window.location = "http://www.yoururl.com"; Indian National Congress : Liberal Phase. | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस : उदारवादी चरण

Indian National Congress : Liberal Phase. | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस : उदारवादी चरण

 


उदारवादी चरण (1885.1905) : विचारधारा, कार्यक्रम और नीतियॉं

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास है और देश की आजादी की लड़ाई मे कांग्रेस ने ही अग्रणी संस्था के रूप में कार्य किया। अखिल भारतीय स्तर पर भारतीय राष्ट्रवाद की पहली सुनियोजित अभिव्यक्ति के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना दिसम्बर 1885 में एक अवकाश प्राप्त अंग्रेज अधिकारी ए0 ओ0 ह्यूम ने तात्कालीक वायसराय लार्ड डफरिन के सहयोग से की थी। क्रमिक विकास की पृष्ठभूमि में दिसम्बर 1884 ई0 में ‘इण्डियन नेशनल यूनियन‘ नामक संस्था ने यह निश्चय किया था कि 1885 ई0 के बडे दिन की छुट्टियों में पूना में एक सभा का आयोजन किया जाय जिसमें भारत के सभी क्षेत्रों के प्रतिनिधि हो। इस उद्देश्य से कई मुख्य बातों का उल्लेख करते हुये 1885 ई0 में ह्यूम और सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के हस्ताक्षर से एक घोषणा-पत्र जारी किया गया। यह सभा 25 दिसम्बर से 31 दिसम्बर 1885 तक पूना में होने वाली थी। लेकिन पूना में हैजा फैल जाने के कारण सभा का स्थान पूना से बदलकर बम्बई कर दिया गया। इस प्रकार बम्बई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत पाठशाला के विशाल भवन में 28 दिसम्बर 1885 ई0 को इस सभा का आयोजन किया गया जिसमें देश के 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। दुर्भाग्यवश किन्ही कारणों से इस सम्मेलन में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी शामिल नहीं हो सके। काफी विचार-विमर्श के बाद इस संस्था का नाम ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस‘ ;प्दकपंद छंजपवदंस ब्वदहतमेद्ध रखा गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इस प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता व्योमेश चन्द्र बनर्जी  ने की और मिस्टर ए0 ओ0 ह्यूम इसके सचिव थे। इस प्रकार भारत की उस महान राजनीतिक संस्था का जन्म हुआ जिसके नेतृत्व में भारत का स्वाधीनता संघर्ष लडते हुये 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त की।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का लक्ष्य -

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के सन्दर्भ में विभिन्न दृष्टिकोणों का उल्लेख उपर किया जा चुका है जिसके अन्तर्गत सुरक्षा बाल्ब की विचारधारा और अखिल भारतीय संगठन की आवश्यकता प्रमुख उद्देश्य था। वर्तमान समय में यह मत सर्वमान्य है कि कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य एक अखिल भारतीय संस्था का निर्माण करना था क्योंकि उस समय भारत राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में था। भारतीय राष्ट्रीय नेताओं के सामने पहला लक्ष्य यही था कि भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में जोडने और भारतीय जनता के रूप में उनकी पहचान बनाने की प्रक्रिया आगे बढ़ाई जा सके। अंग्रेज प्रशासक अक्सर यह कहा करते थे कि भारत एक राष्ट्र नही है बल्कि यह सैकडों अलग-अलग धर्मों और जातियों का भौगोलिक समूह है। राष्ट्रीय नेताओं को इसका एहसास था कि देश की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियॉं देश के लोगों को नजदीक जरूर ला रही है लेकिन इसके बारे में लोगों में राष्ट्रीय एकता और राजनीतिक चेतना पैदा करनी पड़ेगी तभी भारतीय राष्ट्र का लक्ष्य पाया जा सकता है।

भारत का एक राष्ट्र बनना एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया थी। इसका अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि 1885 ई0 में कांग्रेस की स्थापना के बीस साल बाद 1905 ई0 में भी गोपाल कृष्ण गोखले ने इसी बात पर फिर जोर दिया कि - “जहाँ तक हो सके, हमें ज्यादा-से-ज्यादा लोगों में राष्ट्रीय चेतना पैदा करनी चाहिए ताकि धर्म, जाति और वर्ग की विभिन्नताओं को परे उठकर वे एकजुट हो सकें।“ कांग्रेस के नेताओं को इस बात का भी एहसास था कि भारत में जिस तरह की भिन्नताएँ हैं, वैसी स्थिति दुनिया में कहीं नहीं है, इसलिए उन्हें एक अलग किस्म की कोशिश करनी होगी और बड़ी सावधानी के साथ राष्ट्रीय एकता को पोषित करना होगा। इसलिए सभी क्षेत्रों में राष्ट्रीय भावना को पहुँचाने के उद्देश्य से यह तय किया गया कि कांग्रेस के अधिवेशन बारी-बारी से देश के विभिन्न हिस्सों में आयोजित किए जाएँ और अध्यक्ष उस क्षेत्र का न हो, जहाँ अधिवेशन हो रहा हो।

सभी धर्मों के लोगों के बीच पहुँचने और अल्पसंख्यकों के मन में छाए डर को दूर करने के लिए 1888 के अधिवेशन में यह तय किया गया कि अगर किसी प्रस्ताव पर हिंदू या मुस्लिम प्रतिनिधियों के बहुत बड़े हिस्से को आपत्ति हो, तो वह प्रस्ताव पारित नहीं होगा। शुरुआती दौर के राष्ट्रीय नेता एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र का निर्माण करने पर दृढ़ प्रतिज्ञ थे और कांग्रेस स्वयं पूर्णतः धर्म निरपेक्ष संस्था थी।

राष्ट्रीय कार्यक्रम

शुरुआती दौर में कांग्रेस का दूसरा महत्त्वपूर्ण लक्ष्य यह था कि एक ऐसा राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाया जाए जिसके तहत देश के विभिन्न भागों में काम कर रहे राजनीतिक कार्यकर्ता इकट्ठे होकर अखिल भारतीय स्तर पर अपनी राजनीतिक गतिविधियाँ चला सकें और लोगों को शिक्षित व संगठित कर सकें। इसके लिए उन अधिकारों की लड़ाई और उन समस्याओं को हाथ में लेना जरूरी था जो हरेक भारतीय की अपनी लड़ाई और उसकी अपनी समस्या थी। यही कारण है कि प्रारंभिक वर्षों में कांग्रेस ने सामाजिक सुधार का मुद्दा नही उठाया।

कांग्रेसी नेताओं के सामने सबसे बड़ा और पहला काम था जनता को राजनीतिक रूप से शिक्षित करना, प्रशिक्षित करना, संगठित करना और जनमत तैयार करना। राजनीतिक चेतना जगाने और जनमत तैयार करने का काम सबसे पहले शिक्षित तबके से शुरू किया गया। वे जनता की तात्कालीन कठिनाईयों को दूर करने के लिए किसी संघर्ष में फॅसना नही चाहते थे। दरअसल अपने समय की सबसे सशक्त सत्ता के खिलाफ एक संगठित राजनीतिक विरोध को जन्म देने के लिए उन्हे अपने अन्दर आत्मविश्वास और दृढ़ता पैदा करनी थी।

तलाश नेतृत्व की -

राष्ट्रीय आंदोलन चलाने के लिए पहली ज़रूरत थी एक सशक्त राष्ट्रीय राजनीतिक नेतृत्व की। लेकिन किसी भी देश में कोई राजनीतिक आंदोलन तभी सफल हो सकता है, जब वहाँ की जनता संगठित हो और पूरा देश एक हो। राष्ट्रवादी आंदोलन का प्रथम चरण तब शुरू होता है, जब राष्ट्रीय भावनाओं और राष्ट्रीय अस्मिता के कारण जनता को संगठित करने का काम शुरू किया जाता हैं। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि पहले राष्ट्रीय भावनाओं के वाहक, भावी नेता खुद एक मंच पर आएँ, एकताबद्ध हों, एक-दूसरे को अच्छी तरह समझें, सर्वमान्य दृष्टिकोण अपनाएँ और एक निश्चित लक्ष्य के लिए निश्चित कार्यक्रम तय करें। दूसरे शब्दों में कांग्रेस के संस्थापक समझ गए थे कि राष्ट्रीय आंदोलन शुरू करने के लिए राष्ट्रीय नेतृत्व को जन्म देने की ज़रूरत है। 

शुरू में राष्ट्रीय नेताओं का मुख्य उद्देश्य राजनीतिक लोकतंत्र का अंतर्राष्ट्रीयकरण व स्वदेशीकरण था। यह ’जनता की प्रभुसत्ता’ ;ैवअमतपहदजल वि जीम च्मवचसमद्ध पर आधारित था। दादाभाई नौरोजी ने इसी सिद्धांत को इन शब्दों में कहा थाः “राजा जनता के लिए बने हैं, जनता राजा के लिए नहीं। “ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन संसद की तरह हुआ था। वास्तव में कांग्रेस शब्द उत्तरी अमरीका के इतिहास से लिया गया शब्द है जिसका अर्थ है ’लोगों का समूह’। कांग्रेस सत्र की कार्यवाही बड़े ही लोकतांत्रिक ढंग से चली। मुद्दों पर निर्णय से पहले पूरी बहस होती और कभी ज़रूरत पड़ती, तो वोट भी डाले जाते। इस तरह यह कांग्रेस ही थी, जिसने लोकतंत्र को लोकप्रिय बनाया और उसके स्वदेशीकरण की प्रक्रिया की नींव डाली। 

