में यह विद्रोह दबा दिया गया। हो लोगों ने अपना हठ जारी रखा और अंग्रेजी सत्ता के सामने हथियार डालने से पहले 1836 तथा 1837 में उन्होंने स्फुट सैनिक अभियानों को जारी रखा।
संथाल विद्रोह -
1855-56 का संथाल विद्रोह एक सर्वाधिक प्रसिद्ध आदिवासी विद्रोह था, जिसमें मूलभूत आदिवासी आवेग और ब्रिटिश शासन के पूर्ण तिरस्कार जैसी भावनाएँ देखने को मिलती हैं। बिहार और उड़ीसा के वीरभूमि, सिंहभूमि, बांकुरा, मुँगेर, हजारीबाग और भागलपुर के जिलों में यह विद्रोह आर्थिक कारणों से हुआ। साहूकारों तथा औपनिवेशिक प्रशासकों, दोनों ही उनका शोषण कर रहे थे। दीकुओं (बाहरी लोगों) व्यापारियों ने संथालों द्वारा लिए गए ऋणों पर 50 से लेकर 500 प्रतिशत ब्याज वसूल किया और कई तरीकों से आदिवासियों का शोषण किया और उनसे धोखेबाजी की। जब आदिवासियों ने देखा कि अंग्रेज अधिकारी उनकी शिकायतें दूर करने की बजाय उनका शोषण एवं उत्पीड़न करने वालों को आदिवासियों के कोपपूर्ण प्रतिशोध से बचाने के लिए अधिक उत्सुक हैं, तो वे अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध हो गए। 1855 में जब संथालों से यह आह्वान करते हुए दिव्य आदेश जारी किया गया कि वे उत्पीड़नकारियों के नियंत्रण से स्वयं को मुक्त करें और “अपने प्रदेश को अपने हाथ में ले लें और अपनी सरकार स्थापित करें“ तो सिद्धू और कान्हू नामक दो संथाल बन्धुओं के नेतृत्व में दस हजार से अधिक संथाल एकत्र हो गए। एक मास में ही इस विद्रोह ने भयंकर रूप धारण कर लिया। विद्रोहियों ने भागलपुर और राजमहल के बीच डाक और रेल सेवाएँ काट दीं, कम्पनी के शासन के अंत और संथाल राज्य के प्रारम्भ की उद्घोषणा कर दी। उन्होंने साहूकारों, जमींदारों, गोरे बागान मालिकों, रेलवे इंजीनियरों और अंग्रेज अधिकारियों के घरों पर हमले किए। अंग्रेजों के साथ खुली जंग फरवरी 1856 तक जारी रही, जब अंततः विद्रोही नेताओं को पकड़ लिया गया और इस आन्दोलन को भारी दमन के साथ कुचल दिया गया।
इस अवधि के दौरान होने वाले अन्य आदिवासी विद्रोह थे - छोटानागपुर में तामर विद्रोह (1784-85) महाराष्ट्र में कोली विद्रोह (1784-85 ); बिहार में चौरी विद्रोह (1798); पांचेट एस्टेट विद्रोह (1809-28); गुजरात में भील विद्रोह, मुंडा विद्रोह (1820 1832 तथा 1837 ); बिहार में भगीरथ के नेतृत्व खेरवाड़ विद्रोह, भूमिज विद्रोह, बस्तर में गोंड विद्रोह (1842) कुंवर के नेतृत्व में भील विद्रोह और गुजरात में जीवो वासुआ विद्रोह (1850 तथा 1857-58) ।
आदिवासी क्षेत्रों में ब्रिटिश प्रशासन द्वारा क्रियान्वित प्रशासनिक सुधारों के प्रति आदिवासियों के भयंकर विरोध के परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार इस सम्बन्ध में बहुत सावधान हो गई। उन्होंने आदिवासियों की शिकायतें दूर करने के लिए विलंबित प्रयास भी किए। इस प्रकार खोल विद्रोह के बाद 1833 का बंगाल रेगुलेशन XIII पारित हुआ जिसके द्वारा छोटानागपुर का पूरा क्षेत्र सामान्य कानून के प्रवर्तन (लागू होने) से मुक्त घोषित कर दिया गया। इसी प्रकार खोण्ड विद्रोह के बाद एक शासकीय उद्घोषणा की गई, जिसमें एक नवीन भू-राजस्व एवं करारोपण व्यवस्था लागू करने का वचन दिया गया। संथाल विद्रोह के परिणामस्वरूप 1855 का रेगुलेशन XXXVIII पारित हुआ। 1858 के पुलिस नियमों द्वारा ग्राम के मुखिया लोगों को पुलिस की शक्तियाँ प्रदान की गईं।
द्वितीय चरण :
आदिवासियों के आक्रोश को शान्त करने के लिए उठाए गए कदम बहुत “स्वल्प थे और बहुत विलम्ब से लागू किए गए थे, अतः 1860 से 1920 की अवधि में आदिवासी विद्रोहों का द्वितीय चरण प्रारम्भ हो गया। इस काल में भारत पर औपनिवेशिक शिकंजा और अधिक कड़ा हो गया था। भारतीय और विदेशी, दोनों तत्त्वों द्वारा संयुक्त रूप से आदिवासियों के शोषण से आदिवासी समाज की आन्तरिक संरचना भूमि एवं वनों के साथ उनके सम्बन्ध दुष्प्रभावित हुए और दीकुओं (बाहरी तत्त्वों पर) उनकी निर्भरता बढ़ गई। ईसाई धर्मप्रचारकों की गतिविधियों से आदिवासी जीवन में बाहरी तत्त्वों की घुसपैठ का एक अन्य मार्ग उन्मुक्त हो गया, जिनके द्वारा सुधारों एवं परिवर्तनों की नई प्रक्रिया का उदय हुआ। इस पृष्ठभूमि में 1860-1920 के बीच हुए आदिवासी आन्दोलनों के दो लक्ष्य थे - एक ओर तो आदिवासियों का शोषण करने वाले बाहरी तत्त्वों के विरुद्ध संघर्ष और दूसरी ओर आदिवासियों द्वारा अपने समाज में सुधार लाने के लिए प्रयास। ये दोनों प्रयास संस्कृतिकरण (उच्च जातियों की संस्कृति का अनुकरण करने की प्रवृत्ति) की प्रवृत्तियों को जनजातीय विश्वासों के साथ जोड़ने एवं अच्छे भविष्य की निराशाजनक आशा का एक विचित्र सम्मिश्रण थे द्य इस द्वितीय चरण के आदिवासी आन्दोलनों पर पुराने सरदारों का एकाधिकार नहीं था, क्योंकि वे 1857 में ही पराजित हो चुके थे और पुराने आन्दोलनों के साथ उनके नेतृत्व का अन्त हो चुका था ।
खारवाड़ विद्रोह -
संथाल विद्रोह (1855-56) कुचले जाने के बाद 1870 के दशक में खारवाड़ विद्रोह हुआ जिसने पहले एकेश्वरवाद और आंतरिक सुधारों का प्रचार किया किन्तु इस विद्रोह के दमन से कुछ समय पहले इस विद्रोह ने लगान बन्दोबस्त व्यवस्था का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया।
खोण्ड डोरा विद्रोह -
