window.location = "http://www.yoururl.com"; Anglo-French Rivalry | आंग्ल-फ़्रांसीसी प्रतिस्पर्धा

Anglo-French Rivalry | आंग्ल-फ़्रांसीसी प्रतिस्पर्धा

 


आधुनिक भारत के इतिहास में 18वी शताब्दी का काल ब्रिटिशों तथा फ्रांसीसीयें के बीच औपनिवेशिक और व्यापारिक प्रतिद्धन्द्धिता का काल रहा है। हॉलाकि भारत में अनेक युरोपीय जातीयॉ व्यापार के उद्देश्य से आयी थी। जिनमें शुरु-शुरु में पुर्तगालियों तथा बाद में ड़चों का व्यापार पर एकाधिकार रहा लेकिन 18वी शताब्दी तक आते आते भारत में दो युरोपीय देश फ्रांस और ब्रिटेन प्रमुख रुप से बच गये थे जो उभरते हुए राष्ट्र थे। चॅूकि दोनो युरोपीय जातियो का प्रमुख उद्देश्य भारत से व्यापार करके आर्थिक लाभ प्राप्त करना था अतः इस कारण दोनो की आर्थिक प्रतिद्धन्द्धिता आवश्यक थी और इसी के बाद से राजनीतिक प्रतिद्धन्द्धिता प्रारम्भ हुई। इसके पहले भी सैकड़ो साल पहले से इन दोनो देशों के बीच प्रतिद्धन्द्धिता और संघर्ष की स्थिती चली आ रही थी। उन्होने युरोपीय राष्ट्र युद्धों, आस्ट्रिया में विरासत की लड़ाई, सप्तवर्षीय युद्ध तथा अमेरिकी स्वतं़तत्रा संग्राम का इसी उद्देश्य से उपयोग किया था। किसी न किसी कारण से ये दोनो देश बराबर एक दूसरे के खिलाफ रहे। उन्होनें युरोप में जो युद्ध लड़े उसकी प्रतिध्वनी भारत में भी हुयी। खासकर कर्नाटक में क्योकि यहॉ ये दोनो भौतिक रुप से आमने सामने थे और उनके हित ज्यादा टकराते थे। हॉलाकि फ्रांसीसी  सरकार ने अनिवार्य भावी घटनाओं को पहले से ही समझकर ब्रिटिश ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी के सम्मुख समझौते के कुछ प्रस्ताव रखे लेकिन इस समझौते को कार्यान्वित कराने में फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले असफल रहा। युरोपीय युद्ध की प्रतिक्रिया भारत में भी हुई और इसके फलस्वरुप 1740 ई0 में यहॉं संघर्ष प्रारम्भ हो गया। दोनो कम्पनीयों के बीच कर्नाटक की सरजमीं पर तीन महत्वपूर्ण युद्ध लड़े गये। इन युद्धों के परिणामस्वरुप फ्रांसीसीयो का भारत से राजनैतिक सत्ता प्राप्त करने तथा अपना साम्राज्य स्थापित करने के सपने चकनाचूर हो गये। 

कर्नाटक के तीन युद्ध :

कर्नाटक का प्रथम युद्ध -

कर्नाटक का प्रथम युद्ध युरोप में ब्रिटेन और फ्रांस के आपसी संघर्ष का परिणाम था। आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के समय फ्रांसीसीयों तथा अंग्रेजो ने आपस में मित्रत्रा की इच्छा व्यक्त की और अपनी अपनी गृह सरकारों को लिखा कि वे भारत में परस्पर युद्ध करना नही चाहते है। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के बात को अनदेखी कर कमाण्डर वारनेट के नेतृत्व में एक जल बेडा फ्रांसीसी व्यापार पर आक्रमण करने को भेज दिया जिसने कुछ व्यापारिक जहाजों को डुबा दिया और इनमें से एक जहाज डुप्ले का भी था। डुप्ले ने इसके विरुद्ध ला-वार्डिनों के नेतृत्व में मद्रास पर 1741 ई0 में आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। ला-वार्डिनों ने मद्रास पर कब्जा कर लिया। इससे अंग्र्रेज बौखलाए और उन्होने कर्नाटक के नबाब को वहॉ अपनी सेना भेजने पर राजी कर लिया। सेण्ट थॉमी के युद्ध में फ्रांसीसीयों ने इस सेना को धूल चटा दी तब ब्रिटिशों ने पाण्डीचेरी पर धावा बोल दिया लेकिन वे पाण्डीचेरी को जीतने में असफल रहे। लगभग सात सालों तक यह संघर्ष चलता रहा लेकिन 1748 ई0 में एक्स-ला शापेल की सन्धि द्धारा युरोप में दोनो देशों के बीच संघर्ष बन्द हो गया। भारत में भी देनो कम्पनीयों के बीच युद्ध की स्थिती का अन्त हो गया। इस सन्धि के तहत् विजित प्रदेश एक दूसरे को लौटा दिए गए और बदले में मद्रास फिर ब्रिटिशों का हो गया। इसके एवज में फ्रांस ने अमेरिका में लूवर का प्रदेश प्राप्त किया।