राष्ट्रवादी विचारधारा का निर्माण -

उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष के लिए यह ज़रूरी था कि पहले तो उपनिवेशवाद को ठीक तरह से समझा जाए और फिर इस समझ के आधार पर एक राष्ट्रवादी विचारधारा विकसित की जाए। शुरुआती दौर के राष्ट्रवादी नेता इस मामले में छात्र भी थे और शिक्षक भी। अपने अनुभवों और अपने समय के यथार्थ को ठीक-ठीक परखते-तौलते हुए इन नेताओं को खुद ही ऐसी एक विचारधारा विकसित करनी थी। जाहिर है कि किसी वैचारिक संघर्ष के बिना कोई राष्ट्रीय संघर्ष छेड़ा ही नहीं जा सकता था। इन नेताओं को, लोगों को यह समझाना था कि हम एक राष्ट्र हैं और उपनिवेशवाद हमारा दुश्मन और इसी दुश्मन के खिलाफ़ हमारा यह संघर्ष है। 

यह ठीक है कि उस समय के राष्ट्रीय नेताओं ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ कोई जनांदोलन नहीं चलाया। लेकिन उन्होंने उसके ख़लिफ़ वैचारिक संघर्ष ज़रूर शुरू किया और चलाया। शुरू से कांग्रेस ने अपने-आपको एक पार्टी के रूप में नहीं, बल्कि एक आंदोलन के रूप में लिया। केवल उन बुनियादी और व्यापक लक्ष्यों पर सहमति के अलावा कांग्रेस में शामिल होने के लिए किसी और विशेष प्रकार की राजनीतिक या सैद्धांतिक प्रतिबद्धता जरूरी नहीं थी। एक आंदोलन के रूप में इसने लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद के प्रति प्रतिबद्ध अपने समय की सभी राजनीतिक प्रवृत्तियों, विचारधाराओं और सामाजिक वर्गों व समूहों के साथ अपने को जोड़कर रखा।

सारांश यह है कि उस दौर के राष्ट्रवादी नेताओं के बुनियादी लक्ष्य ये थे कि सबसे पहले एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्रीय आंदोलन की नींव रखी जाए, जनता में राजनीतिक चेतना पैदा की जाए और उसे राजनीतिक रूप से शिक्षित किया जाए, आंदोलन का एक ’मुख्यालय’ बनाया जाए और उपनिवेशवाद के खिलाफ एक राष्ट्रवादी विचारधारा का विकास किया जाए और उसका प्रचार-प्रसार किया जाए।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास को अध्ययन की सुविधा के लिए हम तीन चरणों में विभक्त कर सकते है -

1. प्रथम चरण  - उदारवादी युग (1885 ई0 से 1905 ई0 तक)

2. द्वितीय चरण - गरमपंथी युग  (1906 ई0 से 1918 ई0 तक)

3. तृतीय चरण  - गॉधीवादी युग (1919 ई0 - 1947 ई0 तक)

उदारवादी युग (1885 ई0 से 1905 ई0 तक) -

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम चरण उदारवादी युग के नाम से जाना जाता है। इसे कांग्रेस का शैशव काल भी कहा जा सकता है। 1885 ई0 से 1905 ई0 तक जिन उदारवादी बुद्धिजीवियों का प्रभुत्व था वे भारतीय राष्ट्रवाद के प्रथम चरण के नेता थे। इनमें बंगाल के डब्ल्यू० सी० बनर्जी, आनन्द मोहन बोस, लालमोहन घोष, ए० सी० मजूमदार, रासबिहारी घोष, सुरेद्रनाथ बनर्जी, आर० सी० दत्त, बंबई के दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, बदरुद्दीन तैयबजी, आप्टे, आगरकर, तेलंग, राणाडे, गोपाल कृष्ण गोखले, डी० ई० वाचा और चंद्रावरकर, मद्रास के पी० आर० नायडू, सुब्रह्मण्यम अय्यर, आनंद चालू और केशव पिल्ले तथा उत्तर प्रदेश के पंडित मदनमोहन मालवीय और पंडित धर जैसे लोग थे। कांग्रेस और इसके क्रियाकलाप के विकास में ह्यूम, वेडरबर्न और हेनरी कॉटन जैसे ब्रिटिश उदारवादी लोगों ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

कांग्रेस के पहले अधिवेशन के सभापति डब्ल्यू० सी० बनर्जी के अनुसार कांग्रेस के प्रमुख उद्देश्य थे :

1. देश के हितों की रक्षा करने वाले भारतीयों के बीच संपर्क और मित्रता बढ़ाना।

2. देश प्रेमियों के बीच जाति, संप्रदाय तथा प्रांतीय पक्षपातों की भावना को दूर करके उनमें राष्ट्रीय एकता की भावना को विकसित करना।

3. शिक्षित वर्ग की पूर्ण सम्मति से महत्त्वपूर्ण और आवश्यक सामाजिक विषयों पर विचार प्रकट करना।

4. यह निर्धारित करना कि आगामी वर्षों में भारतीय लोकहित के लिए किस दिशा में और किस आधार पर कार्य करें।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उपर्युक्त उद्देश्यों से पता चलता है कि इसका प्रारंभिक लक्ष्य सामाजिक ही था। यह देश-हित के दृष्टिकोण से भारत में सामाजिक और राष्ट्रीय एकता लाना चाहती थी तथा देश हित में प्रयत्नशील होना चाहती थी। स्पष्ट है इसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी तथा राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व करना नहीं था। कालान्तर में भले ही धीरे-धीरे इसका उद्देश्य राजनीतिक हो गया तथा इसका अन्तिम लक्ष्य स्वतंत्रता प्राप्ति हो गया।

उदारवादियों की विचारधारा -

कांग्रेस ने पहली बार राष्ट्रीय मांगों के समर्थन में प्रस्ताव पेश किए। इनमें कुछ मांगे थीं - इंडियन काउंसिल को समाप्त करना, आई० सी० एस० का एक साथ इम्तहान लेना और उम्मीदवारों की न्यूनतम आयु को बढ़ाना, विधायिका सभाओं के लिए सदस्य चुनना और उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत (नाथं वेस्टर्न फ्रंटियर प्राविस) और अवध एवं पंजाब में ऐसी विधायिका सभाएँ बनाना।

इस तरह उदारवादी राजनीतिज्ञों द्वारा स्थापित और संचालित कांग्रेस के पहले अधिवेशन की मांगें काफ़ी संतुलित थीं। कांग्रेस के पहले अधिवेशन में बम्बई में सिर्फ 72 सदस्य थे और उस समय न हो कांग्रेस का कोई अपना संविधान था और न ही नियम थे लेकिन आने वाले वर्षों में इस दिशा में विकास हुआ। प्रतिवर्ष देश के अलग-अलग भागों में जो वार्षिक सम्मेलन किए जाते थे उनमें सम्मिलित होने वाले प्रतिनिधियों की संख्या किस प्रकार बढ़ती गई, यह नीचे दी गई तालिका से स्पष्ट हो जाता है -

तालिका से स्पष्ट है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत में राजनैतिक जागृति को नया मोड़ दिया। इस संगठन के मंच से देश के सभी प्रतिभाशाली बुद्धिजीवियों ने अपनी न्यायोचित माँगों पर आपस में विचार-विमर्श किया तथा देश में नवचेतना जागृत की। प्रारंभ में यह आंदोलन उदारवादी और सांवैधानिक आंदोलन था। इस समय कांग्रेस के लक्ष्य सीमित थे। कांग्रेस के उदारवादी नेताओं को ब्रिटिश राजतंत्र में निस्सीम आस्था थी। वे सोचते थे कि बड़े संयोग से भारत में अंग्रेजी शासन स्थापित हुआ है और यह देश को स्वतंत्र, प्रगतिशील, लोकतांत्रिक राष्ट्रीय अस्तित्व प्रदान करेगा।
भारतीय उदारवादियों को ब्रिटेन से यह उम्मीद थी कि सामाजिक और सांस्कृतिक पिछड़ेपन को दूर करने और प्रतिनिधि सरकार के कार्य में जनता को प्रशिक्षित करने में वह पथ-प्रदर्शन करेगी। भारतीय उदारवादियों ने भारत और ब्रिटेन के हितों को विरोधी के बदले सहयोगी माना जब कि वास्तव में दोनों पक्षों के हित एक दूसरे के विरोधी थे। इन नेताओं ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समझने में मूल की। इसीलिए वे राजभक्त थे और ब्रिटेन से संबंध बनाए रखने की आवश्यकता पर जोर देते थे ।

इन उदारवादियों ने यह भी माना कि कांग्रेस जनसाधारण का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही थी, केवल उनकी शिकायतों की व्याख्या कर रही थी। कांग्रेस वस्तुतः जनसाधारण की आवाज नहीं बुलन्द कर रही लेकिन शिक्षित भारतीयों का यह कर्तव्य था कि वे जनसाधारण की तकलीफों की व्याख्या करें और उनको समाप्त करने के लिए राय दे।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का राष्ट्रीय स्वरूप -

