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Dada Bhai Naoroji. | दादा भाई नौरोजी

 


दादा भाई नौरोजी (1825-1917)-
Dada Bhai Naoroji (1825-1917
)

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के शैशव-काल के नेताओं में दादाभाई नौरोजी का नाम सर्वप्रमुख है। उन्होंने 61 वर्ष तक राष्ट्र की सेवा की, 40 वर्ष तक कॉंग्रेस की स्थापना के पूर्व और 21 वर्ष तक उसके बाद। उन्हें प्यार और आदर से ’भारत का ओजस्वी पितामह’ (ळतंदक वसक उंद वि प्दकपं) कहा जाता है। डॉ० पट्टाभि सीतारमैया ने उनके बारे में लिखा है कि- ’राष्ट्र के गणमान्य नेताओं की सूची में पहला नाम दादाभाई नौरोजी का है, जिन्होंने काँग्रेस के साथ उसके जन्म से सम्पर्क स्थापित कर जीवन पर्यन्त उसकी सेवा की और जो विकास के सब पहलुओं में उसके साथ रहे। उन्होंने कॉंग्रेस को प्रशासन सम्बन्धी शिकायतों को दूर करवाने वाली संस्था की तुच्छ स्थिति से उठाकर राष्ट्रीय संस्था को गौरवपूर्ण स्थिति तक पहुँचाया. जिसने स्वराज्य को अपना निश्चित उद्देश्य बनाकर उसकी प्राप्ति के लिए कार्य करना प्रारम्भ किया। सी० वाई० चिन्तामणि ने उनके सम्बन्ध में लिखा है कि- ’61 वर्षों तक दादाभाई नौरोजी ने विकट परिस्थितियों से लड़ते हुए पूर्ण निःस्वार्थ और विश्वास के साथ तथा एक उद्देश्य के लिए मातृभूमि की सेवा करते रहे। ..... वे आत्माओं में महान, निर्णयों में अत्याधिक उदार तथा अजातशत्रु थे। व्यक्तिगत चरित्र तथा सार्वजनिक क्षेत्र में दादाभाई नौरोजी अपने देशवासियों के लिए एक अनुकरणीय आदर्श थे।‘‘

दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितंबर, 1825 को मुम्बई के एक ग़रीब पारसी परिवार में हुआ। जब दादाभाई 4 वर्ष के थे, तब उनके पिता का देहांत हो गया। उनकी माँ ने निर्धनता में भी बेटे को उच्च शिक्षा दिलाई। उच्च शिक्षा प्राप्त करके दादाभाई लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज में पढ़ाने लगे थे। लंदन में उनके घर पर वहां पढ़ने वाले भारतीय छात्र आते-जाते रहते थे जिनमें गॉंधी जी भी एक थे। मात्र 25 बरस की उम्र में एलफिनस्टोन इंस्टीट्यूट में लीडिंग प्रोफेसर के तौर पर नियुक्त होने वाले पहले भारतीय बने। नौरोजी वर्ष 1892 में हुए ब्रिटेन के आम चुनावों में ’लिबरल पार्टी’ के टिकट पर ’फिन्सबरी सेंट्रल’ से जीतकर भारतीय मूल के पहले ’ब्रितानी सांसद’ बने थे। नौरोजी ने भारत में कांग्रेस की राजनीति का आधार तैयार किया था। उन्होंने कांग्रेस के पूर्ववर्ती संगठन ’ईस्ट इंडिया एसोसिएशन’ के गठन में मदद की थी। बाद में वर्ष 1886 में वह कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। उस वक्त उन्होंने कांग्रेस की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाई। नौरोजी गोपाल कृष्ण गोखले और महात्मा गांधी के सलाहकार भी थे।

दादाभाई नौरोजी ने 1886, 1893 और 1906 में तीन बार काँग्रेस के सभापति का पद ग्रहण किया। उन्होंने अपने जीवन-काल में कम-से-कम तीस संस्थाएं स्थापित कीं। उनमें से अधिकांश का उद्देश्य देश की राजीनतिक उन्नति करना था। उन्होंने शिक्षा और समाज-सुधारों के लिए भी संस्थाएँ खोलीं। देश-हित के लिए समर्थन प्राप्त करने के हेतु उन्होंने इंगलैंड में एक ब्रिटिश ’इण्डिया सोसाइटी’ की स्थापना की। उन्होंने एक समाचार-पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया। वे कुछ समय तक बड़ौदा के प्रधानमंत्री रहे तथा वहाँ पर कई सुधार कार्य किये।

