window.location = "http://www.yoururl.com"; Robert Clive | रॉबर्ट क्लाइब

Robert Clive | रॉबर्ट क्लाइब




1742 में रॉबर्ट क्लाईव ईस्ट इंडिया कम्पनी में एक क्लर्क के रूप में भतीं हुआ था परन्तु अपनी योग्यता के बल पर उन्होंने 1751 ई0 में अंग्रेजी सेना में कैप्टन का पद और 1757 ई0 में उन्हें बंगाल का गवर्नर बनाया गया था। क्लाइव का जन्म 29 सितंबर, 1725 को, शॉर्पीयर, इंग्लैण्ड़ में  में हुआ था। 1743 में, उनके पिता ने ’ईस्ट इंडिया कंपनी’ में एक लेखक (कनिष्ठ लिपिक) के रूप में क्लाइव के लिए नौकरी की कोशिश की और सुरक्षित किया। अगले 2 वर्षों के लिए, क्लाइव ने कंपनी के कार्यालय में काम किया। 
उस समय, भारत में अंग्रेजों और फ्रांसिसियों के बीच प्रतिद्वंद्विता चल रही थी और वे स्थानीय राजनीतिक स्थितियों का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे थे। वे न केवल अपने व्यापार हित की रक्षा के लिए बल्कि क्षेत्र और भू-राजस्व को संलग्न करने के लिए सैनिकों का उपयोग कर रहे थे। आंग्ल-फ्रांसिसी प्रतिस्पर्धा के अन्तर्गत भारत की सरजमीं पर अंग्रजों और फ्रांसिसियों के मध्य कर्नाटक में तीन प्रमुख युद्ध लड़े गये जिन्हे हम कर्नाटक के युद्ध के नाम से जानते है। इसी दौरान 1757 ई0 में राबर्ट क्लाइब को बंगाल स्थित ब्रिटिश क्षेत्रों का गवर्नर बनाया गया और इस पद पर वह 1760 ई0 तक कायम रहा। उसकी गवर्नरी के प्रथम कार्यकाल में अंग्रेजों ने प्लासी के युद्ध में बंगाल के शासक को पराजित कर उसपर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। इसी दौरान 1760 के वाण्ड़ीवाश के युद्ध में उसने पूरी तरह से फ्रांसिसियों को परास्त करने में सफलता अर्जित की और अन्ततः फ्रंसिसियों को अपना बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ा। गवर्नर के रुप में क्लाइब के प्रथम कार्यकाल की यह सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि थी।

क्लाइव का दूसरा कार्यकाल, 1765-67

बक्सर की विजय का समाचार जब इंग्लैंड पहुँचा तो सब का मत था कि जिसने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव रखी है उसे ही उस साम्राज्य को सुदृढ़ करने के लिए भारत भेजा जाए। इस प्रकार क्लाइव को पुनः भारत में अंग्रेजी प्रदेशों का मुख्य सेनापति तथा गर्वनर बनाकर भेजा गया था। 10 अप्रैल, 1765 ई0 को क्लाइव ने दूसरी बार मद्रास की धरती पर पैर रखा था और 3 मई, 1765 ई0 को कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में कार्यभार ग्रहण किया।
क्लाइव ने भारत में पहुँचकर देखा कि उत्तर भारत की समस्त राजनैतिक प्रणाली अनिर्णायक अवस्था में है। बंगाल का प्रशासन पूर्णतया गड़बड़ था। कंपनी के कार्यकर्ता धन के लोभ तथा उससे उत्पन्न हुए अवगुणों में इतने जकड़े हुए थे कि कंपनी का प्रशासन ठप हो रहा था तथा जनता पर अत्याचार हो रहा था। कंपनी के असैनिक और सैनिक प्रशासन में अनेक सुधार किये। उन्होंने कर्मचारी वर्ग को निजी व्यापार करने तथा उपहार आदि लेने के लिए मना कर दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेज सैनिक अधिकारियों का भत्ता कम कर दिया तथा रिश्वत और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भी आवश्यक कदम उठाए।
राबर्ट क्लाइव का प्रथम कार्य पराजित शक्तियों के साथ संबंधों को निश्चित करना था। क्लाइव ने 1765 ई0 में मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय को अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया और उससे इलाहाबाद एक संधि की, जिसके अनुसार कंपनी ने सम्राट शाहआलम को इलाहाबाद तथा कड़ा के जिले अवध के नवाब से लेकर दे दिया।
शाहआलम ने अपने 12 अगस्त 1765 ई0 के फरमान द्वारा कंपनी को बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी स्थायी रूप से दे दी जिसके बदले कंपनी ने सम्राट को प्रति वर्ष 26 लाख रुपये वार्षिक पेंशन तथा निजामत के व्यय के लिए 53 लाख रुपया देना स्वीकार किया। इसे इलाहाबाद की पहली संधि के नाम से जाना जाता है।
वह अवध गया और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ 16 अगस्त, 1765 को एक संधि की, जिसे इलाहाबाद की दूसरी संधि के रूप में जाना जाता है। संधि की शर्तों के अनुसार नवाब ने इलाहाबाद व कड़ा के जिले शाहआलम द्वितीय को देने का वादा किया और युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिए उसने कंपनी को 50 लाख रुपये भी देने का वचन दिया। वह बनारस के जागीरदार बलवंतसिंह को उसकी जागीर में प्रतिस्थापित कर दे।
इसके अतिरिक्त, उसने कंपनी से आक्रमण तथा रक्षात्मक संधि की जिसके अनुसार उसे कंपनी की आवश्यकतानुसार निःशुल्क सहायता करनी होगी तथा कंपनी नवाब की सीमाओं की रक्षा के लिए उसे सैनिक सहायता देगी जिसके लिए नवाब को धन देना होगा। इन दोनों संधियों के संपन्न हो जाने पर ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थिति अत्यन्त ही मजबूत हो गई।
वास्तव में क्लाइव ने दोनों संधियों के द्वारा अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया। यदि वह अवध को अपने अधिकार में लेता तो उसे अहमदशाह अब्दाली और मराठों जैसी शक्तियों से निपटना पड़ता। इस निर्णय से अवध का नवाब उसका मित्र हो गया और अवध एक मध्यवर्ती राज्य बन गया। इसी प्रकार शाहआलम से संधि करके क्लाइव ने उसे कम्पनी का पेंशनर बना दिया और वह कम्पनी का रबर स्टैम्प बन गया। सम्राट शाहआलम के फरमान से कम्पनी के राजनीतिक लाभों को कानूनी रुप मिल गया।

