window.location = "http://www.yoururl.com"; Mahmood Ghaznavi (महमूद गज़नवी)

Mahmood Ghaznavi (महमूद गज़नवी)


विषय-प्रवेश (Introduction )

इस्लाम धर्म के अनुयायियों में से भारत में सर्वप्रथम प्रवेश करने वाले अरब थे जिन्होने सिन्ध पर अधिकार करने में सफलता पाई परन्तु वे भारत में एक स्थायी राज्य कायम करने में असफल रहे। दो सौ वर्षो से भी कम समय में अरबों का धार्मिक उत्साह और शक्ति निष्प्राण हो गयी तथा खलीफाओं की विलासिता और दुर्बलताओं ने इस्लाम के नेतृत्व को अरबों के हाथों से खो दिया। इस नेतृत्व को पहले ईरानियों ने अपने हाथों में लिया और पत्पश्चात इस्लाम का नेतृत्व तुर्को के हाथों में आया। भारत में इस्लामी राज्य को स्थापित करने का श्रेय तुर्को को जाता है जिन्होने अपने तलवार के दम पर यह सत्ता हस्तगत की। तुर्क अत्यन्त भौतिकवादी और पूर्ण व्यवहारिक होने के साथ-साथ इस्लाम के नवीन अनुयायी थे। वे अरबों और इरानियों की तुलना में अधिक धर्मान्ध थे। एक सदी से भी कम समय में वे क्रूर और खानाबदोश घुडसवारों से बदलकर एक ऐसी सुसंगठित और सुसभ्य जाति के बन गये जिसने इस्लामी सभ्यता के श्रेष्ठ गुणों की रक्षा करने में उस समय में भी सफलता पाई। 8वीं शताब्दी में तुर्को ने मध्य-एशिया से हटना प्रारम्भ किया और एक के बाद एक सल्जूक, खिताई, गिज, इल्बरी आदि विभिन्न तुर्क जातियॉ इस्लामी प्रदेशों में प्रवेश करती चली गयीं जहॉ उन्होने अपने-अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित किये। आनेवाली नवीन जातियों का दबाव और उनकी स्वयं की महत्वाकांक्षाएॅ निरन्तर उन्हे आगे बढने के लिए बाध्य करती रही और धीरे-धीरे इराक, इरान, अफगानिस्तान और अन्त में उन्होने भारत में भी प्रवेश किया और अपने स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। 10वीं शताब्दी से तुर्क काबुल के हिन्दूशाही राज्य के सम्पर्क में आए और गजबवी वंश की स्थापना के लगभग 50 वर्ष के अन्दर उन्होने भारत में प्रवेश किया। भारत पर आक्रमण करने वाला पहला तुर्क आक्रमणकारी सुबुक्तगीन था। भारत भूमि के अन्दर तक प्रवेश पाने का प्रथम श्रेय गजनबी वंश के सुल्तान महमूद गजनवी को गया यद्यपि भारत में राज्य स्थापित करने का श्रेय गोर राज्य के शासक मुहम्मद गोरी को प्राप्त हुआ।

महमूद गजनवी –

गजनवी वंश जिसे सामान्यतया यमीनी वंश भी कहा जाता है, ईरान के शासकों की एक शाखा थी। अरब आक्रमणों के समय इस वंश के शासक तुर्किस्तान भाग गये जहॉ वे तुर्को के साथ इस कदर घुल-मिल गये कि उनके वंशज तुर्क कहलाए। अलप्तगीन नाम के एक व्यक्ति ने इस वंश का एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया और शीध्र ही 963 ई0 में गजनी पर अधिकार कर लिया। अलप्तगीन ने ही गजनी को अपने राज्य की राजधानी बनाया। उस समय भारत के उत्तर पश्चिम में हिन्दूशाही राज्य था जिसकी सीमाएॅ हिन्दूकुश पर्वतमाला तक फेली हुई थी और जिसने पुनः काबुल को तुर्को से छीन लिया था। यही कारण है कि गजनी और हिन्दूशाही राज्य की सीमाएॅ एक दूसरे से टकराने लगी थी और अलप्तगीन के समय से ही इन राज्यों में छिट-पुट युद्ध प्रारम्भ हो गये। 977 ई0 में सुबुक्तगीन ने गजनी की राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। सुबुक्तगीन अलप्तगीन का गुलाम रहा था लेकिन बाद में वह उसका दामाद बना।
सुबुक्तगीन एक योग्य और साहसी शासक था और धीरे-धीरे उसने बस्त, दवार, कुसदार, तुर्किस्तान, बाभियान, गोर आदि राज्यों पर आधिपत्य स्थापित कर लिया। उसने हिन्दूशाही राज्यों की सीमाओं पर आक्रमण करके निकट के कई किलों और नगरों को जीत लिया। इतिहासकार उतबी ने सुबुक्तगीन के इन आक्रमणों के जिहाद अर्थात धर्म की रक्षा के लिए युद्ध बताया है। परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इन पडोसी राज्यों से संघर्षो का कारण राजनीतिक भी रहा हो। हिन्दूशाही राज्यों के साथ प्रारंभ हुआ यह संघर्ष लम्बे समय तक चलता रहा और अन्त में हिन्दूशाही राज्य का अन्त हुआ। 986 – 987 ई0 में हिन्दूशाही राजा जयपाल ने गजनी पर आक्रमण किया और यह युद्ध कई दिनों तक चलता रहा। बाद में एक भीषण तुफान के कारण जयपाल की सेना छिन्न भिन्न हो गयी और जयपाल को सन्धि करके वापस लौटना पडा। लेकिन लाहौर पहुचते ही जयपाल ने सन्धि की शर्तो को मानने से इनकार कर दिया। इस कारण सुबुक्तगीन ने उसकी सीमाओं पर आक्रमण किया और लमगान तक अपना अधिकार कर लिया। सुबुक्तगीन का सामना करने के लिए जयपाल ने एक बडी सेना एकत्रित की और लमगान के निकट इन दोनों के मध्य युद्ध हुआ जिसमें जयपाल की पराजय हुई और लमगान और पेशावर के बीच की समस्त भूमि पर सुबुक्तगीन ने अधिकार कर लिया। इतिहासकार फरिश्ता के कथन से यह स्पष्ट होता है कि भारत के हिन्दू राजा इस्लाम के बढते हुए खतरे से सर्वथा उदासीन और अनभिज्ञ नही थे जैसा कि सामान्यतया उनपर आरोप लगाया जाता है। तमाम हिन्दू राजाओं ने जयपाल की सहायता के लिए अपनी सैनिक टुकडियॉ भेजी थी। 997 ई0 में सुबुक्तगीन की मृत्यु के पश्चात् 998 ई0 में उसके बडे पुत्र महमूद ने अपने पिता के राज्य पर अधिकार कर लिया। कालान्तर में यही महमूद, महमूद गजनबी के नाम से बिख्यात हुआ जिसने भारत पर निरन्तर आक्रमण किये और तुर्को के भारत विजय के लिए मार्ग प्रशस्त किया। भारत की धन-संपत्ति से आकर्षित होकर, गजनवी ने भारत पर एक या दो बार नहीं बल्कि 17 बार आक्रमण किए थे। उसके इस 17 आक्रमणों में उसने कई साम्राज्यों को नस्तेनाबुद कर दिया था। महमूद इतना विध्वंसकारी शासक था कि लोग उसे मूर्तिभंजक कहने लगे थे।
इतिहासकारों ने मुस्लिम इतिहास में महमूद गजनबी को प्रथम सुल्तान माना है यद्यपि उसके सिक्कों पर ‘‘अमीर महमूद‘‘ अंकित किया गया था। लेकिन यह मानना पडेगा कि महमूद गजनबी अपनी विजयों के कारण सुल्तान के पद के योग्य था। आरम्भ में महमूद गजनबी ने अपनी शक्ति को हिरात, बस्त और बल्ख में दृढ किया और खुरासान को विजित किया। बगदाद के खलीफा से उसने 999 ई0 में इन प्रदेशों पर अपने अधिकार की स्वीकृति पत्र भी प्राप्त कर लिया। इसी अवसर पर ऐसा कहा जाता है कि उसने भारत पर प्रत्येक वर्ष आक्रमण करने की शपथ ली थी।

