गोपाल कृष्ण गोखले (1866.1915)-Gopal Krishna Gokhle
महादेव गोविन्द रानाडे के शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले को वित्तीय मामलों की अद्वितीय समझ और उस पर अधिकारपूर्वक बहस करने की क्षमता से उन्हें भारत का ’ग्लेडस्टोन’ कहा जाता है। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सबसे प्रसिद्ध नरमपंथी थे। चरित्र निर्माण की आवश्यकता से पूर्णतः सहमत होकर उन्होंने 1905 में सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी की स्थापना की ताकि नौजवानों को सार्वजनिक जीवन के लिए प्रशिक्षित किया जा सके। उनका मानना था कि वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा भारत की महत्वपूर्ण आवश्यकता है। स्व-सरकार व्यक्ति की औसत चारित्रिक दृढ़ता और व्यक्तियों की क्षमता पर निर्भर करती है। महात्मा गॉंधी उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानते थे।
गोपालकृष्ण गोखले का जन्म रत्नागिरी कोटलुक ग्राम में एक सामान्य परिवार में कृष्णराव के घर 9 मई 1866 को हुआ। पिता के असामयिक निधन ने गोपालकृष्ण को बचपन से ही सहिष्णु और कर्मठ बना दिया था। देश की पराधीनता गोपालकृष्ण को कचोटती रहती। राष्ट्रभक्ति की अजस्र धारा का प्रवाह उनके अंतर्मन में सदैव बहता रहता। इसी कारण वे सच्ची लगन, निष्ठा और कर्तव्यपरायणता की त्रिधारा के वशीभूत होकर कार्य करते और देश की पराधीनता से मुक्ति के प्रयत्न में लगे रहते। उन्होंने अपना जीवन एक स्कूल शिक्षक के रूप में शुरू किया और अन्त में फरगुसन कॉलेज के प्रिंसिपल के पद पर आसीन हुए। बाल्यावस्था से ही उनकी प्रतिभा असाधारण थी। इकतीस वर्ष की उम्र में उन्होंने रायल कमीशन के समक्ष भारतीय वित्त पर बयान दिया तथा अपने देशवासियों की भावना को व्यक्त किया। 1902 ई० में वे राजकीय विधायिका परिषद् (Imperial Legislative counsil) के सदस्य नियुक्त हुए जहाँ उन्होंने कर्जन की प्रतिगामी नीति का डटकर विरोध किया। बंग-विभाजन के फेसले से वे एकदम बौखला उठे तथा ब्रिटिश नौकरशाही से असहयोग की शपथ खायी। उन्होने केवल 39 वर्ष की उम्र में 1905 में काँग्रेस के अध्यक्ष का भार संभाला। अंग्रेज शासकों को भारतीय जनमत से अवगत कराने के लिए उन्हें दो बार इंगलैंड भेजा गया। उनके द्वारा स्थापित संस्था का प्रमुख उद्देश्य देश के युवकों को देश-भक्ति, समाज- सेवा तथा कर्त्तव्यपरायणता की शिक्षा देना था। उन्होंने 1892 ई० के भारतीय परिषद् अधिनियम की कठोर आलोचना की तथा 1909 ई० के मार्ले-मिण्टो सुधार अधिनियम के निर्माण में काफी हाथ बंटाया। 1912 में गोपाल कृष्ण गोखले दक्षिणी अफ्रीका गये जहाँ उन्होंने रंग-भेद नीति के विरुद्ध संघर्ष में महात्मा गांधी का साथ दिया। उनके प्रयास के फलस्वरूप ही महात्मा गांधी ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया। लार्ड-विलिंगटन के कहने पर गोखले ने एक सुधार-योजना तैयार की जो ’गोखले का राजनीतिक वसीयतनामा‘ के नाम से प्रकाशित हुआ।
गोपाल कृष्ण गोखले एक कर्मठ तथा परिश्रमी व्यक्ति थे और उनका ज्ञान विशाल तथा बहुमुखी था। वे स्पष्टवादी तथा मृदुभाषी थे। वे इतने ईमानदार बुद्धिजीवी थे कि वे बिना पूरी तरह सोचे-समझे कोई विचार अभिव्यक्त नहीं करते थे। गोखले न्यायाधीश रानाडे के राजनीतिक तथा आध्यात्मिक शिष्य थे। वे उदारवादी नेता के रूप में क्रमिक सुधारों के पक्षधर थे। वे एकाएक स्वशासन की मांग को अव्यावहारिक मानते थे। उन्हें संवैधानिक विधियों और अंग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास