window.location = "http://www.yoururl.com"; Surendra Nath Benerjee, | सुरेन्द्र नाथ बनर्जी

Surendra Nath Benerjee, | सुरेन्द्र नाथ बनर्जी

 


सुरेन्द्र नाथ बनर्जी (1848.1925)-
Surendra Nath Benerji

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में उदारवादी और प्रारंभिक नेताओं में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वे आधुनिक भारत के अग्रदूतों तथा ब्रिटिश राज के भीतर घरेलू शासन के समर्थकों में से एक थे। उन्हे राष्ट्रगुरू के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। भारतीय इतिहास में ‘भारतीय बर्क‘ के नाम से प्रसिद्ध सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने राष्ट्रवाद के प्रारंभिक दौर में भारतवासियों में राजनीतिक जागृति उत्पन्न करने का अथक प्रयास किया। ब्रिटिश भारतीय सिविल सेवा में चुने गए दूसरे भारतीय के रूप में मशहूर सुरेंद्रनाथ बनर्जी को उन्हें इस सेवा से बेदखल कर दिया गया था। इस अन्याय के कारण बनर्जी राष्ट्रवादी नेता बन गए और कांग्रेस से भी जुड़े। एक शिक्षाविद के तौर पर. बंगाल विभाजन के प्रखर विरोधी रहे बनर्जी को गॉंधी जी के तरीकों के विरोधी के तौर पर भी जाना जाता है।

सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का जन्म 10 नवम्बर 1848 को बंगाल के कलकत्ता शहर में एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के पिता का नाम डॉ0 दुर्गा चरण बनर्जी था और वह अपने पिता की गहरी उदार और प्रगतिशील सोच से बहुत प्रभावित थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने पैरेन्टल ऐकेडेमिक इंस्टीट्यूशन और हिन्दू कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की थी। कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद, उन्होंने रमेश चन्द्र दत्त और बिहारी लाल गुप्ता के साथ इम्पीरियल सिविल सर्विस (आई0सी0एस0) परीक्षाओं को पूरा करने के लिए 1868 में इंग्लैंड की यात्रा की। इग्लैंड प्रवास के दौरान बनर्जी ने एडमंड बर्क और अन्य उदारवादी दार्शनिकों को पढ़ा जिससे उनके राष्ट्रवादी होने की नींव मजबूत हुई। उनकी जिद के कारण अंग्रेज उन्हें सरेंडर नॉट बनर्जी कहते थे।

तमाम चुनौतीपूर्ण सवालों का सामना करने के बावजूद 1868 में उन्होंने इम्पीरियल सिविल सर्विसेज परीक्षा उतीर्ण करने में सफलता पाई। इसके पूर्व 1867 ई0 में सत्येन्द्रनाथ टैगोर आई0सी0एस0 बनने वाले पहले भारतीय बन चुके थे। 1871 में सिलहट के सहायक दण्डाधिकारी के पद पर उनकी नियुक्ति हुई परन्तु 1874 ई0 में एक विवादास्पद विरोध प्रदर्शन के दौरान क्षेत्राधिकार सम्बन्धी अनौचित्य के कुछ आरोपों पर उन्हे बर्खास्त कर दिया गया।

इसके पश्चात उन्होंने बैरिस्टर के रूप में अपना नाम दर्ज़ कराने का प्रयास किया किन्तु उसके लिए उन्हें अनुमति देने से इनकार कर दिया गया क्योंकि वे इम्पीरियल सिविल सर्विस (आई0सी0एस0) से बर्ख़ास्त किये गये थे। उनके लिए यह एक क़रारी चोट थी और उन्होंने महसूस किया कि एक भारतीय होने के नाते उन्हें यह सब भुगतना पड़ रहा है।

सुरेन्द्र नाथ बनर्जी 1875 में भारत वापस लौटकर मेट्रोपॉलिटन कॉलेज में अंग्रेजी प्रोफेसर के रूप में शिक्षण पेशे में कदम रखा और स्वयं को अगले 37 वर्षों तक शिक्षण कैरियर के लिए समर्पित कर दिया। इसी दौरान बनर्जी ने रिपन कॉलेज की स्थापना भी की जो अब उनके नाम से ही जाना जाता है। इन्होने अपने छात्रों में राष्ट्रवाद के विचारों को प्रज्वलित करने और जागृत करने के लिए कक्षा का उपयोेेेेेेेेेग एक माध्यम के रूप में किया।

सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का राजनीतिक जीवन तब शुरू हुआ जब उन्होनें आनन्द मोहन बोस के साथ मिलकर 1876 ई0 में ‘इंडियन एसोसिएशन‘ नामक संस्था की स्थापना की जो उस समय भारत की पहली राजनैतिक संस्था कहलायी। इस संस्था की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य अंग्रेजों के खिलाफ आन्दोलन के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों को एकीकृत करना था। इस संस्था के बैनर तले सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने आई0सी0एस0 परीक्षाओं में बैठने के लिए भारतीयों की आयु सीमा की समस्या पर विस्तृत चर्चा की और देशव्यापी आन्दोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने अपने भाषणों में राष्ट्रवाद और उदारवादी राजनीति की पैरवी की। अंग्रेजों की नस्ल आधारित भेदभाव और वर्नाक्यूलर प्रेस अधिनियम की बनर्जी ने देश भर में जम कर आलोचना की जिससे वे बहुत लोकप्रिय हुए। उनकी लोकप्रियता में उनकी शानदार वाकपटुता का भी बड़ा योगदान था।