महमूद गजनबी के आक्रमण के समय भारत की दशा-

महमूद गजनबी के आक्रमण के समय भारत राजनीतिक दृष्टि से विभिन्न राज्यों में विभक्त था। उनमें से कुछ राज्य शक्तिशाली थे परन्तु उनकी पारस्परिक प्रतिस्पर्द्धा उनकी मुख्य दुर्बलता थी जिसके कारण वे बाह्य आक्रमणकारियों से मिलकर मुकाबला नही कर सके। महमूद गजनबी के आक्रमण का पहला दृढतापूर्वक मुकाबला जयपाल ने ही किया यद्यपि वह इसमें सफल न हो सका। उस समय काश्मीर में भी बाह्मण वंश का राज्य था जहॉ कि शासिका रानी दिद्दा थी और उनके हिन्दूशाही राजवंश से पारिवारिक सम्बन्ध थे। कन्नौज में प्रतिहार राजवंश का शासन था। वत्सराज और नागभट्ट के समय में यह राज्य पर्याप्त शक्तिशाली था परन्तु दक्षिण के राष्ट्रकुटों तथा उत्तर के पडोसी राज्यों के साथ उनका निरन्तर संघर्ष रहा जिसके कारण 11वीं शताब्दी के आरम्भ तक यह राज्य शक्तिहीन हो गया। उसके सामन्त बुन्देलखण्ड के चन्देल, मालवा के परमार, गुजरात के चालुक्य उसके आधिपत्य से मुक्त हो गये। इस वंश का अन्तिम राजा राज्यपाल था जिसके समय में इस राज्य पर महमूद गजनबी का आक्रमण हुआ। बंगाल में पाल वंश के शासक महीपाल का शासन था जो सैनिक दृष्टि से अत्यन्त कमजोर शासक था। राजेन्द्र चोल के आक्रमण ने बंगाल को पूरी तरह क्षत-विक्षत कर दिया था। गुजरात, मालवा और बुन्देलखण्ड में भी स्वतन्त्र राज्य थे। दक्षिण भारत में परवर्ती चालुक्य और चोल वंश के शक्तिशाली राज्य थे और इनमें से प्रत्येक राजवंश शक्तिशाली था परन्तु वे आपस में ही संघर्षरत थे और उत्तर भारत की राजनीति में उनकी कोई विशेष रूचि नहीं थी। जिस समय महमूद गजनबी उत्तर भारत के राज्यों को रौंद रहा था उस समय भी वे अपने ही संघर्षो में व्यस्त थे। भारत के ये सभी राज्य राजपूत वंशों के राज्य थे जिन्हे अपने प्राणों का कोई मोह नही था और न उनमें साहस और शौर्य की कोई कमी थी परन्तु उनमें दूरदर्शिता, परिस्थितीयों को समझने और उसके अनुकूल खडे होने का सर्वथा अभाव रहा जिसके कारण वे बार-बार महमूद गजनबी से पराजित होते रहे और अपने देश की सुरक्षा करने में असमर्थ रहे।
महमूद गजनबी के आक्रमण के समय भारत में उपजातियों का विभाजन, स्त्रियों की दयनीय दशा, अनैतिक आचार-विचार आदि इस बात के प्रमाण है कि सामाजिक दृष्टि से भी भारत दुर्बल था। चार वर्णो के अतिरिक्त समाज का एक बहुत बडा भाग ऐसा था जिसे ‘अन्त्यज‘ कहा जाता था जिनका समाज के किसी भी वर्ग में स्थान प्राप्त नही था। अलबरूनी के अनुसार यह दो वर्गो में विभाजित थे- 1. उच्च वर्ग, जिन्हे भाग्यशाली माना जाता था तथा 2. निम्न वर्ग, जिन्हे कोई विशेष स्थान प्राप्त नही था। इनमें भी निम्न स्तर डोम, चमार, चाण्डाल आदि वर्गो का था जो सफाई तथा स्वच्छता के कार्यो में लगे हुए थे परन्तु उन्हे नगरों तथा गॉवों से बाहर रहना पडता था। वैश्य और शूद्रों को वेद और धार्मिक शास्त्रों को पढने का अधिकार नही था। एक प्रकार से जाति प्रथा के कारण भारत का समाज ऊूंच-नीच की भावना से विषाक्त था और प्रत्येक वर्ग दूसरे वर्ग के प्रति घृणा की भावना से भरा था। जाति परिवर्तन और अन्तर्जातीय विवाह और खान-पान सम्भव नही थे। स्त्रियॉ पुरूषों के लिए मात्र एक भोग की बस्तु बनती जा रही थी। उच्च वर्णो में बहु-विवाह, बाल-विवाह और सती प्रथा प्रचलित हो चली थी और विधवाओं का पुनः विवाह सम्भव नही था।