जन्म से ही भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस एक राष्ट्रीय संस्था के रूप में स्थापित हुई। विगत वर्षों की अन्य संस्थाओं की भांति यह किसी विशेष जाति, धर्म, वर्ग या स्थान के लागों के प्रयास के फलस्वरूप पैदा नहीं हुई, बल्कि इन सब संकीर्ण दायरों से जन्म से ही यह अप्रभावित रही। अपनी स्थापना के समय से ही यह सभी वर्गों, जातियों, धर्मों तथा स्थानों का प्रतिनिधित्व करती रही है। इसके प्रथम अधिवेशन में ही देश के विभिन्न भागों से 72 प्रतिनिधि सम्मिलित थे जो विभिन्न धर्मों तथा वर्गों के थे। इसके प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष उमेश चन्द्र बनर्जी थे जो भारतीय ईसाई थे; दूसरे अधिवेशन के अध्यक्ष दादा भाई नौरोजी थे, जो पारसी थे; तीसरे अधिवेशन के अध्यक्ष बदरुद्दीन तैय्यब थे, जो मुसलमान थे और चौथे तथा पांचवे अधिवेशन के अध्यक्ष जार्ज यूल और सर लिलियम वेडरबर्न अंग्रेज थे। इस प्रकार प्रारम्भ से ही काँग्रेस का स्वरूप राष्ट्रीय रहा है।

शुरू में काँग्रेस शिक्षित वर्गों की एक संस्था थी। देशहित का ख्याल रखने वाले शिक्षित भारतीय इसमें रुचि लेते थे और अंग्रेज शासकों का भी इसे समर्थन प्राप्त था। धीरे-धीरे यह संस्था लोकप्रिय होने लगी। इसके द्वारा राजनीतिक अधिकारों की मांग की जाने के कारण जनसाधारण का ध्यान इसकी ओर आकृष्ट होने लगा। फिर भी इस युग में शहरों में रहनेवाले मध्यमवर्गीय शिक्षित वर्ग के लोग भी काँग्रेस से सम्बन्धित रहे। खेतिहर वर्ग तथा ग्रामीण जनता का काँग्रेस से सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सका था। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि काँग्रेस एक राष्ट्रीय संस्था बन तो गयी थी, लेकिन देशी रियासतों पर इसका प्रभाव नहीं के बराबर था। दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि प्रारम्भ से ही इसका प्रचार इंगलैंड में होने लगा था। 1885 ई० में ह्यूम ने इंगलैंड जाकर अपने विचारों से कुछ प्रमुख व्यक्तियों को अवगत कराया। कॉंग्रेस की ओर से एक प्रतिनिधि-मण्डल इंग्लैण्ड भेजा गया, जिसका उद्देश्य इंग्लैण्ड के निवासियों में कॉंग्रेस सम्बन्धी कार्यों का प्रचार करना तथा उन्हें कौंसिल सुधार योजना के सम्बन्ध में अपने विचारों और कार्यक्रमों से अवगत कराना था। इसी उद्देश्य से एक समिति का भी निर्माण किया गया, जिसके सदस्य जार्ज यूल, ए0ओ0 ह्यूम, जे० ऐडम, आर्डले नाटइन तथा जे० ई० हार्बर्ड थे। इन लोगों ने इंग्लैंड जाकर बड़े उत्साह से कार्य किया। इंग्लैंड की लोकसभा के सदस्यों की एक समिति बनाई गयी जिसका उद्देश्य भारतीय प्रश्नों पर विचार-विमर्श करना था। जनमत को आकृष्ट करने के लिए उन्होंने ’इण्डिया’ (प्दकपं) नामक एक समाचार-पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया। इसके अतिरिक्त काँग्रेस की विचाराधारा के प्रचार कार्यों के फलस्वरूप इंगलैंड निवासी भी काँग्रेस के कार्यों में विशेष दिलचस्पी लेने लगे तथा काँग्रेस के सुधार-प्रस्तावों का समर्थन करने लगे। इस प्रकार काँग्रेस भारत में ही नहीं बल्कि इंगलैंड में भी लोकप्रिय बन गयी।

उदारवादियों की नीति और कार्यक्रम -

उदारवादियों की नीतियों और कार्यक्रमों को निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा सकता है -

1.  सांवैधानिक विकास के पक्षधर - उदारवादियों को नियमबद्ध व क्रमिक प्रगति में आस्था थी। वे विकास की धीमी गति में विश्वास करते थे और क्रांतिकारी परिवर्तन के विरुद्ध थे। ब्रिटिश राष्ट्र के सहयोग और सहायता से भारत के क्रमिक विकास में विश्वास करने वाले इन उदारवादियों ने क्रांतिकारी आकस्मिक परिवर्तन और उसकी कार्य प्रणाली को स्वीकार नहीं किया और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इन्होंने वैधानिक आंदोलन का रास्ता अपनाया। इनका ख्याल था कि इसके ज़रिए वे एक तरफ़ तो जनजागरण और जनशिक्षा का विकास कर सकेंगे और दूसरी तरफ अंग्रेज़ों को यह समझा सकेंगे कि भारतीय जनता की माँगें न्यायसंगत हैं और इनकी पूर्ति प्रशासन का जनतांत्रिक कर्तव्य है। संवैधानिक सत्ता जिनके हाथों में है उनके कार्य और सहयोग द्वारा वांछित परिवर्तन लाने के लिए वैधानिक संघर्ष करने का उन्हें अधिकार था। केवल तीन बातों की मनाही थी- विद्रोह, विदेशी आक्रमण को सहायता या उसे प्रश्रय, तथा अपराध का रास्ता। राजनीति के बारे में अपनी अनेक गलत धारणाओं के बावजूद भारतीय उदारवादी भारत में आधुनिक बुर्जुआ समाज के हितों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे और इस तरह उनकी भूमिका प्रगतिशील थी।


उदारवादी मूलतः प्रार्थनाओं, प्रार्थना-पत्रों, प्रदर्शनों, स्मरण-पत्रों और प्रतिनिधिमण्डलों द्वारा सरकार से अपनी न्याययुक्त मॉंगों को मानने का आग्रह करते थे। वे क्रान्तिकारी मार्ग से सफलता प्राप्ति को सदिग्घ समझते थे तथा अपने अधिकारों की याचना सरकार से बडे विनम्र शब्दों में करते थे। इतिहासकार और गरमपंथीय नेता इसे ‘राजनीतिक भिक्षावृत्ति‘ की संज्ञा देते थे। मदास में होनेवाले तीसरे अधिवेशन में श्री मदनःोहन मालवीय ने कहा था कि - ‘’यद्यपि अबतक हमें कोई सफलता नहीं मिली है, हमें ब्रिटिश सरकार तक पहुँचकर बार-बार अपनी मांगों की सुनवाई के लिए प्रार्थना करनी चाहिये कि वह हमारी मॉंगों को पूरा कर दे।“ डॉ० पट्टाभि सीतारमैया ने उदारवादियों की वैधानिक पद्धति का उल्लेख करते हुए कहा है कि वे अधिकारियों के समक्ष देश और जनता के दुःखों और कष्टों का अकाट्य तथ्य के रूप में रखते थे और उसके पक्ष में अकाट्य तर्क पेश करते थे तथा वे शासन से इस बात की प्रार्थना करते थे कि वह उनकी मांगों को शीघ्रताशीघ्र पूर्ण करने का आश्वासन दे। दादा भाई नौरोजी ने भी 1906 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से बोलते हुये कहा था कि - ’शान्तिप्रिय विधि ही इंगलैंड की राजीनतिक, सामाजिक और औद्योगिक इतिहास का जीवन और आत्मा है। इसलिये हमें भी उस सभ्य, शान्तिप्रिय नैतिक शक्ति रूपी अस्त्र को प्रयोग में लाना चाहिये।“

2.  राष्ट्रीय एकता में विश्वास - भारत जैसे विशाल देश में राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के लिए एकता का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण था और इस बात को समझते हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारंभिक नेताओं ने भारत में एकता की भावना को विकसित करने के हर संभव उपाय किए। राष्ट्रीय नेता इसे अपना पहला कर्तव्य मानते थे। वे जानते थे कि अलग-अलग धर्मों के मानने वालों को मिलाकर ही एक सूत्र में बाँधा जा सकता था। इसी से कांग्रेस के नेताओं ने कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहा जिसके लिए सभी वर्ग और संप्रदाय तैयार न हों। सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने इटली की एकता का उदाहरण देते हुए कहा कि ’जब समूचा भारत प्रेम, सद्भाव और सम्मान के तीन बंधकों में जुड़ जाएगा तो भारतीय महत्ता का दिन दूर नहीं है। दादा भाई नौरोजी ने भी विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के बीच की दूरी को ख़त्म करने पर जोर दिया। इस प्रचार के परिणामस्वरूप पढ़े-लिखे भारतीयों में एकता की भावना पैदा हुई। देश के हर भाग में समय-समय पर कांग्रेस के अधिवेशन किए जाते थे ताकि संपूर्ण देश के लोग इस आंदोलन के माध्यम से राष्ट्रीय एकता के प्रति जागृत हों। 

