window.location = "http://www.yoururl.com"; Rise and Development of Extremist | उग्र राष्ट्रवाद का उदय और विकास

Rise and Development of Extremist | उग्र राष्ट्रवाद का उदय और विकास

 


उग्र राष्ट्रवाद का उदय और विकास (1906-1918) 
Rise and Development of Extremist.

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन विभिन्न झंझावातों का सामना करता हुआ आगे बढ़ता रहा और 1905 ई0 तक उस पर उदारवादी और नरम नीति के विचारकों का आधिपत्य बना रहा। इसके बाद भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में विचारधाराएँ बदलने लगीं और 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में कांग्रेस की कतारों से ही एक नये और युवा दल का उदय हुआ जो पुराने उदारवादियों के आदर्श और ‘राजनीतिक भिक्षावृति' का आलोचक था। इन उग्र नेताओं को अंग्रेजों की न्यायप्रियता में कोई विश्वास नही था और इनका मानना था कि स्वराज्य मॉगने से नही बल्कि संघर्ष करने से ही प्राप्त होगा। इस दल को इतिहास में ‘उग्रवादी‘ या गरमपंथी कहा गया है क्योंकि वे संघर्ष द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे। 

यद्यपि 1905 ई0 के बाद भी उदारवादी विचारधारा का प्रभाव कायम रहा, लेकिन 19वीं शताब्दी के अन्त में और 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ऐसी निराशाजनक घटनाएँ घटीं जिससे उदारवादी विचारधाराओं के प्रति असन्तोष बढ़ता गया। उदारवाद के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई और नरम वैधानिक साधनों के स्थान पर उग्र साधनों को अपनाये जाने पर बल दिया जाने लगा और इस समय से ही उग्रवाद का प्रारम्भ हुआ। उग्रवाद शब्द ;त्ंकपबंसपेउ) के प्रयोग की प्रारम्भिक अवस्था के समय का विश्लेषण करते हुए लोकमान्य तिलक, जो स्वयं भी एक गरमपंथी नेता थे, ने कहा - “हमारी नीतियों के सन्दर्भ से दो नए शब्द हाल ही में अस्तित्व में आये हैं, वे हैं- नरमपंथी (डवकमतंजम) और उग्रवादी (म्गजतमउपेज)। इन शब्दों का समय के साथ विशिष्ट सम्बन्ध है अतः समय के अनुसार ही इनमें परिवर्तन आता जायेगा। आज के गरमपंथी कल नरमपंथी बन जायेंगे। ठीक उसी प्रकार आज के नरमपंथी कल गरमपंथी थे। उग्रवाद या गरमपंथी विचारधारा से तात्पर्य उन लोगों के राजनीतिक दर्शन से है जो भारत में 20वीं शताब्दी के आरम्भ में गरमपंथी समझे जाते थे। इन गरमपंथियों में लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष, विपिनचन्द्र पाल और अन्य उनके समर्थक थे। सन् 1916 से 1918 की अवधि में श्रीमती एनीबेसेन्ट और इण्डियन होमरूल में उनके सहयोगी भी सरकार तथा उदारवादी नेताओं द्वारा गरमपंथी ही माने जाते थे।

गरमपंथ या उग्र राष्ट्रवाद का प्रारम्भ :

1885 से लेकर 1905 ई0 तक भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के सम्मुख अनेक माँगें रखी परन्तु उन माँगों पर ब्रिटिश सरकार ने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। कांग्रेस नेतृत्व की आवेदन निवेदन की नीति की असफलता ने देश के अंदर और खुद कांग्रेस के अंदर असंतोष पैदा किया। 20वीं सदी के आरंभ में यह असंतोष काफ़ी फैल गया। लोगों ने स्पष्ट रूप से देखा कि सिर्फ़ आवेदन-निवेदन और ब्रिटेन में प्रचार से कुछ होने वाला नहीं हैं, खासकर देश के अंदर कुछ किए बग़ैर ब्रिटिश शासकों से कुछ मिलने वाला नहीं। जो परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं उनसे कई नेता उभरकर सामने आए जिनकी माँगें आमूल परिवर्तन के साथ-साथ उग्र थीं। इस वजह से राष्ट्रीय आंदोलन में गरमपंथ अथवा उग्रवाद का जन्म हुआ और इसके समर्थकं गरमपंथी  अथवा उग्रवादी कहलाए। वस्तुतः इस दौर में कांग्रेस जिस रास्ते पर चल रही थी उसकी आलोचना काफ़ी पहले शुरू हो गई थी। 1893 ई0 में अरविंद घोष ने अपना नाम दिए बिना बम्बई से प्रकाशित ’इंदु प्रकाश’ में कई लेख लिखकर कांग्रेस की नीति की कड़ी आलोचना की।

इस प्रकार कांग्रेस के ही कई नेताओं जैसे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय का काँग्रेस की नीतियों से मतभेद उत्पन्न हो गया। 1885-1905 ई0 तक काँग्रेस में दादा भाई नौरोजी, सर फीरोजशाह मेहता, गोपालकृष्ण गोखले, मदनमोहन मालवीय, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और रमेशचन्द्र दत्त जैसे नेताओं का आधिपत्य था। ये सभी नेता संवैधानिक नियमों और अंग्रेजों को ईश्वरीय स्वरूप मानने में विश्वास रखते थे, लेकिन इन सब बातों का तरीका लाला लाजपत राय एवं बाल गंगाधर तिलक को रास नहीं आया। इसकी वास्तविक स्थिति को अपने शब्दों में व्यक्त करते हुए इतिहासकार डॉ0 ताराचन्द लिखते हैं- “सरकारी विरोध तथा घृणा से अविचलित होकर राजनीतिक आन्दोलन जोर पकड़ता और बढ़ता चला गया। भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस हर साल अधिवेशनों के माध्यम से जुड़ती रही और सरकार की आधारभूत त्रुटियों और सामयिक गलतियों पर लोगों का ध्यान आकृष्ट करती रही। प्रान्तों में राजनैतिक सम्मेलन होते थे और कांग्रेस के प्रस्तावों को दोहराया जाता था। भारत में सर्वत्र संस्थाओं की ओर से सभाएँ होती थीं और सरकार की आलोचना की जाती थी। अंग्रेजी तथा भारतीय भाषाओं के पत्र राष्ट्रीय नेताओं के विचारों का प्रचार करते थे। राजनीतिक साहित्य बराबर छपता और देश में बाढ़ की तरह फैलता रहा, साथ ही बहुत से राजनीतिक कार्यकर्ता छोटी या बड़ी सभाओं में भाषण देकर जनता की राजनीतिक जागृति को बढ़ाते थे।

इस प्रकार जब हालात में काफी उथल-पुथल थी तब सरकार के रुख से निराश होकर मिस्टर ए0 ओ0 ह्यूम ने राष्ट्र से यह अपील की थी कि - “प्रत्येक भारतीय जो हमारी मातृभूमि पर साँस लेता हैं, हमारा साथी, हमारा सहकर्मी, हमारा समर्थक बने और यदि जरूरत पड़े तो वह उस युद्ध में हमारा सैनिक भी बन जाए।“ इस प्रकार से काँग्रेस के सौम्य तरीकों की सीमाओं से निकलकर देश भर में राजनीतिक आन्दोलन करने का विचार फैला। इस कार्य की शुरूआत ए0 ओ0 ह्यूम ने की अवश्य, लेकिन इसका फायदा लोकमान्य तिलक, विपिन चन्द्र पाल, लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष जैसे नेताओं ने उठाया। उस दौरान प्रचलित धीमी एवं मर्यादित राजनैतिक विचारधारा से, जिसमें सभी नेता उच्च वर्गों के व्यक्ति और पेशेवर वर्ग के सफल व्यक्ति थे, इसके बावजूद तिलक आदि नेताओं को इसकी कार्य-प्रणाली पसन्द नहीं आई। वे कॉंग्रेस की आवेदन-निवेदन वाली नीति के विरुद्ध थे और उन्होंने इच्छा जाहिर की कि सक्रिय राजनीतिक आन्दोलन के तरीके अपनाएँ जाएँ। इन नेताओं ने विधान परिषदों के विस्तार और भारत और इंग्लैण्ड में एक साथ होने वाली परीक्षाओं को हाथ की सफाई बतलाया। उन्होंने चेतावनी भी दी-  “अंग्रेजी राज्य के दुर्ग की दीवारें अभी फटी नहीं है और गरीबी की काली छाया दिन प्रतिदिन देश पर फैलती जा रही है।“