महमूद के आक्रमण के समय भारत की धार्मिक दशा भी अत्यन्त दयनीय थी। हिन्दू और बौद्ध दोनों धर्मो में अनाचार तेजी से फेल रहा था और धर्म की मूल भावना लुप्त होती जा रही थी। अन्धविश्वास, आडम्बर और कर्मकाण्ड तेजी से भारतीय जनमानस में फैल रहा था। सुरापान, मॉस का प्रयोग और व्यभिचार वाममार्गी अनुयायियों की क्रियाओं में सम्मिलित होते जा रहे थे जिसका प्रभाव समाज के अन्य वर्गो पर भी पड रहा था। बौद्ध-विहार, मठ, हिन्दू मन्दिर आदि अनाचार और भोग-विलास के अड्डे बन गये थे। मन्दिरों में देवदासियों अर्थात अविवाहित लडकियॉं जो देवताओं की पूजा के लिए रखी जाती थी, की प्रथा भ्रष्टाचार का एक मुख्य कारण बन गयी थी। कुछ ऐसी ही स्थिती बौद्ध-विहारों और मठों की थी। शिक्षण संस्थाएॅ भी इस भ्रष्टाचार और अनैतिक आचरणों से मुक्त नही रह गयी थी। एक प्रकार से यह अनैतिकता देश की दुर्बलता के लिए पर्याप्त था। धर्म जो सत्कर्म, त्याग, देश-प्रेम और मनोबल की वृद्धि में सहायक हो सकता था, उस समय अनाचार, आलस्य और भोग-विलास का कारण बना हुआ था। समाज और धर्म की यह स्थिती भारत की सांस्कृतिक विलासिता का भी कारण बन गयी। कला और साहित्य दोनो ही उस समय की दशा के अनुकूल बन गये। स्थापत्यकला, चित्रकला आदि में भी लालित्य और भोग-विलास की प्रवृति का आभास होता है। साहित्य में ‘‘कुटिनी-मतम‘‘ और ‘‘समय-मत्रक‘‘ (वेश्या की आत्मकथा) उस समय के साहित्य की प्रतीक मात्र थी।
महमूद गजनबी के आक्रमण के समय सैनिक दृष्टि से भी भारत अत्यन्त निर्बल था। भारत ने अपने शस्त्रों और युद्ध शैली में सुधार करने का कोई प्रयत्न नही किया था। भारतीय उस समय भी हाथियों पर ही निर्भर करते थे और तलवार, भाला, कटार उनके मुख्य हथियार थे। उनकी युद्ध शैली रक्षात्मक अधिक और आक्रामक कम थी। उत्तर-पश्चिमी सीमा पर भारतीयों ने न तो किले बनवाये थे और न किसी अन्य रक्षा पंक्ति का निर्माण किया था जबकि यह स्पष्ट था कि आक्रमण उसी दिशा से होगा। भारतीय सैनिक मरना तो जानते थे परन्तु परिस्थितियों के अनुरूप रणनीति बनाने और शत्रुओं को पराजित करने के लिए छल-कपट का सहारा लेने के लिए वे कदापि तैयार नही थे। स्पष्ट है सैनिक दृष्टि से भी भारत दुर्बल था।
महमूद गजनबी के आक्रमण के समय जहॉ तक भारत की आर्थिक दशा का प्रश्न है, भारत आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न था। अपने विशाल और विस्तृत उपजाऊॅ भूमि और खनिज पदार्थ से परिपूर्ण भारत की आर्थिक सम्पन्नता का प्रमुख कारण था। भारत का आन्तरिक और वैदेशिक व्यापार भी समुन्नत था। परन्तु आर्थिक सम्पन्नता के साथ-साथ भारत में गंभीर आर्थिक असमानता भी थी। देश की सम्पति कुछ विशेष वर्गो के हाथों में संचित हो गयी थी। राज्य परिवार और धनिक व्यापारी वर्ग के अतिरिक्त मन्दिर में घन-सम्पदा के केन्द्र बिन्दु थे। विदेशी आक्रमणकारियों के लिए कुछ विशेष स्थानों पर संचित यह धन लालच का कारण बना और भारत की राजनीतिक और सैनिक दुर्बलता उनके लिए एक प्रेरणा थी। भारत की यह धन सम्पदा एक दुर्बल व्यक्ति की सम्पत्ति के समान थी जिसको हथियाने के लिए कोई भी शक्तिशाली व्यक्ति लालच कर सकता था। कालान्तर में महमूद गजनबी ने ऐसा ही किया।
इस प्रकार उपरोक्त परिस्थितीयों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक, सामाजिक, नैतिक और सैनिक दृष्टि से भारत दुर्बल था। उसकी इस दुर्बलता का एक मुख्य कारण यह भी था कि भारत और यहॉ के लोगों ने विदेशियों से कुछ सीखने का प्रयत्न ही नही किया और न ही उन्होने अपने देश की सीमावर्ती प्रदेशों के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और सैनिक परिवर्तनों की ओर ध्यान दिया। इस कारण उनमें अज्ञानता और दम्भ दोनो ही भावनाओं की उत्पत्ति हुई और वे अपनी उन्नति के प्रति असावधान हो गये। इस सन्दर्भ में अलबरूनी, जो महमूद गजनबी के साथ भारत आया था, का विवरण हमारी ऑखें खोलने वाला है। अलबरूनी ने भारतीय दर्शन और संस्कृत भाषा का गहन अध्ययन किया और वह यहॉ के दर्शन और बहुत सी बातों से काफी प्रभावित था परन्तु उसने लिखा कि- ‘‘हिन्दूओं का यह विचार है कि हमारे जैसा देश, राष्ट्र, धर्म, राजा और विज्ञान संसार में कहीं है ही नही।………हिन्दू यह नही चाहते कि जो वस्तु एक बार अपवित्र हो जाए, उसे शुद्ध करके पुनः अपना बना लिया जाय।‘‘ इस प्रकार अलबरूनी की दृष्टि में हिन्दूओं के संकीर्ण विचारों ने अपनी प्रगति के मार्ग को स्वयं अवरूद्ध कर लिया था।