3.  लोकतांत्रिक तरीकों पर विश्वास - कांग्रेस के प्रारंभिक नेताओं की एक महत्वपूर्ण देन यह थी कि उन्होने आधुनिक यूरोप की समृद्ध लोकतांत्रिक एवं वैज्ञानिक संस्कृति का भारत में प्रसार का समर्थन किया। उन्होंने ब्रिटिश काल से पहले की मध्यकालीन, पुरानी एवं निरंकुश सामाजिक रचना के खिलाफ़ जमकर संघर्ष किया। इन्होंने सामाजिक समानता तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अधिक ज़ोर दिया तथा किसी भी वर्ग के विशेषाधिकारों का विरोध किया। इन नेताओं ने अतीत को जीवित करने के स्थान पर भविष्य पर बल दिया। यह बात महत्त्वपूर्ण है कि गोखले ने न सिर्फ़ सिविल मैरिज जैसे सामाजिक सुधारों का स्वागत किया बल्कि उन्होंने इस दिशा में सरकार की भूमिका पर भी जोर दिया। 1897 ई0 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक जलसे में भाषण देते हुए इसके अध्यक्ष सी० शंकरन ने उदारवादियों के विचारों को व्यक्त करते हुए कहा कि संक्षेप में हम अपनी व्यवस्था में से वह सभी चीजें हटा देना चाहते हैं जो कि प्रगति के रास्ते में बाधक हैं।

4.  आर्थिक चेतना जागृत करने का प्रयास - उदारवादियों का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य यह रहा कि इन्होंने साम्राज्यवाद के आर्थिक पहलू की कड़ी आलोचना करके लोगों में आर्थिक चेतना जागृत की। भारत की आर्थिक समस्याओं की तरफ़ इनकी वैज्ञानिक दृष्टि थी। वे आद्योगीकरण और सामाजिक संबंधों के लोकतंत्रीकरण द्वारा भारत की आर्थिक प्रगति के समर्थक थे। इन उदारवादियों के आर्थिक प्रवक्ता दादा भाई नौरोजी, महादेव गोविंद रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले और रमेशचंद्र दत्त थे। इन्होंने अँग्रेज़ों द्वारा भारत के आर्थिक शोषण को भारत की बढ़ती हुई ग़रीबी का कारण माना। भारतीय नेता यह शिकायत करने लगे कि निर्धनता देश में जड़ पकड़ती जा रही है। सरकारी राजस्व-अधिकारियों द्वारा किसान को लूटा जा रहा है। स्वदेशी उद्योगों को नष्ट कर दिया गया है और आधुनिक उद्योगों को जान-बूझकर निरुत्साहित किया जा रहा है अथवा पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है। देश के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थों का निर्यात किया जा रहा है। भारतीय उद्योग और कृषि हितों के विरुद्ध मुद्रा-नीति अपनाई जा रही है। विदेशी स्वामित्व वाले बाग़ान उद्योगों में भारतीय श्रमिकों को दास बनाया जा रहा है। भारतीय राजस्व और कृषि विकास की आवश्यकताओं की उपेक्षा करके रेलों का विस्तार किया जा रहा है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि भारत से संपत्ति और पूंजी की निकासी की जा रही है। उन्होंने जनता के सम्मुख यह सच्चाई प्रकट की और बताया कि भौतिक दृष्टि से ब्रिटिश शासन भारत के लिए हानिकारक रहा है।

इन उदारवादियों ने निर्धनता को हटाने के कई सुझाव भी दिए। जिन आर्थिक प्रश्नों पर इनका ध्यान केंद्रित था, वे इस प्रकार थे - उद्योगीकरण, देश में आर्थिक विकास में राज्य का हिस्सा, भारतीय उद्योगों की रक्षा के लिए टेरिफ की दीवार खड़ी करना और उन नियमों को निश्चित करना जिनपर टैक्स तथा आर्थिक प्रशासन निर्भर करते थे।
देश के उद्योगीकरण में कांग्रेस पार्टी की विशेष रुचि थी जैसा कि हमें 1902 में इसकी एक कमेटी की रिपोर्ट से पता चलता है। इस कमेटी में विभिन्न जिलों से आने वाले प्रतिनिधियों से पूछा गया था कि उनके जिले में किन वस्तुओं का उत्पादन होता है? सूत कहाँ से प्राप्त किया जाता है ? क्या कपड़ा रंगने के लिए देशी रंगों का इस्तेमाल करते हैं ? वे कौन से तरीक़े हैं जिनसे भारतीय कलाएँ तथा उद्योग विदेशी चीजों का मुक़ाबला कर सकें ? इन्होंने भारतीय उद्योगों को प्रोत्साहन देने के विचार से स्वदेशी वस्तुओं के इस्तेमाल में लोगों की रुचि जगाने की कोशिश की जिसके लिए कई स्वदेशी स्टोर खोले गए। 1896 में महाराष्ट्र में एक शक्तिशाली स्वदेशी अभियान शुरू किया गया जिसमें विद्यार्थियों ने खुले रूप में विदेशी कपड़ों को जलाया।

औद्योगिक प्रर्दशनियाँ लगाना तो कांग्रेस के वार्षिक कार्यक्रम का एक हिस्सा ही बन गया था। महादेव गोविंद रानाडे ने तो 19वीं सदी में ही एक माँग की थी कि सरकार को देश के आर्थिक विकास में सहायता करनी चाहिए तथा स्वदेशी उद्योगों की विदेशी वस्तुओं की प्रतिद्वंद्विता से रक्षा करनी चाहिए। बाद में यह माँग अन्य नेताओं ने भी रखी। दादा भाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक ’पावर्टी एंड ऑन ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में यह वर्णन किया है कि किस प्रकार इंग्लैंड ने भारत का धन अपने देश में पहुँचाया और यही भारत की ग़रीबी तथा मुसीबतों का मुख्य कारण था।

भारतीय नेताओं द्वारा सुझाए गए उपाय अथवा उनकी आर्थिक नीतियों का स्वरूप साम्राज्यवाद-विरोधी था। वे ब्रिटेन और भारत के मध्य चालू संबंधों में मौलिक परिवर्तन चाहते थे। उनकी राजनैतिक माँगें तो उदार थीं, किंतु उनकी आर्थिक माँगे क्रांतिकारी थीं। उनकी सभी आर्थिक माँगों में मूल आधार यह इच्छा थी कि वास्तविक राष्ट्रीय आर्थिक नीति का निर्धारण इंग्लैंड के नहीं वरन् भारत के हितों के संदर्भ में किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त आर्थिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वे इंग्लैंड की अधीनता को खत्म करने की वकालत करते थे।
उदारवादियों की बहुत सी ग़लत धारणाओं की वजह यह थी कि ब्रिटेन और भारत के संबंधों की वास्तविक प्रगति को वे ठीक तरह से नहीं समझ सके। वे यह नहीं समझ सके कि भारत ब्रिटिश पूँजीवाद का उपनिवेश था और इसलिए ब्रिटेन इस देश का मुक्त आर्थिक विकास नहीं होने देगा और भारत के आर्थिक विकास को ब्रिटिश पूँजी की आवश्यकताओं पर निर्भर रहना पड़ेगा। ब्रिटिश और भारतीय स्वार्थों के बीच इस वास्तविक संघर्ष को उदारवादी लोग समझ नहीं पाए। फिर चूँकि भारत पर ब्रिटेन की राजनैतिक सत्ता ब्रिटिश स्वार्थों की रक्षा कर रही थी, इसलिए ब्रिटेन से यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि वह भारत को सत्ता हस्तांतरित कर देगा या यहाँ मूलभूत प्रशानिक सुधार लाएगा।

5.  क्रमिक और प्रशासनिक सुधार में विश्वास - 1885 से 1905 तक भारतीय उदारवादी चाहते थे कि राजनीतिक प्रशासकीय क्षेत्र में धीरे-धीरे व क्रमिक सुधार लाया जाय। उनका मुख्य उद्देश्य प्रशासन अर्थात परिषदों, नौकरियों, स्थानीय संस्थाओं, रक्षा सेवाओं आदि में सुधार करवाना था। यह भी स्वीकार किया गया कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लम्बी अवधि तक भारतीयों को प्रशिक्षण की आवश्यकता है। उदारवादियों के नेतृत्व में कांग्रेस ने प्रशासनिक सुधार के लिए संघर्ष किया और कई सुझाव सामने रखे-जैसे कार्यकारिणी और न्याय-व्यवस्था का पार्थक्य, जन सेवाओं में बराबरी की शर्तों पर भारतीयों की नियुक्ति और बाद में इन सेवाओं का भारतीयकरण, आर्म्स ऐक्ट को हटाना, भारत से बाहर धन जाने की प्रक्रिया पर रोक लगाना क्योंकि इससे लोग बडी संख्या में गरीब हो रहे थे, सेना सम्बन्धी खर्चों में कमी इत्यादि।  उदारवादी नेतृत्व प्रतिनिधि संस्थाओं और चुनाव के सिद्धान्त का समर्थक था। इसने जनता द्वारा निर्धारित विधायिका सभाओं और कार्यकारिणी पर विधायिका सभाओं के नियंत्रण की मॉंग की। कुल मिलाकर उदारवादी व्यवहारिक सुधारक थे तथा आजादी क्रमशः कदम-कदम बढ़ाकर हासिल करना चाहते थे।

6.  पाश्चात्य सभ्यता और विचारों के पोषक - उदारवादी राष्ट्रवादी पाश्चात्य सभ्यता तथा विचार के पोषक थे। उन्होने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय जैसे उदारवादी पाश्चात्य सिद्धान्तों को अपनाने पर जोर दिया। उनके दृष्टिकोण में ब्रिटेन से भारत का सम्बन्ध भारतीयों के लिये वरदान स्वरूप है। ब्रिटेन के प्रभाव के परिणामस्वरूप ही भारत में प्रगतिशील सभ्यता का उदय हुआ है। अंग्रेजी साहित्य, शिक्षा-पद्धति, आवागमन के साधन, न्याय-प्रणाली, स्थानीय स्वशासन आदि भारत के लिये अमूल्य वरदान हैं। उनका मत था कि आंग्ल विचार और दर्शन लोगों में स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र के प्रति आदर उत्पन्न करता है। अतः भारत के हक में यह श्रेयष्कर है कि ब्रिटेन से उनका अटूट सम्बन्ध बना रहे।