आदिवासी विद्रोहों के इस द्वितीय चरण में जादू-टोने की दैवीय शक्तियों से युक्त होने का दावा करने वाले अनेक दैवीय नेताओं का उदय हुआ। 1900 में विशाखापतनम् एजेंसी के डाबुर आदिवासी क्षेत्र के खोण्डा डोरा जनजाति ने कोर्रा मल्लया के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। मल्लया ने पाण्डवों का अवतार होने का दावा किया और यह आश्वासन दिलाया कि वह आदिवासियों के बाँसों को बन्दूकों में और सरकारी हथियारों को पानी में परिवर्तित कर देगा। तदुपरान्त वह अंग्रेजों को निष्कासित करके अपने शासन की स्थापना करेगा। इस विद्रोह का दमन कर दिया गया जिसमें पुलिस द्वारा 110 आदिवासी विद्रोहियों को गोली से उड़ा दिया गया और दो विद्रोहियों को फाँसी दी गई ।
नैकदा आंदोलन-
इसी प्रकार मध्य प्रदेश और गुजरात में वनवासी नैकदा आदिवासियों ने धार्मिक जोश के साथ अंग्रेज अधिकारियों और सवर्ण हिन्दुओं के विरुद्ध आंदोलन आरंभ कर दिए और दैवीय शक्तियों से युक्त अपने नेताओं के नेतृत्व में ’धर्मराज’ स्थापित करने के प्रयास में पुलिस स्टेशनों पर आक्रमण किए ।
भील विद्रोह -
कुछ समय बाद दक्षिणी राजस्थान में बांसवारा, सूंठ और डूंगरपुर राज्यों के भील, एक बलि या बंधुआ मजदूर गोविन्द गुरु के सुधारों से प्रेरित होकर इस आन्दोलन में कूद पड़े। 1913 तक यह आन्दोलन शक्तिशाली हो गया और विद्रोही भीलों ने ’भीलराज’ स्थापित करने का निश्चय किया। इसी वर्ष 4,000 भील मंगड़ पहाड़ी पर एकत्र हुए और बड़े कड़े संघर्ष के बाद ब्रिटिश सेना और पुलिस उन्हें तितर-बितर कर पाई। इस संघर्ष में बारह आदिवासी मारे गए और 900 को बन्दी बना लिया गया।
भुयान और जुआंग विद्रोह -
ये विद्रोह 1867-68 में और पुनः 1891-93 में क्योंझर (उड़ीसा) में हुए। पहले विद्रोह के नेता रत्न नायक थे। इनमें भाग लेने वाले मुख्यतः भुयान आदिवासी थे, जिनके साथ बाद में काल और जुआंग आदिवासी भी शामिल हो गए। इस विद्रोह का मुख्य कारण था भुयान आदिवासियों के आत्मसम्मान को आहत करना था, जो क्योंझर राज्य के प्रशासन में महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन थे - राज्याभिषेक के अवसर पर भुयान सरदार की उपस्थिति अनिवार्य थी। 1867 में क्योंझर के राजा की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के प्रश्न पर विवाद उठ खड़ा हुआ और अंग्रेजों ने भुयान लोगों से परामर्श लिए बगैर अपने एक आश्रित व्यक्ति को सिंहासन पर आसीन कर दिया। इससे वे क्रुद्ध हो गए और विद्रोह भड़क उठा। लेकिन शीध्र ही यह विद्रोह 1868 में दबा दिया गया। इस विद्रोह का स्वरूप प्रथम चरण के आदिवासी आन्दोलनों की भाँति था और इसके नेता पारम्परिक सरदार थे जिनका उद्देश्य पुरानी व्यवस्था को पुनर्स्थापित करना था।
1891-93 का द्वितीय विद्रोह क्योंझर के राजा, जिसे अंग्रेजों ने सत्तारूढ़ किया था, के सामन्तवादी और उत्पीड़नकारी शासन के विरुद्ध हुआ। इस विद्रोह का नेता धरणीधर नायक था, जिसका स्थानीय जनता ने व्यापक रूप से समर्थन किया। इस विद्रोह ने राज्य के प्रशासन को पूर्णतः पंगु कर दिया और क्योंझर के राजा को भाग कर कटक में शरण लेनी पड़ी। अन्ततः स्थानीय प्रशासन की मदद से इस विद्रोह का दमन कर दिया गया।
बस्तर का विद्रोह -
1910 में बस्तर के राजा के विरुद्ध जगदलपुर क्षेत्र में एक विद्रोह हुआ, जिसका ब्रिटिश सेनाओं ने दमन किया। इस विद्रोह का आंशिक कारण उत्तराधिकार सम्बन्धी विवाद था और मुख्य कारण वन अधिनियमों का क्रियान्वयन और सामन्ती करों का करारोपण था। विद्रोहियों ने संचार व्यवस्था भंग कर, पुलिस स्टेशनों एवं वन चौकियों पर आक्रमण किए, विद्यालयों को आग लगाई और जगदलपुर नगर का घेरा डाल दिया।
कोया विद्रोह -
यह विद्रोह आधुनिक आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी क्षेत्र में शुरू हुआ और इससे उड़ीसा में मल्कागिरि जिले के कुछ क्षेत्र भी प्रभावित हुए। इसका मुख्य केन्द्र चोडावरम् का ’रम्पा प्रदेश’ था, जहाँ आदिवासी कोया और कोंडा सोरा नामक पहाड़ी सरदारों ने 1803, 1840, 1845, 1858, 1861 तथा 1862 में अपने शासक के विरुद्ध विद्रोह किए। 1879-80 के विद्रोह का नेतृत्व टोम्मा सोरा ने किया। इस विद्रोह का मुख्य कारण आदिवासियों की व्यक्तिगत समस्याएँ थी, जैसे कि जंगलों पर उनके परम्परागत अधिकारों को समाप्त किया जाना, पुलिस की ज्यादतियाँ, साहूकारों द्वारा उनका शोषण और ताड़ी के घरेलू उत्पादन पर आबकारी अधिनियमों को लागू करना। टोम्मा सोरा को मल्कागिरि का राजा घोषित किया गया। अपने चरमोत्कर्ष काल में इस विद्रोह से 5,000 वर्ग मील का क्षेत्र दुष्प्रभावित हुआ और आदिवासी किसानों ने पुलिस स्टेशनों पर अधिकार कर लिया। पुलिस ने सोरा को गोली द्वारा मार डाला और इसके साथ ही कोया विद्रोह, धराशायी हो गया। परन्तु उल्लेखनीय है कि मद्रास इन्फैंट्री की छः रेजीमेन्टों के प्रयोग के द्वारा ही इस विद्रोह पर काबू पाया जा सका। 1886 में एक अन्य कोया विद्रोह हुआ। विद्रोहियों ने राजा अनन्तय्यार के नेतृत्व में राम संडु (राम की सेना) का गठन किया और जयपुर के महाराजा से अंग्रेजों का तख्ता पलट करने के लिए सहायता की याचना की।
मुण्डा विद्रोह -
1899-1900 का उल्गुलन (महा विद्रोह) नाम से प्रसिद्ध यह मुण्डा विद्रोह इस अवधि का सर्वाधिक प्रसिद्ध आदिवासी विद्रोह था जिसका नेता विरसा मुण्डा था। मुण्डारी भूमि व्यवस्था का गैर-सामुदायिक सामन्तवादी, ज़मींदारी या व्यक्तिगत भूस्वामित्व वाली भूमि व्यवस्था में परिवर्तन के विरुद्ध इस विद्रोह का उदय हुआ और बाद में बिरसा के धार्मिक-राजनीतिक आन्दोलन के रूप में इसका चरमोत्कर्ष हुआ। साहूकारों और जंगलों के ठेकेदारों ने मुण्डा आदिवासियों के कष्टों को द्विगुणित कर दिया था। कुछ मुण्डा आदिवासियों द्वारा ईसाई धर्म अंगीकार कर लेने से स्थिति में कुछ सुधार हुआ, परन्तु 1858 के बाद ईसाई मुण्डा आदिवासियों द्वारा उत्पीड़नकारी ज़मींदारों के साथ संघर्ष करने के हमें संदर्भ प्राप्त होते हैं। मार्च 1879 में मुण्डों ने यह घोषणा की कि छोटानागपुर क्षेत्र उनका अपना प्रदेश है।