काँग्रेस के सिद्धान्तों से उग्रवादी सहमत नहीं थे। उन्होंने इसे एक मध्यमवर्गीय स्वार्थी सार्वजनिक कार्य में भोली तथा निःस्वार्थ देशभक्ति का खोखला दावा करने वाली संस्था माना था। इसी सम्बन्ध में उनके विचारों से असहमत होते हुए अरविन्द घोष ने कहा था - “यह काँग्रेस खिलौनों से खेलती है न कि गम्भीर प्रश्नों को लेकर या तथ्यों को समाहित रखती है। इसने अपने को, भारतीय जनता को, शक्तिशाली बनाने की कोई चेष्टा नहीं की। विशाल जनता के हृदय को छूने में ये असफल रही है। सर्वहारा वर्ग ही सबसे महत्त्वपूर्ण है, सही और सफल नीति यही होगी कि देश की सारी शक्ति को जाग्रत किया जाय।“ अरविन्द घोष की इस उक्ति को चरितार्थ करने में जनशक्ति के परिणाम तथा सामर्थ्य को बढ़ाने में भयंकर भूमिका का निर्वाह लाल, बाल, पाल ने मिलकर किया। भारत का असन्तोष हद तक बढ़ गया और लोगों में अपने आत्म-सम्मान, गौरव और अतीत की उत्कृष्टता की जागृति हो चुकी थी। स्वामी विवेकानन्द की विजय यात्राओं ने सिद्ध कर दिया था कि पश्चिमी देशों से कहीं अधिक पूर्वी देश श्रेष्ठ हैं और इस समय भारत के बाहर की स्थिति यह थी कि एक लम्बे अर्से से विश्व में निर्विवाद प्रभुत्व के बाद ब्रिटिश साम्राज्य के सामने प्रतियोगी एवं प्रतिद्वन्द्वी आ खड़े हुए थे। सीधे शब्दों में इंग्लैण्ड के सामने चारों तरफ से प्रतिस्पर्धात्मक परिस्थिति बन चुकी थी। जर्मनी लगातार विदेशी उपनिवेशों का दावा कर रहा था जो ब्रिटिश साम्राज्य के लिए चुनौती था। इसी दौरान जापान सारे यूरोप के लिए खतरा बन चुका था। ऐसी भयानक परिस्थिति में उदारवादी विचारधारा के लोगों का प्रभुत्व समाप्त प्रायः हो गया था और नए भारतीय नेता गरमपंथी विचारधारा को लेकर भारत में प्रवेश कर गए थे जिनमें बाल गंगाधर तिलक सबसे प्रमुख थे, जिन्होंने अपनी युवावस्था में ही देश की सेवा में जीवन अर्पित करने का संकल्प कर लिया था। उग्रवादी नेताओं के सहयोग से उन्होंने एक विद्यालय और अंग्रेजी में ’मराठा’ के नाम से और मराठी में ’केसरी’ नाम से दो समाचारपत्र जनता को शिक्षा देने के लिए तथा जनमत को प्रस्तुत करने के लिए चलाए थे। इनके द्वारा समाचारपत्रों की स्वतन्त्रता, सरकार की साम्राज्यवादी नीति एवं तरीकों की कटु आलोचना की जाती थी। सरकार के मुसलमानों को समर्थन दिए जाने की आशंका से 1893 ई0 में उनके द्वारा चलाया गया गौरक्षा आन्दोलन भी अत्यन्त प्रशंसनीय रहा।

उग्र राष्ट्रवाद के उदय के कारण :

गरमपंथी विचारधारा व राष्ट्रवाद का उदय विकृत परिस्थितियों में आकस्मिक रूप से हुआ था। उसके उदय ें मूल में निम्नलिखित कारण बताये जा सकते हैं -

उदारवाद की असफलता- काँग्रेस की स्थापना से सन् 1905 ई0 तक लगातार उदारवादियों का प्रभुत्व रहा, लेकिन प्रार्थना-याचना आदि के अपने वैधानिक और नरमपंथी साधनों से वे भारत के हित में कोई विशेष सफलताएँ अर्जित नहीं कर सके। शताब्दी की समाप्ति तक किसानों, मजदूरों और गाँव के सम्भ्रान्त लोगों के मन में असन्तोष और निराशा हरदम बढ़ती रही। सन् 1892 ई0 के अधिनियम के अन्तर्गत किये गए सुधार पूर्णतः अनुपयुक्त थे। काँग्रेस ने प्रतिवर्ष सुधार सम्बन्धी माँगों का प्रस्ताव पारित करना जारी रखा लेकिन सरकार ने इस अनुरोध की ओर कोई खास ध्यान ही नहीं दिया। अतः आश्चर्य नहीं कि उन नरमपंथी नेताओं की लोकप्रियता निरन्तर घटने लगी, जो सरकार से सुधार की प्रार्थना करते ही जा रहे थे। एक प्रकार से नरमदलीय राष्ट्रवाद में गतिरोध आ गया था। तार्किक नियम के अनुसार कोई भी स्थिति अथवा आन्दोलन गतिहीन नहीं रह सकता, या तो वह प्रगति करता है या उसका अपकर्ष होता है। चूॅकि नरम दल के नेता आन्दोलन को आगे नही ले जा पा रहे थे तो यह अवश्यंभावी था कि दूसरे लोग इस काम को अपने हाथ में ले और इस आगे बढ़ाएॅ। इस प्रकार तुरन्त परिवर्तन चाहने वाले, शक्ति की दम पर, खुद की ताकत से सरकार बदलने वाले उग्र और गरमपंथीय नेताओं का उदय हुआ और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने दूसरे चरण में प्रवेश करने में सफल रही।

ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रियावादी नीति- पिछले 20 वर्षों में ब्रिटिश शासन ने अपनी प्रतिक्रियावादी नीति से भारतीयों को क्षुब्ध कर दिया। 1888-1894 ई0 तक लार्ड लैंसडाऊन ने ऐसे विधेयक पारित किये, जिससे मुद्रा सम्बन्धी कठिनाइयाँ आने लगी। 1894 से 1898 ई0 तक लार्ड एल्गिन का कार्यकाल था। उसने नौकरशाही और दमनकारी नीति से भारतीयों को कड़े विधानों के द्वारा परेशान किया और रोजमर्रा पर अनावश्यक व्यय बढ़ने लगा। कालान्तर में कलकत्ता कॉरपोरेशन कानून, भारतीय यूनिवर्सिटी एक्ट, आफिशियल सीक्रेट्स एक्ट आदि अनेक कानून बनाकर देश में असन्तोष की ज्वाला को और भड़का दिया गया। इन ब्रिटिश शासकों की क्रूर नीति से उदारवादी हार गए और गरमपंथी शक्ति का प्रारम्भ हुआ। इसके अलावा इसका दूसरा प्रमुख कारण इंग्लैण्ड के अनुदार दल का खराब शासन था। 1882 से 1902 ई0 तक अधिकांश समय तक इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री सैलिसवरी रहा लेकिन साम्राज्यवादी नीति रोकने में वह असफल रहा था। इसी तथ्य को प्रकाशित करते हुए आर0 सी0 दत्त लिखते हैं- “सैलिसवरी स्वयं साम्राज्यवादी नहीं था, परन्तु वह समयानुसार बदल जाता और उसमें विरोध करने की शक्ति नहीं रह जाती थी। लार्ड हेमिल्टन, जो कि लन्दन में भारत के कार्यालय का प्रधान था, भारत की ओर कोई सहानुभूति नहीं रखता था। 20 सितम्बर सन् 1899 ई0 को उसने लार्ड कर्जन को लिखे पत्र में व्यक्त किया था, मेरा विचार है कि शासन को वास्तविक खतरा अब नहीं, 50 वर्ष के पश्चात् होगा। यदि हम शिक्षित हिन्दू दल को दो भागों में बाँट सकते हैं जिनके परस्पर विरोधी विचार हों तो हमें इस प्रकार की फूट से अपनी सरकार की स्थिति सुदृढ़ करने में सहायता मिलेगी। इस दौरान ब्रिटिश सरकार भारत में आनेवाले अकाल, महामारी के प्रति उदासीन रही जिससे भारी असन्तोष भारतीय जनमानस में व्याप्त हो गया।

भारत की आर्थिक विषमता और शोषण - अठारहवीं शताब्दी में भारत में अनेक कुटीर उद्योग, पारम्परिक व्यवसाय एवं कृषि जोरों पर थी, लेकिन अंग्रेजों ने भारत में आते ही देश को कंगाल बना दिया। भारत को कच्चा माल का केन्द्र और इंग्लैण्ड के निर्मित माल को बेचने का बडा बाजार बना दिया जिससे भारत की स्थिति दयनीय हो गई। सोने की चिड़िया का देश विनष्ट हो गया और इसके परिणामस्वरूप 19वीं शताब्दी के अन्त तक भारतीयों को भीषण आर्थिक संकट, अकाल एवं महामारियों का सामना करना पड़ा, लेकिन ब्रिटिश शासन सहयोग करने में उत्साहहीन रहा। लाखों-करोड़ों लोग भूख से मरते रहे और अंग्रेज अनाज को विदेशों में भेजते रहे। इससे भारतीयों को स्वशासन की आवश्यकता महसूस हुई। इस दौरान उदारवादियों की प्रार्थनाएँ एवं आवेदनों पर मात्र उपहास किया गया। इससे नवयुवकों और नेताओं के एक वर्ग में विश्वास होने लगा कि सिर्फ अनुनय-विनय से ब्रिटिश शासन पर दबाव नही बनाया जा सकता है अपितु इसके लिए कुछ कठोर कदम उठाने पडें़गे और हमें अपना स्वशासन छीनना होगा।

जातीय कटुता और नस्लीय भेदभाव - ब्रिटिश उपनिवेशों के प्रवासी भारतीयों के साथ जिस प्रकारा से रंग के आधार पर भेदभाव किया जाता था, उससे भी भारतीय जनमानस में आक्रोश तेजी से फैला। उन्हें बर्बर यातनाएँ, असभ्य और अभद्र व्यवहार से लगातार पीड़ित किया जाता था। दक्षिण अफ्रीका में बैरिस्टर की डिग्री प्राप्त मोहन दास करमचंद गॉधी के साथ जिस प्रकार का भेदभाव  और अपमानजनक व्यवहार किया गयाए उससे भारतवासियों में उत्तेजना बढ़ती गई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कई प्रस्ताव पारित कर भारतवासियों के प्रति किये जा रहे इस असमानता और भेदभाव की निन्दा की और ब्रिटिश सरकार से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया परन्तु इसका कोई प्रतिफल नही निकला। गॉंधीजी ने स्वयं अपने प्रवास के दौरान दक्षिण अफ्रीका में शान्तिपूर्ण प्रतिरोध और सत्याग्रह आन्दोलन चलाया जिसके परिणामस्वरूप भारतीय कुछ रियायतें पाने में सफल हुये। इससे भारतीय नेताओं को भी यह विश्वास हुआ कि अनुनय-विनय के मुकाबले आन्दोलन और संघर्ष के तरीके में अधिक ताकत है। अतः भारतीय नेताओं व युवकों का  गरमपंथीय विचारधारा के प्रति झुकाव बढ़ता गया और भारत में उग्रपंथी विचारधारा का जन्म हुआ। 