इस संदर्भ में कतिपय उदारवादी नेताओं के शब्द उल्लेखनीय हैं। श्रीमती एनी बेसेन्ट ने कहा था कि - ’इस काल के नेता अपने को ब्रिटिश प्रजा मानने में गौरव का अनुभव करते थे। गोपाल कृष्ण गोखले ने काँग्रेस के अध्यक्ष-पद से 1905 में कहा था कि - हमारा भाग्य अंग्रेजों के साथ जुड़ा हुआ है, चाहे वह अच्छे के लिए हो या बुरे के लिये। फिरोज शाह मेहता ने काँग्रेस के छठवें अधिवेशन में अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए कहा था कि इंगलैंड और भारत का संबंध इन दोनों और समस्त विश्व की आनेवाली पीढ़ियों के लिए वरदान होगा। दादा भाई नौरोजी ने भी कहा था कि काँग्रेस ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह करनेवाली संस्था नहीं है; वह तो ब्रिटिश सरकार की नींव को दृढ़ करना चाहती है।

7.  अंग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास - उदारवादी युग के अधिकांश काँग्रेसी नेताओं को अंग्रेजों की सत्यता एवं न्याय-प्रियता में अटूट विश्वास था। उनके विचार में अंग्रेज स्वतन्त्रता प्रेमी हैं और यदि उन्हें भारतीयों की योग्यता पर विश्वास हो जाय तो वे उन्हें स्वशासन बिना हिचक दे देंगे। यही कारण था कि काँग्रेस शुरू से ही अंग्रेजी सरकार की सहानुभूति तथा ब्रिटिश जनमत के समर्थन को जीतने के लिये प्रयास करती रही।
कई उदारवादी नेताओं की विचार-अभिव्यक्ति से इस तथ्य का समर्थन होता है। सर फिरोज शाह मेहता ने 1890 में कहा था कि - ’मुझे इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है कि ब्रिटिश राजनीतिज्ञ अन्त में जाकर हमारी पुकार पर अवश्य ध्यान देंगे।“ सर टी० राधव राव ने कॉंग्रेस के तीसरे अधिवेशन के अवसर पर कहा था कि- ’कॉंग्रेस ब्रिटिश शासन का सर्वोच्च शिखर और ब्रिटिश- जाति का कीर्ति-मुकुट है।“ सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के शब्द इस सन्दर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उनके शब्दों में- ‘‘हमें अंग्रेजों की न्यायप्रियता तथा उदारता में पूर्ण विश्वास है। संसार की महानतम प्रतिनिधि-सभा- ब्रिटिश लोकसभा के स्वतंत्रता प्रेम में हमारा असीम विश्वास है। जहॉं कहीं अंग्रेजों ने अपना आधिपत्य जमाया है तथा अपनी सरकार का निर्माण किया है, उन्होने उनका निर्माण प्रतिनिधियात्मक आदर्श पर ही किया है।‘‘ इन उदारवादी नेताओं की युक्तियों से यह स्पष्ट होता है कि उन्हे किस हद तक अंग्रेजों की स्वतंत्रता और न्यायप्रियता में विश्वास था।

8.  राजीनतिक स्वशासन की प्राप्ति - उदारवादी नेता केवल कतिपय प्रशासनिक सुधार ही नहीं चाहते थे, बल्कि उनका लक्ष्य भारतीयों के लिए स्वशासन की प्राप्ति भी थी। वे ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत स्वशासन की स्थापना चाहते थे। उनके विचार में ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीयों को स्वशासन का पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त हो चुका था और भारत स्वशासन के लिए पूर्ण तैयार था। स्वशासन के महत्व के सम्बन्ध में श्रीमती एनी बेसेण्ट ने कहा था कि स्वतंत्र संस्थाएं मानसिक और नैतिक अनुशासन की सर्वोत्तम शिक्षण संस्थाएॅ हैं। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था कि स्वशासन ’ईश्वर की व्यवस्था और इच्छा है। प्रत्येक राष्ट्र को अपने भाग्य का स्वयं निर्णायक होना चाहिए।“

उदारवादियों का सामाजिक आधार :

भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में राष्ट्रीय आंदोलन का बदलता हुआ सामाजिक आधार एक बहुत बड़ी विशेषता थी। प्रारंभ में राष्ट्रीय आंदोलन का सामाजिक आधार बहुत संकुचित था क्योंकि यह केवल शहरी शिक्षित वर्ग तक ही सीमित था। इस सामाजिक आधार में औद्योगिक, व्यापारिक, पूँजीपतिवर्ग, ज़मींदार आदि शामिल नहीं थे। विशेषतया इसका नेतृत्व व्यावसायिक वर्ग तक सीमित रहा, जैसे वकील, डॉक्टर, पत्रकार, अध्यापक, कुछ व्यापारी तथा कुछ भूमिपति। इस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन का कार्य उच्च मध्य वर्ग अथवा शिक्षित अभिजात वर्ग के हाथ में था जिनका आम जनता की राजनीतिक समझ में बहुत कम विश्वास था। उनका मत था कि भारतीय जनता में आधुनिक राजनीति में सफलतापूर्वक संघर्ष करने की शक्ति व चरित्र की कमी है। इस एकांगी दृष्टि के फलस्वरूप प्रारंभिक राष्ट्रवादियों की कार्यप्रणाली बहुत सुस्त रही। जनता को संगठित करने में इनका योगदान बहुत कम रहा क्योंकि इनके मतानुसार अभी वह समय नहीं आया था जब भारतीय जनता विदेशी शासन को चुनौती दे सके।
परंतु राष्ट्रवादियों के इस एकांगीपन का अभिप्राय यह नहीं कि वे केवल उन वर्गों के संकुचित हितों के लिए लड़ें जो इसमें सम्मिलित हुए थे। इनकी विचारधारा और कार्यक्रम में भारत की जनता के उन सभी वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व था जो औपनिवेशिक शोषण का शिकार थे। परंतु किन्हीं कारणों से वे क्रिया-कलापों में आम जनता को सक्रिय नहीं कर पाए और न ही उन्होंने उन मुद्दों को उठाया जिनमें समाज के दो वर्गों के बीच संघर्ष होता। इन्हें साम्राज्यवादी सरकार के साथ समझौता करना पड़ा, वफ़ादारी की शपथ लेनी पड़ी और ब्रिटिश शासन के प्रति विनम्रता का रुख अख्तियार करना पड़ा।

उदारवादी युग की उपलब्धियॉं :

भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के प्रारंभिक चरण के नेताओं की प्रार्थना, अनुनय-विनय भरे स्वरों से ब्रिटिश शासकों पर कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हुआ और वर्षों तक भारतीयों की किसी माँग पर विचार नहीं किया गया। फिर भी भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में इसकी महत्वपूर्ण देन से इनकार नही किया जा सकता। कांग्रेस के उदारवादी नेता ही भारतीय राष्ट्रीयता के वास्तविक जनक थे और उन्होने ने ही राष्ट्रीय आन्दोलन की आधारशिला रख दी। उसे बहुत कुछ व्यापक बनाया और राष्ट्रवाद का सैद्धान्तिक और वैचारिक धरातल प्रस्तुत किया। सर्वप्रथम उन्होने ही साम्प्रदायिकता तथा प्रान्तीयता जैसी संकीर्ण भावनाओं से उपर उठकर भारतीय राष्ट्रीयता का नारा बुलन्द किया। इनके प्रयत्नों के फलस्वरूप ही भारत में राष्ट्रीयता की लहर दौड़ पड़ी और स्वशासन और प्रशासनिक सुधारों की मॉंग की जाने लगी। उदारवादी नेताओं के प्रयास से ही भारत के भिन्न-भिन्न कोनों में रहने वाले लोगों का पारस्परिक सम्पर्क हुआ और उनके बीच राजनीतिक विचारों का आदान-प्रदान हुआ। इन्होने ही भारतीयों का ध्यान प्रजातंत्र और प्रतिनिधियात्मक संस्थाओं की ओर आकर्षित किया। एक प्रकार से कहें तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव देने का श्रेय उदारवादी युग के नेताओं को ही जाता है। इन्होनें ही भारतीयों को अपने अधिकारों के लिए सरकार से लड़ना सिखाया। इनकी नीतियों में ही परिवर्तन लाकर ही बाद में कांग्रेस ने अपना लक्ष्य औपनिवेशिक स्वराज्य और पूर्ण स्वाधीनता घोषित किया।