इस विद्रोह का नेता बिरसा मुण्डा एक बटाईदार का पुत्र था और उसने ईसाई धर्मप्रचारकों से कुछ शिक्षा ग्रहण की तथा उसके बाद उस पर वैष्णव सम्प्रदाय का प्रभाव पड़ा। 1893-94 में उसने वन विभाग द्वारा ग्राम की बंजर जमीनों को अधिग्रहीत करने के विरुद्ध आन्दोलन में भाग लिया था। उसकी प्रारम्भिक लोकप्रियता का आधार उसकी औषधीय और चिकित्सकीय शक्तियाँ थीं, जिनके द्वारा बिरसा अपने अनुयायियों को अभेद्य बना देने का दावा करता था। मुण्डा आदिवासी एक ऐसे आदर्श और न्यायपूर्ण समाज की कल्पना करते थे जो भारतीय और यूरोपीय शोषकों से मुक्त हो। इस विद्रोह में मुण्डा स्त्रियों ने भी हिस्सा लिया।
1899 में बिरसा मुण्डा अनुयायियों ने अपने पारंपरिक तीर-कमानों से आक्रामक गतिविधियाँ प्रारम्भ कर दीं और गिरिजाघरों में आग लगाना प्रारम्भ कर दिया। 1900 में विद्रोहियों ने पुलिस को अपना निशाना बनाया, परन्तु सैल रकेब पहाड़ी पर लड़े गए एक युद्ध में विद्रोहियों को पराजित कर दिया गया और बिरसा की जेल में मृत्यु हो गई। लगभग 350 मुण्डा विद्रोहियों पर मुकदमे चलाए गए, जिनमें से तीन फाँसी दी गई और 44 को आजन्म कारावास की सजा दी गई। इस विद्रोह के बाद छोटानागपुर काश्तकारी कानून (टेनेंशी एक्ट) में कुछ राहत प्रदान की गई। इस कानून के द्वारा संयुक्त काश्तकारी अधिकारों को मान्यता दी गई और बेगारी या बंधुआ मजदूरी पर प्रतिबन्ध लगाया गया। यद्यपि यह कहना कि बिरसा मुण्डा पूर्णरूपेण एक राष्ट्रवादी था, अतिशयोक्तिपूर्ण होगा। परन्तु इस आन्दोलन को आदिम पर साम्राज्यवाद विरोधी कहने से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
खोंड विद्रोह-
जैसे-जैसे देश बीसवीं शताब्दी की ओर आगे बढ़ा, वैसे ही कुछ साम्राज्यवाद विरोधी आदिवासी आन्दोलनों में ’मूल-राष्ट्रवादी’ तत्त्वों को स्पष्टतः देखा जा सकता है। अक्टूबर 1914 में प्रथम महायुद्ध का समाचार पाते ही उड़ीसा में सस्पल्ला के अधीनस्थ राज्य में चल रहे खोंड विद्रोह को आशा हुई कि अब देश में कोई भी साहिब लोग (अंग्रेज) नहीं रहेंगे और खोंड अपनी स्वायत्त सरकार की स्थापना कर सकेंगे। हालॉकि ब्रिटिश सरकार द्वारा खोंड ग्रामों में आग लगाकर इस विद्रोह का दमन किया गया। उड़ीसा की पश्चिमी सीमा पर स्थित मयूरभंज जिले में ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा मजदूरी के लिए जनजातीय मजदूरों की बलात भर्ती के विरुद्ध संथालों ने विद्रोह कर दिया।
तीसरा चरण :
ताना भगत आन्दोलन-
प्रथम महायुद्ध के उपरान्त छोटानागपुर के मुण्डा और ओरओं आदिवासियों के मध्य अनेक भगत (फकीर या धर्माचार्य) आन्दोलन हुए। आदिवासी भगतों के नेतृत्व वाले ये आन्दोलन एक प्रकार के संस्कृतीकरण आन्दोलन थे। ओराओं लोग इन आन्दोलनों को कुरुख धर्म या ओरओं लोगों का वास्तविक और मूल धर्म मानते थे।
इन राष्ट्रवादी-धार्मिक आदिवासी आन्दोलनों के बाद गाँधीवादी कार्यकर्त्ताओं ने आदिवासियों के मध्य कल्याणकारी रचनात्मक कार्य करने के प्रति रुचि लेना प्रारम्भ किया। 1920 के दशक में कांग्रेस ने ताना भगतों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किए और उन्हें राष्ट्रवाद से परिचित कराया। कांग्रेस के नेतृत्व में ताना भगतों ने शराब की दुकानों पर धरना देकर, सत्याग्रहों और प्रदर्शनों में भाग लेकर, स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया।
ताना भगत आन्दोलनों की धार्मिकता का आदिवासियों की जागरूकता पर “बहुत दूरगामी प्रभाव“ पड़ा। इसके द्वारा उन्हें अपने शोषण के विरुद्ध विरोध व्यक्त करने एवं संघर्ष करने के लिए राजनीतिक आचार संहिता प्राप्त हुई। 1920 के बाद इस आन्दोलन के माध्यम से उनमें आकांक्षाओं एवं एकता का उदय हुआ, जिसके द्वारा उन्होंने अपनी स्थानीय शिकायतों की राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ सम्बद्ध किया। जंगलों से सम्बन्धित उनकी शिकायतों में यह स्थिति स्पष्टतः देखने को मिलती है, क्योंकि उनकी ये शिकायतें ब्रिटिश प्रशासन के विरुद्ध थीं, जबकि उनकी कृषिजन्य शिकायतें जमींदारों के विरुद्ध थीं।
इस प्रकार के अनेक भगत आंदोलन हुए जैसे कि जारा भगत, बलराम भगत, गऊ रक्षिणी भगत और यहाँ तक कि एक महिला भगत के नाम पर देवमेनिया भगत आन्दोलन। इन आन्दोलनों में किसी न किसी रूप में संस्कृतिकरण की प्रवृत्ति शामिल थी। जैसे कि इस आन्दोलन द्वारा अपने अनुयायियों से माँस और मदिरा परित्याग करने के लिए कहना, किन्तु 1915 के उत्तरार्ध से ये आन्दोलन एक बहुत शक्तिशाली मसीही आन्दोलन के साथ सम्बद्ध होना शुरू हो गए, जो ताना भगत आन्दोलन के नाम से चल रहा था। इसका संदेश यह था कि ईश्वर औरओ आदिवासियों को उनकी दुखद स्थिति से मुक्त कराने के लिए धरती पर अपना सर्वाधिक शक्तिशाली और कृपालु देवदूत भेजेगा। इस मसीहा की तुलना प्रायः बिरसा मुण्डा अथवा जर्मन कैसर-बाबा के साथ की गई, जो उनके देश से सभी विदेशियों को निष्कासित कर देगा। इस आन्दोलन ने आदिवासी समाज में आंतरिक सुधारों को लागू करने तथा विदेशियों को निष्कासित करने के लिए शीघ्र ही एक शक्तिशाली आन्दोलन का रूप धारण कर लिया।
