फिरोज शाह मेहता (1845-1915)-Firoz Shah Mehta
1857 की क्रान्ति की समाप्ति के बाद से अंग्रेज भारतीयों के असंतोष पर बहुत ध्यान देने लगे थे। इसके लिए उन्होंने भारतीयों के अपने तंत्र में शामिल करने की नीति भी अपनाई थी। इस सब के बीच भारतीय नेतृत्व के रूप मे बहुत से नेताओं का उदय हुआ जिन्होंने भारतीयों की समस्याओं को अंग्रेजों के बीच रखना शुरू किया और उनके समाधान के प्रयास भी किए। ऐसे ही लोगों में से एक लोकप्रिय नाम फिरोशाह मेहता का था। फिरोजशाह मेहता एक राजनेता, एक निर्भीक वकील और एक समाज सेवक थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन केवल बंबई को ही नहीं पूरे देश को समर्पित कर दिया था। फिरोज शाह मेहता उन व्यक्तियों में से थे, जिनका सम्पर्क कांग्रेस के साथ उसके प्रारंभ से ही रहा। कांग्रेस की नीति और कार्यक्रम के निर्माण में इनका महत्वपूर्ण रूप सेेेेेेेेेे योगदान रहा है।
प्रारंभिक जीवन -
फिरोजशाह मेहता का जन्म 4 अगस्त 1845 को मुंबई के एक मशहूर पारसी परिवार में हुआ था। एक संपन्न परिवार में पैदा होने की वजह से उनकी परिवरिश काफी अच्छी हुई थी। उन्होंने मुंबई से ही अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की थी और मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज से ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की थी। साल 1864 ई0 में उन्होंने एम0ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण किया और वे मुंबई से मास्टर्स करने वाले पहले व्यक्ति बने। इसके बाद वे कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गए और 1868 में कानून की डिग्री हासिल कर भारत वापस आ गए। फिरोजशाह मेहता जब अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वापस भारत लौटे तो उन्होंने वकालत का प्रशिक्षण लेना शुरु कर दिया। इस दौरान उन्होंने मुंबई के नगरपालिका में सुधार की जरूरत को महसूस किया और इसी के चलते उन्होंने नगरपालिका को पुनर्निर्मित करने का फैसला लिया और इसकी रुपरेखा तैयार कर इसका प्रस्ताव रखा। फिरोजशाह मेहता के अभूतपूर्व प्रयासों के बाद साल 1872 में मुंबई नगरपालिका एक्ट लागू किया गया, जिसकी वजह से वे बंबई स्थानीय शासन के जनक कहलाए। इसके बाद वे आयुक्त के पद पर नियुक्त हुए। फिर उनका रुझान राजनीति की तरफ बढ़ा और इसके लिए उन्होंने वकालत छोड़ दी।
फिरोजशाह मेहता साल 1893 ई0 में गवर्नर-जनरल की सर्वोच्च विधान परिषद के लिए नियुक्त किए गए। 1890 ई0 में कलकत्ता में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के छठे अधिवेशन की अध्यक्षता की जिसमें सभापति पद से दिये गये अपने भाषण में इन्होंने लॉर्ड सेसलवरी के इस विचार का खण्डन किया कि- “प्रतिनिधि-शासन पूर्वी परम्पराओं अथवा पूरब निवासियों की मनःस्थिति के अनुकूल नहीं है“ और अपनी बात की पुष्टि में मि० चिसहाम एन्स्टे का यह उद्धरण पेश किया कि “स्थानिक स्वराज्य का जनक तो पूर्व ही है; क्योंकि स्व-शासन का अधिक-से-अधिक विस्तृत जो अर्थ हो सकता है, उस रूप में वह प्रारम्भ से ही यहां मौजूद रहा है।“ फिरोजशाह ने कहा, “निस्सन्देह कांग्रेस जन-साधारण की संस्था नहीं है, लेकिन जन-साधारण के शिक्षित वर्ग का यह फर्ज है कि वह जनसाधारण की तकलीफों को सामने लाये और उन्हें दूर कराने के उपाय सुझावे।“
सर फीरोजशाह मेहता की राजनीतिक मनोवृत्ति