प्रारंभिक कांग्रेस का तात्कालिक उद्देश्य भारत में प्रतिनिधियात्क संस्थाओं की स्थापना करना था। काँग्रेस को पहली सफलता 1892 ई0 में मिली जब इण्डियन कौंसिल एक्ट पारित किया गया था। 1889 ई0 में काँग्रेस के बम्बई अधिवेशन में ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स के वरिष्ठ सदस्य चार्ल्स ब्रेडला उपस्थित थे। चार्ल्स ब्रेडला भारतीय मामलों में सक्रिय रुचि दिखाते थे जिसके कारण ब्रिटिश संसद में लोग उन्हें भारत के लिए सदस्य के नाम से सम्बोधित करते थे। ब्रेडला ने विधान परिषदों में सुधार के विषय को लेकर काँग्रेस की माँगों को आधार बनाकर ब्रिटिश संसद के लिए विधेयक का एक प्रारूप बनाया था। वे चाहते थे कि इस विधेयक पर भारतीय नेताओं के परिपक्व विचार और प्रतिक्रियाएँ एकत्र कर यथासम्भव उनका विधेयक में समावेश कर सके।

बम्बई के इस अधिवेशन में एक प्रस्ताव पास किया गया जिसमें भारत की प्रतिनिधि संस्थाओं की योजना की एक रूपरेखा तैयार की गई। इस प्रस्ताव के समर्थकों में पण्डित मदन मोहन मालवीय, विपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, जी0 सुब्रह्मण्यम अय्यर आदि थे। फरवरी 1890 में चार्ल्स ब्रेडला ने इंग्लैण्ड पहुँचकर हाउस ऑफ कॉमन्स के सामने अपना भारतीय परिषद संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया। विधेयक के अनुसार केन्द्रीय और प्रान्तीय परिषदों का विस्तार होना था, सदस्यों की संख्या बढ़नी थी, परिषदों को आंशिक रूप में निर्वाचन के सिद्धान्त पर संगठित किया जाना था तथा उन्हें अधिक अधिकार दिए जाने थे। 1889 ई0 के काँग्रेस के अधिवेशन में पास की गई योजना तथा ब्रेड़ला के इस विधेयक को बाद में होमरूल स्कीम और होमरूल बिल के नामों से पुकारा गया। चार्ल्स ब्रेडला के इस विधेयक को पारित नहीं किया गया और 1891 ई0 में ब्रेडला की असामयिक मृत्यु भी हो गई। फिर भी ब्रेडला के इस प्रयास की महत्ता रही क्योंकि पहली बार इसमें भारतीय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों का प्रावधान किया गया और बाद में लिवरल पार्टी के विजय होने पर इसी विधेयक के आधार पर ब्रिटिश सरकार ने अपना भारतीय परिषद विधेयक पेश किया। संसद द्वारा पारित होने के बाद यही 1892 का अधिनियम बना। अधिनियम द्वारा केन्द्रीय और विधान परिषदों की संख्या पहले से बढ़ा दी गई और गर्वनर जनरल को परोक्ष निर्वाचन प्रणाली के सूत्रपात करने का अधिकार मिला। अधिनियम द्वारा कुछ नियमों के भीतर रहते हुए विधान परिषदों के सदस्यों को कार्यकारिणी परिषद से प्रश्न पूछने और बजट पर बहस करने का अधिकार दे दिया गया। ये अधिकार गवर्नर जनरल के विधान परिषद एवं प्रान्तीय विधान परिषद दोनों को दे दिया गया।

काँग्रेस की उपलब्धियों को अभिव्यक्त करते हुए गुरुमुख निहालसिंह ने लिखा है - “1892 का अधिनियम भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के प्रयत्नों का परिणाम था।“ इस अधिनियम के माध्यम से काँग्रेस की सफलता का मूल्याँकन करना अधिक उपयुक्त होगा। इसी सन्दर्भ में डॉ0 कश्यप लिखते हैं - “यद्यपि 1892 के अधिनियम द्वारा विधान परिषदों के सवालों को दिए गये अधिकार अत्यन्त सीमित थे तथा अब भी उन्हें मतदान करने, प्रस्ताव अथवा विधेयक पारित करने अथवा पूरक प्रश्न आदि के आवश्यक अधिकार नहीं मिले थे, किन्तु इतना निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि 1892 के अधिनियम ने यह स्वीकार कर लिया था कि विधान परिषदों का कार्य केवल मात्र विधायी अथवा परामर्श देने का नहीं था और इस दृष्टि से यह अधिनियम प्रतिनिधियात्मक सरकार की स्थापना का पहला प्रमुख कदम था। पहली बार इस अधिनियम ने शासन में कुछ प्रतिनिधियात्मक अंश का समावेश किया तथा भारतीय सदस्यो को भी सरकारी विधेयकों पर तथा बजट जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार प्रकट करने एवं सरकार के कृत्यों पर प्रश्न पूछने का अधिकार कुछ हद तक दे दिए गए। निःसन्देह यह अधिनियम सांविधानिक सुधारों की दिशा में प्रगतिशील चरण था।”

1892 के भारतीय परिषद के अधिनियम के पास हो जाने के बाद काँग्रेस के उदारवादी युग की माँगों में सर्वाधिक महत्त्व इस बात को दिया गया कि आई0 सी0 एस0 की परीक्षा भारत और इंग्लैण्ड में साथ-साथ हुआ करे। कॉंग्रेस के प्रयत्न सर्वथा व्यर्थ नहीं गये क्योंकि भारतीयों की इस माँग के समर्थन में ब्रिटिश लोकसभा ने एक प्रस्ताव पारित किया। 1893 ई0 में काँग्रेस अधिवेशन की दूसरी बार अध्यक्षता दादा भाई नौरोजी ने की जिन्हे इस दौरान ब्रिटिश लोकसभा का सदस्य चुन लिया गया। काँग्रेस के लिए यह गौरव की बात थी कि उसका एक सदस्य विदेशी हुकूमत की संसद का सदस्य था। काँग्रेस ने अपने विभिन्न अधिवेशनों में न केवल कतिपय राजनीतिक प्रश्नों की ओर विदेशी शासन का ध्यान आकर्षित किया अपितु भारत के व्यावसायिक और औद्योगिक दोनों प्रकार के हितों की रक्षा का भी प्रयत्न किया। काँग्रेस ने सरकार से 1898 के राजद्रोह विधेयक तथा 1704 के सरकारी रहस्य विधेयक जैसे दमनकारी कानूनों को हटा लेने का भी आग्रह किया। स्पष्ट है कि साधारण सफलताओं के बावजूद उदारवादी युग का भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में विशेष महत्व है।

इस सन्दर्भ में सी0 वाई0 चिन्तामणि ने लिखा है- “1905 तक कॉग्रेस समतल पथ पर दौड़ती रही। सार्वजनिक महत्ता का ऐसा कोई भी विषय नहीं था जिसने उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट न किया हो और विभिन्न विषयों पर पास किए गए प्रस्तावों में व्यक्त विचार आन्दोलन के नेताओं की राजनीतिक बुद्धिमत्ता के साक्षी थे।“

कांग्रेस के प्रति विभिन्न वर्गों की प्रतिक्रिया :

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी नेताओं के आदर्शो ने भारत के विभिन्न वर्गों पर तथा अंग्रेजों पर भिन्न-भिन्न प्रभाव डाले। परम्परागत सामंतवादी वर्गों में बच्चे-खुचे लोग तथा नये जमींदार, चाहे वे हिंदू हो या मुसलमान, भयभीत हो गए। कांग्रेस उस राजनैतिक व्यवस्था के लिए खतरे के रूप में दिखाई पड़ी जिसने उन्हें जन्म दिया और पाला-पोसा था इसलिए कांग्रेस के जन्म से ही उनके सामने अव्यवस्था और अनिश्चित भविष्य का एक चित्र उभर आया। फलतः यह वर्ग ब्रिटिश सरकार से और चिपक गया। जहां तक व्यापारी वर्ग का संबंध था, इनकी ज़रूरतें तात्कालिक और स्थायी दोनों थीं। ज्यों-ज्यों यह वर्ग अपनी स्थायी आवश्यकताओं के विषय में जागरूक होता गया और यह देखने लगा कि किस प्रकार ब्रिटिश सरकार उनकी पूर्ति में रोड़ा अटका रही है, त्यों-त्यों वह कांग्रेस की तरफ़ खिचता चला गया क्योंकि कांग्रेस देश के आर्थिक विकास के लिए इच्छुक थी।
जहॉं तक भारत के विशाल जनता के हितों का प्रश्न है, ब्रिटिश अधिकारी बड़े नाज़ से यह दावा करते थे कि हम लोग खेतों पर काम करने वाले किसानों के हितों के अभिभावक हैं पर तथ्य बिलकुल इसके विपरीत था जैसा कि दादा भाई ने कहा। महाजन, जमींदार और सरकार के कर्मचारी कोटि-कोटि मूक जनता का शोषण कर रहे थे। जनता का बड़ा भाग आम तौर से निरक्षर था। इसलिए जनता कांग्रेस के महत्त्व को ठीक से नहीं समझ सकी। पर कांग्रेस ने क्रमशः उनकी शिकायतों को दूर करने के लिए लड़ना शुरू किया। इस प्रकार कांग्रेस धीरे-धीरे उनकी सच्ची हितैषी तथा प्रतिनिधि संस्था के रूप में उभरने लगी।