सरकार ने इन आन्दोलनों के विरुद्ध प्रायः दमनकारी तरीके अपनाए। इनके अनुयायियों को जेल में डाल दिया गया और उनकी जमीनें जब्त कर ली गईं। किन्तु इन कठिनाइयों से भगत अनुयायियों के हौसले पस्त नहीं हुए। वस्तुतः उन्होंने 1930 के दशक में हरिबाबू के नेतृत्व में इसी प्रकार के एक अन्य आन्दोलन को मुण्डों के पड़ोसी मो आदिवासियों के मध्य भी प्रोत्साहित किया।
चेंचू आदिवासी आन्दोलन -
आन्ध्र प्रदेश में गुंटूर जिले में चेंचू आदिवासियों ने असहयोग आन्दोलन के दौरान एक शक्तिशाली जंगल सत्याग्रह शुरू किया। इस आन्दोलन के साथ वेंकट्टप्पया जैसे नेताओं द्वारा संपर्क स्थापित किए गए और यहाँ तक कि सितम्बर 1927 में गाँधीजी ने भी कुड्डपाहू की यात्रा की। कांग्रेस इस आन्दोलन को इन अधिकारियों के सामाजिक बहिष्कार करने तक सीमित रखना चाहती थी किन्तु किसानों ने पशु चराने के लिए वसूल किए जाने वाले चरवाही शुल्क का भुगतान किए बगैर पशुओं को जंगल में भेजना शुरू कर दिया। पालनद में कुछ ग्रामवासियों ने स्वराज की उद्घोषणा कर दी तथा पुलिस दलों पर हमले किए और कुछ समय के लिए प्रशासन वस्तुतः ठप्प हो गया। इसी प्रकार 1921-22 में मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में बहुत प्रबल भील आन्दोलन ने उग्र स्वरूप धारण कर लिया। कांग्रेस ने इस आन्दोलन के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध होने से इन्कार किया। फरवरी 1922 में बंगाल के जलपाइगुड़ी जिले में संथालों ने गाँधी टोपियाँ पहन कर पुलिस पर हमले किए। उनका विश्वास था कि इन टोपियों के कारण उन पर गोलियों का कोई असर नहीं होगा।
रम्पा विद्रोह -
आदिवासी सैन्य विद्रोहों का एक अद्वितीय उदाहरण आंध्र प्रदेश के गोदावरी के उत्तर में ’रम्पा’ क्षेत्र से देखने को मिलता है, जहाँ 19वीं शताब्दी में अनेक आदिवासी विद्रोह हुए थे। 1916 में यहाँ एक अन्य विद्रोह हुआ, जो अगस्त 1922 और मई 1924 के मध्य इसी क्षेत्र में गुरिल्ला युद्ध के रूप में हुए रम्पा विद्रोह का पूर्वाभ्यास था। पहले की भाँति इस बार भीरम्पा आदिवासियों की मुख्य शिकायतें साहूकारों के शोषण और वन कानूनों के विरुद्ध थीं। बस्तियाँ के एक उत्पीड़क तहसीलदार गुडेम के उत्पीड़क कृत्यों ने रम्पा विद्रोह को भड़काने में चिन्गारी का काम किया। वह जंगलों में सड़कों के निर्माण के लिए रम्पा आदिवासियों को बंधुआ मजदूरों के रूप में कार्य करने के लिए बाध्य कर रहा था। रम्पा विद्रोह के नेता अल्लूरी सीताराम राजू नामक एक गैर आदिवासी थे, जिन्होंने ज्योतिषीय और शारीरिक उपचार सम्बन्धी शक्तियों से युक्त होने का दावा किया और शीघ्र ही आंध्र प्रदेश की लोककथाओं के नायक हो गए। अल्लूरी सीताराम राजू को असहयोग आन्दोलन से प्रेरणा मिली थी और वे गाँधीजी के प्रशंसक थे, पर वे आदिवासी हितों की रक्षा के लिए हिंसा को आवश्यक समझते थे। वह बन्दूक की गोलियों की बौछार से स्वयं को अभेद्य (बुलेट प्रूफ) होने का दावा करते थे। सीताराम राजू एक प्रबल रणनीतिज्ञ था और उसके विद्रोही समूहों को 2,500 वर्ग मील क्षेत्र में फैली जनसंख्या का विश्वास प्राप्त था। लगभग वर्ष लम्बे संघर्ष के बाद मई 1924 में अल्लूरी सीताराम राजू को पकड़कर मार दिया गया। परन्तु रम्पा विद्रोह का दमन करने के लिए ब्रिटिश सरकार को भयंकर प्रयास करने पड़े और इसके लिए मद्रास सरकार को 15 लाख रुपए व्यय करने पड़े।
वन सत्याग्रह -
राष्ट्रवाद और आदिवासी आन्दोलनों के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध बने रहे और 1930-32 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसे सर्वव्यापी आन्दोलनों के दौरान यह सम्बन्ध और अधिक सुदृढ़ हुए। इस प्रकार महाराष्ट्र, मध्य प्रान्त के साथ-साथ कर्नाटक में गरीब किसानों एवं आदिवासियों द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन की भाँति बहुत व्यापक एवं सशक्त वन आन्दोलनों का संचालन किया गया। कभी-कभी तो एक लाख ग्रामीणों ने एकसाथ शासकीय कानूनों का उल्लंघन किया। परन्तु इस आन्दोलन के दौरान प्रायः गाँधीवादी अहिंसक सिद्धान्तों की अवहेलना की गई और पुलिस एवं वन रक्षकों पर आक्रमण किए गए। इन आन्दोलनों के द्वारा अनेक आदिवासी नेताओं, जैसे कि बैतूल में गोण्डों के गंजन कोर्कू जैसे नेताओं का उदय हुआ। इन आन्दोलनों के दौरान लगान अदा न करने से सम्बन्धित अभियान भी चलाए गए।
बंगाल जैसे कुछ क्षेत्रों में पहले जैसा उत्साह नहीं था, परन्तु छोटानागपुर के आदिवासी क्षेत्रों में यह आन्दोलन बहुत सक्रिय था। हज़ारीबाग में बोंगा माझी और सोमरा माझी ने कांग्रेस के समर्थन से संस्कृतीकरण की प्रवृत्ति के अनुरूप सामाजिक- धार्मिक सुधारवादी आन्दोलनों को भी इन वन आन्दोलनों के साथ सम्बद्ध किया। इसी बीच संथालों ने, गाँधीजी को अपना नेता घोषित करते हुए, शराब बनाना प्रारम्भ कर दिया। बिहार में पलामू के खारवार आदिवासियों ने 1930 के दशक में वनों से इमारती लकड़ी एवं अपने उपभोग के लिए वन उत्पादों को प्राप्त करने के अपने पारंपरिक अधिकारों की वापसी की माँग करते हुए वन सत्याग्रह का संचालन किया। 1930 के दशक में गढ़वाल के आदिवासियों ने जंगलों के ठेकेदारों के विरुद्ध आन्दोलन किए।
यहॉ यह उल्लेखनीय है कि समस्त आदिवासी आन्दोलन राष्ट्रीय आन्दोलन से सम्बन्धित नहीं थे। इनमें से कुछ आन्दोलन, जैसे कि 1925 में अण्डमानियों के आन्दोलन, असम्बद्ध और स्थानीय आन्दोलन थे। कुछ आदिवासी आन्दोलन साम्यवादी (कम्युनिस्ट) आन्दोलन के साथ जुड़े हुए थे, जिनका सबसे अच्छा दृष्टान्त तेलंगाना आन्दोलन है। इस आन्दोलन के दौरान आंध्र प्रदेश के आदिवासियों ने 1946 के बाद ज़मींदारों और उनके द्वारा आरोपित बंधुआ मजदूरी के विरुद्ध संघर्ष किया।