पारिस्थितिकी विषमता, अकाल और प्लेग का आतंक - 1894-1898 ई0 में लार्ड एल्गिन के शासनकाल में भारत के विभिन्न हिस्सों में भयंकर अकाल पड़ा, जिससे लाखों लोग मारे गए। इसका प्रभाव 70,000 वर्ग मील तक पड़ा और लगभग दो करोड़ लोगों की जाने चली गई। अकाल की छाया दूर ही नहीं थी कि पूना में बड़ा भारी प्लेग फैल गया। प्लेग को दूर करने के लिए सरकारी अधिकारियों ने जनता का कोई सहयोग नहीं दिया। बाल गंगाधर तिलक ने अपने समाचार पत्र ‘केसरी‘ में अकाल और प्लेग की रोकथाम के नाकाफी सरकारी प्रयासों की कटु आलोचना की। परिणामस्वरूप इस क्षेत्र के एक नवयुवक दामोदर हरि चापेकर ने भड़क कर पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड और उसके सहायक लेफ्टीनेट एम्हर्स्ट की हत्या कर दी। इस घटना के आरोप में चापेकर एवं उसके छोटे दो भाइयों को फाँसी की सजा दे दी गई और उस नवयुवक को भड़काने के आरोप में बालगंगाधर तिलक को 18 माह की सख्ती से कैद की सजा दी गई। इससे भारतीय जनता में ब्रिटिश सरकार के प्रति आक्रोश छा गया। तिलक की कैद पर सारा राष्ट्र रो रहा था। इस घटना से उदारवादियों की नीतियों को लेकर कांग्रेस के एक वर्ग में मतभेद बढता गया जो कालान्तर में गरमपंथ के उदय का कारण बना। 

अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का प्रभाव -    भारत में गरमपंथी विचारधारा के उदय और विकास में कुछ अन्तर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विश्व इतिहास में आधुनिक जापान का अभ्युदय एक बहुत बडी घटना साबित हुई। इस काल में जापान ने आद्यौगिक और सैनिक दृष्टि से अपने आप को अत्यधिक शक्तिशाली बनाने में सफलता अर्जित की। 1905 तक आते-आते एक छोटे से एशियाई देश जापान ने एक युरोपीय देश रूस को जिस तरह पराजित किया, इससे यह मिथ्या भ्रम टूट गया कि युरोपीय और गोरी जाति के लोग अपराजेय है। इससे भारतवासियों में भी एक नई आशा का संचार हुआ कि वे भी ब्रिटिश शासन का समाप्त करने में सफल हो सकते है। एकबार हीन भावना से छुटकारा पाने के बाद भारतवासी विदेशी शासकों से लड़ने के लिए संघर्षपूर्ण मार्ग अपनाने की बात सोचने लगे। इस सन्दर्भ में 18 जून 1905 को करॉची क्रानिकल नामक अखबार ने लिखा - ‘‘.............यदि जापान रूस की पिटाई कर सकता है, तो भारत भी उतनी ही आसानी से इंग्लैण्ड की पिटाई कर सकता है .......... हमें अंग्रेजों को समुद्र में धकेल देना चाहिए और जापान के साथ विश्व के महान देशों में अपनी जगह बनानी चाहिए।‘‘

इसके अतिरिक्त आयरलैण्ड, चीन, मिस्र आदि देशों में चलने वाले क्रान्तिकारी आन्दोलनों और दक्षिण अफ्रीका के बोअर युद्ध, 1899 के बाद भारत के युवाओं और कांग्रेस के बडे दल का यह विश्वास हो गया कि किसी भी देश के दृढ़ निश्चयी  और संगठित लोग सबसे शक्तिशाली साम्राज्यवादी देश को भी चुनौती दे सकते है। इन वैश्विक घटनाओं से भारतवासी भाग्यवादी सिद्धान्त का परित्याग करने और नए तरीकों और दिशाओं में सोचने के लिए उत्साहित हुये। इस प्रकार भारत में गरमपंथीय और उग्र राष्ट्रवाद का उदय हुआ। 

लार्ड कर्जन और बंगाल का विभाजन - 1899 से 1905 ई0 तक लार्ड कर्जन के शासनकाल में उसकी प्रतिक्रियावादी नीति और नौकरशाही ने भारतीयों को पूरी तरह झकझोर दिया और पुराने नेताओं की अनुनय-विनय की नीति के अस्तित्व को ठुकरा दिया। इसके फलस्वरूप भारतीयों में एक नये वर्ग का उदय हुआ जो हिंसक और उग्र नीति पर आधारित था। लार्ड कर्जन ने अन्याय की एक श्रृंखला में ऑफिसिएल सीक्रेट्स बिल पास कर भारतीयों को भड़का दिया। सन् 1899 ई0 में लार्ड कर्जन ने कलकत्ता निगम विधेयक पास करवाया जिससे नगर निगम की स्वतन्त्रता को नष्ट हो गयी और उसपर ब्रिटिश अधिकारियों का नियंत्रण बढ़ गया। 1904 ई0 में उसने यूनिवर्सिटी एक्ट बनाया जिससे यूनिवर्सिटी की आन्तरिक एकता की स्वतन्त्रता नष्ट कर दी गई और उन पर सरकारी नियंत्रण स्थापित किया। उसकी सीमान्त नीति से भी जनता उसके प्रति क्रोधित हो उठी थी। फरवरी 1905 में कलकत्ता यूनिवर्सिटी के दीक्षान्त समारोह में उसने कहा था - “सत्य का उच्च आदर्श अधिकतर पश्चिमी विचार है। इस आदर्श ने पहले पश्चिमी नैतिक परम्परा में उच्च स्थान लिया। इसके बाद यह आदर्श पूर्व में आया जहाँ पहले चारों ओर चालाकी एवं कुटिलता विद्यमान थी।” इस भाषण को सुनते ही भारतीय जनता में आक्रोश छा गया। इसके बाद बंगाल विभाजन, 1905 की घोषणा ने भारत में हिंसक और उग्र राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन मिला। लार्ड कर्जन के समय बंगाल के विभाजन के नाम पर हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने का प्रयास कर भारतीय राष्ट्रवाद को बाधित करने का प्रयास किया गया। उसने पूर्व के मुसलमानों में यह प्रचारित किया कि बंगाल के बाँटने से पूर्वी बंगाल में उनका बहुमत हो जायेगा और उन पर हिन्दुओं की प्रधानता नहीं रहेगी। बंगाल विभाजन के इस निर्णय से भारतीय जनमानस में यह भावना पैदा हो गई कि एक प्रकारा से उन्हे अपमानित किया जा रहा है। इस चुनौती का सामना करने के लिए लोगों ने प्रतिज्ञा की और सभा, प्रार्थनाओं की अपेक्षा बहिष्कार और स्वदेशी जैसे प्रभावशाली उपायो की आवश्यकता बताई, जिससे उग्रवाद और गरमपंथीय विचारधारा का उदय हुआ।

इन सभी कारणों का मिला-जुला परिणाम यह हुआ कि काँग्रेस के भीतर एक नवीन वर्ग का उदय हुआ जो गरमपंथी या उग्रवादी कहा जाने लगा। यह नवीन वर्ग सिर्फ प्राथनाओं, प्रस्तावों और अनुनय-विनय में यकीन नही करता था अपितु यह विरोध और बहिष्कार जैसे साधनों को अपनाने पर बल देने लगा। बंगाल विभाजन के निर्णय के बाद कांग्रेस के भीतर का यह मतभेद उभरकर सामने आने लगा और उदारवादियों और गरमपंथियों के बीच विचारधाराओं का अन्तर और बढ़ गया। 1905 ई0 में काँग्रेस के बनारस अधिवेशन में लाला लाजपत राय ने भारतीयों का स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष का आह्वान किया। प्रिन्स ऑफ वेल्स का भारत भ्रमण 1906 में प्रस्तावित था और ब्रिटिश सरकार की यह इच्छा थी कि शाही मेहमान का गर्मजोशी से स्वागत किया जाय और ऐसा करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस प्रस्ताव पास करे। किन्तु बंगाल के प्रतिनिधि और गरमपंथी लोग इसके विरूद्ध थे। फिर भी बंगाल के प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति में यह प्रस्ताव पास कर दिया गया जिसके परिणामस्वरूप दोनों गुटों के बीच वैमनस्य और दरार अत्यधिक बढ़ गया। बनारस अधिवेशन के सभापति गोपाल कृष्ण गोखले ने यद्यपि बंगाल विभाजन की निन्दा की और स्वदेशी आन्दोलन का अनुमोदन किया परन्तु बाल गंगाधर तिलक के इस सुझाव को नही माना जिसमेंं यह कहा गया था कि एक प्रस्ताव पास करके सरकार के विरूद्ध शान्तिपूर्ण प्रतिरोध करने की अनुमति दी जाय। सन् 1906 ई0 में काँग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में उदारवादी व उग्रवादी दलों में मतभेद और उग्र हो गया। कांग्रेस अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी के प्रश्न पर दोनो गुटों के आपसी सम्बन्ध और भी बिगड गये। हालॉंकि दादाभाई नौरोजी के नाम पर समझौता हो जाने से स्थिति सॅंभल गई किन्तु इससे यह संकेत अवश्य मिला कि गरमपंथियों की ताकत बढ़ रही थी। दोनों गुटों के बीच हुई यह सुलह ज्यादा दिन कायम नहीं रही और अगले वर्ष 1907 ई0 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में काँग्रेस संगठन दो दलों - उदारवादी और उग्रवादी में स्पष्टतः विभाजित हो गया। इस अधिवेशन में लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में उग्रवादी विचारधारा के नेताओं ने स्वराज्य, राष्ट्रीय शिक्षा और बहिष्कार सम्बन्धी प्रस्तावों के पास किए जाने का आग्रह किया लेकिन उदारवादियों ने उग्रवादियों का विरोध किया। इसके फलस्वरूप आपसी मतभेद की सीमा टूट जाने से उग्रवादी काँग्रेस से बाहर निकाल दिए गए और इस प्रकार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पहली बार औपचारिक विभाजन हुआ। 