महमूद गजनबी के आक्रमण के कारण-

महमूद गजनबी के भारत पर आक्रमण के कारणों पर विचार करते हुए अनेक इतिहासकारों ने भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किया है। फिर भी इतना कहा जा सकता है कि महमूद गजनबी का मुख्य उद्देश्य धन की प्राप्ति था। भारत में उसका कोई राजनीतिक स्वार्थ नही था। इस देश को जीतने या यहॉ साम्राज्य विस्तार करने का कोई लक्ष्य महमूद ने अपने लिए निर्धारित नही किया था। एक अन्जान देश में अजनबी लोगों के बीच शासन करने में महमूद गजनबी को कोइ्र्र अभिरूचि नही थी। वह ईरान और मध्य एशिया को जीतने के लिए अधिक उत्सुक था जो भाषा, धर्म और संस्कृति के दृष्टिकोण से गजनी के समान था। इस क्षेत्र में बिखरे छोटे-बडे राज्यों को जीतना महमूद का लक्ष्य था परन्तु इसके लिए सैनिक साधन जुटाने अनिवार्य थे और इसके लिए धन की आवश्यकता थी। महमूद गजनबी ने भारत से यही धन जुटाने के प्रयत्न किये क्योंकि उत्तर भारत के राज्य अत्यन्न सम्पन्न और समृद्ध थे। आरम्भ में महमूद गजनबी के भारतीय अभियानों का क्षेत्र सीमित रहा और उसका संघर्ष सीमावर्ती हिन्दूशाही राज्य के साथ होता रहा। इन युद्धों से धीरे-धीरे महमूद को भारतीय शासकों की आर्थिक सम्पन्नता और सैनिक दुर्बलता दोनों का ही आभास हुआ। धीरे-धीरे उसका आत्मविश्वास बढता गया और उसने अधिक विस्तृत क्षेत्रों मं अभियान किया और बेशुमार धन लूटा। इसी लूटे हुए धन से उसने अपने सैनिक संगठन को सुदृढ किया और मध्य एशिया तथा ईरान में साम्राज्य निर्माण की प्रक्रिया को सफल तरीके से सम्पन्न किया। महमूद गजनबी के आक्रमणों पर यदि ध्यान से नजर डाली जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वह भारतीय अभियानों के बाद ही मध्य एशिया के युद्ध लडता था और भारत से प्राप्त धन का उपयोग इन अभियानों में करता था।
महमूद गजनबी के आक्रमण के धार्मिक कारण आज भी इतिहासकारों के बीच एक विवाद का विषय बना हुआ है। धर्मान्ध मुसलमानों ने महमूद को धर्म-योद्धा माना है जबकि धर्मान्ध हिन्दुओं ने उसे मन्दिरों का विनाशक और हिन्दू धर्म का संहारक माना है। परन्तु मोहम्मद हबीब ने महमूद के आक्रमणों के वास्तविक कारणों को निष्पक्ष और तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार महमूद गजनबी ने गजनी के सिंहासन पर उत्तराधिकार युद्ध के पश्चात् प्राप्त किया था। अतः वह अपनी स्थिती सुदृढ करने के लिए खलीफा से सुल्तान के रूप में मान्यता प्राप्त करना चाहता था। इसके लिए उसने खलीफा के समक्ष पत्र लिख कर हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने और इस्लाम को सुदृढ करने की प्रतिज्ञा ली थी। इसके अतिरिक्त मध्य एशिया में साम्राज्य स्थापना के लिए वहॉ के मुसलमानों के बीच अपनी लोकप्रियता में वृद्धि अनिवार्य थी। इसलिए धर्मान्ध मुसलमानों का सहयोग प्राप्त करने और उनके बीच अपनी लोकप्रियता में वृद्धि करने के लिए महमूद ने अपने भारतीय अभियानों को धार्मिक औचित्य प्रदान करना चाहा। प्रोफेसर हबीब के अनुसार महमूद के आक्रमणों को धर्म-युद्ध कहना भूल होगी। इन अभियानो ंके पीछे केवल धन प्राप्ति का लक्ष्य था। महमूद द्वारा मन्दिरों को लूटा गया, मूर्तियों को तोडा गया तो केवल इसलिए कि ये मन्दिर धन से भरे थे। देवताओं को प्रस्तुत चढावे के रूप में सोना-चॉदी और बहुमूल्य रत्नों का खजाना इन मंदिरों में एकत्रित था और इनकी प्राप्ति महमूद के लिए आवश्यक थी क्योंकि इसके बिना वह साम्राज्य निर्माण का लक्ष्य प्राप्त ही नही कर सकता था। मोहम्मद हबीब ने यह सही लिखा है कि इस्लामी कानून में कोई सिद्धान्त नही है जो महमूद के द्वारा विनाश और विध्वंस के कार्य को उचित ठहराये, मगर धर्मान्ध मुसलमानों ने ऐसा ही किया। महमूद गजनबी एक चालाक राजनीतिज्ञ था और उसने समकालीन धर्मान्धता का पूरा लाभ उठाया। यहॉ यह उल्लेखनीय है कि महमूद द्वारा मन्दिरों का विनाश केवल युद्ध के काल में हुआ और शान्ति की परिस्थितीयों में उसने मन्दिरों को क्षति नही पहुॅचाई।
सैनिक दृष्टिकोण से महमूद गजनबी ने भारत से सैनिक साधन प्राप्त करने की कोशिश की थी यद्यपि महमूद का यह प्रत्यक्ष उद्देश्य नही था। भारतीय अभियानों में महमूद ने युद्ध के लिए हाथियों के प्रयोग का अनुभव प्राप्त किया था और उसने अपने अभियानों में भारत से युद्ध के लिए हाथी भी प्राप्त किये जिनसे उसने मध्य एशिया में प्रतिद्वन्दियों पर सैनिक अग्रता प्राप्त कर ली। महमूद ने अपनी सेना में भारतीय सैनिक भी भर्ती किये जो उसके और उसके वंशजों के प्रति स्वामीभक्त बने रहे।
पडोस के हिन्दू राज्यों को विनष्ट करना महमूद गजनबी का राजनीतिक उद्देश्य था। गजनी और हिन्दूशाही राज्य के झगडे अलप्तगीन के समय से चले आ रहे थे और तीन बार हिन्दूशाही राज्य गजनी के राज्य पर आक्रमण कर चुका था। अतः ऐसी स्थिती में अपने शत्रु का समाप्त करना महमूद के लिए आवश्यक था। इस कारण महमूद ने स्वयं आक्रमणकारी नीति अपनाई। हिन्दूशाही राज्य को समाप्त करने के पश्चात् उसका साहस बढ गया और उसने भारत में दूर-दूर तक आक्रमण किये।
यश प्राप्ति की लालसा भी महमूद गजनबी के आक्रमणों का एक प्रमुख कारण था। महमूद महत्वाकांक्षी था और सभी श्रेष्ठ शासकों की भॉति वह भी राज्य विस्तार और यश का भूखा था। उसने पश्चिम की ओर अपने राज्य का विस्तार किया था। पूर्व की ओर हिन्दूशाही राज्य को समाप्त करना और निरन्तर युद्धों में विजय प्राप्त करके यश प्राप्त करना भी उसका उद्देश्य था।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि महमूद गजनबी के आक्रमणों का मौलिक कारण धन प्राप्ति का लक्ष्य था। वह भारत की धन-सम्पदा के बारे में जानता था और भारतीय शासकों की कमजोरियों से भी परिचित था। अत5 धन प्राप्ति के लिए उसने अनेक बार भारत पर आक्रमण किये और अपना लक्ष्य सफलतापूर्वक प्राप्त किया।