क्लाइव के प्रशासनिक सुधार (Administrative reforms of Clive)

राजनीतिक समझौतो के अतिरिक्त लार्ड क्लाईब को शासन सुधार के क्षेत्र में अधिक कठिनाईयों का सामना करना पडा। यद्यपि उसके इस कार्यो का विरोध भी हुआ लेकिन फिर भी अपनी दृढता के कारण उसने इस कार्य में भी सफलता प्राप्त की। तात्कालीन परिस्थितीयों में एक प्रमुख समस्या कम्पनी के कर्मचारियों की थी जिसका पूर्ण नैतिक पतन हो गया था। चॅूकि वे स्वयं व्यापार करते थे अतः वे कम्पनी के व्यापार की ओर ध्यान नही देते थे। उन्हे रिश्वत और उपहार लेने की आदत पड गई थी। कुल मिलाकर धनलोलुपता के कारण वे उत्तरदाईत्वविहिन और भ्रष्टाचारी बन गये थे। कम्पनी के कर्मचारियों की संख्या में भारी कमी थी और उन्हे काफी कम वेतन भी मिलता था। लार्ड क्लाईब ने इस स्थिती में सुधार करने का निश्चय किया और इस दृष्टि से उसने निम्नलिखित कार्य किया -

प्रारंभिक सुधार -

सबसे पहले उसने कम्पनी के सभी कर्मचारियों से एक प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करवाये कि वे भविष्य में कोई उपहार या रिश्वत नही लेगे और अपना कार्य ईमानदारी से करेगें। भ्रष्टाचार को समाप्त करने के उद्येश्य से उसने बंगाल के कर्मचारियों को मद्रास और मद्रास के कर्मचारियों कों बंगाल भेज दिया। उसने इस बात का भरसक प्रयत्न किया कि कर्मचारियो के वेतनों में वृद्धि की जाय और उन्हे कुछ अतिरिक्त आय प्राप्त हो सके। इन प्रतिबंधों से जो हानि हुई उसकी क्षतिपूर्ति के लिए उसने एक व्यापार समिति (सोसायटी फॉर ट्रेड) का निर्माण किया, जिसको नमक, सुपारी एवं तंबाकू के व्यापार का एकाधिकार दे दिया गया। यह निकाय उत्पादकों के समस्त माल नकद में लेकर निश्चित केंद्रों पर फुटकर व्यापारियों को बेच देता था। इस व्यापार के लाभ को कम्पनी के अधिकधिकारियों के बीच पद के क्रमानुसार बाँट दिया जाता था, जैसे गवर्नर को 17500 पौंड, सेना के कर्नल को 7,000 पौंड, मेजर को 2,000 पौंड तथा तथा अन्य कार्यकर्ताओं को कम धन मिलता था।
इस व्यवस्था के कारण सभी आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ गये तथा बंगाल के लोगों को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा। 1766 ई0 में कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया और 1768 ई0 में यह व्यवस्था समाप्त हो गई।

राबर्ट क्लाइब के सैनिक सुधार-

सैनिक क्षेत्र में डायरेक्टरों के आदेश के कारण लार्ड क्लाईब कों सैनिक अफसरो के भत्ते में कटौती करनी थी जो आसान नही था। वस्तुतः ये भत्ते सैनिक अधिकारियों के वेतन के अंग बन गये थे। इस सम्बन्ध में लार्ड क्लाईब ने यह नियम बनाया कि मुॅगेर और पटना की छावनियों में रहने वाले अधिकारियों को आधा भत्ता दिया जायेगा। इसके अतिरिक्त जब सैनिक अधिकारी छावनी से बाहर परन्तु बंगाल, विहार, और उडीसा की सीमाओं के अन्तर्गत ही कार्य करेगे तो उन्हे पूरा भत्ता मिलेगा लेकिन जब वे इनकी सीमाओं के बाहर कार्य करने जायेगें तो उन्हे दोगुना भत्ता मिलेगा। सैनिक अधिकारियो ने इसका तीव्र विरोध किया और अपने अपने पदों से त्यागपत्र भी दे दिया। 
श्वेत विद्रोह (White Rebellion½& मुंगेर तथा इलाहाबाद में कार्यरत श्वेत सैनिक अधिकारियों ने इस व्यवस्था का विरोध किया और सामूहिक रूप से सैनिक कमीशनों से त्यागपत्र देने की धमकी दी। इसे श्वेत विद्रोह के नाम से जाना गया। सैनिक अधिकारियों को आशा थी कि मराठों के संभावित आक्रमण के कारण क्लाइव डर जायेगा। एक अधिकारी ने तो क्लाइव की हत्या की योजना भी बनाई। क्लाइव ने दृढ़तापूर्वक अधिकारियों के त्यागपत्र को स्वीकार कर लिया और नेताओं को बंदी बनाने और मुकदमा चलाने का आदेश दे दिया। छोटे पदाधिकारियों को, जिन्हें कमीशन नहीं मिले थे, उन्हें कमीशन दे दिया गया। मद्रास से भी कुछ अधिकारी बुला लिये गये। इस प्रकार लार्ड क्लाईब के दृढ निश्चय के कारण अन्ततः उन्हे झुकना पडा। मीर जाफर ने अपनी मृत्यु से पूर्व लार्ड क्लाईब को पॉच लाख रुपया दिया था जिससे उसने अपने नाम से एक फण्ड स्थापित किया। उस धन को व्यापार में लगाया गया और उससे होने वाली आय से अवकाश प्राप्त कर्मचारियों को पेंशन देने की व्यवस्था की गई।
स्पष्ट है कि लार्ड क्लाईब ने अपने अल्प काल में विभिन्न सुधार किये अवकाश प्राप्त कर्मचारियों को पेंशन मिलने से राहत मिली, सैनिक सुधारों से कम्पनी के व्यय में कमी हुयी, लेकिन कर्मचारियो में व्याप्त भ्रष्टाचार पूरी तरह समाप्त नही हो सका। इस प्रकार लार्ड क्लाईब की शासन सम्बन्धी सुधार योजना बहुत सफल साबित नही हुई।