था और वे सोचते थे कि जिस दिन अंग्रेजों को विश्वास हो जायेगा कि भारतीय स्वशासन के लिए सक्षम हैं, वे उन्हें यह अधिकार दे देंगे। उनके विचार में भारत का ब्रिटेन से अटूट सम्बन्ध उसके लिए हितकारी होगा। उदारवादी विचारों के कारण गोेखले कॉंग्रेस के उग्रवादी सदस्यों के बीच वे बहुत लोकप्रिय नहीं थे। वे साधारणतः सरकार तथा जनता के बीच मध्यस्थ का कार्य करते थे। उनके सम्बन्ध में कहा गया कि - “वे जनता की आकांक्षाएॅं वायसराय तक पहुंचाते थे और सरकार की कठिनाइयां कॉंग्रेस तक।“ इस कारण कभी-कभी दोनों उनके विरुद्ध हो जाते थे, जनता उनकी उदारवादिता के कारण तथा सरकार उग्रवादिता के कारण। लेकिन वे अपने पथ से कभी विचलित नहीं होते थे। भले ही अलोकप्रियता का भय उन्हें क्यों नहीं हो जाता, वे सच्चे देशभक्त थे। मातृभूमि की सेवा उनके जीवन का प्रथम लक्ष्य था। वे एक व्यावहारिक राजनीतिक की भॉंति परिस्थितियों के अनुसार विचारों और मांगों को संशोधित करने के पक्ष में थे। गोपाल कृष्ण गोखले एक राजनीतिक संन्यासी थे और वे सार्वजनिक जीवन को आध्यात्मिकता से अनुरंजित करना चाहते थे। उनकी धार्मिक प्रवृत्ति और साधुवृत्ति के कारण ही महात्मा गॉंधी ने उन्हें राजनीतिक गुरु के रूप में स्वीकार किया। गॉंधीजी के शब्दों में - “सर फिरोजशाह मुझे हिमालय की तरह दिखाई पड़े जिसे मापा नहीं जा सकता, और लोकमान्य तिलक महासागर की तरह जिसमें कोई आसानी से नहीं उतर सकता, पर गोपाल कृष्ण गोखले गंगा के समान थे जो सब को अपने पास बुलाती है। राजीनतिक क्षेत्र में उनके जीवन-काल में और उसके अनन्तर गोखले का मेरे हृदय में जो स्थान रहा है, वह अपूर्ण है।“
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में गोपाल कृष्ण गोखले के स्थान के विषय में परस्पर विरोधी विचार है। गोखले की उदारवादी विचारधारा के कारण भारत के गरम दलीय तो उन्हे ‘एक दुर्बल ह््रदय उदारवादी’ कहते थे जो ब्रिटिश सरकार के हाथ में जानबूझकर हथियार बनने को तैयार थे और दूसरी तरफ उनकी देशभक्ति के कारण ब्रिटिश शासक उन्हे ‘एक हुपा हुआ राजद्रोही’ समझते थे लेकिन वास्तव में वे न तो एक छुपे हुये राजद्रोही थे और न ही दुर्बल हृदय उदारवादी थे।
उनके लगभग 30 वर्षो के देश सेवा के इतिहास के आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वें किसी भी रूप में एक प्रतिक्रियावादी नही थे। वे एक रचनात्मक नेता थे जो भारतीय जनता के अधिकारों और स्वतन्त्रता के लिये लड़ते थे किन्तु उसमें प्रशासनिक उत्तरदायित्व की भावना भी थी और वे भारत सरकार की कठिनाइयो को भी नजरंदाज करने को तैयार नही थे। भारतीय जनता के प्रतिनिधि के रूप में वे 1875 ई0 में भारतीय व्यय पर ’वेलवाई कमीशन‘ के सामने गवाही देने इंग्लैण्ड गये तथा देश के ऊँचे पदो पर भारतीयो को नियुक्त न करने की नीति की कटु आलोचना की। गोखले ने बंगाल विभाजन की आलोचना करते हुये कहा था कि - ‘‘मैं इतना ही कह सकता हूॅं कि बंगाल विभाजन से नौकरशाही के साथ जनता के हित की दृष्टि से सहयोग करने की सारी आशा सदा के लिये खत्म हुई।“ एक सच्चे देशभक्त की तरह उन्होंने जनता पर भारत सरकार की सैनिक नीति का बुरा प्रभाव पड़ने के कारण उसकी कटु शब्दो में निन्दा की। इस स्थिति को दूर करने के लिये ही उन्होंने 1914 की सुधार योजनाओं के अनुसार भारतीयों को सैनिक कमीशन तथा नौसैनिक प्रशिक्षण देने पर बल दिया।