उग्र राष्ट्रवादियों की नीति और कार्यक्रम :

उग राष्ट्र्रवादियों का उद्देश्य पूर्ण स्वशासन एवं स्वराज्य की प्राप्ति था। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक कें शब्दों में - “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।” उग्र राष्ट्रवादी चाहते थे कि भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के आधार पर ही शासन एवं संस्थाओं का निर्माण हो। उदारवादी विचारधारा को निरर्थक प्रयास मानते हुए वे सक्रिय विरोध की नीति अपना कर भारत के लिए स्वतन्त्रता पूर्ण राष्ट्रीय सरकार की स्थापना को उत्सुक थे। उग्र राष्ट्रवादियों के लिए स्वराज्य केवल राजनीतिक ही नहीं बल्कि नैतिक और धार्मिक आवश्यकता थी और इसे प्राप्त करना उनका सर्वोपरि एवं पवित्र लक्ष्य था। उग्र राष्ट्रवादियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के सक्रिय विरोध पर बल दिया। उदारवादियों के प्रतिकूल उग्र राष्ट्रवादियों का मानना था कि भारत और ब्रिटेन के हितों में एक दुश्मन जैसी विरोधाभासी सम्बद्धता है और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ सहयोग करने के मार्ग पर चलकर भारत अपने राजनीतिक लक्ष्य को नहीं प्राप्त कर सकता था। उग्र राष्ट्रवादियों की दृष्टि में ब्रिटिश शासन प्रतिगामी था, जिसका खुला विरोध करना अनिवार्य था और राजनीतिक भिक्षावृत्ति और अंग्रेजों की कृपा पर निर्भर रहने के बजाए वे अपनी स्वयं की शक्ति एवं साहस पर विश्वास करते थे। 

विरोध और अवज्ञा पर बल -

उग्रवादियों ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विरोध अथवा अवज्ञा की नीति का प्रचार-प्रसार किया। लोकमान्य तिलक का मानना था कि - “राजनीतिक अधिकारों के लिए लड़ना पड़ेगा।“ उदारवादी सोचते थे कि यह अधिकार समझाने-बुझाने से ही प्राप्त हो सकते हैं, लेकिन उग्र राष्ट्रवादियों का विश्वास था कि ये बिना दबाव प्राप्त हो ही नहीं सकते। वे स्वराज्य के स्वतः दान करने की बातों में विश्वास नहीं करते थे । वे जनमत को जागृत कर तीव्र राजनीतिक आन्दोलन के माध्यम से विदेशी हुकूमत पर अधिक से अधिक दबाव डालकर अपने उद्देश्य की प्राप्ति में विश्वास करते थे। उनकी पद्धति थी- मातृभूमि के लिए देशवासी कष्ट सहन करें, त्याग करें और आत्मनिर्भरता के सहारे अधिकारपूर्वक अपने हकों को प्राप्त करें। विपिनचन्द्र पाल ने अपने संदेश में कहा था कि - “हमें अपने राष्ट्र की शक्तियों को इस प्रकार संगठित करना चाहिए कि जो शक्ति हमारे विरुद्ध हो वह हमारे समक्ष झुकने के लिए बाध्य हो जाए।“ लोकमान्य तिलक ने ब्रिटिश साम्राज्य के साथ सहयोग का निषेध करते हुए घोषणा की थी कि विदेशी शासन एक अभिशाप है और नौकरशाही की नींव हिलाने के लिए आत्मनिर्भर तथा स्वतन्त्र कार्य करने की आवश्यकता है।

स्वदेशी और स्वराज्य सम्बन्धी विचार का अभ्युदय -

उग्र राष्ट्रवादियों ने यह अनुभव किया कि आजादी उपहार के रूप में मिलने वाली नहीं है, अपितु उसके लिए कठिन और लम्बा संघर्ष करना पडे़गा। यद्यपि उदारवादियों ने भी स्वदेशी आन्दोलन का समर्थन किया था किन्तु स्वदेशी आन्दोलन के प्रति इन दोनों गुटों के दृष्टिकोण में अन्तर था। जहॉं उदारवादी स्वदेशी आन्दोलन को केवल ऐसा माध्यम समझते थे जिसके द्वारा अंग्रेजों पर दबाव डाला जा सकता था वहीं उग्र राष्ट्रवादियों की दृष्टि में स्वदेशी आन्दोलन एक ऐसा आन्दोलन था जिसके द्वारा भारतीय शिल्प को पुनर्जिवित किया जा सकता था और जो भारत के प्राचीन मूल्यों के अनुरूप तथा भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल था। इस अनुभूति के फलस्वरूप भारत के राष्ट्रवादियों में आत्मविश्वास की भावना पैदा हुई। उनकी दृष्टि में यह अत्यंत आवश्यक था कि भारतवासियों के मन में भारतीय संस्कृति के प्रति गर्व की भावना पैदा की जाए और अँग्रेज़ों द्वारा अपनी सांस्कृतिक मान्यताएँ लादने की नीति की निंदा की जाए क्योंकि यह नीति उपनिवेशों में रहने वाली जनता को गुलाम बनाकर रखने के विशेष उद्देश्य से अपनाई गई थी। एक प्रकार से उग्र राष्ट्रवादियों ने बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, अरविंन्द घोष तथा लाला लाजपत राय के नेतृत्व में जन-विद्रोह का आह्वान करके संघर्षात्मक राष्ट्रवाद को जाग्रत करने का प्रयत्न किया। 8 जून, 1906 को शिवाजी महोत्सव पर कलकत्ता में दिए गए अपने भाषण में तिलक ने कहा था कि - “इस समय स्वदेशी बहुत ज़रूरी है। हमें हर बात में स्वदेशी होना चाहिए, स्वदेशी की भावना माँ के दूध के साथ ही ग्रहण की जानी चाहिए, नौजवान पीढ़ी के मन में हर विदेशी वस्तु के प्रति गहरी घृणा की भावना पैदा की जानी चाहिए और ऐसा विदेशी वस्तुओं को जलाकर किया जा सकता है। स्वदेशी को अपना आदर्श बनाने के लिए पूरा प्रयत्न किया जाना चाहिए।“

इसी प्रकार बिपिन चंद्र पाल ने आत्मसम्मान का संदेश दिया और भारतवासियों से आग्रह किया कि वे भारत के लोगों की क्षमता में विश्वास रखें। स्वामी विवेकानंद की बातों का उद्धरण देते हुये उन्होने भारतवासियों को इन शब्दों में निर्भीकता का संदेश दिया - “यदि संसार में कोई पाप है तो वह दुर्बलता ही है; सभी प्रकार की दुर्बलता से बचो, दुर्बलता पाप है, दुर्बलता मृत्यु है और सत्य की यह पहचान है। जो कुछ तुम्हें शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाता है, उसका विष के समान परित्याग कर दो। उससे जीवन संभव नहीं है, वह सत्य नहीं हो सकता“।” 

इस भावना को प्रोत्साहित करने के लिए उग्र राष्ट्रवादी नेताओं ने स्कूल के लड़कों से जिम्नास्टिक समितियों तथा अखाड़ों में शामिल होने का आह्वान किया। इस प्रथा का बंगाल, महाराष्ट्र तथा बाद में पंजाब में भी प्रचलन हुआ। ब्रिटिश इतिहासकारों ने इसका यह अर्थ लगाया कि इस कार्यवाही की आड़ में नवयुवकों को क्रांतिकारी उद्देश्य से प्रशिक्षण दिया जा रहा था। इस प्रकार उग्र राष्ट्रवादियों ने नरमदल की उस मूल धारणा को अलग कर दिया जिसका आधार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को उच्च वर्ग के मुट्ठी भर पढ़े-लिखे लोगों तक सीमित रखना था। नए नेतृत्व का यह विश्वास था कि अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए कांग्रेस को संकीर्ण घेरे से बाहर निकलकर बड़े वर्ग को शामिल करने के लिए उसका आधार विस्तृत करना जरूरी है। उग्र राष्ट्रवादियों ने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नई नीति और कार्यपद्धति विकसित करने की कोशिश की। रंगभेद के कारण भारत के शिक्षित युवावर्ग की बढ़ती हुई निराशा, थोड़े वेतन और बेरोजगारी से उग्र राष्ट्रवादियों को अपनी नीति के कार्यान्वयन में सहायता मिली।

भारतीय जीवन, चिंतन और राजनीति के क्षेत्र में हुए बेतरतीब तथा ऊपरी पाश्चात्यीकरण ने संतुलित समन्वय की उस कल्पना को उलट-पलट कर दिया था जिसकी कल्पना राममोहन राय ने की थी। विपिन चन्द्र पाल और अरविंद घोष के नेतृत्व में गरमपंथी स्वामी विवेकानंद के नव-वेदांतिक आंदोलन से काफी प्रभावित थे। भारत में उग्रवाद की उत्पत्ति का यही कारण था। उग्रवाद तीन स्तरों पर विरोध के रूप में प्रकट हुआ-