परंतु इस आरंभिक राष्ट्रीय आंदोलन की सबसे आधारभूत कमी इसका संकुचित सामाजिक आधार था। आंदोलन को अभी सबका समर्थन प्राप्त नहीं था। इसका दायरा अभी सिर्फ़ पढ़े-लिखे शहरी भारतीयों तक ही सीमित था। खास तौर पर इस समय नेतृत्व वकील, डॉक्टर, पत्रकार, शिक्षक, कुछ व्यापारी तथा ज़मीं- दार-जैसे बुद्धिजीवी वर्गों के हाथ में था। वस्तुतः उदारवादी नेताओं को अभी राजनैतिक रूप से जनता पर विश्वास नहीं था। उनका विश्वास था कि अभी भारतीयों में उस समय की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति के विरुद्ध सफलतापूर्वक संघर्ष करने की क्षमता का अभाव है लेकिन उदारवादी नेताओं की यह सबसे भारी भूल थी। उन्होंने सिर्फ़ भारतीय जनता के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक पिछड़ेपन को ही देखा। लेकिन वे भूल गए कि एक साम्राज्यवादी शक्ति के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए जिस त्याग, वीरता और साहस की आवश्यकता है वह सिर्फ जनता ही कर सकती है। इसी जनसहयोग के अभाव की वजह से वे सोचते रहे कि अभी विदेशी सत्ता को चुनौती देने का समय परिपक्व नहीं है। बाद में आने वाले राष्ट्रवादी इससे बिलकुल विपरीत सोचते थे और भारतीय जनता की क्षमता में उनका पूर्ण विश्वास था लेकिन इस संकुचित सामाजिक आधार की वजह से हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि वे सिर्फ़ संकुचित हितों के लिए ही संघर्ष कर रहे थे। कांग्रेस की नीतियों में भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग के हितों का कुछ-न-कुछ ध्यान रखा गया था किंतु उदारवादी नेता साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष में सभी वर्गों को प्रेरित नहीं कर सके।

ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया :

अब प्रश्न यह उठता है कि कांग्रेस के प्रारंभिक 20 वर्षों के दौरान सरकार की प्रतिक्रिया क्या रही ? ब्रिटिश साम्राज्य की इमारत इतनी कमजोर नहीं थी कि कांग्रेस का बिगुल बजते ही गिर जाती। 19वीं सदी के अंतिम दशकों में साम्राज्य अपनी शक्ति और सम्मान के शिखर पर था। ब्रिटेन में जो लोग इस मत के थे कि इंग्लैंड को अपने देश में रहना चाहिए, वे कमजोर पड़ चुके थे और उदारवादियों का एक गुट भी साम्राज्यवाद का समर्थक हो चुका था। भारत सचिव सर्वशक्तिमान हो चुका था। उसके हाथ में अधिकार की सारी बागडोर आ गई थी और भारत सरकार महज लंदन में हुए फैसलों को कार्यान्वित करने का एक बार मात्र बनकर रह गई थी।

भारत सरकार ने, जो भारत सचिव को यहां के राजनैतिक विकास एवं गतिविधियों की सूचना दिया करती थी, कांग्रेस के क्रियाकलापों के प्रति कुछ कौतूहल प्रकट किया और इस आंदोलन में वह कुछ दिलचस्पी लेने लगी। 1886 में कांग्रेस के प्रतिनिधियों के लिए लार्ड डफरिन ने कलकत्ते में एक स्वागत समारोह किया। मद्रास वाले अधिवेशन में वहाँ के गवर्नर ने भी कुछ इसी प्रकार का शिष्टाचार किया। सरकारी अफ़सरों को इन अधिवेशनों में जाने दिया जाता था पर 1888 ई0 तक आते-आते सरकार का स्वरूप कांग्रेस के प्रति पूरी तरह बदल चुका था।

राष्ट्रीय आंदोलन की धारा इतनी प्रबल साबित हुई कि ब्रिटिश शासक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को, उस रास्ते पर न ला सके जिसपर वे ले जाना चाहते थे। कांग्रेस के जन्म के चार साल के अंदर ही वे उसकी मौत की कामना करने लगे। लार्ड डफरिन ने कांग्रेस के ही नहीं, ए0ओ0 ह्यूम के खिलाफ़ भी कटु वक्तव्य दिए। कांग्रेस के अंदर वे कौन से परिवर्तन आ गए जिनसे ब्रिटिश शासक चार साल के अंदर ही उसके विरोधी बन गए। राजभक्ति के बावजूद अपनी स्थापना के तुरन्त बाद कांग्रेस को सरकार के कोप का भागी होना पड़ा।

अपने पहले तीन अधिवेशनों के बाद ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कई परिवर्तन आ चुके थे। कांग्रेस ने वार्षिक सम्मेलन से आगे बढ़कर संगठित पार्टी का रूप लेना शुरू कर दिया था। कांग्रेस की लोकप्रियता बढ़ती जा रही थी, उसके प्रतिनिधियों की बढ़ती हुई संख्या का ग्राफ एक चार्ट के रूप में उपर वर्णित किया जा चुका है। कांग्रेस का नेतृत्व बुर्जुआ विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले बुद्धिजीवियों के हाथ में था जिनमें वकीलों की संख्या सबसे अधिक थी। 1887 ई0 तक कांग्रेस सिर्फ़ अग्रेज़ी पढ़े-लिखे लोगों का ही अड्डा नहीं रह गई थी हालाँकि नेतृत्व अभी उन्हीं के हाथों में था। प्रतिनिधियों के भाषण में देशी भाषा का भी इस्तेमाल शुरू हो गया था। ब्रिटिश शासक जिन लोगों को नहीं चाहते थे वे भी कांग्रेस में प्रवेश कर चुके थे और ब्रिटिश शासक जिस रास्ते पर उसे ले जाना चाहते थे, उसके विपरित रास्ता कांग्रेस ने अपनाना शुरू कर दिया था। भारत का शासन चलाने वाले ब्रिटिश शासकों, वायसराय और गवर्नरों की कौंसिल के सदस्यों की कटु आलोचना कांग्रेस के मंच से शुरू हो गई थी। कांग्रेस ने राष्ट्रीय आंदोलन के शक्तिशाली अस्त्र का रूप धारण करना शुरू कर दिया था। यही वजह थी कि मद्रास के बाद डफरिन और अन्य ब्रिटिश शासक कांग्रेस के खिलाफ़ हो गए और उसे समाप्त करने की सोचने लगे।

1888 ई0 का वर्ष भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में बड़े संकट का वर्ष था। मद्रास कांग्रेस के अवसर पर उत्तर और दक्षिण भारत में वितरित पुस्तिकाओं में अपनी आलोचना देखकर ब्रिटिश नौकरशाह आगबबूला हो गए और कांग्रेस को खत्म करने के लिए उसपर टूट पड़े। ब्रिटिश नौकरशाही ने जोर डालकर और तिकड़मबाजी से मुसलमानों, पारसियों और हिंदुओं के एक बहुत बड़े हिस्से को, ज़मींदारों और धनिक वर्ग के व्यक्तियों को, कांग्रेस से अलग कर देने और उसका दुश्मन बना देने की भरपूर कोशिश की। लेकिन यदि कांग्रेस केवल भारतीय समाज के छोटे अंश का ही प्रतिनिधित्व करती रहती, जनगण से संपर्क स्थापित करने और उससे हमदर्दी दिखाने का प्रयत्न न करती तो ब्रिटिश शासक उसका विरोध कदापि न करते। वस्तुतः कांग्रेस ब्रिटिश शासकों की इच्छा के विपरीत जा रही थी। डफरिन ने हुक्म जारी किया कि कोई भी सरकारी नौकर किसी राजनैतिक संगठन के लिए पैसे इकट्ठे नहीं कर सकता। कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में जिला अधिकारी की आज्ञा के विरुद्ध शामिल होने के लिए एक व्यक्ति को 20,000 रुपए की ज़मानत देने को कहा गया। एक आदेश में कहा गया कि इन सभाओं में दर्शकों के रूप में भी सरकारी अफ़सरों का शामिल होना मना है। 1890 ई0 में सुरेन्द्र नाथ बनर्जीष् जी0 के0 गोखले, एम0 जी0 रानाडे, दादा भाई नौरोजी जैसे नेताओं को अलग करने के भी प्रयास किये गये। कांग्रेस की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई लोकप्रियता से लार्ड कर्ज़न को काफ़ी नाराज़गी हुई और वह इस संगठन को खत्म करना चाहता था। उसने 1900 में भारत सचिव को लिखा- “कांग्रेस धीरे-धीरे लड़खड़ाकर गिर रही है और भारत में रहते हुए मेरी यह बहुत बड़ी आकांक्षा है कि मैं इसकी शांतिपूर्ण मृत्यु में सहायक बनूं।”

ब्रिटिश अधिकारी बढ़ते हुए राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रति ’फूट डालो और राज्य करों’ की नीति का अनुसरण कर रहे थे। उन्होंने इस बात को महसूस किया कि भारतीय लोगों की बढ़ती हुई एकता उनके राज्य के लिए बहुत बड़ा खतरा थी इसलिए ब्रिटिश अधिकारियों ने सर सैयद अहमद खाँ, राजा शिवप्रसाद तथा कुछ अन्य ब्रिटिश समर्थक लोगों को कांग्रेस-विरोधी आंदोलन शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के बीच भेद-भाव उत्पन्न करने की कोशिश की। सरकारी नौकरियों के प्रश्न पर अंग्रेजों ने शिक्षित हिंदू और मुसलमानों में फूट डालने और सांप्रदायिकता की भावना को बढ़ावा देने का प्रयास किया। हिंदी और उर्दू भाषा तथा कट्टर हिंदुओं द्वारा शुरू किए गए गोरक्षा आंदोलन का उपयोग भी इसी मतलब के लिए किया गया। ’फूट डालो और राज्य करो’ की नीति हिंदू और मुसलमानों में भेद डालने तक ही सीमित नहीं थी, वरन् अँग्रेजों ने प्रारंभिक सामंत वर्ग को नए बुद्धिजीवी वर्ग के, प्रांत को प्रांत के, जाति को जाति के विरुद्ध करने की भरसक कोशिश की।