बंगाल में द्धैध शासन (Dual Government in Bengal)&

लार्ड क्लाईब 1765 ई0 में बंगाल का दूसरी बार गवर्नर बन कर आया। इस समय तक बंगाल का नबाब एक अल्पवयस्क बच्चा नजमुद्दौला था। पहले प्रांतों में दो प्रकार के अधिकारी होते थे- सूबेदार और दीवान। सूबेदार का कार्य निजामत अर्थात् सैनिक संरक्षण, पुलिस तथा फौजदारी कानून लागू कराना था जबकि दीवान का कार्य कर-व्यवस्था तथा दीवानी कानूनों को लागू करना था। दोनों अधिकारी एक-दूसरे पर नियंत्रण का कार्य भी करते थे और सीधे केंद्रीय सरकार के प्रति उत्तरदायी थे। मुगल सत्ता क्षीण होने पर बंगाल का नवाब मुर्शिदकुली खाँ दीवानी तथा निजामत दोनों कार्य देखता था।
12 अगस्त 1765 ई0 में मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय के एक फरमान के द्धारा बंगाल, विहार, और उडीसा की दिवानी अधिकार ब्रिटिश कम्पनी को दे दी गई और इसके बदले में कम्पनी ने लगभग 26 लाख रुपया नबाब को देना स्वीकार किया था। इस प्रकार इन सूबो से लगान वसूलने का अधिकार अंग्रेजों को प्राप्त हो गया। इसके विपरित निजामत अर्थात शान्ति व्यवस्था तथा बाह्य आक्रमण और फौजदारी का न्याय बंगाल के नबाब के अधिकार में ही रहा। शासन को इस प्रकार इन दो भागों में बॉटकर दो विभिन्न शक्तियों के हाथों में दे देने के कारण ही इस शासन को द्धैध शासन या दोहरा शासन कहते है। बंगाल में यह द्धैध शासन 1765 से 1772 ई0 तक चलता रहा।
यहॉ यह स्पष्ट है कि दिवानी अधिकार मिलने के वावजूद भी कम्पनी ने प्रत्यक्षतः लगान वसूलने का प्रयास नही किया। वस्तुतः लार्ड क्लाईब कम्पनी पर कोई प्रत्यक्ष उत्तरदाईत्व नही डालना चाहता था। यही कारण है कि कम्पनी ने दो नायब दिवान नियुक्त किये - बंगाल के लिए मुहम्मद रजा खॉ तथा बिहार के लिए राजा शिताबराय जो क्रमशः मुर्शिदाबाद और पटना में रहकर कार्य करते थे। वास्तव में कम्पनी की रुचि अधिक से अधिक आय प्राप्त करने की थी। इसलिए कम्पनी राजस्व की दर निर्धारित कर देती थी यह राजस्व कैसे प्राप्त करना है इसका उत्तरदाईत्व इन दो नायब दिवानों पर था। फौजदारी का अधिकार यद्यपि नबाब के हाथ में ही था लेकिन इस मामले में भी वह कुछ नही कर सकता था क्योंकि नबाब सैनिक दृष्टि से कम्पनी पर निर्भर था। इस प्रकार जो अधिकार नबाब को दिये गये थे उसका वास्तविक प्रयोग कम्पनी ही कर सकती थी। चूॅकि नबाब अल्पवयस्क था अतएवं कम्पनी ने नबाब की ओर से उसके कार्यो के लिए एक नायब निजाम की नियुक्ति की और इस पद पर मुहम्मद रजा खॉ को ही नियुक्त किया गया। इस प्रकार सम्पूर्ण शक्ति के होते हुए और इन समस्त आय पर भी अंग्रेज कम्पनी ने शासन का कोई उत्तरदाईत्व अपने उपर नही लिया। लार्ड क्लाईब ने बंगाल, विहार और उडीसा की दिवानी को प्राप्त करके इन सूबों के आधिपत्य को इस ढंग से प्राप्त किया कि न तो कम्पनी को किसी प्रकार की कानूनी कठिनाई हुई और न ही किसी प्रकार का शासन का उत्तरदाईत्व कम्पनी पर आया यद्यपि वह इन सूबों से आर्थिक लाभ पूरी तरह से प्राप्त कर सके।

द्वैध शासन व्यवस्था का औचित्य ¼Justification of Diarchy)&  

राबर्ट क्लाइव द्वारा स्थापित दोहरी शासन प्रणाली बड़ी जटिल तथा विचित्र थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत बंगाल के शासन का समस्त कार्य नवाब के नाम पर चलता था, किन्तु वास्तव में उसकी शक्ति नाममात्र की थी और वह एक प्रकार से कंपनी का पेंशनर था, क्योंकि कंपनी शासन के खर्च के लिए नवाब को एक निश्चित राशि देती थी। दूसरी ओर वास्तविक शक्ति कंपनी के हाथों में थी। वह शासन-कार्य में नवाब का निर्देशन करती थी। इसके अतिरिक्त दीवानी अधिकारों की प्राप्ति से बंगाल की आय पर कंपनी का पूर्ण नियंत्रण था, किंतु वह बंगाल के शासन के लिए जिम्मेदार नहीं थी और नवाब के अधीन होने का दिखावा भी करती थी।
इस प्रकार, बंगाल में एक ही साथ दो सरकारें काम करती थीं- कंपनी की सरकार और नवाब की सरकार। इस प्रकार सूबों में दो सत्ताओं (एक नवाब की और दूसरी कंपनी की सत्ता) की स्थापना हुई। कंपनी की सत्ता वास्तविक थी, जबकि नवाब की सत्ता उसकी परछाई मात्र थी। क्लाइव की इस शासन प्रणाली को द्वैध शासन’ कहते हैं।