कर्नाटक का द्धितीय युद्ध -

फ्रांसीसी मद्रास के हाथ से निकल जाने से क्षुब्ध थे। फ्रांसीसी कम्पनी के गवर्नर डुप्ले ने अपनी सुप्रशिक्षित तथा शक्तिशाली भारतीय फौज का सही मौके पर इस्तेमाल करने की ठान ली। यह मौका उसे 1748 ई0 में मिला जब हैदराबाद के निजाम आसफजहॉ की तथा 1749ई0 में कर्नाटक के नबाब अनवरुद्दीन की मृत्यु हो गई। वहॉ उत्तराधिकार का युद्ध चला। हैदराबाद में डुप्ले ने निजाम की दूसरी बीबी के पौत्र मुज्जफरजंग का पक्ष लिया और कर्नाटक में उसने चंदा साहब का साथ दिया जो नबाब दोस्त अली का दामाद था। उसके खिलाफ मुहम्मदअली था जो मृतक नबाब का जारज संतान था। ब्रिटिशों ने इस स्थिती को भापकर विरोधी पक्ष का दामन पकडा क्योंकि प्रतिद्धन्द्धियों ने इन हिन्दुस्तानी राजनीतिक गदहों को कठपुतली की तरह इस्तेमाल करना प्रारम्भ कर दिया जो सैनिक दृष्टि  से महज एक सिफर थे। यह संघर्श तबशुरु हुआ जब उधर फ्रांसीसी तथा ब्रिटिश सरकारों में संधि जारी थी। इसलिए इसे अनाधिकृत युद्ध भी कहते है। हैदराबाद में मुज्जफरजंग को कृष्णा तट से कन्याकुमारी तक के प्रदेश की सम्प्रभुता प्रदान कर दी। 

कर्नाटक में तात्कालिक रुप से फ्रांसीसी सफल रहें लेकिन ब्रिटिशों ने त्रिचनापल्ली के किले में मुहम्मदअली को संरक्षण दिया। राबर्ट क्लाईब ने दो सौ युरोपीय तथा तीन सौ भारतीय सैनिको की छोटी सी फौज के साथ अर्काट पर हमला कर दिया तब वहॉ के शासक ने अपनी राजधानी को बचाने के लिए अपनी फौज हटा ली, उसे अर्काट भी छोड़ना पड़ा। कई लड़ाईयों में उसकी हार हुई और अन्ततः उसे मौत के घाट उतार दिया गया।

कर्नाटक में इस तरह फ्रांसीसीयों का सफाया हुआ। डुप्ले की इन कार्यवाहियों का फ्रांसीसी सरकार द्धारा समर्थन नही किया गया और उसे 1754 ई0 में पाण्डीचेरी की सन्धि द्धारा इन दोनो के बीच शान्ति कायम हुई और डुप्ले को वापस बुला लिया गया। विजित प्रदेश एक दूसरे को लौटा दिए गए। इस प्रकार कर्नाटक पर से फ्रांसीसीयों की पकड़ ढीली हो गयी लेकिन हैदराबाद में उसका प्रभाव बना रहा।