1879 ई0 में सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने ‘द बंगाली‘ नाम का एक अखबार खरीद लिया जिसकी स्थापना गिरीश चन्द्र घोष द्वारा 1862 ई0 में की गई थी और उसके बाद अगले 40 सालों तक उसका संपादन किया। वह पहले भारतीय पत्रकार बने जिन्हे अपने अखबार में राष्ट्रवादी टिप्पणीयॉं प्रकाशित करने और अंग्रेजों का विरोध जताने के आरोप में 1883 ई0 में गिरफ्तार किया गया। इस तरह वे जेल जाने वाले पहले भारतीय पत्रकार बने। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के समय बनर्जी अग्रणी नेता थे और उन्होने अपनी संस्था का उसमें विलय करा दिया। कांग्रेस का प्रथम अधिवेशन बुलाने के लिए सूचना उनके तथा मिस्टर ए0ओ0 ह्यूम के नाम से जारी की गई थी। हालॉंकि अपरिहार्य कारणों से वे 28 दिसम्बर से 30 दिसम्बर 1885 तक होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के स्थापना अधिवेशन में प्रतिभाग नही कर सके। बंगाल प्रान्तीय विधानसभा के सदस्य के रूप में उन्होने काफी महत्वपूर्ण कार्य किये। वे 1895 में पूना और 1902 के अहमदाबाद अधिवेशन में कांग्रेस अध्यक्ष भी चुने गए थे।

1905 में बंगाल विभाजन के समय सुरेन्द्र नाथ बनर्जी एक अहम नेता के रूप में उभरकर सामने आये। उन्होने याचिकाओं, विरोध प्रदर्शनों और अपार सार्वजनिक समर्थन का आयोजन करके अग्रिम पॅक्ति से विरोध का नेतृत्व किया जिसके परिणामस्वरूप अन्ततः बंगाल विभाजन का फैसला ब्रिटिश सरकार को वापस लेना पड़ा। सुरेन्द्र बनर्जी ही वो शख्स थे, जो कि विदेशी वस्तुओं के खिलाफ भारत में निर्मित माल की वकालत करते थे। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी को ब्रिटिश सरकार ने साल 1921 में ”सर” की उपाधि से नवाजा था। बनर्जी की सरपरस्ती में गोपाल कृष्ण गोखले और सरोजनी नायडू जैसे भारतीय नेता देश के परिदृश्य में उभरकर सामने आए। वे सबसे वरिष्ठ नरमपंथी कांग्रेस के तौर पर जाने जाते थे। वे जीवन भर नरमपंथी नेता बने रहे और मानते थे कि देश को बातचीत के जरिए ही अंग्रेजों से आजादी हासिल करनी चाहिए। कालान्तर में बनर्जी का राजनीतिक जीवन नरमपंथियों की गिरती प्रतिष्ठा से प्रभावित होने लगा और इसके बाद बनर्जी भारतीय राष्ट्रवादी धारा से अलग थलग होते दिखाई पडने लगे। 1909 में उन्होंने मार्ले-मिंटो सुधार का समर्थन किया जिसका एक बड़ा भारतीय आबादी और नेताओं ने मजाक उड़ाया और उसकी आलोचना की। कालान्तर में उन्होंने महात्मा गॉधी के असहयोग आंदोलन से सैद्धांतिक तौर पर असहमति जताई जिससे वे और हाशिए पर चले गए। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस छोड़ दी। इसके बाद बंगाल सरकार में मंत्री पद अपनाने पर उन्हें बहुत विरोध का सामना भी करना पड़ा। अन्ततः 6 अगस्त 1925 को बैरकपुर में उनका निधन हो गया। मृत्यु से पहले उन्होने 1925 ई0 में अपनी आत्मकथा ‘एक राष्ट्र का निर्माण‘ लिखी थी।

स्पष्ट है वह उदारवाद और राष्ट्रवाद के विचार को आगे बढ़ाने वाले शुरूआती नेताओं में से एक थे। वह एक महान व्यक्ति, देश-प्रेमी और उत्कृष्ट वक्ता थे। उनकी वाक्शक्ति के बारे में सर हेनरी काटन ने लिखा है कि उनकी वाणी में किसी विप्लव को प्रारंभ करने और दबाने की शक्ति थी। अपने तर्कपूर्ण भाषणों और वक्तव्यों के कारण ही वे ‘भारतीय ग्लैडस्टोन‘ तथा ‘भारतीय बर्क‘ के नाम से विख्यात है। वे भारतीय राष्ट्रवाद के अग्रदूत, कांग्रेस के संस्थापक सदस्य और वैधानिक आन्दोलन के जन्मदाता थे। राजनीतिक जीवन में कुछ अवांछनीय निर्णयों के बावजूद देश के नवयुवकों में क्रान्तिकारी विचार भरने तथा भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी को उनके नेतृत्व के लिए याद किया जाता है। 


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