महमूद गजनबी के प्रमुख आक्रमण-

हेनरी इलियट के अनुसार महमूद गजनबी ने 1000 से 1027 ई0 के मध्य भारत पर कुल 17 बार आक्रमण किया जिसका विवरण निम्न है-

  1. प्रथम आक्रमण (1000 ई0)-
    महमूद गजनवी का प्रथम आक्रमण 1000 ई0 में हिन्दुशाही राज्य के सीमावर्ती नगरों पर हुआ तथा कुछ दुर्गों पर अधिकार करने के बाद वह वापस गजनी लौट गया।
  2. दूसरा आक्रमण (1001 ई0)-
    1001 ई0 में महमूद गजनवी का दूसरा आक्रमण हिन्दुशाही राज्य पर हुआ, इस समय हिन्दूशाही वंश का राजा जयपाल था। महमूद गजनवी व जयपाल के मध्य पेशावर के निकट युद्ध हुआ जिसमें जयपाल पराजित हुआ। महमूद ने हिन्दूशाही राज्य की राजधानी वैहिन्द (उद्भाण्डपुर) पर अधिकार कर लिया और इसे जी भरकर लूटा गया। इस दौरान जयपाल, उसके पुत्र, नाती तथा अनेक सम्बन्धी बन्दी बना लिए गये। बाद में जयपाल और उसके सम्बन्धियों को महमूद ने 25 हाथी और 250000 दीनार लेकर मुक्त कर दिया। इस प्रकार बहुत अधिक धन लेकर महमूद भारत से वापस गया। जयपाल इस पराजय के अपमान को सहन नहीं कर सका और उसने आत्मदाह कर लिया।
  3. तीसरा आक्रमण (1004 ई0)-
    1001 ई0 में महमूद ग़ज़नवी ने उच्छ के शासक वाजिरा को दण्डित करने के लिए आक्रमण किया। महमूद के आक्रमण के कारण वाजिरा सिन्धु नदी के किनारे जंगल में शरण लेने को भागा और अन्त में उसने आत्महत्या कर ली।
  4. चौथा आक्रमण (1005 ई0)-
    1005 ई0 में महमूद ग़ज़नवी ने मुल्तान पर आक्रमण किया। इस समय यहाँ का शासक दाऊद था। इस आक्रमण के दौरान ग़ज़नवी ने भटिण्डा के शासक आनन्दपाल को 1006 ई0 में पराजित किया तथा उसके बाद में दाऊद को पराजित कर उसे अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया। दाऊद ने महमूद को 20000 दिरहम प्रतिवर्ष देने का वादा किया। इसी अभियान के दौरान जयपाल के नाती सुखपाल को महमूद ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। अपनी उत्तरी पश्चिमी सीमा पर तुर्की आक्रमण की सूचना पाकर महमूद दाऊद को मुल्तान और अन्य विजित भारतीय क्षेत्रों को सुखपाल को सौंपकर वापस चला गया।
  5. पाँचवा आक्रमण (1007 ई0)-
    1007 ई0 में महमूद गजनवी ने पांचवा आक्रमण सुखपाल को दण्ड देने के लिए किया था, क्योंकि सुखपाल ने उसकी अधीनता और इस्लाम धर्म दोनों को त्याग दिया था। सुखपाल को पराजित कर उसे बन्दी गृह में डाल दिया गया।
  6. छठा आक्रमण (1008 ई0)-
    1008 ई0 महमूद का छठा आक्रमण आनन्दपाल के विरुद्ध था। आनन्दपाल ने महमूद के आक्रमण के लिए उज्जैन के परमार, ग्वालियर के कच्छवाहा, कालिंचर के जलचरी, कन्नौज के राठौर तथा दिल्ली और अजमेर के चौहान राजाओं का एक संघ बनाया और पंजाब के खोखर लोगों ने भी आनन्दपाल की सहायता की। सिन्धु नदी के किनारे पेशावर के पास एक निर्णायक युद्ध हुआ। 30,000 खोखरों ने ऐसा प्रहार किया कि महमूद गजनवी की सेना विचलित होने लगी। महमूद गजनवी पीछे हटने के लिए सोचने लगा किन्तु दुर्भाग्य से महमूद की सेना द्वारा छोड़ी गयी अलकतरे की अग्निज्वालाओं से भयभीत होकर आनन्दपाल का हाथी मैदान से भाग निकला तथा आनंदपाल की सेना पराजित हुई।
  7. सातवाँ आक्रमण (1009 ई0)-
    1009 ई0 में महमूद गजनवी ने 7 वाँ आक्रमण कांगड़ा के पहाड़ी प्रदेश नागरकोट पर किया । हिन्दुओं ने नागरकोट के किले में बहुत सा धन एकत्र कर रखा था जहाँ महमूद का किसी शासक ने विरोध नहीं किया। फरिश्ता के अनुसार, महमूद 700,000 स्वर्ण दीनार, 700 मन चॉदी के पात्र, 200 मन शुद्ध स्वर्ण मुद्राएंः 2000 मन अपरिष्कृत रजत, तथा 20 मन पन्ने, हीरे, रत्न, मोती आदि बहुमूल्य मणियां लेकर भारत से वापस लौटा।
  8. आठवां आक्रमण (1010 ई0)-
    1010 ई0 में महमूद गजनवी ने मुल्तान पर पुनः आक्रमण (दूसरा आक्रमण) किया वहां के विद्रोही शासक दाऊद को पराजित कर मुल्तान पर अधिकार कर लिया।
  9. नौवां आक्रमण (1011-1012 ई0)-
    महमूद का 9वां आक्रमण थानेश्वर पर था। वहाँ के चक्रस्वामी मंदिर को लूटा, मार्ग में डेरा के शासक ने रोकने का प्रयास किया किन्तु असफल रहा।
  10. दसवां आक्रमण (1012 ई0)-
    हिन्दुशाही राज्य में आनन्दपाल की मृत्यु के बाद इसका पुत्र त्रिलोचन पाल गद्दी पर बैठा। त्रिलोचलन पाल का भी महमूद गजनवी के आक्रमण का सामना करना पड़ा तथा पराजित हुआ।
  11. ग्यारहवाँ आक्रमण (1015 ई0)-
    1015 ई0 में महमूद का यह आक्रमण त्रिलोचनपाल के पुत्र भीमपाल के विरुद्ध था, जो कश्मीर पर शासन कर रहा था। इस युद्ध में भीमपाल पराजित हुआ।
  12. बारहवाँ आक्रमण (1018 ई0)-