द्वैध शासन व्यवस्था से कंपनी को लाभ ¼The Company Benefits from Diarchy½&

क्लाइव की द्वैध शासन की व्यवस्था उसकी बुद्धिमत्ता और राजनीतिज्ञता का प्रमाण थी। यह प्रणाली उस समय कम्पनी के हितों के दृष्टिकोण से सर्वोत्तम थी। क्लाइव जानता था कि समस्त शक्ति कम्पनी के पास है, नवाब के पास सत्ता की केवल छाया है। उसने प्रवर समिति को लिखा था कि यह छाया आवश्यक है तथा हमें इसको स्वीकार करना चाहिए। द्वैध शासन से कम्पनी को होने वाला लाभ ही द्वैध शासन का औचित्य था। उसकी दोहरी शासन-व्यवस्था से कंपनी को अनेक लाभ हुए -
1. कम्पनी के पास ऐसे अंग्रेज कर्मचारियों की कमी थी, जो भारतीय भाषाओं तथा रीति-रिवाजों से अच्छी प्रकार परिचित हों। क्लाइव ने कम्पनी के अधिकारियों को लिखा था कि यदि हमारे पास तीन गुना भी प्रशासनिक सेवा करने वाले लोग हों तो भी वे इस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं होंगे। जो थोड़े लोग कम्पनी के पास थे भी, वे भारतीय रीति-रिवाजों और भाषा से अनभिज्ञ थे। यदि कम्पनी अपने कर्मचारियों और अधिकारियों को प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करती, तो शासन में अव्यवस्था फैल जाती। ऐसी स्थिति में कम्पनी ने शासन का समस्त उत्तरदायित्व भारतीयों पर डाल दिया। 
2. इंग्लैंड में कम्पनी को अभी भी मूलतः एक व्यापारिक कम्पनी समझा जाता था। यदि क्लाइव इस समय वह बंगाल का शासन प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथ में ले लेता तो ब्रिटिश संसद कम्पनी के मामलों में हस्तक्षेप कर सकती थी। 
3. यदि कम्पनी बंगाल के नवाब को गद्दी से हटाकर प्रांतीय शासन प्रबंध प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथ में ले लेती, तो उसे निश्चित रूप से अन्य यूरोपीय शक्तियों, पुर्तगालियों एवं फ्रांसीसियों आदि के साथ संघर्ष करना पड़ता क्योंकि ये लोग उस समय भारत के साथ व्यापार करते थे और ईस्ट इंडिया कंपनी के कट्टर विरोधी थी। पी0 ई0 रॉबर्ट्स ने लिखा है कि अंग्रेजों द्वारा खुलेआम बंगाल के शासन की बागडोर सँभाल लेने का अर्थ होता, दूसरी यूरोपीय शक्तियों के साथ झगड़ा मोल लेना। क्लाइव ने बड़ी चालाकी से इन विदेशियों की आँखों में धूल झोंक दी।’ क्लाइव ने यह धोखा इसलिए बनाये रखा, ताकि ब्रिटिश जनता, यूरोपीय शक्तियों तथा भारतीय देशी शासकों को वास्तविक स्थिति का पता न चल सके। 
4. यदि कम्पनी स्पष्ट रूप से राजनैतिक सत्ता अपने हाथ मे लेती तो उसका वास्तविक स्वरूप लोगों के सम्मुख आ जाता और सारे भारतीय इसके विरुद्ध एकजुट हो जाते। इससे मराठे भी भड़क सकते थे और अब कंपनी मराठों की संयुक्त-शक्ति का सामना करने की स्थिति में नहीं थी। 
5. द्वैध शासन की स्थापना से कंपनी और नवाबों के बीच चलने वाला संघर्ष सदैव के लिए समाप्त हो गया और बंगाल में राजनीतिक क्रान्तियों का भय नहीं रहा। विशेषतः इसलिए कि नवाब को केवल 53 लाख रुपये प्रतिवर्ष दिये जाने थे। यह धनराशि शासन-कार्य चलाने के लिए पर्याप्त नहीं थी। इसलिए वह कभी कंपनी से टक्कर नहीं ले सकता था। 
6. यद्यपि 1765 ई0 तक बंगाल पर अंग्रेजों का पूर्णरूप से अधिकार हो गया, किंतु क्लाइव ने बंगाल की जनता को अंधेरे में रखने के लिए नवाब को प्रांतीय शासन-प्रबंध का मुखिया बनाये रखा और वास्तविक शक्ति कंपनी के हाथों में रहने दी। इस प्रकार, क्लाइव ने 1765 की क्रांति को सफलतापूर्वक छिपा लिया और भारतीयों तथा देशी राजाओं के मन में किसी प्रकार का संदेह उत्पन्न नहीं होने दिया।

द्वैध शासन व्यवस्था की कमियां ¼Drawbacks of Diarchy½

राबर्ट क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन प्रणाली दोषपूर्ण और अव्यावहारिक थी। इसके कारण बंगाल में अव्यवस्था और अराजकता फैली तथा जन-साधारण को अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आरंभ से ही यह व्यवस्था असफल रही। 24 मई, 1769 ई0 को नवाब ने द्वैध शासन व्यवस्था की आलोचना करते हुए अंग्रेज रेजीडेंट को लिखा था- ’बंगाल का सुंदर देश, जब तक भारतीयों के अधीन था, तब तक प्रगतिशील और महत्त्वपूर्ण था। अंग्रेजों की अधीनता में आने के कारण उसका अधःपतन अंतिम सीमा पर पहुँच गया।’
प्रशासनिक अराजकताः दोहरे शासन का सबसे बड़ा दोष यह था कि कंपनी के पास वास्तविक सत्ता थी, किंतु वह शासन-प्रबंध के लिए उत्तरदायी नहीं थी। इसके विपरीत बंगाल के नवाब को प्रांतीय शासन-प्रबंध सौंप दिया था, किंतु उसके पास शासन-कार्य के लिए आवश्यक शक्ति नहीं थी। ऐसी शासन-व्यवस्था कभी भी सफल नहीं हो सकती थी। द्वैध शासन व्यवस्था की इस मौलिक त्रुटि के कारण बंगाल में शीघ्र ही अव्यवस्था फैल गई। कहते हैं कि इस व्यवस्था के दौरान चारों ओर अराजकता, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई। नवाब में कानून लागू करने तथा न्याय देने की सामर्थ्य नहीं थी। न्याय व्यवस्था बिल्कुल ही पंगु हो गई। कंपनी के कर्मचारी बार-बार न्यायिक प्रशासन में हस्तक्षेप करते थे। इतना ही नहीं, अनुचित रूप से लाभ उठाने के लिए नवाब के कर्मचारियों को डराते-धमकाते भी थे। 1858 ई0 में ब्रिटिश संसद में जार्ज कार्नवाल ने हाउस ऑफ कामंस में कहा थाः मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि 1765-84 ई0 तक ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार से अधिक भ्रष्ट, झूठी तथा बुरी सरकार ससार के किसी सभ्य देश में नहीं थी।’
अंग्रेजों ने राजस्व के समस्त साधनों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। वे नवाब को शासन चलाने के लिए बहुत कम धन देते थे, जिससे शासन का संचालन संभव नहीं था। इस व्यवस्था के अंतर्गत कंपनी ने बंगाल की रक्षा का कार्य अपने हाथ में ले लिया। नवाब को सेना रखने का अधिकार नहीं था। वह केवल उतने ही सैनिक रख सकता था, जितने कि उसे शांति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए आवश्यक थे। इस प्रशासनिक व्यवस्था से नवाब की सैन्य-शक्ति को गहरा आघात पहुँचा।