दादाभाई नौरोजी पक्के उदारवादी थे। उन्हें अंग्रेजों की न्याय-परायणता में पूर्ण विश्वास था। वे पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के प्रशंसक थे। उनके विचार में भारत का ब्रिटेन से सम्बन्ध उसके लिए हितकारी होगा। क्रमिक सुधारों तथा सांवैधानिक विधियों में उन्हें विश्वास था। उनकी भाषा बड़ी ही शान्त और संयत थी, लेकिन आगे चलकर सरकार की प्रतिगामी नीति के कारण उनके स्वभाव तथा भाषा में उग्रता आ गयी। वे इंगलैंड में स्थायी रूप से बस गये। वे प्रथम भारतीय थे जो ब्रिटिश लोकसभा के सदस्य चुने गये थे।

वयोवृद्ध तथा सर्वमान्य राजनीतिज्ञ के रूप में उन्होंने 1906 ई० में काँग्रेस को आपसी संघर्ष से बचाया। वर्ग-विभाजन के प्रश्न पर गरमपंथियों को पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हो चुकी थी तथा इनको आशंका थी कि कॉंग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए उग्रवादियों तथा सुधारवादियों में खुल्लमखुला संघर्ष हो जायगा। लेकिन दोनों पक्षों ने दादाभाई नौरोजी को अध्यक्ष पद के लिए सहर्ष स्वीकार कर लिया और कांग्रेस के सिर से संकट टल गया। इसी अधिवेशन में दादा भाई नौरोजी ने घोषणा की कि कॉंग्रेस का लक्ष्य ’स्वशासन अथवा स्वराज्य’ (Self Government or Swaraj)की प्राप्ति है।  दादाभाई नौरोजी ने कहा “हम दया की भीख नहीं मांगते, हम केवल न्याय चाहते हैं, ब्रिटिश नागरिक के समान अधिकारों का ज़िक्र नहीं करते, हम स्वशासन चाहते है।“ अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने भारतीय जनता के तीन मौलिक अधिकारों का वर्णन किया है। ये अधिकार थे-

1. लोक सेवाओं में भारतीय जनता की अधिक नियुक्ति।

2. विधानसभाओं में भारतीयों का अधिक प्रतिनिधित्व।

3. भारत एवं इंग्लैण्ड में उचित आर्थिक सबन्ध की स्थापना।

दादाभाई नौरोजी के नेतृत्व में ही कॉंग्रेस ने उग्रवादी युग में पदार्पण किया तथा कतिपय क्रान्तिकारी कार्यक्रमों को अपनाया। बहिष्कार आन्दोलन को वैधता प्रदान करवाना, स्वदेशी आन्दोलन को कॉंग्रेस का सहयोग दिलवाना तथा राष्ट्रीय शिक्षा के कार्यक्रम को लागू करवाने का पूर्ण श्रेय दादाभाई नौरोजी को ही था।

दादा भाई ने व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों में नैतिक शक्ति का आह्वान किया। नैतिकता ही किसी सत्ता को स्थायित्व दे सकती है। राजनैतिक सत्ता के नैतिक आधार की उन्होंने जबरदस्त वकालत की और स्पष्ट किया कि न्याय उदारता और भावना की आधारशिलाओं पर ही राजनैतिक व्यवस्था की एकता कायम रखी जा सकती है। कोई भी राजनैतिक व्यवस्था यदि वह पाशविक बल पर आधारित है तो कभी भी चिरस्थायी नहीं हो सकती। सन् 1893 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण के दौरान उनके द्वारा कथित वक्तव्यों से उनका राजनीतिक चारित्रिक मनोवृत्ति का स्पष्टीकरण मिलता है, किसी भी साम्राज्य का निर्माण भले ही अस्त्र-शस्त्रों के बल पर हो सकता है पर उसका परीक्षण केवल शाश्वत नैतिक शक्ति के आधार पर ही सम्भव है। अतः यह आवश्यक है कि सैनिक अथवा अस्त्र बल की अपेक्षा शुभ संकल्पों एवं पारस्परिक दृढ़ विश्वास को राजनीतिक शक्ति का आधार बनाया जाए। इंग्लैण्ड ने पाशविक बल और उत्तेजना की नीति का अनुसरण किया तो यह निश्चित है कि उसका साम्राज्य विघटन की ओर अग्रसर होगा।