    1018 ई0 में महमूद ग़ज़नवी ने कन्नौज पर आक्रमण किया, तथा बुलंदशहर के शासक हरदत्त तथा महाबन के शासक कुलचंद को पराजित किया। आगे बढकर महमूद ने मथुरा पर आक्रमण किया जो दिल्ली के राज्य में था। मथुरा की रक्षा का कोई प्रबन्ध नही किया गया था और महमूद ने वहॉ अपनी इच्छानुसार लूटपाट की। मथुरा हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थल था और वहॉ हजारों मन्दिर थे। उतबी के कथनानुसार मन्दिरों में सोने और चॉदी की हीरे-जवाहरातों से जडी हुई हजारों मूर्तियॉ थी। उनमें से कुछ मूर्तियॉ पॉच-पॉच हाथ ऊॅची थी जिनमें से एक में 50000 मूल्य के दीनार की लाल मणियॉ जडी हुई थी। महमूद गजनबी ने मथुरा का कोना-कोना लूटा और सभी मूर्तियों को तोडकर अपने साथ ले गया। पूरे नगर को बर्बाद कर दिया गया और हजारों बच्चों, स्त्रियों आदि का कत्ल कर दिया गया। मथुरा के निकट स्थित वृंदावन की भी यही दशा हुई। महमूद को इस अभियान से अपार धन मिला। 1019 ई0 में उसने पुनः कन्नौज पर आक्रमण किया यहाँ के शासक राज्यपाल ने बिना युद्ध किए ही आत्मसमर्पण कर दिया। इससे कालिंजर का चंदेल शासक क्रोधित हो गया तथा कन्नौज पर आक्रमण कर उसने राज्यपाल को मार डाला।
  13. तेरहवाँ आक्रमण (1020 ई0)-
    महमूद गजनबी का तेरहवाँ आक्रमण 1020 ई0 में हुआ था। इस अभियान में उसने बारी, बुंदेलखण्ड, किरात तथा लोहकोट आदि को जीत लिया था।
  14. चौदहवाँ आक्रमण (1021 ई0)-
    1021 ई0 में महमूद ने यह आक्रमण कालिंजर के चंदेल शासक को दण्डित करने के लिए किया था। चॅंकि राज्यपाल महमूद से बिना युद्ध किए ही भाग गया था जिसे राजपूत शासकों ने एक कलंक समझा तथा राज्यपाल पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी। कालिंजर के शासक गोण्डा ने विवश होकर सन्धि कर ली।
  15. पन्द्रहवाँ आक्रमण (1021-22 ई0)-
    महमूद पुनः भारत आया तथा पंजाब में प्रवेश किया। इस अभियान में महमूद गजनबी ने लोदोर्ग (जैसलमेर), चिकलोदर (गुजरात), तथा अन्हिलवाड (गुजरात) पर विजय स्थापित की। इस बार उसने पंजाब का प्रशासन अपने हाथ में लिया तथा पंजाब पर अधिकार करने के पश्चात ही महमूद गजनवी ने पंजाब के प्रचलित शाही सिक्कों को ही अपनाया उसके अपने सिक्कों पर “घुड़सवार तथा नंदी चिन्ह” जो पहले से प्रचलित था, को अपनाया और उस पर संस्कृत भाषा में ‘‘आव्यक्तमेकं अवतार महमूद‘‘ खुदवाया। महमूद द्वारा प्रचलित सिक्के दिल्लीवाला के नाम से प्रसिद्ध थे जिसका वजन 56 ग्रेन था।
  16. सोलहवॉं आक्रमण (1025-26 ई0)-
    अपने सोलहवें आक्रमण में गज़नवी ने विशाल सेना लेकर गुजरात के विश्व प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण किया। महमूद गजनवी का यह सबसे प्रसिद्ध अभियान था। यह मंदिर गुजरात में समुद्र तट पर अपनी अपार संपत्ति के लिए प्रसिद्ध था। आकार और सौन्दर्य की दृष्टि से यह शिव मन्दिर अद्वितीय था और वहॉ अत्यधिक धन संचित था। हजारों प्रकार के हीरे-जवाहरातों से शिव लिंग का छत्र बना हुआ था, स्वयं शिव लिंग बीच अधर में बिना किसी सहारे के लटका हुआ था, 200 मन की सोने की जंजीर से उसका एक घण्टा बजाया जाता था। मुल्तान के मार्ग से महमूद ने काठियावाड में प्रवेश किया और मार्ग की समस्त बाधाओं को हटाता हुआ 1025 ई0 मे काठियावाड की राजधानी अन्हिलवाड पहुॅच गया। वहॉ का राजा भीमदेव भाग खडा हुआ और महमूद ने बिना किसी विरोध के उसकी राजधानी को लूटा। इसके पश्चात् महमूद सोमनाथ के मन्दिर के निकट पहुॅचा। पहले दिन का आक्रमण सफल नही हुआ परन्तु दूसरे दिन महमूद मन्दिर की प्राचीर को पार कर गया। युद्ध में 50000 से अधिक व्यक्ति मारे गये और महमूद ने मन्दिर को पूर्णतया नष्ट कर दिया। शिव-लिंग को महमूद ने तोड डाला और इस प्रकार सोमनाथ मन्दिर को पूरी तरह लूट लिया गया और अतुल सम्पति लेकर महमूद गजनबी सिन्ध के रेगिस्तान से होते हुए मुल्तान के रास्ते लुटे हुए खजाने के साथ 1026 ई0 में सुरक्षित गजनी पहुॅचा। सोमनाथ के शिव-लिंग के टूटे हुए टुकडे को गजनी की जामी मस्जिद की सीढीयों में लगा दिया गया।
  17. सत्रहवां और अन्तिम आक्रमण (1027 ई0)-
    जिस समय महमूद गजनबी सोमनाथ को लूटकर वापस जा रहा था, रास्ते में सिन्ध के जाटों ने उसे तंग किया था। परिणामस्वरूप् जाटों व खोखरों को दण्डित देने के लिए महमूद गजनवी ने 1027 ई० में भारत पर अन्तिम आक्रमण किया इस युद्ध में जाटों की पराजय हुई। उनकी सम्पत्ति लूट ली गई और उनकी स्त्रियों और बच्चों को दास बना लिया गया। यह महमूद गजनबी का अंतिम आक्रमण था। 1030 ई० में महमूद गजनवी की मृत्यु हो गयी।