1. आध्यात्मिक क्षेत्र में उसने पारंपरिक हिंदू धर्म और नैतिक तथा सामाजिक मूल्यों के प्रति ईसाई धर्म, उपयोगितावाद तथा ब्राह्मणवाद से पैदा हुए ख़तरे का मुक़ाबला किया। 

2. सांस्कृतिक क्षेत्र में उसने उस यंत्रवादी, भौतिकवादी एवं व्यक्तिवादी सभ्यता का मुक़ाबला किया जिससे विकास का स्वदेशी ताना-बाना नष्ट होता प्रतीत हो रहा था।

3. राजनीतिक क्षेत्र में उसने भारत के राष्ट्रीय व्यक्तित्व को उस विशाल तथा अप्रतिष्ठित ब्रिटिश साम्राज्य में आहिस्ता-आहिस्ता समा जाने से रोका जो ’गोरें लोगों का भार’ (ॅीपजमउंदष्े इनतकमद) की डींग तो मारता था किंतु जो अपने इस भार को काले और भूरे लोगों के कंधों पर ही लादता जाता था।

फलतः उग्र राष्ट्रवादियों ने व्यक्तिवाद और उदारवाद दोनों का ही खंडन किया जिनपर अंग्रेज़ी शिक्षा द्वारा पैदा की गई और अँग्रेज़ी क़ानून व्यवस्था द्वारा पोषित उन्नीसवीं सदी की यूरोपीय सभ्यता आधारित थी। सभी उग्रवादी नेताओं में भारतीय इतिहास तथा भारत की आध्यात्मिक विरासत के प्रति समान लगाव था, उन सभी में पश्चिम के भ्रमजाल को काटकर उससे बाहर निकलने की समान अभिलाषा थी और वे लोगों को भारतीय सभ्यता का पुरातन रूप अपनाने के लिए प्रेरित करते थे। वे वैदिक युग की पुरातन स्मृतियों को पुनर्जीवित करते थे और राणा प्रताप, शिवाजी और झाँसी की रानी की वीर गाथाओं की याद दिलाते थे। उन्हें भारतीय जनता की विशिष्ट प्रतिभा में पूरा विश्वास था। ’

इसमें संदेह नहीं कि उग्र राष्ट्रवादियों के सामने जो राजनीतिक कार्य था वह बहुत कठिन था। लोगों को उस पश्चिमी प्रभाव से मुक्ति दिलाने, उनमें राष्ट्रीयता की भावना पैदा करने और स्वराज्य की इच्छा की पूर्ति के उद्देश्य से राष्ट्रीय मान्यताओं को पुनर्जीवित करने के लिए यह आवश्यक था कि लोगों को भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक श्रेष्ठता का विश्वास दिलाया जाए। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत की नवोदित शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले संघर्षवादी नेताओं ने प्राचीन भारतीय परंपराओं तथा भारतीय संस्कृति के प्रति गर्व की भावना पैदा करने के लिए धर्म पर आधारित नारों को गढ़ा। इसी उद्देश्य से तिलक ने महाराष्ट्र में ‘गणेश महोत्सव‘ तथा ‘शिवाजी महोत्सव‘ को संगठित किया। अरविन्द घोष ने पूरे एक महीने तक चलने वाली ’काली पूजा का आरंभ किया और लाजपतराय ने पंजाब में आर्य समाज आंदोलन को सशक्त बनाने में सहायता दी। यह सब इन लोगों ने अपने ब्रिटिश-विरोधी कार्यक्रम के अंतर्गत किया। इन समारोहों को सामूहिक रूप देकर और उन्हें राष्ट्रीय उत्साह, धार्मिक चेतना और सामाजिक एकता उत्पन्न करने का प्रभावी माध्यम बनाकर नया नेतृत्व जनसाधारण को ब्रिटिश-विरोधी लहर में शमिल करने में सफल हुआ। 

भारत के प्राचीन गौरव की पुनःस्थापना से राष्ट्रीय भावनाएँ पैदा करने में सहायता अवश्य मिली, किंतु पुनर्जागरणवादी नारों और धार्मिक-राजनीतिक मार्ग से भले ही ये लोग जनता के अधिक निकट आने में सफल हुए हों और भले ही उन्हें जन-साधारण को संगठित करने में सहायता मिली हो किंतु इससे वे नरमदल द्वारा अब तक अपनाए गए धर्मनिरपेक्षवाद के रास्ते से भी दूर चले गए। दूसरी ओर संघर्षवादियों ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए धार्मिक जोश को उभारा। नतीजा यह हुआ कि वे ब्रिटिश-विरोधी आंदोलन में बहुसंख्यक हिंदुओं का समर्थन प्राप्त करने में सफल तो अवश्य हुए किंतु उनकी विचारधारा दो प्रमुख समुदायों - हिंदू और मुसलिम के बीच परस्पर विरोध की प्रवृत्ति पैदा करने में सहायक हुई, क्योंकि दोनों समुदायों की दृष्टि में पुनर्जागरणवाद का महत्त्व अलग-अलग था। इस नए दृष्टिकोण ने भविष्य में होने वाले अलगाववादी आंदोलन का बीज बोया क्योंकि जब धार्मिक गौरव को राष्ट्रीय गौरव पर प्रधानता दी गई तो धार्मिक मतभेदों का बढ़ना अवश्यंभावी था। इसका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रीयता के बारे में धर्मनिरपेक्ष और बहुधर्मवादी दृष्टिकोण के विकास में बाधा आई और इस प्रवृत्ति ने मुसलमानों को स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय रुप से भाग लेने के लिए अधिक प्रेरित नहीं किया। हालॉंकि तिलक का राष्ट्रवाद न तो संकीर्ण था और न ही वह धर्म की परिधि में सीमित था। यह सत्य है किं तिलक ने धर्म का राजनीतिक औज़ार के रूप में और स्वराज्य के संघर्ष में एक हथियार के रूप में प्रयोग किया लेकिन धार्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अपनी राजनीति का प्रयोग नहीं किया। मेरी दृष्टि में गणेश और शिवाजी महोत्सव को मनाना, यहाँ तक कि काली पूजा, शुद्धि और संगठन का उपयोग हिंदुओं को संगठित करने के लिए किया गया था किंतु इनका भारत को राष्ट्र के रूप में संगठित करने से कोई विरोध नहीं था। इस प्रकार तिलक का दृष्टिकोण सांप्रदायिक नहीं था। वे हिंदू-मुसलिम एकता के बड़े इच्छुक थे और इस विषय में उनमें बहुत उत्साह था। वस्तुतः उन्होंने 1916 ई0 में लखनऊ में कांग्रेस-लीग योजना तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। इतिहासकारों का मानना है कि उन्होंने धार्मिक परंपराओं को केवल इसलिए पुनर्जीवित किया क्योंकि वह केवल अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों को ही नहीं वरन् अधिसंख्य अनपढ़ और रूढ़िवादी लोगों को भी आकर्षित करना चाहते थे। 

रजनी पामदत्त, ए0 आर0 देसाई एवं उनकी विचारधारा के अन्य चिंन्तक इस बात से तो सहमत हैं कि उग्र राष्ट्रवादी नेताओं का दृष्टिकोण सांप्रदायिक नहीं था; किंतु उनके द्वारा अपनाए गए तरीके परस्पर विरोधी साबित हुए। वे जनसाधारण को आंदोलन में शामिल करके उसे विस्तृत आधार देना चाहते थे, जो कि राजनीतिक दृष्टि से एक प्रगतिशील एवं मौलिक क़दम था- किंतु जो नारे उन्होंने गढ़े थे उनसे अनेक धर्मावलंबी समाज में ग़ैर-हिंदुओं और विशेषकर मुसलमानों के आंदोलन में शामिल होने में बाधा आई और इन नारों से राष्ट्रीय आंदोलन में रुकावट आई और यह कमजोर हुआ। इन लेखकों ने उग्र राष्ट्रवादी नेताओं को ’रूढ़िग्रस्त राष्ट्रवादी’ की संज्ञा दी। इस प्रकार हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा अँग्रेजों के विरुद्ध संयुक्त रूप से संघर्ष करने की संभावना कम हो गई और इससे अलगाववादियों का काम आसान हो गया। स्वाधीनता संघर्ष के इतिहास में बाद में हुई घटनाएॅं यह प्रमाणित करती है कि सांप्रदायिकता को संघर्षवादियों द्वारा अपनाई गई नीति से समर्थन मिला। इस नीति से सांप्रदायिक मुसलिम नेतृत्व को और ब्रिटिश शासकों को भी सहायता मिली। राष्ट्रवाद के राजनीतिक स्वरूप को आध्यात्मिकता की ओर मोड़े जाने के फलस्वरूप उस धर्मनिरपेक्षवाद का स्वरूप भी विकृत हो गया जिसका पोषण नरमदल अथवा उदारवादियों ने किया था।

उग्र राष्ट्रवादियों की रणनीति :