इस चरण के दौरान हुए कुछ आन्दोलनों ने आदिवासियों के लिए प्रथम राजनीतिक स्वायत्तता की माँग की। इस प्रकार 1940 के दशक में गोण्डों ने अपने भूतपूर्व राजा के नेतृत्व में गोण्ड धर्म का अनुसरण करने वाले लोगों को संगठित किया। गोण्डों के मध्य इस अशान्ति का कारण भूमि से सम्बन्धित समस्याएँ थीं। बाद में इसने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के लिए प्रथम गोण्ड राज्य की माँग का रूप धारण कर लिया। 1940 और 1950 के दशक में गोण्डों में राज मोहिनी देवी नामक एक महिला समाज सुधारिका का उदय हुआ, जिन्होंने मदिरा सेवन एवं अन्य सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध प्रचार किया ।
झारखण्ड आन्दोलन -
बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल के 16 जिलों को शामिल करके पृथक् झारखण्ड राज्य की माँग करने वाले झारखण्ड आन्दोलन का इतिहास छः दशक पुराना है। 1920 के दशक में इस आन्दोलन का उस समय उदय हुआ, जब आदिवासियों की समस्याओं के प्रति सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए छोटानागपुर उन्नति समिति की स्थापना की गई। 1937 के प्रथम चुनाव के बाद आदिवासी महासभा की स्थापना के साथ इसका व्यापक राजनीतिक आधार बना। 1938 और 1947 के मध्य झारखण्ड प्रदेश की माँग को लेकर अनेक हिंसक घटनाएँ हुईं। बाद में पूर्वोक्त महासभा को भंग कर दिया गया और 1949 में एक झारखण्ड दल गठित किया गया जिसके आधार पर कालान्तर में झारखण्ड नामक एक नये राज्य का उदय हुआ।
सीमान्त आदिवासियों के आन्दोलन
कुछ अन्य क्षेत्र जहाँ अनेक प्रबल आदिवासी आन्दोलन हुए, उनमें उत्तर-पूर्वी सीमान्त क्षेत्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह क्षेत्र भारत के अन्य आदिवासी क्षेत्रों से दो दृष्टियों से भिन्न था। एक तो यहाँ आदिवासी जनसंख्या बहुसंख्यक थी और इस कारण वे अपेक्षाकृत रूप से सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से कही अधिक सुरक्षित थे। दूसरी ओर, इस क्षेत्र की भौगोलिक-राजनीतिक स्थिति और अंतर्राष्ट्रीय सीमा के निकट होने, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सापेक्षिक रूप से देश की मुख्य धारा से अलग-थलग होने के कारण यह क्षेत्र उपनिवेशवादी राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था के साथ जुड़ नहीं पाया और देश के सांस्कृतिक जीवन से भी कुछ कटा हुआ रहा। इन लक्षणों ने इस क्षेत्र में हुए विभिन्न प्रकार के आदिवासी आन्दोलनों को प्रभावित किया। इन आन्दोलनों का सबसे बड़ा अपवाद यह था कि वे स्वतंत्रता आन्दोलन से पूर्णतः असम्बद्ध थे और इन आन्दोलनों के द्वारा इस क्षेत्र के आदिवासियों ने भारतीय संघ के भीतर या उससे एक अलग इकाई स्वायत्तता की माँग की। इसका एक मुख्य कारण यह भी था कि अनेक आदिवासी जातियाँ अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के पास रहती थीं और उनके सीमान्त के उस पार की जनजातियों के साथ जनजातीय एवं सांस्कृतिक सम्बन्ध थे। इसी प्रकार मध्य प्रान्त के विपरीत, यहाँ कोई कृषि जन्य और वन सम्बन्धी आन्दोलन नहीं हुए, क्योंकि त्रिपुरा को छोड़कर, सीमान्त के आदिवासियों का अपनी जमीन और आसपास के जंगलों पर स्वामित्व था।
कुछ विद्वान इन दोनों क्षेत्रों में हुए आन्दोलनों के बीच एक अन्य अंतर यह भी बताते हैं कि उत्तर-पूर्व के आन्दोलन कुल मिला कर क्रांतिकारी अथवा पुनरुत्थानवादी थे और उनमें ’संस्कृतीकरण’ की प्रवृत्ति नहीं थी जो कि मैदानी क्षेत्रों में होने वाले आन्दोलनों में प्रायः विद्यमान रहती थी। इसका भी अंशतः यही कारण था कि वे हिन्दू समाज से अपेक्षाकृत अलग-थलग थे और उनके आधुनिकीकरण में ईसाई धर्म प्रचारकों का बहुत बड़ा योगदान था। उत्तर-पूर्व के आन्दोलनों की प्रवृत्ति राजनीतिक तथा धर्मनिरपेक्ष थी और इनमें स्पष्ट निरंतरता थी, जबकि छोटानागपुर के आन्दोलन बाद में लम्बे समय तक निष्क्रिय बने रहे अथवा ये आन्दोलन ही पूर्णतः समाप्त हो गए।
इन कारणों की वजह से सीमान्त क्षेत्रों में होने वाले आदिवासी आन्दोलनों के लिए सीमांतेतर आदिवासी आन्दोलनों के वर्गीकरण से भिन्न वर्गीकरण किया गया हैं जो कि इस प्रकार हैं : (क) धार्मिक और सामाजिक सुधारवादी आन्दोलन, (ख) आदिवासी क्षेत्रों के लिए भारतीय संघ के भीतर पृथक् राज्य या अधिक स्वायत्तता के लिए आन्दोलन, (ग) विद्रोह, और (घ) सांस्कृतिक अधिकारों के लिए दावे । (ख), (ग) तथा (घ) के बीच बहुत सीमित विभाजन रेखा है। इस प्रकार के आन्दोलन मुख्यतः 1935 के बाद प्रभावशाली हुए और इनका उल्लेख आज के संदर्भ में किया जाता है, न कि स्वतंत्रता-पूर्व विकसित आन्दोलनों के रूप में।
इसका अर्थ यह नहीं है कि इस क्षेत्र के आन्दोलनों में साम्राज्य विरोधी पुट नहीं था। अंग्रेज पहले लोग थे जिन्होंने कई क्षेत्रों में पहले से स्वतंत्र स्थिति का उपभोग कर रहे आदिवासियों पर प्रादेशिक सत्ता थोपी, जिसके कारण उनकी पारम्परिक व्यवस्था कमजोर हो गई। अधिकांश जनजातियों ने अपने पारंपरिक सरदारों अथवा आदिवासी समाज के अन्य प्रभावशाली व्यक्तियों के नेतृत्व के अन्तर्गत ब्रिटिश शासन के इन प्रहारों के विरुद्ध संघर्ष किया। सीमान्त आदिवासी समूहों के यह आन्दोलन सापेक्षिक रूप से अस्थायी थे, क्योंकि वे एकजुट और संगठित नहीं थे।
खासी विद्रोह-