इसके अतिरिक्त सर्वेण्ट् ऑफ इण्डिया सोसायटी नामक संस्था में भारत के विभिन्न प्रान्तों के योग्य तथा शिक्षित व्यक्ति शामिल किये गये। इस संस्था के संविधान की प्रस्तावना में गोखले ने लिखा- अब हमारे काफी देशवासियो को इस काम में धार्मिक भावना के साथ अपने आपको खपाने के लिए आगे बढ़ना चाहिये। सार्वजनिक जीवन को आध्यात्मिक रूप दिया जाना चाहिये, दिल में देश का प्रेम इस तरह भर जाना चाहिये कि उसके सामने अन्य सब बातें महत्वहीन मालूम हो।“
ब्रिटिश उदारवाद, पाश्चात्य शिक्षा की दृढ़ आस्था के साथ्-साथ वे अंकुशपूर्ण स्वशासन के समर्थक थे। वे अन्य उदारवादी नेताओं की तरह स्वशासन ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत चाहते थे। उनकी दृष्टि में ब्रिटिश शासन एक ईश्वरीय देन थी, जिससे भारत का सम्बन्ध-विच्छेद भारतीयों के लिए ही दुर्भाग्यपूर्ण था। गोखले मानते थे कि ब्रिटिश नौकरशाही के फलस्वरूप प्रशासन में आर्थिक एवं अन्य जो दोष आ गये हैं उनका निराकरण स्वशासन द्वारा ही सम्भव है। स्वशासन की परिभाषा देते हुए उन्होंने कहा था- “ब्रिटिश अभिकरण के स्थान पर भारतीय अभिकरण को स्थापित करना, विधान परिषदों का विस्तार एवं सुधार कर उन्हें धीमी गति से निकाय बना देना और जनता को सामान्यतः अपने मामलों का स्वयं प्रबन्ध करने देना।” भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के सन् 1905 ई0 में बनारस अधिवेशन में अध्यक्षीय पद पर स्थित होते हुए अपने भाषण में अभिव्यक्त करते हुए कहा था - “काँग्रेस का लक्ष्य है कि भारत, भारतीयों के हितों को ध्यान में रखते हुए प्रशासित होना चाहिए। एक निश्चित समयावधि में भारत में ऐसी ही सरकार गठित हो जानी चाहिए जैसी कि ब्रिटिश साम्राज्य की अन्य स्वशासित उपनिवेशों की सरकार है। गोखले ने स्वशासन को एक भावात्मक आवश्यकता, नैतिक और राजनीतिक उपलब्धि माना। इसी तरह की अभिव्यक्ति सन् 1907 ई0 में इलाहाबाद में एक भाषण में उन्होंने की थी - “मेरी आकांक्षा है कि मेरे देशवासियों की स्थिति अपने देश में वैसी ही हो जैसे कि अन्य लोगों की अपने देश में है। मैं जाति या सम्प्रदाय के भेदभाव से परे प्रत्येक नर-नारी के पूर्ण विकास का समर्थक हूँ। मैं चाहता हूँ कि उन पर किसी प्रकार के अप्राकृतिक प्रतिबन्ध न लगाए जाएँ। मेरी आकांक्षा है कि भारत विश्व के महान राष्ट्रों में राजनीतिक, औद्योगिक, धार्मिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक और कला के क्षेत्र में अपना उपयुक्त स्थान ग्रहण करे। मेरी आखिरी तमन्ना यही है कि सब कार्य ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत ही पूरे हों।“
अंकुश पूर्ण स्वशासन में निहित तत्त्वों का समावेश पूर्ण अस्तित्व के साथ होना अनिवार्य है। उनकी दृष्टि में ये निम्नलिखित तत्त्व स्वशासन में आवश्यक रूप से विद्यमान होने चाहिए-
1. सभी नागरिक परीक्षाएँ, भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा इंग्लैण्ड में न होकर भारत में कराई जाये एवं सभी उच्च पदों के लिए होने वाली नियुक्तियों का आधार पूर्व प्रतियोगात्मक परीक्षा हो जिसमें भारतीयों को भी बैठने का समुचित अधिकार हो।
2. भारत के शिक्षित नागरिकों को भारत मन्त्री की सभा में, वायसराय की कार्यकारिणी परिषद में तथा मुम्बई और मद्रास के गर्वनरों की विधान परिषदों में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व मिलना अत्यावश्यक हो।
3. सर्वोच्च एवं प्रान्तीय विधान परिषदों का विस्तार हो, उनमें जनता को वास्तविक ढंग से प्रभावकारी प्रतिनिधित्व दिया जाए एवं देश के वित्तीय तथा कार्यकारी प्रशासन पर जनता का अधिक नियन्त्रण हो ।