इस प्रकार महमूद गजनबी ने भारत पर विभिन्न आक्रमण किये। उसकी संख्या और समय को लेकर भी मतभेद है फिर भी उपर्यक्त विवरण ही उसकी सफलता, भारत की दुर्बलता और उसके परिणामों पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त है। महमूद गजनबी ने न केवल सदियों से संचित सम्पत्ति को लूटने में सफलता अर्जित की वरन् पंजाब, मुल्तान और अफगानिस्तान के प्रदेशों में गजनबी वंश के राज्य को स्थापित किया।
यहॉं यह उल्लेखनीय है कि महमूद गजनबी के भारत आक्रमण का प्रमुख उद्देश्य धन की प्राप्ति ही था। वह एक मूर्तिभंजक आक्रमणकारी था। महमूद की सेना में सेवंदराय और तिलक जैसे हिन्दू उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति थेमहमूद के भारत आक्रमण के समय उसके साथ प्रसिद्ध इतिहासविद्, गणितज्ञ, भूगोलवेत्ता, दर्शन और खगोलशास्त्र का ज्ञाता अलबरूनी भारत आया। अलबरूनी महमूद गजनबी का दरबारी विद्वान था। कालान्तर में अलबरूनी ने ‘‘किताब-उल-हिन्द‘‘ अथवा ‘‘तारीख-ए-हिन्द‘‘ अथवा ‘‘तहकीकात-ए-हिन्द‘‘ नामक पुस्तक लिखी। इसके अतिरिक्त इतिहासकार उतबी, ‘‘तारीख-ए-सुबुक्तगीन‘‘ का लेखक बेहाकी भी उसके साथ आये। अंग्रेज इतिहासकार लेनपूल ने बेहाकी को ‘‘पूर्वी पेप्स‘‘ की उपाधि प्रदान की है। ‘‘शाहनामा‘‘ का लेखक फिरदौसी, फारस का कवि जारी, खुरासानी विद्वान तुसी, महान शिक्षक और विद्वान उन्सुरी, अस्जदी, फारूखी आदि उसके दरबारी कवि और विद्वान थे।