बर्मी युद्ध के परिणामस्वरूप ब्रह्मपुत्र घाटी पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया और उन्होंने एक सड़क द्वारा इस क्षेत्र को सिलहट से जोड़ने की योजना बनाई और यह सड़क नूरे खासी क्षेत्र में से निकल कर जानी थी। सड़क निर्माण के लिए मजदूरों की जबरदस्ती भर्ती किए जाने के कारण खासियों ने अपने खासी सरदार तिरुत सिंह के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। उनके साथ गारो जनजाति के लोग भी शामिल हो गए। खासियों के साथ चार वर्ष तक लम्बा और कष्टप्रद युद्ध चलता रहा और अंततः 1833 के प्रारम्भ में इस आन्दोलन को दबा दिया गया।
सिंगफास विद्रोह -
जब अंग्रेजों का खासियों के साथ कष्टप्रद युद्ध चल रहा था, तभी सिंगफास जनजाति ने 1830 के शुरू में खुलेआम विद्रोह कर दिया जिसे तीन मास बाद दबा दिया गया। किन्तु सिंगफास लोग असंतोष में सुलगते रहे और 1839 में उन्होंने पुनः विद्रोह कर दिया, जब उन्होंने अंग्रेजी राजनीतिक एजेंट की हत्या कर दी।
छोटे आदिवासी आन्दोलन -
1835 में सफलास जनजाति के लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्य के मैदानी प्रदेशों पर आक्रमण कर दिए। अंग्रेजों ने इसका बदला लेने के लिए प्रतिहिंसा का सहारा लिया। 1836 में मिशीमियों ने एक वनस्पतिशास्त्री ग्रिफिथ को संदेहास्पद व्यक्ति समझ कर उसकी हत्या कर दी। 1839 और 1842 के बीच असम में एक खम्पाती जनजातीय विद्रोह हुआ, जिसमें उन्होंने आक्रमण करके एक अंग्रेजी एजेंट एडम व्हाइट और 80 अन्य अधिकारियों तथा सैनिकों की हत्या कर दी। 1842 में लुशाई जनजाति के लोगों ने आराकान और सिलहट के ब्रिटिश प्रदेशों पर आक्रमण किया और अंग्रेजी सेनाओं को परास्त कर दिया। 1843 में सिंगको सरदार नीरंग फिदू ने अंग्रेजी सैनिक टुकड़ी पर हमला किया और सैकड़ों सैनिकों को मार डाला।
1844 में लुशाई विद्रोहियों ने मणिपुर के ग्रामों पर आक्रमण कर दिए। इनके विरुद्ध बदला लेने के लिए ब्रिटिश सेना ने जवाबी कार्यवाही की। लुशाई नेता सुक्ला को गिरफ्तार कर लिया गया और उसे आजन्म कारावास की सजा दी गई। 1849 में खस्मा सिंहको द्वारा असम के ब्रिटिश ग्रामों पर आक्रमण करने के लिए उसे 1855 में बन्दी बना लिया गया। दो ईसाई धर्मप्रचारकों की हत्या का बदला लेने के लिए एडेन के नेतृत्व में मिशामियों के विरुद्ध एक सैनिक अभियान भेजा गया। 1860 में लुशाई सरदार ने ब्रिटिश त्रिपुरा पर आक्रमण कर दिया और 5 186 ब्रिटिश नागरिकों की हत्या कर दी। 1860 और 1862 के बीच जैन्तिया पहाड़ियों में रहने वाले सायन्तेंग जनजाति ने 5 विद्रोह कर दिया। 1861 में आदिवासी किसानों का फूलागुरी विद्रोह हुआ। 1872-73 में सफला जनजाति के विरुद्ध एक ब्रिटिश सैनिक अभियान के द्वारा उनका दमन किया गया। 1882 में काछार के काछा नागाओं ने सम्भूदेन नामक एक नेता के नेतृत्व में अंग्रेजों पर आक्रमण कर दिया। 1904 में मणिपुर की आदिवासी महिलाओं ने अंग्रेजों के विरुद्ध नुपितल या “महिलाओं का युद्ध“ छेड़ दिया। इस युद्ध का कारण यह था कि ब्रिटिश राजनीतिक एजेन्ट बंधुआ मजदूरी के द्वारा सहायक राजनीतिक एजेन्ट के बंगले का पुननिर्माण कराना चाहता था।
इन आन्दोलनों के सम्बन्ध में दो बातें उल्लेखनीय हैं, जो इन्हें मैदानी क्षेत्रों में हुए ब्रिटिश-विरोधी आन्दोलनों से पृथक् करते हैं। पहला पक्ष यह था कि आदिवासी अपने प्रदेशों में अंग्रेजों की घुसपैठ के प्रबल विरोधी थे। सीमान्त क्षेत्रों में यह घुसपैठ मैदानी इलाकों की तुलना में कुछ विलम्ब से हुआ। इस क्षेत्र में अंग्रेजों का पहला प्रवेश आँग्ल-बर्मी युद्ध (1824-26) के दौरान हुआ। 1832 में, उन्होंने 25 खासी राज्यों को मिलाकर, जैन्तिया पर्वतीय प्रदेशों को विजित कर लिया। 1876 में कोहिमा में ब्रिटिश प्रशासकीय केन्द्र की स्थापना की गई और 1881 में नागा पर्वतीय जिले का गठन किया गया। इनमें से प्रत्येक घटना के बाद विद्रोह हुए। सीमान्त प्रदेशों में हुए आदिवासी विद्रोहों का दूसरा पक्ष यह है कि पारंपरिक आदिवासी सरदारों के नेतृत्व में हुए यह विद्रोह, मैदानी आदिवासी क्षेत्रों में हुए विद्रोहों की तुलना में कहीं अधिक लम्बे समय तक चलते रहे। सीमान्त आदिवासी विद्रोहों की शृंखला में सबसे अन्तिम महत्त्वपूर्ण विद्रोह कूकी विद्रोह था, जो 1917 से 1919 तक दो वर्षों तक चलता रह।।
कूकी विद्रोह -
18वीं शताब्दी में कूकी जनजाति का मणिपुर में प्रव्रजन हुआ। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा कुली मजदूरों की भर्ती से श्रमिकों के अभाव से ग्रस्त कुकी अर्थव्यवस्था सामान्य रूप से और कृषि अर्थव्यवस्था विशेष रूप से दुष्प्रभावित हुई। इस असंतोष के कारण कूकी आदिवासियों ने अपने सरदारों के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया, जो दो वर्ष तक चला। कूकी विद्रोह के कुछ अन्य कारण थे - आदिवासियों को पोथांग (आदिवासियों के बिना मजदूरी के अधिकारियों का सामान ढोने) के लिए बाध्य करना और सरकार द्वारा आदिवासियों को झूम कृषि करने से रोकना। ब्रिटिश सरकार द्वारा बहुत लम्बे और कठिन संघर्ष के बाद ही कूकी विद्रोह का दमन किया जा सका।
त्रिपुरा में आदिवासी विद्रोह -