भारत और ब्रिटिश शासन के मधुर सम्बन्धों के पोषक सर फीरोजशाह मेहता भारत को समस्त दृष्टि से उत्कर्ष तक पहुँचाने का स्वप्न रखते थे और उसकी पूर्ति के लिए वो अन्य उदारवादी विचारधारा के, यथा-महादेव रानाडे, दादा भाई नौरोजी की तरह ही भारत के ब्रिटिश शासन के मधुर सम्बन्ध बनाए रखने के समर्थक थे। उनका कहना था कि ब्रिटिश राज को विवशात्मक आन्दोलन के द्वारा उखाड़ फेंकने की बजाए उसे एक ईश्वरीय आशीर्वाद मानकर स्वीकार करना चाहिए। वास्तविक सच यह भी था कि ब्रिटिश राज सशस्त्रों पर आधारित नहीं था। अंग्रेजी शासक बुद्धिवादी एवं न्यायप्रिय हुआ करते थे । इलबर्ट बिल (Ilbert Bill) के सम्बन्ध में दिए गए वक्तव्य से उनकी मानसिकता ब्रिटिश शासकों को समन्वित रखने के दृष्टिकोण का खुलासा करती है- “मेरा प्रबल विश्वास है कि यह भारत देश ब्रिटिश शासन के अधीन होकर एक ऐसे राष्ट्र के हाथों में आ गया है जो उस पर बुद्धिमता एवं कुशलता के साथ शासन करने की दृष्टि से किसी भी अन्य राष्ट्र की अपेक्षा अधिक योग्य है। संसार के जितने भी बड़े-बड़े राष्ट्र हैं उन पर दृष्टिगत होने पर निष्कर्ष स्वरूप हमें यही प्राप्त होगा कि कोई भी अन्य राष्ट्र अपने गुणों अथवा अवगुणों के आधार पर उस देश को सच्ची प्रगति और समृद्धि के मार्ग पर संचालित करने के लिए उतना योग्य नहीं है जितना कि इंग्लैण्ड है।“ 1
सर फीरोजशाह मेहता सम्पूर्ण प्रजा के लिए समानता और न्याय की नीति पर आधारित ब्रिटिश शासकों को श्रेष्ठ एवं लम्बी सोच का परिणाम मानते थे। मेहता अंग्रेजों की पाश्चात्य संस्कृति, शिक्षा, सदाशयता और दूरदर्शितापूर्ण कार्यशैली में विश्वास रखते थे। कलकत्ता अधिवेशन में सन् 1890 में अध्यक्ष के पद पर स्थित होकर उन्होंने अपने भाषण में कहा था - “यह सम्भव हो कि भारतीयों को अंग्रेजों की सज्जनता के प्रति सन्देह हो और भले ही वे उनका उग्र विरोध भी करें, किन्तु वास्तविकता यह है कि इसके बाद भी अंग्रेज भारतीयों के प्रति उदार भावना प्रदर्शित करेंगे।“
संवैधानिक उपायों में दृढ़ आस्था-
सर फीरोजशाह मेहता कानून के ज्ञाता एवं विप्लवकारी षड्यन्त्रकारी उपायों से परे संवैधानिक उपायों के समर्थक थे। वे उदारवादी भारतीय चिन्तन के प्रवक्ता थे। दमनकारी नीति या पशु बल उन्हें किसी भी परिस्थिति में अच्छा नहीं लगता था। दादा भाई नौरोजी और टी0 एच0 ग्रीन को आदर्श स्वरूप मानने वाले सर फीरोजशाह मेहता आदर्श, प्रेम संकल्प, सद्भावनापूर्ण राजनीति के स्वरूप पर विश्वास करते थे। स्वाभाविक रूप से भारतीयों में पनपने वाले राष्ट्रवाद के प्रति उनकी गहरी आस्था थी। वे राजनीतिक शक्ति को कठोर साधनों द्वारा सुदृढ़ बनाने के हिमायती नहीं थे अपितु उनके लिए तो राजनीतिक शक्ति का वास्तविक बल शान्तिपूर्ण निर्णय शक्ति, सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार एवं विवेक बुद्धि था; जिससे राजनीतिक कारकों में निखार आता था। सर फीरोजशाह मेहता राजनीतिक शक्ति का वास्तविक आधार नैतिकता को मानते थे और कोई भी सरकार अन्ततोगत्वा जनता की इच्छाओं और आकांक्षाओं पर ही निर्भर रह सकती है, जो सरकार दमनकारी नीति एवं पशुवल या बर्बर साधनों से जन इच्छा का विरोध करके शक्ति और भय द्वारा स्थायित्व चाहती है उनका पतन निश्चित है। इस तरह के शासकों का अन्त भी शीघ्र ही होता है। वे इस बात के भयंकर विरोधी थे कि अधीनस्थ राज्य अथवा औपनिवेशिक जनता के प्रति साम्राज्यवादी सत्ता द्वारा शक्ति प्रयोग किया जाए। इस तरह की नीति उपनिवेश की जनता के लिए एवं शासन दोनों के लिए पूर्ण रूप से घातक है। सन् 1883 ई0 में अपने भाषणों में ब्रिटिश सरकार को शक्ति नीति के तीन तत्त्वों से बचे रहने के सुझाव देते हुए उन्होंने कहा था -