                              11वीं शताब्दी में उत्तर भारत और उसके विभिन्न राज्य

महमूद गजनबी के आक्रमण के परिणाम-

महमूद गजनबी के आक्रमणों के परिणाम विभिन्न स्तरों पर प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूपों में देखे जा सकते है। राजनैतिक क्षेत्र में महमूद के आक्रमणों के प्रत्यक्ष परिणाम महत्वपूर्ण नही माने जा सकते। महमूद का न तो भारत में साम्राज्य निर्माण का उद्देश्य था, न ही उसने भारत में कोई स्थायी राज्य बनाने का प्रयास किया। हर अभियान के बाद वह गजनी वापस लौटता रहा और उसने विजित क्षेत्रों को अपने राज्य में मिलाने का कोई प्रयास नही किया। उसने विजित क्षेत्रों के प्रशासनीक बन्दोबस्त पर भी कभी ध्यान नही दिया। बहुत बाद में उसने पंजाब को अपने साम्राज्य में मिलाया लेकिन यहॉ उसका उद्देश्य भारत में एक ऐसे सैनिक केन्द्र की प्राप्ति था जहॉ से उत्तर भारत के दूर स्थित प्रान्तों पर आक्रमण किया जा सके और उनका धन लूटा जा सके। महमूद ने उत्तर भारत की राजनीतिक परिस्थिती में कोई मौलिक परिवर्तन नही किया। राज्यों का बाहुल्य, केन्द्रीय सत्ता का अभाव, शासकों की अपनी प्रतिस्पर्घा आदि समस्याएॅ पूर्व की भॉति बनी रही।
अप्रत्यक्ष रूप से महमूद के आक्रमणों ने उत्तर भारत के राजनैतिक जीवन को प्रभावित किया। इन आक्रमणों के पूर्व उत्तरी भारत और तुर्को द्वारा अधिकृत मध्य-एशिया के क्षेत्र के बीच हिन्दकुश पर्वतमाला एक भौगोलिक विभाजन रेखा के रूप में थी परन्तु अब तुर्को की सत्ता उत्तरी भारत में पंजाब के राज्य तक स्थापित हो गयी। अब उत्तर भारत का सीमान्त क्षेत्र पहले की भॉति सुरक्षित नही रहा और किसी भावी आक्रमणकारी के लिए उत्तर भारत के राज्यों का विजय का काम आसान हो गया।
महमूद के आक्रमण के आर्थिक परिणाम भी महत्वपूर्ण सिद्ध हुए। महमूद भारत से काफी मात्रा में धन लूट कर ले गया जिसका उपयोग उसने मध्य-एशिया में साम्राज्य निर्माण में किया। महमूद के आक्रमणों के क्रम को यदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो वह एक वर्ष भारत में और उसके अगले वर्ष मघ्य-एशिया में सैनिक अभियान करता रहा। भारत से लूटे गये धन से उसने इन युद्धों का खर्च पूरा किया तथा इस धन के खर्च होने पर पुनः भारत और धन लूटने के लिए आया। इतना ही नही, महमूद ने अपनी राजधानी गजनी के नगर को एक सुन्दर और समृद्ध नगर का रूप दिया और उस क्षेत्र में सांस्कृतिक गतिविधियों को उल्लेखनीय ढंग से प्रश्रय दिया। जिसके फलस्वरूप गजनी नगर की ख्याति सर्वत्र फेली। अतः केवल साम्राज्य निर्माण के लिए ही नही बल्कि अपने राज्य के गौरव में वृद्धि के लिए भी महमूद ने भारत के धन का उपयोग किया। दूसरी तरफ भारत के लिए ये आक्रमण आर्थिक क्षति का कारण सिद्ध हुआ क्योंकि जो धन पीढीयों से मन्दिरों में चढावे के लिए और राजमहलों से भेट और कर के रूप में संचित होता चला आ रहा था वह महमूद द्वारा भारत से लूटकर जे जाया गया। महमूद के आक्रमणों ने लगभग 30 वर्षो तक भारत में अस्थिरता का वातावरण बनाए रखा जिससे इस क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियों में अवरोध प्रस्तुत हुआ। परन्तु यह भी उल्लेखनीय है कि भारत अत्यन्त धनी और समृद्ध देश था और महमूद के आक्रमण से होनेवाली आर्थिक क्षति का प्रभाव स्थायी सिद्ध नही हो सका। करीब 150 वर्षो के बाद जब मुहम्मद गोरी की सेना ने उत्तर भारत मे ंप्रवेश किया तो इस देश को समृद्ध और सम्पन्न पाया।
महमूद के आक्रमणों के सैनिक परिणाम भी महत्वपूर्ण सिद्ध हुए। महमूद को भारत से युद्ध के लिए हाथियों की उपयोगिता का ज्ञान हुआ और उसने मध्य-एशिया के युद्धों में इनका सफलतापूर्वक प्रयोग किया। मगर दुर्भाग्यवश भारतीय शासक इस प्रकार का लाभ उठाने में असफल रहे। तुर्को की सामरिक पद्धति से भारतीय शासक कुछ भी लाभ नही ग्रहण कर सके और 150 वर्षो के बाद जब मुहम्मद गोरी के अभियान हुए तो भारतीय शासक उसी प्रकार कमजोर और असंगठित थे तथा उन्हे फिर एक बार पराजय का मुॅह देखना पडा।
महमूद गजनबी के आक्रमणों के परिणाम सांस्कृतिक क्षेत्र में भी देखे जा सकते है। यद्यपि प्रत्यक्ष रूप से इनका प्रभाव तो नही हुआ, लेकिन इसका अप्रत्यक्ष और दूरगामी प्रभाव अत्यन्त महत्वपूर्ण थे। प्रत्यक्ष रूप से उसके कार्यो का रूप नकारात्मक था। उसने मन्दिरों को लूटा, मूर्तियों का विनाश किया, नगरों को नष्ट किया, बडे पैमाने पर लूट और हत्या की और बलपूर्वक धर्म परिर्वन भी किया। परन्तु इन कार्यो से न तो हिन्दू धर्म का विनाश संभव था और न ही भारत में इस्लाम धर्म की स्थापना। मुहम्मद हबीब ने लिखा है कि महमूद ने भारत में जो कार्य किए वे निश्चित रूप से इस्लाम के उपदेशों के अनुसार नही थे और न ही उसने इस्लाम की कोई सेवा की बल्कि उसने अपने लूट-मार के कार्यो को एक नैतिक औचित्य प्रदान करने के लिए इस्लाम धर्म का दुरूपयोग ही किया।
अप्रत्यक्ष रूप से महमूद गजनबी के आक्रमणों ने इस्लाम और हिन्दू संस्कृति के बीच सम्पर्क में योगदान दिया। महमूद द्वारा जिस अलबरूनी को प्रसय दिया गया, उसने भारतीय संस्कृति का अध्ययन किया। उसने अनेक संस्कृत के ग्रन्थों और भारतीय दर्शन को समझा, पण्डितो से वार्तालाप किया और दूसरी ओर जनसाधारण के जीवन को देखकर अपनी प्रसिद्ध रचना ‘‘तहकीकात-ए-हिन्द‘‘ प्रस्तुत की। इस रचना से बौद्धिक स्तर पर इस्लामी और हिन्दू संस्कृति के बीच सम्पर्क सूत्र को बढावा मिला। इसी के साथ महमूद के आक्रमणों ने पंजाब तक मध्य-एशिया से आनेवाले यात्रियों का मार्ग सुगम बना दिया और कालान्तर में अनेक सूफी सन्तों का भारत में प्रवेश हुआ। इन्होने भी जनसाधारण के स्तर पर इस्लाम का प्रचार और प्रसार किया। इस सांस्कृतिक सम्पर्क से आगे चलकर एक नई समन्वित सांस्कृतिक परम्परा का विकास संभव बनाया।

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