ब्रिटिश शासन की सहायता से आदिवासी सरदारों ने भी सामन्तीय अधिकार प्राप्त कर लिए, जिसके परिणामस्वरूप आदिवासी पर्वतीय समाज में स्तरीकरण का उदय हुआ, जिसके फलस्वरूप आम आदिवासियों की अपने सरदारों से दूरी बढ़ गई। इसका स्पष्ट प्रमाण त्रिपुरा में देखा जा सकता है, जो एकमात्र ऐसा क्षेत्र था जिसमें बड़े पैमाने पर कृषि और वन आधारित आंदोलन हुए। यहाँ आदिवासियों की जनसंख्या 1874 में 64 प्रतिशत से घट कर 1911 में 36 प्रतिशत रह गई क्योंकि त्रिपुरा के राजा ने आर्थिक कारणों से बंगालियों को त्रिपुरा में आकर बसने के लिए आमंत्रित किया। इससे आदिवासियों से जमीनें छिन गई और वनों पर उनका नियंत्रण समाप्त हो गया। इसी के साथ वे समाज के निम्नतर स्तरों पर धकेल दिए गए। इन परिवर्तनों की प्रतिक्रिया-स्वरूप अनेक आदिवासी विद्रोह हुए। 1863 में गृह कर की मनमानी दर के विरुद्ध परीक्षित जमातिया ने एक आन्दोलन का नेतृत्व किया। 1942-43 में त्रिपुरा के दक्षिणी उपमंडल में एक सशस्त्र विद्रोह हुआ जहाँ रत्नमणि के नेतृत्व में रियांग आदिवासियों ने विद्रोह कर दिया और रत्नमणि ने स्वयं को राजा घोषित करके स्वतंत्रता की उद्घोषणा कर दी। आदिवासियों को सबक सिखाने के लिए अंग्रेजों ने त्रिपुरा के महाराजा को पर्याप्त सेनाएँ तैनात करने के लिए बाध्य किया। 1920 के दशक के मध्य में त्रिपुरा में भारती संघ ने क्रांतिकारी गतिविधियाँ प्रारम्भ कर दीं। त्रिपुरा राज्य कांग्रेस गठित होने के साथ ही 1936 में एक उत्तरदायी सरकार बनाने का प्रयत्न किया गया। इसमें शासकों के सामंती विशेषाधिकारों के विरुद्ध जन आक्रोश का प्रदर्शन किया गया। 1937 में, देशी राज्यों में गठित प्रजा मण्डलों के अनुरूप, त्रिपुरा में भी एक गण परिषद का गठन किया गया।
जेलियाँगसांग आन्दोलन -
उत्तर-पूर्वी सीमान्त क्षेत्र का केवलमात्र एक अन्य आदिवासी आन्दोलन जो थोड़ा-बहुत राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ सम्बद्ध था, वह था मणिपुर के नागाओं की ज़ेमी, लियांगमेई और रोंगमेई जनजातियों का जेलियाँगसांग आन्दोलन।
1891 में अंग्रेजों द्वारा मणिपुर की विजय के बाद, पर्वतीय जनजातियों पर अंग्रेज अधिकारियों द्वारा शासन किया जाने लगा, जिसके परिणामस्वरूप उनका शोषण कई गुना अधिक बढ़ गया। इस क्षेत्र के आदिवासियों से गृह कर जैसे नए करों को मनमाने ढंग से वसूल किया जाने लगा, उन्हें बंधुआ मजदूरी और ब्रिटिश अधिकारियों के सरकारी दौरों के दौरान उनके लिए भोजन और नकद भत्ते प्रदान कराने के लिए बाध्य किया जाता था। मणिपुर के आदिवासियों ने प्रारम्भ में इन ज्यादतियों के सम्मुख बिना किसी विरोध के आत्मसमर्पण कर दिया, परन्तु कूकी विद्रोह (1917-19) के दौरान जब ब्रिटिश सरकार कूकियों के आक्रोश से उनकी रक्षा नहीं कर सकी तो मणिपुर की नागा जनजातियों ने विद्रोह कर दिया। मणिपुर के इन आदिवासियों ने उनके पारंपरिक धर्म के विरुद्ध ईसाई धर्म प्रचारकों के धर्म-प्रचार के विरुद्ध भी रोष व्यक्त किया।
रानी गैडिनलियु का नागा आन्दोलन-
सामाजिक एकता लाने और बेतुके रिवाजों को समाप्त करके प्राचीन धर्म को पुनर्जीवित करने के लिए एक युवा रोंगमेई नेता जदोनांग ने एक शक्तिशाली नागा आन्दोलन का गठन किया। यह आंदोलन अपने द्वितीय चरण के दौरान आंतरिक सुधार और एकता आंदोलन से बहिर्मुखी रूप धारण करके, नागा राज की स्थापना के उद्देश्य से अंग्रेजी शासन के विरुद्ध एक राजनीतिक संघर्ष का रूप धारण कर लिया। जदोनांग को गिरफ्तार कर लिया गया और 29 अगस्त, 1931 को उसे फाँसी पर चढ़ा दिया गया।
उसे फाँसी दिए जाने के बाद यह आंदोलन 17 वर्षीया नागा महिला गैडिनलियु द्वारा 1932 तक जीवित रखा गया जब अंततः इस विद्रोह का दमन कर दिया गया। रानी गैडिनलियु ने अपने आदिवासी आन्दोलन को सविनय अवज्ञा आन्दोलन के साथ जोड़ा और अपने अनुयायियों को उत्पीड़नकारी कानूनों की अवज्ञा करने और गृह कर जैसे करों को अदा न करने का आदेश दिया। इस आन्दोलन ने महात्मा गाँधी के नाम का प्रयोग किया। जवाहरलाल नेहरू एवं आज़ाद हिन्द फौज़ ने गैडिनलियु को ’रानी’ की उपाधि देकर सम्मानित किया। परन्तु इस आन्दोलन और राष्ट्रीय आन्दोलन के मध्य सम्पर्क सूत्र बड़े कमजोर थे। इसी कारण स्वतंत्रता से पूर्व कांग्रेस के नेतागण शिलांग नगरपालिका की सीमा के आगे नहीं जा सके। गैडिनलियु ने जदोनांग के धार्मिक विचारों के आधार पर एक पंथ की स्थापना की। इस आन्दोलन के अंततः दमन कर दिए जाने के बाद, इसे आदिवासियों के शान्तिपूर्ण संगठनों जैसे कि काबुई समिति (1934), काबुई नागा एसोशिएशन (1946), ज़ेलियांगांग परिषद (1947) और मणिपुर ज़ेलियांगांग यूनियन के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।
विसंस्कृतिकरण आन्दोलन-
सीमान्त आदिवासी आन्दोलनों का एक विशेष पक्ष विसंस्कृतिकरण के लिए आन्दोलन था। मणिपुर में मेइती जनजाति में एक ‘विसंस्कृति’ आन्दोलन आरंभ हुआ जिनमें से कुछ लोगों ने चूड़चन्द्र महाराजा (1891-1941) के शासनकाल के दौरान नव-वैष्णववादी ब्राह्मणों के भ्रष्ट दुराचारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उन्होंने महसूस किया कि ब्राह्मण, महाराजा और अंग्रेज लोग मिल कर उनके समाज को भ्रष्ट कर रहे हैं और वे अपने स्वदेशीय एवं स्वजात्य सनमाली पंथ में वापस जाना चाहते थे। 1939 में उन्होंने एक आन्दोलन का नेतृत्व किया और 1946 में राजकुमार भुवनसेन द्वारा राज्य कांग्रेस का गठन किया गया। हीजन इबार्ट ने कृषक सेना बनाई और बाद में साम्यवादी दल का गठन किया। कुल मिला कर इस क्षेत्र में कोई संस्कृतिकरण आन्दोलन नहीं हुआ। यहाँ तक कि बोडो कछारियों का ब्रह्म आन्दोलन भी पहाड़ियों से आगे नहीं बढ़ सका। औपनिवेशिक युग में, कुछ विरोधों के बावजूद नागा, मिज़ो, खासी तथा गारो जनजातियों के लोगों ने व्यापक रूप से ईसाई धर्म को अंगीकार किया तथा इस धर्म से सम्बद्ध सुधारों को अपनाया।
स्वायत्तता की तलाश -