1. यूरोपीय जटिल परिस्थितियों के दौरान इंग्लैण्ड द्वारा भारत में सैन्य शक्ति से शासन करना उनके स्वयं के लिए घातक एवं विनाशकारक सिद्ध होगा।
2. अनिवार्य रूप से शक्ति नीति के पालन करने से हमेशा ब्रिटिश फौजों और ब्रिटिश नागरिक सेवाओं की आवश्यकता में वृद्धि होती रहेगी जिसके फलस्वरूप पुनः अंग्रेजों के अपने देश में लौटने पर स्वतन्त्रता एवं संवैधानिक उपायों के प्रति असहिष्णुता पैदा हो जायेगी।
3. शक्ति की बर्बर नीति के पालन करने से भारत के साधनों का निष्कासन एवं शोषण द्रुतगति से होता रहेगा, जिससे ब्रिटिश फौजों एवं नागरिक सेवाओं का खर्च चलाया जायेगा और इसके परिणामस्वरूप देश अपने प्राकृतिक संसाधनों के लाभों से वंचित होगा जिससे भौतिक लाभ नहीं हो पायेगा। इस प्रकार गरीब और कमजोर बनाया हुआ भारत अंग्रेज व्यापारियों को कुछ दे पाने में सक्षम नहीं हो सकेगा। इसके पश्चात् उस ब्रिटिश वाणिज्यिक उपक्रम को, जो ब्रिटिश सैनिक उपक्रम से कहीं अधिक गौरवशाली रहा है, समान दर्जे और समान प्रकृति का गौरवशाली प्रकृति का क्षेत्र कहीं मिल सकेगा।
सर फीरोजशाह मेहता संसदीय प्रणाली में अपनी दृढ़ आस्था एवं श्रद्धा रखते थे। उन्होंने संसदीय प्रणाली को आध्यात्मिक शासन प्रणाली की अपेक्षा श्रेष्ठतर समझा क्योंकि उनका मानना था कि कार्यपालिका को विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। संवैधानिक विश्वास उनकी जीवन शैली रहा। स्वाभाविक रूप से वे परम्परावादी थे, आकस्मिक और अहिंसात्मक परिवर्तनों के स्थान पर क्रमिक तथा व्यवस्थित प्रगति में उनका विश्वास था। उन्होंने हमेशा राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सदैव संवैधानिक साधनों के प्रयोग का ही समर्थन किया है।
मानवीय अधिकारों, स्थानीय स्वशासन एवं शिक्षा के समर्थक -
सर फीरोजशाह मेहता स्थानीय स्वशासन एवं मानवीय अधिकारों के अनन्य उपासक थे। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास रखने के फलस्वरूप उन्होंने देशवासियों को हर पल अपने अधिकारों के प्रति जागरुक रहने एवं संवैधानिक उपायों से उसे प्राप्त करने के प्रयास की ओर उन्मुख किया। ब्रिटिश शासन की श्रेष्ठता, सर्वोच्चता, न्यायप्रियता एवं चारित्रिक उत्कर्ष के ढोल पीटने के बावजूद भी यथासम्भव जहाँ भी उत्पीड़न और अन्याय दृष्टिगोचर हुआ, निर्भयता से मुकाबला किया। उनके विरोधों में मर्यादित शक्ति होती थी जिसमें क्रान्ति या शस्त्र बल प्रयोग नहीं होता था। नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए वे हमेशा प्रयत्नरत रहे। आर्म्स एक्ट, प्रेस एक्ट जैसे प्रतिक्रियावादी कानूनों का कड़ा विरोध एवं इलबर्ट बिल का स्वागत करना उनकी नागरिक सुरक्षा के अधिकारों के गन्तव्य को स्पष्ट करती है। इलबर्ट बिल सम्बन्धी विवाद में उन्होंने अपने उदारवादी, तार्किक और न्याय भावना को जाग्रत करने वाले भाषण से राजनीतिक क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। मुम्बई निगम में रहते हुए स्थानीय निकायों में सामान्य निर्वाचन सिद्धान्त को अपनाने पर बल देते हुए उन्होंने अपने दृढ़ शब्दों में विश्वास व्यक्त किया- “कार्यकारिणी को व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए।“ सच्ची उदारवादिता के प्रतीक फीरोजशाह मेहता सरकार द्वारा किये गये सुधारों का अधिकतम उपयोग करते थे और अनवरत अधिक से अधिक सुधार पाने की दिशा में तत्पर रहते थे। मानवीय अधिकारों, स्थानीय स्वशासन एवं श्रेष्ठता को अपनाने वाले उदारवादी विचारधारा के शीर्षस्थ व्यक्तित्व सर फीरोजशाह मेहता राजनीतिक पुनर्जागरण के लिए शिक्षा को अत्यधिक आवश्यक मानते थे।