कृषि का हासः द्वैध शासन व्यवस्था के अधीन कृषि का भी सत्यानाश हो गया। भूमि-कर वसूली का अधिकार अधिक से अधिक बोली लगाने वाले ठेकेदार को दिया जाता था जिसकी भूमि में स्थायी रूप से कोई रुचि नहीं होती थी। ठेकेदार उस भूमि से अधिक से अधिक लगान वसूल करना चाहते थे, ताकि उनको अधिक से अधिक मुनाफा प्राप्त हो सके। कंपनी अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लिए ठेकेदारों से अधिक से अधिक माँग करती थी। कंपनी और ठेकेदारों को बढ़ती हुई लगान की माँग के कारण किसानों का शोषण बढ़ गया। स्थिति यह थी कि कभी-कभी निर्धन लोगों को अपने बच्चे तक बेचने पड़ते थे तथा भूमि छोड़कर भाग जाना पड़ता था। कंपनी और ठेकेदारों दोनों की ही भूमि की उन्नति में रुचि नहीं थी। अतः किसानों की स्थिति दयनीय हो गई। अनेक किसान खेती छोड़कर भाग गये और डाकू बन गये तथा खेती की योग्य भूमि जंगल में परिवर्तित हो गई। कंपनी रेजीडेंट बेचर ने कृषकों की दयनीय स्थिति पर दुःख व्यक्त करते हुए 1769 ई. में कंपनी के डायरेक्टरों को लिखा थाः ’जब से कंपनी ने बंगाल की दीवानी को सँभाला है, इस प्रदेश के लोगों की दशा पहले से भी खराब हो गई है। वह देश जो स्वेच्छारी शासकों के अधीन भी समृद्धशाली था, अब विनाश की ओर जा रहा है।’ वस्तुतः क्लाइव ने जो द्वैध शासन व्यवस्था लागू की थी, वह एक दूषित शासकीय यंत्र था। इसके कारण बंगाल में पहले से भी अधिक अव्यवस्था फैली और जनता पर ऐसे अत्याचार ढाये गये, जिसका उदाहरण बंगाल के इतिहास में कभी नहीं मिलता।

इसके पश्चात् 1770 ई. में बंगाल में अकाल पड़ा जिसने कृषकों की कमर ही तोड़ दी। इसमें बंगाल की एक तिहाई जनता समाप्त हो गई। कंपनी के कार्यकर्ताओं ने आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को बढ़ाकर लाभ कमाया। इस आपत्तिकाल में भी सरकारी कर्मचारियों ने लगान माफ करने के बजाय दुगुना कर दिया। यही नहीं, किसानों के घरों का सामान नीलाम करवा दिया, जिससे वे बेघर-बार हो गये। मिस्टर डे सेन्डरसन ने लिखा है, ’ब्रिटिश साम्राज्यवाद का रूप स्पष्ट दृष्टिगोचर हुआ, जब वह विजित प्रदेशों में राजस्व-संग्रह के लिए लगा। बंगाल का प्रांत अंग्रेजों के आगमन तक बड़ा समृद्ध था।....ब्रिटिश साम्राज्यवाद को केवल 13 वर्ष इस समृद्ध प्रांत में बर्बादी, मृत्यु और अकाल लाने में लगे।’ के0एम0 पन्निकर के अनुसार ’भारतीय इतिहास के किसी काल में भी, यहाँ तक कि तोरमाण और मुहम्मद तुगलक के समय में भी, भारतीयों को ऐसी विपत्तियों का सामना नहीं करना पड़ा जो कि बंगाल के निवासियों को इस द्वैध शासनकाल में झेलनी पड़ी।’

व्यापार-वाणिज्य का विनाशः द्वैध शासन की व्यवस्था की दुर्बलता का लाभ उठाते हुए कंपनी के कर्मचारी राजनीतिक सत्ता का दुरुपयोग कर व्यक्तिगत व्यापार के द्वारा धनवान होते चले गये और कंपनी की आर्थिक दशा बिगड़ती गई। मैकाले ने लिखा हैः- जिस तरह से इन कर्मचारियों ने धन कमाया और खर्च किया, उसको देखकर मानव-चित्त आतंकित हो उठता है। कर्मचारियों की धन-लोलुप प्रवृत्ति के कारण व्यभिचार और बेईमानी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई, क्योंकि अब उन पर कोई नियंत्रण नहीं था। उन्होंने अपने दस्तकों का इतना अधिक दुरुपयोग किया कि भारतीय व्यापारियों का अंग्रेजों के मुकाबले में व्यापार करना असंभव हो गया। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के व्यापार पर कंपनी का एकाधिकार हो गया और उसके कार्यकत्ताओं ने भारतीय व्यापारियों से कम मूल्य पर माल खरीद कर उन्हें अत्यधिक हानि पहुँचाई। भारतीय व्यापारियों को अपना पैतृक धंधा छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा। स्वयं क्लाइव ने कॉमंस सभा में कहा थाः ’कंपनी के कार्यकर्ता एक व्यापारी की भाँति व्यापार न करके, सम्प्रभु के समान व्यवहार करते हैं और उन्होंने हजारों व्यापारियों के मुँह से रोटी छीन ली है तथा उन्हें भिखारी बना दिया है।’