उल्लेखनीय है कि उग्र राष्ट्रवादी इस विषय में आश्वस्त थे कि भारत तथा इंग्लैंड के हितों में कोई मेल नहीं था वरन् वे एक-दूसरे के विपरित थे इसीलिए उनके लिए यह आवश्यक था कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनी राजनीतिक पद्धति में परिवर्तन लाएँ। तिलक को यह स्पष्ट दिखाई देता था कि ब्रिटिश शासन का स्वरूप औपनिवेशिक शोषण पर आधारित खुला साम्राज्यवाद था। उन्होंने यह अनुभव किया कि भारत के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया और रेलवे, टेलीग्राफ़, डाक-सेवाओं का शुरू किया जाना और सड़कों का विकास आदि सभी काम ब्रिटिश उत्पादकों को तथा शासक वर्ग को लाभ पहुँचाने के लिए किए जा रहे थे, भारतवासियों को लाभ पहुँचाने के लिए नहीं। तिलक ने उदारवादियों के वैधानिक आंदोलन की इस आधार पर आलोचना की कि भारत का अपना कोई संविधान न था। फलतः उन्होंने वैधानिक आंदोलन के स्थान पर शांतिपूर्ण प्रतिरोध को अपनाया। वे भारत को आज़ाद कराने के लिए आतंकवादी तरीक़े और हथियारों का प्रयोग किए जाने के विरुद्ध थे। उनके राजनीतिक हथियार बहिष्कार (बायकाट), स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षण थे। उनका विश्वास था कि वे आत्मनिग्रह तथा संयम के द्वारा विदेशी शासकों से असहयोग कर उनका भारत में बने रहना अलाभकर बना सकते थे। चूॅकि भारत में ब्रिटिश शासन इस देश के व्यापारिक शोषण पर आधारित था इसलिए उग्र राष्ट्रवादियों का विचार था कि ऐसा करके वे उस शासन की जड़ को हिला सकेंगे और साथ ही भारतीय उद्योग तथा व्यापार को सशक्त बनाकर भारत के लोगों में आत्मविश्वास की भावना बढ़ा सकेंगे। बहिष्कार (बायकाट) का अर्थ स्पष्ट करते हुए लाला लाजपत राय ने कहा -“सरकार की प्रतिष्ठा सर्वोपरि है और बायकाट के द्वारा उस प्रतिष्ठा के आधार को समाप्त किया जा सकता है...।’ 

उग्र राष्ट्रवादी यथार्थवादी थे और इस बात को जानते थे कि वे सरकार की विशाल सैनिक शक्ति की बराबरी नहीं कर सकते थे। इसीलिए वे क्रान्तिकारी और हिंसात्मक तरीक़ों को पसंद नहीं करते थे। वे शांतिपूर्ण प्रतिरोध के माध्यम से जनसाधारण को आंदोलन में शरीक़ करने का समर्थन करते थे। किंतु वे नरमदल वालों की तरह क्रान्तिकारियों को ’बदमाश’ और ’अपराधी’ नहीं कहते थे और उनकी गतिविधियों की निंदा नहीं करते थे। उन्हें इस बात का विश्वास था कि क्रान्तिकारी नवयुवकों में देश से ज़बरदस्त प्रेम था। 

शिक्षा के क्षेत्र में भी उग्र राष्ट्रवादी नेताओं ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने यह अनुभव किया कि अँग्रेज़ लोग भारतीय संस्कृति और सामाजिक परंपराओं को ही नहीं दबा रहे थे वरन् उन्होंने यहाँ अपनी प्रगतिशील भूमिका को भी तिलांजलि दे दी थी। प्राथमिक एवं तकनीकी शिक्षा की बुरी तरह उपेक्षा की जा रही थी। उच्चतर शिक्षा के प्रति लोगों को हतोत्साहित किया जाता था और देश में शिक्षा के प्रसार को सामान्यतः सीमित रखा जाता था। 1904 के भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम का उग्र राष्ट्रवादियों ने यही अर्थ लगाया कि उसके द्वारा विश्वविद्यालयों को कड़े सरकारी नियंत्रण में लाने का प्रयत्न किया जा रहा था। ये नए राजनीतिक नेता इस बात से भी चिंतित थे कि शैक्षणिक पाठ्यक्रम नौजवानों के मन में दासता की भावना पैदा करता था। इसमें संदेह नहीं कि अंग्रेज़ी भाषा के द्वारा लोगों को “सामाजिक, प्राकृतिक-वैज्ञानिक एवं तार्किक दर्शन के साहित्य“ के अध्ययन करने का अवसर मिलता था जिससे “जनतांत्रिक एवं राष्ट्रीय चिंतन का भंडार सुलभ होता था“ किंतु यह लाभ केवल मुट्ठीभर बुद्धिजीवियों तक ही सीमित था। ऐसे पश्चिमी शिक्षा प्राप्त नवयुवक भारतीय संस्कृति एवं परंपरा को तुच्छ समझते थे और पश्चिमी रहन-सहन की ओर अधिक आकर्षित होते थे। उन्हें पूरा विश्वास था कि भारत को अँग्रेज़ी की गुलामी से आज़ाद कराने से पहले यह ज़रूरी था कि युवा वर्ग को मानसिक दासता से मुक्त किया जाए। फलतः उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षण केंद्र खोलने का आंदोलन चलाया। इस दिशा में किए गए प्रयत्नों के रूप में बीसवीं सदी के पहले दशक में देश के विभिन्न भागों में थियोसॉफ़िकल स्कूल और कॉलेज, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, और डी0 ए0 वी0 स्कूल खोले गए। इन संस्थानों ने राष्ट्रीय विचारधाराओं के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। किंतु दूसरी ओर उनके कारण सांप्रदायिकता का भी प्रसार हुआ और अन्य धर्मों के नेताओं ने भी अपने-अपने धर्मों पर आधारित संस्थाएँ क़ायम करना शुरू कर दिया।

इस प्रकार 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में भारत का राष्ट्रवाद अपेक्षाकृत अधिक संघर्षशील, स्वतंत्र, आत्मचेतन और स्वाभिमानी होता जा रहा था। राष्ट्रवाद का यह स्वरूप नरमदल की झिझक और लज्जा से पूर्ण आकांक्षाओं से बिलकुल भिन्न था। 1905 में हुए बंगाल के विभाजन से संघर्षवादियों का यह विश्वास और भी मजबूत हो गया था कि अँग्रेज़ों के इरादे बुरे थे। अतः युवावर्ग ने उग्र राष्ट्रवादी नेताओं के आह्वान के प्रति बहुत उत्साह दिखाया। उग्र राष्ट्रवादियों की कार्यप्रणाली को लाला लाजपतराय के इन शब्दों में अच्छी तरह व्यक्त किया जा सकता है -

“हम अपने मुँह को राजभवन की ओर से हटाकर जनसाधारण की झोंपड़ियों की ओर मोड़ना चाहते हैं, हम चाहते हैं कि हम सरकार से अपील करने के लिए अपना मुँह न खोलें वरन् अपने जनसाधारण से अपील करने के लिए खोलें। बायकाट आंदोलन का यही मनोविज्ञान है, यही आचार है और यही आध्यात्मिक महत्त्व है।’‘ इस प्रकार उग्र राष्ट्रवादियों ने बायकाट, स्वदेशी, धार्मिक उत्सवों और राष्ट्रीय शिक्षण का राष्ट्रीय आत्मसिद्धि के उपकरणों के रूप में प्रयोग किया। जवाहरलाल नेहरू ने जो उस समय इंग्लैंड में विद्यार्थी थे, अपनी आत्मकथा में युवा वर्ग की प्रतिक्रिया को इन शब्दों में व्यक्त किया है -

“1857 के विद्रोह के बाद भारत पहली बार दब्बू बनकर शासन को स्वीकार करने के बजाए उससे लड़ रहा था। तिलक और अरविंद घोष की गतिविधियों से प्रभावित होकर जिस प्रकार बंगाल की जनता स्वदेशी को अपना कर बायकाट की शपथ ले रही थी, उसके समाचारों ने इंग्लैंड में रहने वाले हम सब लोगों को उत्साहित किया था। लगभग हम सभी भारत की भाषा में उग्रवादी अथवा तिलकवादी थे।‘‘

उदारवादी एवं उग्रवादी विचारधारा में अन्तर :

उदारवादी विचारधारा के नेता ब्रिटिश सरकार को ईश्वरीय देन मानते थे और उनकी संघर्ष नीति संवैधानिक उपायों द्वारा क्रमिक विकास की थी, जबकि उग्रवादी विचारधारा के नेता विप्लवकारी और क्रान्तिकारी आन्दोलन में विश्वास रखते थे। वे ब्रिटिश सरकार को महज एक आर्थिक शोषक एवं स्वार्थ पूर्ति के साधक मानते थे। दोनों की कार्य-पद्धति एवं सिद्धान्तों में अन्तर निम्नलिखित हैं

1. उदारवादी या नरमपंथी ब्रिटिश शासन को भारत के लिए लाभप्रद समझते थे। उनकी इच्छा स्वराज्य प्राप्त करने की अवश्य थी पर वे ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत ही स्वशासन के इच्छुक थे। उनकी इच्छा ब्रिटिश शासन को भारत से अलविदा करने की कभी नहीं थी। इस दल से सम्बन्धित डॉ0 रासबिहारी घोष जो सन् 1907 ई0 में काँग्रेस के अध्यक्ष थे, ने अंग्रेजी शासन के प्रति आस्था प्रकट करते हुए कहा था- “हम जानते हैं कि एक राष्ट्र के रूप में हमारे स्वाभाविक विकास के लिए ब्रिटिश शासन का जारी रहना पूर्ण रूप से आवश्यक है। मैं भी विश्वास करता हूँ कि ब्रिटिश शासन भारत के लिए अच्छा बना रहे। हमारे देश के प्रति हमारा कर्त्तव्य यह माँग करता है कि हम शासन करने के बजाए शासन की न्यायप्रियता एवं श्रेष्ठता के प्रति वफादार रहें।”