फीरोजशाह मेहता का विचार था कि समुचित शिक्षा के बगैर राजनीतिक ही नहीं, मानवीय जीवन का हर पहलू व्यर्थ है। उसके अभाव में रचनात्मक जीवन के प्रारंभ की कल्पना भी बेमानी है। मस्तिष्क की स्वतन्त्रता और बुद्धि का विकास किसी भी नागरिक की अमूल्य सम्पत्ति है। ब्रिटिश शासकों द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में अपनाये गये साधनों से सर फीरोजशाह मेहता पूर्णतः सन्तुष्ट थे। उनका विश्वास यह था कि भारतीयों के जीवन में सार्वजनिक एवं वैयक्तिक दायित्व तथा वफादारी के उच्च आदर्शों का समावेश केवल शिक्षा के द्वारा ही किया जाना सम्भव है, लेकिन उनकी बौद्धिक प्रेरणा का स्रोत पश्चिमी संस्कृति थी। इसलिए उनका पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति की दम पर भारत का पुनरुद्धार करने का स्वप्न देशभक्ति के गौरव के अनुकूल नहीं था। सर फीरोजशाह मेहता शिक्षा में भी प्रारंभिक शिक्षा की अपेक्षा उच्च शिक्षा के समर्थक थे। मेहता शिक्षा प्रणाली के अन्तर्निहित दोषों से पूर्णतः परिचित थे फिर वे शिक्षा में अत्यधिक सरकारी नियन्त्रण के विरुद्ध थे। नैतिकता के विचारों को उत्पादित करने के लिए वे इतिहास और साहित्य के नियमित अध्ययन को अत्यावश्यक मानते थे। शिक्षा के अनन्य उपासक मेहता जनसाधारण के दुःखों एवं कष्टों के प्रति व्यापक सहानुभूति रखते थे। उनकी आकांक्षा रहती थी कि काँग्रेस जनसाधारण के कष्टों को समझे और प्रकाशित कर उनका निराकरण करें। यद्यपि आलोचक काँग्रेस को राजद्रोही मानते थे पर यह पूर्णतः केवल कल्पना सी प्रतीत होती थी क्योंकि स्वयं फीरोजशाह मेहता अपने आपको अंग्रेजी शिक्षा, संस्कृति और सिद्धान्तों का उपासक मानते थे। वे मानते थे कि परिस्थितिवश भले ही काँग्रेस जनसाधारण से सम्बद्ध न हो पाये, लेकिन उसके शिक्षित वर्ग के नेताओं का यह दायित्व है कि वह जनसाधारण की तकलीफों की ओर अपना ध्यान आकर्षित करे और यथासम्भव उनसे निजात दिलाने का प्रयास करे। वास्तविक तथ्यों के अनुसार सर फीरोजशाह मेहता जीवनपर्यन्त जनसाधारण की आशाओं के आधार-स्तम्भ रहे।
फिरोजशाह मेहता, आजादी के महानायक माने जाने वाले महात्मा गॉंधी जी के विचारों से काफी प्रभावित थे। एवं उग्रवाद अर्थात गरमपंथी विचारधारा को देश की स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते थे। उन्होंने आर्म्स एक्ट, प्रेस एक्ट, पशु बलि आदि का कड़ा विरोध किया था और किसानों को उनके अधिकार दिलवाने के लिए काफी प्रयास किए थे। उन्होंने भारतीयों को सामाजिक और राजनीतिक विचारों का बोध करवाने के लिए शिक्षा के प्रचार-प्रचार पर काफी जोर दिया था। इसके अलावा फिरोज शाह मेहता ने बम्बई से अंग्रेजी दैनिक पत्र ‘बाम्बे क्रॉनिकल‘ के प्रकाशन की शुरुआत की थी, इसके दैनिक मैग्जीन के माध्यम से भारतीयों को अपने अधिकारों के लिए अहिंसात्मक तरीके से लड़ने के लिए प्रेरित किया था। उनके इस पत्र का स्वतंत्रता संग्राम में काफी बड़ा योगदान रहा था। इस प्रकार उनके द्वारा देश की आजादी के लिए दिए गए योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है।