उद्योग-धंधों का पतनः द्वैध शासन व्यवस्था से भारतीय उद्योगों को बहुत हानि पहुँची। कंपनी की अपनी शोषण नीति के कारण बंगाल का रेशमी और सूती वस्त्र उद्योग चौपट हो गया। कंपनी ने बंगाल के रेशम उद्योग को निरुत्साहित करने के लिए प्रयत्न किया क्योंकि इससे इंग्लैंड के रेशम उद्योग को क्षति पहुँचती थी। 1769 ई. में कंपनी के डायरेक्टरों ने कार्यकत्ताओं को आदेश दिये थे कि कच्चे सिल्क के उत्पादन को प्रोत्साहित करो तथा रेशमी कपड़ा बुनने को निरुत्साहित करो। रेशम का धागा लपेटने वालों को कंपनी के लिए काम करने पर बाध्य किया जाता था। कंपनी के अधिकारी तथा उनके प्रतिनिधि भारतीय जुलाहों को एक निश्चित समय में एक निश्चित प्रकार का कपड़ा बनाने के लिए बाध्य करते थे और अपनी इच्छानुसार उनको कम मूल्य देते थे। जो कारीगर निश्चित समय पर अंग्रेजों की माँग की पूर्ति नहीं करता अथवा उनकी कम कीमत को लेने से इनकार कर देता था, तो उनके अंगूठे तक काट लिये जाते थे। कंपनी के शोषण और उत्पीड़न के कारण वस्त्र-उद्योग में लगे हुए कारीगर बंगाल को छोड़कर भागने लगे। इस प्रकार अंग्रेजों ने अपनी बेईमानी और अत्याचार से बंगाल के कपड़ा उद्योग को नष्ट कर दिया।

आर्थिक शोषणः बंगाल के आर्थिक शोषण में इंग्लैंड की सरकार भी पीछे नहीं रही। 1767 ई0 में उसने कंपनी से 4 लाख पौंड का ऋण माँगा, जिसके कारण कंपनी की आर्थिक स्थिति पहले से भी अधिक दयनीय हो गई। कंपनी ने इस रकम को एकत्रित करने के लिए भारतीय सूबों को ही चुना। बोल्ट्स के शब्दों में, ’जब राष्ट्र फल के पीछे पड़ा हुआ था, कंपनी और उसके सहयोगी पेड़ ही उखाड़ने में जुटे थे।’

द्वैध शासन व्यवस्था के कारण बंगाली समाज का पतन आरंभ हो गया। कृषकों ने अनुभव किया कि उसे अधिक उत्पादन करने पर अधिक कर देना देना पड़ता है तो उसने केवल उतना ही उत्पादन करने का विचार किया जिससे कि उसका निर्वाह हो सके। इसी प्रकार जुलाहे जो अपने परिश्रम का लाभ स्वयं नहीं भोग पाते पाते थे, अब उत्तम कोटि का उत्पादन करने को तैयार नहीं थे। कार्य की प्रेरणा समाप्त हो गई जिससे समाज निर्जीव हो गया।
कुल मिलाकर 1765 से 1772 के मध्य शासन का सारा कार्य हिन्दुस्तानी अफसरों के हाथों में रहा जिसके प्रतिनिधि मुहम्मद रजॉ खॉ और राजा शिताब राय थे। इनके काल में कम्पनी के कर्मचारी निरन्तर धनवान होते गये और कम्पनी की आर्थिक दशा खराब होती गई। इस प्रकार वह देश जो एक निरंकुश राज्य के होते हुए भी समृद्ध था, अंग्रेजों के राज्य में पूर्णतया विनष्ट हो गया। अन्ततः नन्द लाल चटर्जी के शब्दों में कहा जा सकता है कि - लार्ड क्लाईब द्धारा स्थापित द्धैध शासन प्रणाली बेतुका और अव्यवहारिक था। वह भूल गया था कि शक्ति का विभाजन अराजकता को जन्म देगा। बंगाल प्रान्त की दीवानी व्यवस्था के धारण करने से एक उत्तरदायी प्रशासक की कार्यकुशलता की अपेक्षा कार्य कुशल योजना बनाने वाले व्यक्ति के चातुर्य का ही प्रदर्शन होता था। यह एक स्वार्थ सिद्ध करने का ही तरीका था परन्तु उसकी मूलभूत कर्तव्य भावनाओं की ओर ध्यान नही दिया गया था। एक प्रकार से उसने स्पष्ट रुप से बंगाल में होने वाली रातनीतिक क्रान्ति को छिपाने के लिए एक अच्छे पर्दे के रुप में इसके औचित्य की पुष्टि की।

इस प्रकार लार्ड क्लाईब का द्धैध शासन प्रणाली पूर्णतः असफल साबित हुआ। क्लाइव का उत्तराधिकारी वेरेल्स्ट (1767-1769 ई0) हुआ और वेरेल्स्ट का उत्तराधिकारी कर्टियर (1769-72 ई0)। इनके कमजोर शासन में क्लाइव की दोहरी सरकार के दुर्गुण पूर्णरूपेण स्पष्ट हो गये। राज्य अत्याचार, भ्रष्टाचार और कष्ट के बोझ से कराहने लगा। अन्ततः 1772 ई0 में जब वारेन हेस्टिंग्स ब्रिटिश कम्पनी का गर्वनर बनकर बंगाल आया तब वह बंगाल में स्थापित द्धैध शासन प्रणाली को समाप्त करने के स्पष्ट आदेश के साथ आया और उसने द्वैध शासन प्रणाली को समाप्त कर दिया।

ब्रिटिश साम्राज्य के संस्थापक के रुप में राबर्ट क्लाइव :

किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन हम उसके कार्यो से करते है, उसके गुण-दोष की कसौटी उसकी सफलता या असफलता होती है। लार्ड क्लाईब के कार्यो का अध्ययन करने के पश्चात यही कहना पडता है कि ब्रिटिश राज्य को भारत में जमाने वाला लार्ड क्लाईब ही था। लार्ड क्लाईब की सेवाएॅ अंग्रेजी सरकार के लिए महान थी। लार्ड क्लाईब एक साधारण कम्पनी का बाबू था लेकिन अपनी प्रतिभा से वह भारत का गर्वनर बनने में सफल रहा।
लार्ड क्लाईब उन व्यक्तियों में से था जो अपने देश और जाति के हित को सर्वोपरि समझते है। साम्राज्य की स्थिती को सुदृढ करने के लिए उसने जो कुछ भी किया उसने उसे इग्ंलैण्ड की जनता के बीच अमर बना दिया। भले ही भारतवासियों को उसके कार्यो से अनेक कष्ट क्यों न उठाने पडे। यही कारण है कि पाश्चात्य इतिहासकारों ने उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की है। विन्सेण्ट स्मिथ ने लिखा है कि- ’’ लार्ड क्लाईब ने जिस योग्यता और दृढता का परिचय भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव डालने में दिया उसके लिए वह ब्रिटिश जनता के बीच सदैव के लिए याद किया जाएगा। एक योग्य सैनिक तथा कुशन प्रबन्धक के रुप में उसका नाम बहुत उपर है।’’
हालॉकि वह छली, कपटी, विश्वासघाती, और बेइमान था लेकिन उसने ये सारे कार्य राष्ट्र हित में ही किये। बर्क ने ठीक ही लिखा है कि- ’’लार्ड क्लाईब ने स्वयं तो अवगत गहराई वाली नदी को अत्यन्त कठिनता से पैदल ही पार किया परन्तु वह अपने उत्तराधिकारियों के लिए एक ऐसा पुल तैयार कर गया जिसपर लगड़े भी चल सके तथा अंधे भी अपना रास्ता टटोल सके।’’
यहॉ यह उल्लेखनीय है कि लार्ड क्लाईब में अपार देशभक्ति थी और वह राष्ट्र हित को सर्वोपरि समझता था और उसने अपने देश की बहुत अधिक सेवा भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना करके की। वास्तव में लार्ड क्लाईब को ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक सिद्ध करने के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते है-