कर्नाटक का तीसरा युद्ध -

युरोप में सप्तवर्षीय युद्ध प्रारम्भ होते ही ब्रिटेन और फ्रान्स दोनो फिर विरोधी खेमें में खड़े हो गये। कर्नाटक में दोनो पक्ष फिर टकराव में आ गये लेकिन इस बार कर्नाटक के बाहर भी लडाई हुई। अंग्रेज तथा फ्रांसीसीयों ने एक दूसरे के स्थान पर आक्रमण किया और उत्तर भारत में अंग्रेज सफल रहे। बंगाल में चन्द्रनगर पहले से ही 1757 में अंग्रेजों ने जीत लिया था। दक्षिण में फ्रांसीसीयों ने त्रिचनापल्ली को लेने का प्रयत्न किया पर असफल रहे। वास्तव में युद्ध का आरम्भ 1758 ई0 से हुआ जब फ्रांसीसी गवर्नर काउण्ट डी लाली ने सेण्ट डेविड किला तथा कुछ छिटपुट स्थान जीत लिया लेकिन वह मद्रास पर कब्जा नही कर सका। लाली बडी कठिनाई से अंग्रेजो का मुकाबला करता रहा लेकिन अंत में 22 जनवरी 1760 ई0 को ’’वाण्डीवाश का युद्ध ’’ हुआ जिसमें फ्रांसीसीयों की पराजय हुयी। वास्तव में यह युद्ध निर्णायक साबित हुआ। 

1763 ई0 में पेरिस सन्धि के द्वारा भारत में भी इस युद्ध का अन्त हो गया। इस सन्धि के अनुसार फ्रांसीसीयों को भारत में अपने व्यापारिक एवं सांस्कृतिक उपनिवेश रखने की अनुमति मिली ,अब वे लडाकू सेना नही रख सकते थे। इस प्रकार वाण्डीवाश का युद्ध उनके लिए निर्णायक साबित हुआ और उनसे उनका राजनैतिक चरित्र उनसे छीन गया। डाडवेल ने लिखा है कि -’’वाण्डीवाश के युद्ध ने पिछले नौ वर्षों के कार्य को नष्ट  कर दिया। इस युद्ध ने एक तरफ डुप्ले और बूसी के कार्यो को केवल यादों के रुप में छोड दिया तो दूसरी तरफ दूसरों के लिए सिर्फ यादों का ढेर।’’  (The  battle  of  Wandivas  destroyed   the  work  of  the  previous nine  years  and   left   the  works  of  Dupleix  and  Bussy  only  memories  on  the  one  side  and  hopes   on  the   other.)

भारत में साम्राज्य स्थापना के लिए अंग्रेज तथा फ्रांसीसीयों के बीच होने वाले युद्धों में फ्रांसीसीयों को अंग्रेजों के समक्ष अन्ततः झुकना पड़ा और कर्नाटक के तृतीय युद्ध में वाण्ड़वाश के युद्ध ने निर्णय कर दिया कि भारत में अंग्रेजों की सत्ता ही स्थापित होगी। पेरिस की सन्धि द्धारा यद्यपि फ्रांस को कुछ महत्वपूर्ण नगर मिल गये लेकिन अब उसका कोई महत्व नही रहा। फ्रांसीसीयों  में अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने की क्षमता ही समाप्त हो गइ्र्र। फ्रांसीसी या तो उस समय सैनिक या अधिक से अधिक सेना शिक्षकों की स्थिती में थे। इस प्रकार कर्नाटक का तृतीय युद्ध के बाद फ्रांसीसी शक्ति भारत से लगभग समाप्त हो गई और इसने पूर्ण रुप से भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना की सारी संभावनायें नष्ट  कर दी।

फ्रांसीसीयों की असफलता के कारण :

भारत में फ्रांसीसीयों  की असफलता के विभिन्न कारण थे। कुछ परिस्थितीयॉ ऐसी होती है कि जो राश्ट्रों के भाग्य का निर्माण कर देती है। भारत में फ्रांस की भी कुछ ऐसी ही परिस्थितीयॉ थी जिसको डुप्ले की महान योजनाओं, बूसी की कूटनीति और लाली का साहस और शौर्य प्रभावित नही कर सका। भारत में साम्राज्य स्थापना के लिए होने वाले युद्धों में अंग्रेजों के समक्ष फ्रांसीसीयों को झुकना पड़ा और वाण्डीवाश के युद्ध ने निर्णय कर दिया कि भारत में अंग्रेजों की सत्ता ही स्थापित होगी। वास्तव में अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसीयों की असफलता के निम्नलिखित कारण थे  -

संगठन के प्रारम्भ में ही अंग्रेज कम्पनी की स्थिती फ्रांसीसी कम्पनी की तुलना में श्रेष्ठ थी :-