इस क्षेत्र के आदिवासी आन्दोलनों की दूसरी विशेषता स्वायत्तता की तलाश थी। ब्रिटिश शासनकाल में प्रशासकीय एकीकरण ने आदिवासियों को अपनी पहचान प्रदान करने में सहायता की परन्तु अनियंत्रित प्रशासन की सम्पूर्ण व्यवस्था, जो 1830 के बाद किसी न किसी रूप में उत्तर-पूर्वी पर्वतीय प्रदेश में लागू की गई थी, ने आदिवासियों को राष्ट्र की मुख्यधारा से पृथक रहने की भावना को जाग्रत किया। 1937 तक उत्तर-पूर्वी पर्वतीय प्रदेश को पिछड़े हुए प्रदेश के रूप में मुख्य आयुक्त (चीफ कमिश्नर) के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत रखा गया था। आदिवासियों के इस अलगाववाद ने राजनीतिक आन्दोलनों को जन्म दिया। 1920 के दशक के बाद से इन आन्दोलनों का लक्ष्य स्वायत्तता से लेकर स्वतंत्र शासन की स्थापना तक था। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इन आदिवासियों ने संवैधानिक आन्दोलनों से लेकर सशस्त्र विद्रोह तक का सहारा लिया। सशस्त्र विद्रोह की प्रवृत्ति स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अधिक देखने को मिलती है।
1935-1947 के मध्य आदिवासी आन्दोलन-
आदिवासियों की स्पष्टतः अलग पहचान विकसित करने में निम्नलिखित कारणों ने विशेष रूप से योगदान दियाः (क) 1935 का भारत सरकार अधिनियम, (ख) आधुनिक शिक्षा का विस्तार, और (ग) पर्वतीय और मैदानी आदिवासियों के बीच एक छोटे और शिक्षित मध्यम वर्ग का धीरे-धीरे उदय।
इस प्रक्रिया के अन्तर्गत भारत सरकार अधिनियम 1935 का दोहरा महत्त्व था। प्रथमतः, इस अधिनियम के द्वारा अप्रैल 1937 से इस प्रदेश की प्रशासकीय व्यवस्था को दो भागों में बाँटा गया। मिज़ो नागा एवं उत्तरी काछार पर्वतीय प्रदेशों एवं उत्तर-पूर्वी सीमान्त क्षेत्रों को ’अपवर्जित क्षेत्र’ घोषित किया गया अर्थात वे सामान्य प्रशासकीय अधिकार क्षेत्र के बाहर थे। गारो पर्वतीय प्रदेश, खासी जैन्तिया पर्वतीय क्षेत्र के ब्रिटिश प्रदेश और मिकिर पर्वतीय क्षेत्र ’आंशिक अपवर्जित क्षेत्र’ थे। ’अपवर्जित क्षेत्रों’ की एक ’आभ्यंतर पंक्ति’ के द्वारा रक्षा की जाती थी, जिसमें बिना अनुमति-पत्र के बाहरी लोग प्रवेश नहीं कर सकते थे। इनके अतिरिक्त उत्तर-पूर्वी सीमान्त में ब्रिटिश सत्ता का एक ’सांध्य-प्रकाश क्षेत्र’ अर्थात् दो देशी रियासतों (मणिपुर और त्रिपुरा) और “नागा अप्रशासित आदिमजातीय क्षेत्र” थे। मणिपुर और त्रिपुरा के साथ असम सरकार की एजेंसी के माध्यम से सम्बन्धों का निर्वाह किया जाता था। इस प्रकार के प्रशासकीय विभाजन ने पर्वतीय आदिवासी जिलों को एक विशेष पहचान दी, जो परवर्ती राजनीतिक घटनाओं के लिए बहुत निर्णायक सिद्ध हुई। द्वितीयतः, 1935 के अधिनियम ने आदिवासियों में नए गठबन्धनों के विकास की शुरुआत की। इसी काल में पर्वतीय और मैदानी प्रमुख आदिवासियों, जैसे कि नागा, खासी, बोडो, मीरी, कचेरी और सेवेरी जनजातियों ने अपने विभिन्न संगठनों जैसे कि नागा क्लब, सेंग खासी क्लब ( 1911 में स्थापित ), खासी दरबार, ट्राइबल लीग और अहोम लीग की स्थापना की गई। इन संगठनों के अनेक नेता, जैसे कि रूपनाथ ब्रह्मा, कारो चन्द बोले और जादव चन्द्र खाकलरी विधान सभा के सदस्य थे ।
आदिवासी संगठनों के विकास का दूसरा चरण 1945 से 1947 तक का काल था। इनकी, द्वितीय विश्व युद्ध के दुष्प्रभावों, ब्रिटिश प्रशासनिक नीति, विकासमान राष्ट्रीय आन्दोलन, भारत द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति की निश्चित संभावना, 1946-47 से साम्प्रदायिक दंगे, कैबिनट मिशन प्रस्ताव, जातीय पहचान की बढ़ती हुई भावना और इसे खोने के भय की पृष्ठभूमि में इन आदिवासी संगठनों की स्थापना हुई। इन सभी समन्वित कारणों से गारो पर्वतीय, खासी एवं जैन्तिया पर्वतीय, लुशाई एवं नागा पर्वतीय क्षेत्रों में जातीय राजनीतिक आन्दोलन हुए।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ये पर्वतीय आदिवासी क्षेत्र युद्ध के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गए और विश्व में होने वाली घटनाओं के कारण उनका अलगाव भी अब अछूता नहीं रह गया था। बहुत से आदिवासियों को यह डर था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद और आदिवासी शासकों द्वारा उनके चिररक्षित प्राचीन कानूनों, रिवाज़ों और ग्रामीण संस्थाएँ नष्ट कर दी जाएँगी। नई आशाओं और भय के साए में, 1945 में, नागा पहाड़ी ज़िले के डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स द्वारा नागा हिल डिस्ट्रिक्ट ट्राइबल कॉउंसिल (नांगा पर्वतीय जिला आदिवासी परिषद) गठित की गई। आंशिक रूप से यह युद्ध पश्चात् पुनर्निर्माण का काम देखने के लिए गठित की गई थी। अप्रैल 1946 में वोखा में इस संस्था का नाम बदल कर नागा नेशनलिस्ट कॉउंसिल कर दिया गया और इस विचार ने जातिगत राष्ट्रवादी भावना को जन्म दिया। 1946 के पूर्वार्ध में दो प्रमुख संस्थाएँ गठित की गईं - गारो नेशनलिस्ट कॉउंसिल (फरवरी 1946) और मिजो यूनियन।
स्वतंत्रता मिलने के समय सीमान्त जनजातियों में दो प्रमुख राजनीतिक प्रवृत्तियाँ थीं। पहली प्रवृति भारतीय संघ में रहकर अधिक आदिवासी स्वायत्तता प्राप्ति पर जोर देने के पक्ष में थी। यह प्रवृत्ति मिज़ो यूनियन, गारो नेशनल कॉउंसिल, ईस्ट इण्डियन ट्राइबल यूनियन और ऑल पार्टी हिल लीडर्स कानफ्रेंस की राजनीति में स्पष्ट दिखाई देती थी। दूसरी प्रवृत्ति आदिवासी क्षेत्रों के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता की ओर थी। इस प्रवृत्ति के समर्थक नागा नेशनलिस्ट कॉउंसिल, युनाइटेट मिज़ो फ्रीडम आर्गेनाइजेशन और मिज़ो नेशनल फ्रंट थे।