बंगाल में ब्रिटिश शक्ति का स्थापनकर्ता -

बंगाल में भी ब्रिटिश शक्ति को स्थापित करने का श्रेय लार्ड क्लाईब को ही है। प्लासी के युद्ध में शिराजुद्दौला को पराजित करके उसने बंगाल में प्रथम क्रान्ति को जन्म दिया। यद्यपि इस युद्ध के बाद मीरजाफर बंगाल की गद्दी पर बैठा लेकिन वह नाम मात्र का ही शासक था, वास्तविक शासन इस्ट इण्ड़िया कम्पनी के हाथों में चली गई थी और मीरजाफर एक कठपुतली शासक बनकर रह गया। संक्षेप में हम यह कह सकते है कि बंगाल तथा कर्नाटक दोनो में ब्रिटिश शक्ति को स्थापित करने का श्रेय लार्ड क्लाईब को ही जाता है। प्रो0 श्रीराम शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि -’’कर्नाटक और बंगाल के पत्तों के द्धारा लार्ड क्लाईब ने ही भारत में ब्रिटिश राज्य की नींव रखी। (Lord clive had laid the foundation of British dominion in India by his triumphs in the Karnatac and Bengal)

दक्षिण भारत में ब्रिटिश शक्ति का सुदृढकर्ता -

जिस समय लार्ड क्लाईब भारत पहली बार आया उस समय दक्षिण में अंग्रेजों की स्थिती अच्छी नही थी। डुप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसी अपनी शक्ति को बहुत अधिक बढा रहे थे और ऐसा प्रतीत होता था कि यहॉ फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना हो जाएगी एवं अंग्रेजों के पैर उखड़ जाएॅगे। कर्नाटक और हैदराबाद दोनो में ही फ्रांसीसीयों ने अपनी स्थिती अत्यन्त सुदृढ बना लिया था परन्तु लार्ड क्लाईब ने अर्काट का घेरा डालकर जिस साहस का परिचय दिया वह निःसन्देह प्रशंसनीय था। इस घेरे के फलस्वरुप डुप्ले के सारे कार्यकलापों पर पानी फिर गया। दक्षिण भारत में अंग्रेजो की प्रतिष्ठा और प्रभाव में बाधक फ्रांसीसीयों को उन्मूलित करने का श्रेय लार्ड क्लाईब को ही है। यदि लार्ड क्लाईब के प्रयासों से उसे सफलता न मिलती तो वे अपना पैर वहॉ नही जमा पाते।

कम्पनी के प्रभुत्व शक्ति का सुदृढकर्ता -

लार्ड क्लाईब ने कम्पनी के प्रभुत्व शक्ति को नैतिक और कानूनी बल प्रदान करने के साथ ही उसे सुदृढ बनाया। शाहआलम से सन्धि एवं मित्रत्रा करके उसने कम्पनी के लिए अनेक प्रकार की सुविधाएॅ प्राप्त की। अवध के नबाब से मित्रत्रा करके उसने कम्पनी के द्धारा जीते गये प्रदेशों को सुरक्षित बना लिया। बंगाल की द्धैघ शासन प्रणाली की चाहे जितनी आलोचना की जाय इसमें थोड़ा भी संन्देह नही है कि इस प्रणाली ने कम्पनी की स्थिती को सुदृढ कर दिया। डाडवेल ने इस प्रणाली के विषय में लिखा है कि यह समय की आवश्यकताओं के अनुकूल थी क्योंकि इससे नबाब पर नियंत्रण पा लिया गया। हालॉकि यह प्रणाली अत्यन्त दोषपूर्ण थी और इससे भारतीय जनता को अपार कष्ट हुये फिर भी यह अवश्य स्वीकार करना पडेगा कि इस प्रणाली को अपनाकर लार्ड क्लाईब ने नबाब की शक्ति को क्षीण कर दिया। बिना किसी दायित्व के अंग्रेज अपने स्थिती को बनाने में समर्थ हो गये। बंगाल में फ्रांसीसीयों तथा डचो की शक्ति को पूरी तरह से समाप्त करके वहॉ उसने कम्पनी के राज्य की नींव इस प्रकार डाली कि कालान्तर में यह राज्य और अधिक विस्तृत हो गया