संगठल की दृष्टि  से अंग्रेज कम्पनी एक स्वत्रंत्र व्यापारिक कम्पनी थी। सामान्य परिस्थितीयों में उसके कार्यो में राज्य की ओर से हस्तक्षेप नही होता था। भारत में प्राप्त किये हुए स्थानों की दृष्टि  से भी अंग्रेजों की स्थिती सबल थी। दूसरी तरफ पूर्वी तट पर फ्रांसीसीयों के पास बम्बई के मुकाबले कोई नगर नही था। जहॉं तक मारीशस का प्रश्न है वह फ्रांसीसी से दूर था जहॉ से समय पर सहायता नही मिल पाती थी। साथ ही साथ फ्रांसीसी कम्पनी में फ्रांस का राजा तथा मंत्रियों का धन लगा होने के कारण इस पर फ्रांस की राजनीति का प्रभाव पडता था।इस कारण फ्रांसीसी कम्पनी व्यापार की ओर ठीक प्रकार से ध्यान न दे सकी और उसकी आर्थिक दशा सर्वथा दयनीय रही। ये सभी तथ्य फ्रांसीसी कम्पनी की स्थिती को दुर्बल बनाते है। इस प्रकार अंग्रेज और फ्रांसीसीयों का संधर्श होने से पहले ही अंग्रेज कम्पनी की स्थिती फ्रांसीसी कम्पनी की तुलना में श्रेष्ठ थी। आरम्भ में अंग्रेजों की भूल के कारण फ्रांसीसीयों ने सफलता प्राप्त की परन्तु उसके बाद अंग्रेजों की श्रेष्ठ स्थिती का दबाब बढता गया और फ्रांसीसीयों की असफलता आरम्भ हो गयी।

अंग्रेजों की नौ-सेना की श्रेष्ठता 

फ्रांस की तुलना में ब्रिटेन की नौ सेना की शक्ति सुदृढ थी। आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध के अवसर पर ही ब्रिटेन ने फ्रांस की नौसेना पर श्रेष्ठता स्थापित कर ली थी। डुप्ले को आरम्भ में जो सफलता मिली वह तभी तक मिल सकी थी जबतक कि ब्रिटिश नौसेना ने युद्ध में भाग लेना आरम्भ नही किया था। बाद में ला-वार्डिनो को मद्रास छोडना पड़ा और डी-एचे को दो बार परास्त होकर वापस जाना पड़ा था ब्रिटिश नौसेना की शक्ति के कारण निरंतर युरोप, बम्बई, तथा बंगाल से कर्नाटक में  सहायता पहुॅचा सके और फ्रांसीसीयों को सहायता पहुॅचाने से रोकते रहे। इस प्रकार फ्रांसीसी सेना की स्थिती अपेक्षाकृत दुर्बल होने के कारण उन्हे पराजय का मुॅह देखना पड़ा।

अंग्रेज कम्पनी की आर्थिक संपन्नता -

फ्रांसीसी कम्पनी का व्यापार और आर्थिक संपन्नता ब्रिटिश कम्पनी की तुलना में आरम्भ से ही दुर्बल थी। अंग्रेजों का आरम्भिक लक्ष्य व्यापार के माध्यम से आर्थिक उन्नति करना था।जबकि फ्रांसीसीयों ने व्यापार के प्रथम चरण में ही अपना लक्ष्य भारत में राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना था।इस कारण फ्रांसीसी कभी भी अपने युद्धों का भार उठाने में असमर्थ रहें। यह फ्रांसीसीयों की सबसे बड़ी दुर्बलता थी। एक व्यापारिक कम्पनी बिना अच्छी आर्थिक स्थिती के कही पर भी साम्राजय स्थापित करने में सफलता नही पा सकती थी। वेतन न मिलने के कारण काउण्ट-डी-लाली के सैनिक विद्रोह करने को तैयार हो गये थे। इसके विपरित अंग्रेज कम्पनी की स्थिती सर्वथा सुदृढ थी। बंगाल की प्राप्ति के बाद तो उनकी आर्थिक स्थिती और भी अच्छी हो गयी। इस प्रकार बिना आर्थिक संपन्नता के फ्रांसीसीयों ने जो साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाई थी वह एक व्यापारिक कम्पनी के लिए संभव नही था। जिस समय से डुप्ले ने बिना धन की व्यवस्था के राजनीतिक उद्येश्यों की पूर्ति के लिए प्रयत्न करने आरम्भ किये उसी समय से उसने फ्रांसीसी कम्पनी के लिए मार्ग प्रशस्त किया। 