सर सैयद अहमद खॉं ने कांग्रेस का विरोध आरंभ से ही किया था। कांग्रेस सभी धर्मवालों को एक मंच पर ला रही थी। सर सैयद अहमद खॉं को यह पसंद नहीं था इसलिए उन्होंने मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रहने को कहा लेकिन उनके विरोध के बावजूद मुसलमानों पर कांग्रेस का प्रभाव बढ़ रहा था। मुसलमान प्रतिनिधियों की संख्या प्रथम कांग्रेस अधिवेशन में 2 और दूसरे अधिवेशन में 33 थी। तीसरे कांग्रेस अधिवेशन में तो उसका अध्यक्ष ही मुसलमान था तथा कितने ही मुसलमानों ने कांग्रेस को सफल बनाने में मदद की। मुसलमानों में कांग्रेस के प्रभाव को बढ़ते देखकर सैयद अहमद खॉं खुश नहीं थे। अतः कांग्रेस का विरोध करने के लिए उन्होंने दो संगठन बनाए - मोहम्मडन ऐजूकेशन कॉन्फ्रेंस और यूनाइटेड पेट्रियोटिक एसोसिएशन। पहले संगठन का लक्ष्य मुसलमानों को कांग्रेस से अलग करना था और दूसरे का लक्ष्य था सारे विरोधियों को, खासकर कांग्रेस-विरोधी हिंदू-मुस्लिम ताल्लुकेदारों को, एक मंच पर ले आना और कांग्रेस के विरुद्ध सरकार के पक्ष में खड़ा करना लेकिन इतने विरोध के बावजूद कांग्रेस के अधिवेशन सफल रहे।

थक हार कर ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं को संतुष्ट करने की कोशिशें प्रारंभ की और इसके परिणामस्वरूप 1892 ई0 में इंडियन काउंसिल ऐक्ट पारित किया गया। इस क़ानून के जरिए लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्यों को बजट पर बहस करने और जनहित के मामलों के बारे में सवाल पूछने का हक़ दिया गया। लेकिन इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार ने दमन की नीति जारी रखी, जैसे- तिलक और अन्य राष्ट्रीय नेताओं को गिरफ्तार किया। 1895 ई0 समाचारपत्रों की स्वतंत्रता कम करने के लिए कानून बनाए गए और पुलिस तथा मजिस्ट्रेटों की शक्तियों में वृद्धि की गई। ब्रिटिश सरकार ने यह सोचा कि शिक्षा के प्रसार के कारण राष्ट्रवाद का विकास हुआ है, अतः 1903 के अधिनियम द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में स्कूलों के निरीक्षण की व्यवस्था कर स्वतंत्रता को समाप्त करने का प्रयास किया गया।

आलोचनात्मक मूल्यांकन :

बहुत से आलोचकों ने इस समय के उदारवादी राष्ट्रीय नेताओं की उपलब्धियों की आलोचना की है। उस समय इनके प्रयत्नों से कोई विशेष तात्कालिक राजनैतिक लाभ नहीं हुआ। उन्होंने बहुत से सुधारों के लिए संघर्ष किया था जिसमें से बहुत कम में उन्हें सफलता मिल सकी। बाद में लाला लाजपतराय ने लिखा - “बीस वर्ष तक रियायतों तथा दुःखों को दूर करने के असफल संघर्ष करने के बाद इन्हें रोटी के बदले पत्थर ही प्राप्त हुए।“ सरकार उदार होने की बजाय और भी दमनकारी होती गई। इन आलोचकों के अनुसार प्रारंभिक राष्ट्रीय आंदोलन जनता के बीच जड़ें जमाने में असफल रहा। यहाँ तक कि जिन लोगों ने ऊँची-ऊँची आशाएं लेकर इसमें प्रवेश किया था, वे भी निराश हुए। उदारवादियों की आवेदन-निवेदन की नीति को उन्होंने ’भिक्षा माँगने’ की नीति कहकर खिल्ली उड़ाई। उनका कहना था कि इनका कार्यक्रम पूंजीवाद के संकुचित दायरे में ही सीमित था। आलोचकों ने उदारवादियों के प्रयासों को असफल बताया।

इस बात में संदेह नहीं कि इनकी तात्कालिक उपलब्धियाँ नगण्य थीं और उन्नीसवीं शताब्दी में बदलते हुए ब्रिटिश शासन की प्रकृति के कारण उनकी कई राजनैतिक धारणाएँ ग़लत साबित हुईं। युवा वर्ग इनसे संतुष्ट नहीं था। 1905 तक राष्ट्रीय आंदोलन की धारा तीव्र हो रही थी और नेतृत्व उग्रवादी लोगों के हाथ में आ रहा था। लेकिन जिन परिस्थितियों में उन्होंने यह कठिन कार्य अपने हाथों में लिया और जो कठिनाइयाँ उनके सम्मुख आई, उनको देखते हुए इस युग के नेताओं की उपलब्धियों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। 1885-1905 ई0 तक काल भारतीय राष्ट्रवाद के बीजारोपण का काल कहा जा सकता है। इसलिए अनेक असफलताओं के बावजूद प्रारंभिक राष्ट्रवादियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन की सुदृढ़ नींव डाली और ऐसे मार्ग का निर्माण किया जिसपर चलकर आजादी प्राप्त की जा सके। उदारवादी नेता मध्य वर्ग तथा निम्न मध्य वर्ग में इस राष्ट्रीय भावना को जगाने में सफल रहे कि वे एक ही राष्ट्र से संबंधित हैं। उन्होंने भारतीयों को सामान्य राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक हितों के प्रति जागरूक किया। उन्होंने उन्हें सामान्य शत्रु से परिचित कराया और इस प्रकार एक सामान्य राष्ट्रीयता की भावना को सुदृढ़ बनाने में सहायता की। उदारवादियों ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की एक सशक्त आर्थिक समीक्षा प्रस्तुत की जिसने यह सिद्ध कर दिया था कि भारत की ग़रीबी, बेकारी और आर्थिक पिछड़ापन अंग्रेजों के कारण है। इस समीक्षा से ब्रिटिश राज का नैतिक आधार कमजोर हुआ और राष्ट्रीय चेतना को बल मिला। उन्होंने जनता को अपनी आर्थिक दुर्दशा और अपमानित स्थिति से तथा उसमें सुधार की संभावना से परिचित कराया। उन्होंने अस्पष्ट आर्थिक आकांक्षाओं को एक सुस्पष्ट राष्ट्रवादी स्वरूप दिया तथा आर्थिक विकास के विचारों का प्रचार किया, मार्ग की आर्थिक और राजनैतिक बाधाओं और उनपर विजय पाने के उपायों का निर्देश किया। यह कहना गलत नहीं होगा कि अपनी, कई असफलताओं के बावजूद उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के लिए सुदृढ़ नींव रखी। इस समय के लगभग सभी राष्ट्रवादी नेताओं की राजनैतिक गतिविधि जनता को सावधानी के साथ राजनैतिक शिक्षा देने तथा आधुनिक राजनैतिक और राष्ट्रवादी चिंतन तथा गतिविधि से अवगत कराने के ही उद्देश्य से प्रेरित थी। अतः हमारी दृष्टि में वे आधुनिक भारत के निर्माताओं में गौरवमय स्थान रखते हैं।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उदारवादी युग का एक निगाह में सिंहावलोकन करने से यह आसानी से मालूम हो जाता है कि उनकी मनोरचना किस प्रकार हुई थी। अपने प्रारंभिक 20 वर्षों में जबकि भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में कोई पथ प्रदर्शक नही था, प्रारंभिक नेताओं ने जो रूख अख्तियार किया था उसके लिए हम उन्हे बुरा नहीं कह सकते। किसी भी आधुनिक इमारत की नींव में 6 फुट नीचे जो ईंट, चूना और पत्थर गडे़ होते है क्या उसपर कोई दोष लगाया जा सकता है? क्योंकि वहीं तो है जिसपर सारी इमारत खड़ी हो सकी है। पहले उपनिवेशों के ढ़ंग का स्वशासन, फिर साम्राज्य के अन्तर्गत स्वशासन और उसके बाद स्वराज्य की मंजिले, एक के बाद एक बन सकी है। अपनी समझ और अपनी क्षमता के अनुसार, उन्होने बहुत परिश्रम और भारी कुर्बानियॉं की थी। आज हमारा रास्ता साफ है और हमारा लक्ष्य स्पष्ट है तो यह सब हमारे उन्ही प्रारंभिक उदारवादी नेताओं की बदौलत है कि उन्होने अपने मेहनत से इस अखिल भारतीय संस्था को साम्राज्यवाद केेेेेेेेे चंगुल से जीवित बचाए रखा। अतएव इस अवसर पर हम उन तमाम उदारवादी प्रारंभिक नेताओं और महापुरूषों के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रदर्शित करें जिन्होनें कि हमारे सार्वजनिक जीवन की आरंभिक मंजिलों में प्रगति की गाड़ी को आगे बढ़ाया था।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन :




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