कम्पनी के प्रभुत्व शक्ति को नैतिक एवं कानूनी बल प्रदान करना -

लार्ड क्लाईब ने केवल प्रभुत्व शक्ति को ही नही प्राप्त किया बल्कि उसपर नैतिक एवं कानूनी बल की छाप भी लगा दी। यदि वास्तव में लार्ड क्लाईब किसी प्रकार जबर्दस्ती ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना कर भी लेता तो उसके पैर शीध्र उखड जाते मगर लार्ड क्लाईब ने कूटनीतिक प्रतिभा का परिचय देते हुये मुगल सम्राट शाहआलम से बंगाल की दीवानी प्राप्त कर और बंगाल के अल्पवयस्क नबाब से निजामत प्राप्त कर ब्रिटिश प्रभुत्व शक्ति को नैतिक और कानूनी बल प्रदान किया।
       संक्षेप में हम यह कह सकते है कि ब्रिटिश इस्ट इण्डिया कम्पनी नाम की एक व्यापारिक संस्था को राजनीतिक संस्था के रुप में परिवर्तित करने का श्रेय लार्ड क्लाईब को ही जाता है। इसको राजनीतिक संस्था के रुप में परिवर्तित करके लार्ड क्लाईब ने ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना का सूत्रधार किया। यद्यपि कुछ इतिहासकार जैसे -डेविस आदि का मानना है कि भारत में ब्रिटिश राज्य का संस्थापक लार्ड क्लाईब नही वरन् उसके उत्तराधिकारी थे लेकिन यह विचार भ्रान्तिपूर्ण है। हालॉकि यह बात अलग है कि लार्ड क्लाईब में कुछ कमजोरियॉ थी लेकिन इन कमजोरियों के होते हुए भी यह अवश्य स्वीकार करना पडेगा कि उसने ही भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव डाली। जिस प्रकार मुगल वंश की नींव बाबर ने डाली और उसपर भवन निर्माण का कार्य उसके उत्तराधिकारियों ने किया। इस प्रकार लार्ड क्लाईब को ही भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का संस्थापक माना जा सकता है।

क्लाइव का मूल्यांकन ¼Clive’s Evaluation½ &

रॉबर्ट क्लाइव ब्रिटिश सेना में एक सैनिक के पद पर तैनात हुआ था और उसे मुख्य रूप से गवर्नर को पत्र आदि लिखने के कार्य के लिए रखा गया था, किंतु अपनी सूझबूझ, समझदारी और बुद्धि से उसने एक बहुत ऊँचा पद प्राप्त कर लिया था। वह सदैव अपने साथ तलवार, बंदूक और एक घोड़ा रखता था। वह पहली बार वह 1757-1760 ई0 और फिर दूसरी बार 1765-1767 ई0 तक वह बंगाल का गवर्नर रहा था। चिन्ता और अधिक परिश्रम के कारण रॉबर्ट क्लाइब अस्वस्थ हो गया जिसके कारण वह 1767 ई0 में वह इंग्लैण्ड़ लौट गया। उसके शत्रुओं ने उसको बदनाम करने की चेष्टा की, उसपर बेईमानी के आरोप लगाये गये जिससे रॉबर्ट क्लाइब को गहरा दुख हुआ और 1774 ई0 उसने आत्महत्या कर ली।
रॉबर्ट क्लाइव को भारत में ब्रिटिश राज्य का संस्थापक माना जाता है जो पूर्णतया उचित ही है। उसने समय की गति को पहचाना और ठीक दिशा मे अपना कदम बढ़ाया। उसने अपने प्रतिद्वंद्वी डूप्ले को शिकस्त दी और अधिक स्थायी परिणाम प्राप्त किया। अर्काट का घेरा डालना उसकी सबसे बड़ी कूटनीतिक चाल थी जिसने कर्नाटक में फ्रांसीसियों का पासा पलट दिया।
अपने कार्यकाल के दौरान रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल में अंग्रेजों की स्थिति में सुधार किया और ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत किया। पहले प्लासी (1757 ई0) और फिर बक्सर (1764 ई0) के युद्धों को जीतकर क्लाइव ने मुगलों का वर्चस्व समाप्त किया। उसने बंगाल के संसाधनों का उपयोग कर दक्षिण भारत से अपने प्रबल प्रतिद्वंद्वी फ्रांसीसियों को भारत से बाहर निकाल दिया। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उसने कंपनी को एक व्यापारिक सत्ता बना दिया। बंगाल में इसकी भूमिका सम्राट निर्माता की थी। जब 1765 ई0 में वह बंगाल आया तो उसने कंपनी की नींव को सुदृढ़ कर दिया। शायद इसीलिए बर्क ने उसे ‘बड़ी-बड़ी नीवें रखने वाला’ कहा है।
पर्सीवल स्पीयर ने कहा है कि भारत में अंग्रेजी राज्य तो बन ही जाता, किंतु उसका स्वरूप भिन्न होता तथा उसमें समय भी अधिक लगता। उसके अनुसार क्लाइव भारत में अंग्रेजी राज्य का संस्थापक ही नहीं, अपितु भविष्य का अग्रदूत था। वह साम्राज्य का संयोजक नहीं, अपितु उसमें नये-नये प्रयोग करने वाला था जिसने नई संभावनाओं का पता लगाया। क्लाइव भारत में अंग्रेजी साम्राज्य का अग्रगामी था।
क्लाइव की धनलोलुपता और कुटिलता के आलोचक भी थे। अंग्रेजी संसद में उस पर बहुत से आरोप लगाये गये कि उसने अवैध ढंग से उपहार प्राप्त किये और एक अशुद्ध परंपरा स्थापित की, जिसके परिणामस्वरूप बंगाल में 1760 तथा 1764 ई0 की क्रांतियाँ हुई। उसने सोसायटी फॉर ट्रेड बनाकर बंगाल को लूटने की योजना बनाई। उसकी दोहरी शासन प्रणाली का उद्देश्य अंग्रेजी शाक्ति की स्थापना करना था, न कि जनता का हित। उसने बंगाल को ईस्ट इंडिया कंपनी की जागीर बना दिया। के0एम0 पणिक्कर ने लिखा है कि 1765 से 1772 ई0 तक कंपनी ने बंगाल में डाकुओं का राज्य स्थापित कर दिया तथा बंगाल को बड़ी बेरहमी से लूटा। इस समय बंगाल में कंपनी का सबसे निकृष्टतम् रूप देखने को मिला और जनता को अपार कष्ट सहना पड़ा।
किंतु क्लाइव कुशल राजनीतिज्ञ नहीं था। वह अंतर्दर्शी तो था, दूरदर्शी नहीं था। उसके प्रशासनिक सुधारों के कारण उसके उत्तराधिकारियों को अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। प्रायः कहा जाता है कि भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना का मुख्य उद्देश्य शांति एवं व्यवस्था बनाना था, किंतु इस कार्य में क्लाइव का कोई योगदान नहीं था। सच तो यह है कि उसके कार्यों से अव्यवस्था ही फैली, व्यवस्था नहीं। जो पद्धति उसने बनाई और जो प्रणाली उसने अपनाई, उसका मुख्य तत्त्व उसकी अल्पदृष्टि तथा कामचलाऊ नीतियाँ थीं, जो उसकी असफलताओं की द्योतक हैं तथा उसके राजनीतिज्ञ कहलाने में बाधक हैं।

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