दादा भाई नौरोजी ने ब्रिटिश प्रशासन, ब्रिटिश संस्थाओं और ब्रिटिश चरित्र की जहाँ उन्मुक्त हृदय से प्रशंसा की वहाँ दोषों की निर्भीक आलोचना से भी वे कतराये नहीं। उन्होंने विश्वास किया कि ब्रिटिश जनता अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान बनी रही तो भारत स्वशासन की दिशा में निश्चयपूर्वक आगे बढ़ सकेगा। दादा भाई नौरोजी का कहना था कि जनता को अपने दुखड़ों के आगे ब्रिटिश शासन की अच्छाइयों को नहीं भूलना चाहिए। इस देश में ब्रिटिश शासन के स्थायित्व को मानकर ही आगे कदम उठाया जा सकता है; क्योंकि उसी पर हमारी आशाएँ निर्भर हैं। भारत का भाग्य ब्रिटिश शासन के साथ जुड़ा हुआ है और किसी अन्य शासनों को हम अपने सिर पर नहीं लादना चाहते। ब्रिटिश शासन के इस पीछे दादा भाई नौरोजी के मन में गौरी हुकूमत का कोई भय या आतंक नहीं गुणगान था। दादा भाई एक उदारवादी राजनीतिज्ञ थे जो भारत की आवाज, योग और आवश्यकता को संयुक्त भाषा में संवैधानिक ढंग से पेश करना चाहते थे। दादा भाई के अनुसार ब्रिटिश शासन प्रणाली विनाशकारी और निरंकुश है तथा इंग्लैण्ड के लिए आत्मघाती एवं उसके राष्ट्रीय चरित्र, आदर्शों, परम्पराओं के प्रतिकूल है। उन्होंने इस शासन व्यवस्था को एक क्रूर स्वांग की संज्ञा देते हुए इसमें व्यावहारिक परिवर्तन की माँग की। दादा भाई ने बताया कि इंग्लैण्ड को भारत से प्रतिवर्ष कितना धन प्राप्त होता है और किस तरह भारतीय शासन में भारतीयों को नियुक्त नहीं किया जाता। यदि वर्तमान निर्गम बन्द कर दिया जाए और देश के विधि निर्माणकारी गतिविधियों में भारतीय प्रतिनिधियों को अपनी राय प्रकट करने का अधिकार दे दिया जाए तो भारतीयों को ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत उज्ज्वल और सहज भविष्य की आशा हो सकती है।

दादा भाई ने भारत के पक्ष में ब्रिटेन में निरर्थक प्रचार किया। उन्हें विश्वास था कि यदि ब्रिटिश जनता को भारतीय स्थिति और भारतीय समस्याओं तथा मानव के प्रति सही जानकारी दी गई और भारत के बारे में ब्रिटिश जनता का अज्ञान मिटा दिया गया तो दोनों देशों के सम्बन्ध सुदृढ़ हो जायेंगे और दोनों ही देशों को इससे स्थायी लाभ होगा। इसी अनुभूति के कारण दादा भाई नौरोजी ने डब्ल्यू0 सी0 बनर्जी की सहायता से लन्दन इण्डियन सोसायटी की स्थापना की, जिसका उद्देश्य अंग्रेजों और भारतीयों का सम्पर्क बढ़ाना था। एसोसियेशन के समारोह में दादा भाई नौरोजी ने स्पष्ट रूप से घोषणा की कि भारत का शासन भारत के हित में ही होना चाहिए। उन्होंने अपनी शिकायतों की एक लम्बी सूची तैयार कर ब्रिटिश शासकों के समक्ष पेश की जिसमें शिक्षा के मामले में उदासीनता, भारतीय शासन में भारतीयों को उचित स्थान न देना, बार-बार अकाल पड़ना, सिंचाई और आवागमन के साधनों का अभाव आदि प्रदर्शित किया। दादा भाई ने ब्रिटिश जनता की नैतिकता को टकसाते हुए अनुरोध किया कि वह अपने स्वभाव और आदर्शों के अनुरूप ही भारत पर शासन करे और जो कुछ उसके कर्त्तव्य हों उन्हें ईमानदारी से पूरा करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दे। दादा भाई ने प्रस्ताव किया कि भारत और इंग्लैण्ड में सिविल सर्विस के लिए एक साथ प्रतियोगितात्मक परीक्षा की व्यवस्था हो। दादा भाई ने “भारत में भारतीय कर्मचारियों की कार्यक्षमता के प्रमाण” नामक एक 95 पृष्ठ की पुस्तिका अंग्रेज को सौंपते हुए सिद्ध किया कि शासन के विभिन्न विभागों में उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर नियुक्त शिक्षक भारतीयों ने योग्यता और ईमानदारी से काम किया है और कर रहे हैं। दादा भाई नौरोजी ने कहा कि नैतिकता और संवैधानिक विधि दोनों का तकाजा है कि इंग्लैण्ड भारत पर भारतवासियों के कल्याण के लिए ही शासन करे। ब्रिटिश शासन का शासित राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य है कि वह भारत में फैली हुई विभिन्नता, निर्मम कष्टों को दूर करे। भारतीयों को राजनीतिक और आर्थिक कष्टों से छुटकारा दिलाने में ही ब्रिटिश चरित्र की नैतिकता है।