फ्रांसीसी अधिकारियों के पारस्परिक झगडें -

फ्रांसीसी कमपनी के वरिश्ठ अधिकारी परस्पर ईष्या, द्धेष रखते थे और उनके मत कभी भी एक समान नही रहें। दूसरी तरफ छोटे अधिकारी भी योग्य साबित नही हुये। ला-वाड़िनों तथा डुप्ले में झगड़ा हुआ और डुप्ले की अनुमति के बिना ला-वार्डिनो ने अंग्रेजों को मद्रास दे दिया। डुप्ले और बूसी अच्छे मित्र होते हुए भी नीति के सम्बन्ध में मतभेद रखते थे और काउण्ट-डी-लाली ने अपने व्यवहार से सभी को असंतुष्ट कर दिया।

दूसरी तरफ अंग्रेज अधिकारी संगठित होकर अपना काम करते थे और उनमें लक्ष्य की एकता थी। क्लाईब के समान साधारण क्लर्क की योजना का भी उन्होनें सम्मान किया। इसके साथ ही साथ अंग्रेज कम्पनी को अनेक प्रतिभावान अंग्रेज कर्मचारियों की सेवाए प्राप्त हुयी जिसके कारण अंग्रेजों की सफलता निश्चित हो गई। एक भारतीय इतिहासकार ने लिखा है कि युरोपियनों के तरीके भी जो सर्वथा मिलकर कार्य करते थे अब स्पष्ट रुप से भारतीय और मुसलमानों जैसे ही हो गये थे।

फ्रांस ने भारत की ओर पर्याप्त ध्यान भी नही दिया 

तात्कालिक परिस्थितियों में फ्रांस युरोप में अपनी प्राकृतिक सीमाओं को प्राप्त करने का प्रयत्न फ्रांसीसीयों कर रहा था। भारत के अलावा वह अन्य देशों में भी अपने साम्राज्य को स्थापित करना चाहता था जिसके कारण उसकी दृष्टि भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में लग गई। इस प्रकार फ्रांस की शक्ति विभाजित होने के साथ साथ वह भारत में फ्रांसीसी कम्पनी को पर्याप्त मात्रा में सहायता नही दे सका। परिणामस्वरुप फ्रांस न केवल भारत में असफल हुआ वरन् औपनिवेशिक विस्तार में वह अंग्रेजो का मुकाबला नही कर सका।

युरोपीय राजनीति का प्रभाव 

आंग्ल-फ्रांसीसी प्रतिस्पर्धा पर युरोपीय राजनीति का पूरा प्रभाव भारत में पडता रहा। सप्तवर्षीय युद्ध ने तो अंग्रेजों और फ्रांसीसीयों के भाग्य का ही  फैसला कर दिया। औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित करने में इन दोनो प्रतिद्धन्द्धियों में वही सफलता पा सकता था जिसको युरोपीय युद्ध में सफलता मिलती। सप्तवर्षीय युद्ध में अंग्रेजों की विजय ने अमेरिका तथा भारत में स्थित उपनिवेशों में भी फ्रांसीसीयों के पराजय की घोषणा कर दी। वस्तुतः फ्रांसीसीयों की पराजय का एक प्रमुख कारण यह भी था कि वे युरोप में अंग्रेजो को नही जीत सके और स्वाभाविक रुप से इसका प्रभाव भारत में पडना आवश्यक था।

मूल्यांकन :

उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचन से यह स्पष्ट है कि कुछ विभिन्न कारणों के सामूहिक योगदान से अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसीयों को असफलता प्राप्त हुयी। कर्नाटक का तृतीय युद्ध के पश्चात भारत में उसकी शक्ति समाप्त हो गयी। डुप्ले हॉलाकि उत्साही, साहसी और एक योग्य कूटनीतिज्ञ था और प्रारंभिक चरणों में उसने पर्याप्त सफलता पाई परन्तु अन्त में वह सफल नही हो सका और उसकी असफलता बहुत कुछ मात्रा में फ्रांसीसीयों  की असफलता का कारण बना। पी0 राबर्ट्स के शब्दों में - ‘‘अप्रैल 1785 में, फ्रांसीसी कंपनी को फिर से स्थापित किया गया था, लेकिन केवल एक एकाधिकार द्वारा गढ़ा गया एक साधारण वाणिज्यिक घर के रूप में,  और अब वह एक शक्तिशाली साम्राज्य की संप्रभु मालकिन नहीं थी।‘‘ (In  April  1785 , the  French  company  was  re-established   but  only  as  a  simple  commercial  house , fortified  by  a  monopoly  and  no  longer  the  sovereign  mistress  of  a  mighty  empire.)

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