इसके दूसरी तरफ उग्रवादी विचारधारा के लोग ब्रिटिश शासन को कुष्ठ रोग की तरह स्वीकारते थे। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि ब्रिटिश शासक पूर्णतः निकम्मे एवं पक्षपातपूर्ण न्याय, आर्थिक शोषण, साम्राज्यवादी शासन के जनक हैं। उनके प्रति वफादार होने से बड़ी कोई मूर्खता हो ही नहीं सकती। उनकी विचारधारा को स्पष्ट करते हुए विपिन चन्द्र पाल ने अपने एक भाषण में कहा था- “यदि हम ब्रिटिश सरकार के प्रति या इंग्लैण्ड में क्राउन के प्रति वफादारी दिखाते हैं, तो यह झूठ है। बुद्धिवादी वर्ग यह नहीं समझ सकता कि अन्याय व कुशासन के प्रति वफादार कैसे रहा जा सकता है, जबकि हमने दृढ़ता से यह आरोप उन पर प्रत्यारोपित किए हैं।“

2. उदारवादी या नरमपंथी नेता क्रमिक सुधारों के माध्यम से स्वशासन प्राप्त करने की इच्छा रखते थे। उनकी भावना पूर्ण स्वतन्त्रता के पक्ष में नहीं रही। वे सिर्फ आस्ट्रेलिया, कनाडा जैसी औपनिवेशिक स्थिति के पक्षधर थे। उनकी इच्छा थी कि स्वशासन भी उन्हें अंग्रेजी सरकार के अन्तर्गत ही प्राप्त हो। इसके दूसरी तरफ उपवादियों को प्रार्थनाएँ, आवेदन एवं याचिकाओं की नीति पसन्द नहीं थी। वे पूर्ण स्वराज्य के पक्षधर थे। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इस सम्बन्ध में घोषणा भी की थी - “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, उसे हम लेकर ही रहेंगे।“ स्वराज्य की आवश्यकता को प्रदर्शित करते हुए लोकमान्य तिलक ने आगे कहा था- “स्वराज्य या स्वशासन स्वधर्म के पालन की प्रथम आवश्यकता है और स्वराज्य के बिना यहाँ न सामाजिक सुधार हो सकते हैं और न औद्योगिक प्रगति, न ही उपयोगी शिक्षा और न ही राष्ट्रीय जीवन की पूर्ति।“ इसी वक्तव्य को धुन देते हुए विपिनचन्द्र पाल ने भारतीयों से आत्मविश्वास को जाग्रत करने एवं विकसित करने पर बल दिया।

3. उदारवादी या नरमपंथी नेता संवैधानिक एवं शांतिपूर्ण उपायों के हिमायती थे। हिंसा, विप्लव, क्रान्ति से वे दूर रहना चाहते थे। वे प्रार्थनाओं, याचनाओं के जरिए अपनी माँग का महत्त्व समझाते हुए उसे लागू करने के लिए कहते थे और मात्र आशा करते थे कि न्याय के दाता अंग्रेज एक दिन उनकी माँग को मान ही लेंगे। उदारवादी बहिष्कार, असहयोग और उग्र प्रतिरोध की नीति के कट्टर विरोधी थे।

इसके विपरीत उग्रवादी विचारधारा के लोग संवैधानिक तरीकों, आवेदन, प्रार्थनाओं एवं याचनाओं को सिर्फ ढोंग समझते थे जिससे कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। वे अपने कानूनी अधिकारों को प्राप्त करने के लिए शक्ति का प्रयोग आवश्यक समझते थे। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने सक्रिय प्रतिरोध की वकालत की। तिलक ने इन तथ्यों को समाविष्ट कर अपनी अभिव्यक्ति में कहा था- “यह सम्भव है कि हम ब्रिटिश प्रशासन के समक्ष कठिनाइयाँ खड़ी कर दें, यदि हम अपने अधिकारों के लिए पूर्ण निश्चय व दृढ़ता के साथ लड़ें और बहिष्कार व हड़ताल का सहारा लें। भारत में संचालित होने वाले प्रशासन में हमसब शक्तिशाली कारक है, इसका अहसास हमसब को होना चाहिए। चाहे आप दलित हों, उपेक्षित हों, आपको अपनी उस शक्ति का बोध होना चाहिए कि यदि आप चाहें तो आप प्रशासन को ठप्प कर सकते हैं, यदि इसके लिए आप तैयार हों। ये आप लोग ही हैं जो रेल, सड़क व तार व्यवस्था का प्रबन्ध देखते हैं, व्यवस्थायें देखते हैं और कर एकत्रित करते हैं। वास्तव में आप ही हैं जो प्रशासन का सारा कार्य देखते हैं। यदि आप अपने आपको इससे अलग कर लें तो सारी कार्य-प्रणाली ठप्प हो जायेगी। 

4. उदारवादी स्वदेशी के पक्ष में तो थे, लेकिन बायकाट को एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के पक्ष में नहीं थे। परन्तु लाला लाजपत राय जैसे नेताओं का यह कहना कि अंग्रेज तभी भारतीयों की तकलीफों को समझेंगे जब उनकी जेब को खतरा पैदा होगा। यह मेनचेस्टर के उपर दबाव डालने का एक तरीका था और भारतीयों में आत्मनिर्भरता लाने का एक आवश्यक अंग था।

उग्रवादी विचारधारा के नेता बहिष्कार को एक अद्वितीय शस्त्र मानते थे और स्वदेशी के प्रति गहरा विश्वास रखते थे। प्रारम्भिक अवस्था में उग्रवादियों ने बहिष्कार का सहारा ब्रिटिश औद्योगिक क्रान्ति ठप्प करने की दृष्टि से किया, ताकि सरकार बंगाल विभाजन को खत्म कर दे। मगर इसकी प्रभावशीलता ने उन्हें यह निश्चय करा दिया कि भारत के आर्थिक शोषण के विरोध में भी यह हथियार प्रयोग में लाया जा सकता है। बहिष्कार के महत्त्व को प्रदर्शित करते हुए लाला लाजपत राय ने विद्यार्थियों को उत्साहित किया कि वे सरकार द्वारा नियन्त्रित संस्थाओं को छोड़कर राष्ट्रीय संस्थाओं से सम्पर्क करें तो राष्ट्रीय हित में होगा।

5. उदारवादी और उग्रवादी विचारधारा दोनों में अपने स्वयं के मामले निर्धारित करने में भी मतभेद था। उदारवादी सोचते थे कि भारतीय अभी स्वशासन के लिए तैयार नहीं हैं और उन्होंने कहा कि जिस समय भारतीयों में स्वशासन के लिए योग्यता हो जाएँ तभी वो अपनी माँग ब्रिटिश सरकार के सामने रखे। जबकि उग्र विचारधारा के लोगों का मानना था कि भारतीय स्वशासन के लिए पूर्णतः तैयार हैं। स्वशासन भारत को मिलना ही चाहिए। इस सम्बन्ध को व्यक्त करते हुए गरमपंथी नेता विपिन चन्द्र पाल ने कहा - “स्वशासन की कला को सिखाने के लिए स्वयं स्वशासन से अच्छा शिक्षक कोई नहीं है। इसका मूल्य स्वतंत्रता है और यह तुरन्त व बिना शर्त स्वायत्तता चाहता है। लोगों की योग्यता व अयोग्यता का कोई प्रश्न नहीं है क्योंकि यह किसी भी रूप या आकार में दासता को पसंद नहीं करती है और वास्तविक स्वतंत्रता के लिए किसी विद्यालय की, किसी भी देश व किसी भी परिस्थिति की आवश्यकता नहीं है। स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष ही स्वतन्त्रता का उच्चतम शिक्षक है। 

6. उदारवादी विचारधारा के नेताओं की राजनीतिक मनोवृत्ति आध्यात्मिक समन्वयवादी थी। वे हिंसा, आत्म-बलिदान की प्रक्रिया को महत्त्वपूर्ण भाग नहीं मानते थे। इसके विपरीत उग्रवादी प्रवृत्ति के लिए बलिदान अत्यावश्यक तत्त्व था। उन्होंने स्पष्ट किया कि जिस कार्य को मेहनत व बलिदान के बिना ही प्राप्त किया जाए उसे अधिक सम्मान नहीं मिलता। इसके अलावा त्याग व पीड़ा से हासिल वस्तु की प्रियता अधिक बढ़ जाती है। अतएव किसी दिव्य वस्तु जैसे स्वतन्त्रता को हासिल करने के लिए अधिक बलिदान की जरूरत है। 

उपलब्धियॉ और मूल्यांकन :

इस प्रकार उग्र राष्ट्रवादी नेताओं ने भारत के राजनीतिक जीवन के एक नए चरण का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने नरमवादियों की समझौतापरस्त राजनीति और ब्रिटिश न्यायप्रियता और ईमानदारी में विश्वास की नीति का परित्याग करने में पहल की। उन्होंने आर्थिक जंजीरों के बंधन को ढीला करने की ही माँग नहीं की अपितु स्वतंत्र आर्थिक विकास की योजना भी बनाई। इन्हीं नेताओं ने सर्वप्रथम खुलकर यह बात कही कि राजनीतिक आज़ादी ही राष्ट्र का जीवन है और स्वराज्य की प्राप्ति ही उस आज़ादी की चरम अवस्था है।