दादा भाई ने ब्रिटिश निरंकुश साम्राज्यवाद की नैतिक बुराइयों का पर्दाफाश किया। उन्होंने कहा कि साम्राज्यवाद न केवल प्रशासनिक बुराइयों का अपितु गम्भीर आर्थिक हलचलों का भी जनक है। निरंकुश शासनों का औपनिवेशिक जनता के साथ अहंकार और अत्याचारपूर्ण व्यवहार करने की आदत पड़ गई है। दादा भाई ने चेतावनी दी कि इंग्लैण्ड ने संवैधानिक सरकार के लिए जो वीरतापूर्ण संघर्ष किये हैं उनका इतिहास वास्तविक रूप में गौरवपूर्ण है। 10 जनवरी 1906 ई0 में गोखले के सम्मान में आयोजित एक रात्रि भोज में दादा भाई नौरोजी ने अभिव्यक्त किया था, “जिन उपनिवेशों को स्वशासन का अधिकार मिल गया है वे समृद्ध हो रहे हैं। भारत को स्वशासनाधिकार नहीं मिला है इसलिए उसकी दशा दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। लेकिन हमारा इतने वर्षों का आन्दोलन असफल नहीं हो गया है।” यदि भारत की समस्त जनता एक बार कह दे कि हम स्वशासन के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हैं और यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है तो उनका कहना अभी बेकार जा ही नहीं सकता। दादा भाई का व्यवहार लगातार उग्र होता चला गया। सन् 1900 ई0 में नेग्टिव रिफार्म क्लब में काँग्रेस अध्यक्ष बनने से पूर्व उन्होंने कहा था- “यह कहा जाता है शासकों ने सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए कानून बनाया है, परन्तु वास्तव में यह कानून इसलिए बनाया गया है कि वे सुरक्षित ढंग से हमारी सम्पत्ति उठा ले जा सकें। ब्रिटिश सरकार अकाल, महामारी और भुखमरी द्वारा लाखों लोगों को बड़ी सादगी और वैज्ञानिक ढंग से मार रही है। अंग्रेज उन प्रवीण शल्य चिकित्सकों की तरह हैं जो अपने तेज औजारों से दिल को काटकर खून की एक-एक बूंद तक निकाल लेते हैं और उसका निशान तक नहीं छोड़ते।” 

भारतीय जनता की निर्धनता उनके लिए गहरी चिन्ता का विषय थी। उन्होंने अपने भाषणों तथा लेखों में भारतीयों की निर्धनता के कारण का उल्लेख किया। अपनी ‘पोवर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इण्डिया‘ (Poverty and Unbritish rule in India)नामक कृति में उन्होंने इस समस्या का विशेष रूप से विश्लेषण किया। उनका कहना था कि ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप भारत की सम्पत्ति ब्रिटेन में खिंची जा रही है और भारत प्रतिदिन निर्धन होता जा रहा है। उनकी महान् कृति ‘‘पॉवर्टी ऐंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया‘‘ ’राष्ट्रीय आंदोलन की बाइबिल’ कही जाती है। 

देश और समाज की सेवा के लिए समर्पित दादाभाई नौरोजी नरमपंथी नेताओं के तो आदर्श थे ही, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जैसे गरमपंथी नेता भी उन्हे प्रेरणास्त्रोत मानते थे। तिलक ने दादाभाई के साथ रहकर वकालत का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया। दादाभाई बीच-बीच में इंग्लैण्ड जाते रहे, परन्तु स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण वे प्रायः स्वदेश में रहे और 92 वर्ष की उम्र में 30 जून, 1917 को मुम्बई भारत में ही उनका देहान्त हुआ। वे भारत में राष्ट्रीय भावनाओं के जनक थे और उन्होंने ही देश में स्वराज की नींव डाली।


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