4. स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं और नगरपालिकाओं की शक्तियों में वृद्धि की जाए उनमें सरकारी हस्तक्षेप और नियन्त्रण इंग्लैण्ड में स्थानीय स्वशासी बोर्ड द्वारा इसी तरह के निकायों पर लागू किये जाने से अधिक न हो।
संवैधानिक आन्दोलन के पक्षधर गोपाल कृष्ण गोखले ने 4 फरवरी 1907 ई0 को इलाहाबाद में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के अधिवेशन में वैधानिक आन्दोलन को परिभाषित करते हुए कहा था - “संवैधानिक आन्दोलन का अभिप्राय एक ऐसा आन्दोलन है जिसमें संवैधानिक सत्ताओं की कार्यवाही द्वारा ही वांछित परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाता हो।” यानी सीधे शब्दों में गोखले के संवैधानिक आन्दोलन में हिंसा, विद्रोह, सशस्त्र क्रान्ति को कोई स्थान प्राप्त नहीं था। याचिकाएँ, न्याय के लिए आवेदन, निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा पारित प्रस्ताव और करों का विरोधस्वरूप न चुकाना - ये सभी उपाय संवैधानिक सत्ताओं के अन्तर्गत आते हैं। संवैधानिक सत्ताओं से निराशा के बावजूद उन सत्ताओं पर निरन्तर दबाव डालते रहना चाहिए, लेकिन इसके प्रभावशाली होने के लिए लोकमत की शक्ति और दृढ़ निश्चय का होना अनिवार्य होगा।
गोपाल कृष्ण गोखले उत्कृष्ट देशभक्त थे जिन्होंने राष्ट्रीय एकता में विश्वास प्रकट करते हुये स्वदेशी आन्दोलन का समर्थन किया। अतः ऐसे सच्चे और निर्मिक राष्ट्रवादी नेता को ’दुर्बल हृदय उदारवादी’ कहना उचित नही प्रतीत होता है। दूसरी तरफ गोखले के सम्बन्ध में ‘एक छुपे राजद्रोही’ की संज्ञा देना भी सही नहीं है क्यांकि अपनी इस समस्त देशभक्ति के बावजूद वे वैधानिकता को राजनीतिक आन्दोलन की लक्ष्मण रेखा मानते थे और इस बात के पक्ष में नहीं थे कि उनके देशवासियों द्वारा शासन का विरोध करने के लिये असंवैधानिक साधनों का प्रयोग किया जाय। वे क्रान्तिकारी साधनों के इतने विरोधी थे कि उन्होंने 1905-08 में देश के लगभग सभी भागां की यात्रा कर भारतीय जनता को क्रान्तिकारी साधनों की निरर्थकता समझाने का प्रयत्न किया। उन्होंने कहा था कि हमारा लक्ष्य हिंसक परिवर्तन से प्राप्त नहीं किया जा सकता है वरन् वह क्रमिक रूप से ही प्राप्त किया जा सकता है।
गोखले और तिलक की तुलना करते हुए डॉ० पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है कि गोखले नरम थे और तिलक गरम। गोखले वर्तमान में सुधार चाहते थे जबकि तिलक पुनर्निर्माण के पक्ष में थे। गोखले को नौकरशाही के साथ काम करना पड़ता था तो तिलक को नौकरशाही से भिडन्त रहती थी। गोखले सम्भवतः सहयोग चाहते थे, तिलक का झुकाव अड़ंगा-नीति की तरफ था। गोखले का उद्देश्य था स्वशासन जिन्हे योग्य लोग अपने को अंग्रेजों की कसौटियों पर कसकर बनावें, किन्तु तिलक का उद्देश्य था स्वराज्य जिसे विदेशियों के विरोध के बावजूद भारतीयों को प्राप्त करना था। तिलक ने गोखले को भारत का हीरा, महाराष्ट्र का रत्न और देश सेवकों का राजा बतलाया था। लाला लाजपत राय ने कहा था कि उनकी देशभक्ति सबसे विस्तृत थी। लार्ड कर्जन का कहना था कि “ईश्वर ने उन्हें असाधारण योग्यताओं से आभूषित किया था जिनका प्रयोग उन्होंने देश के हितार्थ किया।
इस प्रकार भारतीय राजनीति को गोपाल कृष्ण गोखले की सबसे बड़ी देन राजनीति का आध्यात्मिकरण है। गोखले ने सदैव इस बात पर जोर दिया कि श्रेष्ठ साध्य की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ साधनों को ही अपनाया जाना चाहिए। स्पष्ट है भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गोखले का महत्वपूर्ण और अविस्मरणीय योगदान है।