लाला लाजपतराय और बिपिन चंद्र पाल ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे स्वतंत्र भारत में ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें 90 प्रतिशत जनता के कल्याण को प्रमुखता दी जाए। इसी अवधि में किसानों में आंदोलन की झलक देखने को मिली जिसका राष्ट्रीय प्रेस ने प्रचार किया। इसी अवधि में तिलक को 6 वर्ष के कारावास का दंड दिए जाने के विरोध में एक राजनीतिक प्रश्न को लेकर वस्त्र उद्योग में पहली बार हड़ताल हुई। उग्र राष्ट्रवादी नेताओं ने आज़ादी के संघर्ष को अधिक विस्तृत करने की बात कहकर राजनीतिक चातुर्य और समझदारी का परिचय दिया। इस बात से समाज के ग़रीब वर्ग - किसान और मज़दूर, शिक्षित बेरोज़गार नवयुवक, असंतुष्ट निम्न मध्यवर्ग और कम वेतन पाने वाले बुद्धिजीवी तथा अन्य व्यवसायों में लगे लोग बहुत आकर्षित हुए और आम लोगों को यह विश्वास हो गया कि औपनिवेशिक व्यवस्था में उनका पहला काम यही है कि विदेशी शासकों को भारत भूमि से निकाल बाहर करें।

इस प्रकार संघर्षवादियों ने जनता की आर्थिक समस्याओं का औपनिवेशिक शासन से जुड़े होने का प्रचार कर जनता में राजनीतिक चेतना जाग्रत करने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके राजनीतिक दृष्टिकोण का यह पक्ष न केवल प्रगतिशील था वरन् क्रांतिकारी भी था।

लेकिन इन तमाम उपलब्धियों और अपनी सही राजनीतिक समझ के बावजूद उग्र राष्ट्रवादी नेता जनता के उत्साह को  एक संगठित आंदोलन का रूप नहीं दे सके। यह कार्य आगे चलकर गाँधी जी के काल में हुआ। वास्तव में नरमपंथियों के विफल होते ही, ब्रिटिश सरकार ने सारे सरकारी तंत्र को उग्रवादियों की गतिविधियों का दमन करने में लगा दिया। ब्रिटिश साम्राज्यवादी मुख्यतः गरमदल वालों को अपना दुश्मन समझते थे और इसलिए गरमदल के चारों बडे नेताओं को उनके कोप का शिकार होना पडा। 1908 में समाचार-पत्रों का मुँह बंद करने के लिए समाचारपत्र विधेयक पारित किया गया, जिसका उद्देश्य अपराध के लिए भड़काने पर रोक लगाना था। आतंकवादी अभियोगों से निपटने के लिए ’दंडविधि संशोधन अधिनियम, 1908 (च्मदंस ब्वकम ।उमदकउमदज ।बज) लागू किया गया और वाणी की स्वतंत्रता को समाप्त करने के लिए ’राजद्रोह सम्मेलन अधिनियम, ;ैमकपबपवने डममजपदह ।बजद्ध 1911 पारित किया गया। पंजाब के लाहौर में एक अंग्रेज पत्रकार द्वारा अपने नौकर को गोली मारने तथा रावलपिंडी में एक औरत का गोरे स्टेशन मास्टर द्वारा बलात्कार किये जाने के मामले में सम्बद्व अंग्रेजों को निर्दोष करार दिये जाने की घटना से पंजाब में हालात विस्फोटक होने लगा। लाला लाजपत राय के अंग्रेजी दैनिक पत्र ‘पंजाबी‘ के लेखों और टिप्पणियों ने पंजाब के नौजवानों को नया जोश और नया स्वर दिया। जालंधर के सरदार अजीत सिंह पंजाब के नौजवानों के नेता बनकर सामने आये और उन्होने ‘‘भारतमाता सोसायटी‘‘ नामक संस्था की स्थापना की। यह संस्था पंजाब में गरमदल के लोगों का केन्द्र बन गई। इसी तरह के उग्र आन्दोलन बंगाल और महाराष्ट्र में भी हुये। इसके परिणामस्वरूप 1907 से 1909 के बीच तिलक, लाला लाजपतराय और अरविंद घोष को गिरफ्तार कर लिया गया जिससे गरमपंथियों को भारी धक्का लगा। जब ये नेता रिहा किए गए तब ऐसा लगा कि उनका मनोबल पूरी तरह टूट चुका है। लाजपतराय देश से बाहर जाने को तैयार हो गए, अरविंद घोष भागकर पांडिचेरी चले गए और केवल तिलक जो 1914 में रिहा हुए, श्रीमती एनी बेसेंट की सक्रिय सहायता से होमरूल आंदोलन चलाते रहे किंतु इस आंदोलन में शुरू का आक्रामक जोश अब नहीं था। इस प्रकार गरमपंथी नेता न तो लोगों को सुस्पष्ट नेतृत्व प्रदान कर सके और न ही कोई ठोस संगठन खड़ा कर पाये। 

एक प्रकार से हम कह सकते है कि गरमपंथी अथवा उग्र राष्ट्रवादी 20वीं सदी के आरंभ में पैदा हुई नई शक्ति का उपयोग करने में असफल रहे। उन्होंने लोगों को नींद से जगाया तो अवश्य किंतु उन्हें आज़ादी के सुनहरे प्रभात की ओर ले जाने में वे असफल रहे। नरमपंथियों और गरमपंथियों के बीच के अंतर को ए. त्रिपाठी ने बड़े सुन्दर शब्दों स्पष्ट किया है - “यह अंतर वर्ग का नहीं वरन् लक्ष्य की प्राथमिकता का था।‘‘ दोनों भारत की गरीबी के लिए ब्रिटिश शासन को दोष देते थे, किंतु जहाँ उदारवादी ब्रिटिश राज की ईमानदारी पर संशय करके ही रह जाते थे, वहीं उग्रवादियों ने आर्थिक पुनर्निर्माण के ब्रिटिश राज से छुटकारा पाने का निर्णय किया, किंतु इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनाए गए तरीके, ब्रिटिश प्रशासन की दमनकारी नीति, कार्यक्रम के प्रभावी क्रियान्वयन के विषय में नेतृत्व की अस्पष्टता और प्रथम महायुद्ध के आरंभ होने के फलस्वरूप इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनाए गए तरीके सफल नहीं हो सके। 

लेकिन इन तमाम कमियों और दोषों के वावजूद उग्र राष्ट्रवादियों के उस योगदान का महत्त्व कम नहीं हो जाता जो उन्होंने जनजागरण और जनआंदोलन के युग का अग्रदूत बनकर किया। राष्ट्रीय आन्दोलन में उग्रवादियों की सबसे महत्वपूर्ण देन यह थी कि उन्होने भारतीयों को सन्देश दिया कि वे राजनीतिक भिक्षावृति और अंग्रेजों की कृपा पर निर्भर रहने की बजाय आत्मशक्ति और आत्मनिर्भरता पर भरोसा करें। उग्रवादी राष्ट्रवादियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन को आक्रामक स्वरूप प्रदान किया। इस आंदोलन को सफल बनाने के लिए बॉयकाट और हड़ताल जैसे शस्त्रों का इस्तेमाल किया गया और वंदेमातरम् गीत से सभी दिशाएँ गूंज उठीं। रवींद्रनाथ टैगोर के स्वदेशी गीतो ने जनता की भावनाओं को स्वर दिया। स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और सक्रिय प्रतिरोध के द्वारा जनता में आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीयता की नयी लहर का जो बीजारोपण हुआ, बाद में महात्मा गॉंधी ने भी इसी स्वदेशी और बहिष्कार के साधनों को असहयोग आन्दोलन का प्रमुख आधार बनाया। उग्रवादियों की राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली से भारत की युवा पीढ़ी में राष्ट्रीयता की भावना का संचार हुआ और उनमें अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति निष्ठा उत्पन्न हुई। जिस राष्ट्रवादी भावनाओं के ज्वार को उग्र राष्ट्रवादियों ने उद्वेलित किया उससे भारतीय जनता राजनीति में निर्भीक तथा जुझारू रवैया अपनाना सीख चुकी थी और इसने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में क्रान्तिकारी राष्ट्रवाद के लिए रास्ता तैयार कर दिया। 

राष्ट्रीय आन्दोलन को उग्र-राष्ट्रवादियों की जो देन रही उसने राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाया तथा स्वाधीनता संग्राम में सभी वर्गों और जातियों को सम्मिलित कर दिया। गरमपंथियों के प्रयत्नों से सारे देश में ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी निरंकुश नीति के विरुद्ध घोर प्रतिक्रिया व्याप्त हो गई और विदेशी हुकूमत यह सोचने को मजबूर हो गई कि भारतीयों की माँगों की अधिक उपेक्षा करना उचित नहीं है। यह श्रेय गरमपंथियों को ही जाता है कि उन्होंने ’स्वराज्य’ का मन्त्र फूँका। स्वराज्य प्राप्ति के लिए गरमपंथियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के स्वरूप को बहुमुखी बना दिया अर्थात् अनेक आन्दोलन छेड़ दिए जो संयुक्त रूप में राष्ट्रीय आन्दोलन की विभिन्न धारा बन गए। तिलक और उनके साथियों ने अपने अथक प्रयासों से काँग्रेस को एक शक्तिशाली जन-आन्दोलन में परिणित कर दिया और स्वाधीनता संग्राम केवल शिक्षित वर्ग तक ही सीमित नहीं रहा। उदारवादियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन की जो सैद्धान्तिक और वैचारिक आधारशिला रखी थी, उसे नया रूप देकर उग्र राष्ट्रवादियों ने मजबूती प्रदान की। उग्र राष्ट्रवादियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन को पुनरुत्थान और पुनर्निर्माणवाद की आधारशिलाएँ प्रदान कीं। गरमपंथियों ने इस बात पर बल दिया कि यदि भारत में सच्ची राष्ट्रीयता का प्रसार करना है तो प्राचीन संस्कृति का पुनर्जागरण अनिवार्य है। उनकी दृष्टि में राष्ट्रवाद का सम्बन्ध तीव्र संवेगों और अनुभूतियों से होता है। वस्तुतः भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन पर इसका व्यापक और स्थायी प्रभाव पड़ा।


Post a Comment

Previous Post Next Post